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Wednesday, March 30, 2022

चर्चा प्लस | जन्मतिथि विशेष : विश्वविख्यात चित्रकार वैन गॉग जिन्हें जीते जी पागल समझा गया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

चर्चा प्लस |  जन्मतिथि विशेष :
विश्वविख्यात चित्रकार वैन गॉग जिन्हें जीते जी पागल समझा गया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       कई बार चित्रकार के जीवन काल में उसके कला की अवहेलना कर दी जाती है किंतु उसके मरणोपरांत उसकी वही चित्रकारी उसे अमरता प्रदान कर देती है। यह एक विचित्र स्थिति है। यह स्थिति तब बनती है जब कला प्रेमियों द्वारा कला की अपेक्षा कलाकार के निजी जीवन या व्यक्तित्व अथवा उसकी अनचाही कमजोरियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ विश्व विख्यात चित्रकार वैन गॉग के साथ। आज उनकी जन्मतिथि पर चर्चा उनके बारे में।   
चित्रकार होना आसान नहीं है इसमें कल्पना कला क्षमता समय और धन - चारों खर्च होते हैं और तब कहीं एक कलाकृति कैनवास पर उभरती है उसे देखने वाले यदि समझें और सराहें तो वह सफल कृति मानी जाती है किंतु यदि उससे अनदेखा कर दिया जाए अथवा नकार दिया जाए तो चित्रकार के लिए यह सर्वाधिक कष्टप्रद और अवसाद भरा होता है। प्रत्येक चित्रकार अपनी कृति को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते समय यही आशा करता है कि जो उसने अपने चित्र में प्रस्तुत किया है, उसे दर्शक समझें और आत्मसात करें। जो पेंटिंग रूपी कलाकृति दर्शकों को पसंद आती है, रुचिकर लगती है, उसकी कीमत करोड़ों रुपयों तक हो सकती है अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता है। यह अर्थ तंत्र का प्रभाव है चित्रकला की सफलता या असफलता पर। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है किंतु यही कठोर सत्य है। कई बार चित्रकार के जीवन काल में उसके कला की अवहेलना कर दी जाती है किंतु उसके मरणोपरांत उसकी वही चित्रकारी उसे अमरता प्रदान कर देती है। यह एक विचित्र स्थिति है। यह स्थिति तब बनती है जब कला प्रेमियों द्वारा कला की अपेक्षा कलाकार के निजी जीवन या व्यक्तित्व अथवा उसकी अनचाही कमजोरियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ विश्व विख्यात चित्रकार वैन गॉग के साथ।
वैन गॉग का जन्म 30 मार्च 1853 को जुंडर्ट, नीदरलैंड्स में हुआ था।  डच मूल के उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे विन्सेंट विलेम वैन गॉग का बचपन एक शांत, गंभीर बच्चे के रूप में व्यतीत हुआ। युवा होने पर वे आर्ट डीलर का काम करने लगे। इस दौरान उन्हें  लंदन में जाकर रहना पड़ा। लंदन में वैन गॉग को अपनी मकान मालकिन की बेटी इयूजेनी लोयर से प्रेम हो गया। इस एकतरफा प्रेम का कब अंत हो गया  इयूजेनी द्वारा उनके प्यार को ठुकरा दिया गया। इससे वे हताश हो गए। उन्हें जीवन निस्सार लगने लगा। उनके मानसिक स्वास्थ्य में परिवर्तन आने लगा। वे अवसादग्रस्त रहने लगे। जिस पर लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया और स्वयं उन्होंने भी अपनी चिंता नहीं की। कुछ समय बाद वे एक चर्च से जुड़ गए और उन्हें एक मिशनरी के रूप में पश्चिम बेल्जियम जाना पड़ा। बेल्जियम से लौटने के बाद उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया। वे गहन अवसाद में चले गए। उनके छोटे भाई थियोडोरस वैन गॉग भी आर्ट डीलर थे। उन्होंने वैन गॉग की बहुत मदद की। थोड़ा स्वास्थ्य सम्हलने के बाद वैन गॉग चित्रकारी आरंभ की। यह लगभग वर्ष 1881 का समय था। थियोडोरस ने डीलरशिप के काम का जिम्मा अपने ऊपर लिया तथा अपने भाई वैन गॉग को पूरी तरह चित्रकला  में समर्पित हो जाने का अवसर दिया। थियोडोर को लगा कि इससे वैन गॉग अवसाद से बाहर आ सकेंगे।
सन् 1885 से 1890 तक वैन गॉग ने जो पेंटिंग्स बनाईं वे आज विश्व की महान पेंटिंग्स में गिनी जाती हैं। सन् 1885 में ‘द पोटैटो ईटर्स’ पेंटिंग बनाई। इसमें उन्होंने ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों को दिखाने के लिए मोटे खुरदरे हाथों वाले किसान परिवार को चित्रित किया जो मुख्य रूप से आलू खाकर रहते थे अर्थात जिन्हें अच्छा भोजन नहीं मिल पाता था। अपने चित्र के द्वारा वह तत्कालीन चित्रकला में गरीब तबके को प्रमुखता देना चाहते थे। इस चित्र में  गरीबों के जीवन की कठिनाइयों को दिखाने के लिए गहरे रंगों का प्रयोग किया। एक ऐसा अंधेरी घुटन भरा वातावरण जिसे जीना गरीबों की विवशता थी।
सन् 1887 में ‘सनफ्लॉवर्स’ पेंटिंग बनाई। यह एक चित्ताकर्षक पेंटिंग है।  वान गॉग ने पीले रंग के केवल तीन शेड्स  का उपयोग करके रंगों का एक शानदार सामंजस्य प्रस्तुत किया।  इसका सरल रूपांकन आज भी लोगों को आकर्षित करता है। ‘सनफ्लॉवर्स’ पेंटिंग से एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। यह पेंटिंग एक जापानी संग्रहकर्ता को बेची गई थी और जहाज से सन 1920 में जापान भेजी गई थी। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ओसाका पर अमेरिकी हमले में लगी आग से ये नष्ट हो गई थी। एक कला अखबार के संवाददाता और प्रबंधक मार्टिन बेली को यह तस्वीर अपनी पुस्तक ‘‘द सन फ्लॉवर्स आर माइन: द स्टोरी ऑफ वैन गॉग्स मास्टरपीस’’ के लिए शोध के दौरान मिली। मार्टिन के अनुसार, ‘‘मैंने वैन गॉग के उन पत्रों को खोजा, जिसमें उन्होंने लिखा है कि वे जब सन फ्लॉवर्स की पेंटिंग बना रहे थे तो इसे नारंगी रंग के फ्रेम में रखना चाहते थे। जो कभी नहीं देखा गया।’’ कला विशेषज्ञ मार्टिन के अनुसार ‘‘वैन गॉग का अपनी पेंटिग्स को नारंगी रंग के फ्रेम में रखने का विचार बहुत अपने समय में बहुत क्रांतिकारी था। इससे वैन गॉग की कल्पनाशीलता और विशिष्ट योग्यता का पता चलता है। परंपरागत रूप से पेंटिग्स को सुनहरे फ्रेम में रखा जाता था और आधुनिक पेंटिंग्स को कभी-कभी सादे सफेद फ्रेम में रखा जाता है।’’
सन 1888 में ‘बेडरूम इन आर्ल्स’ पेंटिंग में उन्होंने अपने शयन कक्ष के शांत वातावरण को चित्रित किया। इसी वर्ष ‘कैफे टेरेस एट नाईट’, ‘द येलो हाऊस’, ‘रेड वाईनयार्ड’ आदि पेंटिंग्स बनाई। सन् 1889 में दक्षिणी फ्रांस में सेंट-रेमी में सेंट-पॉल शरण में रहते और अपने अवसाद से जूझते हुए अपने कमरे की खिड़की से सितारों वाली रात को दिखने वाले गांव को अपनी पेंटिंग ‘द स्टाररी नाइट’ में चित्रित किया ।
‘आईरिसेस’ तथा सेल्फ पोट्रेट के साथ ही सन् 1890 में ‘पोट्रेट ऑफ डॉ गैचेट’ तथा सन 1890 में ही ‘व्हीटफील्ड विद क्रो’ नामक पेंटिंग बनाई। ‘आईरिसेस’ वह पेंटिंग है जिसमें आईरिस के फूलों को दिखाया गया है। आईरिस फूल का भी गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है।  प्राचीन ग्रीस में देवी आइरिस ने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक कड़ी के रूप में काम किया।  उसने यात्रा करने के लिए इंद्रधनुष का प्रयोग किया। सन 1890 में ही ‘द सिएस्टा’, ‘चर्च एट औवर्स’, ‘प्रिजनर्स एक्सरसाइजिंग’ आदि पेंटिंग्स बनाईं।
वैन गॉग को आज विश्व के महानतम चित्रकारों में गिना जाता है और आधुनिक कला के संस्थापकों में से एक माना जाता है। साथ ही उन्हें पोस्ट-इंप्रेशनिज्म अर्थात उत्तर-प्रभाववाद के मुख्य चित्रकारों में से एक माना जाता है। वैन गॉग ने 28 वर्ष की आयु में चित्रकारी करना शुरु किया और जीवन के अंतिम दो वर्षों में अपनी सबसे महत्त्वपूर्ण  पेंटिंग्स बनाईं। लगभग 9 साल के समय में उन्होंने 2000 से अधिक पेंटिंग्स बनाईं। जिनमें लगभग 900 ऑयल पेंटिंग्स हैं। आरंभिक पेंटिंग्स में फ्रांसीसी प्रभाववादी चित्रकला की छाप को स्पष्ट देखा जा सकता है।
      दुर्भाग्यवश अपने जीवन काल में वैन गॉग को भारी मानसिक दबाव, गहन अवसाद और लोगों की उपेक्षा झेलनी पड़ी। उन्हें अपने जीवन काल में वह ख्याति नहीं मिली जो उनकी मृत्यु के उपरांत उन्हें प्राप्त हुई। जीवनभर उन्हें कोई सम्मान नहीं मिला। वे मानसिक रोगों से जूझते रहे। एक बार एक विवाद के दौरान उन्होंने अपना बायां कान काट लिया था। लोग उन्हें बीमार नहीं बल्कि पागल समझते थे। अंततः मात्र 37 वर्ष की आयु में उन्होंने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली।
वैन गॉग की चित्रकला की अगर प्रमुख विशेषताएं देखें तो पहली विशेषता थी भावनात्मक रंगों का प्रयोग। वैन गॉग ने अपने समय के अन्य कलाकारों की तुलना में रंगों का अलग तरह से उपयोग किया। अपनी पेंटिंग के विषय के रंगों को वास्तविक रूप से पुनरू प्रस्तुत करने के बजाय, उन्होंने ऐसे रंगों का इस्तेमाल किया जो विषय के प्रति उनकी भावनाओं को सबसे अच्छी तरह व्यक्त करते थे।
दूसरी विशेषता थी बोल्ड रंग पैलेट्स। वैन गॉग ने अपनी आरंभिक पेंटिंग्स में गहरे और धूसर रंगों का प्रयोग किया। किंतु इम्प्रेशनिस्ट और नियो-इंप्रेशनिस्ट पेंटर्स की कला को देखने के बाद बोल्ड रंगों का प्रयोग करने लगे। उनकी बात की पेंटिंग्स में नीले, पीले, नारंगी, लाल और हरे  चमकीले रंग समा गए।
तीसरी विशेषता थी एक्सप्रेसिव ब्रशस्ट्रोक यानी अभिव्यंजक ब्रशस्ट्रोक। वैन गॉग की सिग्नेचर पेंटिंग शैली में वांछित भावनाओं पर जोर देने के लिए ऊर्जावान, दृश्यमान ब्रशस्ट्रोक्स हैं। चौथी विशेषता के रूप में उनकी पेंटिंग्स पर जापानी वुडब्लॉक प्रिंट्स का प्रभाव देखा जा सकता है। वैन गॉग की कला की पांचवी विशेषता थी बहुसंख्यक सेल्फ-पोर्ट्रेट। उन्होंने अपनी चित्रकला की संक्षिप्त अवधि में 35 से अधिक स्व-चित्रों यानी सेल्फ पोट्रेट्स बनाए। जो उनकी भावनात्मक और मानसिक स्थिति को व्याख्यायित करते हैं।
वैन गॉग की पेंटिंग्स आज दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग्स में गिनी जाती है। अकेली ‘द स्टाररी नाइट’ पेंटिंग की कीमत आज 100 मिलियन डॉलर से अधिक आंकी जाती है।  सन 1975 में ‘पोट्रेट ऑफ डॉक्टर गैचेट’ पेंटिंग 1990 मिलियन डॉलर में एक निजी संग्रहकर्ता ने खरीदी थी। ‘सन फ्लॉवर’ सीरीज की एक पेंटिंग सन 1987 में ढाई करोड़ पाउंड में बिकी थी, जिसने उस समय दुनिया की सबसे महंगी पेंटिंग के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए नया रिकॉर्ड बनाया था। वस्तुतः वैन गॉग एक ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण किंतु महान चित्रकार थे जिन्हें उनके जीते जी उन्हें पागल समझा गया किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनकी पेंटिंग्स को सर्वश्रेष्ठ माना गया। आधुनिक मनोचिकित्सकों का यह मानना है कि यदि वैन गॉग की चित्रकला को उनके जीवनकाल में ही सराहा और स्वीकारा जाता तो संभवतः उनका मनोरोग धीरे-धीरे ठीक हो जाता और वे अवसाद से बाहर आ जाते। ऐसी स्थिति में वे आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते और कला जगत उनकी कुछ और पेंटिंग्स से समृद्ध हो पाता।  
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(30.03.2022)
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Friday, October 2, 2020

सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार | डॉ. शरद सिंह | 2 अक्टूबर | जन्मतिथि पर विशेष

2 अक्टूबर - जन्मतिथि पर विशेष :
  सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार
                - डॉ. शरद सिंह
       अपने जीवन को कष्टों के सांचे में ढालकर दूसरों के लिए सुखों की खोज करने वाले महात्मा गांधी बीसवीं सदी के महानायकों में से एक थे। उनके विचारों, उनके कार्यों एवं उनके जीवन-दर्शन ने समूची मानवता को नये आदर्श प्रदान किए। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है।’’ स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
    वैश्विक स्तर पर महात्मा गांधी के विचारों को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि 15 जून, 2007 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 2 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित करने के लिए मतदान हुआ, तदुपरान्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2 अक्टूबर के दिन को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित किया। महात्मा गांधी के विचारों को ‘गांधीवाद’ के नाम से पुकारा जाता है। गांधीवाद को अपनाने के लिए उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विचारों को अपनाना आवश्यक है।
     महात्मा गांधी राजनीति का परिष्कृत रूप स्थापित करना चाहते थे। उनका मानना था कि राजनीति के परिष्कार के लिए राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता, परोपकार, सादगी एवं सदाचार का अधिक से अधिक प्रतिशत होना चाहिए तभी राजनीति दूषित होने से बची रहती है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीति में जो हिंसा, बाहुबल, बेईमानी, भाई-भतीजावाद एवं आर्थिक घोटालों का बोलबाला दिखाई देता है, उसमें महात्मा गांधी के ‘राजनीति के परिष्कार’ का मूलमंत्र प्रासंगिक एवं व्यावहारिक ठहरता है। यदि राजनेताओं में संयम रहे अथवा संयमित व्यक्ति राजनीति में प्रवेश करें तो राजनीति का परिष्कार सम्भव है। एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश देश के प्रत्येक तबके को उसके अधिकारों से जोड़ सकता है और राजनीतिक संस्थाओं के प्रति नागरिकों के मन में विश्वास पैदा कर सकता है।
         महिलाओं को सशक्त बनाने का स्वप्न ही महात्मा गांधी के स्त्री-आंदोलन की बुनियाद था। महात्मा गांधी मानते थे कि स्त्रियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष सशक्त होना चाहिए। वे राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के पक्षधर थे। वस्तुतः महात्मा गांधी का अहिंसावादी आंदोलन स्त्रियों की उपस्थिति के कारण अधिक सार्थक परिणाम दे सका। इस तथ्य को महात्मा गांधी ने स्वीकार करते हुए एक बार कहा था कि स्त्रियां प्रकृति से ही अहिंसावादी होती हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील और सहृदय होती हैं, अतः स्त्रियों की उपस्थिति से अहिंसावादी आंदोलन एवं सत्याग्रह अधिक कारगर हो सकते हैं।
     महात्मा गांधी स्त्रियों को अबला कहने के विरोधी थे। वे मानते थे कि स्त्री पुरुषों की भांति सबल और शक्ति सम्पन्न है। जिस प्रकार एक सशस्त्र पुरुष के सामने निःशस्त्र पुरुष कमजोर प्रतीत होता है, ठीक उसी तरह सर्वअधिकार प्राप्त पुरुषों के सामने स्त्री अबला प्रतीत होती है जो कि वस्तुतः अबला नहीं है। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं।’’
          गांधी जी मानते थे कि स्त्रियों की उपस्थिति पुरुषों को भी आचरण की सीमाओं में बांधे रखती है। यही कारण है कि उन्होंने कांग्रेस में महिलाओं को नेतृत्व का पूरा अवसर दिया। विभिन्न आंदोलनों में स्त्रियों को शामिल होने दिया। उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत स्त्रियों के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। वे स्त्रियों को एक स्त्री के रूप में न देखकर एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखते थे। वे पारिवारिक सम्पत्ति पर पुरुषों के बराबर स्त्रियों को स्वामित्व दिए जाने के भी पक्षधर थे।
          महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘कोई भी राष्ट्र अपनी आधी आबादी (अर्थात् स्त्रियों) की अनदेखी करके विकास नहीं कर सकता है।’’ वे कहते थे कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कमजोर नहीं समझना चाहिए। वे स्त्रियों के आर्थिक स्वावलम्बन एवं शिक्षा के पक्षधर थे। शुचिता एवं सतीत्व के नाम पर स्त्रियों को बन्धन में रखना वे पसन्द नहीं करते थे। महात्मा गांधी का यह विचार हर युग में खरा उतरता है।
      महात्मा गांधी ने स्वच्छता पर विशेष बल दिया। जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें अनुभव हुआ कि वहां बसे भारतीय स्वच्छता पर ध्यान नहीं देते हैं जिसके कारण अंग्रेज उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इस पर महात्मा गांधी ने वहां स्वच्छता आंदोलन चलाया। इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि अफ्रीका में बसे भारतीय समाज में घर-बार साफ रखने के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया।
      महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी का सामना असीम गन्दगी से हुआ। कई बार उन्होंने स्वयं झाड़ू लेकर दूसरों का भी पाखाना साफ किया। अपनी भारत-यात्रा के दौरान भी रेल के तृतीय श्रेणी के डिब्बे में व्याप्त गन्दगी का साम्राज्य तथा काशी की गलियों में फैली हुई गन्दगी ने उनके मन को आहत किया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
  यदि महात्मा गांधी के विचारों को अपनाकर स्वच्छता को जीवन का अंग बना लिया जाए तो नागरिकों को स्वस्थ तन-मन की सम्पदा मिल सकती है। वस्तुतः महात्मा गांधी का प्रत्येक विचार हर युग में हर परिस्थिति में प्रासंगिक है और रहेगा। यदि उनके मर्म को भली-भांति समझकर उसे आत्मसात किया जाए।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’)
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Tuesday, September 11, 2018

आचार्य विनोबा भावे देवनागरी को विश्वलिपि के रूप में देखना चाहते थे - डॉ. ‪शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
भूदान आंदोलन के जनक ‘भारत रत्न’ आचार्य विनोबा भावे यानी विनायक नरहरी भावे आज ही के दिन अर्थात् 11 सितम्बर 1895 को जन्मे थे। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। सन् 1051 में आचार्य विनोबा भावे ने भूदान आन्दोलन आरम्भ किया था। इस आंदोलन का उद्देश्य था स्वैच्छिक भूमि सुधार। विनोबा चाहते थे कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के द्वारा न हो, बल्कि एक आंदोलन के द्वारा जनता में जागरूकता लाते हुए पुनर्वितरण हो। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। इसके साथ ही आचार्य भावे देश के ही नहीं अपितु विश्व की सभी भाषाओं की पारस्परिक दूरी को समाप्त करना चाहते थे और इसका आरम्भ वे भारतीय भाषाओं का पहले देवनागरी लिपि से परस्पर जोड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि सम्पर्क लिपि एक होने से विभिन्न भाषाओं को सीखना आसान हो सकता है।
Bharat Ratna Acharya Vinoba Bhave
सभी भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी का प्रयोग हो, इससे राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव लाने में सहायता मिलेगी। सन् 1972 में उन्होंने कहा था कि-
''इन दिनों यही मेरा एक लक्ष्य है। मैं नागरी लिपि पर जोर दे रहा हूं। मेरा अधिक ध्यान नागरी लिपि को लेकर चल रहा है। नागरी लिपि हिन्दुस्तान की सब भाषाओं के लिए चले तो हम सब लोग बिल्कुल नजदीक आ जायेंगे। खासतौर से दक्षिण की भाषाओं को नागरी लिपि का लाभ होगा। वहां की चार भाषाएं अत्यन्त नजदीक हैं। उनमें संस्कृत शब्दों के अलावा उनके अपने जो प्रान्तीय शब्द हैं, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम के उनमें बहुत से शब्द समान हैं। वे शब्द नागरी लिपि में अगर आ जाते हैं तो दक्षिण की चारों भाषाओं के लोग चारों भाषाएं 15 दिन में सीख सकते हैं। 

Devanagiri Script
 ....विभिन्न लिपियोंं को सीखने में हर एक की अपनी-अपनी परिस्थिति आड़े आती हैं। मैंने हिम्मत की, हिन्दुस्तान की हर एक लिपि का अध्ययन किया। परिणाम में विचार आया कि दूसरी लिपियां चलें उसका मैं विरोध नहीं करता। मैं तो चाहता हूं वे भी चलें और नागरी भी चले। मैं बैंगलोर की जेल में था वहां डेढ़ दो साल रहा। वहां मैंने दक्षिण भारत की चार भाषाएं सीखना एकदम शुरू किया। जेल में विभिन्न भाषाओं के लोग थे। तो किसी ने मुझसे पूछा विनोबा जी, आप चार भाषाएं एकदम से क्यों सीख रहे हैं। मैंने कहा, पांच नहीं हैं इसलिए अगर पांच होतीं तो पांच ही सीखता। चार ही हैं इसलिए चार ही सीख रहा हूं। मैंने देखा कि उन भाषाओं में अत्यंत समानता है। केवल लिपि के कारण ही वे परस्पर टूटी हैं एक नहीं बन पा रही हैं।’’

विनोबा जी राष्ट्र संत थे। वे सभी के अभ्युदय की कामना करते थे। सर्वोदय आंदोलन का उद्देश्य भी यही था। वे किसी राजनीतिक दल में नहीं थे। वे तो भारतीय समाज को एकसूत्र देखने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। उन्होंने स्वयं को
आजीवन सर्वाभ्युदय में लगाए रखा। वे सबका  हित चाहते थे। लिपि-संबंधी उनके विचार भी सर्वहित से ही प्रेरित थे। बीसियों भाषाओं के ज्ञाता विनोबा भावे देवनागरी को विश्वलिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिये वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। वे कहते थे कि मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले। उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर नागरी लिपि संगम की स्थापना की गयी है जो भारत के अन्दर और भारत के बाहर देवनागरी को उपयोग और प्रसार करने के लिये कार्य करती है। 
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Monday, September 10, 2018

लियो टॉल्सटाय की जन्मतिथि 9 सितम्बर पर मेरा एक पत्र अन्ना करेनिना के नाम...

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय अन्ना करेनिना,
तुम्हारे अस्तित्व ने कब जन्म लिया यह तो मात्र लियो टॉल्सटाय ही बता सकते थे। उन्होंने तुम्हारी कल्पना की, तुम्हें अपने समय से आगे की स्त्री के रूप में आकार दिया और संवारा। कल ही तो थी वह तारीख जो तुम्हारे सर्जक लियो टॉल्सटाय की जन्मतिथि थी यानी 9 सितम्बर 1828। यह पत्र मैं तुम्हें कल भी लिख सकती थी लेकिन कल दिन भर मैंने बिता दिया तुम्हारे बारे में सोचते हुए। तुम हमेशा मेरे दिल के बहुत करीब रही हो। अपनी कॉलेजियट उम्र के साथ तुम्हें पढ़ कर मैंने सुना और समझा था स़्त्री आंकांक्षा का वह स्वर जो मुझे मेरे आस-पास कहीं दिखाई नहीं दिया था। 
From Anna Karenina movie

तुम्हें मिला एक स्वछन्द चरित्र। इतना स्वच्छंद भी नहीं कि तुम एक ‘बिगड़ी हुई औरत’ कहलाओ। मगर टॉल्सटाय ने पाया कि तुम्हें तो तत्कालीन सामाजिक ठेकेदार ‘बिगडी हुई औरत’ ही मान रहे हैं। क्योंकि टॉल्सटाय ने तुम्हें अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने की आजादी दी। तुम कॉर्सेट मेें भर कर उभारे गए शरीर के भीतर सांसों की घुटन के साथ जीना नहीं चाहती थी। तुम्हें अच्छा लगता था खुली हवा में घोड़े पर सवारी करते हुए प्रकृति की सुंदरता को अपनी आंखों में समा लेना। वहीं आंखें जिन्हें तुम्हारा पति कभी पढ़ नहीं सका। जानती हो अन्ना, आज भी न जाने कितनी औरतें जीना चाहती है तुम्हारी तरह अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से। क्यों कि उनकी आंखों को भी कोई नहीं पढ़ता है। सदियां बीत गईं। तुम्हारी जन्मभूमि ने भी सामाजिक और राजनीतिक चोला बदला, एक नहीं दो बार। उन्होंने सन् 1875 से 1877 में तुम्हारे जीवन को विस्तार दिया। वह समय अलग था आज से लेकिन पूरा तरह से नहीं। आज भी औरतें सिसक रही हैं घर की चौखटों के भीतर, यहां भारतीय उपमहाद्वीप में। आज जितनी भी औरतें व्यवसाय या नौकरी के द्वारा पैसे कमा रही हैं, उनमें से गिनती की ही हैं जिन्हें अपने परिवार में निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों के बराबर मिला है। तुम्हारी जैसी आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त स्त्रियों की दशा भी जो दिखती है, वह नहीं है। वे तुम्हारी तरह खुले आकाश में उड़ना चाहती हैं लेकिन नहीं उड़ पाती हैं। 
Title page of first edition of Anna Karenina

अन्ना, शायद मैं भावुक हो गई हूं तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर। एक टीस है मन में जो आज मैं तुमसे साझा करना चाहती हूं। मुझे तुम्हारा अंत कभी पसंद नहीं आया। नारी दृढ़ता की प्रतिमूर्ति अन्ना रेल के पहिए से कट कर अपनी जान दे दे, भला यह कैसा अंत? यह तो अन्याय है तुम्हारे चरित्र के साथ, तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ। तुम्हें तो जीवित रखा जाना चाहिए था तुमहारी स्वाभाविक मृत्यु तक। भले ही तुम्हारा शरीर शिथिल पढ़ चुका होता, भले ही तुम्हारे बातों में सफेदी छा चुकी होती, भले ही तुम्हारी चंचलता आयुगत गंभीरता में दब चुकी होती फिर भी तुम्हें जीवित रहते देखना मुझे सुखद लगता। जब मैंने तुम्हारे बारे में पहली बार पढ़ा था तो तुम्हारे अंत ने मेरी आंखों में आंसू ला दिया था लेकिन आज जब दुनिया के अनेक रंग देख चुकी हूं तो मुझे तुम्हारे अंत कें बारे में साचे कर क्रोध आता है। अगर आज लियो टॉल्सटाय होते तो शायद मैं उनसे झगड़ा करती कि अन्ना का अंत इस तरह मत करिए। भले ही मैं उन्हें अपना प्रेरक-लेखक मानती फिर भी उनसे लड़ती। एक जुझारू औरत का अंत भला आत्महत्या के रूप में? चुभता है मुझे आज भी।
आज मैं चाहती हूं कि मैं जब भी तुम्हारे बारे में पढूं, या सोचूं तो तुम्हारे अंत को बदला हुआ देखूं। मेरी अन्ना करेनिना रेल के पहिए के नीचे कट कर अपना अंत नहीं कर सकती, वह तो डटी रहेगी अंतिम सांस तक।
तो अन्ना, जान लो कि तुम मेरी आशाओं में हमेशा जीवित रहोगी एक अडिग स्त्री की तरह।
तुम्हें हमेशा याद करती हूं आन्ना!
तुम्हारी - 
शरद सिंह