शून्यकाल
वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
संयुक्त परिवार की व्यवस्था बहुत पीछे छूट जा रही है। एकल परिवार में संवेदनाओं एवं समर्पण की कमी साफ दिखाई देने लगी है। यहां तक कि अपने वृद्ध माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशे जाते हैं। भले ही वे वृद्धाश्रम फाइव स्टार सुविधाओं वाले क्यों न हों, किंतु रहते तो अपनों से दूर हैं। जहां अपने जैसे होते हैं किंतु अपने नहीं होते। अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम के हवाले करने वाली पीढ़ी भगीरथ के पितृमोक्ष कर्म को क्या कभी समझ सकेगी?
किसी कठिन कार्य को अथक प्रयास करके पूरा करना “भगीरथ प्रयास” कहलाता है। कौन थे भगीरथ? वस्तुतः भगीरथ अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। वे अंशुमान के पौत्र और राजा दिलीप के पुत्र थे। वंशवृक्ष के क्रमानुसार देखें तो सगर के बाद उनके पुत्र अंशुमान राजा हुए, अंशुमान के बाद दिलीप और राजा दिलीप के बाद भगीरथ।
राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और इस दौरान उनके घोड़े को ऋषि कपिल ने अपने आश्रम में बांध लिया। सगर के पुत्र अश्व को ढूंढते हुए ऋषि कपिल के आश्रम में पहुंचे और उन लोगों ने आश्रम को अपवित्र कर दिया। तब क्रोधित होकर ऋषि कपिल ने उन सभी को भस्म कर दिया, जिससे उनकी आत्माओं को मोक्ष नहीं मिला और वे भटकने लगीं।
राजा सगर ने अपने पुत्रों की आत्माओं को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह सफल नहीं हुए। राजा सगर के बाद अंशुमान ने भी अपने पिता तथा संबंधियों को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह भी असफल रहे। अंशुमान ने इस बात का पता किया की अपने संबंधियों की आत्माओं को किस तरह मोक्ष दिलाया जाए? ऋषियों ने उन्हें बताया की इतनी बड़ी संख्या में आत्माओं को मुक्ति दिलाने के लिए एक बड़ी प्रवाहित जल राशि की आवश्यकता होगी जो आकाश में स्थित गंगा के माध्यम से ही संभव है। किंतु गंगा को पृथ्वी पर कैसे लाया जाए यह जटिल प्रश्न था। इस जटिल प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए अंशुमान ने अपने पुत्र दिलीप को राज्य-भार सौंपा और स्वयं तपस्या करने लगे। अंशुमान मैं तपस्या करते हुए अपने प्राण त्याग दिए किंतु उन्हें गंगा को पृथ्वी पर लाने का उपाय नहीं मिला। इसी प्रकार राजा दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने की चिंता करते हुए रोग ग्रस्त हो गए तथा उनका भी प्राणांत हो गया। तब राजा भगीरथ ने अपनी कठिन साधना और घोर तपस्या के बल से उन्होंने पहले ब्रह्मा को प्रसन्न किया और उनसे दो वर मांगे- पहला वर कि गंगा जल चढ़ाकर वे अपने भस्मीभूत पितरों को स्वर्ग प्राप्त करवा सकें और दूसरा यह कि उनको कुल की सुरक्षा करने वाला पुत्र प्राप्त हो। क्योंकि भागीरथ उसे समय तक निःसंतान थे। ब्रह्मा ने उन्हें दोनों वर दिए।
भगीरथ यह सोचकर प्रसन्न हुए कि अब वह अपने पूर्वजों को मोक्ष दिल सकेंगे किंतु उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि गंगा को धरती पर लाना आसान नहीं है। भागीरथ ने गंगा से निवेदन किया कि वे धरती पर उतरें और उनके पूर्वजों की भस्म को अपने जल में समाकर पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करें। गंगा ने भागीरथ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे आकाश से पृथ्वी पर उतरीं। किंतु गंगा का वेग इतना अधिक था की पृथ्वी की ऊपरी सतह गंगा के जल को संभाल नहीं सकी और गंगा अपनी जल राशि सहित धरती में समा गईं।
प्रथम प्रयास असफल होने पर भगीरथ दुखी तो हुए किंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक बार फिर उन्होंने गंगा से प्रार्थना की कि वह पृथ्वी पर पधारें। भागीरथ के निवेदन पर गंगा ने कहा कि वे यदि फिर पृथ्वी पर आएंगी तो पहले की भांति धरती में समझ जाएंगी। अतः उनके बैग को कम करने के लिए कोई उपाय ढूंढें। भगीरथ ने एक बार फिर ब्रह्मा की तपस्या की। इस बार उन्होंने पर के अंगूठे पर खड़े होकर एक वर्ष तक तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने गंगा को रोकने का उपाय बताते हुए कहा कि उन्हें भगवान शिव से सहायता लेनी चाहिए वह अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके उन्हें धरती में सामने से रोक सकते हैं। भगीरथ ने इस बार भगवान शिव की तपस्या की और उनसे सहायता करने का वचन मांगा। भगवान शिव ने भगीरथ को आश्वासन दिया कि वह गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लेंगे ताकि वे धरती में ना सम सकें।
भगीरथ ने एक बार फिर गंगा से प्रार्थना की कि वे शिव की जटाओं से होती हुईं पृथ्वी पर उतरें ताकि उनका वेग काम हो जाए। गंगा ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह आकाश से उतरकर शिव की जटाओं में जा पहुंचीं। किंतु वे शिव की जटाओं में इस तरह उलझ गई कि उन्हें जटाओं से बाहर निकलने का मार्ग नहीं मिला और वह धरती तक नहीं पहुंच सकीं।
एक बार फिर असफल होने के बाद भगीरथ ने भगवान शिव की फिर तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा को अपनी जटाओं से निकलने का मार्ग देते हुए उन्हें बिंदुसर की ओर छोड़ा। तब गंगा सात धाराओं के रूप में प्रवाहित हुईं। पूर्व दिशा में ह्लादिनी, पावनी और नलिनी,पश्चिम में सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु के रूप में। सातवीं धारा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलीं और उस स्थान पर पहुंची जहां भगीरथ के पूर्वजों की भस्म बिखरी हुई थी। गंगा ने भस्म को अपनी जल राशि में स्वीकार किया इसके बाद राजा भगीरथ भी गंगा में स्नान करके पवित्र हुए।
फिर गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर समुद्र तक पहुंच गयीं। इस अथक प्रयास से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि —“हे भगीरथ, जब तक समुद्र रहेगा, तुम्हारे पितर देववत माने जायेंगे तथा गंगा तुम्हारी पुत्री कहलाकर भागीरथी नाम से विख्यात होगी। साथ ही वह तीन धाराओं में प्रवाहित होगी, इसलिए त्रिपथगा कहलायेगी।”
महाभारत के अनुसार भगीरथ अंशुमान का पौत्र तथा दिलीप का पुत्र था। उसे जब विदित हुआ कि उसके पितरों को अर्थात सगर के साठ हज़ार पुत्रों को सदगति तब मिलेगी जब वे गंगाजल का स्पर्श प्राप्त कर लेंगे। तब भागीरथ ने हिमालय जाकर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से गंगा प्रसन्न गईं। किन्तु गंगा ने कहा कि वे तो सहर्ष पृथ्वी पर अवतरित हो जाएंगी, पर उनके पानी के वेग को शिव ही थाम सकते हैं, अन्य कोई नहीं। अत: भगीरथ ने पुन: तपस्या प्रारम्भ की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा का वेग थामने की स्वीकृति दे दी। गंगा भूतल पर अवतरित होने से पूर्व हिमालय में शिव की जटाओं पर उतरीं। फिर पृथ्वी पर अवतरित हुई तथा भगीरथ का अनुसरण करते हुए उस सूखे समुद्र तक पहुँचीं, जिसका जल अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। उस समुद्र को भरकर गंगा ने पाताल स्थित सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार किया। गंगा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का स्पर्श करने के कारण त्रिपथगा कहलायी। गंगा को भगीरथ ने अपनी पुत्री बना लिया।
अपने पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष दिलाने के लिए भगीरथ ने तब तक प्रयास किया जब तक वे सफल नहीं हो गए। उनका अपने पूर्वजों के प्रति इसने और सम्मान का भाव था जिसके कारण वह निरंतर तपस्या करते रहे और उन्होंने अपने पूर्वजों की भटकती आत्मा को मोक्ष दिला कर ही अपने वंशज होने के कर्तव्य की पूर्णता का अनुभव किया।
भगीरथ के प्रयासों को देखते हुए यह विचार करने की आवश्यकता है की जो पीढ़ी अपने जीवित माता-पिता के प्रति संवेदनहीन होती जा रही है वह अपने पूर्वजों के प्रति भला कैसी निष्ठा रखेगी? बाजारवाद से प्रभावित होकर पितृ मोक्ष के दिखावे वाली कार्यों को पूर्ण करना वह आत्मिक शांति अथवा पुण्य नहीं दिला सकता है जो अपने जीवित माता-पिता की सेवा करने से तथा उन्हें अपने साथ रखने से पुण्य प्राप्त होता है। क्या युवा पीढ़ी के वे लोग इस बात को समझ सकेंगे जो अपने माता-पिता को बोझ मानने लगते हैं तथा साथ रखने में संकोच करते हैं अथवा उनके लिए अच्छे से अच्छा वृद्धाश्रम ढूंढ कर अपने कर्तव्य को पूर्ण मान लेते हैं। पितृपक्ष में इस बिंदु पर चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है ताकि युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं एवं पूर्वजों के प्रति संवेदनशील होने के महत्व को समझाया जा सके।
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शून्यकाल | वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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