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Wednesday, May 21, 2025

चर्चा प्लस | जलवायु परिवर्तन की तेज गति में जरूरी है लचीली कृषि पद्धति | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
जलवायु परिवर्तन की तेज गति में जरूरी है लचीली कृषि पद्धति
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
    पिछले कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन और लचीली कृषि पद्धति बहुत चर्चाएं हुई हैं। यह एक बहुत ही आवश्यक चर्चा है। लेकिन मुझे लगता है कि हमें जलवायु परिवर्तन की गति के बारे में गंभीरता से जानने की आवश्यकता है ताकि हम भविष्य की कृषि के लिए सही रणनीति बना सकें। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। जलस्तर घट रहा है। हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारा भी माया सभ्यता जैसा हश्र हो। ऐसा माना जाता है कि माया सभ्यता भयंकर सूखे के कारण समाप्त हो गई थी, जबकि उनकी सिंचाई प्रणाली उच्च गुणवत्ता वाली थी। माया सभ्यता को याद करने का कारण यह है कि हम इन दिनों पूरी दुनिया में पर्यावरण शरणार्थियों या जलवायु शरणार्थियों की बढ़ती संख्या देख रहे हैं। इसलिए दुनिया के कई देशों में लचीली कृषि पद्धति यानी रेजिलिएंट एग्रीकल्चर को अपनाया जा रहा है। 
         मैं कोई प्राणीशास्त्री नहीं हूँ, मैं कोई कृषिशास्त्री नहीं हूँ, मैं कोई मृदाशास्त्री नहीं हूँ। लेकिन मैं एक पृथ्वीवासी हूँ। पृथ्वी को बचाने की दिशा में सोचना करना मेरा भी कर्तव्य है। मूल रूप से मैं एक लेखिका हूं और पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में आवाज़ उठाती रहती हूंँ और मैं आने वाली पीढ़ी के लिए एक सुंदर स्वस्थ समाज और एक सुरक्षित पृथ्वी चाहती हूँ। स्वस्थ समाज और सुरक्षित पृथ्वी दोनों ही संतुलित जलवायु पर निर्भर हैं।
मौसम में अनियमितता, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और जंगलों का विनाश आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। यहाँ एक नजर डालते हैं कि बाढ़ और हमारी गर्म होती दुनिया के बीच क्या संबंध है। हाँ! केवल एक चीज और वह है जलवायु परिवर्तन। 

जलवायु परिवर्तन हमें तापमान और मौसम में अनियमितताओं के रूप में लगातार चेतावनी दे रहा है। दुर्भाग्य से हम उसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इस तथ्य को हमेशा याद रखने की आवश्यकता है कि पहले केवल युद्ध शरणार्थी थे लेकिन अब पर्यावरण शरणार्थी हैं। सूडान और सोमालिया जैसे अफ्रीकी देशों में प्राकृतिक आपदाओं के कारण गृह युद्धों की तुलना में अधिक लोग शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हुए हैं। उनके गाँवों में पानी के स्रोत सूख गए, पानी की अनुपलब्धता के कारण उनके मवेशी मर गए और उनकी खुद की जान खतरे में पड़ गई। जिसके कारण उन्हें अपना गाँव, घर छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने का कानून अभी तक किसी भी देश में नहीं बना है। ऐसे शरणार्थी, वास्तविक शरणार्थी होते हुए भी न तो शरणार्थी कहलाते हैं और न ही उन्हें कोई मदद मिलती है। ऐसा अनुमान है कि पर्यावरण परिवर्तन के कारण 2050 तक अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग पर्यावरण शरणार्थी के रूप में अपनी मुख्य भूमि को छोड़कर अन्य भूमि पर चले जाएंगे। भारत में भी पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है। ये शरणार्थी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपने गांवों को छोड़कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपना जीवन यापन करने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखते हैं कि हर दिन किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आती रहती हैं। सरकार किसानों को हर संभव मदद देती है। फिर ये आत्महत्या क्यों? अगर राजनीतिक चश्मा उतारकर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दिए गए पैसे से न तो फसल उगाई जा सकती है और न ही उसे बचाया जा सकता है। फसल उगाने के लिए पानी एक बुनियादी आवश्यकता है। हमारी लापरवाही के कारण पानी के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं। तो भविष्य के लिए हमारा कृषि प्रयास क्या है? यही मुख्य बात है। इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन की गति के बारे में जानना होगा। ताकि हम भविष्य की कृषि के लिए सही रणनीति बना सकें। 

मैं एक इतिहासकार हूं। इसलिए, आदतन मैं हमेशा अपनी एक नजर अतीत पर और दूसरी नजर भविष्य पर रखती हूं। सैंकड़ों साल पहले हमारी धरती पर माया सभ्यता मौजूद थी लेकिन कुछ कारणों से यह सभ्यता खत्म हो गई। माया सभ्यता के अंत के पीछे क्या रहस्य है, वैज्ञानिक इसे जानने की आज भी कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में इस संबंध में एक और शोध सामने आया है। ऐसा कहा जाता है कि माया सभ्यता का अंत 100 साल से भी ज्यादा समय तक लगातार पड़े सूखे के कारण हुआ था। इसके लिए शोधकर्ताओं ने मरीन लाइफ बेलीज के मशहूर ‘‘ब्लू होल’’ और उसके आसपास पाए जाने वाले लैगून से लिए गए खनिजों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि 800 से 900 ईस्वी के बीच भयंकर सूखा पड़ा था, जो माया सभ्यता के अंत का मुख्य कारण बना। ‘‘लाइव साइंस’’ की रिपोर्ट के मुताबिक, 6वीं सदी से 10वीं सदी तक भयंकर सूखा पड़ा था। अब जरा भारत के वर्तमान पर दृष्टिपात करें तो भारत जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। बारिश के स्वभाव में बदलाव के कारण हिमालयी राज्यों की कई नदियों ने अपना रास्ता बदल लिया है। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब व्यवहार करने लगा है। पिछले कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह गए हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण कई नदियों ने अपना रास्ता बदल लिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदल गया है। अब भारी और लंबे समय तक बारिश हो रही है। इस वजह से नदियों में बाढ़ आ रही है। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने 300 मीटर दूर तक अपना रास्ता बदल लिया है, जबकि अन्य जगहों पर वे 1.8 किलोमीटर दूर चली गई हैं। नई दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के अनुसार सामान्य जलवायु परिस्थितियों में पूरे साल वर्षा अच्छी तरह से वितरित होती थी, किन्तु अब ऐसा नहीं हो रहा है।

अगर हम कृषि की दशा परं ध्यान देंगे तो हमें मिट्टी की चीखें सुनाई देंगी। हाँ! अगर मिट्टी बोल सकती तो अपने साथ हो रहे अन्याय का विरोध करती। पिछले कुछ दशकों में हमने उस मिट्टी के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। जो मिट्टी हमें अनाज, फल, फूल, सब्जियाँ देती है, हमने उसे रासायनिक पदार्थों से दूषित कर दिया है, कभी रासायनिक खाद से, कभी रासायनिक और प्लास्टिक कचरे से तो कभी उसकी नमी को सुखाकर। अब स्थिति यह है कि हम पारंपरिक कृषि पद्धति से अपनी भविष्य नहीं बचा सकते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि हमें समय रहते लचीली कृषि पद्धति को अपना लेना चाहिए जो कम से कम पानी में भी उत्पादन दे कर हमारा पेट भर सके। जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील फसलों की 35 किस्मों में चने की सूखा झेलने वाली किस्म, मुरझान और बांझपन मोजेक प्रतिरोधी अरहर, सोयाबीन की जल्दी पकने वाली किस्म, चावल की रोग प्रतिरोधी किस्में और गेहूं, बाजरा, मक्का और चने की जैव-फोर्टिफाइड किस्में शामिल हैं। हमें कृषि विज्ञान पद्धति में और अधिक विकास की आवश्यकता है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपट सकें। उदाहरण के लिए, लचीली कृषि पद्धति को जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध उत्तम उपाय माना जा रहा है। सरल शब्दों में का जाए तो उन फसलों की, उस पद्धति से खेती किया जाना जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर सकें। जी हां, रेजिलिएंट एग्रीकल्चर या जलवायु-लचीली कृषि का अर्थ है ऐसी कृषि पद्धतियां जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेलने और उनके अनुकूल होने में सक्षम हों. इसमें बदलते मौसम के अनुकूल फसलें उगाना, पानी का संचयन, और मृदा स्वास्थ्य को बनाए की क्षमता हो।

जलवायु-अनुकूल कृषि के कुछ बुनियादी सिद्धांत हैं जिनसे इसकी विशेषताओं को समझा जा सकता है-
1. विविधीकरण- विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना और विविध कृषि पद्धतियों का उपयोग करना एक ही फसल पर निर्भरता को कम करता है और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ावा देता है।
2. मृदा संरक्षण- बिना जुताई या कम जुताई वाली खेती, कवर क्रॉपिंग और फसल चक्र जैसी प्रथाएँ मिट्टी के स्वास्थ्य को बेहतर बनाती हैं और कटाव को कम करती हैं।
3. जल संचयन- सिंचाई के लिए वर्षा जल को इकट्ठा करना और संग्रहीत करना भूजल पर निर्भरता को कम करता है और जल सुरक्षा को बढ़ाता है।
4. कृषि वानिकी- पेड़ों को खेती की प्रणालियों में एकीकृत करने से छाया मिलती है, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होता है और जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है।
5. जलवायु मित्र फसलें और पशु किस्में- फसल और पशु किस्मों का उपयोग करना जो बदलती मौसम स्थितियों के प्रति सहनशील हैं, लचीलापन बढ़ाता है।
जलवायु-अनुकूल कृषि के कई लाभ ळैं जिनमें से कुछ प्रमुख लाभ हैं-
1. बेहतर फसल पैदावार- जलवायु अनुकूल कृषि किसानों को बदलती मौसम स्थितियों के अनुकूल ढलने में मदद करती है, जिससे फसल की पैदावार में सुधार होता है और नुकसान कम होता है।
2. बढ़ी हुई खाद्य सुरक्षा- स्थायी कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देकर, जलवायु-अनुकूल कृषि खाद्य उपलब्धता और पहुँच सुनिश्चित करती है।
3. बढ़ी हुई आजीविका- जलवायु अनुकूल कृषि किसानों को वैकल्पिक आय स्रोत प्रदान करती है, जिससे उनकी आजीविका में सुधार होता है।
4. पर्यावरण संरक्षण- जलवायु अनुकूल कृषि पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ावा देती है, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करती है और जलवायु परिवर्तन को कम करती है।

यह ज़रूर है कि छोटे किसानों को जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों के अनुकूल बनना होगा, सरकारों को जलवायु-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ बनानी होंगी तथा इसके लिए को जलवायु-अनुकूल पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की सरकार को बडत्रे पैमाने पर व्यवस्था करनी होगी। लेकिन ये चुनौतियां उतनी बड़ी नहीं हैं जितनी की जलवायु परिवर्तन की चुनौती। अगर हम जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा नहीं कर सकते, तो हमें बर्फ और आग, बाढ़ और सूखे में भी खेती करना सीखना होगा। क्या हम ऐसा कर पाएंगे? इस बारे में सोचते हुए कृषि की लचीली पद्धति को अपनाना होगा। यह अच्छा है कि ज्वार और बाजरे को अपने मुख्य खाद्य में अपना कर और इसकी खेती को बढ़ावा देकर हम लचीली कृषि पद्धति की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। 
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Wednesday, March 22, 2023

चर्चा प्लस | बदलती जलवायु और संकट से घिरता मानवाधिकार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
बदलती जलवायु और संकट से घिरता मानवाधिकार
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                   
       दोनों ज्वलंत विषय हैं - जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार। क्या दोनों विषयों के बीच कोई संबंध है? हां, हम कह सकते हैं कि मानव जीवन उनकी जलवायु पर निर्भर करता है। लेकिन केवल एक ही संबंध नहीं है। जलवायु और मानव जीवन कई तरह से संबंधित हैं। जलवायु में परिवर्तन मानव अधिकारों को हर तरह से प्रभावित कर रहा है। अतः यदि जलवायु में हानिकारक परिवर्तन होते हैं, तो मानव जीवन में गंभीर परिवर्तन स्वतः ही हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव जीवन और उसके अधिकारों के लिए अच्छा नहीं है।    
मध्यप्रदेश के सागर जिले में एक गांव है पटना बुजुर्ग। बहुत छोटा-सा। प्यारा-सा। उस गांव से गुजरते समय मुझे सड़क के दोनों ओर मौजूद छोटे-छोटे खेतों की सुंदरता को देखने का मौका मिला। गेहूं की बालियां अपनी छटा बिखेर रही थीं। मार्च का मध्य और बादलों से ढंका आसमान। बारिश की प्रबल संभावना। यह मौसम बारिश का नहीं होता है फिर भी बादलों का इस तरह घुमड़ना बारिश की चेतावनी दे रहा था। घूमने के हिसाब से मौसम मनोरम था। न गरमी और न ठंड। हल्की नमी लिए हुए हवाएं। मैंने खेतों में गेहूं की उस फसल को देखा जो कहीं पक कर तैयार हो चुकी थी, तो कहीं अधपकी थी। किसान अपनी पकी हुई दिख रही फसल की कटाई नहीं कर पाए थे। वहीं गेहूं की अधपकी बालियों में हरापन साफ दिखाई दे रहा था। उनके पकने में अभी समय था। मुझे उन फसलों को देखते हुए इस बात की चिन्ता हुई कि यदि तेज बारिश हुई तो इन फसलों का क्या होगा? और कहीं अगर ओले गिर गए तो ये फसल तो पूरी तरह से मिट जाएगी। यह सोच कर भी मुझे सिहरन हुई। मैं देख रही थी वहां की जमीन को। पथरीली जमीन को खेती लायक बनाने में किसानों ने कितनी अधिक मेहनत की होगी, इसका अंदाज़ा भी मैं नहीं लगा सकती थी। लाल मुरू जैसी मिट्टी वाली पथरीली जमीन। पुराने जंगल की पथरीली जमीन को खेती योग्य बना कर खेती करने वाले किसान की मेहनत को हर कोई नहीं समझ सकता है। जो फसल मौसम के आसन्न संकट तले मेरे सामने लहलाहती दिखाई पड़ रही थी उसे उगाने में भी किसानों का अथक श्रम और पूंजी लगी होगी। कुछ छोटे किसानों को तो अपनी पूरी पूंजी लगानी पड़ी होगी। उन्हें आशा होगी कि जब अच्छी फसल आएगी तो उनकी पूंजी उन्हें लाभ के साथ वापस मिल जाएगी। लेकिन मौसम में होने वाले अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण उनकी यह आशा पूरी हो सकेगी? सच तो यह है कि इस बारे  में सोचने में भी मुझे डर लगता है।

एक समय था जब मैं फील्ड जर्नलिज्म में थी। उस दौर में मैंने मध्यप्रदेश के ही पन्ना जिले में नेताओं और अधिकारियों के समूह के साथ मौसम प्रभावित खेतों के दौरे किए थे। उन दिनों मौसम में इतने अधिक परिवर्तन नहीं होते थे। फिर भी चने और गेहूं के पौधों को टूट कर मिट्टी में मिलते हुए मैंने देखा था। वह स्मृतियां आज भी मुझे डराती हैं। मुरझाए चेहरे और आंखों में आंसू भरे किसान। जिनका सबकुछ लुट चुका हो। सरकारी सहायता उन्हें सांत्वना ही दे सकती थी, उनकी नष्ट हुई फसल और मेहनत उन्हें नहीं लौटा सकती थी। मैं ऐसे दृश्य और नहीं देखना चाहती हूं क्योंकि एक फसल एक किसान का जीवन तो होती ही है, साथ ही हर व्यक्ति की भूख का ईलाज और देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती भी होती है।
जिन्दा रहने के लिए भोजन और पानी मिलना मनुष्य का सबसे पहला अधिकार है। अतः यदि जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों के चक्र पर प्रभाव पड़ रहा है। मौसम के अचानक परिवर्तन के कारण फसलों को नुकसान पहुंच रहा है तो मनुष्य को भोजन मिलने का उसका पहला और प्राथमिक अधिकार ही नहीं मिल पाएगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने के पीछे यह भी एक कारण है कि परिवर्तित होती जलवायु में फसल की उपलब्धता बनी रहे। जिन फसलों को उगाने में कम पानी की जरूरत पड़ती है तथा जिनको एक साल में दो या तीन बार उगाया जा सकता है, उन फसल को किस्मों को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जा रहा है। ताकि फसल की उपलब्धता बनी रहे और किसी को भूखा न रहना पड़े।

कड़वी सच्चाई यह है कि प्रत्येक वर्ष होने वाली मानव मौतों में से लगभग एक-तिहाई के लिए गरीबी संबंधी कारण जिम्मेदार होते हैं। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण भविष्य में यह स्थिति और भी बदतर होगी। गरीबों में महिलाओं और लड़कियों का अनुपात भी अधिक है, जिसके कारण वे इस समस्या के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण भारत में, भोजन और पानी प्रदान करना विशेष रूप से महिलाओं की जिम्मेदारी है। अतः जलवायु परिवर्तन का भूमि की उपज, जल की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों का सीधा प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। यानी जिस उम्र में लड़कियों को अपनी पढ़ाई और बचपन की गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें अपने घरों में दूर के जलाशयों से पानी लाना पड़ता है। गर्भवती महिला या प्रसूता को जब आराम की जरूरत होती है तो उसे अपने सिर पर पानी का घड़ा ढोना पड़ता है। भले ही राज्य सरकारें नलकूप खोदती हों, लेकिन जलवायु और मौसम में बदलाव के कारण हर साल जल स्तर गिर रहा है। यह स्थिति जहां एक ओर महिलाओं के मानवाधिकारों पर आघात कर रही है, वहीं दूसरी ओर पुरुषों के पेयजल के प्राथमिक अधिकार पर भी संकट बढ़ा रही है।
भले ही जलवायु के प्रभाव धीरे-धीरे हमारे लिए आम बात होते जा रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाएं और चरम मौसम की घटनाएं पहले से ही उन आबादी पर कहर बरपा रही हैं और आने वाले समय में बढ़ेंगी। इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं को पर्यावरण की रक्षा और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बचाने पर ध्यान देना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे दुनिया भर में जोखिम वाली आबादी की तत्काल विकास चुनौती को संबोधित करें। इसके लिए किसी भी देश को विशेष बंधनों में नहीं बांधा जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन पर बहस समानता, ऊर्जा तक पहुंच और साझेदारी पर केंद्रित हो। विकास न केवल एक आर्थिक और सामाजिक आवश्यकता है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन के संबंध में अपनाया गया सबसे अच्छा समाधान भी है। कमजोर आबादी के जीवन, स्वास्थ्य और आजीविका के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा के लिए, यह जरूरी है कि हम ऐसे विकास को बढ़ावा दें जो ऐसे विशेष समूहों और उनकी संपत्तियों के लचीलेपन को बढ़ाता है, जबकि साथ ही वह जलवायु परिवर्तन के उपायों को सफलतापूर्वक लागू कर सकता है। .
वास्तव में, जलवायु परिवर्तन हमारी पीढ़ी के मानवाधिकारों के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है, जो दुनिया भर में जीवन, स्वास्थ्य, भोजन और व्यक्तियों और समुदायों के जीवन के पर्याप्त स्तर के मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। इसी वर्ष फरवरी 2023 में दोहा, कतर में आयोजित जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार-प्रभाव और उत्तरदायित्व पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, एनएचआरसी, भारत के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने सभी देशों को बताया कि ग्रीनहाउस मानव-प्रेरित विकास जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है जो मानवाधिकारों के बारे में गंभीर चिंता पैदा करता है। विकासशील देशों से समान उत्सर्जन मानकों का कड़ाई से पालन करने की अपेक्षा करना अनुचित है। उन्हें अक्सर अधिक संसाधनों और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। इसे पूरा करने के लिए वैश्विक समुदाय को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण क्षमता निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। जस्टिस मिश्रा ने कहा कि एक समावेशी जलवायु परिवर्तन कार्रवाई में ऐसी नीतियां बनाना शामिल है जो निष्पक्ष और सुलभ और न्यायसंगत हों। इसके लिए सबसे कमजोर और सीमांत लोगों सहित सभी हितधारकों की जरूरतों और दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।

कृषि कार्यों से पलायन और विस्थापन के परिणामों का ही विकराल रूप हैं जलवायु शरणार्थी। सूडान जैसे देश इस समस्या को झेल रहे हैं। आफ्रिकी देशों से ही नहीं, बलिक अब लगभग हर देश में कमोबेश यही स्थिति बनती जा रही है कि जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों को अपनी मूल भूमि छोड़ कर दूसरी जगह जा कर शरण लेनी पड़ रही है।
पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर मानवाधिकार संधियों में शामिल नहीं रहा है। बल्कि पर्यावरण संरक्षण उन अधिकारों से प्राप्त होता है जो उन संधियों की रक्षा करते हैं, जैसे जीवन, भोजन, पानी और स्वास्थ्य के अधिकार। इसीलिए अब यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि जलवायु परिवर्तन नीति-निर्माण के संदर्भ में मानवाधिकार कानून बुनियादी मानवाधिकारों के न्यूनतम मानकों को स्थापित करने में मदद मिल सकती है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय जलवायु समस्याओं के अनुकूलन उपायों के रूप में अपनाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के संदर्भ में स्थानीय ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को बढ़ावा देने के साथ जलवायु संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों में मानवाधिकार के मुद्दों को भी शामिल करना होगा। अगर अब भी इस पर गौर नहीं किया गया और इसे यूं ही अनदेखा किया गया तो आने वाले समय में तापमान इस कदर बढ़ जाएगा कि मानव जीवन पर संकट आ सकता है। भयावह सूखा पड़ सकता है, समुद्री जल स्तर बढ़ सकता है और इन सब प्राकृतिक आपदाओं के फलस्वरूप कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। आज पूरी दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु में होने वाला यह परिवर्तन ग्लेशियर व आर्कटिक क्षेत्रों से लेकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक को प्रभावित कर रहा हैं। यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम पड़ रहा है। भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 14.26 करोड़ हेक्टेयर में खेती की जाती है। अर्थात देश के सम्पूर्ण क्षेत्र का 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। मौसम परिवर्तन देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है।

जलवायु परिर्वतन का एक और क्षेत्र पर गंभीर असर पड़ रहा है जिसकी ओर कम ही लोगों का ध्यान जाता है। यह क्षेत्र है पशुपालन का। भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या का पोषण करने में कृषि के साथ-साथ हमारे पशुधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है, परन्तु निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से तापमान में काफी तबदीली हुई है जिससे भारत ही नहीं, दुनिया भर के पशुधन गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। वातावरणीय तापमान में तीव्र परिवर्तन से जानवरों का स्वास्थ्य, प्रजनन, पोषण इत्यादि प्रभावित होता है, जिससे पशु उत्पाद तथा इनकी गुणवत्ता में भी गिरावट होती है। अन्य जानवरों की तुलना में संकर डेयरी मवेशी जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हंै जिनकी संख्या भारत में अधिक है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ते हुए तापमान, अनियमित मानसून, भयंकर ठंड, ओले, तेज हवा आदि जानवरों के स्वास्थ्य, शारीरिक वृद्धि और उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। मौसम में तनाव के कारण डेयरी पशुओं की प्रजनन क्षमता कम हो रही है। परिणामस्वरूप गर्भधारण दर में भी काफी गिरावट हो रही है। जलवायु परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली कार्यक्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इससे थनैला रोग, गर्भाशय की सूजन तथा अन्य बीमारियों के जोखिम में वृद्धि हो रही है। भारत में उष्मीय तनाव पशु उत्पादकता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। द फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाईजेशन (एफएओ) के शोध के अनुसार, ‘‘पशुपालकों को पिछड़ा और अनुत्पादक माना जाता है और ऐतिहासिक रूप से प्रतिकूल कानूनों की वजह से उन्हें कम कर के आंका गया है। पशुचारक संसाधन की कमी और गतिशीलता पर प्रतिबंधों के प्रति संवेदनशील होते हैं। चूंकि उन्हें उत्पादक क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाता है, इसलिए उन्हें सीमित उपलब्ध चराई संसाधनों पर निर्भर होना पड़ता है। गतिशीलता की रक्षा और विनियमन करने वाले कानून के अभाव में, पशुचारक अन्य संसाधन उपयोगकर्ताओं और राज्य के साथ संघर्ष में फंस जाते हैं।’’

देखा जाए तो जलवायु में इस तरह के भयावह परिवर्तनों के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। वास्तव में हमें जलवायु परिवर्तन और मानव अधिकारों के बीच के अंतर्संबंध को समझना होगा और उसी के अनुसार सरकारी और व्यक्तिगत योजनाएं बनानी होंगी। क्योंकि हम मानें या न मानें, जलवायु परिवर्तन के कारण मानवाधिकारों का क्षरण होना शुरू हो गया है और इस क्षरण को रोकना जरूरी है।   
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Wednesday, October 6, 2021

चर्चा प्लस | जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए स्मार्ट समाधान है शहरी वन | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस 
जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए स्मार्ट समाधान है शहरी वन
- डाॅ. शरद सिंह                            
शहर में मनुष्यों की आबादी कितनी है, यह जनसंख्या गणना से हमेशा पता चलता रहता है। लेकिन शहर में वृक्षों की संख्या कितनी है? इस बारे में न कोई पूछता है और न कोई जानना चाहता है। सड़कें चैड़ी करने के लिए वृक्ष कटते हैं, रिहायशी और व्यावसायिक भवन बनाने के लिए वृक्ष काटे जाते हैं। बदले में कितने वृक्ष शहर के अन्दर लगाए जाते हैं? आंकड़ा पता नहीं। जबकि बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन और बढ़ते तापमान की हानि से कोई बचा सकता है तो सिर्फ़ वृक्ष। इसीलिए सरकार ने ‘शहरी वन’ की योजना बनाई। किन्तु कहां हैं वे शहरी वन?

‘शहरी वन’ की आवश्यकता पर चर्चा करने से पहले ज़रा याद करिए अक्टूबर 2019 की वह घटना जब उपनगरीय मुंबई की आरे मिल्क कॉलोनी, जिसे शहर के ‘ग्रीन लंग’ के रूप में जाना जाता रहा है, शहरी विकास का शिकार हुई। दरअसल मुंबई मेट्रो रेल कॉरपोरेशन ने ट्रेन डिपो के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए इस क्षेत्र में 3,000 पेड़ों को काट दिया। एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार, यह जगह तितलियों की 86 प्रजातियों, मकड़ियों की 90 प्रजातियों, सरीसृपों की 46 प्रजातियों, जंगली फूलों की 34 प्रजातियों और नौ तेंदुओं का घर है। इसको लेकर सार्वजनिक आक्रोश सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। लेकिन तब तक मुंबई मेट्रो ने आवश्यक भूमि को खाली करने के लिए पर्याप्त पेड़ काट दिए थे। हम सभी नागरिक विकास और हरियाली में तालमेल की बात करते हैं लेकिन सच तो ये है कि आज भी हम में हरित क्षेत्रों और प्राकृतिक बुनियादी ढांचे के रूप में जंगलों के मूल्य की बहुत कम समझ है जो शहर के निवासियों को स्वच्छ हवा, भूजल पुनर्भरण, बाढ़ नियंत्रण, वन्यजीव आवास और प्राकृतिक मनोरंजन क्षेत्रों जैसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करता है। विडंबना यह कि वन विभाग, जिनके पास यह समझ है, उसकी हैसियत राज्यों और शहरों के टाउन प्लानिंग वाले विभागों की तुलना में कम है। यूं भी शहरों के फैलाव से वनपरिक्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है।
आम नागरिकों को यह बात लगभग पता ही नहीं है कि भारत सरकार शहरों के विकास और बदलाव की प्रक्रिया को सतत और पर्यावरण हितैषी बनाने के लिये अत्याधुनिक तकनीक पर आधारित ‘स्मार्ट समाधान’ को बढ़ावा देने पर जोर दे रही है। पर्यावरणीय प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिये समाज के सभी वर्गों, संगठनों और सरकारी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों की जरूरत को महसूस कर रही है। केन्द्र सरकार का पूरा ध्यान उन योजनाओं को बढ़ावा देने पर है जो पर्यावरण हितैषी हों। जिससे शहरों को जलवायु परिवर्तन के संभावित परिणामों के अनुकूल बनाया जा सके। इसके लिये सरकार अत्याधुनिक तकनीक आधारित ‘स्मार्ट समाधान’ को बढ़ावा दे रही है।
सन् 2016 में, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मुंबई के बोरीवली में संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान में एक समारोह में शहरी वन परियोजना योजना शुरू की थी। ऐसा कोई सरकारी आंकड़ा भी उपलब्ध नहीं है जिससे यह पता चल सके कि 2016 से 2020 के बीच 200 सिटी फॉरेस्ट वाली योजना ने कितना लक्ष्य प्राप्त किया। इसके बाद पिछले वर्ष, 5 जून 2020 को यानी विश्व पर्यावरण दिवस को एक वर्चुअल उत्सव के दौरान मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने शहरी वन परियोजना की एक बार फिर शुरुआत की। इस योजना का लक्ष्य अगले पांच वर्षों में देश भर के 200 शहरों में शहरी वन क्षेत्र विकसित करना है।
देखा जाए तो शहरी वन योजना जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा करने और शहरी प्रदूषण को कम करने की दिशा में बहुत ही कारगर योजना है। शहरी वन शहरों के जलवायु को सुधार सकते हैं। शहरों में तापमान को कम करने में वृक्ष सबसे अधिक मदद करते हैं। शहरों में कंक्रीट से बनी इमारतों और सड़कों से निकलने वाली गर्मी उन्हें आसपास के देहात के इलाकों की तुलना में अधिक गर्म बना देती है। वे ओजोन, सल्फर डाइऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर के स्तर को भी कम कर देते हैं। इसके अलावा वायुमंडल से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइ ऑक्साइड को हटाकर ऑक्सीजन देते हैं। इस कार्बनडाई आॅक्साईड को सोख कर आॅक्सीजन बढ़ाने का काम करते हैं वृक्ष। ये वृक्ष शहरी वन के रूप में याहरों के जीवन की अभिन्न हिस्सा बन सकते हैं। वनपरिक्षेत्रों के घटने से जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपाई भी शहरी वन कर सकते हैं। दुनिया भर में बड़े शहरों में इस प्रकार के शहरी वन बहुत तेजी से विकसित किये जा रहे हैं। सियोल, सिंगापुर और बैंकॉक ने अपने शहर के निवासियों के जीवन में सुधार करते हुए प्रकृति और वन्य जीवन के लिए जगह प्रदान करने वाले ग्रीन कॉरिडोर्स बनाए हैं।
शहरी वन विकसित करने में प्राइवेट सेक्टर की सहभागिता महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। इसके लिए पुणे में वारजे शहरी वन के मॉडल को अपनाया जा सकता है। यह महाराष्ट्र की पहली शहरी वानिकी परियोजना है जिसे टेरी द्वारा विकसित किया गया था, जो एक गैर-लाभकारी संस्था है। इसको टाटा मोटर्स के साथ एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के तहत एक कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी पहल के तहत इसे विकसित किया गया था। झुग्गियों और बिल्डरों द्वारा वन विभाग की 16 हेक्टेयर बंजर जमीन का अतिक्रमण कर लिया गया था जिसे जैव विविधता के सम्पन्न रमणीय स्थल में तब्दील कर दिया गया। यह 10,000 से अधिक स्वदेशी पौधों की प्रजातियों, 29 स्थानीय पक्षी प्रजातियों, 15 तितली प्रजातियों, 10 सरीसृप प्रजातियों और तीन स्तनपायी प्रजातियों की मेजबानी करता है। कई अन्य अच्छे उदाहरण हैं। शिमला में लगभग 1,000 हेक्टेयर के एक अभ्यारण्य है जो 1890 के दशक में नगर निकाय द्वारा प्रबंधित शिमला पेयजल जलग्रहण वन के रूप में शुरू हुआ था। दक्षिण-पूर्व दिल्ली में, असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य को गांव की आम भूमि से आरक्षित वन क्षेत्र में ले जाया गया और फिर इसे एक अभयारण्य के रूप में तब्दील कर दिया गया। दिल्ली के अरावली और यमुना जैव विविधता पार्क ने भी शहर में इन क्षेत्रों के प्राकृतिक आवासों और पारिस्थितिकी प्रणालियों को सफलतापूर्वक दोबारा स्थापित किया है। इसी तरह, गुड़गांव के अरावली जैव विविधता पार्क को नगर निगम, नागरिक समाज, निगमों और निवासियों के बीच एक अनूठी साझेदारी द्वारा वनों को देशी प्रजातियों के लिए एक आश्रय के रूप में तब्दील गया था। अब इसमें लगभग 200 पक्षी प्रजातियों को आकर्षित करने वाले सैकड़ों फूल, पेड़ और झाड़ियां हैं।
शहरी वन परियोजना के लिए जापान की मियावाकी पद्धति को एक अच्छे मौडल के रूप में देखा जा रहा है। इसे जापानी वनस्पति शास्त्री अकीरा मियावाकी द्वारा निर्देशित किया गया है। इसे स्थानीय परिस्थितियों के लिए स्वदेशी प्रजातियों के साथ अनुकूलित किया जा सकता है। मियावाकी वन एक उष्णकटिबंधीय वर्षावन की प्रतिकृति बनाते हैं। इसमें छोटे वृक्ष नीचे और ऊंची-ऊंची छतरियों वाली प्रजातियां ऊपर होती हैं। पारंपरिक वानिकी में, एक एकड़ में लगभग 1,000 पेड़ उगाए जाते हैं। हम मियावाकी के तहत इतने ही क्षेत्र में 12,000 पौधे लगाते हैं, जो 10 वर्षों में 100 साल पुराने जंगल का लाभ पैदा करता है।
अब बात मध्यप्रदेश के सागर जैसे मझोले कद के शहरों की की जाए तो यह शहर फिलहाल औद्योगिक प्रदूषण से दूर है लेकिन आर्थिक विकास के लिए हमेशा उद्योगों से दूर नहीं रहा जा सकता है। इस शहर ने भवन निर्माण, सड़कों के चैड़ीकरण  आदि में अपने अनेक वृक्षों को गंवाया है। सागर जैसे शहरों में आबादी और वाहनों की तुलना में वृक्षों की संख्या न्यूनतम है। जब से स्मार्टसिटी योजना लागू हुई है तब से कचरा प्रबंधन की ओर तत्परता से ध्यान दिया जाने लगा है। गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण पर भी जागरूकता आई है। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। हम वैश्विक स्तर प्रदूषण के जिस प्रतिशत से जूझ रहे हैं, उसमें इतना पर्याप्त नहीं है। भविष्य के विकास को ध्यान में रखते हुए भी शहरी वन योजना को एक स्मार्ट समाधान के रूप में तेजी से अमल में लाने की जरूरत है। वृक्ष एक दिन में बढ़ कर इतने तैयार नहीं हो जाते हैं कि वे प्रदूषण से जूझ सकें। कुछ मनोरंजन पार्क बना देने या सड़क डिवाईडर पर फूलों के पौधे लगा देने से वायु प्रदूषण एवं तापमान के स्तर को हम नहीं काट सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि शहरी वन के लिए क्षेत्र चिन्हित कर के वे वृक्ष लगाएं जाएं जो सघन होते हैं और वायु एवं ग्लोबल वार्मिंग की मात्रा को कम करने में मदद कर सकते हैं। इस दिशा में जनजागरूकता अभियान चलाना भी जरूरी है जिससे नागरिक शहरी वन योजना को अज्ञानवश क्षति न पहुंचाएं। वस्तुतः शहरी वन छोटे-बड़े, मंझोले सभी तरह के शहरों के लिए जरूरी हैं। यह हमेशा याद रखना चाहिए कि वृक्ष हैं तो ऑक्सीजन है और ऑक्सीजन है तो संासे हैं। शहर के इको सिस्टम को भी बनाए रखने में भी शहरी वन अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं।
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(सागर दिनकर, 06.10.2021)
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