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Saturday, September 13, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | जो हिन्दी बचहे सो बुंदेली सोई बचहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

(पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
टॉपिक एक्सपर्ट
जो हिन्दी बचहे सो बुंदेली सोई बचहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     कहनात आए के जो मताई पे संकट होए तो मौसी, बुआ, फुआ सबई पे संकट घिरन लगत हैं। काए से के मताई तो मताई होत आए चाए जैसी दसा में होए। सो, जो मताई खों संकट से ने बचा पाए तो मौसी, बुआ, फुआ खों कां से बचाहे? आप ओरें सोच रये हुइयो के कल हिन्दी को दिवस आए औ  जे आज रिस्तेदारी गिनान लगीं। अब का करो जाए, बातई ऐसी आए। का है के हिन्दी अपनी मताई घांई ठैरी औ बुंदेली सग्गी मौसी। रई अंग्रेजी की, तो बा रई पाउनी, जो रै गई किराएदार बन के। मनो कछू किराएदार ऐसे होत आएं के रैबे आए कछू समै की कै के औ फेर मकान मालिक खों खदेड़ के मकान खों कब्जान लगत हैं। ऐसई अंग्रेजी ने हिन्दी के संगे करो आए। पैले जे अंग्रेजी अंग्रेज ब्यापारियन के संगे पाऊनी बनके आई फेर किराएदार घांई इतेई टिक गई। फेर ऊने ऐसो महौल बनाओ के जो अंग्रेजी जानहे, ऊको लाट साब घांई नौकरी मिलहे औ जो ने जानहे ऊको चपड़ासी से ऊंचो कछू ने मिलहे। जेई ने हिन्दी खों खदेड़ दऔ। बाकी 2020 वारी नई शिक्षा नीति ने तीन भासा को फार्मूला दे के कछू अच्छो करो है।
    बाकी होता का है के अपन ओरें खुदई अंग्रेजी से चिमटे रैत आएं। चाए कर्जा काए ने लेने परै मनो मोड़ा-मोड़ी खों पढ़ाहें सो अंग्रेजी स्कूल में। मनो उते ने पढ़ाओ तो जनम सफल ने हुइए। सो जे खयाल अब छोड़ो चाइए। काए से के हिन्दी पढ़े से बी अच्छी नौकरी मिलत है। औ अपन खों तो जे सोई ध्यान राखने के जो हिन्दी बचहे तो बुंदेली बी बची रैहे ने तो बुंदेली को पूछबे वारे ने बचहें। सो, खाली हिन्दी के मईना में नोंई, पूरे साल भरे हिन्दी पे भरोसा राखो, बुंदेली खों संगे राखो।
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Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, September 12, 2025

शून्यकाल | वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल

वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
       संयुक्त परिवार की व्यवस्था बहुत पीछे छूट जा रही है। एकल परिवार में संवेदनाओं एवं समर्पण की कमी साफ दिखाई देने लगी है। यहां तक कि अपने वृद्ध माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशे जाते हैं। भले ही वे वृद्धाश्रम फाइव स्टार सुविधाओं वाले क्यों न हों, किंतु रहते तो अपनों से दूर हैं। जहां अपने जैसे होते हैं किंतु अपने नहीं होते। अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम के हवाले करने वाली पीढ़ी भगीरथ के पितृमोक्ष कर्म को क्या कभी समझ सकेगी?
 किसी कठिन कार्य को अथक प्रयास करके पूरा करना “भगीरथ प्रयास” कहलाता है। कौन थे भगीरथ? वस्तुतः भगीरथ अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। वे अंशुमान के पौत्र और राजा दिलीप के पुत्र थे। वंशवृक्ष के क्रमानुसार देखें तो सगर के बाद उनके पुत्र अंशुमान राजा हुए, अंशुमान के बाद दिलीप और राजा दिलीप के बाद भगीरथ। 
    राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और इस दौरान उनके घोड़े को ऋषि कपिल ने अपने आश्रम में बांध लिया। सगर के पुत्र अश्व को ढूंढते हुए ऋषि कपिल के आश्रम में पहुंचे और उन लोगों ने आश्रम को अपवित्र कर दिया। तब क्रोधित होकर ऋषि कपिल ने उन सभी को भस्म कर दिया, जिससे उनकी आत्माओं को मोक्ष नहीं मिला और वे भटकने लगीं।
   राजा सगर ने अपने पुत्रों की आत्माओं को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह सफल नहीं हुए। राजा सगर के बाद अंशुमान ने भी अपने पिता तथा संबंधियों को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह भी असफल रहे। अंशुमान ने इस बात का पता किया की अपने संबंधियों की आत्माओं को किस तरह मोक्ष दिलाया जाए? ऋषियों ने उन्हें बताया की इतनी बड़ी संख्या में आत्माओं को मुक्ति दिलाने के लिए एक बड़ी प्रवाहित जल राशि की आवश्यकता होगी जो आकाश में स्थित गंगा के माध्यम से ही संभव है। किंतु गंगा को पृथ्वी पर कैसे लाया जाए यह जटिल प्रश्न था। इस जटिल प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए अंशुमान ने अपने पुत्र दिलीप को राज्य-भार सौंपा और स्वयं  तपस्या करने लगे। अंशुमान मैं तपस्या करते हुए अपने प्राण त्याग दिए किंतु उन्हें गंगा को पृथ्वी पर लाने का उपाय नहीं मिला। इसी प्रकार राजा दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने की चिंता करते हुए रोग ग्रस्त हो गए तथा उनका भी प्राणांत हो गया। तब राजा भगीरथ ने अपनी कठिन साधना और घोर तपस्या के बल से उन्होंने पहले ब्रह्मा को प्रसन्न किया और उनसे दो वर मांगे- पहला वर कि  गंगा जल चढ़ाकर वे अपने भस्मीभूत पितरों को स्वर्ग प्राप्त करवा सकें और दूसरा यह कि उनको कुल की सुरक्षा करने वाला पुत्र प्राप्त हो। क्योंकि भागीरथ उसे समय तक निःसंतान थे। ब्रह्मा ने उन्हें दोनों वर दिए।
     भगीरथ यह सोचकर प्रसन्न हुए कि अब वह अपने पूर्वजों को मोक्ष दिल सकेंगे किंतु उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि गंगा को धरती पर लाना आसान नहीं है। भागीरथ ने गंगा से निवेदन किया कि वे धरती पर उतरें और उनके पूर्वजों की भस्म को अपने जल में समाकर पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करें। गंगा ने भागीरथ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे आकाश से पृथ्वी पर उतरीं। किंतु गंगा का वेग इतना अधिक था की पृथ्वी की ऊपरी सतह गंगा के जल को संभाल नहीं सकी और गंगा अपनी जल राशि सहित धरती में समा गईं।
   प्रथम प्रयास असफल होने पर भगीरथ दुखी तो हुए किंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक बार फिर उन्होंने गंगा से प्रार्थना की कि वह पृथ्वी पर पधारें। भागीरथ के निवेदन पर गंगा ने कहा कि वे यदि फिर पृथ्वी पर आएंगी तो पहले की भांति धरती में समझ जाएंगी। अतः उनके बैग को कम करने के लिए कोई उपाय ढूंढें। भगीरथ ने एक बार फिर ब्रह्मा की तपस्या की। इस बार उन्होंने पर के अंगूठे पर खड़े होकर एक वर्ष तक तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने गंगा को रोकने का उपाय बताते हुए कहा कि उन्हें भगवान शिव से सहायता लेनी चाहिए वह अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके उन्हें धरती में सामने से रोक सकते हैं। भगीरथ ने इस बार भगवान शिव की तपस्या की और उनसे सहायता करने का वचन मांगा। भगवान शिव ने भगीरथ को आश्वासन दिया कि वह गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लेंगे ताकि वे धरती में ना सम सकें।
    भगीरथ ने एक बार फिर गंगा से प्रार्थना की कि वे शिव की जटाओं से होती हुईं पृथ्वी पर उतरें ताकि उनका वेग काम हो जाए। गंगा ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह आकाश से उतरकर शिव की जटाओं में जा पहुंचीं। किंतु वे शिव की जटाओं में इस तरह उलझ गई कि उन्हें जटाओं से बाहर निकलने का मार्ग नहीं मिला और वह धरती तक नहीं पहुंच सकीं।
      एक बार फिर असफल होने के बाद भगीरथ ने भगवान शिव की फिर तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा को अपनी जटाओं से निकलने का मार्ग देते हुए उन्हें बिंदुसर की ओर छोड़ा। तब गंगा सात धाराओं के रूप में प्रवाहित हुईं। पूर्व दिशा में ह्लादिनी, पावनी और नलिनी,पश्चिम में सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु के रूप में। सातवीं धारा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलीं और उस स्थान पर पहुंची जहां भगीरथ के पूर्वजों की भस्म बिखरी हुई थी। गंगा ने भस्म को अपनी जल राशि में स्वीकार किया इसके बाद राजा भगीरथ भी  गंगा में स्नान करके पवित्र हुए। 
     फिर गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर  समुद्र तक पहुंच गयीं। इस अथक प्रयास से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि —“हे भगीरथ, जब तक समुद्र रहेगा, तुम्हारे पितर देववत माने जायेंगे तथा गंगा तुम्हारी पुत्री कहलाकर भागीरथी नाम से विख्यात होगी। साथ ही वह तीन धाराओं में प्रवाहित होगी, इसलिए त्रिपथगा कहलायेगी।”
    महाभारत के अनुसार भगीरथ अंशुमान का पौत्र तथा दिलीप का पुत्र था। उसे जब विदित हुआ कि उसके पितरों को अर्थात सगर के साठ हज़ार पुत्रों को सदगति तब मिलेगी जब वे गंगाजल का स्पर्श प्राप्त कर लेंगे। तब भागीरथ ने हिमालय जाकर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से गंगा प्रसन्न गईं। किन्तु गंगा ने कहा कि वे तो सहर्ष पृथ्वी पर अवतरित हो जाएंगी, पर उनके पानी के वेग को शिव ही थाम सकते हैं, अन्य कोई नहीं। अत: भगीरथ ने पुन: तपस्या प्रारम्भ की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा का वेग थामने की स्वीकृति दे दी। गंगा भूतल पर अवतरित होने से पूर्व हिमालय में शिव की जटाओं पर उतरीं। फिर पृथ्वी पर अवतरित हुई तथा भगीरथ का अनुसरण करते हुए उस सूखे समुद्र तक पहुँचीं, जिसका जल अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। उस समुद्र को भरकर गंगा ने पाताल स्थित सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार किया। गंगा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का स्पर्श करने के कारण त्रिपथगा कहलायी। गंगा को भगीरथ ने अपनी पुत्री बना लिया। 

अपने पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष दिलाने के लिए भगीरथ ने तब तक प्रयास किया जब तक वे सफल नहीं हो गए। उनका अपने पूर्वजों के प्रति इसने और सम्मान का भाव था जिसके कारण वह निरंतर तपस्या करते रहे और उन्होंने अपने पूर्वजों की भटकती आत्मा को मोक्ष दिला कर ही अपने वंशज होने के कर्तव्य की पूर्णता का अनुभव किया।
      भगीरथ के प्रयासों को देखते हुए यह विचार करने की आवश्यकता है की जो पीढ़ी अपने जीवित माता-पिता के प्रति संवेदनहीन होती जा रही है वह अपने पूर्वजों के प्रति भला कैसी निष्ठा रखेगी? बाजारवाद से प्रभावित होकर पितृ मोक्ष के दिखावे वाली कार्यों को पूर्ण करना वह आत्मिक शांति अथवा पुण्य नहीं दिला सकता है जो अपने जीवित माता-पिता की सेवा करने से तथा उन्हें अपने साथ रखने से पुण्य प्राप्त होता है। क्या युवा  पीढ़ी के वे लोग इस बात को समझ सकेंगे जो अपने माता-पिता को बोझ मानने लगते हैं तथा साथ रखने में संकोच करते हैं अथवा उनके लिए अच्छे से अच्छा वृद्धाश्रम ढूंढ कर अपने कर्तव्य को पूर्ण मान लेते हैं। पितृपक्ष में इस बिंदु पर चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है ताकि युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं एवं पूर्वजों के प्रति संवेदनशील होने के महत्व को समझाया जा सके।  
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शून्यकाल | वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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Monday, September 8, 2025

मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के कहानी पाठ में डॉ (सुश्री )शरद सिंह द्वारा अध्यक्षता

कल दोपहर मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई के द्वारा "सागर के कथाकार" कार्यक्रम का आयोजन किया गया। मुझे इस आयोजन की अध्यक्षता करने का सुअवसर मिला, जिसके लिए मैं आभारी हूं मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन तथा भाई पलाश सुरजन जी की, साथ ही प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य महेश प्रकाश श्रीवास्तव जी, सागर इकाई के अध्यक्ष भाई आशीष ज्योतिषी जी एवं सागर इकाई के सचिन भाई पुष्पेंद्र दुबे जी की 🌹🙏🌹

🚩 अपना अध्यक्षीय श्री उद्बोधन देते हुए मैंने कहा कि कथाकारो द्वारा पढ़ी गई कहानियों में स्त्री विमर्श का गाढ़ा रंग तथा समाज विमर्श, वृद्ध विमर्श आदि कई शेड्स देखने को मिले। कहानी वाचिक परंपरा की विधा है। यूं कहानी कही जाती है लिखी नहीं जाती। किंतु कहानी को सुनाने की जो वाचिक परंपरा रही उसमें एक वाचक से दूसरे वाचक तक कहानी के प्रवाह में मूल कथानक बदलता चला जाता था और वह कहानी अपना मूल स्वरूप खो कर लोक कथा में परिवर्तित हो जाती थी। मूल स्वरूप को सुरक्षित रखने के लिए कहानी को लिपिबद्ध किया जाने की आवश्यकता महसूस की गई होगी और तभी से कहानी को लिखने का चलन आरंभ हुआ होगा। 

       एक बात और जो मैं व्यक्तिगत रूप से मानती हूं की कथानक कहानीकार को स्वयं चुनता है कहानीकार कथानक को नहीं और कथानक ही अपनी लंबाई-चौड़ाई निर्धारित करता है, जिससे कोई कथानक लघु कथा में सिमट जाता है तो कोई उपन्यास का आकार ले लेता है।
        सागर में कथा लेखन की समृद्ध परंपरा रही है शिवकुमार श्रीवास्तव, रमेश दत्त दुबे, ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी, ज़हूर बख़्श, अनिलचंद्र मैत्रा और अकिंचन जी आदि कथाकारों की कथाएं तत्कालीन सागर  के परिवेश से परिचित कराती हैं। इन्हें पढ़ा जाना चाहिए।"
    होटल सुकून के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम का कुशल संचालन किया भाई पुष्पेंद्र दुबे कुमार सागर ने, स्वागत उद्बोधन दिया भाई आशीष ज्योतिषी जी ने तथा आभार प्रदर्शन किया भाई महेश प्रकाश श्रीवास्तव जी ने।
(07.09.2025)

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डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा गणेश उत्सव 2025 में पुरस्कार वितरण

गणेश उत्सव के दौरान विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेने वाले मेरी कॉलोनी के विजेता बच्चों को आज सुबह पुरस्कार देने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ जिसके लिए मैं मंदिर कमेटी तथा आदरणीय भाई चंद्रकांत पटेल जी की हार्दिक आभारी हूं 🙏 🚩🏵️🚩
Ganeshotsav 2025, prize dristribution day , Dr (Ms) Sharad Singh
 🚩🏵️🚩
(07.09.2025)
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Saturday, September 6, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | गणपति औ दसलक्षणों से जो सीखो, बा याद राखियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

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टॉपिक एक्सपर्ट
गणपति औ दसलक्षणों से जो सीखो, बा याद राखियो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     दस दिनां गणपति जू पधारे रये औ दस दिनां दसलक्षण पर्ब चलत रये। दोई के कारन पूरे सहर में धूम मची रई। खीबईं चैल-पैल रई। अपन ने एंज्वाय बी करो औ भौत कछू सीखो सोई। जैसे के गणपति के पंडाल में सब सबई के लाने खुले रये, चाय बे कोऊ जात धरम के होऐं। सो ऐसई अब गणपति जू के अपने घरे जाबे के बाद हमें हिलमिल के रैने है औ पंडाल घांई अपने सहर खों साफ-सुथरो राखने है। ऐसई दसलक्षणा से हमने सीखो के क्षमा राखो चाइए। विनम्रता औ सरलता से रओ चाइए। सबई संतोष सोई राखो चाइए। सच बोलबे से कभऊं डरो नईं ने जाए, काए से के झूठ बोले से काला कौव्वा काटत आए। तनक सहूरी से रओ, दान धरम करो, फालतू की जोड़ा-जाड़ी ने करो, जेई सब तो दसलक्षण आए। बस, इत्ती सी तो बात आए के जो हम कायदे से रयें, हिलमिल के रयें तो चाए हमाए गणपति जू होंए, चाए हमाए तीर्थंकर होंए हमपे किरपा राखहें। सो कैबे को मतलब जे इए के जे दोई त्योहार निपट गए तो हमें पल्ली ओढ़ के नईं सो जाने, जो खछू इन दोई त्योहारन से सीखो ऊको याद रखने है। ऐसो नईं के उन भैया जू घांई के बे दस दिनां रोजीना रामकथा सुनबे जात रये औ ग्यारमें दिनां कोनऊं ने उनसे पूछी के राम कोन औ सीता कोन? सो कैन लगे के कोनऊं होंए, अब का करने, अब तो कथा बढ़ा गई। सो अपन खों ऐसो नईं करने। काए से के जब बड़े सुदरहें तो बच्चा हरें सुदरे रैहें।
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Friday, September 5, 2025

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल | श्री राम के प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ थे
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
       यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।

      कौन थे ऋषि वशिष्ठ जो रामलाल के प्रथम शिक्षक बने ? ऋषि वशिष्ठ वैदिक काल के सबसे प्रसिद्ध राजगुरु थे, भगवान राम के गुरु बने, और योग-वशिष्ठ नामक ग्रंथ में उनके विचारों का संकलन है। उनकी पत्नी अरुंधति थीं और उन्हें आकाश के सप्तर्षि तारामंडल में एक स्थान पर माना जाता है। ऋषि वशिष्ठ महान सप्तऋषियों में से एक हैं। महर्षि वशिष्ठ सातवें और अंतिम ऋषि थे। वे श्री राम के गुरु भी थे और सूर्यवंश के राजपुरोहित भी थे। उन्हें ब्रह्माजी का मानस पुत्र भी कहा जाता है। उनके पास कामधेनु गाय और नंदिनी नाम की बेटी थी। ये दोनों ही मायावी थी। कामधेनु और नंदिनी उन्हें सब कुछ दे सकती थी। महर्षि वशिष्ठ की पत्नी का नाम अरुंधती था।
       ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुल की स्थापना की थी. गुरुकुल में हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छात्र गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेते थे। यहाँ पर महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। विद्यार्थी गुरुकुल में ही रहते थे। ऋषि वशिष्ठ गुरुकुल के प्रधानाचार्य थे। गुरुकुल में वे शिष्यों को 20 से अधिक कलाओं का ज्ञान देते थे। ऋषि वशिष्ठ के पास पूरे ब्रह्माण्ड और भगवानों से जुड़ा सारा ज्ञान था। वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र थे । वे त्रिकालदर्शी ऋषि और परम ज्ञानी थे। विश्वामित्र ने उनके 100 पुत्रों का वध कर दिया था, फिर भी उन्होंने विश्वामित्र को क्षमा कर दिया। सूर्यवंशी राजा उनकी अनुमति के बिना कोई भी धार्मिक कार्य नहीं करते थे। त्रेता के अंत में वे ब्रह्मलोक चले गए थे। माना जाता है कि वशिष्ठ आकाश में चमकते सात तारों के समूह में एक पंक्ति में एक स्थान पर स्थित हैं।
महाऋषि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की विभिन्न कथाओं में अनेक रूपों में मिलता है। कहीं उन्हें ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, कहीं अग्रीय पुत्र, तो कहीं मित्रावरुण का पुत्र कहा गया है। एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि वशिष्ठ के दीर्घकालीन अस्तित्व के संदर्भ में पौराणिक साहित्य के विद्वानों का एक मत यह भी है कि ब्रह्मा के पुत्र ऋषि वशिष्ठ के नाम पर उनके वंशजों को भी "वशिष्ठ" कहा जाना चाहिए। इस प्रकार 'वशिष्ठ' केवल एक व्यक्ति न होकर एक पद बन गए और विभिन्न युगों में अनेक प्रसिद्ध वशिष्ठ हुए। वशिष्ठ की दो पत्नियाँ थीं। एक ऋषि कर्दम की पुत्री "अरुंधति" और दूसरी प्रजापति दक्ष की पुत्री "ऊर्जा"।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
      पौराणिक संदर्भों के अनुसार, ब्रह्मा के आदेश पर ऋषि वशिष्ठ ने सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहिताई स्वीकार किया था । वे पहले इससे सहमत नहीं थे और राजाओं के पुरोहिताई को तपस्या के अतिरिक्त एक निन्दनीय कार्य मानते थे। परन्तु ब्रह्मा द्वारा यह बताए जाने पर कि इसी वंश में आगे चलकर श्रीराम अवतार लेंगे, ऋषि वशिष्ठ ने पुरोहिताई स्वीकार कर ली।
     आदि वशिष्ठ भगवान शिव के साढू थे, जिन्होंने दक्ष की एक अन्य पुत्री, देवी सती से विवाह किया था। इस आद्य वशिष्ठ के बाद, दूसरे इक्ष्वाकुचंशी राजा त्रिशंक के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहा गया। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अपव कहा गया। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा गया। सौदास या सुदास (कल्मषपाद) के काल में एक पाँचवें राजा हुए, जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभज था।
       छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के काल में हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें वशिष्ठ भगवान राम के काल में हुए, जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहा जाता था, और आठवें वशिष्ठ महाभारत काल में हुए, जिनके पुत्र का नाम "शक्ति" था। इनके अलावा, वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति और वशिष्ठ सुवर्चस सहित कुल 12 वशिष्ठों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। वशिष्ठ के बारे में संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड और लिंग पुराण में मिलती है, जबकि वशिष्ठ वंश के ऋषियों और गोत्रकारों के नाम मत्स्य पुराण में दर्ज हैं।
         वशिष्ठ से किसी निश्चित व्यक्ति को समझना संभव नहीं है, लेकिन एक ऐतिहासिक वशिष्ठ अवश्य थे, जिनका स्पष्ट बोध ऋग्वेद के सातवें मंडल के सूक्त से होता है, जिसमें उन्होंने दस राजाओं के विरुद्ध सुदास की सहायता की थी। इन विलक्षण वशिष्ठ के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक महर्षि विश्वामित्र के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता है। ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के बीच संघर्ष का विवरण नहीं मिलता, लेकिन वशिष्ठ के पुत्र "शक्ति" और विश्वामित्र के बीच शत्रुता के प्रमाण यहाँ मिलते हैं।
विश्वामित्र ने वाणी में विशेष निपुणता प्राप्त कर सुदास के सेवकों द्वारा "शक्ति" का वध करवाया। इस घटना का संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। पमविषा ब्राह्मण में वशिष्ठ के पुत्र की मृत्यु और सौदास पर विश्वामित्र की विजय का भी उल्लेख है। वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वशिष्ठ के अनेक उद्धरण सूत्र, रामायण और महाभारत में मिलते हैं, जिनमें ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र के संघर्ष का वर्णन है।
           किंवदंतियों के अनुसार, जब विश्वामित्र राजा थे, एक बार वे वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और कामधेनु गाय पाकर प्रसन्न हुए। इसी गाय के लोभ में उनका वशिष्ठ ऋषि से युद्ध हुआ और विश्वामित्र ब्रह्मबल को बाहुबल से अधिक सामर्थ्यवान मानकर तपस्वी बन गए। वैदिक काल का यह संघर्ष रामायण काल ​​में मित्रता में बदल गया। रामकथा में, जब विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को मांगने दशरथ के पास आए, तो वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने पुत्रों को उनके साथ भेज दिया।
 "योग वशिष्ठ" में श्रीराम और ऋषि वशिष्ठ के बीच वह संवाद मिलता है। जिसमें कुछ अनमोल शिक्षाएं हैं। संक्षेप में वे शिक्षाएं इस प्रकार हैं कि जब अहंकार नहीं होता, तो दुःख नहीं होता। इन्द्रियों के धोखे के बारे में पूरी तरह से जानते हुए भी, उनके अनुचर बने रहना मूर्खता है।  जिस प्रकार आंखें होते हुए भी अंधेरे में अपने चरण देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। उसी तरह, अगर आपके पास पर्याप्त ज्ञान भी है, तो भी आपको सही रास्ता देखने के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण की आवश्यकता होती है। केवल अज्ञानी ही सोचते हैं कि वे अलग हैं। अभिमान, अहंकार, दुष्टता और कुटिलता का त्याग करना चाहिए। आत्मज्ञान ही वह अग्नि है जो कामना रूपी सूखी घास को जला देती है। इसे ही समाधि कहते हैं, न कि केवल वाणी का त्याग।
       श्री राम और गुरु वशिष्ठ का संवाद यह बताता है कि जीवन को किस तरह से जीना चाहिए। जीवन की आरंभिक अवस्था में श्री राम गुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त करके अपने पूर्ण जीवन को सही दिशा में निर्धारित कर सके। श्री राम ने 12 वर्ष की उम्र तक गुरु वशिष्ट से शिक्षा प्राप्त की थी जिसमें वैदिक शास्त्रों और दर्शन का अध्ययन शामिल था। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि गुरुकुल प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली से एकदम भिन्न थी। प्राचीन भारतीय गुरुकुल प्रणाली सिर्फ़ अकादमिक शिक्षा के लिए जगह से कहीं ज़्यादा थी - यह जीवन शिक्षा की एक पवित्र, गहन यात्रा थी। सादगी और प्रकृति में निहित, युवा छात्र या शिष्य वे अपने गुरु के साथ, अक्सर शांत वन आश्रमों में, सांसारिक विकर्षणों से दूर रहते थे। शिक्षा की इस अनूठी पद्धति ने गुरु और शिष्य के बीच एक व्यक्तिगत बंधन को बढ़ावा दिया, जहाँ अनुशासित जीवन, अवलोकन और मार्गदर्शन के माध्यम से ज्ञान का संचार किया जाता था।
        वर्तमान स्कूली शिक्षा के विपरीत, गुरुकुल में बौद्धिक विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण, विनम्रता और आध्यात्मिक आधार पर भी जोर दिया जाता था। ब्रह्मचारी, शास्त्रों, दर्शन, मार्शल आर्ट, गणित, संगीत और नैतिकता का अध्ययन किया, साथ ही संयम, सहानुभूति और शक्ति जैसे मूल्यों को अपनाया। यह केवल आजीविका कमाने के बारे में नहीं था - यह एक धार्मिक और संतुलित जीवन जीने के बारे में था। वस्तुतः यह माना जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञता होता है ईश्वर ही नियंता होता है और ईश्वर ही ज्ञान की संरचना करता है किंतु वही ईश्वर जब मनुष्य के रूप में अवतार लेता है तो उसे भी शिक्षक अर्थात गुरु की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से निर्धारित करने के लिए तथा कर्तव्यों को भली भांति संपादित करने के लिए जी शिक्षा की आवश्यकता होती है वह एक गुरु ही दे सकता है इसीलिए जब भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में अवतार लिया तो उन्हें भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ी उनके प्रथम औपचारिक गुरु थे ऋषि वशिष्ठ।    
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Sunday, August 31, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह "कस्बाई साइमन" उपन्यास कन्नड़ पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक - 6


कन्नड़ की लोकप्रिय, प्रतिष्ठित एवं बहुप्रसारित साप्ताहिक पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक प्रकाशित हो रहे मेरे उपन्यास "कस्बाई सिमोन" की आज प्रकाशित 6 वीं कड़ी प्रस्तुत है.
Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine  🚩🙏🚩
आभार विद्वान अनुवादक डी.एन. श्रीनाथ जी 🌹🙏🌹

Presenting the 6th episode of my novel "Kasbai Simon" published today, which is being serialized in the popular, reputed and widely circulated Kannada weekly magazine "Sudha".

Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine 🚩🙏🚩
Thanks to the learned translator D.N. Srinath ji 🌹🙏🌹


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Saturday, August 30, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | इते ने गड्ढा से बचो जा सकत, ने खम्बा से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम



टॉपिक एक्सपर्ट
इते ने गड्ढा से बचो जा सकत, ने खम्बा से
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
(पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
 
गणपति पधार चुके हैं, सो फेस्टिवल को माहौल चल रओ आए। सो, ऐसे में तनक चुटकुला-मुटकुला याद करो जा सकत है। सो, हम बा चुटकुला सुना रए जोन को अनुभव आजकाल सबई जने कर रए। चलो, आप ओरें सोई सुनो जा चुटकुला। कि भओ का के एक रए बब्बा जू। उनें हार्ट अटैक आओ औ बे ढरक गए। उनके मोड़ा हरें जा सोच के खुस भए के अब उने जायदाद मिल जाहे। बे बब्बा की ठठरी ले के निकरे। संगे ‘राम नाम सत्त’ बोलत जा रए ते। इत्ते में पड़ो एक गड्ढा। मोड़ा हरें रपटे सो ठठरी गिर परी। बब्बा को लगो झटका औ बे उठ बैठे। मोड़ा हरें दुखी हो के उने घरे लौटा लाए। समै देखो के चार दिनां बाद बब्बा फेर के ढरक गए। मोड़ा हरें फेर के उनकी ठठरी ले के निकरे। रोड पे गड़ो तो बिजली को खम्बा जोन की शिफ्टिंग ने करी गई ती। ई दार बे ओरें खम्बा से भिड़ गए। फेर के बब्बा को झटका लगो औ बे फेर के जी उठे। मोड़ा हरें फेर उने घरे ले आए। 
कछू दिनां में बब्बा फेर ढरक गए। अबकी जो मोड़ा हरें उनकी ठठरी ले के निकरे तो ई दार बे ‘राम नाम सत्त’ की जांगा बोलत जा रए ते “गड्ढा, खम्बा बचा के!”  काए से के मोड़ा हरें ने चाउत्ते के बब्बा खों फेर के घरे ले जाने परे। अब बे ओरें कां लौं बचा पाए जे तो बेई जानें।  बाकी अपन ओरें तो ने गड्ढा से बच पा रये, ने खम्बा से बच पा रये। अब परसासन कछू कर सके तो करे, ने तो गड्ढा, खम्बा सो भाग में लिखोई आए।
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Friday, August 29, 2025

शून्यकाल | गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
गणपति के हैं नाम अनेक पर काम एक : जनकल्याण
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
    जब हम किसी दुखी, पीड़ित व्यक्ति को देखते हैं तो उसकी सहायता करने की इच्छा हमारे मन में जागती है। फिर दूसरे ही पल हमें अपने सीमित सामथ्र्य याद आ जाता है और हम ठिठक जाते हैं। यह सच है कि आज के उपभोक्तावादी दौर में बहुसंख्यक व्यक्तियों के पास बहुत अधिक सहायता करने की क्षमता नहीं रहती है। किन्तु, श्रीगणेश यही तो सिखाते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कैसे दिखते हैं या हमारी क्षमताएं कितनी हैं, यदि हमारे मन में दृढ़इच्छा है तो हम किसी न किसी रूप में एक दुखी-पीड़ित की मदद कर सकते हैं। तभी तो श्रीगणेश के अनेक नाम हैं किन्तु काम एक ही है-जनकल्याण।

हिन्दू संस्कृति में श्रीगणेश एकमात्र ऐसे देवता है जिनका मुख हाथी का तथा शेष शरीर मनुष्यों अथवा देवताओं जैसा है। अलौकिक शक्ति के धनी होते हुए भी श्रीगणेश में समस्त गजतत्व मौजूद हैं। सृष्टि की योग्य कृति मानव तथा वन्य समुदाय की सर्वश्रेष्ठ रचना गज के सम्मिश्रण वाले श्री गणेश की शक्तियों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पौराणिक कथा के अनुसार गणेश जी ने ही महाभारत को अबाधगति से लिपिबद्ध किया था।
गजाननं भूतगणादि सेवितं, कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितं।
उमासुतं शोक विनाशकारणं, नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजं।।

श्रीगणेश के एक नहीं अपितु 108 नाम हैं। प्रत्येक नाम का अपना एक अलग महत्व है।
*श्रीगणेश के 108 नाम* 
अखुरथ- जिनके पास रथ के रूप में एक चूहा है, अलमपता- सदा सनातन भगवान, अमितःअतुलनीय प्रभु, अनंतचिद्रुपमयं- अनंत और चेतना-व्यक्तित्व, अवनीश- पूरी दुनिया के भगवान, अविघ्न- सभी बाधाओं को दूर करने वाला, बालगणपति- प्रिय और प्यारा बच्चा, भालचंद्र- चंद्रमा-कलक वाले भगवान, भीम- विशाल और विशाल, भूपति- देवताओं के स्वामी, भुवनपति - जगत के स्वामी, बुद्धिनाथ- ज्ञान के देवता, बुद्धिप्रिया- ज्ञान और बुद्धि को प्यार करने वाले भगवान, बुद्धिविधता- ज्ञान और बुद्धि के देवता, चतुर्भुज- चतुर्भुज भगवान, देवदेव- भगवानों के भगवान, देवंतकनशकारिन- राक्षसों का नाश करने वाले, देवव्रत- वह जो सभी तपस्या स्वीकार करता है, देवेंद्रशिका- सभी देवताओं के रक्षक, धार्मिक- वह जो धार्मिकता को बनाए रखता है, धूम्रवर्ण- धूम्र वर्ण वाले भगवान, दुर्जा- अजेय भगवान, द्वैमतुर- जिसकी दो माताएं हों, एकाक्षर - एक अक्षर से आवाहन करने वाला, एकदंत- एकल-दांत वाले भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, ईशानपुत्र- भगवान शिव के पुत्र, गदाधर - गदा धारण करने वाले, गजकर्ण - हाथी के कान वाले, गजानन- हाथी के चेहरे वाले भगवान, गजाननेति- हाथी के मुख वाले भगवान, गजवक्र- सूंड हुक की तरह मुड़ी हुई, गणधक्ष्य- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गणध्यक्षिना- सभी गणों (समूहों) के नेता, गणपति- सभी गणों (समूहों) के भगवान, गौरीसुता- देवी गौरी के पुत्र, गुनिना- सभी गुणों के स्वामी, हरिद्रा- वह जो सुनहरे रंग का हो, हेरम्बा- मां का प्रिय पुत्र, कपिला- पीले-भूरे रंग के भगवान, कवीशा- कवियों के गुरु, कृति- संगीत के भगवान, क्षिप्रा- जिसे प्रसन्न करना आसान हो, लम्बकर्ण- लंबे कान वाले भगवान, लंबोदर- पेट वाले भगवान, महाबला- अत्यंत बलवान प्रभु, महागणपति- सर्वशक्तिमान और सर्वोच्च भगवान, महेश्वरम- ब्रह्मांड के भगवान, मंगलमूर्ति- सर्व शुभकर्ता, मनोमय - हृदय को जीतने वाले, मृत्युंजय- मृत्यु को जीतने वाले, मुंडकरम- सुख का धाम, मुक्तिदया- शाश्वत आनंद का दाता, मुसिकवाहन- जिसका वाहन चूहा है, नादप्रतितिष्ठः जिसकी संगीत से पूजा की जाती है, नमस्थेतु- सभी बुराइयों और दोषों और पापों का विजेता, नंदना- भगवान शिव के पुत्र, निदेश्वरम- धन और खजाने के दाता, पार्वतीनंदन- देवी पार्वती के पुत्र, पीताम्बरा - पीले वस्त्र धारण करने वाले, प्रमोदा- सुख के सभी निवासों के भगवान, प्रथमेश्वर- सभी देवताओं में सबसे पहले, पुरुष- सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व, रक्ता- जिसका शरीर लाल रंग का हो, रुद्रप्रिया- भगवान शिव की प्रिय, सर्वदेवतामन- सभी दिव्य प्रसादों को स्वीकार करने वाला, सर्वसिद्धान्त- कौशल और ज्ञान के दाता, सर्वात्मान- ब्रह्मांड के रक्षक, शाम्भवी- पार्वती के पुत्र, शशिवर्णम- जिसका रंग चंद्रमा जैसा है, शूपर्णकर्ण- बड़े कान वाले भगवान, शुबनः सर्व मंगलमय प्रभु, शुभगुणकानन- वह जो सभी गुणों का स्वामी है, श्वेता- वह जो सफेद रंग की तरह पवित्र हो, सिद्धिधाता- सफलता और सिद्धियों के दाता, सिद्धिप्रिया- वह जो इच्छाओं और इच्छाओं को पूरा करती है, सिद्धिविनायक- सफलता के दाता, स्कंदपुर्वजा- स्कंद (भगवान मुरुगन) के बड़े भाई, सुमुख- जिसका मुख प्रसन्न है, सुरेश्वरम- सभी प्रभुओं के भगवान, स्वरूप - सौंदर्य के प्रेमी, तरुण- अजेय भगवान, उद्दंड- बुराइयों और दोषों की दासता, उमापुत्र- देवी उमा (पार्वती) के पुत्र, वक्रतुंड - घुमावदार सूंड वाले भगवान, वरगणपति - वरदानों के दाता, वरप्रदा- इच्छाओं और इच्छाओं का दाता, वरदविनायक - सफलता प्रदान करने वाले, वीरगणपति- वीर प्रभु, विद्यावारिधि- ज्ञान और बुद्धि के देवता, विघ्नहर्ता- विघ्नों का नाश करने वाले, विघ्नराज- सभी बाधाओं के भगवान, विघ्नस्वरूप- विघ्नों का रूप धारण करने वाले, विकट- विशाल और राक्षसी, विनायक- सभी लोगों के भगवान, विश्वमुख- ब्रह्मांड के स्वामी, विश्वराज- ब्रह्मांड के राजा, यज्ञकाय- सभी यज्ञों को स्वीकार करने वाले, यशस्करम- यश और कीर्ति के दाता, योगधिपा- ध्यान और योग के भगवान, योगक्षेमकारा- अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के दाता, योगिन- योग का अभ्यास करने वाला, युज- जो संघ का स्वामी है, कुमारा- हमेशा युवा भगवान, एकादृष्टा- एकाग्र भगवान, कृपालु- दयालु भगवान। श्रीगणेश के ये 108 नाम हैं, जिनका जाप किया जाता है।
श्रीगणेश के कुछ नामों की रोचक कथाएं भी देख ली जाएं। यही तो हमारी पौराणिक विरासत हैं-
*एकदंत की कथा*
श्रीगणेश के एकदंत होने की कई कथाएं मिलती हैं जिनमें एक इस प्रकार है कि एक बार विष्णु के अवतार परशुराम शिव से मिलने कैलाश पर्वत पर आए। उस समय शिव ध्यानावस्थित थे तथा वे कोई व्यवधान नहीं चाहते थे। शिवपुत्र गणेश ने परशुराम को रोक दिया और मिलने की अनुमति नही दी। इस बात पर परशुराम क्रोधित हो उठे और उन्होंने श्री गणेश को युद्ध के लिए चुनौती दे दी। श्रीगणेश ने चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच घनघोर युद्ध हुआ। इसी युद्ध में परशुरामजी के फरसे से उनका एक दांत टूट गया।
*लंबोदर*
समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर मोहित हो गए। भावावेश में उनका स्खलन हो गया, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए। वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।
*विकट*
भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।
*विघ्नराज*
एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी भेंट शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया। शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए तब गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर उसके अत्याचार से सभी को मुक्त कराया।
*धूम्रवर्ण*
एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। तभी उन्हें छींक आई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। अहम शुक्राचार्य के पास गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने श्री गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिया और अत्याचार बन बैठा। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर को युद्ध में हराकर जनकल्याण किया।
            श्रीगणेश अन्य देवताओं की भांति शारीरिक दृष्टि से सुंदर नहीं हैं किन्तु उनकी अपरिमित बुद्धि के कारण उन्हें प्रथमपूज्य देवता का पद प्राप्त है। यही वह बात है जिसे हम मनुष्यों को सीखना चाहिए कि जाति, धर्म, आकार, प्रकार, सुंदरता, असुंदरता का कोई अर्थ नहीं है, यदि किसी चीज का अर्थ है तो वह है जनकल्याण। यही तो सत्य मौजूद है श्रीगणेश के स्वरूप में।    
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Wednesday, August 27, 2025

गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !🚩 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !🚩 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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Saturday, August 23, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | मुतके स्कूलन की पोलें खुल गईं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में

टॉपिक एक्सपर्ट
मुतके स्कूलन की पोलें खुल गईं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अब आप ओरें सोच रए हुइए के ईमें नओ का? स्कूलन की पोलें तो बरहमेस, खुलत रैत आएं। अबई जेई साल में पता परी के गांव के टीचर हरें अपने बदले पढ़ाबे के लाने भाड़े के टीचर राख रए। बा पोल खुलतई साथ पूरो प्रसासन  तरे-ऊपरे हो गओ। जांच-जूंच चली, सजा दई गई। ऐसई कभऊं- कभऊं कछु सरकारी मालक हरें गांव-मांव में ढूंकबे पौंच जात आएं। सो उते उने कऊं टीचर कम मिलत आएं तो कऊं पूरोई स्कूल में तारो डरो मिलत आए। ओ कऊं-कऊं पढ़ाई की ऐसी के कओ बालक हरें माननीय मोदी जू खों अपने इते को मुख्य मंत्री बता देवें। बाकी जे न सोचो के हम जे वारी पोलों की कै रै। हम जिन पोलों की कै रै, बे दूजी आएं। 
    का आए के पढ़ाई के लाने स्कूल में सई माहौल बी तो भओ चाइए। औ गांव तो गांव, सहर के कछु स्कूलन में जो हाल आए ऊकी सबरी पोलें तो ई बारिस ने खोल दईं। एक तो कोऊं-कोऊं स्कूल में बच्चों के लाने बैठबे को फर्नीचर लौं नइयां, मनो ऊमें कछू नईं हमने सोई अपने जमाना में सरकारी स्कूल में फट्टी पे बैठ के पढ़ाई करी रई। मनों बरसात में उनकी छत ने टपकत्ती। अब तो ई दार बारिस ने बता दई के बच्चों के मूंड़ पे कां छत चुआ रई औ कां छत को पलस्तर गिर रओ। सो हम जे वारी पोल की बात कर रै। बच्चा हरें पढ़हें औ बढ़हे तब जब उनके मूंड़ पे पानी औ पलस्तर ने टपके। सो, ऐसे स्कूलन में बच्चों की जान की अमान रखी जाए, मालक! देस को आजाद भए 78 सालें हो गईं, औ जे हाल आए स्कूलन को। कछू तो सरम करी जाए, मालक !
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