Thursday, September 29, 2022

बतकाव बिन्ना की | नौ दिनां कछू गल्त ने करबी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

 "नौ दिनां कछू गल्त ने करबी"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की        
नौ दिनां कछू गल्त ने करबी
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘बिन्ना! तनक साजी सी चाय सो पिला देओ!’’ भैयाजी आतई साथ बोले। मोए समझ में आ गई के कोनऊं सल्ल बींध गई हुइए जो आतई साथ भैयाजी चाय के लाने बोल रए।
‘‘हऔ! अभईं लो!’’ मैंने कही। फेर तुरतईं चाय बना लाई।
‘‘अब तनक अच्छो लगो!’’ चाय सुड़कत भए भैयाजी बोले। 
‘‘का हो गऔ? काय की सल्ल बींध गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे ने पूछो!’’
‘‘अरे कछू तो बताओ आप!’’ मैंने सोई जिद पकर लई।
‘‘अरे बो आए न, अपन ओरने के इते को नेता!’’
‘‘को? कौन की कै रए?’’ मोए कछु समझ में ने आई।
‘‘अरे बोई जमुना, जमुना पार्षद!’’
‘‘अरे, उनकी कह रै! का कर दओ जमुना भेया ने?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे तुम सोई, ऊको भैया-वैया ने कहो!’’
‘‘काए? ईमें का बुराई दिखा रई?’’
‘‘बुराई तुमाए कैबे में नई दिखा रई, बो आदमई बुरौ कहानो!’’ भैयाजी चिड़कत भए बोले।
‘‘अब बे काए के लाने बुरै बन गए? काल तक तो आप ई ऊकी तारीफ करत फिरत्ते।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, मोए का पता रओ को जमुना सोई ऐसो निकरहे।’’ भैयाजी गुस्सा दिखात भए बोले।
‘‘मनो ऐसो का कर दओ उन्ने?’’ मैंने पूछी।
‘‘हमने कही न, के ऊके लाने इज्जत से ने बोलो! बो ई के काबिल नइयां! औ फेर ऊ तो ऊंसई तुमसे लोहरो ठैरो, सो तुम तो ऊको आप-वाप ने कहो करो।’’ भैयाजी मोय समझान लगे।
‘‘हऔ, हमें पतो आए के कौन से कैसे बात करी जात आए। आप सो अपनी कहो के ऊने आपके कौन से खेत काट लए?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘बो का हमाओ खेत काटहे? अगली बेरा आन देओ चुनाव, चार से ज्यादा वोटें ने मिल पाहें ऊको!’’ भैयाजी तिन्नात भए बोले।
‘‘चार? चार कौन-कौन की? एक आपकी, एक भौजी की....!’’
‘‘हम काए खों देबी?’’ मोरी बात काटत भए भैयाजी बोल परे।
‘‘सो, औ को देहे?’’ मैंने पूछी।
‘‘एक मताई की, एक बापराम की, एक लुगाई की औ एक ऊकी खुद की! ई चार से पांचवीं वोट ऊको मिल जाए सो हमाओ नांव बदल दइयो!’’ भैयाजी उखड़त भए बोले।
‘‘ऐसो का कर दओ ऊने? चलो अब आपई बता देओ!’’ अब मोए से रओ नई जा रओ हतो।
‘‘भओ का, के कुल्ल दिनां से हमाओ एक काम अटको डरो आए नगरपालिका में। सो हम सोचई रै हते के कोई दिनां जमुना मिल जेहे सो ऊसे कै देबी के हमाओ जल्दी काम करा देओ। अभईं आज संकारे जमुना हमें दिखा गओ। हमने ऊसे कहीं के हमाओ काम नगरपालिका में अटको परो आए, सो तुम तनक जल्दी करा देओ।’’
‘‘सो का कही ऊने? करा देहे जल्दी?’’ मैंने बीचई में पूछ लई।
‘‘अरे काय खों, ऊ ससुरो कहन लगो के अभई नौरातें चल रईं सो हम कछु ऐसो-वैसो काम नईं करा सकत आएं। काए से हम नौरातें में गल्त काम नईं करत।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘ऐं? ऊने ऐसी कही? पर आपको तो गल्त काम नइयां, मोए पतो आए।’’ मोरे मों से निकर परो।
‘‘औ का! हमाओ काम ठक्का-ठाई आए! एकदम सांचो!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ऊने ऐसी काए कई?’’ मोए अचरज भओ।
‘‘हमने सोई ऊसे पूछी, के भैया जमुना तुमाओ मुंडा सो ठिकाने पे आए के नईं? हम कोनऊ गल्त काम कराबे खों नईं कै रए, जो तुम हमाए लाने भाव दिखा रए। सो बो कैन लगो के अरे नईं भैयाजी आपको काम सो सांचो आए मनो जो आपको काम कराबी सो दस जने औ आ जेहें अपनों काम ले के। अब सबको काम सांचो सो रैहे ने, औ ई नौरातें चलत में हम गल्त काम ने करत आएं औ ने करात आएं।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘जे का बात भई? मने नौरातें के आगूं-पांछू बो गल्त करत रैत आए?’’ मोए बड़ो अचरज भओ जे सुन के।
‘‘औ का! तभईं सो हमाओे मुंडा खराब हो गओ। हमई ने सो ऊको जिताबे के लाने तरे-ऊपरे एक करो रओ और जे देखो! ऊ समै कैत रओ के अब कछु ने गल्त करबी औ ने गल्त होने देबी, औ अब देखो! हमें सो अभई की ऊकी बात सुन के जी में आओ रओ के ससुरे को एक लपाड़ा दे दें, बाकी हम गम्म खा के रै गए के मोहल्ला वारे का कैहें? हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’ भैयाजी खदबदात भए बोले।
भैयाजी की कहनात सुन के मोए हंसी फूट परी -‘‘हमाओ बकरा, हमई खों सींग दिखा रओ।’’
‘‘भैयाजी, मनो अब सो ऊने सो आपई खों बकरा बना दओ।’’ मोसे हंसी रोकत ने बनीं। मोरी हंसी सुन के भैयाजी सोई हंसन लगे। मनो ईसे उनको मूड ठीक हो गओ।
‘‘भैयाजी आप तो जे सोचो के बो कम से कम नौरातें को तो लिहाज कर रओ, ने तों आजकाल नेता हरें एकऊं रातन को लिहाज नईं करत आएं। उनको सो चैबीसों घंटा औ सातो दिनां गल्त-सल्त करबे में जी लगो रैत आए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘हऔ, सो कोनऊं किरपा कर रओ का? ऊको सो पूरे बारहों मईना ईमानदारी से काम करो चाइए। चुनाव से पैलऊं खुदई कैत रओ के मोए सो कभऊं गल्त नहीं करने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई सो नेता औ जनता में फरक आए भैयाजी! उने बेवकूफ बनात बनत आए औ जनता खों सिरफ बेवकूफ बनबो आत आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘ठीक कही बिन्ना तुमने, मनो जे बताओ के ऐसे में देवी मैया ऊपे कैसे के किरपा करहें? ऐसो ध्रम-करम कोनऊं काम खों नईंया।’’ भैयाजी ने कही।
‘‘देवी मैया की सो पतो नइयां भैयाजी, पर जे सो पक्को कहानो के अगली चुनाव में आप ऊपे किरपा ने करहो!’’ मैंने हंसत भए कही।
‘‘रामधईं! कभऊं ने करबी। ससुरो लबरा कहीं को।’’ भैयाजी सोई हंसन लगे। फेर कहन लगे,‘‘अब चलन देओ मोए, एकाध चक्कर खुदई लगाने पड़हे नगरपालिका को।’’
‘‘अभई उते ने जाओ भैयाजी! अभईं बे ओरें देवी पूजा में बिजी हुइएं।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘काए? जे आॅफिस के टेम पे काए बिजी हुइएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘आप सो ऐसे पूछ रए मनो आप कोनऊं औरई ग्रह से आए हो! जे कओ के आप खों पैले काम नई परो सो आप खों पतो नइयां मनो...!’’
‘‘हऔ-हऔ, आ गई समझ में!’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले औ चलबे खों ठाड़े हो गए।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए अगली चुनाव में जमुना भैया रैं जाए गंगा भैया, मोए का करने? अगली चुनाव में सो ऊंसई मुतको समै ठैरो, तब लों सो इन्हईं खों झेलने परहे। सो आप ओरें सोई सहूरी राखो! अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(29.09.2022)
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पुस्तक समीक्षा |जीवन की कहानी कहती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा
जीवन की कहानी कहती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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(प्रस्तुत है आज 29.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के काव्य  संग्रह  "हम्म" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏)

काव्य संग्रह  - हम्म्म...
कवयित्री   - ज्योति विश्वकर्मा
प्रकाशक  - कमलकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर - 302018
मूल्य     - 150/-
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युवा कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा का संग्रह ‘‘हम्म्म...!" अपने नाम से ही विशिष्टता का बोध कराता है। विचार बोधक शब्द ‘‘हम्म्म" के साथ विविध परिस्थितियां हो सकती हैं। जैसे - तनी हुई भृकुटि, विचार मुद्रा या फिर सब कुछ समझ जाने का भाव। ‘‘हम्म्म" शब्द अपने आप में प्रतिक्रिया सूचक ध्वंयात्मक शब्द है जिसका स्वयं में कोई अर्थ नहीं है लेकिन स्वराघात के साथ वह विशिष्ट अर्थ देने लगता है।  

संग्रह की पहली कविता समाज से प्रश्न करती है ‘‘क्यों?" समाज में क्यों है इतनी अव्यवस्थाएं? क्यों है इतनी संवेदनहीनता? यह कविता एक ऐसी स्त्री पर केंद्रित है जो शहर की सड़कों पर घूमती हैं। पगली है। लोग उससे नफरत करते हैं। लेकिन रात के अंधेरे में उसका फायदा उठाते हैं। जब वह किसी वासनापूरित व्यक्ति के कारण प्रसव पीड़ा से गुजरती है, उस समय भी उसकी पीड़ा लोगों के मनोरंजन का साधन बनती है। यह संवेदनहीनता नहीं तो और क्या है? कवयित्री व्यथित है यह सब देख कर, इसलिए पगली की पीड़ा को अपनी कविता में उतारती है और समाज से प्रश्न करती है कि यह अमानवीयता क्यों? ये पंक्तियां देखिए-
और हम समझदार बनने का ढोंग करते हैं
कितनी गिरी हुई मानसिकता होगी
उसकी, जिसे दिन के उजाले में
उससे बास आती थी/ घिन आती थी
रात होते ही इत्र बन गई
अप्सरा बन गई
कौन पागल है
समझ में नहीं आता /क्यों?

     यह पहली कविता कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के संवेदनात्मक आग्रह से परिचित करा देती है। संग्रह में एक लम्बी कविता है ‘‘छोटा परिवार"। यह एक संदेशपरक कविता है जो एक सुखी छोटे परिवार के विवरण से शुरू होती है और वृद्धविमर्श करती हुई उस बिन्दु पर पहुंचती है, जहां कवयित्री कहती है कि दूसरे की सहायता हेतु कभी-कभी ग़ैरजरूरी चीजें भी खरीद लेनी चाहिए। -
कभी-कभी बेवज़ह भी
यूं कुछ खरीद लिया करो
किसी को भीख देने से अच्छा है
उसके हिस्से की एक रोटी में
उसके स्वाभिमान के हिस्सेदार
बन जाया करो।

एक और लम्बी कविता है ‘‘द्वंद्व"। इस कविता में कवयित्री सेल्फ हेडोनिज्म यानी आत्म सुखवाद की बात करती हैं। वह अपने लिए जीना चाहती हैं और अपने प्रिय से भी इसी का आग्रह करती हुई लिखती है-
मुझे जीना है /तुम्हारे साथ
ऐसे जैसे /फूलों में खुशबू
सावन में हरियाली
वह सोचा हुआ लम्हा /जो मेरे तक है
उसे कभी ज़ाहिर /नहीं किया तुम पर
शायद तुम्हें भी एहसास है
मेरे इस हसीन ख़्वाब का
इतनी शिद्दत से चाहूंगी तुम्हें
कि खुद के होने के एहसास से
संवर जाएगा /तेरा तन मन
मुझे जीना है तुम्हारे साथ।
                      
 समाज एवं परिवार में बेटियों की आज भी द्वंद्वात्मक स्थिति है। उनकी सबसे अधिक उपेक्षा की जाती है जबकि सबसे अधिक अपेक्षाएं भी उन्हीं से रखी जाती हैं। विवाह के समय लड़के के माता-पिता उससे यह वचन कभी नहीं लेते हैं कि तुम्हें दोनों कुल की लाज रखनी है। यह वचन लड़की के माता-पिता सिर्फ लड़की से लेते हैं। गोया एक लड़का बिना वचन लिए भी दोनों कुल के मान-सम्मान की रक्षा कर लेगा, लेकिन एक लड़की वचन लिए बिना ऐसा नहीं कर सकेगी। यह संदेह क्यों रहता है? जबकि सबसे ज्यादा बेटियां ही निभाती हैं। आज भी ऐसे परिवार बहुत कम हैं, जहां बहुओं को बेटियों का दर्जा दिया जाता है। कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की इसी विषय पर एक कविता है ‘‘बेटियां पराई"। अपनी कविता में वे लिखती हैं-
कहते हैं विवाह दो दिलों
और दो परिवारों का
आपसी तालमेल होता है
पर इसके बस मान लेने से
कभी हिम्मत हुई कि तुम
उस परिवार के सामने
दो घड़ी चैन से बैठ,
तुम उसका हाल चाल पूछ लो।

जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि चारों ओर भीड़ ही भीड़ नज़र आती है। यह भीड़ आपसी पहचान और भाईचारा खोती जा रही है। लोग एक दूसरे को सिर्फ स्वार्थ के आधार पर पहचानते हैं। ऐसी  दिखावटी भीड़  से वही लोग किनारा कर पाते हैं जो एकांत में जीने की इच्छा रखते हैं और दुनियादारी की झंझटों से ऊब चुके होते हैं। भीड़ पर केंद्रित अपनी कविता में कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा जिस प्रकार मनोदशा को लक्षित करती हैं उसका एक अंश देखिए उनकी ‘‘भीड़" शीर्षक कविता में-
हर तरफ की भीड़ से
अब दम घुटने लगा है
चाहे जहां चले जाओ/एक सवाल
सामने आ जाता है कि
इतनी भीड़ कहां से/आती है
बाजार से श्मशान तक
अपनी-अपनी ख्वाहिशों की भीड़

       इसी संग्रह में एक और कविता है ‘‘मेरे बस में नहीं"। यह कविता समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगति को रेखांकित करती है, जिसमें कटाक्ष किया गया है उन लोगों पर जो धर्म के नाम पर बेतहाशा खर्च करते हैं लेकिन ज़रूरतमंदों की मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं। यह एक बहुत ही संवेदनशील कविता है। एक अंश देखिए इसका-
मज़ारों पर बेहिसाब
चादरों का चढ़ना
बाहर ठंड में 
फ़क़ीर का ठिठुरना
वह मज़ार की चादर
 मैं उस तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
मंदिरों में
छप्पन भोगों का लगना
और बाहर भूख के
हाथों का फैलना
वह एक भोग का थाल
उस पालनहार से छीन कर
उन तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
    ‘‘क्या यहां पाया किसी ने", ‘‘उम्मीदों के बाजार में", ‘‘केन्द्रबिन्दु", ‘‘मैं" आदि कविताएं  इस बात की द्योतक हैं कि कवयित्री के पास अंतर्दृष्टि है जिससे वह जीवन की तमाम विसंगतियों को देख सकती है।  वह प्रेम को अनुभव कर सकती है तथा व्याख्या भी कर सकती है। ‘‘हम्म्म" काव्य संग्रह में संग्रहीत कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की  लगभग सभी कविताएं  उनकी काव्य प्रतिभा  के प्रति विश्वास पैदा करती है। बस, इन कविताओं में यदि कोई कमी महसूस होती है तो वह है शिल्पगत कमी। कई कविताएं अत्यंत गद्यात्मक हो गई हैं। इस प्रकार का जोखिम अतुकांत नई कविताओं में बहुत अधिक होता है। अतः इस जोखिम को समझते हुए अतुकांत कविताओं में भी लयात्मकता और प्रवाह बनाए रखना चाहिए।  यदि अतुकांत कविताओं में तथ्यात्मक कहन साथ ही लय और प्रवाह हो  तो  वे कविताएं  अपने सही स्वरूप को प्राप्त करती हैं। कवयित्री द्वारा अभी अपनी कविताओं के शिल्प पक्ष को साधना  शेष है। यद्यपि इस काव्य संग्रह की कविताएं कहन के आधार पर  पठनीय है तथा कवयित्री का सृजनकार्य निःसंदेह स्वागत योग्य है।    
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Wednesday, September 28, 2022

चर्चा प्लस | ज़रा सोचिए नवरात्रि के इन नौ दिनों में ! | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
ज़रा सोचिए नवरात्रि के इन नौ दिनों में !
            - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
   नवरात्रि आरम्भ अर्थात् देवी मां के नौ रूपों के नौ दिन। इन नौ दिनों में धर्मपरायण स्त्रियां अपनी भक्ति भावना के चर्मोत्कर्ष पर जा पहुंचती हैं। व्रत, उपवास और मनौतियों की पूर्ति में कोई कसर नहीं रहती है। देवी मां सभी हिन्दू स्त्रियों के लिए मानसिक संबल हैं। पूज्या हैं। किन्तु क्या इन नौ दिनों कोई भी स्त्री देवी मां के सम्मुख जाने से पहले या सामने पहुंच कर आत्ममंथन करती है कि उसने अपने स्त्री समुदाय के लिए क्या अच्छा कार्य  किया? यह प्रश्न मात्र स्त्रियों के लिए ही नहीं उन पुरुषों के लिए भी है जो सम्पूर्ण निष्ठा के साथ देवी मां की आराधना करते हैं। इसका उत्तर ढूंढे बिना क्या देवी मां से अपनी प्रार्थना स्वीकार किए जाने की उम्मीद हमें रखना चाहिए? ज़रा सोचिए!
नवशक्तिभिः संयुक्तं, नवरात्रं तदुच्यते ।
एकैवदेव देवेशि, नवधा परितिष्ठिता । ।
-अर्थात नवरात्रि नौ शक्तियों से संयुक्त है। ये आदिशक्ति के नौ रूपों की पूजा के नौ दिवस होते हैं। आदिशंकराचार्य ने यह श्लोक ’सौन्दर्य लहरी’ में लिखा है।
        नवरात्र का पहला दिन घटस्थापना से आरम्भ होता है और इस प्रथम दिवस में मां दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री का पूजन किया जाता है। शैल अर्थात पर्वत। पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण देवी को शैलपुत्री कहा गया।
वन्दे वांछितलाभाय, चंद्रार्धकृतशेखरां।
वृषारूढां शूलधरां, शैलपुत्रीं यशस्विनीं।।
- अर्थात अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करने वाली, वृष पर सवार रहने वाली, शूलधारिणी और यशस्विनी मां शैलपुत्री के प्रति मेरी वंदना है जो मुझे मनोवांछित लाभ प्रदान करे। क्या मनोवंाछित लाभ एक क्रूर ससुराली बन कर दहेज प्राप्त करना है? क्या मनोवांछित लाभ गलत तरीके से धन कमाने के लिए अपने परिजन को उकसाना करना है? क्या किसी योग्य व्यक्ति का अवसर छीन कर अयोग्य व्यक्ति को दे कर स्वार्थ पूरा करना मनोवांछित लाभ है? क्या ऐसे व्यक्तियों को देवी मां मनोवांछित लाभ दे सकती हैं?
       नवरात्रि के दूसरे दिन मां दुर्गा के देवी ब्रह्मचारिणी रूप की पूजा की जाती है। पुराणों के अनुसार शैलपुत्री ने महर्षि नारद के कहने पर जगकल्याण के लिए महादेव को पति के रूप में पाने हेतु कठोर तपस्या की थी। कठिन तपस्या के कारण ही इनका नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी पड़ा।
दधाना करपद्माभ्यां अक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि, ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
-अर्थात जिनके एक हाथ में अक्षमाला है और दूसरे हाथ में कमण्डल है, ऐसी उत्तम ब्रह्मचारिणी रूपा देवी मां मुझ पर कृपा करें। विचार करने की बात यह है कि कठोर तपस्या करने वाली ब्रह्मचारिणी उन पर कृपा कैसे करेंगी जिन्होंने समाज सुधार या बालिका सुरक्षा की सिर्फ बातें ही की हों और कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया हो। क्या समाज उस स्त्री या बालिका को सम्मान दे पाता है जो बलात्कार की शिकार हुई हो या जो किसी धोखेबाज के कारण अविवाहिता गर्भवती हो गई हो? क्या कोई स्त्री ऐसी पीड़िता का साथ देती है? या कोई पुरुष साहस के साथ तमाम विरोधों का सामना करते हुए बिना अहसान जताए सामान्य भाव से ऐसी स्त्री को जीवन संगिनी बनाता हैै? अविवाहित मां को अपने नवजात का त्याग करने को विवश करने वाली सामाजिक व्यवस्था में रमें हुए स्त्री-पुरुषों पर मां ब्रह्मचारिणी कैसे कृपा कर सकती हैं?  
       नवरात्रि के तीसरे दिन दुर्गाजी के तीसरे रूप चंद्रघंटा देवी की पूजा करने का विधान है। मस्तक पर घंटे के आकार का अर्द्ध चंद्र, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित दस हाथ। स्त्री शक्ति की प्रतीक-
पिंडजप्रवरारूढा, चंडकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं, चंद्रघंटेति विश्रुता।।
- अर्थात सिंह पर सवार और चंडकादि अस्त्र-शस्त्र से युक्त मां चंद्रघंटा मुझ पर अपनी कृपा करें। प्रार्थना आसान है किन्तु माता कैसे कृपा करें उन भीरुओं पर जो निःसक्तजन पर अत्याचार होते देखते रहते हैं और कई बार स्वयं भी अत्याचारी के पक्ष में जा खड़े होते हैं। समझना कठिन है कि जातिगत, धर्मगत, आॅनर किलिंग, घरेलू हिंसा करने वालों पर माता कैसे प्रसन्न हो सकती हैं?
    नवरात्रि के चौथे दिन दुर्गाजी के चतुर्थ रूप मां कूष्मांडा की पूजा और अर्चना की जाती है। माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जब चारों ओर अंधकार था तो मां दुर्गा ने इस अंड यानी ब्रह्मांड की रचना की थी।  
सुरासंपूर्णकलशं, रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां, कूष्मांडा शुभदास्तु मे।।
-अर्थात अमृत से परिपूरित कलश को धारण करने वाली और कमलपुष्प से युक्त तेजोमय मां कूष्मांडा हमें सब कार्यों में शुभदायी सिद्ध हो। निश्चित रूप से मां कूष्माण्ड हम पर प्रसन्न होंगी यदि हम उनके बनाए ब्रह्मांड में मौजूद इस अपनी पृथ्वी के भविष्य को बचा लेंगे। हम अपने प्रयासों में तेजी ला कर, अपनी गलत आदतों को सुधार कर, जलवायु परिवर्तन की तेज गति को धीमा कर के, पृथ्वी सहित आने वाली पीढ़ियों को बचा लेंगे। यदि हम मां के सृजन की रक्षा नहीं करेंगे तो मां हम पर कैसे प्रसन्न होंगी?
      नवरात्र के पांचवे दिन दुर्गाजी के पांचवें रूप मां स्कंदमाता की पूजा की जाती है। स्कंद शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का एक नाम है। स्कंद की माता होने के कारण ही देवी का नाम स्कंदमाता पड़ा। चतुभुर्जी मां ने अपनी दाएं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद अर्थात कार्तिकेय को पकड़ा हुआ है और इसी तरफ वाली निचली भुजा के हाथ में कमल का फूल है। बाईं ओर की ऊपर वाली भुजा में वरद मुद्रा है और नीचे दूसरा श्वेत कमल का फूल है। सिंह इनका वाहन है। क्योंकि यह सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं इसलिये इनके चारों ओर सूर्य सदृश अलौकिक तेजोमय मंडल सा दिखाई देता है।
सिंहासनगता नित्यं, पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी, स्कंदमाता यशस्विनी।।
- अर्थात सिंह पर सवार, कमल पुष्प धारण करने वाली मां स्कंदमाता हमारा शुभ करें। लेकिन जब हम बालअपराध नहीं रोक पा रहे हैं। जलसंरक्षण के लिए ईमानदार प्रयास नहीं कर रहे हैं, वन्य पशुओं के प्रति क्रूरता बरत रहे हैं, जंगल काट रहे हैं, तो स्कंदमाता कैसे हमें शुभफल दे सकती हैं?
      नवरात्र के छठे दिन दुर्गाजी के छठे रूप मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। चूंकि देवी ने महर्षि कात्यायन की पुत्री रूप में जन्म लिया था इसीलिये इनका नाम कात्यायनी पड़ा। इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं ओर के ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में और नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। बाईं ओर के ऊपर वाले हाथ में खड्ग अर्थात् तलवार है और नीचे वाले हाथ में कमल का फूल है। इनका वाहन भी सिंह है।
चंद्रहासोज्ज्वलकरा, शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यात, देवी दानवघातनी।।
- अर्थात् सिंह पर सवार देवी कात्यायनी असुर संहारिनी तथा कल्याण करने वाली हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार मां कात्यायनी का रूप धारण कर के देवी ने महिषासुर का वध किया था। ऐसी असुर संहारक माता उन व्यक्तियों पर कैसे कृपा कर सकती हैं जो हिंसा, बलात्कार, चोरी, ठगी, रिश्वतखोरी, परपीड़ा, अत्याचार, घरेलू हिंसा आदि आसुरी कर्म में संलग्न रहते हैं?  
       नवरात्र के सातवें दिन दुर्गाजी के सातवें रूप मां कालरात्रि की पूजा और अर्चना का विधान है। इन्हें तमाम आसुरी शक्तियों का विनाश करने वाला बताया गया है। इनके तीन नेत्र हैं और चार हाथ हैं जिनमें एक में खड्ग अर्थात् तलवार है तो दूसरे में लौह अस्त्र है, तीसरे हाथ में अभयमुद्रा है और चैथे हाथ में वरमुद्रा है। इनका वाहन गर्दभ अर्थात् गधा है।
एकवेणी जपाकर्ण, पूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी, तैलाभ्यक्तशरीरिणी।
वामपादोल्लसल्लोह, लताकंटकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा, कालरात्रिभयंकरी।।
- अर्थात एक वेणी ( बालों की चोटी ) वाली, जपाकुसुम ( अड़हुल ) के फूल की तरह लाल कर्ण वाली, उपासक की कामनाओं को पूर्ण करने वाली, गर्दभ पर सवारी करने वाली, अपने बांये पैर में चमकने वाली लौह लता धारण करने वाली, कांटों की तरह आभूषण पहनने वाली, बड़े ध्वज वाली और भयंकर लगने वाली कालरात्रि मां हमारी रक्षा करें। तो क्या मां कालरात्रि उन लोगों की रक्षा करेंगी जो दूसरों का जीवन अंधकारमय बनाते हैं, जो दूसरों के रास्ते में कांटे बिछाते हैं, जो जीवित व्यक्तियों को मृत घोषित कर के उनके हिस्से का सरकारी पैसा खा जाते हैं, जो नकली दवाएं और मिलावटी खाद्य बेच कर दूसरों के जीवन को खतरे में डालते हैं?
      नवरात्र के आठवें दिन मां दुर्गा के आठवें रूप देवी महागौरी की पूजा की जाती है।
श्वेते वृषे समारूढा, श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यात महादेवप्रमोददाद।।
- अर्थात सफेद वस्त्राभूषण पहनने वाली, वृषभ अर्थात् बैल पर सवारी करने वाली, त्रिशूल और डमरू धारण करने वाली, अभय और वर प्रदान करने वाली मां महागौरी शुभ करें। अशुभ कार्यों को करने वालों, अशुभ कार्यों का विरोध नहीं करने वालों तथा अशुभ कार्यों को बढ़ावा देने वालों का मां कैसे शुभ करें? जो गौवंश को सड़को पर लावारिस छोड़ दें उनका शुभ कैसे करें, यह मां के लिए भी असमंजस की बात है।
      नवरात्र के नौवें दिन मां दुर्गा के नौवें रूप मां सिद्धदात्री की पूजा की जाती है। सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली देवी मां सिद्धिदात्री।
सिद्धगंधर्वयक्षाद्यैः, असुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात, सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
- अर्थात सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, असुर और अमरता प्राप्त देवों के द्वारा भी पूजित किए जाने वाली और सिद्धियों को प्रदान करने की शक्ति से युक्त मां सिद्धदात्री हमें भी आठों सिद्धियां प्रदान करें। शास्त्रों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व नामक आठ सिद्धियां बताई गई हैं। ये आठों सिद्धियां मां सिद्धिदात्री की पूजा और कृपा से प्राप्त की जा सकती हैं। किन्तु मां उन लोगों पर कृपा क्यों करें जो स्वार्थवश दूसरों की महिमा और गरिमा को चोट पहुंचाते हैं, जो दूसरों की पीड़ा का मजाक उड़ाते हैं, जो किसी घायल या मरते हुए व्यक्ति की सहायता करने के बजाए उनका वीडियो बनाने में मशगूल रहते हैं, जो अपने माता-पिता को वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं, जो अपने बच्चों को अपराध करने से नहीं रोक पाते हैं और जो स्वयं अपनी बुरी आदतों पर संयम नहीं रख पाते हैं? मां उन्हें सिद्धियां क्यों दें?
        इस बार की चर्चा का आशय यही है कि यदि हम मां के सभी रूपों सहित देवी मां को पूर्णता के साथ प्रसन्न करना चाहते हैं, उनकी कृपा पाना चाहते हैं तो यह हमें समझना होगा कि वर्ष के 365 दिन में 356 दिन मनुष्यत्व को भूल कर मात्र नौ दिन अपना पूर्ण समर्पण दिखा कर देवी मां को भ्रमित नहीं किया जा सकता है। जब हम उन्हें सर्वज्ञानी मानते हैं तो यह याद रखना जरूरी है कि उन्हें हमारे शेष 356 दिनों के कृत्यों का भी पता रहता है। अतः हम मां के नौ रूपों के सच्चे अर्थों को समझें और उनके प्रति अपने कत्र्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करें। यदि हम स्त्रियों, बच्चों, वृद्धों, निर्बलों पर होने वाले अत्याचारों को रोक सकें, यदि हम पर्यावरण और जलवायु की क्षति को रोक सकें, जल-थल-वायु के प्रत्येक जीव की रक्षा कर सकें, यदि जाति-धर्म-लिंग-रंग आदि के भेदभाव को समाप्त कर सकें और आपसी वैमनस्य को समाप्त कर सकें तो देवी मां हम पर सदा प्रसन्न रहेंगी, यह मुझे विश्वास है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।  
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#DrSharadSingh #चर्चाप्लस #सागर_दिनकर #डॉसुश्रीशरदसिंह
#नवरात्रि #नवरात्र #देवी #दुर्गा

Sunday, September 25, 2022

Article | Climate Change and development of resilient agriculture | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


My Article published in Central Chronicle -


Climate Change and development of resilient agriculture

-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

These days we are discussing climate and resilient agricultural development. It is a very necessary discussion. But I think we seriously need to know about the pace of Climate Change so that we can make the right strategy for future agriculture.  We would never want to have the same fate as the Maya civilization found in the past. It is believed that the Maya civilization came to an end due to severe drought, while their irrigation system was of a high quality. The reason we remember the Maya civilization is that we are seeing an increasing number of environmental refugees or climate refugees all over the world these days.


I am not a zoologist, I am not an agriculturist, I am not a soilist. But I am an Earthian. It is my duty to do something to save the earth. Basically I am a writer and activist and I want a beautiful healthy society and a safe earth. Both depend on a balanced climate.

Extreme weather, sea level rise, and other climate change impacts are increasingly to blame. Here’s a look at what links flooding and our warming world. Yes! Only one thing and that is climate change. The climate change is warning us in the form of irregularities in temperature and weather.
I am a historian. So, I always put my one sight on the past and other sight on the future as an earthian. Maya civilization existed on our earth thousands of years ago but due to some reasons this civilization ended. What is the mystery behind the end of the Maya civilization, scientists are trying to unravel it. Recently another research has come out in this regard. It is said that the end of the Maya civilization was due to continuous drought for more than 100 years. For this, the researchers analyzed minerals taken from the famous 'Blue Hole' of Marine Life Belize and the lagoons found around it. They found that there was a severe drought between 800 and 900 AD, which became the main reason for the end of the Maya civilization. According to the report of 'Live Science', there was a severe drought from the 6th century to the 10th century, due to which the Maya civilization was destroyed. We would never want to have the same fate as the Maya civilization.
India is getting hit by climate change. Due to the change in the nature of rain, many rivers in the Himalayan states have changed their course. Scientists are also agreeing that the weather has started behaving strangely. Several villages in Arunachal Pradesh and Assam have been washed away in the last few decades. According to experts, many rivers have changed their course due to climate change. Northeast India receives a lot of rain. According to experts, the nature of rain has changed in the last few decades. Now it is raining heavily and for a long time. Because of this the rivers are getting flooded. Analysis of geological data has shown that some rivers have changed their course up to 300 meters away, while elsewhere they have moved 1.8 kilometers away. According to the Center for Science and Environment based in New Delhi, the rainfall is well distributed throughout the year under normal climatic conditions. But now its nature has changed due to climate change.

If the increasing rate of climate refugees is to be stopped, then first of all we have to stop all those works which are harming the climate. Trees will have to be saved and new trees will have to be planted and that plant will have to be protected honestly. The climate cannot be saved just by taking pictures and promoting it in the media, for this, sincere efforts have to be made, if we also do not want to become a climate refugee.

If we pay attention in favor of agriculture, we will hear the cries of the soil. Yea! If the soil could speak, it would have opposed the injustice being done to it. In the last few decades, we have done a great injustice to that soil. The soil which gives us grains, fruits, flowers, vegetables, we have contaminated it with chemical substances, sometimes by chemical fertilizer, sometimes by chemical and plastic waste and sometimes by drying its moisture.

The 35 varieties of climate resilient crop include a drought tolerant variety of chickpea, wilt and sterility mosaic resistant pigeon pea, early maturing variety of soybean, disease resistant varieties of rice and bio-fortified varieties of wheat, pearl millet, maize and chickpea. We need more development in agricultural sciences and practices that cope with the impact of climate change. For instance, Conservation Agriculture is considered as one of the adapted measures against climate change. Actually, resilience refers to the ability of an agricultural system to anticipate and prepare for, as well as adapt to, absorb and recover from the impacts of changes in climate and extreme weather. That means we have accepted the serious effects of climate change. But we have enough time to slow down the pace of climate change and secure the future of agriculture. If we cannot slow down the pace of climate change, then we have to learn to farm even in snow and fire, flood and drought. Can we will do it? Think about it!
It is an excerpt from the lecture given by me as invited speaker on the topic of current developments in climate resilient agriculture in the National Symposium, which was organized by Dr HS Gour Central University Sagar and NASI.
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(25.09.2022)
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#KnowYourClimate
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Saturday, September 24, 2022

संकट में है बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण | बुंदेली दरसन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मित्रों, यह है मेरा लेख संकट में है "बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण"। यह प्रकाशित हुआ है "बुंदेली दरसन" में ।
       दरअसल, दमोह ज़िले की हटा तहसील में प्रति वर्ष बुंदेली उत्सव का आयोजन किया जाता है तथा नगरपालिका परिषद हटा के द्वारा वार्षिक पत्रिका "बुंदेली दरसन" का प्रकाशन किया जाता है। कल डाक से मुझे "बुंदेली दरसन 2021" अंक मिला। डॉ. एम.एम. पाण्डेय जिस श्रम और रुचि के साथ इसका संपादन करते हैं, वह प्रशंसनीय है। वे  स्वयं फोन कर करके रचनाएं एकत्र करते हैं तथा प्रकाशन के उपरांत पत्रिका सभी के पास पहुंच जाए इसके प्रति भी जागरूक रहते हैं। अपनी माटी के प्रति उनका यह कर्तव्य भाव सराहनीय है।

Thursday, September 22, 2022

बतकाव बिन्ना की | टाईगर के अंगना में चीता घूम रए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

 "टाईगर के अंगना में चीता घूम रए"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की
टाईगर के अंगना में चीता घूम रए
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘काए बिन्ना! अपने इते चीता आ गए!’’ भैयाजी आतई साथ बोले।
‘‘अपने इते नईं, बे कूनो नेशनल पार्क में आए हैं। आप अखबार नईं पढ़त का?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘काए नईं पढ़त? भुनसारे से जोई तो सबसे पैलो काम करत आएं। औ तुम कह रईं...बाकी छोड़ो जे सब! कूनो सो सोई अपने प्रदेश में आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! बरोबर!’’
‘‘हमने सुनी के अपने इते नौरादेही अभयारण्य में सोई लाए जेहें।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, सुनी सो हमने सोई रही, बाकी ने आएं सो अच्छो!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘काए? अपने ओरन खों दूर नईं जाने परहे चीता देखबे के लाने, इतई नौरादेही में दिख जाओ करहें।’’ भैयाजी उचकत भए बोले, मनो कल चीता उते लाए जा रए होंय औ भैयाजी खों उते चीफगेस्ट बना के बुलाओ गओ होय।
‘‘भैयाजी, तनक सोचो, अपन ओरें उनखों देखबे लाने जाएं सो तो ठीक, मनो जो बे ओरे अपन ओरन खों देखबे के लाने इते आ लगे सो का हुइए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘काए हमें डरा रईं? बे ओरें काए आहें इते? बे अपने घरे रैहें, औ अपन अपने घरे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उनको घर कुठरिया घांई नईं होत आए भैयाजी! उनके लाने खूब सारो लम्बो-चैड़ो जंगल चाउने परत आए। इते कोनऊ चिड़ियाघर नई बनाओ जा रओ। जो उन्हें लाहें, जंगल में ऊंसईं राखहें जोन टाईप से शेर, बाघ, तेंदुआ हरें रैत आएं। मने उन ओरन को इते छुट्टा रखो जेहे। सो जे दिना बे उते बोर होन लगहें सो घूमत भए अपन ओरन की तरफी निकर आहें।’’ मैंने सोची के भैयाजी खों तनक औ डराओ जाए।
‘‘हऔ, ऐसो ने हुइए।’’ भैयाजी डरात भए बोले।
‘‘काए ने हुइए? चीता हरें सो पेड़ पे चढ़ सकत आएं। उनकी दौड़ सबसे तेज होत आए। बे इते काए नईं आ सकत? कहो कोऊ दिनां आपकी अटारी पे बैठे दिखाहें।’’ मैंने कही।
‘‘अब हम समझ गए के तुम हमें चिड़का रईं।’’ भैयाजी मों बनात भए बोले।
‘‘अरे, नईं मोए का करने आपखों चिड़का के? बो तो आपने पूछी, सो मैंने बता दई।’’ मैंने सोची के उनखों तनक देर डरन तो देओ।
‘‘अच्छा बिन्ना जे बताओ के जे जो चिता लाए गए औ जो और लाए जेहें, सो जे अपने ओरन खों नमीबिया वारे गिफ्ट में दे रए, के अपने ओरें इने खरीद रए?’’ भैयाजी ने मोए चैंकात भए जे सवाल कर दओ।
‘‘आपको आम खाने से मतलब के गुठलिया गिनबे से? अब चाए फोकट में मिले होंए, चाए खरीदे गए होंए, आपको का करने?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘नईं, मनो जे हमाए दिल में खयाल आओ के जो इने खरीदो गओ, सो कित्ते में खरीदो गओ हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो जेई सो मैं कह रई भैयाजी के आपको का लेने-देने ईसे के खरीदे गए, के फोकट में आए। बात जे के चीता अपने इते आ गए। ने तो इते से तो मुतकी साल पैले बढ़ा गए रए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘काए बिन्ना, हमें काए नईं लेने-देने? जो फोकट में आए होंए सो कोनऊं बात नईं, बाकी खरीदो गओ होय सो ऊमें अपन ओरन खों पइसा लगो कहानो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘येलो! जोन सी बात विपक्ष को नईं सूझ रई, बे बात आप कर रए? कोनऊं अपनी पार्टी बनाबे की सोच रए का?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘लेओ अब ईमें अपनी पार्टी बनाबे की बात कहां से आ गई? का हम कछु पूछ नईं सकत?’’ भैयाजी उखड़त भए बोले।
‘‘अब आप काए तिन्ना रए?’’
‘‘काए ने तिन्नाएं? तुम बातई ऐसी कर रईं।’’ भैयाजी औरई बमक परे।
‘‘गम्म खाओ भैयाजी! मोए सो पतो नइयां ई बारे में, जो तुमें जानने होय सो कहूं और से पतो कर लेओ।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘जे बात तुम पैले नईं बोल सकत्तीं? बाकी काए बोलतीं? तुमाओ जी सो हमें डराबे में लगो रओ।’’ भैयाजी तनक ठंडे पड़त भए बोले। फेर कहन लगे,‘‘हमें जे समझ में ने आई के कूनो मेंई काए इन ओरन खों रखो गओ? उते का खास आए?’’
‘‘जेई तो बात आए! आपने पढ़ी नईं, औ मैंने पढ़ रखी आए।’’
‘‘मने?’’
‘‘मने जे, के जे जहां से आए हैं, नमीबिया से, उते के तापमान औ इते के तापमान में कोनऊं अंतर नईं आए। उते 31-32 डिग्री रैत आए औ इते कूनो में 30 रैत आए। औ जो इते-उते के और पेड़ कटत रैंहें सो इते सोई तापमान 35-40 लो पौंच जेहे। चीता के लाने ऊंची घास वारे मैदान चाउने परत आएं। सो कूनो में उने मिल जेहें। उते नमीबिया में सवाना के घास को मैदान 2.25 लाख वर्ग किलोमीटर को आए और इते अपने कूनो में पूरो नेशनल पार्क 3200 वर्ग किलोमीटर को आए।’’ मैं भैयाजी खों बता रई हती के बे मोए बीच में टोंकत भए बोल परे।
‘‘जो का कै रईं? उते सवा दो लाख वर्ग किलोमीटर आए औ अपने इते पूरो पार्कई 3200 वर्ग किलोमीटर को आए। सो उनके लाने जागां छोटी ने परहे?’’
‘‘हऔ, जो इते नौरादेही में आ गए सो और छोटी परहे जागां। जेई से सो मैं कह रई हती के बे ओरें जब बोर फील करहें, सो अपन ओरन खों देखबे के लाने आ जाओ करहें।’’ मैंने हंस के कही।  
‘‘जे सो बड़ी चिंता फिकर की बात कहानी।’’ भैयाजी फिकर करत भए बोले।
‘‘अरे आप फिकर ने करो भैयाजी! जोन लाएं हैं उन्ने कछू सोच रखो हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों तनक सहूरी बंधाई।
‘‘नई बिन्ना! मोय सो फिकर होन लगी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे, ने डरो आप! मनो एक बात है भैयाजी!’’
‘‘का बात?’’
‘‘जे के अपने इते जे जो चीता आ गए, सो अपन ओरें कै सकत आएं के टाईगर के अंगना में चीता घूम रए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, अपने इते सो टाईगर प्रोजेक्ट पैलई से आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मैं बे प्रोजेक्ट वारे टाईगर की बात नईं कर रई। मैं सो अपने टाईगर भैया की बात कर रई!’’ मैंने ही।
‘‘जे को आ तुमाए टाईगर भैया?’’ भैयाजी चैंकत भए बोले।
‘‘लेओ आपखों नई पतो? अरे आप भूल गए बो डायलाग जब अपने शिवराज भैया ने कही रई के ‘अभी टाईगर जिंदा है’ तभई से मैं उने टाईगर भैया कहन लगी।’’
‘‘अरे हऔ, सो तुम उनकी बात कर रईं।’’
‘‘औ का, अपने टाईगर भैया के अंगना में चीता घूम रए। ठैरी ने मजे की बात?’’ मैंने कही।  
‘‘हऔ, कै तो ठीक रईं तुम! मनो अब मोए चलन देओ। काए से के तुमाई भौजी ने सेंधो नमक मंगाओ रओ। जो देर हो जेहे सो बे शेरनी नईं अब सो चीतनी बन जेहें।’’ कहत भए भैयाजी बढ़ लिए। मनो मोए उनकी ‘‘चीतनी’’ वारी बात पे खूबई हंसी आई।                        
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए चीता हरें प्रोजेक्ट एरिया में रएं चाए गांव, शहर में घूमें, मोए का करने? अपने लाने सो टाईगर भैया जिंदाबाद! बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(23.09.2022)
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Wednesday, September 21, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-5 | दलबदल विरोधी कानून पर राय,फैसले और दृष्टिकोण | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
राजनीतिक दलबदल : अध्याय-5
दलबदल विरोधी कानून पर राय,फैसले और दृष्टिकोण
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                             दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला, अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखे, अध्याय-4 में दलबदल विरोधी कानून और उसके प्रभाव को देखा। अब अध्याय-5 के रूप में इस अंतिम किस्त में देखते हैं कि आखिर दलबदल विरोधी कानून पर राजनीतिक आकलनकर्ताओं, विद्वानों और न्यायालय का क्या कहना है? इस लेखमाला के प्रिय पाठकों इस अंतिम किस्त के बाद इस विषय पर स्वतंत्र चिंतन करने की आपकी बारी रहेगी।      

(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)
            हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य निबंध है-‘‘आवारा भीड़ के खतरे’’। अपने इस व्यंग्य में परसाई ने नेताओं और युवाओं के संबंधों को लक्ष्य किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ऊंची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?’’
कमोवेश यही स्थिति निर्वाचित नेताओं एवं आमजनता के बीच है। आमजनता समझ नहीं पाती है कि जिसे चुना था आमपार्टी के लिए वह अमरूद पार्टी में पहुंच गया।
दलबदल पर रोक लगाने के लिए दलबदल विरोधी कानून लाया गया। लेकिन क्या यह दलबदल रोक सका? पिछले एक दशक से अब तक अनेक उदाहरण सबके सामने हैं। यह अनुभव किया जाने लगा कि इस कानून में रफू किए जाने की ज़रूरत है। वहीं कुछ विद्वान मानते हैं कि इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। फैजान मुस्तफा अकादमिक और कानूनी विद्वान हैं। वे नेशनल अकादमी आॅफ लीगल स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद के कुलपति रह चुके हैं। उनके अनुसार दलबदल कानून में बदलाव लाने की जरूरत है। फैजान मुस्तफा कहते हैं कि ‘‘कानून में संशोधन कर ये प्रावधान किया जाना चाहिए कि दल बदल करने वाला विधायक पूरे पांच साल के टर्म में चुनाव नहीं लड़ सकता. या फिर वो अविश्वास प्रस्ताव में वोट देंगे तो तो वोट काउंट नहीं किया जाएगा।’’
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता ने दलबदल पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि दल-बदल कानून के दायरे से बचने के लिए विधायक या सांसद इस्तीफा दे रहे हैं। लेकिन ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि जिस पीरियड के लिए वो चुने गए थे, अगर उससे पहले उन्होंने स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया, तो उन्हें उस वक्त तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा।  विराग गुप्ता के अनुसार, ‘‘देशव्यापी कोई बहुत बड़ी वजह हो, आदर्शों की बात है या कोई बहुत उसूलों की बात है। तब तो ठीक है, लेकिन बिना वजह त्याग पत्र देने के बाद अगला चुनाव आप फिर से लड़ रहे हैं. तो ये तकनीकी तौर पर तो सही है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये सारे लोग कानून में बारूदी सुरंग लगा रहे हैं। किसी भी कानून को तोड़ने वाले उसका तरीका निकाल लेते हैं, यहां जो तोड़ निकाला गया है, उसे रिसॉर्ट संस्कृति का नाम दिया जा रहा है।’’
15 जुलाई 2022 को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पीठासीन अधिकारियों के साथ एक बैठक कर के दलबदल कानून पर गहन विचार-विमर्श करने का निर्णय लिया था। इस बैठक में राज्यसभा के उपसभापति और 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पीठासीन अधिकारियों ने भाग लिया था। बैठक में दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने पर भी चर्चा हुई और कानून में संशोधन पर सीपी जोशी कमेटी की रिपोर्ट पर विचार किया गया था। लोकसभा अध्यक्ष ने दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के मुद्दे को महत्वपूर्ण बताते हुए उसे तय कर अंतिम रूप देने की बात कही थी। लेकिन बैठक में तय हुआ कि मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है और इस पर जल्दबाजी में कुछ नहीं होना चाहिए अंतिम निर्णय से पहले सभी हित धारकों जैसे पीठासीन अधिकारियों, संवैधानिक विशेषज्ञों और कानूनी विद्वानों के साथ विचार विमर्श किया जाए। दलबदल विरोधी कानून के बावजूद दलबदल की समस्या बनी रहने पर लोकसभा अध्यक्ष ने वर्ष 2021 में दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के लिए सीपी जोशी कमेटी का गठन किया था।
देश में विधानसभाओं के बारे में जानकारी के लिए एक मंच की आवश्यकता पर जोर देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ने कहा था कि एक डिजिटल प्लेटफार्म तैयार किया जा रहा है और इस प्लेटफार्म पर देश की सभी विधानसभाओं की डिबेट्स उपलब्ध होगी। उन्होंने राज्य विधानसभाओं की बहसों को साझा करने के लिए पीठासीन अधिकारियों से सहयोग मांगा ताकि एक मजबूत डिजिटल प्लेटफार्म तैयार किया जा सके। नियमों और प्रक्रियाओं की एकरूपता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि पंचायतों सहित सभी लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायी निकायों के लिए नियमों और प्रक्रियाओं की एकरूपता, जमीनी स्तर से लोकतंत्र को मजबूत करेगी।
इससे पूर्व भी दलबदल कानून को ले कर कई बार विचार-विमर्श किया गया तथा कानून में सुधार की सिफारिशें भी की गईं। जैसे -
चुनावी सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति (1990)- इस समिति ने सुझाव दिया कि अयोग्यता उन मामलों तक सीमित होनी चाहिए जहां
- एक सदस्य स्वेच्छा से अपने विधायक दल की सदस्यता छोड़ देता है,
- एक सदस्य विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव में पार्टी व्हिप के विपरीत वोट देने या वोट देने से परहेज करता है।
- अयोग्यता का मामला चुनाव आयोग के मार्गदर्शन में राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा तय किया जाना चाहिए।
दलबदल विरोधी कानून पर हलीम समिति (1998) - इस समिति की सिफारिश थी कि
- किसी राजनीतिक दल की ‘‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना’’ शब्दों को पूरी तरह से रेखांकित किया जाना चाहिए।
- किसी अन्य पार्टी में शामिल होने या सरकार में पद धारण करने पर प्रतिबंध जैसी सीमाएं निष्कासित सदस्यों पर लागू की जा सकती हैं।
- राजनीतिक दल शब्द को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए।
विधि आयोग (170वीं रिपोर्ट, 1999) - विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में दलबदल विरोधी कानून का आकलन करते हुए सुझाव दिया था कि
- विभाजन और विलय को अयोग्यता से छूट देने वाले प्रावधानों या विनियमों को हटाने की आवश्यकता है।
- दलबदल विरोधी कानून के तहत चुनाव पूर्व चुनावी मोर्चों को राजनीतिक दलों के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए।
- राजनीतिक दलों को व्हिप जारी करने में तभी कटौती करनी चाहिए जब सरकार खतरे में हो।
संविधान समीक्षा आयोग (2002) - संविधान समीक्ष आयोग ने 2002 में यह सिफारिश की थी कि
- दलबदलुओं को शेष कार्यकाल की अवधि के लिए सार्वजनिक पद या किसी भी आकर्षक राजनीतिक पद को धारण करने से रोका जाना चाहिए।
- सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए दलबदलू द्वारा डाले गए वोट को अमान्य माना जाना चाहिए।

 सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले - कुछ मामले न्यायालय तक गए जिन पर न्यायालय द्वारा महत्वपूर्ण फैसले दिए गए। इनमें से उल्लेखनीय प्रकरण हैं-
किहोतो होलोहन बनाम जाचिलु और 1992 का प्रकरण - 1992 के किहोतो होलोहन बनाम जाचिलु और अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्पीकर या अध्यक्ष द्वारा निर्णय लेने से पहले एक चरण में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है और अध्यक्ष द्वारा किए गए परीक्षण में किसी भी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाएगी। यद्यपि इस मामले से पहले अध्यक्ष या अध्यक्ष के फैसले को अंतिम माना जाता था और न्यायिक मूल्यांकन के अधीन नहीं था। इस प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था।
1994 का रवि एस नाइक बनाम भारत संघ का प्रकरण - 1994 के रवि एस नाइक बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि “एक राजनीतिक दल की स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना” शब्दों के बड़े निहितार्थ थे और इस्तीफे का पर्याय नहीं थे।
राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य 2007 का प्रकरण - 2007 के राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उल्लेख किया कि यदि स्पीकर किसी आरोप पर कार्रवाई करने में विफल रहता है या विभाजन या विलय के दावों को बिना कोई निष्कर्ष निकाले स्वीकार करता है तो वह दसवीं अनुसूची के अनुसार कार्य करने में विफल रहता है। उन्हें अपने संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन करने वाला भी माना जाता है।
वस्तुतः दलबदल पर राजनीतिक दलों की टीका-टिप्पणी का प्रश्न है तो हर वह दल सुधार और कड़ाई की मांग करता है जिसके सदस्य दूसरे दल से जा मिलते हैं। वहीं, वह दल जिसमें दूसरे दल से लोग आते हैं, दलबदल कानून के लचीलेपन को उचित ठहराता है। देखा जाए तो दलबदल का प्रकरण ही अति संवेदनशील मामला है। यदि किसी जननिर्वाचित नेता को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके मूल दल में रुकने को विवश किया जाए तो यह एक तरह से लोकतंत्र का हनन होगा। वहीं, किसी जननिर्वाचित नेता लालच में फंस कर या उसे लालच में फंसा कर एक दल से दूसरे दल में में जाने के लिए बाध्य किया जाए तो यह भी लोकतंत्र के प्रति घात होगा। दरअसल, दलबदल किसी भी जननिर्वाचित नेता के स्वविवेक एवं राजनीति से जुड़ी उसकी चारित्रिक शुद्धता का मामला है। यदि वह अपने मतदाताओं को अपने दलबदल के कारणों के प्रति सहमत कर लेता है तो उसके ध्येय के प्रति संदेह नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, दलबदल विरोधी वर्तमान स्थितियों, इसके इतिहास, इसके कानून तथा इसके प्रति दृष्टिकोण की ‘‘चर्चा प्लस’’ के अंतर्गत जारी इस लेखमाला को यहीं विराम देती हूं। अगली ‘‘चर्चा प्लस’’ में किसी नवीन मुद्दे पर चर्चा होगी। किन्तु आप सभी पाठक भारतीय राजनीति में दलबदल की स्थितियों पर चिंन्तन जारी रखें जो कि हमारे लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।    
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Tuesday, September 20, 2022

पुस्तक समीक्षा | ‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 20.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि रामकुमार तिवारी के काव्य  संग्रह  "गोपी विरह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह -  गोपी विरह
कवि       - रामकुमार तिवारी
प्रकाशक    - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य       - 100/-
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आज की समीक्ष्य कृति है ‘‘गोपी विरह’’। इसके रचयिता हैं कवि रामकुमार तिवारी। प्रत्येक कृति कवि से समर्पण मांगती है। उस पर यदि विषय भक्ति से जुड़ा हुआ हो तो यह समर्पणभाव दोहरा हो जाता है। भक्तिकाव्य वही व्यक्ति रच सकता है जो ईश्वर के किसी भी रूप के प्रति अपनी आस्था और विश्वास रखता हो। इस दिशा में कृष्ण की भूमिका कवियों द्वारा प्रायः सखावत ग्रहण की गई है। बात चल रही है कृष्ण संबंधी काव्य की तो तनिक अतीत पर भी दृष्टिपात कर लेना समीचीन रहेगा।   
श्रीकृष्ण का उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के प्रथम, अष्टम और दशम मंडल में मिलता है। इसके बाद छांदोग्योपनिषद में पहली बार कृष्ण का उल्लेख मिलता है। कृष्ण भक्ति पर रचित सबसे महत्वपूर्ण दक्षिण भारत में रचित पुराण ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ है। ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ में श्रीकृष्ण की रासलीला का मोहक चित्रण होने के पर भी राधा का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। हिंदी का कृष्ण भक्ति साहित्य महाभारत से नहीं बल्कि पुराणों से प्रभावित है। महाभारत के कृष्ण कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, द्वारिकाधीश, लोक रक्षककारी श्री कृष्ण है। पुराणों के कृष्ण माखन चोर, गोपाल, लीलाधारी, लोकरंजनकारी, नंदलाल है। कृष्ण भक्ति साहित्य ने भी लोकरंजनकारी रूप को आधार बनाया है । कृष्ण भक्ति पर काव्य सृजन करने वाले बहुत से कवि हुए हैं। जिनमें कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास, चतुर्भुज दास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, नंद दास, कृष्णदास, रसखान, मीरा बाई, रहीम, कवि गंग, बीरबल, होलराय, नरहरि बंदीजन, नरोत्तम दास स्वामी आदि कवियों का नाम प्रमुख रूप से आता है। कृष्ण भक्ति पर काव्य रचने वाले कवियों में आठ कवियों का प्रमुख स्थान रहा है। इन्हें ‘‘अष्टछाप’’ कवि कहा जाता है। ये कवि हैं- कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्ण दास, सूरदास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुज दास एवं नंददास। इनमें सूरदास को कृष्णभक्ति का सर्वश्रेष्ठ कवि माना गया है। सूरदास द्वारा रचित ‘‘सूरसागर’’ का सबसे पहला व प्रामाणिक संपादन नंददुलारे वाजपेयी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से किया। ‘‘सूरसागर’’ को कृष्णभक्ति साहित्य का हृदय कहा जाता है और ‘‘सूरसागर’’ का हृदय ‘‘भ्रमरगीत’’ को कहा जाता है।
समय के साथ हिन्दी काव्य में नवीन विषयों का प्रवेश हुआ और कालांतर में नई कविता के साथ काव्य में आमजन के दैनिक जीवन की पीड़ा और समस्याओं ने अपनी जगह बना ली। भक्तिकाव्य लगभग हाशिए पर पहुंच गया। किन्तु कुछ रचनाकार जिनका सरोकार धर्म, आघ्यात्म एवं दर्शन से था, वे भक्तिकाव्य का सृजन करते रहे। भक्ति की दुनिया में कृष्ण का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। सागर जिले के बंडा तहसील मुख्यालय में निवास करने वाले उर्दू के ख्यातिलब्ध शायर मायूस सागरी जब कृष्ण के प्रति आकृष्ट हुए तो उन्होंने ‘‘ब्रजरज’’ का सृजन कर डाला। इस कृति ने उन्हें विशेष पहचान दी।
कवि रामकुमार तिवारी की कृति ‘‘गोपी विरह’’ कृष्ण भक्ति में लिखा गया एक अनुपम काव्य है, जिसमें संवेदनाएं, संवेग, आध्यात्म एवं दर्शन सभी समंवित रूप से उपस्थित है। ‘‘गोपी विरह’’ में कुल 164 पद हैं। इस कृति पर तीन विद्वानों ने भूमिकास्वरूप अपने विचार लिखे हैं जिन्हें पुस्तक के आरम्भिक पन्नों पर रखा गया है। पहली सम्मति डाॅ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी जबलपुर द्वारा लिखी गई है। डाॅ. चतुर्वेदी लिखते हैं कि-‘‘ तिवारी जी की यह कृति मध्यकालीन और रीतिकालीन संत कवियों की ध्वनियों को समेटे हुए हैं जिसके कारण वह संत परंपरा के इस वाचिक प्रयोग में न केवल जुड़ सके अपितु साहित्य के मूल्यों की दृष्टि से इस कृति के माध्यम से उन्होंने अपने सहृदय कवित्व को साहित्य में स्थापित किया है।’’
दूसरी भूमिका संस्कृतिविद डाॅ. श्यामसुंदर दुबे की है। उनके अनुसार-‘‘गोपी विरह शीर्षक कृति श्री राम कुमार तिवारी ने अपने संपूर्ण मनोयोग एवं अनुभूति की आवेगमयी काव्यस्फूर्ति के ग्रहण क्षणों में रची है। श्री तिवारी के कवि ने एक संपूर्ण काव्य परंपरा को अपने मनोलोक में एक प्रवाह की तरह अनुभव किया है। इस परंपरा में वे निरंतर अवगाहन करते रहे हैं। एक तरह से वे अपने काव्य पुरुष को हिंदी काव्य की जातीय स्मृतियों से अनुप्राणित करते हुए अपने लिए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व अपनी कहन के माध्यम से निर्धारित करने वाले कवि हैं।’’
तीसरी सम्मति पाथेय समूह के संस्थापक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ राजमुमार ‘‘सुमित्र’’ की है। वे लिखते हैं कि-‘‘भक्तकवि श्री राम कुमार तिवारी का काव्य ग्रंथ ’गोपी विरह’ भावों की मार्मिकता और विविधता से परिपूरित है। श्री तिवारी को मैं मध्यकालीन कवि परंपरा का कुशल संवाहक मानता हूं। श्री तिवारी ने 164 पदों में अपने हृदय की भक्ति और समर्पण का नैवेद्य अर्पित कर दिया है।’’
मध्यप्रदेश के दमोह निवासी कवि रामकुमार तिवारी ने कृष्णकथा के उस पक्ष को अपने काव्य में पिरोया है जब कृष्ण ब्रज को छोड़ कर चले जाते हैं तथा ब्रज का कण-कण उनके विरह से व्याकुल हो उठता है। देखा जाए तो कृष्णकथा का यह सबसे मार्मिक पक्ष है। विरह की व्याकुलता से बड़ी कोई व्याकुलता नहीं होती और विछोह की पीड़ा से बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती है। संग्रह का पहला ही पद देखिए -
अब तौ सब सुख हरि संग जात।
जिमि उड़ि पिंजरे का पंछी पुनि हाथहिं नहीं आत।।
को अब जाए उलहिनौ दै है, पकरि यशोदहिं हाथ।
केवल एकहि काज बचो है, पीटो सब निज माथ।
सब भूषण जमुना बिच डारो, केहि लगि सजहे गात।
अंगराग की गंध ना उड़ि है, पाय परस अब वात।
नेह वारि बिनु, नेह तरुहिं के, झड़ि गिरिहैं सब पात।
‘रामकुमार’ अब नाहिं दिखत हैं, केहि विधि निज कुशलात।
   कृष्ण के जाने के बाद अब न तो यशोदा को उलाहना दिया जा सकता है और न ही अंगराग लगाने का आनन्द बचा है। कृष्ण के जाने से सारे सुख इस तरह चले गए हैं जैसे पिंजरे का पंछी यदि एक बार पिंजरे से बाहर उड़ जाए तो फिर कभी दोबारा नहीं मिलता है। इस प्रकार का वर्णन स्वतःमेव भक्तिकालीन कृष्णकाव्य की याद दिलाने लगता है। सुंदर बिम्ब और मानवीय मन की विवशता का हृदयस्पर्शी वर्णन।
कृष्ण चले गए हैं। सभी जानते हैं कि वे अब लौटकर नहीं आएंगे लेकिन आशा है कि टूटती ही नहीं है और दृष्टि मार्ग पर टिकी हुई है। इस मनोदशा का सुंदर वर्णन इस कवि रामकुमार तिवारी के पद में अनुभव किया जा सकता है-
नैन ना चैन परत पल एक।
अपलक हरि आवन मग पेखत, तजत नाहिं निज टेक।।
अपने मन की सबहिं करत हैं, बात ना मानत नेक।
निशदिन ढरत रहत झरना से, ज्यों मेघ सावनहिं मास।
आतुर हुव्ये उड़िबे खैं चाहत, जियत लै दर्शन आस।
चातक सब तिनहुं तौ केवल, धरौं एकहिं ध्यान।
हरि स्वाती जल जबहिं मिलेगौ, करि हैं बिहिं पान।
ओस बिन्दु तैं नाहिं मिटी है, कबहुं काहु की पियास।
‘रामकुमार’ चकोर सचु पावै, केबल इन्दु उछास।
       इस पद में कवि ने कृष्ण की छवि-दर्शन की तुलना स्वाति नक्षत्र के उस जल से की है जिसे पीकर चातक पक्षी अपनी प्यास बुझाता है। वे कृष्ण की तुलना चन्द्रमा के उस सौंदर्य से करते हैं जिसे देख कर चकोर के मन की प्यास बुझती है। साथ ही बड़ा कोमल-सा उलाहना है अपनी इन्द्रियों के प्रति कि वे अब बात ही नहीं मानती हैं और इसीलिए लाख रोकने पर भी हर समय आंखों से झार-झार आंसू बहते रहते हैं।
अंत में 162 वां पद, जिसमें विरह के चर्मोत्कर्ष की पीड़ा से उपजी व्याकुलता भरा बहुत कोमल शब्दों में निवेदन है-
अब तौ वेगि दरस हरि देहु।
आगे अब हमरे धीरज की, नाहिं परीक्षा लेहु।
तुम्ह बिनु कतहुं, सुखहिं नहिं पावत, वन, बीथिन अरु गेहु।
मीन नीर सम, हमहुं तलफत, हे हरि तुमहिं सनेहु।
नेह तरनि, मझंधारहिं अटकी, आ करिकैं तेहि खेहु।
‘रामकुमार’ तोहि नाहिं बरजि हैं, जो चाहौ सो लेहु।
       कवि तिवारी ने ब्रज, बुंदेली और खड़ीबोली के शब्दों का संतुलित और प्रवाहपूर्ण प्रयोग करते हुए प्रभावी गेय पद रचे हैं। मनोवेगों की यह कोमलता कविता से कहीं फिसलती जा रही है। जीवन के खुरदरे यथार्थ ने कविता के कथ्य को भी कठोर शब्दों और सपाटपन में ढाल दिया है। ऐसे समय में ‘‘गोपी विरह’’ जैसी काव्यकृति बहुत महत्वपूर्ण है। यह आरोप गढ़ना उचित नहीं है कि भक्तिकाव्य में धार्मिक आडम्बर का भाव होता है। वस्तुतः भक्तिकाव्य अपने इष्ट, अपने कर्तव्य, अपने प्रिय के प्रति समर्पण के भाव को जगाता है। यदि भक्तिकाव्य में दिखावा नहीं है और एक सच्चा आग्रह है तो उसमें काव्य का समुचित सौंदर्य देखा जा सकता है। इस आधार पर कवि रामकुमार तिवारी का काव्य संग्रह (जो कि वस्तुतः खण्ड काव्य के समान है) ‘‘गोपी विरह’’ विशिष्ट कृति है और अंधाधुनिकता का चश्मा उतार कर इसका मूल्यांकन करते हुए इस कृति को साहित्य की एक अनुपम कृति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
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Sunday, September 18, 2022

डॉ (सुश्री) शरद सिंह का National Symposium में Climate change पर व्याख्यान

डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी, डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर तथा  नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज इंडिया (NASI) के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका मुख्य विषय था-"Current developments in climate resilient agriculture". इस National Symposium के दूसरे दिन 17.09.2022 को Technical Session V में बतौर Invited Speaker मैंने भी अपना व्याख्यान दिया। मेरा विषय था - "We seriously need to know about pace of Climate Change for development of resilient agriculture" विषय पर
 अपना व्याख्यान दिया। 
    मैं अत्यंत आभारी हूं डॉ. सुबोध जैन एवं डॉ  वर्षा शर्मा की जिन्होंने मुझे देश भर से आए विद्वान वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं के समक्ष जलवायु परिवर्तन पर अपने विचार रखने का अवसर दिया। साथ ही उन विद्वानों की भी आभारी हूं जिन्होंने मेरे विचार के प्रति सहमति प्रकट की।
      हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर के  जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय के सेमिनार हॉल में आयोजित इस व्याख्यान के उपरांत मैंने मंचासीन विद्वानों को अपनी पुस्तक "Climate Change: We can slow the speed" भेंट की।
      Thanks by ❤️ Dear National Symposium Organizers 🙏🌷
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संस्मरण | भजियों-पकौड़ों का जादुई संसार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण | नवभारत | 18.09. 2022
भजियों-पकौड़ों का जादुई संसार
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
         अभी इसी वर्ष (2022 में) हिन्दी दिवस की बात है, मैं एक भावुकतापूर्ण समारोह से लौटी थी. उस समारोह को भावुकतापूर्ण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उसमें मैंने अपने दीदी डाॅ. वर्षा सिंह की स्मृति में युवा रचनाकारों के लिए एक सम्मान आरम्भ किया. लगभग सवा साल पहले कोरोना की दूसरी लहर में मैंने वर्षा दीदी को हमेशा के लिए खो दिया था. अब मैं युवा रचनाकारों में उनकी आकांक्षाओं एवं सपनों को फलता-फूलता और पूर्णता को प्राप्त होते हुए देखना चाहती हूं. अतः वह सम्मान समारोह मेरे लिए भावाकुल कर देने वाला साबित हुआ.


 बहरहाल, मैं बता रही थी कि मैं उस समारोह से लौट कर अपने घर के बाहरी दरवाजे का ताला खोलने ही जा रही थी कि काॅलोनी की ही एक भाभीजी ने मुझे आवाज दी. मैं ताला खोलती-खोलती रुक गई. भाभीजी मेरे पास आ कर कहने लगीं कि ‘‘कुछ मेहमान आ गए थे इसलिए मैं कार्यक्रम में नहीं आ सकी. प्लीज बुरा मत मानना!’’
‘‘नहीं, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है. अब मेहमानों को क्या पता कि आपको कहीं जाना है.’’ मैंने उन्हें तसल्ली दी. मेरी बात सुन कर वे उत्साहित हो उठीं और बोलीं,‘‘मेरे घर चलो, मैंने भजिए-पकौड़े बनाए हैं.’’ मैंने उन्हें छेड़ने के लिए चुटकी ली,‘‘मेहमानों के बचे हुए भजिए हैं क्या?’’ मेरी बात सुन कर वे चिंहुक पड़ीं,‘‘मारूंगी! फालतू बात मत करो! मैंने भी कहां खाया है? उस समय तो तल-तल कर मेहमानों को खिलाती रही. फिर और तल कर कैसरोल में रख लिए कि जब तुम आओगी तो हम दोनों बैठ कर चाय-पकौड़ों का आनन्द लेंगे. और एक तुम हो!’’ कहती हुईं वे हंसने लगीं और मैं भी हंस पड़ी.

मैं उनके साथ उनके घर गई. मैंने सोचा था कि एकाध कैसरोल में भजिए होंगे लेकिन जब उन्होंने चार कैसरोल मेरे सामने ला कर रखे और उनके ढक्कन खोले तो मैं देख कर दंग रह गई। हर कैसरोल में दो-दो प्रकार के भजिए-पकौड़े थे. अकेले आलू और आलू-प्याज मिक्स के पकौड़े तो बहुप्रचलित हैं. पालक, बैंगन और फूल गोभी के पकौड़े भी बहुतायत बनाए जाते हैं. उन्होंने जो स्पेशल पकौड़े बनाए थे, वे थे करेले के पकौड़े. जरा भी कड़वे नहीं. बेहद कुरकुरे. इसी तरह चुकंदर (बीटरूट) के पकौड़े और सेब के पकौड़े तो अद्भुत थे. मैंने तो उनसे कहा कि उन्हें पकौड़ों की रेसिपी बुक लिखनी चाहिए. मगर उन्हें लिखने में कतई रुचि नहीं हैं. खैर, उनकी भजिए-पकौड़े बनाने में इसी तरह रुचि बनी रहे, यही मेरी दुआ है. 

भाभीजी के घर से लौट कर मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे. उन दिनों मेरे घर भी तरह-तरह के भजिए बनाए जाते थे. यद्यपि उन दिनों पन्ना जैसी छोटी जगह में सीजनल सब्जियां ही मिला करती थीं. इसलिए फूल गोभी या चुकंदर के भजिए हर मौसम में नहीं बन सकते थे. लेकिन उन दिनों उन सब्जियों के भजिए बनते थे जो अब बाजार से तो गायब हो ही चुके हैं बल्कि कुछ तो वनस्पति के रूप में भी लुप्त होते जा रहे हैं. जैसे केनी के पत्तों के भजिए. केनी का पौधा अपने-आप बगीचे में किनारे-किनारे उग आता था. इसकी हल्की सफेद धारियों वाली मध्यम लम्बाई की पत्तियां होती थीं. इसे और क्या कहा जाता है मुझे पता नहीं है. मेरे घर में इसे केनी ही कहा जाता था. केनी के पकौड़ों के लिए मेरी और वर्षा दीदी की ड्यूटी होती थी कि हम पत्तियां तोड़ कर इकट्ठी करें. अब तो केनी के पौधे भूले-भटके ही दिखते हैं, वह भी खेतों के आस-पास. इसी तरह मुनगे (कोसें, ड्रमस्टिक) के फूलों के भजिए बनते थे, जिसके लिए हम दोनों बहनें लम्बा बांस ले कर फूल तोड़ने में जुट जाती थीं. हमारे घर के बगीचे में ही मुनगे था एक अदद पेड़ लगा था. अतः हमें कहीं बाहर नहीं जाना पड़ता था. कुम्हड़े के फूलों के पकौड़े भी बड़े स्वादिष्ट लगते थे. पोई के पत्तों के पकौड़े भी बनाए जाते थे. पोई की बेल उत्तरप्रदेश में आज भी घरों में उगाई जाती है लेकिन मध्यप्रदेश में इसे लगाने और खाने का चलन नहीं के बराबर है. हमारे घर के बगीचे की बाड़ में पोई और कुंदुरू की बेलें फैली रहती थीं. कुंदरू तो इतनी अधिक तादाद में हो जाते थे कि हम उसे पड़ोसियों में भी बांट देते थे. लेकिन पोई में किसी की दिलचस्पी नहीं रहती थी. हमारे घर में केले के पेड़ भी लगे थे. मां बताती थीं कि वे भुसावली केले के पेड़ थे. उन पेड़ों की ऊंचाई अधिक नहीं होती थी लेकिन उनमें केले के बड़े-बड़े घेर फलते थे. घेर में से केले खत्म होते-होते उसमें से फूल काट लिया जाता था और उसकी ऊपरी पंखुरियां अलग कर के भीतरी अपेक्षाकृत कोमल पंखुरियों की कभी सब्जी तो कभी पकौड़े बनाए जाते थे. कच्चे केले के पकौड़े भी बड़े स्वादिष्ट बनते थे। मुझे कुम्हड़े, नेनुआ (रेरुआ, फत्कुली) के पकौड़े बहुत प्रिय थे. मां जब भी पकौड़े बनातीं तो मेरे लिए इन दोनों में से जो भी घर में पाया जाता या फिर दोनों के पकौड़े बनातीं. बैंगन में विशेष रूप से काले बैंगन के पकौड़े बनाए जाते थे.

मुझे लगता है कि हर सब्जी के भजिए-पकौड़े बनाए जा सकते हैं. मैंने बचपन में फूलगोभी के पकौड़े नहीं खाए थे. क्योंकि मां ने कभी बनाए ही नहीं. वह तो बाद में मैंने ही फूलगोभी के पकौड़े अपने घर में बनाना शुरू किया. इसे बनाना सीखने का भी अपना एक मजेदार किस्सा है. हमारे सगेसंबंधी समान भाई साहब गणेश सिंह जी की पत्नीं यानी मेरी भाभीजी को पकौड़े बनाने में महारत हासिल रही है। वे लोग उन दिनों पन्ना के एमपीईबी के क्वार्टर्स में रहा करते थे, पन्ना-सतना मार्ग पर। हम लोग अकसर उनके घर जाया करते थे. उस समय तक वर्षा दीदी की भी एमपीईबी में नियुक्ति हो चुकी थी. इस तरह हमारा दोहरा रिश्ता हो गया था. एक बार जब हम लोग उनके घर गए तो भाभीजी ने फूलगोभी के पकौड़े बनाए. इससे पहले मैंने फूलगोभी के पकौड़े कभी नहीं खाए थे. मुझे उनका आकार-प्रकार देख कर लगा कि ये अवश्य अंदर से कच्चे होंगे. लेकिन जब मैंने खाया तो बस, खाती ही चली गई. हर पकौड़ा चाय की प्लेट के आकार जितना बड़ा था और अच्छी तरह से तला हुआ था. मुझे नए-नए व्यंजन बनाने का शौक तो बचपन से ही था, सो मैं सम्मोहित-सी उनके रसोईघर में जा पहुंचीं. वहां मैंने उन्हें फूलगोभी के पकौड़े बनाते देखा और उसे अपने दिल-दिमाग में नोट कर लिया. दूसरे दिन जब तक मैंने उसी पद्धति से फूलगोभी के पकौड़े बना कर आजमा नहीं लिए तब तक मुझे चैन नहीं पड़ा. सच्चाई तो ये है कि भाभीजी को भी पता नहीं था कि मैंने उनसे फूलगोभी के पकौड़े बनाना सीख लिया था. इसी तरह जिला अस्पताल में एक नर्स थीं. जिनका नाम था फ्लोरा सिल्वा. वे केरल की थीं. वे सांवली रंगत की थीं लेकिन उनका स्वभाव बहुत ही मधुर और आत्मीयता से परिपूर्ण था. मां से उनकी अच्छी मित्रता थी. हम दोनों बहनें उन्हीं से इंजेक्शन लगवाना पसंद करती थीं. क्योंकि उनका हाथ इतना सधा हुआ था कि हमें तनिक भी दर्द नहीं होता था. बचपन में हामिद बेग कम्पाउण्डर अंकल के बाद इंजेक्शन के मामले में फ्लोरा आंटी हमारी पहली पसंद थीं. फ्लोरा आंटी ने ही सबसे पहले हमें कटहल के पकौड़े खिलाए थे. इससे पहले हमने कटहल के पकौड़े कभी नहीं खाए थे. मां ने फ्लोरा आंटी से कटहल के पकौड़े बनाना सीखा और उसके बाद हमारे घर भी कटहल के पकौड़े बनने लगे. यद्यपि उसे बनाने में कुछ अधिक समय लगता था. यूं भी मुझे कटहल पसंद नहीं है इसलिए मुझे उसे सीखने में भी कभी रुचि नहीं रही. बदले में मां ने उन्हें कुंदुरू के पकौड़े बनाना सिखाया था. इस तरह देखा जाए तो भजियों-पकौड़ों ने अंतर्राज्यीय मित्रता कायम की और परस्पर एक-दूसरे के रसोईघर में अपनी जगह बना ली.

पहले महानगरों के जीवन पर आधारित कहानियों में ही ब्रेड-पकौड़ों के बारे में अधिकतर पढ़ने को मिलता था. मेरे बचपन में मेरे घर में कभी ब्रेड-पकौड़ा नहीं बना. जब मैंने काॅलेज में दाखिला लिया, तब भी पन्ना शहर में कोई ऐसा होटल नहीं था जिसमें ब्रेड-पकौड़ा मिलता. पहली बार मैंने सतना के बसस्टेंड पर ब्रेड-पकौड़ा खाया था. दरअसल मैं और वर्षा दीदी सुबह की बस से रीवा जा रहे थे. वह बस सुबह साढ़े पांच या छः बजे पन्ना से रीवा के लिए रवाना होती थी. लगभग आठ बजे बस सतना बसस्टेंड पहुंची. हमें भूख-सी लगने लगी थी. मगर बसस्टेंड के धूल-धूसरित वातावरण में खुला रखा खाद्यपदार्थ खाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी. तभी वर्षा दीदी की दृष्टि पकौड़ों के ठेले पर पड़ी। कैरोसिन-स्टोव पर ब्रेड-पकौड़े तले जा रहे थे. दीदी बस से उतर कर झटपट दो पकौड़े खरीद लाईं. खौलते तेल से निकले ताजे पकौड़े हर तरह के प्रदूषण से मुक्त थे. वह ब्रेड-पकौड़ा इतना स्वादिष्ट लगा कि दीदी ने खिड़की से ही आवाज दे कर दो पकौड़े और मंगा लिए. वाकई बेहद नरम और खटमिट्ठी चटनी से भरे हुए ब्रेड-पकौड़े. शायद उनमें पनीर की छीलन भी डाली गई थी. उस दिन के बाद से तो मैं ब्रेड-पकौड़ों पर फिदा हो गई. 

पहले चाय-पकौड़े का मुहावरा चलन में नहीं था. भजियों और पकौड़ों के साथ टमाटर, आंवला, धनिया-मिर्च, अमचूर, इमली आदि की चटनी या अचार या फिर दही की चटनी अथवा मठा दिया जाता था. भजिया-पकौड़ों के बाद चाय के बदले कप भर मठा पीने का चलन अधिक था. लेकिन अब चाय के बिना पकौड़ों का मजा अधूरा लगता है. साथ में चटनी भले ही न हो लेकिन पकौड़ों के बाद में चाय जरूरी है. यही तो है कि समय के साथ चलन बदले हैं, मुहावरे बदले हैं लेकिन भजियों-पकौड़ों का बुनियादी स्वाद आज भी वही है. उनका जादुई संसार भी वही है पहले जैसा. बस, बदली हुई जीवनशैली में अब इन्हें खाने का चलन कम होता जा रहा है.                         
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Article | Is climate change changing the way of our interaction? | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


My Article published in Central Chronicle -
Article
Is climate change changing the way of our interaction?
     -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

      With the passage of time, there has been a rapid change in the way of communication. If people in their 40s to 50s remember their childhood days, they would find that they were afraid of answering their parents in their childhood. But today this trend has reduced in children. They insist on their parents, openly question and answer them and sometimes even do hate speech. This trend of hate speech has also increased rapidly among youth and now this type of trend is being seen in adults as well. It is generally believed that social change is the biggest reason for this. But as a result of a study recently, the startling fact came out that climate change is also an important reason for this. Is it really? Let's see the facts.


The campaign of #NoHateSpeech is being run all over the world. Sensitive people all over the world are concerned about the trend of hate speech being practiced. Interpersonal communication has changed rapidly in the recent past. People start venting their anger on each other even on small things. The role of social media in this direction is always blamed. Actually, social media comes before us as a mirror of social behavior. Trolling anyone on unnecessary things has become a trivial thing today. In order to damage the career of any person, his personal life is tossed. The trend of "red tagging" has also increased. If seen, this is unbalanced behavior of human beings. Such negative behavior hinders the work of those who are doing the right deeds. For example, those running the campaign of climate change awareness were trolled in Europe and America. they made a victim of hate speech. They are "red tagged". This is just an example. Its darker shades are seen in the field of politics. Political parties troll personal life of opposition's person to break the morale of their opposition. He is made a victim of hate speech. It is also said that some political parties hire trollers properly.

After all, what has happened that there is such a difference in the behavior of interaction? Is social change only responsible for this or is climate change also responsible for this? When the matter has come to the relationship between climate and mind, just remember the full moon night of the full moon. Scientists believe that on the night of the full moon, the mind is more restless and there is less sleep. Thoughts of committing suicide or murder increase in the mind of weak-hearted people. According to scientists, the effect of the moon is very strong on this day, due to these reasons the neuron cells in the blood inside the body become active and in such a situation the person remains more excited or emotional. In astrology, the moon is considered the god of the mind. The moon is not visible on the new moon day. In such a situation, people who are very emotional, this thing has the most effect on them. The person who is negative thinking takes his negative power under its influence. Amavasya is the time of union of Sun and Moon. On this day both stay in the same zodiac.
Well, no astrology, we talk about only scientific facts. Temperature is directly related to our mind and behavior. Too much heat or cold both fill our with anger and hatred. We are in the best mood at 12 to 21 degrees Celsius. Anger also comes less during this time. The Lancet Planetary Health studied the behavior of people living in 773 US cities by temperature. In this it was found that anger increases in a person when it is too hot or too cold and when he is unable to show anger or hatred physically, he expresses it online. The report said that during the US heat wave, the cases of online hate speech or hate text increased significantly. Researchers say that 25% of Black and 10% of Hispanic people in America are the most victims of online hate speech. Changes in the weather have resulted in four times more people in the LGBTQ community being victims of online hate speech. The team at The Lancet Planetary Health, led by Leonie Wenz of the Potsdam Institute for Climate Impact Research, examined 400 million tweets in the US over the 6 years from May 2014 to May 2020. For this, he prepared an algorithm from artificial intelligence, which recognized hate speech. In this, 7 crore 50 lakh tweets were of hate speech, i.e. 2% of the total tweets. The team checked which tweets were from which area and what was the weather like there that day. Where the temperature was 15 to 18 degree Celsius, there was a slight increase in hate speech tweets. People living in the temperature of -3 to -5 degree Celsius have 12.5% more hate speech than others.

Another fact that In desert areas where the temperature was 42 to 45 degrees Celsius, tweets containing hate speech increased by 22%. It is surprisingly came out that those who are unable to tolerate the sudden change in temperature, they also start doing hate speech. Even in areas with higher average incomes where people can afford ACs, when the temperature rises, people have angry hate tweets. They say, but it is not that we are not able to harmonize with the weather. For hate speech, the team of researchers took the United Nation's definition as the standard. According to this, any kind of derogatory remarks on any person or group on the basis of their religion, race, nationality, color, gender or any other identity comes under hate speech.

We all know that climate change is not a one day, one month or one year event. This change has been happening for years. Climate change is causing changes in the weather and the temperature of the earth. This change is affecting the way humans interact. Be it too cold or too much heat, both affect the human brain. That is why the rapidly increasing pace of climate change has to be slowed before fatal changes in human behavior can occur.
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(18.09.2022)
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Friday, September 16, 2022

बतकाव बिन्ना की | कागा की जांगा डिबेट वारन खों बुला लेओ | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात


 "कागा की जांगा डिबेट वारन खों बुला लेओ"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की
कागा की जांगा डिबेट वारन खों बुला लेओ
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘काए भैयाजी, कुल्ल दिनां लगा दए लौटबे में। आंठें की बोल के गए रए औ अबे करै दिनां में लौटे हो!’’ मैंने भैयाजी खों उलाहना दओ।
‘‘अरे का कहो जाए बिन्ना! तुमाई भौजी को कोनऊं ठिकानों नइयां। मनो आंठें की लौटबे की तय रई पर तुमाई भौजी खों लगो के दमोए लों आएं हैं सो पन्ना निकर चलें। पन्ना पौंचें सो कहन लगीं के अब सतना वारी चाची से मिलबे खों इतई से सतना चलो। चाची ऊंसईं सयानी ठैरीं, मनो उम्मर हो चली है उनकी। हमें सोई लगो के फेर के आबे खों टालबी सो कहूं मिलीं के ने मिलीं। सो, उतई से सतना निकर गए। अब सतना पौंचें सो तुमाई भौजी कहन लगीं के इते लो आए औ मैहर ने गए सो शारदा मैया नराज हो जेहें। अब ने तो तुमाई भौजी को नराज करो जा सकत्ते और ने शारदा मैया खों। बस, जेई-जेई में देर होत चली गई। मनो, इते का होत रओ? इते की कछु सुनाओ।’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘इते कछू खास नई भओ! बाकी आप ओरन की कमी खटकत रई। हिम्मा की मताई सोई आपके लाने पूछ रईं हतीं। हऔ, बाकी नई बात जेई आए के हिम्मा की मताई व्हाट्सअप्प चलान लगी आएं।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘बा डोक्को? सांची कै रईं?’’ भैयाजी अचरज में पड़ गए।
‘‘हऔ, कसम से! मोए सो खुदई यकीन नई हो रओ हतो। बाकी अब सो उन्ने मोए सोई अपने ग्रूप में जोड़ लओ आए औ संझा-संकारे देवी-देवता की फोटुएं भेजत रैत आएं। औ इत्तई नईं, उने राजनीति की सोई अच्छी जानकारी हो आई आए। मैं तो सोच रई कि अगली चुनाव में उनई को ठाड़ो करा दओ जाए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, बात तो तुम ठीक कै रईं, मनो आए अचरज की बात!’’ भैयाजी को यकीन ने होरओ हतो।
‘‘ख्ुादई देख लइयो।’’ मैंने कही। बाकी मोए लगो के भैयाजी को ध्यान कहूं औरई आए। बे इते-उते मुंडी घुमा-घुमा के देख रए हते। सो मैंने पूछई लई,‘‘जे आप इते-उते का हेर रए? औ कछू चिन्ता-फिकर में दिखा रए! का हो गओ?’’
‘‘नईं कछु नई भओ! बाकी परेसानी की बात जे आए के करै दिन सो चल रए, मनो कागा एक नईं दिखा रए। हमें सो जे समझ में नईं आ रई के सबरे कागा किते चले गए? जब हम छोटे हते सो इते एक नींम को पेड़ हतो, ऊमें मुतके कागा बैठे रैत त्ते। औ जो कहूं कोनऊं कछू उनके लाने खाबे खों देत्तो सो बे नीचे उतर आउत्ते। अब एकऊं नईं दिखात। अब करै दिनां में कागा खों रोटी, बरा सबई कछु खिलाने परत आए, सो मोए समझ में ने आ रई के का करो जाए?’’ भैयाजी फिकर करत भए बोले।
‘‘अब कागा काए ने आ रए ईको उत्तर सो आप ई ने दे दओ।’’ मैंने कही।
‘‘हमनें का उत्तर दे दओ?’’ भैयाजी अचरज से पूछन लगे।
‘‘आप ई सो बोल रए के जब आप छोटे हते सो इते एक नींम को पेड़ रओ औ ऊपे कागा बैठे रैत्ते। सो अब अपाई ओरन ने नीम को पेड़ कटा डारो, सो कागा काए पे आ के बैठें? अपन ओरन के मूंड़ पे आ के सो ने बैठहें। नींम के पेड़ पे बे ओरें अपनो घोंसला बनाऊत आएं, रैत आएं अब उन ओरन को घर नई रओ सो बे काए के लाने इते ढूंकहें? आपई बताओ?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ बिन्ना कै सो तुम सांची रईं, मनो अब का करो जाए? तुमाए कहे से हमने परकी साल एक पेड़ सो लगा दओ आए, पर ऊको बड़े होने में टेम लगहे। अबे का करो जाए? कछु आईडिया देओ के कागा हरों को कैसे बुलाओ जाए? छत पे बरा डाल देओ सो चिरइयां खा रईं, ने तो गिलरियां खा जात आएं। अब कागा ने खैहें सो पुरखन खों कैसे मिलहे?’’ भैयाजी के माथा पे चिन्ता की लकीरें दिखान लगीं।
‘‘अरे कछु नईं भैयाजी! आप फिकर ने करो! मोरे पास आइडिया है न!’’
‘‘कोन सो आइडिया? कैसो आइडिया? तनक जल्दी बताओ।’’ भैयाजी जल्दी मचात भए पूछन लगे।
‘‘आप बे पंख वारे कागा खों छोड़ो आप सो टीवी के डिबेट वारे कागा बुला लेओ जिमाने के लाने।’’ मैंने कही।
‘‘का मतलब? हमें कछू समझ में ने आई?’’ भैयाजी मोरो मों हेरन लगे।
‘‘ईमें ने समझ पाने वारी कोनऊ बात नइयां।’’ मैंने कही।
‘‘नईं, सो टीवी के डिबेट वारन को कागा से का मेल?’’ भैयाजी को कछु समझ में ने आ रओ हतो।
‘‘ भैयाजी, सुनो आप! जे बताओ के कागा हरें कोन टाईप से बोलत आएं?’’
‘‘कांव-कांव करत आएं, जे सो सबई खों पतो आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ टीवी के डिबेट में बैठन वारे का करत आएं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बे सोई कांव-कांव करत रैत आंए! सबरे एकई संगे ऐसे चालू हो जात आएं के कोनऊं की एकऊ बात पकर में ने आत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, हमने अभई दो दिनां पैले एक टीवी चैनल में एक डिबेट देखी रई। बाकी आजकाल मैंने छोड़ रखो आए, काए से जे कांव-कांव में मोरो जी नई लगत। पर ऊ दिनां अपने सागर की सीएम राईज स्कूल की घटना पे डिबेट हती, सो मैंने सोची के देख लओ जाए।’’
‘‘कोन सी घटना?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे, बोई वारी, जीमें शिक्षक दिवस पे स्कूल वारन ने बैनर पे सर्वपल्ली राधाकृष्णन की फोटू लगाबे के बजाए राधा-कृष्ण की फोटू लगा दई रई।’’
‘‘हैं? मोय नई पतो! शिक्षक दिवस पे हम इते कोन हते।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, बड़ो बवाल मचो रओ। अखबार में छपो, टीवी पे आओ। औ ओई पे डिबेट रखी गई रई। एक हते कांग्रेस के, सो एक हते भजपा के। दोई जो चालू भए सो बेफालतू की बातन पे बहस करन लगे। एक ने दूसरे खों यार बोल दओ, सो दूसरे ने बोई शब्द पकर लओ। असली मुद्दा गओ चूला में, औ बे दोई परिवार औ पुरखा पे पौंच गए। मोए सो ऐसो लग रओ हतो के कहूं दोई बाहरे से तै कर के सो नई आए के अपन ओरन खों मुद्दा की बात पे कछु बोलनेई नइयां। ऊंसई-ऊंसई टेम पूरो कर दओ। ऊ एंकर कछू बोलई ने पा रओ हतो। मोरो तो मूंड पिरान लगो रओ।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘हऔ, मोरो सोई मूंड पिरान लगत आए उनकी कांव-कांव से।’’ भैयाजी सहमति में मुंडी हिलात भए बोले।
‘‘जेई से तो मैं कै रई के कागा ने मिलें सो डिबेट वारन खों बुला लेओ। इते सोई एक डिबेट करा दइयो, सो बे ओंरें इतई कांव-कांव करन लगहें। आपको काम बन जेहे। कहो कैसी कई?’’
‘‘तुमाए ई आईडिया में दम तो कहानो! मनो जे ओंरे मिलहें कहां?’’ भैयाजी खों आइडिया जम गओ।
‘‘कछु सो त्राहिमाम भैया जैसे नेशनल चैनल वारे अपने इते मिल जेहें, बाकी जो उन्ने मना करो, सो यूट्यूब पे न्यूज चैनल चलाबे वारे सो कहूं गए नइयां।’’ मैंने कही।
‘‘चलो, हम पूछ के देखत आएं उमेश त्राहिमाम से, मनो बे बड़े टीवी चैनल वारे ठैरे, सो उनको मानबो मुस्किलई आए। पर जे यूट्यूब के न्यूज चैनल वारे सो अपनी इतई गली में चार ठइयां आंए। उने सो माननेई परहे।’’ कहत भए भैयाजी यूट्यूब के न्यूज चैनल वारन से बात करबे चल परे, काए से उने कागा सो जिमानेई आए।                   
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए भैयाजी खों यूट्यूब के न्यूज चैनल वारे मिलें, चाए नेशनल चैनल वारे, मोए का करने? बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!  
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(16.09.2022)
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