Tuesday, September 19, 2023

पुस्तक समीक्षा | मुट्ठियों में धूप ले कर रचे गए नवगीत | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 19.09.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई नवगीतकार श्री मनोज जैन जी के नवगीत संग्रह "धूप भरकर मुट्ठियों में" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
मुट्ठियों में धूप ले कर रचे गए नवगीत
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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नवगीत संग्रह - धूप भरकर मुट्ठियों में
कवि        - मनोज जैन
प्रकाशक    - निहितार्थ प्रकाशन, एम.आई.जी., ग्राउण्ड फ्लोर -1, ए-129, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, साहिबाबाद, गाजियाबाद -201005
मूल्य       - 250/-
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जब भाषा नए मुहावरे गढ़ती हो और सृजन में नया संवाद हो तो ऐसे नवगीत देर तक स्मृति में ठहरे रहते हैं। ऐसे नवगीत चेतना को स्पंदित करते हैं, सोचने पर विवश करते हैं और आकलन क्षमता को बढ़ा देते हैं। यही उन नवगीतों की सार्थकता होती है। कवि मनोज जैन के नवगीत भी इसी श्रेणी के हैं। वे अपने नवगीतों के माध्यम से वैचारिक सत्ता को ललकारते हैं, उद्वेलित करते हैं तथा व्यवस्था में परिष्कार करने का आग्रह करते हैं। लगभग दस-ग्यारह वर्ष पहले मनोज जैन का एक प्रथम नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ था ‘‘एक बूंद हम’’। उनके प्रथम संग्रह ने पर्याप्त लोकप्रियता हासिल की थी। एक लम्बे अंतराल बाद उनका दूसरा नवगीत संग्रह आया है ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’। इससे पता चलता है कि अपने सृजित के प्रकाशन को ले कर उनके भीतर कोई हड़बड़ी नहीं है। वे ठहर कर सृजन करना चाहते हैं और फिर अपने सृजित में से चयनित नवगीतों को पाठकों सामने रखते हैं। यह ठहराव, यह धैर्य वर्तमान में कम रचनाकारों में देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के लाईक्स और कमेन्ट्स के आधार पर रातों-रात बड़े रचनाकार होने का भ्रम पालते देर नहीं लगती और उतनी ही शीघ्रता से आ जाता है उनके अधपके सृजन का संग्रह। जबकि मनोज जैन भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और ‘‘वागर्थ’’ नामक अपने नवगीत समूह पर अनेक रचनाकारों को पटल उपलब्ध कराते रहते हैं। इसके साथ उनका अपना सृजन भी गतिमान है। फिर भी पूरे इत्मिनान से उन्होंने अपना दूसरा नवगीत संग्रह ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’ पाठकों के समक्ष लाया।
मनोज जैन के इस द्वितीय नवगीत संग्रह में ‘‘मनोज जैन ‘मधुर’ के नवगीतों के बहाने’’ शीर्षक से पंकज परिमल ने नवगीत की प्रकृति, उसके तत्वों, महत्ता एवं सरोकार पर विस्तार से चर्चा की है जो कि नवगीत में रुचि रखने वालों के लिए सार्थक लेख है। उन्होंने मनोज जैन के नवगीतों को भी सराहा है। ‘‘आध्यात्मिक चेतना से सम्पन्न समर्थ कवि के गीत’’ के रूप में मनोज जैन के नवगीतों पर टिप्पणी की है प्रो. रामेश्वर मिश्र ने। वहीं, वरिष्ठ नवगीतकार राजेन्द्र गौतम ने मनोज जैन के नवगीतों में जनपक्ष को रेखांकित किया है और लिखा है-‘‘‘‘धूप भरकर मुट्ठियों में नवगीत का जन-पक्षधर तेवर’’। वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि कैलाशचन्द्र पंत ने इस नवगीत संग्रह को ‘‘बाजारवाद के संकट में सचेत कवि-स्वर’’ कहा है। कुमार रवीन्द्र ने इस संग्रह के प्रकाशित होने के कई वर्ष पहले इसकी भूमिका लिखी थी, जो अब उनके मृत्योपरान्त प्रकाशित हुई है-‘‘बात इतनी सी यानी बात पूरी और सही’’। उन्होंने लिखा कि ‘‘कवि मनोज जैन ‘मधुर’ की कविताई से मेरा परिचय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लगभग एक दशक पहले हुआ था। तभी से मेरे मन में उनकी छवि एक सार्थक एवं समर्थ गीतकवि के रूप में घर कर गई थी- उसके बाद उनकी कविताई ने निरंतर नए-नए आयाम खोजे हैं। उनके पहले गीत संग्रह ‘एक बूंद हम’ की रचनाओं का भी मैं साक्षी रहा हूं। इस संग्रह के गीत, निश्चित ही, उसके आगे के पड़ाव के गीत-संदर्भों का परिचय देते हैं। एक बात और नवगीत के चैथे यानी अधुनातन संस्करण में जिन युवा गीतकवियों ने पूरी सक्षमता और गहराई से अपनी उपस्थिति दर्ज की है. उनमें मनोज जैन ‘मधुर’ का नाम, निश्चित ही, अग्रणी पंक्ति में है।’’ 
संग्रह के ब्लर्ब पर वरिष्ठ नवगीतकार माहेश्वर तिवारी की टिप्पणी है जिसमें उन्होंने मनोज जैन की सृजनात्मकता पर लिखा है कि -‘‘वह आत्ममुग्धता, आत्मरुदन नहीं निजता के साथ-साथ पास-पड़ोस की जिजीविषा संकल्प और संघर्ष के कवि हैं। उन्हें विश्वास है कि रात की कालिमा छंट जाएगी और सुबह का दमकता सूर्य नए दिन को उजाले की चमक से भर देगा। गीत रचना में वह सिद्धि के नहीं साधना के हिमायती हैं। सिद्धि में ठहराव है, साधना में गतिशीलता। गांव नवगीत कविता के केन्द्र में रहा है। कभी यह लगाव किसी हद तक नास्टैल्जिक रहा लेकिन धीरे धीरे यथार्थ अभिव्यक्ति में शामिल होता गया। मनोज जैन भी गांवो में आए बदलाव से चिंतित हैं क्योंकि गांव अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं इसलिए मनोज घर-आंगन से निर्वासित तुलसी को थोड़ी जगह, थोड़ी छांव देने का आग्रह करते हैं। यही नहीं उनकी चिन्ताओं और सृजनात्मक चिन्तनों में पहाड़ जैसा दिन काटने की सोच शामिल है। लोगों के बीच पीढ़ियों का अन्तराल मतभेद नहीं मनभेद पैदा कर रहा है। रात चुप्पी ओढकर कटती है, दिन सन्नाटा बुनता है। आदमी का व्यवहार सहज की जगह यंत्रवत हो गया है, कवि इनमें बदलाव लाना चाहता है। मनोज जैन की काव्य यात्रा बिम्बधर्मी तो है, बिम्बबोझिल नहीं।’’
निःसंदेह जब कोई रचना अपने समय का साक्ष्य बन कर सृजित होती है तो उसकी महत्ता तथा लोकधर्मिता को कोई नकार नहीं सकता है। मनोज जैन ने अपने नवगीतों में अपने समय को प्रतिबिम्बित करते हुए खेद तो व्यक्त किया है किन्तु प्रलाप नहीं किया और न सिसकियां भरी हैं। वे आशा की डोर थाम कर एक बेहतर भविष्य की कामना करते हैं। कवि ने महसूस किया है कि सारे संकट की जड़ है वर्तमान अबोलापन अथवा संवादहीनता। इसीलिए वे अपने नवगीत के माध्यम से सुझाव देते हैं कि ‘‘प्यार के दो बोल बोलें’’। इस नवगीत में कवि ने प्यार के दो बोल की सार्थकता को स्पष्ट किया है-
कुछ नहीं दें किंतु हंसकर 
प्यार के दो बोल बोलें
हम धनुष से झुक रहे हैं
तीर से तुम तन रहे हो 
हैं मनुज हम, तुम भला फिर 
क्यों अपरिचत बन रहे हो
हर घड़ी शुभ है चलो, मिल 
नफरतों की गांठ खोलें ।
स्वर्ग वाली संपदाएं 
यों कभी चाही नहीं हैं
हम किन्हीं अनुमोदनों के
व्यर्थ सहभागी नहीं हैं
शब्द को वश में करें हम 
आखरों की शरण हो लें। 

राजेन्द्र गौतम ने जिस जनपक्षधर तेवर की बात मनोज जैन के संदर्भ में लिखी है, वह ‘‘हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के’’ नवगीत में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जिसमें कवि ने आमजन की महत्ता का स्मरण कराते हुए आगाह किया है कि ‘ट्यूब नहीं हैं डनलप के, जो प्रेशर से फट जाएंगे’। इसी तरह के नए मुहावरे इस नवगीत में जनस्वर के रूप में प्रस्तुत हुए हैं-
हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलोगे रट जाएंगे।
आराध्य हमारा वह ही है 
जिसके तुम नित गुण गाते हो
हम भी दो रोटी खाते हैं
तुम भी दो रोटी खाते हो
छू लेंगें शिखर, न भ्रम पालो
हम बिना चढ़े हट जाएंगे।
उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं
हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के 
जो प्रेशर से फट जाएंगे।

तथाकथित कवियों के द्वारा किए जाने वाले सृजनघात को देख कर मनोज जैन के कवि हृदय को जो पीड़ा पहुंचती है, उसे बड़े ही स्पष्ट किन्तु रोचक शब्दों में उन्होंने पिरोया है-
नकली कवि कविता पढ़कर जब 
कविता-मंच लूटता है 
असमय लगता है धरती पर 
तब ही आकाश टूटता है।
अभिनय की प्रतिभा के बूते 
कितनों के छक्के छुड़ा दिए 
इनके उनके मुखड़े जोड़े 
अंतरे गीत के उड़ा लिए 
अखबार सुर्खियों में लाकर
छाती पर धान कूटता है।

कवि का ध्यान मात्र साहित्य की ओर नहीं वरन उस समाज और परिवार की ओर भी है जहां संवेदनाओं का निरंतर क्षरण हो रहा है। कवि ने युवाओं की अवज्ञाकारिता को भी आड़े हाथों लिया है तथा पारिवारिक संबंधों में आती जा रही गिरावट के प्रति चिंता जताई है। ‘‘बात-बात में बात काटता’’ नवगीत में कवि ने पिता और पुत्र के बीच बिगड़ते संबंधों के प्रति ध्यान आकर्षित किया है -
बात-बात में बात काटता 
बेटा अपने बाप की 
कौन भला समझेगा पीड़ा 
युग के इस संताप की।
मूल्य सनातन हुए पुरातन
कहता सब बेमानी हैं
बैठे-ठाले बात-बात पर 
होती खींचा-तानी है
निर्णय थोपे ऐसे, जैसे
हो पंचायत खाप की ।

भाव और भाषा के स्तर पर मनोज जैन जो बिम्ब रचते हैं, वह प्रशंसनीय है। आज जब नवगीत विधा को हाशिए पर खड़ा कर दिया गया है, मनोज जैन उसके प्रति समर्पित भाव से लेखनी चला रहे हैं। किसी विधा विशेष के प्रति यह प्रतिबद्धता अपने आप में गहरा अर्थ रखती है। यह प्रतिबद्धता विधा के साथ ही समाज, देश, काल एवं मानवता के साथ कवि के सरोकारों को मोटे अक्षरों में उद्धरण चिन्ह (इंवर्टेड काॅमा) के बीच दर्शाती है। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘‘धूप भर कर मुट्ठियों में’’ एक समर्थ नवगीतकार की उम्दा कृति है जिसमें भावनाओं की मुट्ठियों में विचारों की धूप ले कर रचे गए नवगीत मौजूद हैं।
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