Wednesday, May 26, 2021

चर्चा प्लस | सीएम की घोषणा और लाभ से वंचित अविवाहित बेटियां | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
 सीएम की घोषणा और लाभ से वंचित अविवाहित बेटियां - डाॅ शरद सिंह
           शिवराज सरकार बेटियों के हित में हमेशा महत्वपूर्ण घोषणाएं करती रही है जिनसे हर आयुवर्ग की बेटियों का जीवन संवर सके। लेकिन प्रशासनिक स्तर पर इन घोषणाओं का कितना परिपालन किया जाता है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमें अविवाहित बेटियों के लिए 25 वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद भी परिवार पेंशन दिए जाने की घोषणा लगभग साल भर पहले की गई थी। लेकिन अविवाहित बेटियां आज भी इस लाभ से वंचित हैं क्यों प्रशासनिक आदेश का कहीं अता-पता नहीं है। इसे घोषणाओं का खोखलापन कहें या प्रशासनिक लापरवाही? या फिर सीएम हाउस द्वारा घोषणाओं के क्रियान्वयन के फालोअप में कमी। जो भी कहें आर्थिक परेशानी भुगत तो रही हैं प्रदेश की अविवाहित बेटियां।
प्रदेश में बेटियों को सम्मान, सुरक्षा और बेहतर जीवन देने की दिशा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  हमेशा प्रयासरत रहते हैं जो कि समय-समय पर उनके द्वारा की जाने वाली घोषणाओं से प्रकट होता रहता है। लेकिन विसंगति यह है कि मुख्यमंत्री की घोषणाओं और उसको अमलीजामा पहनाने के बीच बहुत बड़ा अंतर रह जाता है। जिस गति से घोषणा पर अमल किया जाना चाहिए, उस तेज गति से अमल होता नहीं है। जैसे, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 15 अगस्त 2020 को अपने संबोधन के दौरान लाल परेड मैदान में घोषणा की थी कि मध्य प्रदेश में सभी शासकीय कार्यक्रम ‘‘बेटियों की पूजा’’ के साथ शुरू किए जाएंगे जिससे बेटियों और महिलाओं का सम्मान का भाव सबके मन में जागे। दिलचस्प यह कि घोषणा के पूरे चार माह बाद आदेश जारी किए गए। अर्थात् मुख्यमंत्री की घोषणा को अमल में लाने में पूरे चार माह लगे और फिर आदेश जारी किया गया। जिसकी कॉपी मध्यप्रदेश सरकार के सभी विभागों, सभी विभागाध्यक्ष, सभी संभागायुक्तों, सभी कलेक्टरों और सभी जिला पंचायतों के मुख्य कार्यपालन अधिकारियों को भेजी गई। बेटियों के पांव पूजन की घोषणा को अमलीजामा पहनाने में प्रशासन को चार माह का समय लग गया।
25 वर्ष से ऊपर आयु की अविवाहित बेटियों के हित में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की थी। यह घोषणा प्रशासनिक स्तर पर आज भी लागू होने की बाट जोह रही है।

शिवराज सरकार ने मध्यप्रदेश  में महिला सशक्तिकरण की दिशा में बड़ी योजना के संशोधन पर विचार करते हुए केंद्र सरकार के नियम की ही तर्ज पर मुख्यमंत्री सचिवालय द्वारा अविवाहित बेटियों के लिए 25 वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद पारिवारिक पेंशन दिए जाने की घोषणा की थी। इसके लिए प्रस्ताव परीक्षण के लिए सामान प्रशासन विभाग को भेजा गया था। दरअसल, केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के मामले में 28 अप्रैल 2011 को पेंशन नियम में संशोधन किया था। जहां अविवाहित बेटी, विधवा, परित्यक्ता बेटी को पेंशन देने की पात्रता उम्र बढ़ा दी गई थी। जिसके बाद अविवाहित पुत्री के मामले में यदि आयु 25 वर्ष से अधिक हो गई हो और उसका विवाह नहीं हुआ हो तो उसे पारिवारिक पेंशन का लाभ दिया जाएगा। इसी नियम को शिवराज सरकार ने मध्यप्रदेश में लागू करने का विचार किया। सन् 1976 के अधिनियम के अनुसार प्रदेश में कर्मचारियों के मामले माता-पिता की मृत्यु के बाद प्रदेश में अभी बेटे को 18 साल और बेटी को 25 साल तक ही परिवार पेंशन पाने की पात्रता है। प्रदेश में इस प्रस्ताव को परिवार पेंशन अधिनियम 1976 से ही लागू किया गया है। वहीं इसमें संशोधन  हो जाने पर अविवाहित बेटी के लिए 25 वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद जब तक उसका विवाह नहीं हो जाता तब तक पारिवारिक पेंशन दिया जाएगा। इस संबंध में प्रावधान बना कर मुख्यमंत्री सचिवालय द्वारा सामान्य प्रशासन विभाग को परीक्षण के लिए भेजा गया। इस पर वित्त विभाग 13 मार्च 2020 को परिवार पेंशन कल्याण मंडल ने भी सैद्धांतिक सहमति दे दी। किन्तु इसके बाद भी राज्य प्रशासन को 25 वर्ष से अधिक आयु अविवाहित बेटियों को पारिवारिक पेंशन का लाभ दिलाने के लिए कोई आदेश जारी नहीं कर सका है। वित्त विभाग मार्च 2020 में ही इस प्रस्ताव को सहमति दे चुका है। उसके तत्काल बाद सामान्य प्रशासन विभाग के पास यह प्रस्ताव परीक्षण भेजा गया था। कोई बाधा न होते हुए भी अंतिम निर्णय साल भर से लंबित है। यानी शिवराज सरकार द्वारा अविवाहित बेटियों के हित में की गई घोषणा आज भी क्रियान्वयन की ंप्रतीक्षा कर रही है और सैकड़ों बेटियां आर्थिक संकट से जूझ रही हैं।  
24 जनवरी 2021 को राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मिंटो हाल में ‘‘पंख’’ अभियान के शुभारंभ कार्यक्रम को संबोधित करते हुए शिवराज सिंह चैहान ने कहा था कि शिशु के कोख में आने से लेकर मृत्यु के बाद तक परिवार की सहायता के लिए मध्यप्रदेश में अनेक योजनाएं चल रही हैं। सभी योजनाओं का उद्देश्य महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लाना है। यह हम सभी का दायित्व भी है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि प्रदेश में महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं संचालित हैं। इनमें एक अनूठा ‘‘पंख’’ अभियान भी है जो बालिकाओं के संरक्षण, जागरण, पोषण, ज्ञान, स्वास्थ्य, स्वच्छता का प्रतीक है। पी से प्रोटेक्शन, ए से अवेयरनेस, एन से न्यूट्रीशन, के से नॉलेज एवं एच से हेल्थ व हाइजीन के माध्यम से बेटियों की सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं सर्वांगीण विकास सुनिश्चित किया जाना तय किया गया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि पंख अभियान के लिए हिन्दी में अभिप्रायरू पावक (अग्नि), अंतरिक्ष, नीर (पानी), क्षितिज और हवा से है। यह अभियान बालिकाओं और महिलाओं की निराशा को दूर करेगा। भारत सरकार की बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ् सयोजना किशोरियों को चहुंमुखी विकास में मदद करती है। मध्यप्रदेश में इसे नया स्वरूप दिया गया है। पंख अभियान भी इस योजना का ही हिस्सा है, जिसके अंतर्गत अगले दो महीनों की गतिविधियों का कैलेण्डर तैयार किया गया है। अभियान के अंतर्गत जिला स्तर पर विभिन्न विभागों के सहयोग से किशोरियों के स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाएगा। किशोरियों का डाटाबेस तैयार किया जाएगा। इससे उनके विकास में सहयोग मिलेगा। जनप्रतिनिधि और अशासकीय संस्थाओं को भी अभियान से जोड़ा जाएगा। बालिका जन्म को प्रोत्साहन, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, पॉक्सो एक्ट, दहेज प्रतिषेध अधिनियम के प्रचार-प्रसार, किशोरियों और उनके अभिभावकों को कुप्रथाओं की समाप्ति के लिए जागरूक करना, किशोरियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना, उनके पोषण के स्तर को सुधारना, पंचायत स्तर पर वोकेशनल ट्रेनिंग देना और उनकी नेतृत्व क्षमता विकसित करना अभियान के अंग हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि मध्यप्रदेश में गांव की बेटी योजना, प्रतिभा किरण योजना, मातृ वंदना योजना, उदिता योजना, वन स्टॉप सेंटर का संचालन, लाडो अभियान का संचालन सभी का उद्देश्य किशोरियों और महिलाओं की ताकत बढ़ाना है।
महिला सशक्तीकरण के लिए गांव की बेटी योजना, प्रतिभा किरण, कन्या विवाह योजना, शौर्या दल गठन, महिला स्व-सहायता समूह महत्वपूर्ण माध्यम हैं। लाड़ली लक्ष्मी योजना की वर्ष 2007 में शुरूआत हुई थी। बहुत से ऐसे परिवार है जो आर्थिक रूप से कमजोर होने के करना अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा नहीं दे पाते और न ही उनके विवाह के लिए पैसे इकट्ठा नहीं कर पाते हैं। बहुत से लोग लड़का और लड़कियों में भेद भाव भी करते है । इन सभी परेशानियों को देखते हुए राज्य सरकार ने लाडली लक्ष्मी योजना 2021 को शुरू किया इस योजना के तहत उद्देश्य है बेटी की पढाई और शादी के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करना। इस योजना के तहत मध्य प्रदेश के नागरिको की नकारात्मक सोच को बदलना और बालिकाओ के भविष्य को उज्जवल बनाना है और इस  पैसे का इस्तेमाल लड़की द्वारा उसकी उच्च शिक्षा अथवा विवाह के लिए किया जा सकता है। इस तरह मध्य प्रदेश राज्य में महिलाओं और पुरुषों के लिंग अनुपात को कम करना और राज्य में महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ावा देने का प्रयास है। लेकिन घोषणाओं के लागू किए जाने में साल भर से भी अधिक समय लगना इस बात को सोचने पर मजबूर करता है कि सरकार की सोच और प्रशासन की तत्परता के बीच तालमेल का अभाव है जिससे बेटियों का हित चाहने वाले मुख्यमंत्री की छवि पर भी विपरीत असर पड़ता है। घोषणा यदि विज्ञापन की वस्तु बन कर रह जाए तो उसका जनमानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। आमजन शासन-प्रशासन से सहयोग की आशा रखता है किन्तु जब जीवनयापन के प्रश्न का हल ही ठंडे बस्ते में लम्बित पड़ा हो तो घोषणाओं पर से विश्वास डगमगाना स्वाभाविक है।
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Tuesday, May 25, 2021

पुस्तक समीक्षा | गुलमोहर : स्त्रीमन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

मित्रो, प्रस्तुत है आज 25.05.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "गुलमोहर" की  पुस्तक समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
गुलमोहर : स्त्रीमन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक   - गुलमोहर (काव्य संग्रह) 
कवयित्री - चंचला दवे             
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं.1,वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-2 
मूल्य    - रुपए 350 मात्र                                           
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कविता एक अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जिसमें कठोर यथार्थ को भी कोमल शब्दों में और मधुरता से व्यक्त किया जा सकता है। समकालीन हिन्दी कविता ने काव्य का ऐसा अलग ही धरातल गढ़ा है। एक ऐसा धरातल जो वातावारण और परिस्थितियों से सीधा संवाद करता है, कई बार आंखों में आंखें डाल कर। यह इसलिए संभव हुआ कि हिन्दी कविता में कवयित्रियों ने अपने अंतर्मन को खुल कर सामने रखा। चाहे निजता हो या सांसारिकता, कभी-कभी दोनों को एक साथ साधते हुए कविताएं लिखीं। समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि का पारस्परिक क्रम समकालीन कवयित्रियों की कविताओं में देखा जा सकता है। ‘‘गुलमोहर’’ कवयित्री चंचला दवे की काव्यकृति है जिसमें गर्मी की तपन और गुलमोहर की छांह है, भूमि का धूसर रंग तो गुलमोहर के फूलों का अग्निदग्धा चटख रंग भी है। चंचला दवे की कविताओं पर दृष्टिपात करने से पूर्व यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने अहिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दी को अपनी मातृभाषा की तरह अपनाया है और हिन्दी में अपनी कविताओं की प्रवाहमान अभिव्यक्ति की है।  
समकालीन हिंदी कविता के संदर्भ में देखा जाए तो बाज़ारवाद के प्रभाव से सांस्कृतिक विघटन और पारिवारिक संरचना का रक्षा संघर्ष महज स्त्री का संघर्ष न होकर विश्व में मानव मुक्ति के संघर्ष का आह्वान करता है। ये कविताएं सभी वर्ण, जाति, लिंग के स्त्री-समाज की सामूहिक संवेदना को अपने देश-काल , परिवेश , संस्कृति और समय -संदर्भों की भाषा में अभिव्यक्त कर के स्त्री अस्मिता के सभी प्रश्नों और संभावनाओं को समाहित करती हैं। चंचला दवे की कविताओं में मां के अस्तित्व को ले कर गंभीर रचनाकर्म है। वे मां संबंधी अपनी कविताओं में मां से संवाद करती हैं, उनके अधिकारों की पुनर्स्थापना करना चाहती हैं और वर्तमान परिवार में मां का स्थान सुनिश्चित करना चाहती हैं। चंचला दवे की कविताओं में विस्तृत परिवृत्ति है जो व्यापक मानवीय सहानुभूति को बनाएं रखना चाहती है। उनकी एक बहुत छोटी-सी कविता है - ‘‘मां घर की देहरी पर’’। यह कविता चंद पंक्तियों में मां के अस्तित्व का विशद आख्यान प्रस्तुत कर देती है। कविता देखिए-
घर की देहरी पर
बिना बाप की
बेटी के लिए
चौकसी करती
राह तकती
दरवाज़े पर
बाप बनी खड़ी
रहती है मां।

यह मां की एक ऐसी परिभाषा है जिसे पढ़ कर संस्कृत का यह श्लोक याद आ जाता है-
    नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
    नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।
अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं।

मां को स्मरण करती हुई चंचला दवे की एक और कविता है ‘‘मां अब तुम नहीं हो’’। इस कविता में मां की आत्मिक उपस्थिति के समक्ष दैहिक अनुपस्थिति नगण्य दिखाई देती है। कवयित्री लिखती हैं-
मां बहुत याद आती हो, तुम
नहीं हो, पर घुली हो रक्त में नमक बन कर
प्यार बन कर, दौड़ती हो मेरी रग-रग में
मां तुम कहां हो?
सदा हो मेरे साथ
साथ रहना।

अर्जेन्टीना के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नरूदा ने अपनी सौतेली मां के साथ अपना बचपन गुज़ारा। जिनके बारे में उन्होंने लिखा है कि- ‘‘हां, मैं एक अच्छी सौतेली मां को जानता हूं। वह सौतेली थी, लेकिन फरिश्तों जैसी थी।’’ अपनी उस मां के लिए पाब्लो नरूदा ने एक लम्बी कविता लिखी थी जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं- 
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूंगा ख़ामोशी
तब जबकि तुम अनुपस्थित हो
और सुन सकती हो मुझे कहीं दूर से
जबकि मेरी आवाज स्पर्श नहीं कर सकती तुम्हें

पाब्लो नरूदा की सौतेली मां में और चंचला दवे की कविता की सगी मां में कोई भावनात्मक अंतर नहीं है और मां के प्रति संतान की संवेदना में भी अलगाव नहीं है। संवेदनाओं को तार्किकता के पैमाने से नहीं नापा जा सकता है। संवेदना अंतकरण की लहलहाती उपज होती है जो भावनाओं साथ-साथ वैचारिकता का भी पोषण करती है। 

चंचला दवे मां को अपनी कविता में समेटते समय पिता के अस्तित्व को भी ध्यान में रखती हैं। पिता पर केन्द्रित उनकी कविताओं में एक बहुत ही कोमल कविता है ‘‘यादों में पिता’’। यह कविता पिता को ब्रह्माण्ड के अस्तित्व से एकाकार करती हुई पिता को अभिव्यक्ति देती है। -
उगते सूरज की लाली
के उस पार
खड़े होते पिता/सूरज बन कर 
उतर आते/धरती पर 
आकाश में गोल घूम कर
फिर डांटते-डपटते 
स्मृति में/बार-बार पिता
बरसों पुरानी रोशनी/फैलती है
बन कर उजाला।

समाज की आधुनिक संरचना और मूल्यों में सकारात्मक परिवर्तन भी चंचला दवे की विताओं में मुखर हुआ है। परंपरागत पारिवारिक ढांचें में स्त्री का स्थान सबसे आखिरी पायदान पर रहा है। स्त्री का दायित्व निर्धारित किया गया कि वह घर सम्हाले, कपड़े धोऐ, पानी भरे, अनाज पीसे, बच्चे पैदा करे, बच्चों का पालन करे आदि-आदि। लेकिन ग्लोबल होते समाज में युवा पीढ़ी एक अलग पारिवारिक संरचना को स्वीकृति देती जा रही है जिसमें स्त्री को घर की चहार दीवारी से बाहर भी मनचाहे अधिकार हैं। युवा पीढ़ी के रचे समाज में स्त्री परंपरागत बेड़ियों से मुक्त दिखाई देती है। इसी बात को लक्षित करते हुए चंचला दवे ने कविता लिखी है- ‘‘बातें’’-
बच्चों ने कई बातें
अभी से सीख ली हैं
जैसे/अपनी पत्नी से 
नहीं करवाएंगे काम
बच्चों से नहीं धुलवाएंगे कपड़े
खूब आज़ादी देंगे
खूब उड़ाएंगे पतंग/गाएंगे गाने
उड़ जाएंगे आकाश तक
तोड़ लाएंगे तारे
होने वाले बीवी बच्चों के लिए।

चंचला दवे की कविताओं में ‘स्पर्श’ का लालित्य और ‘मुर्दाघर’ का खुरदरा अहसास भी है। ‘उदास गोधूलि’ से गुज़रता हुइ ‘प्रेम’ है, ‘शब्द’ है, स्मृतियां हैं, गांव है अर्थात् एक अनूठी समग्रता है। यह काव्य संग्रह स्त्रीमन की एक ऐसी काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो पढ़े जाने का स्वतः आग्रह करता है। कवयित्री को भाषाई अधिकार और अभिव्यक्ति की कला बखूबी आती है जिसे उनकी इस कृति ‘‘गुलमोहर" में अनुभव किया जा सकता है।
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Thursday, May 20, 2021

चर्चा प्लस | आंकड़े, अविश्वास और अव्यवस्था से जूझता कोरोना काल | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
आंकड़े, अविश्वास और अव्यवस्था से जूझता कोरोना काल    
      - डाॅ शरद सिंह
कोरोना का दूसरी लहर इतनी भयावह होगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। हर पांचवें परिवार ने अपने परिजनों को खोया है। दुर्भाग्यवश यह सिलसिला जारी है। मृत्यु के आंकड़े विश्वरिकाॅर्ड तोड़ रहे हैं और जीवनरक्षक दवाओं, इंजेक्शनों की कालाबाज़ारी, नकली दवाएं, दूषित आॅक्सिजन व्यवस्था इंसानीयत को निरंतर शर्मसार कर रही है। क्या ऐसा वातावरण हमें इस आपदा से जल्दी मुक्ति की उम्मींद दिला सकता है? जबकि ब्लैक फंगल जैसी ख़तरनाक बीमारी भी अपना जाल फैलाने लगी है। सच तो ये है कि दवा के साथ ही ज़रूरत है व्यवस्था सुधारने, इंसानीयत बचाने और आपसी विश्वास पैदा करने की।             
पहले कोरोना काल में समय पर सख़्ती से लाॅक डाउन लगाया गया था जिसके अच्छे परिणाम भी सामने आए कि कोरोना संकट सिमटने लगा था। मार्च 2021 तक संक्रमितों के आकड़ों में ज़बर्दस्त गिरावट आ गई थी। लग रहा था कि अब सब कुछ ठीक होने वाल है। लेकिन कुछ लापरवाहियों ने सब कुछ घ्वस्त कर दिया। अप्रैल 2021 में कोरोना ने अपना विकराल रूप दिखाया जो अभी तक ज़ारी है। समाचार ऐजेंसीज के आंकड़ों के अनुसार देश में अब तक कुल 2,79,181 मौतें कोरोना से हुई हैं। इस दौरान मैं भी अपनी दीदी डाॅ वर्षा सिंह को कोरोना संक्रमण के चलते खो दिया। हृदयविदारक अनुभव रहा मेरे लिए। जिससे कुछ प्रश्न मेरे मन में उपजे कि कोरोना में ईलाज के साथ ही विश्वास बढ़ाए जानंे और व्यवस्थाओं को सुधारे जाने की सख़्त ज़रूरत है।

स्थिति एक - कोरोना संक्रमित होने वाले मरीज़ को जब अस्पताल में भर्ती किया जाता है तो संक्रमण रोकने के लिए कोविड वार्ड में मरीज के परिजन को जाने नहीं दिया जाता है। बेशक यह संक्रमण का फैलाव रोकने के लिए ज़रूरी है। लेकिन यही से शुरू होती है मानसिक समस्याएं। मरीज के परिजन अपने मरीज को भर्ती करने के बाद उसे देख तक नहीं पाते हैं। यद्यपि मोबाईल फोन पर बातचीत की अनुमति रहती है लेकिन यह तभी तक संभव हो पाता है जब तक मरीज बात करने की स्थिति में रहता है। फेफड़ों के संक्रमण से ग्रस्त मरीज अधिक देर तक बात नहीं कर पाता है तथा स्थिति बिगड़ने पर तो बातचीत बंद ही हो जाती है। यह स्थिति परिजन और मरीज दोनों के लिए मनोबल गिराने वाली होती है। एकाकी रह गए मरीज का मनोबल टूटने लगता है और उसकी वायरस से लड़ने की क्षमता कम होती जाती है। दुर्भाग्यवश मैंने इस स्थिति को स्वयं महसूस किया है मरीज के परिजन की हैसीयत से। जब संवाद की एकमात्र कड़ी भी टूटने लगती है तो जो असहाय स्थिति महसूस होती है, उसे बयान कर पाना संभव नहीं है।

स्थिति दो - आए दिन नकली इंजेक्शन बेचे जाने की घटनाएं सामने आ रही हैं। हैवानीयत की हद तो यह है कि इंजेक्शन के नाम पर नमक-शक्कर का घोल बेच कर कोरोना संक्रमितों के जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। वैसे इसे खिलवाड़ के बजाए इरादतन हत्या कहा जाना चाहिए। नकली दवा बेचने वालों पर सीधे इरादन हत्या का केस ही दर्ज़ किया जाना चाहिए और मुकद्दमा भी फास्टट्रैक कोर्ट में चलाया जाना चाहिए। इस आपदा के समय में जो लोग दवाओं की कालाबाज़ारी कर रहे हैं और ऊंचे से ऊंचे दाम में दवाएं बेंच रहे हैं वे भी देशद्रोह और इरादतन हत्या के दोषी ठहराए जाने चाहिए। विचारणीय है कि पिछले एक साल से अधिक समय से देश आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है। बड़े पैमाने पर नौकरिया छूट चुकी हैं। छेाटी दूकानें बंद पड़ी हैं। हम्माल और मज़दूर जैसे रोज कमाने वाले एक-एक रोटी के लिए जूझ रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में इंसानीयत को धोखा देने वालों के विरुद्ध कठोर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है।
नकली दवाओं और नहीं इंजेक्शन के मामलों के कारण भय और अविश्वास का वातवारण पैदा हो गया है। अस्पताल में भर्ती मरीज को असली इंजेक्शन मिल पाया या नहीं यह संदेह उस स्थिति में और अधिक विकराल रूप ले लेता है जब मरीज की मृत्य हो गई हो। परिजन यह सोच-सोच कर हलाकान होता रहता है कि उसके मरीज़ को असली इंजेक्शन मिला था या नहीं? इसके लिए अस्पतालों में परदर्शिता की सख़्त ज़रूरत है।  

स्थिति तीन - प्रायवेट अस्पतालों में भारी-भरकम फीस का बोझ होता है जिसे ग़रीब तबका नहीं उठा सकता है। वहीं, सरकारी अस्पतालों, मेडिकल काॅलेजों में बनाए गए कोविड सेंटर्स में प्रबंधन की कमी है। आईसीयू या वेंटिलेटर में रखा गया कोविड मरीज स्वयं गिलास उठा कर पानी नहीं पी सकता है। उसे हर समय एक अटैंडेंट की आवश्यकता होती है। जिसकी व्यवस्था सरकारी अस्पतालों में नहीं है। होता यह है कि प्यास लगने पर मरीज जैसे तैसे अपने परिजन को फोन लगाता है। घर में बैठा परिजन अपने मरीज तक पानी पहुंचवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाता है और मरीज को पानी पिलाए जाने में पर्याप्त देर हो चुकी होती है। यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है जिसे मैंने स्वयं झेला है। इसी तरह खाने से ले कर वाॅशरूम तक की सारी समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। काम ज़्यादा और स्टाफ कम। यानी हम अभी भी आपदा का सामना करने के लिए तैयार नहीं हो सके हैं।

प्रश्न यह है कि इस अव्यवस्था और अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इसका सबसे पहला उपाय तो यह है कि सीसीटीवी के ज़रिए बड़े स्क्रीन पर मरीज और उसके परिजन को परस्पर देखने का अवसर उपलब्ध कराया जाए। जब चुनावी आयोजनों में और मनोरंजन के आयोजनों में आसानी से बड़े स्क्रीन और लाईव प्रदर्शन की व्यवस्था हो सकती है तो जीवन-मरण के प्रश्न वाली जगह में यानी अस्पतालों में यह व्यवस्था क्यों नहीं कराई जा सकती है। इससे मरीज और उसके परिजनों के मनोबल में वृद्धि होगी और वह इलाज और आंतरिक व्यवस्थाओं को ले कर आश्वस्त रह सकेगा।

दूसरा उपाय है कि चाहे आपात भर्ती की जाए अथवा वालेंटियर सेवाएं बढ़ाई जाएं लेकिन सिर्फ एक घंटी की दूरी पर मरीज के लिए अटैंडेंट की व्यवस्था उपलब्ध रहे। जिससे खाना, पानी, वाॅशरूम या आॅक्सिजन सप्लाई में कोई भी असुविधा होने पर वह बेड में लगी घंटी दबा कर तुरंत सहायता पा सके। यह भी जीवनरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण जरूरत है। मरीज को यह महसूस न होने पाए कि वह अलग-थलग असहाय अवस्था में है और उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इससे मरीज मानसिक तौर पर टूटने लगता है और उसकी प्रतिरोध क्षमता शिथिल पड़ने लगती है। इस स्थिति में स्वयंसेवक बड़ी मदद कर सकते हैं। वे अपनी इच्छाशक्ति से मरीज की उचित देख-भाल कर सकते हैं।    

तीसरा उपाय है कि स्वच्छता का हर संभव ध्यान रखा जाए। ऐसे समय में यह और भी ज़रूरी है जबकि ब्लैक फंगल जैसी बीमारी पांव पसारने लगी है। ऑक्सीजन यंत्रों की पूर्ण स्वच्छता जरूरी है। हाईजीन या स्वच्छता इस समय सबसे अधिक जरूरी है।

मैंने तो अपनी दीदी को खो दिया है लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि इस पीड़ा से और लोग भी गुज़रें। आम नागरिकों, नेताओं, पत्रकारों और जनसेवकों को इसके लिए सामूहिक कदम उठाना होगा जिससे विश्वास और व्यवस्था कायम हो सके तथा कोरोना से मरने वालों के आंकड़ों में वास्तविक गिरावट आ सके। गलतियां क्या हुईं इस पर बहस करने के बजाए सुधारा क्या जा सकता है इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है यदि हम चाहते हैं कि देश को कोरोना महामारी से छुटकारा मिल जाए और जो बचे हुए हैं वे सुरक्षित बचे रहें।          
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(दैनिक सागर दिनकर 20 .05 .2021 को प्रकाशित)
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Wednesday, May 19, 2021

पुस्तक समीक्षा | कुमुद पंचरवाली : मानवीय संबंधों को गहराई से रेखांकित करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रिय ब्लॉगर साथियों, पीड़ा की असीम गहराइयों से ख़ुद को बाहर निकालने की कोशिश में मेरा एक और क़दम... एक बार फिर लेखकीय व्यस्तता में ख़ुद को उतार देना चाहती हूं... आप सभी की दुआएं चाहिए..🙏 ....आज  #आचरण  में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏 - डॉ शरद सिंह 
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पुस्तक समीक्षा

कुमुद पंचरवाली : मानवीय संबंधों को गहराई से रेखांकित करती कहानियां

              समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

पुस्तक   - कुमुद पंचरवाली (कहानी संग्रह)    
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन, 10 सिविल लाईन्स, एल आई सी बिल्डिंग, सागर (म.प्र.)
लेखक  - आर. के. तिवारी          
मूल्य    - रुपए 200 मात्र                                          
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समाज में दुख-सुख, राग-द्वेष, जीतने और हारने के अनेक रंग दिखाई देते हैं। इन्हीं रंगों के बीच अनेक ऐसी घटनाएं छिपी होती हैं जो कहानी बन कर उभरने पर मन को गहरे तक छूती चली जाती हैं। एक स्त्री जो जीवन में बहुत कुछ चाहती हो किन्तु समर्पण की प्रतिमूर्ति बन कर जीवन गुज़ार दे, एक स्त्री जो न चाहते हुए भी प्रतिशोध के भंवर में फंस जाए, एक स्त्री जो परिवार के प्रति अपने दायित्वों का आदर्श रूप में निर्वहन करती रहे और एक ऐसा इंसान जो देश के बंटवारे की आंच से गुज़रता हुआ एक अलग ही व्यक्तित्व में समा जाए। जी हां, ‘‘ कुमुद पंचरवाली’’ कहानीकार आर. के. तिवारी का कहानी संग्रह है जिसमें लम्बी चार कहानियां हैं। आर. के. तिवारी अपनी पहली कथाकृति ‘‘करमजली’’ से तप कर परिपक्व हुए हैं और उनकी लेखकीय परिपक्वता उनके इस नवीनतम कहानी संग्रह में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। संग्रह में रखी गई चारो कहानियों के कथानक ही नहीं वरन् कथापात्र भी बहुत जाने-पहचाने और बहुत समीप के लगते हैं क्यों कि ये आम ज़िन्दगी से चुने गए हैं।
‘‘कुमुद पंचरवाली’’ शीर्षक कहानी संग्रह की सबसे प्रभावी कहानी है। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने प्रिय को सम्पूर्णता से पाना चाहती है अर्थात् उसके साथ विवाह करके अपना सुखमय जीवन जीना चाहती है। अनाथ, अपढ़, साईकिल का पंचर जोड़ने का काम करने वाली कुमुद जब अपने गांव में आए प्रतिभाशाली युवा शिक्षक को देखती है तो वह उसे भला लगता है। शिक्षक भी कुमुद से प्रभावित होता है और उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। परिस्थितिवश शिक्षक का एक अन्य युवती से विवाह हो जाता है। कुमुद को ठेस पहुंचती है किन्तु वह अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के बदले मौन साध लेती है। शिक्षक की पत्नी के मन में कुमुद और शिक्षक को ले कर संदंह के बीज अंकुरित होने लगते हैं और धीरे-धीरे संदेह की विष-बेल बढ़ने लगती है। एक दिन ऐसा आता है जब शिक्षक की पत्नी उसे छोड़ कर चली जाती है। शिक्षक पत्नी के इस व्यवहार से टूट जाता है। उसका स्वास्थ्य गिरने लगता है। तब कुमुद उसे सहारा देती है और उसकी सेवा करती है, बिना किसी सामाजिक बंधन के। कहानी का असली प्रस्थान बिन्दु ठीक यहीं से शुरू होता है। सामाजिक दंश की परवाह किए बिना निःस्वार्थ भाव से शिक्षक की सेवा करना कुमुद के चरित्र को उन ऊंचाइयों पर पहुंचा देता है जहां मानवीयता सभी सामाजिक भावनाओं से कहीं ऊपर ठहरती है। कहानी में कुमद के भावनात्मक चरित्र के तीन पक्ष बखूबी उभर कर आए हैं। पहला पक्ष वह जिसमें एक अल्हड़ युवती प्रेम में पड़ जाती है और अपने प्रिय के साथ रहने के स्वप्न संजोने लगती है। दूसरा पक्ष वह जिसमें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखती हुई अपने प्रेमी की पत्नी के साथ न केवल सहज संवाद बनाती है बल्कि उसके आग्रह पर उसके लिए पूजा के फूल भी लाया करती है। तीसरा पक्ष वह है जिसमें बिना वैवाहिक बंधन के अपने प्रिय की इस प्रकार सेवा-सुश्रुषा करती है जैसे उसकी पत्नी हो। किन्तु उसके इस सेवा भाव में दैहिक संबंधों का कोई स्थान नहीं है। मात्र सेवा भाव और अगाध प्रेम है जो उसे समर्पिता बनाए रखता है। कहानी का अंत मार्मिक बन पड़ा है जिसे पढ़ कर ही महसूस किया जा सकता है। कहानीकार आर. के. तिवारी ने कुमुद के चरित्र के तीनों पक्षों को प्रभावी ढंग से कहानी में पिरोया है। कहानी पढ़ लेने के बाद देर तक कुमुद का चरित्र मन को उद्वेलित करता रहता है। यही कहानीकार की सफलता है।
संग्रह की दूसरी कहानी है ‘‘गंगा फुआ‘‘। यह कहानी उस अतीत में ले जाती है जब बालविवाह द्वारा बच्चों के जीवन का निर्णय कर दिया जाता है और विधवाओं को उपेक्षा और अनादर कर कष्टप्रद जीवन जीना पड़ता था। बाल विवाह पर बांग्ला साहित्य में प्रचुरता से लिखा गया है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय, रवींद्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र चट्टोपध्याय ने बाल विवाह और विधवा जीवन की त्रासदी पर अद्भुत यथार्थपरक कथा साहित्य रचा। ‘‘गंगा फुआ‘‘ भी उन्हीं मानवीय मूल्यों का अनुकरण करती चलती है। यह कहानी शुरू होती है दस वर्ष की बालिका गंगा के बालविवाह से। गंगा जब विवाह और वैवाहिक जीवन के बारे में कुछ जानती भी नहीं थी तब उसे विवाह बंधन में बांध दिया गया। उस पर विडम्बना यह कि पहली विदाई के समय हैजा के कारण उसके पति की मृत्यु हो गई। दस वर्षीया बालिका जिसने अभी जीवन के रंग ही नहीं देखे थे, उसे तमाम रंगों से वंचित कर दिया गया। वह सफेद साड़ी के अतिरिक्त और कुछ नहीं पहन सकती थी। सजना-संवरना तो दूर, वह केश तक नहीं रख सकती थी। ससुराल में उस पर अपार बंदिशें थोप दी गई। उसे सूखी घास पर सोना पड़ता, सुबह चार बजे मुंह अंधेरे  शौच के लिए जाना पड़ता, वह किसी से बात नहीं कर सकती थी। वह हंस नहीं सकती थी, वह रो नहीं सकती थी। वह इच्छानुसार सुस्वाद भोजन नहीं कर सकती थी। चार दिन में ही उसकी सेहत गिर गई। गंगा के भाई काशीराम से अपनी बहन की यह दुर्दशा देखी नहीं गई। वह समझ गया कि यदि गंगा ससुराल में रहेगी तो अधिक दिन जीवित नहीं रह सकेगी। काशीराम गंगा के ससुराल वालों को समझा-बुझा कर उसे अपन साथ ले जाने में सफल रहा। मायके पहुंच कर गंगा को राहत मिली। लेकिन दस-पंद्रह दिन में ही ससुराल से बुलावा आ गया। तब गंगा की भाभी ने उसका पक्ष लिया और उसे ससुराल भेजे जाने से रोक लिया। जबकि गंगा की भाभी की उम्र भी मात्र पंद्रह वर्ष थी। इसीलिए गंगा और उसकी भाभी के बीच एक बहनापा, एक सहेलीपन था जो उसकी भाभी गंगा की पीड़ा को समझ सकी। कुछ समय बाद भाभी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया मुन्ना। मुन्ना के दुनिया में आते ही गंगा का घर, परिवार, समाज में एक स्थान निर्धारित हो गया। अब वह गंगा के बदले अपने भतीजे की गंगा फुआ बन गई। परिवार के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन की अनवरत कथा शुरू होती है यहां से और एक आदर्श भारतीय स्त्री की छवि उभर कर आती है गंगा फुआ में। कहानी में गंगा फुआ के चरित्र को जिस कोमलता के साथ ऊंचाइयों तक लेखक ने पहुंचाया है, वह उनकी सृजनशीलता और संवेदनात्मकता के प्रति आश्वस्त करता है।
संग्रह की तीसरी कहानी है ‘‘पद्मा का प्रतिशोध’’। कहानी का पहला वाक्य ही जिज्ञासा जगाने में सक्षम है- ‘‘एक सीधी-सादी लड़की इतनी क्रूर, दुष्ट, हत्यारिन कैसे हो सकती है?’’ कहानी की नायिका पद्मा ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी। शिक्षा सिर्फ़ चौथी कक्षा तक। पद्मा का विवाह शहर में एक व्यापारी की दूकान पर काम करने वाले युवक रामू से कर दिया गया। वैवाहिक जीवन का आरम्भ सुखमय रहा। ससुर की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। कुछ समय बाद सास भी काल के ग्रास में समा गई। रामू को काम से घर लौटने में देर हो जाया करती थी। घर में अकेली रह जाने वाली पद्मा का परिचय एक ऐसी महिला से हुआ जिसने उसके भोलेपन का लाम उठाते हुए उसे एक ऐसे जाल में फंसा दिया जिससे निकल पाना संभव नहीं था। घर पर खाली बैठने के बजाए चार पैसे कमाने का लालच दे कर उस औरत ने पद्मा को देहव्यापार में धकेल दिया। मना करने पर ब्लैकमेल करने लगी। पद्मा जो एक सीधी-सादी स्त्री थी, इस चक्रव्यूह में फंस कर आहत हो उठी। उसके मन में प्रतिशोध की भावना उठनी स्वाभाविक थी। कहानी एक रोचक मोड़ लेती है और कहानी का पाठक स्वयं को पद्मा के साथ खड़ा पाता है। कहानी का सुखद पक्ष यह है कि पद्मा का पति उसका साथ देता है और उसे सब कुछ भूल जाने को कहता है। लेकिन उसके पति को पता नहीं था कि ऐसे अपराधी अपने शिकार को कभी कुछ भी भूलने नहीं देते हैं। वे ब्लैकमेल को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। यह कहानी ऐसे छद्मवेशियों के चरित्र को उजागर करती है जो शुभचिंतक बन कर अपने जाल में इस तरह फंसाते हैं कि उससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है। कहानी की रोचकता आदि से अंत तक बनी रहती है।
‘‘नंदू पाठक’’ यह संग्रह की चौथी कहानी है। यह देश के विभाजन के समय की कहानी है जब दंगे भड़क रहे थे और समूचा देश विभाजन की आग में झुलस रहा था। इस कहानी में बड़ी सहजता से इस तथ्य को सामने रखा गया है कि चंद स्वार्थी तत्व दंगे भड़काते हैं, सामान्य इंसान नहीं। कहने को हिन्दू-मुस्लिम उन दिनों परस्पर विरोधी बन बैठे थे किन्तु बहुत से लोग ऐसे भी थे जिनकी भावनाएं धार्मिक भेदभाव से बहुत ऊपर थीं। उन्हीं में एक थे नंदू पाठक। देश के विभाजन की मार्मिकता पर अनेक कहानिया ओर उपन्यास लिखे जा चुके हैं। खुशवंत सिंह का ‘‘ट्रेन टू पाकिस्तान’’, भीष्म साहनी का ‘‘तमस’’, कमलेश्वर का ‘‘कितने पाकिस्तान’’ और सआदत हसन मंटो की कहानियां जैसी अनेक कृतियां देश के विभाजन की त्रासदी को बखूबी सामन रख चुकी हैं। विभाजन का विषय ही ऐसा है जो सदियों तक सभी के मन को कुरेदता रहेगा और यह प्रश्न पूछने को मजबूर करता रहेगा कि विभाजन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था क्या? रक्त की नदियों से नहा कर निकले दो राष्ट्र एक-दूसरे का विश्वास चाह कर भी नहीं जीत पाते हैं क्यों कि अतीत की मर्मांतक चींखें इतिहास के पन्नों से निकल कर दिल-दिमाग को झकझोरती रहती हैं।
आर. के. तिवारी एक उत्साही कहानीकार हैं। वे अपने कथानकों के साथ न्याय करने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं और इसमें सफल भी रहते हैं। ‘‘कुमुद पंचरवाली’’ कहानी संग्रह कहानीकार आर. के. तिवारी के श्रम और साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता को प्रतिबिम्बित करता है। निश्चित रूप से यह एक पठनीय और रोचक कहानी संग्रह है जिसमें मानवीय संबंधों को गहराई से रेखांकित करती कहानियां हैं।
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