Wednesday, September 17, 2025

चर्चा प्लस | पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करने का पक्ष होता है। पक्ष अर्थात 15 दिन की अवधि। 365 दिन में 15 दिन पूर्वजों के प्रति विशेष कर्तव्यों के लिए निर्धारित किए गए हैं। यह निर्धारण आधुनिक नहीं वरन पौराणिक काल से चला आ रहा है। पौराणिक काल में श्राद्धकर्म किस तरह आरम्भ हुआ इस संबंध में कुछ रोचक कथाएं मिलती हैं जो सदियों से हर पीढ़ी को पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखने की सीख देती आई हैं। तो चलिए एक दृष्टि डालते हैं इन कथाओं पर, क्योंकि पारिवारिक टूटन के संवेदनहीन होते इस समय में ऐसी कथाओं को जानना और समझना जरूरी है। इन कथाओं का मात्र धार्मिक नहीं वरन मानवीय मूल्य भी है।  
पितृ पक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक चलता है। इन 15 दिनों में दौरान पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धापूर्वक अनुष्ठानिक कार्य किए जाते हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध कर्म आरंभ होने के संबंध में कई कथाएं भी प्रचलित हैं, यूं तो इनका पाठ तर्पण करते हुए किया जाता है। किन्तु ज्ञान की दृष्टि से इन्हें किसी भी समय पढ़ा, सुना और समझा जा सकता है। 

पितृ पक्ष आरंभ होने के संबंध में सबसे प्रमुख कथा है दानवीर कर्ण की कथा। इस बहुप्रचलित कथा के अनुसार कुंतीपुत्र कर्ण ने अपने जीवनकाल में सोना, चांदी, आभूषण आदि का दान हाथ खोल कर दिया। कर्ण के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। उसके दान-पुण्य कर्म के कारण यह तो सुनिश्चित था कि कर्ण को अंततः स्वर्ग में स्थान मिलेगा। मरणोपरांत कर्ण को नर्क के कुछ दण्ड के बाद स्वर्ग में सम्मानजनक स्थान दिया गया। स्वर्ग में कर्ण को भरपूर सुख-सुविधा दी गई। किन्तु जब भोजन का समय आया तो कर्ण यह देख कर चकित रह गए के उन्हें सोने की थाली में सोने के सिक्के और आभूषण ही परोसे गए। पहले तो कर्ण को लगा कि सेवक से कोई त्रुटि हो गई होगी किन्तु जब दो-तीन बार वही प्रक्रिया दोहराई गई तो कर्ण ने इन्द्रदेव से इसका कारण पूछा।  तब इंद्र ने कहा, ‘‘कर्ण, तुम सबसे बड़े दानवीर थे। तुमने अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपना दिव्य कवच दान कर दिया, यहां तक कि मुत्यु के कुछ क्षण पूर्व तुमने अपना सोने का दांत भी स्वयं तोड़ कर दान कर दिया। किन्तु कर्ण, तुमने अपने पूरे जीवन में सिर्फ स्वर्ण का ही दान दिया, कभी भोजन दान नहीं दिया। जबकि स्वर्ग का नियम है कि यहां मनुष्य की आत्मा को वही खाने के लिए दिया जाता है, जिसका उसने धरती पर दान किया होता है। इसलिए तुम्हारी थाली में स्वर्ण ही परोसा जा रहा है।’’
यह सुन कर कर्ण ने इन्द्र से पूछा कि अब मैं अपनी भुल कैसे सुधार सकता हूं? मैं तो मृत्यु को प्राप्त हो चुका हूं। यहां दान आदि का कोई प्रावधान नहीं है, न कोई दान लेने वाला है। अब मेरा उद्धार कैसे होगा?’’
इस पर इन्द्र ने उससे कहा कि ‘‘इसका बस यही उपाय है कि मैं तुम्हें 15 दिन के लिए वापस पृथ्वी पर भेज देता हूं। इस अवधि में तुम अपने पूर्वजों की स्मृति में भोजन का दान करो। यह दान ब्राह्मणों और गरीबों दोनों को करना है।’’
इन्द्र के द्वारा पृथ्वी पर 15 दिन के लिए आने के बाद कर्ण ने ब्राह्मणों एवं गरीबों को भरपूर भोजनदान दिया। इसके बाद 15 दिन की अवधि पूर्ण होते ही उसे वापस स्वर्ग बुला लिया गया। स्वर्ग में पहुंचते ही भांति-भांति के सुस्वाद भोजन से कर्ण का स्वागत किया गया। 
इस कथा का मानवीय मूल्य यह है कि हर तरह का दान-पुण्य कर के मनुष्य यह समझे कि मैंने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिए है, तो ऐसा नहीं है। मनुष्य के सारे कर्तव्य तभी पूर्ण माने जाते हैं जब वह भूखों, निराश्रितों एवं निर्धनों को भोजन दान करता है। संग्रहण की प्रवृति वाले समाज में इस तरह की कथाएं ही प्रेरित करती हैं कि उनका भी समुचित ध्यान रखा जाए जिन्हें एक टुकड़ा रोटी भी नसीब नहीं है। फिर जब कोई सद्कर्म करता है तो भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि इससे उसके पूर्वज भी प्रसन्न होते हैं तथा उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जीवन की व्यस्तताओं में कई बार सब कुछ जानते-समझते हुए भी कर्तव्यों की अवहेलना हो जाती है इसीलिए 15 दिन का वह समय निर्धारित किया गया है जिसमें कर्ण ने धरती पर आ कर दानकर्म एवं श्राद्धकर्म किया था।    

पौराणिक कथा के आधार पर पितृ पक्ष की एक लोकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों की अपने नामों से विपरीत स्थिति थी। जोगे जिसकी दशा जागी की होनी चाहिए थी, वह धन-सम्पन्न था। वहीं उसका भाई भोगे जिसे नाम के अनुरुप भोग-विलास का जीवन मिलना चाहिए था वह निर्धन था। इतना निर्धन कि कभी-कभी उसके घर में फांके की थिति आ जाती थी। दोनों भाई अलग-अलग रहते थे। दोनों भाइयों में परस्पर प्रेम था लेकिन जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था। जबकि भोगे की पत्नी बड़ी सरल स्वभाव की थी। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे को लगा कि इससे धन व्यर्थ व्यय होगा अतः उसने टालने का प्रयास किया। जोगे की पत्नी का विचार था कि यदि वे लोग श्रद्धभोज करेंगे तो इससे समाज में उनके धन का भरपूर प्रदर्शन होगा और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जोगे ने पत्नी को समझाया कि यह सब छोड़ो क्योंकि तुमसे अकेले सब नहीं सम्हाला जाएगा। इस पर जोगे की पत्नी ने कहा कि मैं भोगे की पत्नी को काम करने के बुला लूंगी। आप तो जाइए और मेरे मायके वालों को न्योता दे आइए।  अंततः जोगे को पत्नी के कहं अनुसार कार्य करना पड़ा। जोूगे की पत्नी भोगे की पत्नी को अपने घर काम करने के लिए बुला लाई। भोगे के घर यूं भी खाने का ऐसा कुछ नहीं था कि वे श्राद्धभोज कराना तो दूर एक भी भूखे को भोजन दान कर सकें। सो, भोगे ने पत्नी को मदद करने जाने को कहा और स्वयं कंडा आदि जला कर घरन में मौजूद अन्न का इकलौता दाना अग्नि को समर्पित कर के पितरों को ‘‘अगियारी’’ दान कर दी। जब पितर धरती पर आए तो वे पहले जोगे के घर गए। वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला क्योंकि उस घर में सभी लोग नाना प्रकार के व्यंजन से अपना पेट भरने में ही जुटे थे। उन लोगों ने पितरो की ओर ध्या भी नहीं दिया। इसके बाद पितर भोगे के घर गए। वहां उन्होंने देखा कि अन्न का एक दाना अगियारी के रूप में उन्हें दान दिया गया है। उसी समय भोगे के बचचे आ गए और अपनी मां से खाना मांगने लगे। घर में खाने को तो कुछ था नहीं अतः भोगे की पत्नी ने चूल्हे पर पानी उबलने को रख दिया था जिससे बच्चों को बहलाया जा सके। यह देख कर पितरों को लगा कि देखों तो भोगे ने अपने घर का अन्न का इकलौता दाना भी हमें अर्पित कर दिया जबकि उसके बच्चे भूखे हैं। यदि भोगे के पास पर्याप्त धन होता तो वह हमें भरपूर भोग लगाता। पितरों ने अगियारी की राख चाटी और तृप्त हो गए। इस बीच बच्चे दौड़ कर गए और उन्होंने चूल्हे पर चढ़े पतीले का ढक्कन खोला कि उसमें खाने का कुछ पक रहा होगा, तो उन्हें वहां पतीला सोने के सिक्कों से भरा हुआ मिला। बच्चों ने मां को इस बारे में बताया। बच्चों की मां ने भोगे को बताया। भोगे ने पितरों को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इसके बाद उनके दिन फिर गए। अगले वर्ष श्राद्ध पक्ष में भोगे ने विनम्र भाव से पितरों का श्राद्ध करते हुए गरीबों को भरपूर भोजन दान दिया। इसके बाद भोगे को कभी निर्धनता का मुख नहीं देखना पड़ा।
यह कथा भी यही संदेश देती है कि जितना भी हमारे पास है उसे मिल-बांट कर खाएं ताकि कोई भूखा न रहे। 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि धरती पर आए। वे घूमते-घूमते गंगातट पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक गरीब व्यक्ति बहुत परेशान था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। नारद मुनि ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या कष्ट है? तो उस निर्धन व्यक्ति ने कहा कि पितृ पक्ष चल रहा है किन्तु मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं दान कर के पितरों का श्राद्ध कर सकूं। मेरे पितर मुझ पर नाराज हो रहे होंगे। यह सुन कर नारद मुनि ने कहा कि यह मत सोचो कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, निर्धन तो वे हैं जिनके पास सब कुछ होता है फिर भी वे दान करने का कलेजा नहीं रखते हैं। तुम तो पेड़ की एक पत्ती तोड़ो और मुझे दान कर दो। तुम्हारा ब्राह्मण दान पूर्ण हो जाएगा। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। इसके बाद नारद वहां से चले गए। किन्तु उस व्यक्ति को लग रहा था कि मैंने मात्र ब्राह्मण दान किया है, वह भी उस ब्राह्मण ने कृपा कर के मेरी दी हुई पत्ती खा कर उसे दान मान लिया, अब मैं अपने जैसे निर्धनों को दान कैसे दूं? वह सोच ही राि था कि अचानक उसके सामने एक निर्धन आ गया। उस व्यक्ति को कुछ नहीं सूझा तो उसने पेड़ की एक और पत्ती तोड़ी और उसे उस निर्धन को देते हुए कहा कि मेरे पास इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीलं है। यदि तुम कृपा कर के इसे ग्रहण कर लो तो मेरे पितर प्रसन्न हो जाएंगे। यह सुन कर उस निर्धन ने पत्ती खा ली। इस प्रकार श्राद्ध कर के वह व्यक्ति अपने धर लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी प्रसन्नमुद्रा में द्वार पर खड़ी है। उस व्यक्ति के पूछने पर पत्नी ने बताया कि एक आदमी आया था और वह स्वर्ण मुद्राओं से भरा घड़ा दे गया है जो तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हारे लिए छोड़ा था। यह सुन कर वह व्यक्ति समझ गया कि यह उसके दानकर्म का सुफल है जिससे उसके पूर्वज प्रसन्न हो गए। वह यह नहीं जानता था कि नारद ही पहले ब्राहमण और फिर निर्धन बन कर उससे दान ले गए थे और बदले में उसकी सहायता की।
यह कथा भी पूर्वजों की स्मृति में भोजन दान के महत्व को स्थापित करती है। इस कथा का भी उद्देश्य यही है कि इस धरती पर कोई भूखा न रहे। सब मिल बांट अन्न खाएं, ऐसा न हो कि एक संग्रहण करे और बाकी भूखे रह जाएं। 

वस्तुतः हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक त्योहार, संस्कार एवं अनुष्ठान का गहरा सामाजिक महत्व  एवं मानवीय मूल्य है। पितरो का स्मरण, पितरों के प्रति श्राद्ध आदि हमें अपनी पारिवारिक परंपरा पर गौरव करना सिखाती है। वहीं इन सब के साथ जुड़े दानकर्म ये उन लोगों के प्रति कर्तव्य का भी स्मरण रहता है जो हमारे ही समाज के अभिन्न अंग हैं, हमारे समान ही हैं किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर हैं, निर्धन हैं। दानकर्म ऐसे जरूरतमंदों की मदद करने का अवसर देता है जिसे कर के हमें स्वयं भी आत्मिक शांति मिलती है।     
-----------------------
(दैनिक, सागर दिनकर में 19.09.2025 को प्रकाशित)  
------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह

No comments:

Post a Comment