Wednesday, November 29, 2017

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Wednesday, November 22, 2017

चर्चा प्लस ... इतिहास, सिनेमा और (कु)संवाद के साए में ‘पद्मावती’ - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस  (दैनिक सागर दिनकर, 22.11.2017)



इतिहास, सिनेमा और (कु)संवाद के साए में ‘पद्मावती’
  - डॉ. शरद सिंह
यूं आजकल चलन-सा हो गया है विवाद खड़ा कर के फिल्म को चर्चित बनाने का लेकिन संजय लीला भंसाली ने भी फिल्म बनाते समय यह नहीं सोचा होगा कि उनकी फिल्म को ले कर वाद-संवाद इस तरह अपना स्तर गवां बैठेंगे। जिस धैर्य और संयम के परिचय की अपेक्षा विरोध कर रहे राजपूतों से की जा रही है, वही अपेक्षा संजय लीला भंसाली से भी है। जावेद अख़्तर जैसे व्यक्ति से ऐसे वक्तव्य की आशा नहीं थी जो उन्होंने इस विवाद के तारतम्य में दिया है। समय रहते संयम नहीं बरता गया तो विवाद के बीच में कूद पड़ने वाले कुसंवादी वातावरण को और बिगाड़ सकते हैं।
रानी पद्मिनी अथवा रानी पद्मावती की कथा हम सभी ने सुनी है, पढ़ी है। हम उस संस्कृति के नागरिक हैं जहां पशु, पक्षी, वनस्पति और यहां तक कि पाषाण में भी देवता के होने का विश्वास रखते हैं। वहीं हम मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं। लेकिन विगत कुछ सप्ताह से फिल्म ‘पद्मावती’ को ले कर जिस तरह का विवाद खड़ा हो गया है वह हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं एवं भावनाओं को आहत करने वाला है। मसला सिर्फ़ यह नहीं है कि इससे राजपूतों की भावना को ठेस पहुंची, मसला यह भी है कि इससे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ठेस पहुंची है। यह सच है कि कुछ राजपूतों को अतिआवेश में आ कर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के विरुद्ध अपशब्द नहीं कहने चाहिए थे किन्तु वहीं दूसरी ओर संजय लीला भंसाली को भी राजपूतों की भावनाओं का सम्मान करते हुए विरोध कर रहे राजपूतों के प्रतिनिधियों को फिल्म की स्क्रीनिंग दिखा देनी चाहिए थी, इससे मामला उस सीमा तक नहीं बिगड़ता जितना कि बिगड़ता चला गया। संजय लीला भंसाली ने जिस हठ का परिचय दिया वह भी चकित कर देने वाला है। उन्होंने अपनी फिल्म को विवाद के बहुत बाद सेंसर बोर्ड के पास भेजा।
Column Charcha Plus, Dainik Sagar Dinkar, Dr (Miss) Sharad Singh

सिनेमा मनोरंजन का वह सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा यदि फिल्मकार चाहे तो सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक मूल्यों का शानदार ताना-बाना बुन सकता है। यहां शानदार होने का अर्थ करोड़ों के बजट से भव्य सेट लगाने से नहीं है, यहां शानदार होने का अर्थ है आम जनता के साथ सीधा संवाद स्थापित करना। अनेक ऐसी फिल्में बन चुकी हैं जिन्होंने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला है। ऐसा नहीं है कि उनमें विरोधात्मक बातें नहीं थीं लेकिन उस विरोध में भी सार्थकता थी। जैसे ‘जाने भी दो यारो’ ने जैसा राजनीतिक कटाक्ष किया वह अद्वितीय था। इतिहास की बात करें तो मेहताब की ‘झांसी की रानी’ (1953) अथवा हेमामालिनी अभिनीत ‘मीरा’ (1979) को सभी ने खुले दिल से स्वीकार किया। फिल्म ‘लेकिन’ और ‘रूदाली’ में उन दूषित व्यवस्थाओं को सामने रखा गया जिनके कारण राजस्थानी समाज में स्त्रियों को कष्ट सहने पड़ते थे। इन दोनों फिल्मों का किसी ने भी विरोध नहीं किया। क्योंकि भले ही यह समाज का काला पक्ष था लेकिन सच था। लेकिन ‘पद्मावती’ को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। राजस्थानी राजपूत समाज का कहना है कि रानी पद्मावती को जिस प्रकार सबके सामने घूमर नृत्य करते हुए दिखाया गया है, वह उचित नहीं है साथ ही अपमानजनक है। यदि मध्यकालीन राजपूत समाज की परम्पराओं पर ध्यान दिया जाए तो यह सच है कि उस समय स्त्रियों में पर्दाप्रथा का कठोरता से पालन किया जाता था। इस प्रकार के नियम राजपरिवार की स्त्रियों पर भी लागू होते थे। ऐसे वातावरण में किसी रानी के द्वारा अपनी ससुराल में नृत्य किया जाना भला कैसे संभव हो सकता है? जबकि पीढ़ियों बाद राजस्थान की ही कृष्ण भक्त राजपूत रानी मीराबाई ने जब कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए भजन गाए उस समय उन्हें ‘कुलनाशी’ कहा गया। मीरा ने स्वयं लिखा है- ‘‘लोग कहे मीरा बाबरी, सासु कहे कुलनासी री। विष रो प्यालो राणा भेज्या, पीवां मीरा हांसी री।।’’
विवाद को हवा देने वाले कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा यहां तक कहा जा रहा है कि रानी पद्मावती थी ही नहीं। इसे सिद्ध करने के लिए वे मलिक मोहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि जायसी ने अपने काव्य में काल्पनिक पात्र को पिरोया है। किन्तु इस पद्मावती के द्वारा जौहर किए जाने के संदर्भ अन्य कई ग्रंथों में मिलते हैं। जौहर के बारे में अमीर खुसरों ने अपने ग्रन्थ “तारीख-ए-अलाई’ में लिखा है कि जब अलाउद्दीन ने 1301 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण किया व दुर्ग को बचाने का विकल्प न रहा तो दुर्ग का राजा अपने वीर योद्धाओं के साथ किले का द्वार खोलकर शत्रुदल पर टूट पड़ा। इसके पूर्व ही वहां की वीरांगनाएं सामूहिक रुप से अग्नि में कूदकर स्वाहा हो गईं।
उल्लेखनीय है कि कर्नल जेम्स टॉड द्वारा राजस्थान का विशद इतिहास लिखा गया है जो दो खण्डों में प्रकाशित है। कर्नल टॉड ने ‘राजस्थान का इतिहास’ में लिखा है कि सन 1275 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर लक्ष्मण सिंह बैठा, राजा की अवस्था उस समय छोटी थी, इसलिए उसका संरक्षक राजा के चाचा भीमसिंह को बनाया गया। राजा भीमसिंह का विवाह उस समय की अद्वितीय सुंदरी रानी पद्मिनी के साथ हुआ था, रानी की सुंदरता का जब अलाउद्दीन खिलजी को पता चला तो उसने रानी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। अलाउद्दीन ने राजा के पास एक संदेश भेजा कि यदि रानी पद्मिनी को उसे दर्पण में भी दिखा देगा तो भी वह इतने से ही प्रसन्न और संतुष्ट होकर दिल्ली लौट जाएगा। राजा ने प्रजाहित में अलाउद्दीन की यह शर्त स्वीकार कर ली। रानी की एक झलक दर्पण में से अलाउद्दीन को दिखा दिया गया। रानी को दर्पण में देखने के पश्चात उसे प्राप्त करने की इच्छा से अलाउद्दीन व्याकुल हो उठा। राणा को शिविर में कैद करके अलाउद्दीन ने किले के भीतर सूचना भिजवाई कि यदि राणा को जीवित देखना चाहते हो तो पद्मिनी को मुझको सौंप दो। यह असंभव शर्त थी। स्थिति की गंभीरता देखते हुए रानी ने अपने दो सेनापतियों गोरा और बादल के साथ योजना बनाई कि शर्त मानने का दिखावा किया जाएगा और रानी तथा उसकी सहेलियों की पालकियों में सशस्त्र राजपूत सैनिक शत्रुओं के पास जाएंगे। अवसर मिलते ही सैनिक राजा को अपनी पालकी में बैठाकर वहां से चल देंगे और पालकियों के भीतर छिपे सैनिक और कहारों के रूप में चल रहे योद्धा मिलकर शत्रुओं के प्रतिरोध का सामना करेंगे। भेद खुलते ही भीषण युद्ध हुआ और जब यह स्पष्ट हो गया कि किला अब शत्रुओं के हाथों में जा सकता है तो रानी पद्मिनी ने अनेक महिलाओं सहित जौहर कर लिया। कर्नल टॉड ने लिखा है कि -‘‘शिविर और सिंह द्वार पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर अलाउद्दीन का साहस टूट गया। पद्मिनी को पाने के स्थान पर उसने जो कुछ पाया, उससे वह युद्ध को रोककर अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गया।’’ आज भी चित्तौड़ के किले में वह कुण्ड मौजूद है जिसमें रानी पद्मावती ने जौहर किया था। राजपूत आज भी उन्हें सती माता के रूप में याद करते हैं।
जब किसी व्यक्ति से गहन संवेदनाएं जुड़ी हों तो उसके जीवन पर फिल्म बनाते समय सावधानियां जरूरी हो जाती हैं। फिर चित्तौड़ राजघराने के वंशज आज भी मौजूद हैं जिनसे विचार-विमर्श करना तथा पहली फिल्म स्क्रीनिंग में उन्हें शामिल करना आवश्यक था। यदि ऐसा किया गया होता तो विवाद बनने के पहले ही समस्या सुलझ गई होती।
दुख तो इस बात की है कि जावेद अख़्तर जैसे वरिष्ठ साहित्यकार रानी पद्मावती के अस्तित्व पर ऐसे अजीबोगरीब वक्तव्य दे रहे हैं। लखनऊ में एक न्यूज चैनल से बातचीत में जावेद ने कहा कि राजपूत-रजवाड़े अंग्रेजों से तो कभी लड़े नहीं और अब सड़कों पर उतर रहे हैं। ये जो राणा लोग हैं, महाराजे हैं, राजे हैं राजस्थान के, 200 साल तक अंग्रेज के दरबार में खड़े रहे पगड़ियां बांधकर, तब उनकी राजपूती कहां थी। ये तो राजा ही इसीलिए हैं, क्योंकि इन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार की थी।’’
इतना ही नहीं फिल्म के विरोध को लेकर जावेद अख़्तर बोले कि ’देश में सेंसर बोर्ड को ही बंद कर देना चाहिए’। उनका यह भी कहना है कि ’फिल्मों को इतिहास मत समझिए और इतिहास को भी फिल्म से मत समझिए।’ इस तरह के संवाद यदि किसी और के होते तो यह मानना पड़ता कि सस्ती लोकप्रियता के लिए आग में घी डालने का काम किया जा रहा है लेकिन जावेद अख़्तर तो स्वयं ही एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं अतः उन्हें तो कम से कम संयम से काम लेना चाहिए। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय इतिहास में महाकाव्यों का भी बहुत महत्व है और वे भी अतिशयोक्तियों को अलग करते हुए साक्ष्य के रूप में स्वीकार किए जाते हैं। 
यूं भी हिन्दी सिनेमा जिस दौर से गुज़र रहा है वह भी कम चिन्तनीय नहीं है। हिन्दी सिनेमा में हॉलीवुड फिल्मों की नकल के साथ ही दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल और रीमेक का चलन बढ़ गया है। ऐसे में मौलिक फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को हठ की नीति अपनाने के बजाए सावधानी रखते हुए फिल्में बनानी चाहिए। आखिर वे इतनी मेहनत आमजनता के लिए ही तो करते हैं फिर जन भावनाओं की अवहेलना क्यूं? विवाद की आंच को महसूस करते हुए कई राज्य सरकारों ने अपने राज्य में ‘पद्मावती’ के प्रदर्शन पर समस्या का समाधान होने तक के लिए रोक लगा दी है जिनमें राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और पंजाब प्रमुख हैं। यही उचित क़दम है और इसी तरह के संयमित क़दम उठाते हुए बुद्धिजीवियों को भी भड़कावे वाले संवाद करने से परहेज करना चाहिए। यह शांतिव्यवस्था एवं पारस्परिक सौहार्द्य के लिए जरूरी है।  
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Saturday, November 18, 2017

‘दैनिक जागरण’ के सभी संस्करणों में ‘संगिनी’ के अंतर्गत् मेरे जीवन के कुछ खास अनुभव

About Dr (Miss) Sharad Singh in Dainik Jagaran, Sangini, All Editions, 18.11.2017
आज ‘दैनिक जागरण’ के सभी संस्करणों में ‘संगिनी’ के अंतर्गत् मेरे जीवन के कुछ खास अनुभव प्रकाशित हुए हैं। मैं धन्यवाद देती हूं ‘दैनिक जागरण’ को जिसने पाठकों के साथ मेरे जीवन के अनुभवों को साझा किया। मेरे साथ ही गायिका, अभिनेत्री एवं चित्रकार सुचित्रा कृष्णमूर्ति, लेखिका एवं प्राध्यापक अर्चना ओझा, फैशन डिज़ाइनर अपराजिता आरोड़ा तथा शेफ शिप्रा खन्ना ने भी अपने जीवन के अनुभवों को सामने रखा है। बहुत महत्वपूर्ण है यह फीचर। इसे अवश्य पढ़ें! आप इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं-
About Dr (Miss) Sharad Singh in Dainik Jagaran, Sangini, All Editions, 18.11.2017

Wednesday, November 15, 2017

चर्चा प्लस ... लापता हुए बच्चों का स्मरण - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh

एक और बाल दिवस गुज़र गया......

चर्चा प्लस  (सागर दिनकर, 15.11.2017 )


लापता हुए बच्चों का स्मरण
- डॉ. शरद सिंह
एक और बाल दिवस गुज़र गया। उत्सवधर्मिता से मनाया हमने इस बार के बालदिवस को भी। बच्चों के हित-अहित पर ढेर सारी चर्चाएं कीं, भाषण दिए और चिंताएं व्यक्त कीं। किन्तु गिनती के लोग होंगे जिन्होंने लापता हुए बच्चों का स्मरण किया होगा और सोचा होगा कि क्या कारण है जो वे आज तक नहीं मिल सके। ग़ैरजरूरी मुद्दों पर तो बहुत शोर मचाया जाता है लेकिन लापता हुए बच्चों के बारे में एक सन्नाटा पसरा रहता है। बच्चे हमारा भविष्य हैं और यदि बच्चे ही सुरक्षित न रहें तो हमारा भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा? जबकि लापता होने वाले बच्चों के आंकड़े सिर्फ़ चौंकाने वाले नहीं अपितु डराने वाले भी हैं। 
Charcha Plus Column in Sagar Dinkar by Dr Miss Sharad Singh
हमें बचपन में यही कह कर डराया जाता था कि घर से बाहर दूर मत जाओ नही ंतो बाबा पकड़ ले जाएगा, कहना मानो नहीं तो बाबा पकड़ ले जाएगा, जल्दी सो जाओ नही ंतो बाबा पकड़ ले जाएगा। हमारी मांएं जानती थीं कि ‘‘बच्चा उठाने वाले बाबा’’ मोहल्लों में घूमते रहते हैं। वे बच्चों को बहला-फुसला कर अगवा कर लेते हैं। वे अपने बच्चों को भी ऐसे कथित बाबाओं से सजग रहने को कहती थीं।  बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं की ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नज़र से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है। यह भूल कर कि लापता होने वाले बच्चों में कभी हमारे परिवार का कोई बच्चा भी हुआ तो? नही ंहम यह कल्पना नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमने अपने परिवार के दायरे को ही बहुत छोटा कर लिया है। हमारे परिवार में हमारे पड़ोसी, हमारे मुहल्ले, हमारे शहर या हमारे समाज का बच्चा शामिल नहीं रहता है। अतः हमें उसकी चिन्ता भी क्यों होने लगी? 
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।  2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर ज़िलों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को ज़बरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है।  एक और आंकड़ा चौंका देने वाला है कि मध्यप्रदेश राज्य का इन्दौर जिला बच्चों के लिए सबसे ज़्यादा असुरक्षित माना गया है जहां 2010 के बाद 4 हजार से अधिक बच्चे लापता हो चुके हैं। इनमें 60 प्रतिशत संख्या लड़कियों की है यानी देश में लापता होने वाले 3.85 लाख बच्चों में से 61 प्रतिशत लड़कियां हैं। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि भारत की हिंदी पट्टी की लड़कियों को गायब कर उन्हें खाड़ी देशों में विवाह के लिए बेच दिया जाता है। चूंकि भारतीय स्त्री के सौन्दर्य को लेकर विश्व स्तर पर चर्चा रहती है, लिहाजा ऐसी कुछ रिपोर्ट्स सामने आई हैं कि इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
विगत वर्ष एक सम्मेलन के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री ने मानव तस्करी को बड़ी चुनौती बताते हुए स्वीकार किया था कि यौन पर्यटन और बाल पोर्नोग्राफी समेत अन्य मुद््दे बच्चों के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर उभरे हैं। बच्चों के खिलाफ हिंसा समाप्त करने के लिए दक्षिण एशियाई पहल की चतुर्थ मंत्रीस्तरीय बैठक को संबोधित करते हुए गृहमंत्री ने कहा कि बच्चों की सुरक्षा सबकी जिम्मेदारी है। इसलिए जितने भी संभव पक्ष हैं- जैसे माता-पिता, शिक्षक, बच्चे और समुदाय आदि उन सबको मिल कर काम करना चाहिए। मानव तस्करी हम सब के लिए एक अन्य बड़ी चुनौती है।
बाल मामलों के विशेषज्ञ सोहा मोइत्रा के अनुसार बच्चे के लापता होने के बाद पहले कुछ घण्टे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर बच्चों को राज्य की सीमाएं पार करके जल्द से जल्द तस्करों के द्वारा पड़ोसी राज्यों में भेज दिया जाता है। इसके बाद अधिकार क्षेत्र के मुद्दों के चलते बच्चों को खोजने में और देरी होती है। अप्रभावी ट्रैकिंग प्रणाली और अपर्याप्त जानकारी के चलते इन बच्चों के वापस घर लौटने की सम्भावनाएं न्यूनतम हो जाती हैं। दूसरी ओर सरकारी विभागों, बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग जैसी संस्थाओं और पुलिस के बीच तालमेल बच्चों के खिलाफ अपराध को सीमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दुर्भाग्य से हमारी प्रणाली में इसी तरह के तालमेल का अभाव है, जो हमारे बच्चों के कल्याण के लिए घातक साबित हो रहा है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि नीतियों, योजनाओं और बजट आवंटन की दृष्टि से हमारे बच्चों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि बच्चों की सुरक्षा को समाज के सभी हितधारकों के लिए प्राथमिक एजेण्डा बनाया जा सके। 
सन् 2012 में नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने अपनी संस्था ‘‘बचपन बचाओ आंदोलन’’ की ओर से लापता बच्चों के बारे में उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी। इसके जवाब में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों को खोए बच्चों के बारे में समय-समय पर सूचना देने का निर्देश दिया। इसी कड़ी में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भी एक वेबसाइट बनाई गई। इस वेबसाइट पर हर राज्य में लापता बच्चों की जानकारी रखी जाती है। फिर भी गुमशुदा बच्चों तक पहुंच नहीं बन पाती हैं। ‘‘बचपन बचाओ आंदोलन’’ की बात मानें, तो लापता बच्चों की दी गई संख्या से 10 गुना ज्यादा बच्चे लापता हैं। दरअसल, मानव तस्करी के जाल में फंस चुके बच्चों की गिनती न तो लापता बच्चों में होती है और न ही उनका कोई आधिकारिक दस्तावेज होता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार मानव तस्करी के पीछे अनेक कारण होते हैं। बलात् विवाह, बाल श्रम, घरेलू नौकर और लैंगिक शोषण इसके पीछे मुख्य कारण हैं। मार्च 2016 में लोकसभा में दिए गए एक प्रश्न के उत्तर के अनुसार 2014-15 में बड़ी संख्या में अवयस्क लड़कियों को मुक्त कराया गया। लेकिन गुम रह जाने वालों के आंकड़े इनसे कहीं बहुत अधिक हैं। हाईकोर्ट ने मध्य प्रदेश के गुम बच्चों की तलाश के लिए सिर्फ पुलिस के भरोसे बैठने के बजाय राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव के नेतृत्व में कमेटी बनाने तथा इसमें समाज के सभी वर्ग को शामिल करने का निर्देश दिया है।
गायब हुए नाबालिग बच्चों की तलाश के लिए प्रस्तुत जनहित याचिका में के तारतम्य में अदालत ने अपने निर्देश में कहा कि गायब बच्चों की तलाश के लिए सिर्फ पुलिस के भरोसे नहीं रहा जा सकता है। इसके लिए राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव के नेतृत्व में कमेटी बनाने, कमेटी में वकील, समाज के अन्य वर्ग को शामिल कर तलाश करने का निर्देश दिया। इसके अलावा ऐसे बच्चे जिन्हें लेने के लिए उनके अभिभावक नहीं आ रहे हैं उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने का कहा। सच है, बच्चे सिर्फ़ पुलिस, कानून या शासन के ही नही ंहम सब के दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। हमें खुद के भीतर ललक जगानी होगी अपने लापता भविष्य को ढूंढने की और याद करते रहना होगा अपने खोए हुए बच्चों को।
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Wednesday, November 8, 2017

चर्चा प्लस ... मरती संवेदनाओं पर ठहाके लगाती अव्यवस्थाएं - डॉ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम ' चर्चा प्लस ' आज 'सागर दिनकर' में
(08.11.2017) ...
मरती संवेदनाओं पर ठहाके लगाती अव्यवस्थाएं
 - डॉ. शरद सिंह     
                                                                 
मां पुलिस में पिता पुलिस में फिर भी बेटी की अस्मत तार-तार होने पर रिपोर्ट लिखने के लिए पूरे परिवार को पुलिस के ही चक्कर काटने पड़ें। पीड़िता को एक महिला पुलिसकर्मी के माखौल का निशाना बनना पड़े। दूसरी ओर समाज पंचायत द्वारा पति से अलग रहने की अनुमति प्राप्त पत्नी को सरे बाज़ार पीटते हुए उसका जुलूस निकाला जाए और लोग सिर्फ़ मोबाईल से वीडियो बनाते रहें। लोगों का इस तरह असंवेदनशील होना न केवल धिक्कार योग्य है बल्कि ये घटनाएं बताती है कि संवेदनाएं किस तरह मरती जा रही हैं। क्या ऐसे वातावरण में कोई भी सभ्य संस्कृति लम्बे समय तक ज़िन्दा रह सकेगी? 
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar

हमें गर्व रहा है अपनी संस्कृति पर। हमने दुनिया के सामने अपनी सभ्यता और सच्चरित्रता के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लेकिन आज यदि दुनिया हम पर हंस रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्यों कि हम उस सीमा पर जा पहुंचे हैं जहां व्यक्ति अपनी ही दृष्टि में गिरने लगता है फिर भी स्वयं को सम्हालना नहीं चाहता है ओर ढीठ की तरह अपनी महानता का ढिंढोरा पीटता रहता है। भारतीय संस्कृति स्त्रियों की प्रतिष्ठा एवं सम्मान की संस्कृति रही है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि स्त्री की प्रतिष्ठा, सम्मान और अस्मत तीनों की असुरक्षित हैं और ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है। देश हो या प्रदेश कहीं भी अकेली स्त्री स्वयं को सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। वह स्त्री चाहे जींस-टॉप पहनने वाली शहरी हो या माथे पर घूंघट डाल कर सोलह हाथ की साड़ी पहनने वाली निपट देहाती हो। वह चाहे दो-चार साल की बच्ची हो या नब्बे साल की वृद्धा। जब किसी भी जगह की और किसी भी आयु की स्त्री सुरक्षित न हो तो उस व्यवस्था को सामाजिक अराजकता के अतिरिक्त और भला क्या कहा जा सकता है? और इस सामाजिक अराजकता के बढ़ने में कानून व्यवस्था की शिथिलता भी कम जिम्मेदार नहीं है।
31 अक्टूबर 2017, स्थान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के हबीबगंज स्टेशन के निकट, एक छात्रा जो अपना भविष्य संवारने के लिए कोचिंग में शिक्षा ग्रहण कर के घर वापस लौट रही थी और एक ही झटके में उसका भविष्य ही नहीं वर्तमान भी गहरी खाई में धकेल दिया गया जिसके बारे में उसने जो लिखित बयान पुलिस को दिया वह उसी के शब्दों में इस प्रकार था-‘’मैं कक्षा 12 वीं पास कर चुकी हूं, अभी भोपाल में यूपीएससी की कोचिंग कर रही हूं। 31 अक्टूबर को अपनी कोचिंग से शाम सात बजे एमपी नगर से रेल लाइन होते हुए हबीबगंज स्टेशन जा रही थी, तभी आउटर सिंग्नल से चालीस-पचास मीटर हबीबगंज स्टेशन की तरफ आई तो एक लड़का जो पटरियों के पास ही खड़ा था, मैं पटरियों की बीच से चलते हुए आगे बढ़ने लगी तो वह पटरियों के बीच में मेरे सामने खड़ा हो गया, मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने अपना हाथ छुड़ाने के लिए उसे एक लात मारी तो वह मेरे साथ पटरियों के बीच में ही जबरदस्ती करने लगा। वह लड़का छोटे कद का था और उसकी छोटी दाढ़ी थी तभी उसने अमर घंटू आवाज देकर अपने एक दोस्त को बुलाया। उसके बाद उन्होंने मुझे पटरी के बगल में नाले की तरफ खींच लिया तो नाले में जहां कचरा पड़ा था वहां पर मुझे उन दोनों लड़कों ने नाले के नीचे गिरा दिया। वो मुझे घसीट कर पुलिया के अंदर ले गए फिर मैंने उन्हें पत्थर उठा कर मारा तो एक लड़का जो थोड़ा लंबा सा था उसने मुझे पीठ पर पत्थर से बुरी तरह से मारा उसके बाद उन लोगों ने मेरे दोनों हाथ बांधे और दोनों ने बारी-बारी से बुरा काम किया। वो पुलिया की दूसरी तरफ लेकर गए जहां उनके साथ वाले दो व्यक्ति थे। उन लोगों ने भी मेरे साथ गंदा काम किया। उन्होंने मेरा मोबाइल फोन और मेरे कानों की सोने की बाली और मेरी घड़ी भी ले ली। फिर वे मुझे छोड़कर चले गए। उसके बाद मैं पास में आरपीएफ थाना हबीबगंज गई और वहां से अपने पिताजी को फोन किया।’’
लड़की बहादुर थी। वह इस जघन्य हादसे से टूटी नहीं और साहस कर के सीधे पुलिस थाने पहुंची। उसके मन में यह विश्वास था कि वह स्वयं भी पुलिस परिवार की बेटी है, कम से कम उसे तो पुलिस का सहारा मिलेगा। मगर उसका यह विचार एक भ्रम साबित हुआ। जिसे रिपोर्ट लिखना चाहिए था उस महिला पुलिस कर्मी ने पीड़िता की पीड़ा का मज़ाक उड़ाया। उस पर दुखद तथ्य यह कि वह कोई छोटे पद की कर्मचारी नहीं अपितु 2009 बैच की आईपीएस है। गैंगरेप की घटना की रिपोर्ट न लिखने पर जब मीडिया ने इस महिला अधिकारी से प्रश्न किए तो उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा कि इस बारे में पूछे गए सवालों से मेरा सिरदर्द करने लगा है।
मुख्यमंत्री को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा। चंद तबादले किए गए। इसके बाद आ गया एक अजीब सा आदेश कि कोचिंग सेंटर्स रात्रि आठ बजे के बाद बंद कर दिए जाएं। कोंचिंग सेंटर संचालकों ने विरोध करते हुए तर्क दिया कि यदि बस स्टेंड आते-जाते समय कोई घटना घट जाए तो क्या बस स्टेंड बंद कर दिए जाएंगे? इसके बाद शाम तक आदेश तनिक संशोधित हो कर इस रूप में सामने आया कि यदि कोचिंग सेंटर में रात्रि आठ बजे के बाद भी क्लासेस लगती हैं तो सेंटर्स की जिम्मेदारी होती छात्राओं को घर पहुंचाने की। यानी कानून व्यवस्था अभी भी आश्वस्त नहीं कर पा रही है कि ‘‘बेटियों तुम निर्भय हो कर घर से निकलो, हमारे रहते तुम्हें कोई छू भी नहीं सकता है।’’
भोपाल की इस घटना के बाद एक और घटना वीडियो के रूप में सामने आई। यह बलात्कार की घटना नहीं थी लेकिन स्त्री के सार्वजनिक अपमान की ऐसी घटना थी जिसमें सामाजिक असंवेदनशीलता अपनी सारी सीमाओं को लांघती हुई दिखाई दी। घटना झाबुआ के खेड़ी गांव की है। जो वीडियो वायरल हुआ उसमें एक युवक अपनी पत्नी के कंधे पर चढ़ कर उसे सरेआम पीटता जा रहा है। पत्नी के चेहरे पर घाघट डला हुआ है जिससे वह ठीक से देख भी नहीं पा रही है। बेरहमी से पड़ती मार और पति के बोझ से वह रो रही है, चींख रही है। भीड़ उसकी दशा देख-देख कर मजे ले रही है और कुछ लोग अपने-अपने मोबाईल से उस मार-पीट की वीडियो बना रहे हैं। मीडिया के सामने आई जानकारी के अनुसार खेड़ी गांव की 32 वर्षीया पत्नी के साथ उसका पति मारपीट करता था। मारपीट से तंग आ कर पत्नी पति और बच्चों को छोड़ कर चली गई। पति को संदेह था कि उसकी पत्नी का किसी से अनैतिक संबंध है। कहा जाता है कि समाज-पंचायत ने पति के पक्ष को समझौता रकम दिलाने के बाद पत्नी को उसके परिजनों को सौंप दिया था। लेकिन फिर उसके ससुराल पक्ष के लोग उसे समझा-बुझा कर अपने गांव ले आए और गांव में पहुंचते ही पंचायत भवन के पास पत्नी के कंधों पर पति को बैठा दिया। इसके बाद लगभग 500 मीटर दूर घर तक मारपीट करते हुए ले गए। उस दौरान पूरा गांव-समाज इस तमाशे का मजा लेता रहा। यह भूल कर कि इस तरह के चलन से कभी उनके घर की बेटियों को भी गुज़रना पड़ सकता है।
दो भिन्न घटनाएं, एक ही प्रदेश में, लगभग एक ही समय। यूं तो दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं है। एक छात्रा और एक विवाहिता। एक की पीड़ा को उसके गांव-समाज ने तमाशे की तरह देखा जबकि छात्रा के समर्थन में समाज भर्त्सना की बल्कि कैंडलमार्च भी निकाला। मगर हुईं तो दोनों प्रताड़ना की शिकार। एक शहर की, एक गांव की लेकिन दोनों ने दुर्दम्य असंवेदनशीलता को झेला और दोनों का भविष्य अंधकारमय है यदि आगे भी उन्हें समाज का सहारा नहीं मिला तो। एक का अपराध यह था कि वह पढ़ाई करके अपना भविष्य संवारने में जुटी हुई थी और दूसरी का गुनाह यह था कि उसने अपने पति के मार-पीट से त्रस्त हो कर पलायन का रास्ता अपनाया और अपने ढंग से जीने का एक प्रयास किया। उसके पति और ससुरालवालों की क्रूर मानसिकता का साक्ष्य तो वह वीडियो ही है जो वायरल हो कर जन-जन तक पहुंच चुका है। वहीं भोपाल की उस छात्रा के प्रति पुलिस का कर्त्तव्यहीन रवैया सभी बेटियों को डरा देने वाला है। जब पुलिसवालों की बेटी को ही पुलिस से तत्काल सहयोग न मिले तो सामान्य बेटियों को सहयोग कैसे मिलेगा? प्रश्न यह भी है कि यदि ऐसे संवेदनशील मामले में मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप किए बिना मामले की गंभीरता न समझी जाए तो क्या प्रत्येक पीड़िता को थाने के बजाए मुख्यमंत्री के दरवाज़े पर जा कर गुहार लगानी चाहिए?
ज़रा सोचिए, मां पुलिस में पिता पुलिस में फिर भी बेटी की अस्मत तार-तार होने पर रिपोर्ट लिखने के लिए पूरे परिवार को पुलिस के ही चक्कर काटने पड़ें। पीड़िता को एक महिला पुलिसकर्मी के माखौल का निशाना बनना पड़े। दूसरी ओर समाज पंचायत द्वारा पति से अलग रहने की अनुमति प्राप्त पत्नी को सरे बाज़ार पीटते हुए उसका जुलूस निकाला जाए और लोग सिर्फ़ मोबाईल से वीडियो बनाते रहें। लोगों का इस तरह असंवेदनशील होना न केवल धिक्कार योग्य है बल्कि ये घटनाएं बताती है कि संवेदनाएं किस तरह मरती जा रही हैं। वस्तुतः यह तो मरती संवेदनाओं पर अव्यवस्थाओं के ठहाके लगाने जैसा दृश्य है।
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Wednesday, November 1, 2017

चर्चा प्लस ... मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस पर विशेष : स्थापना का उत्सव पर्व - डॉ. शरद सिंह

Dr Miss Sharad Singh

मेरा कॉलम - चर्चा प्लस, सागर दिनकर 01.11.2017





मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस पर विशेष :
स्थापना का उत्सव पर्व
- डॉ. शरद सिंह                                                                       
1 नवम्बर 1956, मध्य प्रदेश का स्थापना दिवस। यह प्रदेश जो देश का हृदय कहलाता है, अब तक विकास के कई पड़ाव तय कर चुका है और निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। उद्योग, शिक्षा और कृषि की नवीन प्रविधियों के मृद्दे पर जो कभी सबसे उपेक्षित, सबसे पिछड़ा हुआ था, आज उन्नति का नया इतिहास रच रहा है। उन्नत से उन्नत क्षेत्र में कमियां होती हैं किन्तु उन्हें संभावनाओं के पाले में रखते हुए प्रदेश के स्थापना पर्व का उत्सव मनाया ही जाना चाहिए। यह उत्सव और इससे उत्पन्न होने वाली प्रसन्नता एवं गर्व को अनुभव करना प्रत्येक प्रदेशवासी का अधिकार है। इसीलिए तो मध्य प्रदेश का प्रत्येक नागरिक हर साल 1 नवंबर को यही कहता है-‘नमामि मध्यप्रदेश’। 
Column of Dr Miss Sharad Singh - Charcha Plus in Sagar Dinkar News Paper, Sagar, Madhya Pradesh, Indi

1 नवम्बर 1956 को मध्यप्रदेश के रूप में स्थापित यह सुरम्य भू-भाग देश का हृदय-प्रदेश है। प्रति वर्ष 1 नवम्बर को मध्यप्रदेश के सभी निवासी उत्सव मानते हैं अपने प्रदेश के स्थापना दिवस के रूप में इस वर्ष भी यह उत्सव पर्व है और तीन दिवसीय है। मनुष्य होने के नाते हम उत्सव जीवी हैं। हम अपनी प्रसन्नता और उत्साह को उत्सव के रूप में ही तो व्यक्त करते हैं, इसे हम अपने मनुष्यत्व का प्राकृतिक गुण भी कह सकते हैं। प्रत्येक पर्व समाज के उत्कृष्ट रूप को प्रतिबिम्बित करता है क्यों कि ऐसे अवसरों पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से खुशियां बांटता है और अपनत्व की नई सीढ़ियां चढ़ता है। 1947 में भारत की आजादी के बाद, 26 जनवरी, 1950 के दिन भारतीय गणराज्य के गठन के साथ सैकड़ों रियासतों का संघ में विलय किया गया था। राज्यों के पुनर्गठन के साथ सीमाओं को तर्कसंगत बनाया गया। 1950 में पूर्व ब्रिटिश केंद्रीय प्रांत और बरार, मकाराई के राजसी राज्य और छत्तीसगढ़ मिलाकर मध्यप्रदेश का निर्माण हुआ तथा नागपुर को राजधानी बनाया गया। सेंट्रल इंडिया एजेंसी द्वारा मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल जैसे नए राज्यों का गठन किया गया। राज्यों के पुनर्गठन के परिणाम स्वरूप 1956 में, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल राज्यों को मध्यप्रदेश में विलीन कर दिया गया, तत्कालीन सी.पी. और बरार के कुछ जिलों को महाराष्ट्र में स्थानांतरित कर दिया गया तथा राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में मामूली समायोजन किए गए। फिर भोपाल राज्य की नई राजधानी बन गया।  नवंबर 2000 में, राज्य का दक्षिण-पूर्वी हिस्सा विभाजित कर छत्तीसगढ़ का नया राज्य बना। इस प्रकार, वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य अस्तित्व में आया।
मध्य प्रदेश का समृद्ध इतिहास मौर्य राजवंश के काल तक रहा है। लेकिन उससे भी पहले पाषाण काल के लोगों द्वारा प्रागैतिहासिक काल में भीमबेटका, आबचंद की गुफाओं और रायसेन के शैलाश्रयों को चित्रित कर के अपने जीवन के अनुभवों को संजोया। गुप्तकाल में राजधानी के रूप में उज्जैन ने अपने समय में गौरव शिखर को छुआ और उसकी ख्याति पूरी दुनिया में फैली। चंदेलवंश ने खजुराहो में जो मंदिर शिल्प की विरासत छोड़ी वह आज भी बेजोड़ है। प्रदेश के ऊंचे शैल-शिखर विन्ध्य, सतपुड़ा, मैकल की पर्वतीय श्रृंखलाओं की हरियाली और उनमें कहे-सुने जाते पौराणिक आख्यान इसे समृद्ध बनाते हैं। नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा, ताप्ती, शिप्रा, काली सिंध आदि नदियों के उद्गम और मिलन स्थल अनेकानेक कथाएं कहते हैं।
मध्य प्रदेश अपने आप में अनूठा है। यहां की संस्कृति में विविधता है जो सतरंगी आभा का सृजन करती है। अन्य भाषायी प्रदेशों की भांति मध्य प्रदेश की कोई एक भाषित संस्कृति नहीं है, यहां बहुभाषिक संस्कृतियां सदियों से साझातौर पर फल-फूल रही हैं। वस्तुतः मध्य प्रदेश विभिन्न लोक और जनजातीय संस्कृतियों का ऐसा गुलदस्ता है जिसमें विभिन्न रंगों और सुगधों के फूल महकते रहते हैं। यहां कोई एक लोक संस्कृति नहीं है अपितु अनेकता में एकता का सजीव उदाहरण प्रस्तुत करती एकाधिक लोक संस्कृतियां हैं। यहां पांच लोक संस्कृतियां एक साथ मौजूद हैं जो निमाड़, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड और ग्वालियर और धार-झाबुआ, मंडला-बालाघाट, छिन्दवाड़ा, होशंगाबाद्, खण्डवा-बुरहानपुर, बैतूल, रीवा-सीधी आदि क्षेत्रों में अपनी परम्पराओं को सहेजे हुए हैं। लोक गायन की शैलियों में फाग, भर्तहरि, संजा गीत, भोपा, कालबेलिया, भांड, वसदेवा, विदेसिया, कलगी तुर्रा, निर्गुनिया, आल्हा और पंडवानी गायन आदि हैं। मध्य प्रदेश का शास्त्रीय और लोक संगीत के क्षेत्र में विशेष अवदान है। विख्यात हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत घरानों में मध्य प्रदेश के मैहर घराने, ग्वालियर घराने और सेनिया घराने शामिल हैं। वर्तमान मध्य प्रदेश के ग्वालियर के निकट जन्म हुआ था तानसेन और बैजू बावरा का। आधुनिक में प्रसिद्ध ध्रुपद कलाकार अमीनुद्दीन डागर इंदौर में, गुंदेचा ब्रदर्स और उदय भवालकर उज्जैन में जन्मे थे। पार्श्व गायक किशोर कुमार का खंडवा में जन्म हुआ था तो स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का जन्मस्थान इंदौर हैं।
प्रदेश के लोक नृत्य में बधाई, राई, सैरा, जवारा, बरेदी, सैला, मौनी, ढिमरियाई, कनारा, भगोरिया, दशेरा, ददरिया, दुलदुल घोड़ी, लहगी घोड़ी, फेफरिया मांडल्या, डंडा, एडीए-खड़ा, दादेल, मटकी, बिरहा, अहिराई, परधौनी, विल्मा, दादर और कलस ने देश-विदेश में ख्याति अर्जित की है। जहां तक शास्त्रीय नृत्यों का प्रश्न है तो कथक नृत्य ने मध्यप्रदेश में गरिमापूर्ण पहचान बनाई है। खजुराहो-उत्सव में प्रदर्शित शास्त्रीय नृत्य दुनिया भर के नृत्यकारों के आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
मध्यप्रदेश देश का एकमात्र हीरा उत्पादक राज्य है। यहाँ 6000 मिलियन टन लाईम स्टोन रिजर्व है। देश का 8 प्रतिशत कोयला है। कोल बेड मीथेन 144 बिलियन क्यूबिक मीटर उपलब्ध है। देश के 18 एग्रो क्लाईमेटिक जोन में से 11 एग्रो क्लाइमेटिक जोन मध्यप्रदेश में हैं। देश में मध्यप्रदेश का सोयाबीन, दालें, चना एवं लहसुन उत्पादन में प्रथम स्थान है। गेंहू, मिर्च, रामतिल एवं धनिया उत्पादन में प्रदेश प्रथम पांच में है। केला, संतरा, आम एवं नीबू उत्पादन में प्रदेश अग्रणी है। विपरीत स्थितियों में भी यहां का किसान हार नहीं मानता है। मध्य प्रदेश अपने टेक्सटाईल उत्पादों के लिए मशहूर है। महेश्वरी और चंदेरी साड़ियों की समृद्ध परंपरा आज भी मौजूद है। भोपाल का ज़रदोजी का काम भी बहुत मशहूर है।
मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त पर्यटन केन्द्र हैं। ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक की दृष्टि से खजुराहो, सांची, माण्डू, ग्वालियर, ओरछा एवं भीमबैठका आदि। प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से पचमढ़ी, भेड़ाघाट और अमरकंटक आदि। धार्मिक दृष्टि से उज्जैन, अमरकण्टक, ओंकरेश्वर, महेश्वर, चित्रकूट, मैहर, बुरहानपुर आदि। इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे स्थान हैं जो स्थानीय पर्यटन के रूप में विकसित हैं।
लाड़ली लक्ष्मी, रुक जाना नहीं, मेधावी लड़कियों को लैपटॉप और स्मार्टफोन, मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश विधवा पुनर्विवाह योजना, प्रतिभा किरण योजना, मध्यप्रदेश लोकसेवा गारंटी अधिनियम जैसी योजनाएं प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए क्रियान्वित हैं। रुक जाना नहीं, लाड़ली लक्ष्मी, मेधावी लड़कियों को लैपटॉप और स्मार्टफोन, मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश विधवा पुनर्विवाह योजना, प्रतिभा किरण योजना, मध्यप्रदेश लोकसेवा गारंटी अधिनियम जैसी योजनाएं प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए क्रियान्वित हैं। प्रदेश सरकार की योजनाएं उद्योगों के विकास को ध्यान में रख कर बनाई जाती रही हैं। 
राज्य शासन द्वारा प्रदेश के तेज गति से औद्योगिक विकास तथा यहां पूरे विश्व से निवेश सुलभ करवाने के लिये प्रति दो वर्ष में किया जाने वाला वैश्विक निवेशक सम्मेलनों से उत्तरोत्तर आर्थिक सफलता की उम्मींद की जा सकती है। इंदौर के ब्रिलियंट कन्वेंशन सेंटर में 21 से 23 अक्टूबर 2016 तक आयोजित पांचवां वैश्विक निवेशक सम्मेलन अत्यधिक सफल रहा था। इसमें उद्योगपतियों एवं निवेशकों द्वारा प्रदेश में 2,630 निवेश के इरादे (इन्टेन्शन टू इन्वेस्ट) व्यक्त किये गये थे, जिनकी कुल कीमत 5 लाख 62 हजार 847 करोड़ थी। निवेशकों द्वारा जो घोषणाएं की गई थीं, वे थीं- प्रदेश की मंडला इकाई में न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन 25 हजार करोड़ का निवेश करेगा, बिड़ला समूह विभिन्न क्षेत्रों में 20 हजार करोड़ का निवेश करेगा, इंडियन ऑइल 4760 करोड़ के निवेश करेगा, एस्सार समूह गैस शोधन क्षेत्र में प्रदेश में 4500 करोड़ के नये निवेश करेगा, सिन्टेक्स समूह प्रदेश में 2000 करोड़ के निवेश करेगा, पी एण्ड जी इंडिया 1100 करोड़ के निवेश करेगा, ल्यूपिन इंडिया 700 करोड़ का निवेश करेगा, जर्मनी का हैटिक समूह 400 करोड़ का निवेश करेगा।
विगत अक्टूबर 2017 में प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने अमेरिका के प्रवास को अनिवासी भारतीयों के प्रदेश में निवेश पर केन्द्रित रखा। भारतीय समुदाय से चर्चा करते हुए उन्होंने राज्य में निवेश की अपार संभावनाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। यह बात और है कि वे अति उत्साह में प्रदेश की सड़कों को वाशिंगटन की सड़कों से कई गुना अच्छी कह बैठे। लेकिन निवेश कराने के प्रति उनकी लगन और इच्छा को कम कर के नहीं आंका जा सकता है। इस बात को समझना होगा कि सरकारें नागरिकों के दम पर होती हैं नागरिक सरकारों के दम पर नहीं। हमें सरकार को कोसना भर नहीं बल्कि सरकार को अपनी समस्याएं बताना, जताना और मनवाना आना चाहिए। साथ ही, सरकारी योजनाओं का भरपूर लाभ उठाना भी आना चाहिए।
स्थापना के उत्सव पर्व को मनाते हुए प्रदेश का प्रत्येक नागरिक इस आशा पर तो विचार कर ही सकता है कि भविष्य में उसका यह मध्य प्रदेश स्वच्छता में अग्रणी होगा, उर्जा उत्पादन की मिसालें कायम कर सकेगा, स्त्री एवं बालिका सुरक्षा के क्षेत्र में प्रतिमान गढ़ेगा। सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्नता के नए शिखरों को छुएगा क्यों की यहां ईको, पुरातात्विक, कला और चिकित्सकीय पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। बस, आवश्यकता है तो राजनीतिक और नागरिक के रूप में अपनी उन आदतों को सुधारने की जिनके कारण प्रदेश पूर्ण सफलता का स्वाद नहीं चख पाता है। इस उत्सव पर्व में अपनी बुरी आदतों को सुधारने का संकल्प तो लिया ही जा सकता है।

Happy Madhya Pradesh Foundation Day !

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