Saturday, September 30, 2023

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | बे उते बनात जात, इते मिटत जात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज पत्रिका में "टॉपिक एक्सपर्ट" में बुंदेली में मेरे विचार क्षेत्र की एक समस्या पर....
Thank you #patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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टॉपिक एक्सपर्ट
बे उते बनात जात, इते मिटत जात
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       एक मंत्री जी ने बड़ी नोनी बात कई के सीसी रोड के आंगू डामर रोड टिकाऊं नई रैत। जेई से कांट्रेक्टर हरें डामर रोड बनाओ चात आएं, जी से जल्दी-जल्दी ठेका मिलत रए। अब उन्ने जे काय कई, कोन के लाने कई? ई से अपन खों का? बाकी बात कई सोला आना टना-टन्न।
   चलो, सीसी रोड की एक सांची किसां सुन लेओ।। का भओ के एक बड्डे भोपाल गए। जे ऊ टेम की बात आए, जबे अपने सागरे में सीसी रोड कऊं ने हती। सो, बड्डे भोपाल पौंचें। उते उन्ने देखो के कछू जने नई बनी सीसी रोड पे खचां करत जा रए हते। बड्डे ने देखी सो उने कछू समझ ने परी। उन्ने अपने संगवारे से पूछी,"काय भैया, जे रोड खों केक घांई काट के, का रोड की हैप्पी बर्थडे मना रए?"
    "तुम आओ पगला! जे हैप्पी बर्थडे मनाबे के लाने नोईं काट रए। जे जांच रए के कित्ते इंची सीमेंट ईमें डारो गओ? तुमें इत्तो नई पतो?" संगवारो बड्डे को मजाक उड़ात भओ बोलो।
    "अब हमें का पतो! हमाए इते तो रोडन की हैप्पी बर्थडे नोई राम नाम सत्त होत रैत आए।" बड्डे खिसिया के बोले।
  मनो ऊ टेम से ई टेम लों कछू खास नईं बदलो। अपने इते सोई सीसी रोड बनवा दई गई आएं, बाकी हाल जे रैत आए के बे उते बनात जात, इते मिटत जात। जे कोन सी टेक्नीक आए? ईपे सोई मंत्री जी को कछू कओ चाइए। कछू पता तो परे! ताकि जोन टेम पे गढ़ा में गिरें, या फेर ठोकर घले सो अकड़ के कै सकें के ई टेक्नीक के गढ़ा में हाथ-गोड़े तुड़ा के आ रए।
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Friday, September 29, 2023

शून्यकाल | कुछ पंक्तियां आज सोचने को मजबूर करती हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शून्यकाल
कुछ पंक्तियां आज सोचने को मजबूर करती हैं
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

  क्या आज किसी स्त्री को ‘बांझ’ कहना न्यायसंगत है? क्या आज किसी स्त्री को ‘ताड़ना’ का अधिकारी मानना उचित है? यदि नहीं! तो ऐसी पंक्तियां संशोधन पटल तक क्यों नहीं पहुंचती हैं? इन शब्दों का प्रयोग क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया उसे सभी नहीं समझ सकते हैं। अशिक्षित किन्तु धर्मप्रिय जनता उन पंक्तियों को जिनमें ये शब्द आए हैं, पूरी आस्था से बांचती है, दोहराती है। कतिपय लोग इसी आस्था की आड़ ले कर संतानहीन स्त्री को ‘बांझ’ कह कर तथा स्त्री समुदाय को ताड़ना दिए जाने योग्य मान कर उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार बनाते रहते हैं। अतः क्या यह अच्छा नहीं है कि अब इन पंक्तियों में संशोधन कर दिया जाए? यह मेरा एक चिंतन मात्र है, किसी आस्था की अवहेलना या निरादर नहीं है।* 
       भाद्रपद से पूरा एक पखवारा धार्मिक वातावरण में व्यतीत होता है। इस बार भी गणेश चतुर्थी को श्री गणपति की प्रतिमाओं की विभिन्न मंदिरों एवं सार्वजनिक स्थलों में स्थापना हुई। अनन्त चतुदर्शी तक श्री गणेश स्थापना स्थलों में उत्सव का माहौल रहा। विशेष रूप से महिलाओं ने जम कर भजन-कीर्तन किए। सुन्दरकाण्ड का पाठ भी कराया गया। सभी समय निकाल कर इस उत्सव में भाग लेते रहे और परस्पर मिलते-जुलते रहे। यही तो चाहते थे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक। वह ब्रिटिश शासन का दमनकारी दौर था। जहां कहीं भी चार भारतीय जुड़ते जो अंग्रेज प्रशासन को लगता कि उनके विरुद्ध षडयंत्र किया जा रहा है। यह भी सच है कि क्रांतिकारी निरन्तर सक्रिय थे, और कभी अखबार निकाल रहे थे तो कभी गुप्त बैठकें कर रहे थे, तो कभी गुलामी को उतार फेंकने की योजनाएं बनाते थे। यह स्वाभाविक था। जो दासता में जी रहा हो वह बेड़ियों को तोड़ने का हर संभव प्रयास करेगा ही। राजा राममोहन राय जैसे मनीषी सामाजिक जागरण की अलख जगा रहे थे, वहीं बाल गंगाधर तिलक जैसे क्रांतिकारी जनता से खुल कर कह रहे थे कि ‘‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा।’’ उनकी इस घोषणा से जनता में जोश भर रहा था। उस समय तक भारतीय राजनीतिक पटल पर गांधीजी का उद्भव नहीं हुआ था। तिलक अखबार निकाल कर अपने लेखों के द्वारा देशप्रेम की भावना जगा रहे थे। माहौल को गर्म होता देख कर ब्रिटिश सरकार ने जगह-जगह पर 144 धारा और कफ्र्यू लगा दिए। जहां नहीं भी लगाया गया वहां भी सबको संदेह की दृष्टि से देखा जाता। तब तिलक को वह उत्सव याद आया जो महाराज शिवाजी के समय सार्वजनिक रूप से मनाया जाता था। उन्होंने उस गणेश उत्सव को अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय विचारों से जोड़ कर आरम्भ किया। जनता को धार्मिक अनुष्ठान के बहाने आपस में मिलने और विचार-विनिमय करने का अवसर मिल गया। अंग्रेज भी धार्मिक मामले में हस्तक्षेप करने का जोखिम नहीं लेना चाहते थे। उसी समय से गणेसोत्सव की परंपरा चल पड़ी और धीरे-धीरे पूरे देश में व्याप्त हो गई। आज भी पूरे देश में गणेशोत्सव पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। 
जैसा कि मैंने पहले कहा कि उत्सव के दौरान भजन-कीर्तन होते हैं। इनमें सबसे अधिक महिलाओं की सहभागिता होती है। मैं भी इन उत्सवों में शामिल होती हूं। साथी महिलाओं के स्वर में स्वर मिला कर आरती और भजन गाती हूं। सब के साथ मिल कर उत्सव मनाने का अलग ही आनन्द होता है। किन्तु हर बार एक आरती गाते समय एक लाईन पर हमेशा मैं ठिठक जाती हूं। मुझे लगता है कि क्या अब इस लाईन में संशोधन नहीं कर दिया जाना चाहिए? यह बहुत लोकप्रिय आरती है -
जय गणेश जय गणेश,
जय गणेश देवा ।
माता जाकी पार्वती,
पिता महादेवा ।। 
यह पूरी आरती श्रीगणेश की स्तुति के सुंदर शब्दों में गुंथी हुई है तथा इसमें श्रीगणेश की शक्तियों का बखान है। इसी आरती में एक पद है-
अंधन को आंख देत,
कोढ़िन को काया ।
बांझन को पुत्र देत,
निर्धन को माया ।।
इस पद में जो पंक्ति मुझे सोचने को विवश करती है, वह है-‘‘बांझन को पुत्र देत’’। यह पंक्ति जब लिखी गई होगी तब वैज्ञानिक एवं सामाजिक वातावरण उतना विकसित नहीं था जितना कि आज हो चुका है। आज ‘‘बांझ’’ शब्द लगभग बहिष्कृत है। सभी जानते हैं कि एक स्त्री का ‘बांझ’ होना हर बार उसी की शारीरिक कमी नहीं होती है। कई बार यह कमी पुरुषों में होती है किन्तु वे जांच के लिए आगे नहीं आते हैं और पत्नी अपने माथे पर ‘बांझ’ का ठप्पा ले कर घूमने को विवश रहती है। आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि कोई भी स्त्री मातृत्व धारण कर सकती है। यदि वह धारण करने में स्वयं सक्षम नहीं है तो सेरोगेसी के द्वारा वह मातृत्व प्राप्त कर सकती है। फिर कोई भी विवाहिता स्त्री स्वयं संतानहीन नहीं रहना चाहती है, यह तो शारीरिक कमी होती है जिसके लिए प्रकृति जिम्मेदार होती है वह स्वयं नहीं। अतः किसी स्त्री को ‘बांझ’ कहना उसके मनुष्य होने का अपमान करने की भांति है। फिर इसी पंक्ति में ‘‘बांझन को पु़त्र देत’’ शब्द हैं, ‘पुत्री’ क्यों नहीं? क्यों कि पुरानी रीति में पुत्र को वंश चलाने वाला, कुल को तारने वाला माना जाता था। किन्तु आज पुत्र और पुत्री में भेद कम होता जा रहा है। सरकार भी ‘बेटी बचाओ’, ‘लाड़ली लक्ष्मी’ जैसी योजनाएं चला कर बेटियों के महत्व को समाज में बढ़ाने का कार्य कर रही है। अतः इस पंक्ति में अब पुत्र के बजाए ‘संतान’ या ‘संतति’ और ‘बांझन’ के स्थान पर दंपति कर दिया जाना चाहिए। श्रीगणपति तो बुद्धि के देवता हैं। वे स्वयं भी यही चाहते होंगे कि अब बुद्धि का विकास हो और ऐसे शब्द विलोपित कर दिए जाएं जो स्त्रीजाति के अस्तित्व को लांछित करते हो अथवा नकारते हों। मात्र पुत्र की कामना ही स्त्री के अस्तित्व को नकारने की भांति है। 
इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘‘रामचरित मानस’’ के ‘‘सुंदरकाण्ड’’ में एक चौपाई है जिसकी एक पंक्ति पर हमेशा विवाद होता रहा है। वह पंक्ति है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।। 
सुशिक्षित विद्वान इस पंक्ति की व्याख्या करते हुए स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि तुलसीदास जी इन चारों का अपमान नहीं करना चाहते थे। जैसे, जब एक बार उत्तर प्रदेश और बिहार में इस पंक्ति को ले कर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था तो जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने कहा था कि ‘‘रामचरितमानस’’ में थोड़ी सी त्रुटि है। वास्तव में ये लाइन है-
ढोल, गंवार, क्षुब्ध पशु, रारी
‘‘ढोल मतलब जो दूसरों की बात सुनकर उल्टा सीधा बोलने लग जाता है या जो बिना पीटे बजता नहीं है। उसे ढोल कहते हैं। एक ढोल है, जब तक उसे नहीं पीटोगे तो वो बजेगा नहीं, बेकार है। दूसरा शब्द उसमें है गंवार। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार कहते हैं। नारी नहीं अपितु ‘रारी’ शब्द है जिसका अर्थ है झगड़ालू व्यक्ति।’’ वस्तुतः ऐसी व्याख्या को शिक्षित वर्ग आत्मसात कर सकता है किन्तु अशिक्षित वर्ग तो उसका शाब्दिक अर्थ ही लेता है। तो क्या अच्छा नहीं होगा कि इस पंक्ति को विलोपित रखा जाए। खैर, यह मेरे अपने विचार हैं, जनमत इस पर अपनी इच्छानुसार राय रख सकता है क्योंकि यह दोनों जनप्रिय साहित्य की पंक्तियां हैं।  
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Thursday, September 28, 2023

बतकाव बिन्ना की | सेमेस्टर घांई खुलत जा रए टिकटन के रिजल्ट | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"सेमेस्टर घांई खुलत जा रए टिकटन के रिजल्ट" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
सेमेस्टर घांई खुलत जा रए टिकटन के रिजल्ट
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काय बिन्ना तुमें पता परी के अपने इते कोन खों टिकट मिल रई?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘अबे तो नईं!’’
‘‘देखो ई बेर कोन खों मिलहे।’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘कोनऊं खों मिले, बाकी काम करबे वारो होनो चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘तुमें कोन सो काम कराने?’’ भैयाजी ने अचरज से पूछी।
‘‘अरे, मोय अपनो काम नई कराने, मैं सो क्षेत्र के विकास की बात कर रई।’’ मैंने कई।
‘‘इत्तो तो विकास हो गओ, औ कित्तो विकास चाउने?’’ भैयाजी ने हंस के पूछी।
‘‘कित्तो विकास हो गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बे उते रोड के किनारे, औ चौराहा-चौराहा लगे होर्डिंग पे पढ़ लेओ। इत्ती तो पढ़ी-लिखी हो!’’ भैयाजी फेर के हंसत भए बोले।
‘‘होंर्डिंग्स की ने कओ आप, ऊपे सो सब हरो-भरो दिखाहे। बाकी भैयाजी, आपको ऐसो नई लग रओ का, के जे कोनऊ काॅलेज के सेमेस्टर को रिजल्ट खुल रओ होय?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का मतलब? चुनाव की टिकट से सेमेस्टर को का लेबो-देबो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘लेबो-देबो तो कछू नईं, मनो मोय तो ऐसई लग रओ। अबे पैले सेमेस्टर को रिजल्ट खुलो सो ऊमें पता परी के कित्ते पास भए, मने कोन-कोन खों टिकट मिली। ऊमें कछू ऐसे सोई आएं जोन ने मईना-दो मईना पैलऊं अपनो सब्जेक्ट बदलो रओ औ बे डबल प्लस पा गए। औ जोन पांच बरस से एकई सब्जेक्ट को घिस्सा मार रए हते उने ठेंगा मिलो। कछू कओ आप, पर सब्जेक्ट बदलबे वारों की चांदी रैत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हमें तुमाई बतकाव तनकऊं पल्ले नई पर रई। तनक खुल के बताओ।’’ भैयाजी खीझत भए बोले।
जो भैयाजी ने कई के ‘‘तनक खुल के बताओ’’, सो मोय ऊपे एक सांची किसां याद आ गई। तनक ऐसई-वेसई आए। जोन खों हसबे में शरम लगे सो मों दबा के हंस सकत आए। मनो आए जे बिलकुल सांची घटना। भओ का के एक बेरा मोरी एक परिचित लेखिका से फोन पे बतकाव हो रई हती। बतकाव करत-करत बे कैन लगीं के ‘‘हमने तो फलां प्रकाशक से कई के तुम सबई की किताबें छापत हो औ हमाई छापबे में टरकान लगत हो, जे न चलहे। सो ऊ प्रकाशक ने मोसे कई के जिन ओरन की तुम कै रईं बे ओरें खोल के लिखत आएं, तुम सोई खोल के लिखो, सो हम छाप देबी।’’
जो मैंने ऊ लेखिका के मों से जे बात सुनी सो मोय हंसत-हंसत पेट पिरान लगो। मैं समझ गई के बा प्रकाशक इत्तो पगला नोईं के ‘‘खोल के लिखो’’ कहे, ऊने कई हुइए के ‘‘खुल के लिखो’’ औ जे महरानी ने सुन लई खोल के लिखों। आज लौं जो जे बात याद आ जात आए सो हंसी को फंदा लगन लगत आए।
‘‘का सोचन लगीं? का तुमें खुदई नईं पतो के चुनाव की टिकटन औ सेमेस्टर को का मेल आए? का ऊंसई बर्राया रईं हतीं?’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोय काय नई पतो? जे मोरई तो खयाल आएं। अब आपई देखो भैयाजी, चाए स्कूलें होंय या काॅलेजें होंय, आखिरी परीक्षा सो बाद में आखिरी में होत आए। पर आजकाल जे जो सेमेस्टर को सिस्टम चल गओ कहानो, ऊमें कऊं चार सेमेस्टर होत आएं, तो कऊं छै, तो कऊं आठ। मनो, आखिरी परीक्षा में बैठने जोग तभई हो सकत आएं जब सेमेस्टर पास कर लओ होय। जेई टाईप से आप देख लेओ के टिकटन की लिस्ट एक बेर में नईं निकर रई। पैले सेमेस्टर में चार खों मिली, दूसरे सेमेस्टर में फेर चार खों, तीसरे में दो खों। मने, जे पैली परीक्षा को रिजल्ट आए। ईमें जोन-जोन पास हो जेहें उने फाईनल परीक्षा के लाने कमर कसने पड़हें।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘हऔ, सो जे कै रईं तुम! बाकी जे तो बताओ के जोन की टिकट कट गई, उनकी तो फाईनल परीक्षा हुइए नईं, सो बे ओरें का करहें?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘उनें सो औ ज्यादा कम्मर कसने पड़हे। मनों जो भक्त टाईप के हुइएं बे सेमेस्टर में पास होने वारे के लाने दुआरे-दुआरे जाहें, ऊ के लाने वोट मांगहें। मनों बे जोन खों लगहे के उनके साथ बुरौ करो गओ, बे तनक दूसरो रस्ता पकरहें। मनो उनमें सोई दो तरां के लोग हुइएं। एक तरां के बे जो अपनों सब्जेक्ट बदल के खुल्लमखुल्ला दूसरे सब्जेक्ट की क्लास में जा के बैठने लगहें औ दूसरे बे ओरें जो दिखहें सो संगे औ पूरे टेम रैहें बी संगे, बाकी भीतरे-भीतरे कटाई करत चलहें। उनकी पूरी कोसिस रैहे के जोन जो सेमेस्टर में पास तो हो गओ, मनो फाईनल में अपनी जमानत लो ने बचा सके।’’ मैंने भैयाजी खों परसादी घांई तनक ज्ञान बांटो।
‘‘हऔ! कै तो तुम ठीक रईं। मनो हमें तो जे देख के लगत आए के दल-बदल कानून खों कछू मतलब आए के नईं? जे जो तुम कै रईं सब्जेक्ट बदलवे की, हम समझ गए के तुम दल बदलबे वारन की कै रईं। मनो, देखों बिन्ना गजबई को काम ठैरो! जोन चार साल एक पार्टी खों गरियात रैत बोई चुनाव के कछू पैले ऊ पार्टी में पौंच जात आए औ ऊको टिकट-मिकट दे के परघाओ जात आए। औ जोन जिनगी से अपनी पार्टी की सेवा करत रैत आए ऊको ऊ पाउनें के नेचे सेवक घांई ठाड़ो कर दओ जात आए। काय से के जो तो अपनई घरे को ठैरो, बाकी पाउना सो उनकी विरोधी पार्टी मनें अपनी पार्टी खों गच्चा दे के आ रओ, सो बा परम पूज हो जात आए। हमें सो जे सब नईं पोसात।’’ भैयाजी मों बनात भए बोले।
‘‘अब आप खों पोसाए चाए नईं, मनो बो कहनात सो आपने सुनई हुइए के कानून तो तोड़बे के लाने होत आएं। पैले दलबदल विरोधी कानून बनाओ औ फेर ऊको जब जी करो मजे-मजे से कुचरत रए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! ईको बी कोनऊं नियम होने चाइए।’’ भैजी बोले।
‘‘कैसो नियम?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘नियम जे के जो दल बदलने होय सो चुनाव के कम से कम चार साल पैले बदलो जाय, चार मईनां या चार दिनां पैले नईं। के उते टिकट की लाग ने लगी सो इते भाग आए और इते टिकट मिलती ने दिखी सो उते भाग गए। अरे, जोन पार्टी में जा रए, कम से कम ऊकी पैले चार बरस सेवा सो कर लेओ। बोलो, हम ठीक कै रए के नईं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, आप सांची कै रए, मनो आपकी को सुन रओ? मैंने कई।
‘‘नई सुनने सो नई सुने। हमने तो कै लई, सो जी में ठंडक पर गई।’’ भैयाजी अपनी छाती पे हाथ रखत भए बोले।
‘‘हऔ, आप सो अपने जी में ठंडक पाड़े राखों औ सेमेस्टर के रिजल्ट को मजा लेत रओ।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘काय बिन्ना, तुम काय नईं ठाड़ी हो जातीं चुनाव में?’’ भैयाजी बोले। मोय समझ में आ गई के भैयाजी अब चुटकी लेबे के मूड में आ गए।
‘‘हऔ! मोए कछू नईं, मैं सो ठाड़ी होबे खों तैयार ठैरी।’’ मैंने कई।
‘‘कोन सी पार्टी से?’’ भैयाजी ने अचरज से पूछी। उने मोसे ऐसे उत्तर की आसा ने हती।
‘‘कोनऊं पार्टी से। अबई सो अपन ओरें जेई पे बतकाव कर रए हते के टिकट के लाने पार्टी नोईं, खाली टिकट देखी जात आए। जोन पार्टी टिकट दे, सो बोई से ठाड़ी हो जेहों।’’ मैंने कई।
‘‘औ जो कोनऊं ने टिकट ने दई, सो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘सो, का? निर्दलीय चुनाव लड़बी। ऊंसई टिकट के लाने कुल्ल देर हो चुकी आए। अब सो सारी टिकटें पक्की हो चुकीं, बस, उनकी तनक-तनक कर के घोषणा करी जा रई, के कऊं एकदम से करे में कोनऊं को हार्टअटैक ने आ जाए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो तुम ठाड़ी हो रईं निर्दलीय उम्मीदवारी में?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, हंडरेड परसेंट! बाकी आप मोरी जमानत को पइसा भर देओ। बो का आए के मोरे पास सो जमानत के पइसा नइयां। औ काय से, के मसोय पतो आए के मोरी जमानत सो जब्त हुइए ई। सो जोन खों लगे के मोय निर्दलीय ठाड़ो हो ने चाइए, बो मोरी जमानत के पइसा भर देवे औ प्रचार को खर्चा उठा लेवे। फेर मोय का, मैं मजे से ठाड़ी हो जेहों। ई बहाने सगरे शहर में मोरो कटआउट सोई लग जेहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हम समझ गए, तुम फंकाई दे रईं!’’ भैयाजी बोले।
‘‘नईं मैं सांची कै रई। ने मानो सो कर के देख लेओ। आजई मोरे एकाउन्ट में जमानत को पइसा औ प्रचार को खर्चा का पइसा भेज देओ, ई के बाद आप मोय चुनाव में ठाड़ी पाहो।’’ मैंने मुस्का के भैयाजी से कई।
‘‘रैन देओ बिन्ना! तुम तो जे चुनावी सेमेस्टर के रिजल्ट देखत रओ, बोई भलो।’’ भैयाजी ने हार मान लई।  
सो, आप ओरें सोई देखत रओ के कोन खों टिकट मिल रई औ कोन की कट रई। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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चर्चा प्लस | श्रीगणेश : अनेक नाम, एक काम - जनकल्याण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
श्रीगणेश : अनेक नाम, एक काम - जनकल्याण
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                  
     जब हम किसी दुखी, पीड़ित व्यक्ति को देखते हैं तो उसकी सहायता करने की इच्छा हमारे मन में जागती है। फिर दूसरे ही पल हमें अपने सीमित सामर्थ्य याद आ जाता है और हम ठिठक जाते हैं। यह सच है कि आज के उपभोक्तावादी दौर में बहुसंख्यक व्यक्तियों के पास बहुत अधिक सहायता करने की क्षमता नहीं रहती है। किन्तु, श्रीगणेश यही तो सिखाते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कैसे दिखते हैं या हमारी क्षमताएं कितनी हैं, यदि हमारे मन में दृढ़इच्छा है तो हम किसी न किसी रूप में एक दुखी-पीड़ित की मदद कर सकते हैं। तभी तो श्रीगणेश के अनेक नाम हैं किन्तु काम एक ही है-जनकल्याण।
हिन्दू संस्कृति में श्रीगणेश एकमात्र ऐसे देवता है जिनका मुख हाथी का तथा शेष शरीर मनुष्यों  अथवा देवताओं जैसा है। उनका यह स्वरूप मानव और वन्यजीवन के बीच घनिष्ठ अटूट संबंधों को दर्शाता है। वन्य पशुओं में हाथी को सबसे अधिक बलशाली, सबसे अधिक बुद्धिमान, सबसे अधिक स्मरणशक्ति वाला तथा सबसे अधिक धैर्यवान माना जाता है। हाथी तब तक किसी पर प्रहार नहीं करता है जब तक कि उसके परिवार अथवा उस पर संकट न आए। हाथी दीर्घायु होता है तथा विशुद्ध शाकाहारी होता है। अलौकिक शक्ति के धनी होते हुए भी श्रीगणेश में समस्त गजतत्व मौजूद हैं। सृष्टि की योग्य कृति मानव तथा वन्य समुदाय की सर्वश्रेष्ठ रचना गज के सम्मिश्रण वाले श्री गणेश की शक्तियों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पौराणिक कथा के अनुसार गणेश जी ने ही महाभारत को अबाधगति से लिपिबद्ध किया था।
           गजाननं भूतगणादि सेवितं, कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितं।
           उमासुतं शोक विनाशकारणं, नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजं।।
श्रीगणेश के एक नहीं अपितु 108 नाम हैं। प्रत्येक नाम का अपना एक अलग महत्व है।

श्रीगणेश के 108
नाम अखुरथ- जिनके पास रथ के रूप में एक चूहा है, अलमपता- सदा सनातन भगवान, अमितःअतुलनीय प्रभु, अनंतचिद्रुपमयं- अनंत और चेतना-व्यक्तित्व, अवनीश- पूरी दुनिया के भगवान, अविघ्न- सभी बाधाओं को दूर करने वाला, बालगणपति- प्रिय और प्यारा बच्चा, भालचंद्र- चंद्रमा-कलक वाले भगवान, भीम- विशाल और विशाल, भूपति- देवताओं के स्वामी, भुवनपति - जगत के स्वामी, बुद्धिनाथ- ज्ञान के देवता, बुद्धिप्रिया- ज्ञान और बुद्धि को प्यार करने वाले भगवान, बुद्धिविधता- ज्ञान और बुद्धि के देवता, चतुर्भुज- चतुर्भुज भगवान, देवदेव- भगवानों के भगवान, देवंतकनशकारिन- राक्षसों का नाश करने वाले, देवव्रत- वह जो सभी तपस्या स्वीकार करता है, देवेंद्रशिका- सभी देवताओं के रक्षक, धार्मिक- वह जो धार्मिकता को बनाए रखता है, धूम्रवर्ण- धूम्र वर्ण वाले भगवान, दुर्जा- अजेय भगवान, द्वैमतुर- जिसकी दो माताएं हों, एकाक्षर - एक अक्षर से आवाहन करने वाला, एकदंत- एकल-दांत वाले भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, ईशानपुत्र- भगवान शिव के पुत्र, गदाधर - गदा धारण करने वाले, गजकर्ण - हाथी के कान वाले, गजानन- हाथी के चेहरे वाले भगवान, गजाननेति- हाथी के मुख वाले भगवान, गजवक्र- सूंड हुक की तरह मुड़ी हुई, गणधक्ष्य- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गणध्यक्षिना- सभी गणों (समूहों) के नेता, गणपति- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गौरीसुता- देवी गौरी के पुत्र, गुनिना- सभी गुणों के स्वामी, हरिद्रा- वह जो सुनहरे रंग का हो, हेरम्बा- मां का प्रिय पुत्र, कपिला- पीले-भूरे रंग के भगवान, कवीशा- कवियों के गुरु, कृति- संगीत के भगवान, क्षिप्रा- जिसे प्रसन्न करना आसान हो, लम्बकर्ण- लंबे कान वाले भगवान, लंबोदर- पेट वाले भगवान, महाबला- अत्यंत बलवान प्रभु, महागणपति- सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च भगवान, महेश्वरम- ब्रह्मांड के भगवान, मंगलमूर्ति- सर्व शुभकर्ता, मनोमय - हृदय को जीतने वाले, मृत्युंजय- मृत्यु को जीतने वाले, मुंडकरम- सुख का धाम, मुक्तिदया- शाश्वत आनंद का दाता, मुसिकवाहन- जिसका वाहन चूहा है, नादप्रतितिष्ठः जिसकी संगीत से पूजा की जाती है, नमस्थेतु- सभी बुराइयों और दोषों और पापों का विजेता, नंदना- भगवान शिव के पुत्र, निदेश्वरम- धन और खजाने के दाता, पार्वतीनंदन- देवी पार्वती के पुत्र, पीताम्बरा - पीले वस्त्र धारण करने वाले, प्रमोदा- सुख के सभी निवासों के भगवान, प्रथमेश्वर- सभी देवताओं में सबसे पहले, पुरुष- सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व, रक्ता- जिसका शरीर लाल रंग का हो, रुद्रप्रिया- भगवान शिव की प्रिय, सर्वदेवतामन- सभी दिव्य प्रसादों को स्वीकार करने वाला, सर्वसिद्धान्त- कौशल और ज्ञान के दाता, सर्वात्मान- ब्रह्मांड के रक्षक, शाम्भवी- पार्वती के पुत्र, शशिवर्णम- जिसका रंग चंद्रमा जैसा है, शूपर्णकर्ण- बड़े कान वाले भगवान, शुबनः सर्व मंगलमय प्रभु, शुभगुणकानन- वह जो सभी गुणों का स्वामी है, श्वेता- वह जो सफेद रंग की तरह पवित्र हो, सिद्धिधाता- सफलता और सिद्धियों के दाता, सिद्धिप्रिया- वह जो इच्छाओं और इच्छाओं को पूरा करती है, सिद्धिविनायक- सफलता के दाता, स्कंदपुर्वजा- स्कंद (भगवान मुरुगन) के बड़े भाई, सुमुख- जिसका मुख प्रसन्न है, सुरेश्वरम- सभी प्रभुओं के भगवान, स्वरूप - सौंदर्य के प्रेमी, तरुण- अजेय भगवान, उद्दंड- बुराइयों और दोषों की दासता, उमापुत्र- देवी उमा (पार्वती) के पुत्र, वक्रतुंड - घुमावदार सूंड वाले भगवान, वरगणपति - वरदानों के दाता, वरप्रदा- इच्छाओं और इच्छाओं का दाता, वरदविनायक - सफलता प्रदान करने वाले, वीरगणपति- वीर प्रभु, विद्यावारिधि- ज्ञान और बुद्धि के देवता, विघ्नहर्ता- विघ्नों का नाश करने वाले, विघ्नराज- सभी बाधाओं के भगवान, विघ्नस्वरूप- विघ्नों का रूप धारण करने वाले, विकट- विशाल और राक्षसी, विनायक- सभी लोगों के भगवान, विश्वमुख- ब्रह्मांड के स्वामी, विश्वराज- ब्रह्मांड के राजा, यज्ञकाय- सभी यज्ञों को स्वीकार करने वाले, यशस्करम- यश और कीर्ति के दाता, योगधिपा- ध्यान और योग के भगवान, योगक्षेमकारा- अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के दाता, योगिन- योग का अभ्यास करने वाला, युज- जो संघ का स्वामी है, कुमारा- हमेशा युवा भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, कृपालु- दयालु भगवान। श्रीगणेश के ये 108 नाम हैं, जिनका जाप किया जाता है।

श्रीगणेश के कुछ नामों की रोचक कथाएं भी देख ली जाएं। ये ही तो हमारी पौराणि विरासत हैं-
एकदंत की कथा
श्रीगणेश के एकदंत होने की कई कथाएं मिलती हैं-

एक कथा- एक बार विष्णु के अवतार परशुराम शिव से मिलने कैलाश पर्वत पर आए। उस समय शिव ध्यानावस्थित थे तथा वे कोई व्यवधान नहीं चाहते थे। शिवपुत्र गणेश ने परशुराम को रोक दिया और मिलने की अनुमति नही दी। इस बात पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उन्होंने श्री गणेश को युद्ध के लिए चुनौती दे दी। श्रीगणेश ने चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच घनघोर युद्ध हुआ। इसी युद्ध में परशुरामजी के फरसे से उनका एक दांत टूट गया।

दूसरी कथा- भविष्य पुराण में कथा है जिसके अनुसार कार्तिकेय ने श्रीगणेश का दन्त तोडा था। श्रीगणेश अपनी बाल अवस्था में अति नटखट हुआ करते थे। एक बार उन्होंने खेल-खेल में अपने ज्येष्ठ भाई कार्तिकेय को परेशान करना शुरू कर दिया। कार्तिकेय को श्रीगणेश पर गुस्सा आ गया और वे गणेश से लड़ पड़े। इसी लड़ाई-झगड़े में गणपति का एक दांत टूट गया।

तीसरी कथा- एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि वेदव्यास जी को महाभारत लिखने के लिए किसी बुद्धिमान लेखक की जरुरत थी। उन्होंने इस कार्य के लिए श्रीगणेश को चुना। श्रीगणेश इस कार्य के लिए मान तो गए। पर उन्होंने एक शर्त रखी कि महर्षि वेदव्यास महाभारत लिखाते समय रुकेंगे नहीं और न ही बोलना बंद करेंगे। वेदव्यास ने शर्त स्वीकार कर ली। तब श्री गणेश जी ने अपने एक दांत को तोड़कर उसकी कलम बना ली और उसी से वेद व्यास जी के वचनों पर महाभारत लिखी।

चौथी कथा- गजमुखासुर नामक एक महाबलशाली असुर हुआ जिसने अपनी घोर तपस्या से यह वरदान प्राप्त कर दिया की उसे कोई अस्त्र शास्त्र मार नही सकता। यह वरदान पाकर उसने तीनो लोको में अपना प्रभुत्व जमा लिया। सब उससे भयभीत रहने लगे। तब उसका वध करने के लिए सभी देवताओं ने श्रीगणेश को मनाया। गजानंद ने गजमुखासुर को युद्ध के ललकारा और अपना एक दांत तोड़कर हाथ में पकड़ लिया। गजमुखासुर को अपनी मृत्यु नजर आने लगी। वह मूषक रूप धारण करके युद्ध से भागने लगा। गणेशजी ने उसे पकड़ लिया और अपना वाहन बना लिया।

मोहासुरपति  की कथा
जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को देवताओं को प्रताड़ित करने के लिए भेजा। मोहासुर से मुक्ति के लिए देवताओं ने गणेश की उपासना की। तब गणेश ने महोदर अवतार लिया। महोदर का उदर यानी पेट बहुत बड़ा था। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया। तभी से श्रीगणेश मोहासुरपति कहलाए।

लंबोदर  की कथा
समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर मोहित हो गए। भावावेश में उनका स्खलन हो गया, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए। वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।

विकट की कथा
भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।

विघ्नराज की कथा
एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी भेंट शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया। शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए और सारे देवताओं के बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं ने गणेश की उपासना की। गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।
धूम्रवर्ण की कथा
एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। उन्हें एक बार छींक आ गई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। वह शुक्राचार्य के पास गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिए। उसने भी बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर का पराभाव किया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की।

    श्रीगणेश अन्य देवताओं की भांति शारीरिक दृष्टि से सुंदर नहीं हैं किन्तु उनकी अपरिमित बुद्धि के कारण उन्हें प्रथमपूज्य देवता का पद प्राप्त है। यही वह बात है जिसे हम मनुष्यों को सीखना चाहिए कि जाति, धर्म, आकार, प्रकार, सुंदरता, असुंदरता का कोई अर्थ नहीं है, यदि किसी चीज का अर्थ है तो वह है जनकल्याण। यही तो सत्य मौजूद है श्रीगणेश के स्वरूप में।
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Tuesday, September 26, 2023

पुस्तक समीक्षा | कविताएं जिनमें भावनाओं का नादस्वर है | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 26.09.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री सिद्धार्थ बाजपेयी के काव्य संग्रह "आसान सी बातें" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
कविताएं जिनमें भावनाओं का नादस्वर है
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - आसान सी बातें
कवि        - सिद्धार्थ बाजपेयी
प्रकाशक    - डब्ल्यू डब्ल्यू नोशन प्रेस डाॅट काम
मूल्य       - 180/-
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महाकवि निराला ने एक बार कहा था कि ‘‘कविता नितान्त निजी भावनाएं होते हुए भी सार्वभौमिक होती हैं। उनमें चाहे तो ब्रह्माण्ड समा सकता है।’’ बात एकदम सही है। कविता चाहे पीड़ा से उपजे या प्रेम से, रणभूमि के तुमुल कोलाहल से उपजे अथवा चिड़ियों के कलरव से, कवि की भावना में सम्पूर्ण जगत की भावना समाई रहती है। भले ही कवि कहे कि ‘‘मैं कवि नहीं हूं’’, किन्तु उसकी कविताओं में यदि काव्यात्मक भावनाओं का नादस्वर है तो उसे निर्विवाद रूप से कवि कहा जा सकता है। सिद्धार्थ बाजपेयी एक ऐसे ही कवि हैं जो स्वयं को कवि कहने से हिचकते हैं किन्तु उनकी कविताएं उनके कवित्व को पूरी तरह मुखर करती हैं।
‘‘आसान सी बातें’’ सिद्धार्थ बाजपेयी का प्रथम काव्य संग्रह है जिसमें उनकी कुल 59 कविताएं संग्रहीत हैं। 1957 में जन्में, भौतिक शास्त्र में स्नात्कोत्तर, भारतीय स्टेट बैंक से उप महाप्रबंधक के पद से सेवा निवृत। अंग्रेजी में भी उनकी एक पुस्तक प्रकाशित है ‘‘पेपर बोट राईड’’। हिन्दी में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएं प्रकाशित होती रही हैं। अब हिन्दी में उनका यह प्रथम काव्य संग्रह है। वस्तुतः प्रथम काव्य संग्रह का अर्थ हमेशा यह नहीं होता है कि उसमें आरंभिक अथवा कुछ-कुछ कच्ची कविताएं होंगी। कई बार प्रथम काव्य संग्रह में वे कविताएं होती हैं जिन्होंने अनुभव, आकलन एवं चिंतन-मनन का एक लंबा सफर तय किया हुआ होता है। सिद्धार्थ बाजपेयी के इस प्रथम संग्रह की कविताएं भी इसी श्रेणी की कविताएं हैं। इनमें प्रकृति को आधार बना कर संवेदना के व्यापक संसार की यात्रा की गई है। संग्रह की पहली कविता की पंक्तियां देखिए जिसका शीर्षक है ‘‘बरगद देखता है’’-
बरगद देखता है एकटक
बादलों को
झूलती जटाएं हटाकर
पत्तों की हजार हजार आँखों से
पूरा आकाश देखता है
अपलक अहर्निश
पूरी पूरी पृथ्वी को
अकुला कर/अपने प्राणों में
चिड़या देखती है
घोंसले में चीखती भूख को
घास का हरा तिनका/यकायक
सुधबुध खो देखता है
पूरी देह से/हवा को
मैंने तुमको देखा/ऐसे देखा,/ऐसे देखा।

बरगद की जटाएं चेहरे पर लटकती लटों की कल्पना के साथ पत्तों को बरगद की आंखें मान कर कवि ने भावनाओं का जो ताना-बाना बुना है, वह सहसा आकर्षित करता है तथा एक दृश्य रच देता है पढ़ने वाले की आंखों के सामने। इसी तरह एक कविता है ‘‘शब्दार्थ’’। यह कविता प्रेम का सात्विक एवं आत्मिक स्वरूप प्रस्तृत करती है। इसमें भी आधार है प्रकृति जिसके द्वारा कवि ने प्रेम के स्वरूप को व्याख्यायित किया है।-
प्रेम साफ पानी का झरना है
हरे जंगल की ऊँची एकांत पहाड़ी पर
गिरता हुआ/पत्थरों पर बह कर
बदलता हुआ नए पत्तों और सफेद फूलों में
प्रेम एक उदास रेल लाइन है
जो गुजरती है दूर तक
दोपहर की सांय सांय में
सुरंगों और जंगलों को पार कर/देर रात
नालों और पुलों पर चलती है
प्रेम तेज बारिश से धुंधली हुई शाम में
आल्हा का बिखरता आलाप है
जो कोष्टापारा के थके जुलाहे के
गले से निकल कर /तिर जाता है हवा में
सुनसान आकाश की चांदनी में
झुन्ड से बिछुडे
अकेले पाखी की निशब्द यात्रा,
दिसंबर की सर्द रात खाली से बस स्टैंड पर
ठिठुरते यात्री की हठी प्रतीक्षा,
और बार बार दिखना बंद आँखों को भी
एक खिला खिला अमलतास
अरे, वह भी प्रेम है!

सिद्धार्थ बाजपेयी स्वयं को कवि बनने की दौड़ में नहीं पाते हैं, यही कारण है कि उनकी कविताएं हड़बड़ी में नहीं वरन, तसल्ली से लिखी गई कविताएं हैं जिनमें उनका कहन पूरी तरह स्पष्ट है। सिद्धार्थ बाजपेयी की कविताओं में कथ्य की विविधता है। वे निज के साथ सर्व की बात कहते हैं। वे सांसारिकता के साथ अलौकिक ईश्वरीय बात करते हैं जिससे उनका ‘ईश्वर’ प्रकृति के कण-कण में रूपायित दिखाई देता है। कविता देखिए ‘‘ईश्वर की हंसी’’, कुछ पंक्तियां-
एक छोटी हरी पत्ती में
छुपा होता है आदिम जंगल का अट्टहास
नदी की बूंदों में चमकता है
हिमालय से बहते
पुराने ग्लेशियर का बर्फीला स्पर्श
सड़क पर पड़े पत्थरों में कैद है
पिघलती विशाल चट्टानों का
सदियों पुराना ताप
अनंत आकाश हिलोरें लेता है
तुम्हारी आँख की पुतली में
घास के फूलों में झलक आती है
यकायक ईश्वर की हंसी!

‘‘आसान सी बात’’ कविता संग्रह की कविताओं में एक ऐसा ताज़ापन है जो मन को शीतलता प्रदान करता है। संग्रह में प्रकृति और नैसर्गिक वातावरण को साधारण से शब्दों के माध्यम से संप्रेषित करते हुए भी ऐंद्रजालिक अहसास पिरो दिए गए हैं। साथ ही, रिश्तों के महत्व को दर्शाती हुई कई कविताएं हैं, जो चेतना को आंदोलित करती हैं। फिर भी इन कविताओं में कोई नारेबाजी नहीं, वरन विनम्र आग्रह है अपनी भावनाओं एवं संवेदनाओं को टटोलने का। उदाहरण के लिए ‘‘मेरे देखने से’’ शीर्षक कविता देखिए-
मैंने देखा
तो नीला हो गया आकाश,
झूमने लगे पीपल के चमकते हरे पत्ते
मैंने देखा
तो सफेद बर्फ से ढंका भव्य पहाड़
एकदम से उग आया/क्षितिज पर
मैंने देखा/तो चमकने लगी/तुम्हारी हंसी
मैंने देखा/तो उसी क्षण
दुनिया सुंदर हुई
मैंने देखा/तो उसी क्षण
मैं सुंदर हुआ !
दूसरे को देख कर स्वयं के सुन्दर हो जाने का अहसास कवि ने जिस सुन्दरता से रचा है वह कवि की काव्य-चेतना के प्रति आश्वस्त करता है। किन्तु जैसाकि मैंने पहले ही लिखा है कि सिद्धार्थ बाजपेयी की कविताओं में कहन की विविधता है। वे वर्तमान सांसारिक स्थितियों से भलीभांति परिचित हैं और इसीलिए उस पिता की चिन्ता को रेखांकित करते हैं जिसका बेटा अभी अबोध है, नन्हा है तथा मात्र रोना और हंसना जानता है। ऐसा अबोधपुत्र क्या इस निष्ठुर, छल-कपट से भरे संसार में सुरक्षित रह सकेगा? एक पिता की चिन्ता है कविता ‘‘बेटे के लिए’’ में। एक अंश देखिए -
बहुत डर लगता है मुझे बेटे के लिए
छोटा है/अभी देख नहीं पाता दुनिया
बावजूद खुली आँखों के।
समझता नहीं है फर्क
आग और पानी में
दोस्त और दुश्मन में
सुन कर भी नहीं जान पाता
मीठे शब्दों का जहर।
सिद्धार्थ बाजपेयी ने अपनी कविताओं को सरल, सहज शब्दों में बांधा है। कविता संग्रह ‘‘आसान सी बातें’’ में शाब्दिक सुगमता भले ही हो किन्तु भावार्थ गहन गूढ़ अर्थ समाए हुए है। इस प्रथम संग्रह की कविताओं की परिपक्वता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कवि को अपना सृजन सतत जारी रखना चाहिए।  
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Sunday, September 24, 2023

Article | We Must Cherish Our Natural Legacy | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
We Must Cherish Our Natural Legacy
     -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
 What is our natural legacy? Are you have think about it? Just think! Flowers, trees, rivers, mountains, birds, crickets, black-bees and many living and non-living things are our natural legacy. It is only because of the existence of all these that there is life on this planet. This creates biodiversity and gives birth to the ecosystem. Our ancestors knew the importance of nature very well, that is why they linked it to our customs and traditions. There are many evidences of this in mythological texts. But in the race of modernity, we are forgetting the importance of these traditions and festivals. We make fun of them by calling them backward and are damaging our natural heritage. 
 
Just a few days ago, one of my friends built another room in the courtyard of her house. To build the room, he cut down the guava tree in the courtyard, whereas that tree gave many guavas. I told her that she had to get some designing done which would save the tree and also make the room. She said that this tree was planted because of the vacant land, it had to be cut one day or the other. It was more important for us to get the room built. Will give this room on rent from which rent will be received every month. Her words put me to thought wondering what is more important for us, trees and plants or a few rupees. Whereas nowadays this type of home designing is done in which trees do not have to be cut and the house is also built. My friend told me that earlier too she had to cut a tree which was a Parijat tree with beautiful flowers. I felt sadder. I have remembered those mythological stories which mention the flowers and trees of Parijat. In fact, we not only cut down trees but also cut down our natural legacy.

Parijaat is a flower. It is mentioned in poems, there are stories related to this flower in mythological texts. Small, fragrant white flowers bloom on the Parijat tree at night. It has white colored flowers while the flower stem is orange in colour. By morning these flowers fall on their own. Its flowers appear from August to December. Its botanical name is ‘Nyctanthes arboristris’.
Parijat flowers have special importance in Ayurveda. It is said that by inhaling the fragrance of its flowers for a month, depression goes away. Its leaves and flowers are also used to increase digestive power. Its flowers are used in arthritis. Along with this, problems arising in bones also go away. This flower is the state flower of West Bengal, and is also known as Parijat, Shefali, Siuli and as Coral Jasmine in the West Bengal, . It is called Harigore in Mithila region of Bihar. In Assam it is called Hevali, in Sri Lanka it is called Sepalika. In Kerala, where it is called Pavijahamalli in Malayalam, in Thailand it is commonly called Night-flowering Jasmine.

Parijat appears in many Hindu religious stories and is often related to the Kalpavriksha (Tree of heaven). This tree appears in Bhagwat Purana, Mahabharata and Vishnu Purana. When Dhritarashtra gave exile to the sons of Pandu, the Pandavas resided in the forest here with their mother Kunti. To worship Lord Shiva, Mother Kunti expressed her desire to bring Parijat flower from heaven. As per his mother's wish, Arjun took this tree from heaven and established it here.

The second mythological belief is that once Shri Krishna along with his queen Rukmini came to Raivatak mountain for the fasting ceremony. At the same time Narad brought with him the Parijat flower in his hand. Narad presented this flower to Shri Krishna. Shri Krishna gave this flower to Rukmini and Rukmini put it in the bun of her hair, on this Narad praised and said that after putting the flower in the bun, Rukmini started looking a thousand times more beautiful than her aunts. Seeing this, Shri Krishna's second wife Satyabhama demanded the entire Parijat tree. After which Lord Krishna requested Indra to give him the Parijat tree. But Indra rejected his request. After which, on the insistence of Satyabhama, God attacked heaven sitting on Garuda. In this war, Satyabhama and Krishna fought together and defeated all the gods and Lord Krishna himself held Indra's hands and made his thunderbolt stand erect. It has been a special gem among the 14 gems. According to Hindu beliefs, Lord Hari is also adorned with the flowers of the Parijat plant.

Harivansh Purana, the tiredness of the dancer of Indrasabha Urvashi would go away just by touching it. Goddess of wealth Lakshmi is very fond of Parijat flowers. It is also believed that if these flowers are offered to Goddess Lakshmi during worship, she becomes very happy. As per Hindu mythology, Indra, the King of Devas, took Kalpa Taru or Parijat tree to Indraloka and planted it in his garden and gifted it to his wife, Indrani. Since then, the tree is referred to as Tree of the Universe and its flowers are considered as the Jewels of Gods.
A special thing about Parijat flowers is that only those Parijat flowers are used in the worship which automatically falls on the ground. These flowers are not plucked from the plant and offered in worship, whereas other flowers are plucked from the plant and offered in worship. If other flowers have fallen on the ground, they are not considered worthy of worship.
How do we cut down flowering trees of such special importance? These trees are our natural legacy. These are related to our religion and our faith. Yet we commit the heinous crime of getting them cut, that too in the greed of earning a few rupees? Today there are very few people who know about the Parijat tree because the shrinking gardens and diminishing vegetation have made many such trees extinct from the cities which are quoted in our Puranas. This means that we are falsifying our mythological past. When there is no evidence left, trees like Parijat will be considered imaginary.

Trees are an integral part of Indian culture. In our mythological texts, serving trees is considered equivalent to serving parents. And for plantation, it has been said that one tree is equal to a hundred sons. There are many such festivals in our Indian culture in which trees are worshiped like gods and votive threads are tied on those trees. In the race of modernity, we are forgetting the importance of these traditions and festivals. We make fun of them by calling them backwardness whereas such festivals strengthen the relationship between man and nature. We don't even think of harming those with whom we are close. That is why our ancestors had linked faith and customs with trees and plants.
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 (24.09.2023)
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Friday, September 22, 2023

शून्यकाल | भारतीय संस्कृति और मानवमूल्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"शून्यकाल"... "दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
भारतीय संस्कृति और मानवमूल्य
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                    
    संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। ऐसी भारतीय संस्कृति की नाभि में मानवमूल्य ठीक उसी तरह अवस्थित है जैसे भगवान विष्णु की नाभि में कमल पुष्प और उस कमल पुष्प पर जिस तरह ब्रह्मा विद्यमान हैं, उसी तरह मानवमूल्य पर ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ की लोक कल्याणकारी भावना विराजमान है। वस्तुतः मूल भारतीय संस्कृति में धर्म, जाति, विचार आदि के भेद को ‘भेद’ या अलगाव नहीं वरन् विविधता माना गया है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है।

     संस्कृति, राष्ट्र और समाज ये तीन ईकाइयां हैं, जो मानव संस्कृति को आकार देती हैं। सुसंस्कृति से सुराष्ट्र आकार लेता है और अपसंस्कृति से अपराष्ट्र। शब्द अनसुना सा लग सकता है-‘‘अपराष्ट्र’‘। किन्तु यदि राष्ट्रों की राजनीतिक स्तर पर अपराधों में लिप्तता राजनीतिक कुसंस्कारों को जन्म देती है और यही कुसंस्कार राष्ट्र में अतंकवाद की गतिविधियों को प्रश्रय देते हैं। विश्व में कई देश ऐसे हैं जो राजनीतिक दृष्टि से अपराष्ट्र की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वहीं भारत की संस्कृति का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें अपसंस्कारों की कोई जगह नहीं है। भारतीय संस्कृति ‘‘अप्प देवो भव’’ की संस्कृति है। यदि प्रत्येक मनुष्य में देवत्व के गुण जाग्रत हो जाएं तो सांस्कृतिक विकार जागने अथवा किसी विषम पल में जाग भी जाए तो उसके स्थाई रूप से बने रहने का प्रश्न ही नहीं है। संस्कृत में प्रणीत हमारा संपूर्ण वाङ्मय वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि के रूप में विद्यमान है, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इन प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि संस्कृति एक शाब्दिक ईकाई नहीं वरन् जीवन की समग्रता की द्योतक है। संस्कृति मात्र चेतन तत्वों के लिए ही नहीं अपितु जड़तत्वों के लिए भी प्रतिबद्धता का आग्रह करती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या जड़ तत्वों के लिए भी कोई सांस्कृतिक आह्वान होता है जबकि जड़ तो जड़ है, निचेष्ट, निर्जीव। फिर निर्जीव के लिए संसकृति का कैसा स्वरूप, कैसा रूप? ठीक इसी बिन्दु पर भारतीय संस्कृति की महत्ता स्वयंसिद्ध होने लगती है।
 भारतीय संस्कृति समस्त जड़ ओर समस्त चेतन जगत से तादात्म्य स्थापित करने का तीव्र आग्रह करती है। यही आग्रह आज हम पर्यावरण संतुलन के आग्रह के रूप में देखते हैं, सुनते हैं और उसके लिए चिन्तन-मनन करते हैं। जब पा्रणियों का शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और ये पंचतत्व वही हैं जिनसे संसार के जड़ तत्वों की भी पृथक-पृथक रचना हुई है, तो जड़ और चेतन के पारस्परिक संबंध अलग कहां हैं? ये दोनों तो घनिष्ठता से परस्पर जुड़े हुए हैं। 

संस्कृति की ध्वजा को फहराते रहने का दायित्व मानव का है क्योंकि वही धरती पर उपस्थित शेष प्राणियों में सबसे अधिक विचारवान और निर्मितिपूर्ण है। निर्माणकौशल के सतत् विकास ने मानव को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठतर बना दिया है। मनुष्य के निर्माणकौशल ने ही उसे सामाजिक प्राणी बनाया और मिलजुल कर रहने के लाभ को जानना सिखाया। मानव के निर्माणकौशल के विकास ने आज उसे इलेक्ट्राॅनिकयुग तक पहुंचा दिया है और यह विकासयात्रा अभी जारी है। किन्तु इसी विकास ने मानवजीवन में ‘‘मूल्य’’ शब्द के स्वरूप को अर्थतंत्र का अनुगामी बना दिया है। यूं तो ‘‘मूल्य’’ एक मानक है श्रेष्ठता के आकलन का। जिसके लिए अधिक श्रम, अधिक मुद्रा खर्च करनी पड़े, जिसके लिए मानव मन में अधिक ललक हो किन्तु उपलब्धता सीमित हो, वह मूल्यवान है। इसके विपरीत जो सुगमता से, कम मुद्राओं में मिल जाए, जिसकी उपलब्धता भी प्रचुर हो और जिसके प्रति मानव मन में अधिक ललक न हो वह सस्ता कहलाता है। यही परिभाषा बनाई है अर्थशास्त्रियों ने। किन्तु जब बात संसकृति की हो अर्थात् जीवनशैली की हो तो ‘‘मूल्य’’ शब्द का अर्थ असीमित और अपरिमित हो जाता है। संस्कृति बाज़ार की वस्तु नहीं है, उसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता है। संस्कृति तो आचरण है जिसे अपनाया अथवा छोड़ा जा सकता है। जो संस्कृति को अपनाता है वह संस्कारवान होता है और जो संस्कृति का त्याग कर देता है, त्याग से यहां आशय सांस्कृति मूल्यों के त्याग से है। तो, जो संस्कृति को त्याग देता है वह असंस्कारी हो जाता है। 

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी - देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। समयानुसार परिवर्तनों के बाद भी भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में निरन्तरता रही है।
भारतीय संस्कृति वह मार्ग सुझाती है कि वे सांस्कृतिक मूल्य कहां से सीख सकते हैं जो मनावजीवन को मूल्यवान बना दे -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम्।

अर्थात् - वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गाय परोकार के लिए दूध देती हैं अतः अपने शरीर अर्थात् अपने जीवन को भी परोपकार में लगा देना चाहिए।

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चैरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मां है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे। भारतीय संस्कृति लोक व्यवहार की संस्कृति है जो हमने प्रकृति से सीखी है, इस बात को हमेशा हमें याद रखना चाहिए।                                                 
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Thursday, September 21, 2023

बतकाव बिन्ना की | इनको पेट गणेशजी के पेट से बड़ो कहानो | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"इनको पेट गणेशजी के पेट से बड़ो कहानो" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
इनको पेट गणेशजी के पेट से बड़ो कहानो
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘का सोच फिकर में डूबी हो बिन्ना?’’ मोय देखत साथ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मैं जे सोच रई के पंडाल सज गए। गणपति बिराज गए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, सो ईमें सोचबे को का? जे तो हर साल होत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो कित्तों अच्छो लगत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! अच्छो तो लगत आए, मनो काय तुम टरका रईं औ मोय असल बात नई बता रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोनऊं असल-वसल बात नइयां।’’
‘‘कैसे नइयां? का हम तुमें जानत नइयां। तुमाए माथे पे लकीरें देख के हम जान जात आएं के तुमें कोनऊं सोच मे हो।’’ भैयाजी बोले। ‘‘सो बताओ के का सोच रईं?’’ भैयाजी ने फेर के पूछी।
‘‘मैं जे सोच रई भैयाजी के जे जो अपने इते जित्ते बी भ्रष्टाचारी आएं इनको पेट सो मानो गणेशजी के पेट से बड़ो कहानो।’’ मैंने कई।
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे के बेचारे गणेशजी सो लडडुअन के प्रेमी ठैरे, सो लड्डू खाए से उनको पेट फट गओ रओ, मनो इते तो जे भ्रष्टाचारी हरें खात जात-खात जात, औ डकार बी नईं लेत। पेट फटबे की तो छोड़ो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, बेई हराम के रुपैया से अपने घरे जिम बना के पेट कम कर लेत आएं।’’ भैयाजी हंस के बोले। फेर पूछन लगे,‘‘मनो जे गणेशजी के पेट फटबे की किसां कैसी आए?’’
‘‘आप खों नई पतो?’’ मैंने पूछी।
‘‘नईं! हो सकत के कभऊं लोहरे में सुनी होय, सो अब याद कोन आए।’’
‘‘चलो आप के लाने सुनाए दे रई गणेशजी की कथा। कछू पुण्य सोई मिल जैहे!’’ मैंने हंस के कई औ फेर गणेशजी की कथा सुनानी शुरू करी।
एक दार का भओ के गणेशजी एक गांव गए। उते कई जांगा पूजा हो रई हती औ सबई जांगा लड्डुअन को भोग लगाओ जा रओ हतो। अपने गणेशजी ठैरे लड्डुन के प्रेमी। उन्ने सबई जांगा के लडुआ जीम लए। एक तो बड़ो सो पेट, औ ऊंमें भर गए मुतके लडुआ। अब उनसे चलो नईं जा रओ हतो। ऊपर आसमान पे से चन्दा उने देख रओ हतो। ऊको गणेशजी की दसा देख के खूबई मजो आ रओ हतो। ऊंने सोची कि गणेशजी को तनक परेसान करो जाए। सो चन्द्रमा ने उने सलाह दई के जे जो तुमाए पेट के लड़ुआ तुमें परेसान कर रए, उनके लाने ऐसो करो के घड़ा भर दूध पी लेओ, इसे बे लड़ुआ पच जैहें। बिचारे गणेशजी आ गए ऊके कहे में। बे एक घरे पौंचे, उते रखो हतो घड़ा भर दूध। उन्ने घड़ा उठाओ औ पी गए सबरो दूध। फेर का हती, उनकी दसा औ बिगर गई।
गणेशजी ने सोची के कैसऊं बी घरो पौंचो जाए। उते मताई कछू दवा दैंहे सो आराम मिलहे। सो, बे लुढ़कत-पुढ़कत अपने घरे खों चल परे। जब चलो ने गओ सो अपनी सवारी चूहा पे बैठ के चल परे। अबे कछू दूर पौंचे हते के उते रस्ता में एक सांप कढ़ आओ। चूहा ने सांप खों देखी सो बो डरा गओ। ऊने छिपबे के लाने लगा दई दौड़। जा हड़बड़ में गणेशजी उतई ढुलक गए। औ उनको पेट फट गओ। मनो पेट के भीतरे के सबई लड़ुआ बाहरे आ गिरे। चन्दा ने गणेशजी की जे दसा देखी सो ऊको मनो हंसी को दौरा सो पर गओ। बा उते ऊंपरे से ताली बजा-बजा के हंसन लगो।
इत्ते में गणेशजी की मताई पार्वती उने ढूंढत-ढूंढत उते आ पौंची। जो उन्ने अपने बालक की दसा देखी, सो बे घबड़ा गईं। उन्ने बोई सांप पकरो और बोई से अपने बालक को पेट सिल दओ। फेर उनको ध्यान गओ के ऊपरे टंगो चन्दा ठिठिया रओ आए। खीं-खीं करत भओ हंसो जा रओ। अब बे कोनऊं ऐसी-वेसी मताई सो ठैरी ने तीं, के गम्म खा जातीं। उने चन्दा पे आओ गुस्सा औ उन्ने शाप दे दओ के ‘‘जे जो तुम हमाए बालक की दसा पे हंस रए आओ सो तुमाई दसा ईसे बुरी हुइए। तुम दुबरे होत-होत मर जैहो।’’
जे सुन के चन्दा को समझ परी के ऊंसे का गलती हो गई आए? बा रोन लगो के हमें माफ कर देओ। अब हम कोनऊं पे कभऊं ने हंसहें। कोनऊं खों तंग ने कर हें। पर पार्वती मैंया सो हती गुस्से में। उन्ने एक ने सुनी। औ बे अपने बालक गणेश जी खों ले के घरे चल परीं। चंदा हतो सो पार्वती मैया के शाप से पतरो होन लगो। सो बा भाग के ब्रह्मा, बिष्णु, महेश तीनों के ऐंगर पौंचो औ रोन लगो के मोय बचा लेओ। तीनों देवता ने कही के हम एक माता के शाप खों खतम नईं कर सकत आएं। माता के आगे हमाई बी कछू नईं चलत। तुम तो जा के माता के पांव पकर लेओ औ तभई छोड़ियो जब बे मान जाएं। पतरो होत जा रओ चंदा भगत-भगत पार्वती मैया के लिंगे पौंचो।
‘‘हमें माफी दे देओ! हमसे गल्ती हो गई। जो आप हमें माफ ने करहो सो हम इतई आप के पांव पकरे-पकरे मर जेबी औ आप खों पाप परहे के आपने दया की भीख मांगबे वारे खों भीख ने दई औ बो मर गओ।’’ चंदा कैन लगो।
पार्वती मैॅया ने सोची के जो ईको माफ ने करो सो जे मोरो पांव ने छोड़हे। औ इतई मर गओ सो सबरे नांव धराहें। सो उन्ने चन्दा खों कंधा पकर के उठाओ औ बोलीं के ‘‘सुनो! तुमने भौत बड़ो पाप करो आए। तुमने हमाए बालक खों दूध पीबे की गलत सलाह दई। जीसे ऊंको पेट औरई फूल गओ औ तनकई में फट परो। बो मर सकत्तो। सो तुमें ईकी सजा सो मिलहे ई। सजा से तुम नईं बच सकत। बस, हम जेई कर सकत आएं के तुमाई सजा कम कर दैंबे।’’
‘‘हऔ, हमें मजूर आए। आप जो सजा दैंहों मोय कबूल आए, बस मोय मरबे से बचा लेओ।’’ चंदा रोत भओ बोलो।
‘‘सो सुनो! तुम पंद्रा दिना दूबरे हुइयो औ पंद्रा दिनां मुटाहो। हमेसा एक से ने रै पाहो। मजूंर होय सो बोलो ने तो तुमाओ मरबो तै आए।’’ पार्वती मैया बोलीं।
‘‘हऔ हमें मंजूर आए।’’ चंदा ने जे सजा मान लई। मरबे से तो अच्छी हती।
‘‘तुम जब दूबरे होत-होत न दिखाहो, सो मावस परहे औ मावस के बाद फेर तुम मुटाबो शुरू करहो। चलो, अब हमाएं पांव छोड़ो औ अपने घरे जाओ।’’ पार्वती मैया बोलीं।
चंदा ने मैया के पांव छोड़े औ प्रान बचात भओ अपने घरे खों भागो।
जे किसां सुन के भैयाजी बोल परे,‘‘सो जे आए गणेश जी के पेट फटबे की किसां।’’
‘‘हऔ! जोन दिनां उनको पेट फटो रओ, ऊं दिनां भादों की चतुर्थी रई। जेई से कओ जात आए के जो भादों की चतुर्थी को चंदा देखत आए ऊंको दोस लगत आए। कृष्णजी ने चौथ को चंदा देख लओ रओ, सो उनको सोई झूठी चोरी को इलजाम लग गओ रओ।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘बा कैसी किसां आएं?’’ भैयाजी ने पूछीं।
‘‘अब सबरी किसां आजई नईं सुना रई। कोनऊं और दिनां सुनाबी। मैं सो जे कै रई हती के जे जो जनता को पइसा डकार जात आएं, ने तो उनको पेट फटत आए औ ने उने कोनऊं दोस लगत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘मनो, उतई कोनऊं एकादई रुपइया नाए से मांए कर देवे सो ऊको तुरतई सजा दे दई जात आए। बे चोर हरें इते के पइसा खा-खुआ के बिदेस भाग गए, उने अबे लो देस में ने लौटा पाए। औ जो अपन ओरें कोनऊं किस्त टेम पे ने भर पाएं सो पैले सरचार्ज ठोंक दओ जात आए, औ ऊंके बाद तो कओ कुर्की करा दई जाए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो मैं कै रई के जे बड़े मगरमच्छ तला की मछरिया बी खा जात आएं औ फेर तला के किनारे धूप सेंकत ऐसे परे रैत आएं के मनो उन्ने तो कभऊं मछरिया को मों ने देखो होय। बाकी चोरी सो चोरी होत आए, चाए एक रुपइया की होय, चाय एक हजार करोड़ रुपैया की।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘ठैरो-ठैरो! जे तुम कित्ते की बोल गईं? एक हजार ... औ...?’’भैयाजी ने पूछी।
‘‘एक हजार करोड़ की।’’ मैंने दोहराई।
‘‘तुमें पतो के एक हजार करोड़ में कित्ते सुन्न होत आएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मोय कां से पतो हुइए? मैंने करोड़ कभऊं नईं देखे, सो एक हजार करोड़ कां से पतो हुइए?’’ मैंने कई।
‘‘सो तुमें जे कां से सूझी?’’
‘‘जो घोटालन की खबरें पढ़त रओ, सो ईसे बड़े आंकड़े पढ़बे खों मिल जैंहें। बे ओरें सो पइसा जीम रए औ अपन आंकड़े गिनत रैत आएं।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ जे तो आए। मनो अपनो जी छोटो ने करो। काय से के तुमाए सोचे से कछू ने सुधरे। तुम तो गणपति बप्पा की जै बोलो औ खुस रओ।’’ भैयाजी बोले।
सो मैंने सोई गणपति बप्पा की जै करी औ झांकी देखबे निकर परी। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, September 20, 2023

चर्चा प्लस | श्रीगणेश के प्रथमपूज्य देवता होने का समसामयिक महत्व | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
श्रीगणेश के प्रथमपूज्य देवता होने का समसामयिक महत्व           
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
          चाहे हिन्दू हों अथवा किसी अन्य धर्म को मानने वाले, किन्तु सभी जानते हैं कि हिन्दू पूजाविधि में श्रीगणेश की पूजा से ही हर अनुष्ठान आरम्भ होता है। हिन्दू धर्म में श्रीगणेश को कार्य आरम्भ करने का पर्याय माना गया है। इसीलिए किसी भी कार्य को आरम्भ करते हुए कहा जाता है कि ‘‘श्रीगणेश किया जाए’’। गणेश को विघ्नविनाशक देवता माना गया है अतः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व यह विघ्नहर्ता की प्रार्थना भी आवश्यक है। किन्तु श्रीगणेश ही क्यों प्रथमपूज्य देवता माने गए, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो स्वयं में सर्वशक्तिमान देवता हैं? तो चलिए देखते हैं उन पौराणिक कथाओं को जो यह बताती हैं कि गणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने। ये कथाएं वर्तमान जीवन को भी महत्वपूर्ण सबक देती हैं।
हिन्दू धर्म संस्कृति में हर शुभकार्य एवं पूजाविधि का आरंभ श्रीगणेश पूजा से ही होता है। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ लिखते हैं। यहां तक कि चिट्ठी और महत्वपूर्ण कागजों में लिखते समय भी ‘‘ऊं’’ या ‘‘श्रीगणेश’’ का नाम अंकित करते हैं। क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीगणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। शुभकार्यों के आरंभ एवं पूजन के पूर्व श्रीगणेश पूजा ही क्यों की जाती है? इस संबंध में पौराणिक ग्रंथों में विविध कथाएं मिलती है।
कहा जाता है कि कोई भी जीत बल से नहीं वरन बुद्धि से हासिल होती है। एक पहलवान शारीरिक दृष्टि से कितना भी बलशाली क्यों न हो, यदि उसमें दांव-पेंच की बुद्धि नहीं है तो उसका पटखनी खाना तय है। इसी बात को प्रमाणित करती है यह कथा कि श्रीगणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने।
कथा के अनुसार एक बार सभी देवता इंद्र की सभा में बैठे हुए थे। बात पृथ्वीलोक की होने लगी। तब यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर किस देवता की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए? सभी देवता स्वयं को बड़ा बताते हुए दावा करने लगे कि उनकी पूजा सबसे पहले होनी चाहिए। तब देवर्षि नारद ने हस्तक्षेप किया और सलाह दी कि सभी देवता अपने-अपने वाहन से पृथ्वी की परिक्रमा करें। जो देवता सबसे पहले परिक्रमा पूरी कर लेगा, वही पृथ्वी पर प्रथमपूज्य होगा। देवर्षि नारद ने शिव से निणार्यक बनने का आग्रह किया। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। विष्णु गरुड़ पर, कार्तिकेय मयूर पर, इन्द्र ऐरावत पर सवार हो कर तेजी से निकल पड़े। जबकि श्रीगणेश मूषक पर सवार हुए और अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। माता पार्वती ने गणेश का यह कृत्य देखा तो उनसे पूछा कि ‘‘गणेश यह तुम क्या कर रहे हो? सभी देवता परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं और तुम हमारी परिक्रमा कर के यही खड़े हो? क्या तुम्हें पृथ्वी का प्रथमपूज्य देवता नहीं बनना है?’’
इस पर गणेश जी ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया,‘‘माता! मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर के पृथ्वी ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली है। माता-पिता में ही पूरा ब्रह्मांड समाया होता है। अब मुझे पृथ्वी की परिक्रमा कर के क्या करना है!’’
  पुत्र गणेश का उत्तर सुन कर शिव और पार्वती दोनों प्रसन्न हो गए। वे समझ गए कि उनका यह पुत्र सबसे अधिक बुद्धिमान है और एक सबसे बुद्धिमान देवता की पूजा से ही हर कार्य आरम्भ होना चाहिए।
तभी सभी देवताओं में कार्तिकेय सबसे पहले लौटा और उसने गर्व से कहा कि ‘‘पिताश्री! मैं पृथ्वी की परिक्रमा कर के सबसे पहले आया हूं अतः अब पृथ्वीवासी सबसे पहले मेरी पूजा किया करेंगे। मैं ही प्रथमपूज्य देवता हूं।’’  
तब शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘‘हे पुत्र कार्तिकेय, तुम प्रथम नहीं आए हो! तुमसे पहले तुम्हारा भाई गणेश परिक्रमा कर चुका है। वह भी पृथ्वी की ही नहीं वरन पूरे ब्राम्हांड की। अतः यही प्रथमपूज्य होगा।’’
कार्तिकेय को यह सुन कर बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कि माता-पिता पक्षपात कर रहे हैं। उसने शिव को उलाहना दिया कि ‘‘आप गणेश को इस लिए विजयी कह रहे हैं न क्योंकि वह आपका प्रिय पुत्र है? वह मोटा है और उसका वाहन छोटा चूहा है, इसलिए आपको उस पर दया आ रही है। यही बात है न?’’
यह सुन कर शिव ने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कार्तिकेय को समझाया कि ‘‘नहीं पुत्र कार्तिकेय! मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूं। मेरे लिए मेरी सभी संतानें समान रूप से प्रिय हैं। तुम तथा अन्य देवता महर्षि नारद का प्रयोजन नहीं समझे जबकि गणेश ने समझ लिया। गणेश जान गया कि नारद बुद्धि की परीक्षा ले रहे हैं, परिक्रमा की गति की नहीं। अतः उसे बुद्धि से काम लिया और मेरी तथा तुम्हारी मां पार्वती की परिक्रमा करते हुए ब्रह्मांड की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने प्रतियोगिता भी जीत ली।’’
जब कार्तिकेय ने यह विवरण सुना तो वह लज्जित हो उठा और उसने श्रीगणेश को उनकी विजय पर बधाई दी। तब तक सभी देवता परिक्रमा कर के लौट आए थे। उन्होंने भी सर्व सम्मति से बुद्धि के देवता गणेश को प्रथमपूज्य देवता स्वीकार कर लिया।
       एक अन्य कथा भी है जो श्रीगणेश के जन्म से जुड़ी हुई है। एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए स्नानघर में प्रवेश करने वाली थीं। किन्तु वहां आस-पास कोई नहीं था जिसे वे द्वार पर पहरा देने का काम सौंपतीं। वे नहीं चाहती थीं कि जब वे स्नान कर रही हों तो कोई आ कर उनके स्नानकर्म में व्यवधान डाले। तब माता पार्वती को एक उपाय सूझा। उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूंक कर उसे जीवित कर दिया। प्राण प्राप्त होते ही बालक ने हाथ जोड़ कर पूछा,‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है माता?’’
‘‘तुम इस महल के द्वार पर पहरा दोगे। जब तक मेरा स्नान पूर्ण न हो जाए तब तक किसी को भी महल में प्रवेश मत करने देना।’’ पार्वती ने आज्ञा दी।
‘‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य माता!’’ कहते हुए वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा।
कुछ देर में भगवान शिव वहां आ पहुंचे। द्वार पर बैठा बालक तो सद्यः जन्मा था अतः शिव अथवा किसी अन्य व्यक्ति के बारे में उसे ज्ञान नहीं था। उसने शिव को महल में प्रवेश करने से रोका। शिव ने उसे सामझाया कि वे इसी महल में रहते हैं और जिस माता की आज्ञा का तुम पालन कर रहे हो वह मेरी अद्र्धांगिनी है।
‘‘तो क्या अद्र्धांगिनी की कोई अपनी इच्छा या प्रतिष्ठा नहीं होती है? यदि वे चाहती हैं कि इस समय महल में कोई प्रवेश न करे, तो उनकी यह इच्छा आप पर भी लागू होती है।’’ उस बालक ने तर्क दिया। यह सुन कर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधावेश में बालक का सिर काट दिया। तब तक झगड़े की आवाज सुन कर पार्वती द्वार तक आ पहुंची थीं। उन्होंने उस बालक को सिरविहीन देखा तो दुख और क्रोध से भर उठीं।
‘‘यह आपने क्या किया? आपने मेरे पुत्र का सिर क्यों काटा? मेरा पुत्र आपका भी पुत्र हुआ अतः आपने अपने पुत्र का सिर काट कर आप पुत्रहंता बन गए।’’ पार्वती ने कहा।
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि यह आपका पुत्र है? यह हठ कर रहा था और मुझे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहा था इसीलिए मुझे क्रोध आ गया।’’ शिव ने पार्वती को शांत करना चाहा।
‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती हूं! आप मेरे आज्ञाकारी पुत्र को जीवित करिए, अन्यथा मैं भी प्राण त्याग दूंगी।’’ पार्वती ने शिव को चेतावनी दी।
तब शिव ने हाथी के सद्यःमृत बच्चे के सिर को उस बालक धड़ से जोड़ दिया जिससे वह बालक पुनर्जीवित हो उठा। सूंड़धारी उस बालक को माता पार्वती ने प्रसन्नता से गले लगा लिया। उस बालक ने भगवान शिव को प्रणाम करते हुए कहा,‘‘पिताश्री, जिस प्रकार माता पार्वती ने मुझे बनाया और मुझे प्राण दिए उसी प्रकार आपने मुझे पुनर्जीवन दिया अतः आप दोनों मेरे जन्मदाता माता-पिता हैं, मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूं।’’
यह सुन कर भगवान शिव समझ गए कि यह बालक सामान्य नहीं है अपितु सभी देवताओं में बुद्धिमान है अतः उन्होंने उस बालक का नामकरण करते हुए उसे आर्शीवाद दिया कि ‘‘तुम आज से गणेश, गणपति एवं गजानन, गजवदन आदि नामों से जाने जाओगे और तुम बुद्धि के देवता होने के कारण सभी देवताओं से पहले पूजे जाओगे।’’
   यह सुन कर माता पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने अपने पुत्र गणेश को ‘‘श्रीगणेश’’ कह कर संबोधित किया।
         श्रीगणेश के प्रथम पूज्य होने के संबंध में प्रचलित तीसरी कथा इस प्रकार है कि एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनका एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा भगवान शिव को बताई। इस पर शिव ने उन्हें पुष्पक व्रत करने की सलाह दी। पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ का आरम्भ हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र सनत कुमार यज्ञ की पुरोहिताई कर रहे थे।
यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि जिस प्रकार यह यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है उसी प्रकार आपकी इच्छानुरूप विध्नविनाशक पुत्र आपको प्राप्त होगा। विष्णु से यह आशीर्वाद पा कर माता पार्वती प्रसन्न हो उठीं। यह देख कर सनत कुमार ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। पुरोहित हूं। यज्ञ भले ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।’’
‘‘बताइए आपको दक्षिणा में क्या चाहिए?’’ माता पार्वती ने सनत कुमार से पूछा।
‘‘माता भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।’’ सनत कुमार ने विचित्र मांग की।
‘‘ऋत्विक सनत कुमार!, आप एक स्त्री से उसका पति अर्थात् उसका सौभाग्य मांग रहे हैं जो देना मेरे लिए संभव नहीं है। अतः आप कुछ और मांगिए।’’ माता पार्वती ने सनत कुमार की मांग ठुकराते हुए कहा।
सनत कुमार अपनी मांग पर अड़ गए। पार्वती ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि यदि मैं आपको अपना पति सौंप दूंगी तो मुझे पुत्र की प्राप्ति कैसे होगी? यज्ञ का फल तो उस स्थिति में भी नहीं मिलेगा। अतः आप हठ छोड़ दें। किन्तु सनत कुमार अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब शिव ने पार्वती को समझाया कि ‘‘आप मुझे सनत कुमार को दक्षिणा में दान कर दें और विश्वास रखें कि आपकी इच्छा भी पूर्ण होगी।’’
पार्वती सनत कुमार को दक्षिणा में शिव का दान करने ही वाली थीं कि एक दिव्य प्रकाश के रूप में विष्णु प्रकाशित हुए तथा अगले ही पल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर के सनत कुमार के सामने आ खड़े हुए। सनत कुमार ने विष्णु के कृष्ण रूप का दर्शन किया और कहा,‘‘मेरी इच्छा पूर्ण हुई अब मुझे दक्षिणा नहीं चाहिए। मैं जानता था कि आपको दान देने से रोकने के लिए विष्णु मेरी इच्छा पूर्ण अवश्य करेंगे।’’
इसके बाद सभी देवता तथा यज्ञकर्ता पार्वती को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए। पार्वती अभी अपनी प्रसन्नता से आनन्दित ही हो रही थीं कि एक विप्र याचक वहां आ गया। उसने खाने को कुछ मांगा। पार्वती ने उसे मिष्ठान्न दिए। उतना खा लेने के बाद वह याचक बोला,‘‘मां अभी भूख नहीं मिटी है, थोड़ा और दो!’’
पार्वती ने और मिष्ठान्न दे दिया। इसके बाद याचक खाता जाता और मांगता जाता। पार्वती उसे खिला-खिला कर थक गईं। उन्होंने शिव से कहा कि ‘‘ये न जाने कैसा याचक आया है जिसका पेट ही नहीं भर रहा है। मैं तो खिला-खिला कर थक गई।’’
‘‘कहां है वह याचक?’’ कहते हुए शिव याचक को देखने निकले तो वहां कोई नहीं था। पार्वती चकित रह गईं कि अभी तो वह याचक भोजन की मांग कर रहा था और पल भर में कहां चला गया? तब शिव ने पार्वती को उस याचक का रहस्य समझाया कि वह कोई याचक नहीं बल्कि तुम्हारे उदर से जन्म लेने की तैयार कर रहा गणेश है जो जन्म के बाद लंबोदर कहलाएगा और देवताओं में प्रथम भोग पाने वाला प्रथम पूज्य होगा।’’
ये तीनों कथाएं न केवल अयंत रोचक हैं बल्कि यह बताती हैं कि बुद्धि का उपयोग करने वाला ज्ञानी ही प्रथम पूज्य बनता है। इन कथाओं को मात्र धार्मिक भावना से नहीं, वरन ज्ञान भावना से भी समझने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धि ही है जो जीवन में सुख, संपदा और सफलता दिलाती है तथा बुद्धि के देवता हैं श्री गणेश इसीलिए तो वे ही प्रथम पूज्य देवता हैं।  
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Tuesday, September 19, 2023

गणेशचतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ,
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।
🚩गणेशचतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं 🚩
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
#HappyGaneshChaturthi 🚩

पुस्तक समीक्षा | मुट्ठियों में धूप ले कर रचे गए नवगीत | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 19.09.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई नवगीतकार श्री मनोज जैन जी के नवगीत संग्रह "धूप भरकर मुट्ठियों में" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
मुट्ठियों में धूप ले कर रचे गए नवगीत
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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नवगीत संग्रह - धूप भरकर मुट्ठियों में
कवि        - मनोज जैन
प्रकाशक    - निहितार्थ प्रकाशन, एम.आई.जी., ग्राउण्ड फ्लोर -1, ए-129, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, साहिबाबाद, गाजियाबाद -201005
मूल्य       - 250/-
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जब भाषा नए मुहावरे गढ़ती हो और सृजन में नया संवाद हो तो ऐसे नवगीत देर तक स्मृति में ठहरे रहते हैं। ऐसे नवगीत चेतना को स्पंदित करते हैं, सोचने पर विवश करते हैं और आकलन क्षमता को बढ़ा देते हैं। यही उन नवगीतों की सार्थकता होती है। कवि मनोज जैन के नवगीत भी इसी श्रेणी के हैं। वे अपने नवगीतों के माध्यम से वैचारिक सत्ता को ललकारते हैं, उद्वेलित करते हैं तथा व्यवस्था में परिष्कार करने का आग्रह करते हैं। लगभग दस-ग्यारह वर्ष पहले मनोज जैन का एक प्रथम नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ था ‘‘एक बूंद हम’’। उनके प्रथम संग्रह ने पर्याप्त लोकप्रियता हासिल की थी। एक लम्बे अंतराल बाद उनका दूसरा नवगीत संग्रह आया है ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’। इससे पता चलता है कि अपने सृजित के प्रकाशन को ले कर उनके भीतर कोई हड़बड़ी नहीं है। वे ठहर कर सृजन करना चाहते हैं और फिर अपने सृजित में से चयनित नवगीतों को पाठकों सामने रखते हैं। यह ठहराव, यह धैर्य वर्तमान में कम रचनाकारों में देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के लाईक्स और कमेन्ट्स के आधार पर रातों-रात बड़े रचनाकार होने का भ्रम पालते देर नहीं लगती और उतनी ही शीघ्रता से आ जाता है उनके अधपके सृजन का संग्रह। जबकि मनोज जैन भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और ‘‘वागर्थ’’ नामक अपने नवगीत समूह पर अनेक रचनाकारों को पटल उपलब्ध कराते रहते हैं। इसके साथ उनका अपना सृजन भी गतिमान है। फिर भी पूरे इत्मिनान से उन्होंने अपना दूसरा नवगीत संग्रह ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’ पाठकों के समक्ष लाया।
मनोज जैन के इस द्वितीय नवगीत संग्रह में ‘‘मनोज जैन ‘मधुर’ के नवगीतों के बहाने’’ शीर्षक से पंकज परिमल ने नवगीत की प्रकृति, उसके तत्वों, महत्ता एवं सरोकार पर विस्तार से चर्चा की है जो कि नवगीत में रुचि रखने वालों के लिए सार्थक लेख है। उन्होंने मनोज जैन के नवगीतों को भी सराहा है। ‘‘आध्यात्मिक चेतना से सम्पन्न समर्थ कवि के गीत’’ के रूप में मनोज जैन के नवगीतों पर टिप्पणी की है प्रो. रामेश्वर मिश्र ने। वहीं, वरिष्ठ नवगीतकार राजेन्द्र गौतम ने मनोज जैन के नवगीतों में जनपक्ष को रेखांकित किया है और लिखा है-‘‘‘‘धूप भरकर मुट्ठियों में नवगीत का जन-पक्षधर तेवर’’। वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि कैलाशचन्द्र पंत ने इस नवगीत संग्रह को ‘‘बाजारवाद के संकट में सचेत कवि-स्वर’’ कहा है। कुमार रवीन्द्र ने इस संग्रह के प्रकाशित होने के कई वर्ष पहले इसकी भूमिका लिखी थी, जो अब उनके मृत्योपरान्त प्रकाशित हुई है-‘‘बात इतनी सी यानी बात पूरी और सही’’। उन्होंने लिखा कि ‘‘कवि मनोज जैन ‘मधुर’ की कविताई से मेरा परिचय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लगभग एक दशक पहले हुआ था। तभी से मेरे मन में उनकी छवि एक सार्थक एवं समर्थ गीतकवि के रूप में घर कर गई थी- उसके बाद उनकी कविताई ने निरंतर नए-नए आयाम खोजे हैं। उनके पहले गीत संग्रह ‘एक बूंद हम’ की रचनाओं का भी मैं साक्षी रहा हूं। इस संग्रह के गीत, निश्चित ही, उसके आगे के पड़ाव के गीत-संदर्भों का परिचय देते हैं। एक बात और नवगीत के चैथे यानी अधुनातन संस्करण में जिन युवा गीतकवियों ने पूरी सक्षमता और गहराई से अपनी उपस्थिति दर्ज की है. उनमें मनोज जैन ‘मधुर’ का नाम, निश्चित ही, अग्रणी पंक्ति में है।’’ 
संग्रह के ब्लर्ब पर वरिष्ठ नवगीतकार माहेश्वर तिवारी की टिप्पणी है जिसमें उन्होंने मनोज जैन की सृजनात्मकता पर लिखा है कि -‘‘वह आत्ममुग्धता, आत्मरुदन नहीं निजता के साथ-साथ पास-पड़ोस की जिजीविषा संकल्प और संघर्ष के कवि हैं। उन्हें विश्वास है कि रात की कालिमा छंट जाएगी और सुबह का दमकता सूर्य नए दिन को उजाले की चमक से भर देगा। गीत रचना में वह सिद्धि के नहीं साधना के हिमायती हैं। सिद्धि में ठहराव है, साधना में गतिशीलता। गांव नवगीत कविता के केन्द्र में रहा है। कभी यह लगाव किसी हद तक नास्टैल्जिक रहा लेकिन धीरे धीरे यथार्थ अभिव्यक्ति में शामिल होता गया। मनोज जैन भी गांवो में आए बदलाव से चिंतित हैं क्योंकि गांव अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं इसलिए मनोज घर-आंगन से निर्वासित तुलसी को थोड़ी जगह, थोड़ी छांव देने का आग्रह करते हैं। यही नहीं उनकी चिन्ताओं और सृजनात्मक चिन्तनों में पहाड़ जैसा दिन काटने की सोच शामिल है। लोगों के बीच पीढ़ियों का अन्तराल मतभेद नहीं मनभेद पैदा कर रहा है। रात चुप्पी ओढकर कटती है, दिन सन्नाटा बुनता है। आदमी का व्यवहार सहज की जगह यंत्रवत हो गया है, कवि इनमें बदलाव लाना चाहता है। मनोज जैन की काव्य यात्रा बिम्बधर्मी तो है, बिम्बबोझिल नहीं।’’
निःसंदेह जब कोई रचना अपने समय का साक्ष्य बन कर सृजित होती है तो उसकी महत्ता तथा लोकधर्मिता को कोई नकार नहीं सकता है। मनोज जैन ने अपने नवगीतों में अपने समय को प्रतिबिम्बित करते हुए खेद तो व्यक्त किया है किन्तु प्रलाप नहीं किया और न सिसकियां भरी हैं। वे आशा की डोर थाम कर एक बेहतर भविष्य की कामना करते हैं। कवि ने महसूस किया है कि सारे संकट की जड़ है वर्तमान अबोलापन अथवा संवादहीनता। इसीलिए वे अपने नवगीत के माध्यम से सुझाव देते हैं कि ‘‘प्यार के दो बोल बोलें’’। इस नवगीत में कवि ने प्यार के दो बोल की सार्थकता को स्पष्ट किया है-
कुछ नहीं दें किंतु हंसकर 
प्यार के दो बोल बोलें
हम धनुष से झुक रहे हैं
तीर से तुम तन रहे हो 
हैं मनुज हम, तुम भला फिर 
क्यों अपरिचत बन रहे हो
हर घड़ी शुभ है चलो, मिल 
नफरतों की गांठ खोलें ।
स्वर्ग वाली संपदाएं 
यों कभी चाही नहीं हैं
हम किन्हीं अनुमोदनों के
व्यर्थ सहभागी नहीं हैं
शब्द को वश में करें हम 
आखरों की शरण हो लें। 

राजेन्द्र गौतम ने जिस जनपक्षधर तेवर की बात मनोज जैन के संदर्भ में लिखी है, वह ‘‘हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के’’ नवगीत में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जिसमें कवि ने आमजन की महत्ता का स्मरण कराते हुए आगाह किया है कि ‘ट्यूब नहीं हैं डनलप के, जो प्रेशर से फट जाएंगे’। इसी तरह के नए मुहावरे इस नवगीत में जनस्वर के रूप में प्रस्तुत हुए हैं-
हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलोगे रट जाएंगे।
आराध्य हमारा वह ही है 
जिसके तुम नित गुण गाते हो
हम भी दो रोटी खाते हैं
तुम भी दो रोटी खाते हो
छू लेंगें शिखर, न भ्रम पालो
हम बिना चढ़े हट जाएंगे।
उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं
हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के 
जो प्रेशर से फट जाएंगे।

तथाकथित कवियों के द्वारा किए जाने वाले सृजनघात को देख कर मनोज जैन के कवि हृदय को जो पीड़ा पहुंचती है, उसे बड़े ही स्पष्ट किन्तु रोचक शब्दों में उन्होंने पिरोया है-
नकली कवि कविता पढ़कर जब 
कविता-मंच लूटता है 
असमय लगता है धरती पर 
तब ही आकाश टूटता है।
अभिनय की प्रतिभा के बूते 
कितनों के छक्के छुड़ा दिए 
इनके उनके मुखड़े जोड़े 
अंतरे गीत के उड़ा लिए 
अखबार सुर्खियों में लाकर
छाती पर धान कूटता है।

कवि का ध्यान मात्र साहित्य की ओर नहीं वरन उस समाज और परिवार की ओर भी है जहां संवेदनाओं का निरंतर क्षरण हो रहा है। कवि ने युवाओं की अवज्ञाकारिता को भी आड़े हाथों लिया है तथा पारिवारिक संबंधों में आती जा रही गिरावट के प्रति चिंता जताई है। ‘‘बात-बात में बात काटता’’ नवगीत में कवि ने पिता और पुत्र के बीच बिगड़ते संबंधों के प्रति ध्यान आकर्षित किया है -
बात-बात में बात काटता 
बेटा अपने बाप की 
कौन भला समझेगा पीड़ा 
युग के इस संताप की।
मूल्य सनातन हुए पुरातन
कहता सब बेमानी हैं
बैठे-ठाले बात-बात पर 
होती खींचा-तानी है
निर्णय थोपे ऐसे, जैसे
हो पंचायत खाप की ।

भाव और भाषा के स्तर पर मनोज जैन जो बिम्ब रचते हैं, वह प्रशंसनीय है। आज जब नवगीत विधा को हाशिए पर खड़ा कर दिया गया है, मनोज जैन उसके प्रति समर्पित भाव से लेखनी चला रहे हैं। किसी विधा विशेष के प्रति यह प्रतिबद्धता अपने आप में गहरा अर्थ रखती है। यह प्रतिबद्धता विधा के साथ ही समाज, देश, काल एवं मानवता के साथ कवि के सरोकारों को मोटे अक्षरों में उद्धरण चिन्ह (इंवर्टेड काॅमा) के बीच दर्शाती है। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’ एक समर्थ नवगीतकार की उम्दा कृति है जिसमें भावनाओं की मुट्ठियों में विचारों की धूप ले कर रचे गए नवगीत मौजूद हैं।
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Sunday, September 17, 2023

Article | A Lesson Of The Khandava Forest Doom's Fire | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


Article

A Lesson Of The Khandava Forest Doom's Fire
        -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

We hurt nature. Nature is generous, it does not punish us. She also forgets our crimes but our own crimes punish us in the future. The best example of this is present in the epic “Mahabharata” in the form of the story of the doom's fire of Khandava forest. Two humans helped Agni to burn the Khandava forest but a forest tree provided protection to one of them. This is the difference between nature and man. Today, when large forests of the world are burning to ashes every year, we should learn a lesson from this story and become their protectors instead of leaving the forests to burn. So, let us once again remember the story of Khandava forest so that we can avoid repeating that mistake.


When we read Mahabharata, we find Krishna and Arjun standing in favor of truth and humanity. But something strange we find too when we read the incident of Khandava Forest. The difference between nature and human behavior is present in this story. Arjuna had helped Agnidev in burning an entire forest to ashes, while even after this incident, a tree had given shelter to the same Arjuna to hide his Gandiva bow. This is the difference between nature and human nature. Nature is sublime while man is selfish. Due to his selfishness, man never fails to harm nature. Once again remember the story of Khandava forest. In Mahabharat period  Khandava Forest  or Khandavaprastha is a rough area of rocky land on the western bank of Yamuna where people of Nagavanshi and Asura caste lived. In a way, despite being a part of Khandavaprastha, it is not a part of Hastinapur and to prevent Dhritrashtra from being accused of injustice, Pandavas were given Khandavaprastha, which Bhima, Arjun, Nakul and Sahadev did not like.

When there was discord between the Kauravas and the Pandavas regarding the division of the kingdom, on the recommendation of maternal uncle Shakuni, Dhritarashtra pacified the Pandavas for some time by giving them a forest named Khandavaprastha. There was a palace in this forest which was in ruins. Now the Pandavas were faced with the challenge of converting that forest into a city. There was a terrible forest all around the ruined palace. There was a rugged forest on the banks of river Yamuna named Khandava forest. Earlier there used to be a city in this forest, then that city was destroyed and only its ruins were left. A forest had developed around the ruins.

Once upon a time, when Lord Krishna and Arjuna were wandering on the banks of Yamuna, they met a very bright Brahmin of golden complexion. Krishna and Arjun saluted the Brahmin. After that Arjun said – “O Brahmadev! You have come to the kingdom of Pandavas, hence it is our duty to serve you. Tell me what service I can do for you.”
Hearing the words of Arjun, the Brahmin said – “O archer Arjun! I am very hungry. You make arrangements to satisfy my hunger. But my hunger is not ordinary hunger. I am fire and I want to satisfy my hunger by burning this Khandava forest. But Indra does not allow me to do so, to protect his friend Takshak Naga, who lives in the Khandava forest, he calms my brightness by causing cloud rain and I have to remain unsatisfied. Therefore, when I start burning the Khandava forest, you should stop Indra from raining clouds.”
On this Arjun said – “O Agnidev! I and my friend Krishna have the capability to fight with Lord Indra, but we do not have supernatural weapons to fight with him. If you provide us with supernatural weapons, we can fulfill your wish.”
Agnidev immediately called Varundev and ordered – “Varundev! You give to Arjun the Gandiva bow, the Akshaya Tunir, the Chakra and the chariot with the monkey flag given by King Som.” Varundev followed the orders of Agnidev and Agnidev started incinerating the Khandava forest with his fierce flame. The entire sky was filled with intense flames rising from the Khandava forest and the gods also became sad. To extinguish the fierce flame of fire, Lord Indra started raining heavily through his cloud channel, but Shri Krishna and Arjun immediately dried those clouds with their weapons. Enraged, Indra came to fight Arjun and Shri Krishna, but he had to be defeated. Agnidev started incinerating the forest with his many writhing tongues and Shri Krishna and Arjun were riding in a chariot over the forest and got ready to fight if anyone intervened. As soon as the fierce flames of Agnidev started burning the forest, all the terrible creatures, monsters, demons, ghosts, vampires etc., troubled by their heat, started running here and there to save their lives, but Shri Krishna's Chakra and Arjun's arrows did not let them escape.

The Khandava forest was inhabited by the demon May, who was the architect of Vishwakarma. Angered by the fire, the demon May came running to Arjun and started praying for the protection of his life. Arjun gave protection to the demon Maya. The Khandava forest continued to burn continuously for fifteen days. Only six creatures were saved from this fire, they were the Mayan demon, Ashwasena and four colorful birds.

Gandiva was a divine bow of Arjuna whose bow was created by Brahma. During his exile, Arjun could be immediately recognized because of his Gandiva bow, so he hid his bow in the Shami tree. The Shami tree did not think even for a moment that this was the same Arjun who had helped Indra in burning the Khandava forest. What I mean to say is that nature has always forgiven humans but we humans have always been cruel towards nature. We have not learned a lesson from the devastating forest fires that have occurred in the world's largest forests in the last few years. Even today we are not making as much efforts to save forests and trees as we should. Why do we forget that when a forest burns, countless wildlife also burn and die in it. Even though Indra had many evils, he tried to save the Khandava forest, whereas Arjun and Krishna, despite having many good qualities, became criminals by helping in burning the forests and wildlife. The consequences of which they had to suffer later on. Therefore, we should use our discretion to protect water, forest and land.
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(17.09.2023)
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