Thursday, July 28, 2022

बतकाव बिन्ना की | जे तुमाए लाने हमाओ स्पेसल ऑफर आए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात


 "जे तुमाए लाने हमाओ स्पेसल ऑफर आए "... मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
हार्दिक धन्यवाद "प्रवीण प्रभात" 🙏
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बतकाव बिन्ना की
जे तुमाए लाने हमाओ स्पेसल ऑफर आए !
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       मैंने किराना वारे खों फोन कर दई हती के एक-एक किलो के चार पैकेट पिसो पिसाओ गहूं को आटो, एक किलो राहर की दाल औ एक किलो दलिया घरे भिजवा दइयो। किराना वारे ने तीनों सामान भिजवा दओ। मनो जब सामान पौंचाबो वारो लड़का घरे आओ, उत्तई बेरा भैयाजी आन टपके। बे देखन लगे के मैंने कोन-कोन सो समान मंगाओ आए। आटो को पैकेट देख के भैयाजी ने ऊ लड़का से पूछी,‘‘काए गिरधारी, आटो का भाव चल रओ? नई वारी जीएसटी अबे लगी के नई?’’
‘‘को जाने? हमें पतो नोई।’’ गिरधारी ने कही। अब ऊको का पतो हुइए। बो ठैरो नौकर, दाम सो मालिक को पतो हुइए।
‘‘ईको जान तो देओ भैयाजी, जबे उते दूकान पे जाइयो सो उतई पूछ लइयो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘हऔ! कै तो तुम ठीक रई बिन्ना, जे गिरधारी खों का पता हुइए। मनो, गिरधारी तुम तो कर्रापुर के रहबे वारे हो न?’’ भैयाजी ने गिरधारी को पीछा ना छोड़ो।
‘‘हऔ दाऊ!’’ गिरधारी ने सोई बड़े आराम से उत्तर दओ। हो सकत के बा तनक टेम पास करबे के मूड में होय। अभईं दुकान लौटहे सो, मालिक कहूं और दौड़ा देहे।
‘‘सो इते कहां रैत हो?’’ भैयाजी ने गिरधारी से आगे पूछी।
‘‘इते हम पुरानी मकरोनिया में रैत आएं, दाऊ!’’ गिरधारी सोई दीवार से टिक के बतियान लगो।
‘‘पुरानी मकरोनिया! हूं! सो तुमाए घरे औ को-को आ रैत आए?’’ भैयाजी ने मनो ऊको इन्टरव्यू लेबे की ठान लई हती।
‘‘इते, औ कोनऊ नई रैत।’’
‘‘सो अकेले रैत हो? किराए को कमरा ले रखो हुइए। कित्तो किराओ देने पड़त आए?’’ भैयाजी के सवाल रुकई नई रए हते।
‘‘छः सौ रुपइया।’’
‘‘इत्तो ज्यादा? सो तुमपे हो जात आए?’’ भैयाजी ने अचरज करत पूछी।
‘‘नईं, इत्तो हम अकेले कहां दे पाबी? फेर सो कछु बचहेई ना।’’ गिरधारी ने कही।
‘‘फेर?’’
‘‘फेर का? हम ओंरे चार जने संगे रैत आएं। सो डेढ़-डेढ़ सौ रुपइया सबई में बंट जात आए।’’ गिरधारी ने बताई।
‘‘हऔ सो, जे ठीक आए। सो, बे ओंरे सोई कर्रापुर के आएं?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं, एक जने दलपतपुर को आए, एक मालथौन को औ एक गढ़ाकोटा को।’’ गिरधारी ने जानकरी दई।
‘‘सो, बे ओरे कहां काम करत आएं?’’ भैयाजी रुकबे को नांव नई ले रए हते।
‘‘एक सो हमाए संगे, सेठजी की दूकान पे काम करत आए। औ दो जने अलग-अलग होटलन में काम करत आएं।’’ गिरधारी बोलो।
‘‘हऔ सो, तुम ओरे खुदई खाना पकात हुइयो?’’ भैयाजी ने पूछीं
‘‘हऔ, औ को पकाहे?’’ गिरधारी हंसत भओ बोलो।
अब मोए खीझ होन लगी हती। काए से के जे बेफालतू की जानकारी ले के भैयाजी करहें का? ऊको बी टेम खराब कर रए औ मोरो बी।
‘‘अब जान तो देओ ईको!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, सो हमने कोन बांध रखो आए? जे सो खुदई ठाड़े-ठाड़े बतात जा रओ।’’ भैयाजी मासूमियत दिखात भए बोले।
‘‘हौ रैन तो देओ, आप दोनों जने।’’ मोए अब गुस्सा सो आन लगो हतो।
‘‘तो गिरधारी, तुमें सोई आटो खरीदने परत हुइए।’’ भैयाजी ने अगलो सवाल करो।
‘‘हऔ, औ का! खरीदनेई पडत आए।’’ गिरधारी ने कही।
‘‘सो मैंगो परत हुइए?’’
‘‘हऔ, मनो अब पिसी ले के को साफ कर रओ, को पिसा रओ?’’ गिरधारी बोलो।
‘‘कौन सो आटो लेत हो? खुलो के पैकेट वारो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘खुलो सो मनो ठीक नईं रैत, सो पैकेट वारो लेत आएं, पर सस्तो वारो।’’ गिरधारी बोलो।
‘‘बेटा गिरधारी, अब तुमाओ सस्तो वारो सोई सस्तो ने रैहे। काए से के पचीस किलो से नीचे के सबई पैकेटन पे जीएसटी बढ़ा दई गई आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ अब का कर सकत आएं, आऊ?’’ खाने सो पड़हेई। रोटी ने खाबी सो काम कैसे करबी?’’ गिरधारी दुखी होत भओ बोलो। जे देख के मोए अच्छो नई लगो।
‘‘आप ओरन खों गपियाने होय सो गपियाओ। मोए माफ करो!’’ मैंने तनक कर्रे ढंग से कही।
‘‘राम-राम दाऊ!’’ कैत भओ गिरधारी ने अपनी मोपेड चालू करी। मनो ऊकी काए की मोपेड, सेठजी ने दे रखी है ऊको सौदा पौंचाबे के लाने। सो गिरधारी समझ गओ के अब औ ठाड़े रैबो ठीक नइयां, सो वो बढ़ा गओ। पर भैयाजी सोचत भए बोले,‘‘बिन्ना, जे सरकार को कछू समझ में नईं आत आए का? जे गरीब-गुरबा तनक-तनक सो आटो ले के काम चलात आएं। जे ओरें कैसे जे मैंगाई झेलहें?’’
‘‘सही कही भैयाजी! मोए सोई एक-एक किलो को पैकेट लेने परत आए। इकट्ठो ले लेओ सो इत्तो जल्दी उठत नइयां ओ खराब होन लगत आए। बढ़ो भओ दाम सो मोए सोई चुकाने परहे। औ को जाने, जेई बेरा जुड़ गओ होय सो का पतो?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘सुनो बिन्ना! तुम फिकर ने करो। ई बेरा सो तुमने आटो मंगा लओ, बाकी अगली बेरा ने मंगाइयो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो, रोटी काए की बनाबी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘ऐसो है के हमाए इते तो हम महीना तीसेक किलो पिसी पिसवानेई परत आए, सो ऊमें से तुम सोई ले लइयो। तुमें बा पचीस किलो से ऊपर वारी घटी रेट पे मिलहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो मतलब जे के मोए आपसे आटो खरीदने परहे?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘जेई समझ लेओ। बाकी, जब मन होए दे दओ करियो, औ मन ने होय सो कछू नईं, तुमसे का चार रोटियन को आटो को पइसा लेबी?’’ भैयाजी उदार होत भए बोले।
‘‘हऔ अगली बेरा की अगली बेरा देखी जेहे।’’ मैंने टरकाओ। काए से के आपसी में पइसन को लेन-देन ठीक नई रैत आए। मैंने भैयाजी से कही,‘‘मनो बात ठीक कै रै आप के सरकार को गरीबन पे तनऊ रहम नईं आउत आए? पच्चीस किलो से ऊपर को पैकेट बंद सामान सो सेठई हरें लेहें, छोटी तनखा औ छोटो परिवार वारो का करहे, एकई बेरा में इत्तो सारो ले के? मनो जे व्यवस्था सो हम ओरन को बजट बिगाड़ देहे।’’
‘‘जेई तो बात आए बिन्ना! अपन ओरें सो लतरौंदा आएं, जबे चाए पांव के नेचे कुचरो औ बढ़ लए आगे...अच्छे दिनन की ओर। बाकी, तुमाए लाने हमाओ जे स्पेसल ऑफर आए, याद राखियो। औ जबे चायने होय सो बता दइयो, आटो तुमाए घरे पौंचा देबी।’’ भैयाजी चलत भए बोले।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए आटो मैंगो होय, चाय नमक, खाने सो पड़हेई? मनो भैयाजी ने स्पेसल ऑफर दे के मोए सहूरी सोई बंधा दई। ऐसी सहूरी सो सरकार नई पोंचा रई।  बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(28.07.2022)
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Wednesday, July 27, 2022

संस्मरण | बाबू जी मायाराम सुरजन, पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और प्रो. कमला प्रसाद : जिनसे मिलना मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहा | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | युवाप्रवर्तक

मेरा संस्मरण प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद युवा प्रवर्तक ....
https://yuvapravartak.com/66672/

यूट्यूब युवा प्रवर्तक के साइट पर जाकर पढ़ने में अधिक आनंद आएगा किंतु यहां भी मैं अपने इस संस्मरण लेख टेक्स्ट दे रही हूं....
संस्मरण
बाबू जी मायाराम सुरजन, पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और प्रो. कमला प्रसाद : जिनसे मिलना मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहा

 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

सन् 1988 में पूर्णतया सागर में निवासरत होने से पूर्व सन् 1983 मैं व्यक्तिगत काम से पन्ना से सागर विश्वविद्यालय आई थी। वहां अर्थशास्त्र विभाग के सामने अचानक डाॅ. कमला प्रसाद जी से मुलाक़ात हो गई। इससे पहले मैं उनसे पन्ना में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में मिल चुकी थी। उन दिनों जैसे कि हर युवा कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़ा होता था, मैं भी थी। सोवियत कम्युनिज़्म और भारतीय कम्युनिज़्म पर मेरी उनसे लम्बी-चौड़ी वार्ता भी हुई थी। ज़ाहिर है कि वे भी मुझे भूले नहीं थे। मुझे देखते ही वे बोल उठे,‘‘अरे, शरद सिंह तुम यहां कहां? तुमसे तो मैं पन्ना में मिला था।’’

मैंने उनका अभिवादन किया और अपने आने का कारण बताया। 
‘‘कोई मदद करूं?’’ उन्होंने पूछा। 

मैंने कहा ‘‘नहीं’’। 

तो बोले, ‘‘अगर समय हो तो चलो फिर मैं तुम्हें एक विशेष व्यक्ति से मिलवाता हूं। मैं उन्हीं के पास जा रहा हूं।’’ डाॅ. कमला प्रसाद जी बोले।

‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा ।

...और मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह उनके साथ कार में सवार हो कर चल पड़े। मुझे अच्छी तरह याद है कि वह सफ़ेद रंग की एम्बेस्डर कार थी। किसकी थी, यह पता नहीं। कम से कम कमला प्रसाद जी की नहीं थी। यूनीवर्सिटी की पहाड़ी से उतर कर बसस्टेंड, परकोटा होते हुए, शहर की किसी गली से गुज़रते हुए एक घर के सामने रुके। उस समय मुझे सागर के मोहल्लों का नाम भी ठीक से पता नहीं था और न ही नगरीय क्षेत्र के अंदरुनी हिस्सों की जानकारी थी।

हम कार से उतरे। सीढ़ियां चढ़ कर उनके पास पहुंचे जिनसे मिलने गए थे। एक बुजुर्ग व्यक्ति सामने थे। कमला प्रसाद जी ने उनका परिचय कराते हुए कहा,‘‘ये ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी हैं। जानती हो इनके बारे में?’’

‘‘हो, मां सागर के संदर्भ में हमेशा इनका जिक्र करती हैं।’’ मैं कहा और मैंने तथा दीदी ने आगे बढ़ उनके पैर छुए।

‘‘नहीं, नहीं! बेटियां पिता के पैर नहीं छूतीं। सदा सफलता प्राप्त करो।’’ ये उद्गार थे ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी के। 

‘‘मैं आपको दादा कह कर संबोधित कर सकती हूं?’’ मैंने पूछ लिया।

‘‘अवश्य!’’ उन्होंने मुस्कुरा कर कहा।

फिर कमला प्रसाद जी और ज्वाला प्रसाद जी बातों में मशगूल हो गए। ज्वाला प्रसाद जी बीच-बीच में हम दोनों बहनों से भी कुछ न कुछ बात कर लिया करते। इसी दौरान पोहा और चाय का नाश्ता आया। ज्वाला प्रसाद जी ने पानी भरे गिलास में रखी अपनी बत्तीसी (डेंचर) निकाल कर मुंह में लगाया। इससे पहले मैंने कभी किसी को डेंचर लगाते अपनी आंखों से नहीं देखा था। अज़ीब-सी अनुभूति हुई। शयद मेरी मनोदशा ज्योतिषी दादा भांप गए। वे हंस कर बोले,‘‘मेरे ये दांत नकली हैं, इसलिए मैं इन्हें लगा कर भी अहिंसक ही हूं।’’
उनके इस कथन से उनके विनोदी स्वभाव का भी मुझे परिचय मिला। मुझे सहज होने में भी सहायता मिली। हम सभी ने पोहा खाया और चाय पी। कुछ देर और चर्चा के बाद हम लोग वहां से विदा हुए। विदा लेते समय ज्योतिषी दादा ने हम दोनों बहनों के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था,‘‘जब भी सागर आओ, जरूर मिलना और अपनी माता जी डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ को भी मेरा नमस्कार कहना।’’

चर्चा के दौरान ही पता चला था कि ज्योतिषी दादा मेरी मां को ही नहीं अपितु मेरे नाना संत श्यामचरण सिंह को भी जानते थे। मेरे नाना जी भी गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। ज्योतिषी दादा से पहली बार मिल कर ऐसा नहीं लगा था कि उनसे हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। मुझे यही लगा था कि मेरे स्वर्गीय नाना जी एक बार फिर सजीव मेरे सामने बैठे हुए हैं। यदि उन दिनों दूरभाष या मोबाईल हमारी पहुंच में होता तो मैं अकसर उनसे बात करती रहती। लेकिन वे चिट्ठी-पत्री के दिन थे। मैंने एक-दो बार उन्हें पत्र लिखा जिसका तत्परता से उन्होंने जवाब भी दिया किन्तु फिर जीवन के उतार-चढ़ाव में पत्राचार छूट गया। 

उस दिन ज्योतिषी दादा से मिलने के बाद कमला प्रसाद जी ने हमें सरकारी बसस्टेंड पहुंचा दिया था जहां से हमें पन्ना के लिए बस पकड़नी थी। उन दिनों बसस्टेंड अपनी पुरानी जगह पर था और सागर झील भी बहुत बड़ी थी।

मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई में रम गई। उन्हीं दिनों मुझे पत्रकारिता का भूत भी सवार हो गया और पढ़ाई के साथ जबलपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘‘नवीन दुनिया’’ और ‘‘ज्ञानयुग प्रभात’’ के लिए स्वतंत्र पत्रकार के रूप में रिपोर्टिंग करने लगी। दमोह से प्रकाशित होने वाले ‘‘साप्ताहिक दमोह संदेश’’ के लिए कार्डधारी रिपोर्टर का भी काम किया। ‘जनसत्ता’ और ‘रविवार’ के लिए भी रिपोर्टिंग की। तब मुझे नहीं पता पता था कि एक दिन मैं किताबें लिखूंगी और दिल्ली से पहली पुस्तक प्रकाशन की भूमिका के साक्षी बनेंगे ज्योतिषी दादा। हां, उस समय तक यह अवश्य तय होने लगा था कि मां की संवानिवृत्ति के बाद हम लोग सागर में बस जाएंगे। स्कूल शिक्षा विभाग का संभागीय कार्यालय सागर में होने के कारण तथा परीक्षा काॅपी जांचने के लिए मां को पन्ना से सागर आना-जाना पड़ता था। यहां सुश्री लक्ष्मी ताम्रकार जो महारानी लक्ष्मीबाई शा.उ.मा. विद्यालय में पीटीआई थीं, उनकी अच्छी सहेली बन गई थीं। मां को सागर बहुत पसंद आ गया था, उस पर ताम्रकार आंटी ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया और हम सन् 1988 में सागर में आ बसे। सागर आने के बाद कभी मां के साथ तो कभी दीदी के साथ मैं ज्योतिषी दादा से मिलने गई। 

सन् 1990 में, माह तो मुझे याद नहीं है लेकिन बारिश के दिन थे। रायपुर से मायाराम सुरजन जी का पत्र मिला कि वे सागर आने वाले हैं और विश्वविद्यालय के गेस्टहाउस में ठहरेंगे। दरअसल, सन् 1988 में स्थानीय मुकेश प्रिंटिंग प्रेस से मैंने अपनी पहली पुस्तक छपवाई थी। इसे छपवाने की प्रेरणा दी थी त्रिलोचन शास्त्री जी ने। यह नवगीत संग्रह था। नाम था-‘‘आंसू बूंद चुए’’। काव्य जगत ने तो मेरे पहले नवगीत संग्रह का स्वागत किया लेकिन पुस्तक की बिक्री को ले कर मेरा अनुभव आंसू बहाने वाला ही रहा। इसी दौरान मैं साक्षरता मिशन से जुड़ी और मेरी कहानियां मिशन की पत्रिका में प्रकाशित हुई। मेरे मन में विचार आया कि काश! मेरी वे कहानियां पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो जातीं। डाॅ राजमती दिवाकर जी ने मुझे सलाह दी कि शिवकुमार श्रीवास्तव जी का कई प्रकाशकों से परिचय है अतः मैं उनसे बात कर के देखूं। मैंने शिवकुमार श्रीवास्तव जी से चर्चा की। उन्होंने मुझसे पांडुलिपि मांगी। मैंने उन्हें दे दी। लगभग डेढ़ साल व्यतीत हो गए लेकिन शिवकुमार भाई साहब ने पांडुलिपियों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं की। मुझे स्पष्टवादिता हमेशा अच्छी लगती है। यदि आप से कोई काम नहीं हो सकता है तो आप स्पष्ट मना कर दें। किंतु राजनीति में दखल रखने वाले शिवकुमार भाई साहब के लिए शायद कठिन रहा होगा कि वे स्पष्ट मना कर दें। 

उन्हीं दिनों ‘‘देशबंधु’’ समाचारपत्र ने प्रकाशन संस्थान आरम्भ किया था जिसके तहत वे पुस्तकें प्रकाशित करने वाले थे। मैंने मायाराम सुरजन जी को पत्र लिखा कि मैं अपनी साक्षरता विषयक कहानियों का संग्रह प्रकाशित करना चाहती हूं। उसी तारतम्य में उन्होंने मुझे पत्र लिख कर अपने सागर आने के कार्यक्रम के बारे में सूचित किया था।
उन दिनों हम लोग नरसिंहपुर रोड स्थित मध्यप्रदेश विद्युत मंडल की आवासीय काॅलोनी में रहते थे। वहां से मकरोनिया चौराहा काफी दूर था और उस ओर ऑटो भी नहीं मिल पाती थी। हमारे पास दूरभाष का कोई साधन नहीं था। अतः गेस्टहाउस पहुंचने से पूर्व हम लोग (मैं और वर्षा दीदी) सुरजन दादा से बात भी नहीं कर सके। उन्होंने सुबह दस बजे तक गेस्टहाउस में मिलने का समय चिट्ठी में लिखा था। साधन के अभाव में हमें वहां पहुंचने में तनिक देर हो गई। वहां पहुंच कर पता चला कि बाबू जी (मायाराम सुरजन जी) अभी-अभी ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी से मिलने उनके घर के लिए निकल गए हैं। पल भर को हताशा तो हुई किंतु फिर हमने तत्काल गेस्टहाउस से निकल कर ऑटो की और ज्योतिषी दादा के घर जा पहुंचे। बाबू जी भी वहां मिल गए। 

‘‘अरे, तुम लोगों की प्रतीक्षा करते-करते मैं निकल आया।’’ बाबू जी ने कहा। फिर उन्होंने बताया कि साक्षरता विषय किताबें प्रकाशित करना अभी देशबंधु प्रकाशन की योजना में शामिल नहीं है लेकिन वे दिल्ली के किसी प्रकाशक से इस बारे में बात कर सकते हैं। अंधा क्या चाहे, दो आंखे। मैं खुश हो गई उनकी बात सुन कर। लेकिन उन्होंने जब पांडुलिपि मांगी तो मैंने उन्हें सारा किस्सा सुना दिया कि लगभग डेढ़-दो साल से मेरी पांडुलिपियां शिवकुमार भाई साहब के पास रखी हैं।

‘‘शिवकुमार से वापस ले लो। वह नहीं छपाएगा।’’ ज्योतिषी दादा ने मेरी बात सुनते ही कहा। बाबू जी ने भी उनकी बात का समर्थन करते हुए मुझे सलाह दी कि मैं शिवकुमार भाई साहब से अपनी पांडुलिपियां वापस ले कर डाक द्वारा उनके पास रायपुर भेज दूं। 

‘‘मुझसे पूछा होता तो मैं पहले ही कहता कि शिवकुमार को पांडुलिपियां मत दो।’’ ज्योतिषी दादा ने पुनः मुझसे कहा। मुझे उस समय यह पछतावा हुआ कि मैंने ज्योतिषी दादा से इस बारे में पहले ही सलाह क्यों नहीं ली। 

दूसरे ही दिन मैंने शिवकुमार श्रीवास्तव भाई साहब से अपनी पांडुलिपियां वापस मांग ली। उन्होंने ने भी इस भाव से वापस कीं मानों उन्हें मेरे द्वारा वापस मांगे जाने की ही प्रतीक्षा थी। लेकिन जैसे कहा जाता है न कि हर अवरोध के बाद एक नया रास्ता खुलता है। इस बार अवरोधक नहीं, मार्गदर्शक मुझे मिले थे। ज्योतिषी दादा ने मेरी कहानियों को पढ़ा था। उन्हें वे पसंद आई थीं। अतः उन्होंने भी मायाराम सुरजन बाबू जी के निर्णय का समर्थन किया था। वे उन लोगों में से नहीं थे कि मुंह के सामने तारफ़ करें और पीठ पीछे कटाई करें। वे सभी का भला चाहने और सभी का भला करने वाले व्यक्ति थे। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर दावे से कह सकती हूं। आज ऐसे लोगों की अनुपस्थिति बहुत खटकती है। सामाजिक वातावरण में गिरावट की एक वजह यह भी है कि आज  ज्योतिषी दादा जैसे सरल स्वभाव, युवाओं के पथप्रदर्शक एवं परोपकारी व्यक्तियों की कमी हो चली है। 

बहरहाल, मैंने अपनी पांडुलिपियां सुरजन दादा के पास भेज दीं। कुछ समय बाद सीधे दिल्ली से सामयिक प्रकाशन के मालिक जगदीश भारद्वाज जी का पत्र मेरे पास आया जिसमें उन्होंने मेरी साक्षरता विषयक कहानियों की किताबें छापना स्वीकृति दी थी। दरअसल मायाराम सुरजन बाबू जी ने मेरी पांडुलिपियां जगदीश भारद्वाज जी के पास दिल्ली भेज दी थीं। सन् 1993 में एक साथ दो किताबें प्रकाशित हुईं- ‘‘बधाई की चिट्ठी’’ और ‘‘बेटी-बेटा एक समान’’। उस समय मैंने दो ही लोगों को सबसे पहले अपनी किताबें दिखाई थीं। सबसे पहले ज्योतिषी दादा को और उसके बाद कपिल बैसाखिया जी को जिन्होंने मित्रवत सदा मेरा भला चाहा।

अच्छे लोगों के हाथों अच्छे भविष्य की नींव रखी जाती है, यह कहावत मेरे जीवन में चरितार्थ होती मैंने स्वयं अनुभव की है। उस समय मुझे पता नहीं था कि एक दिन सामयिक प्रकाशन मेरी ‘‘सिग्नेचर उपन्यासों’’ का प्रकाशक बनेगा। या वाणी प्रकाशन, साहित्य अकादमी, नेशनलबुक ट्रस्ट आदि से मेरी पुस्तकें प्रकाशित होंगी।

 मायाराम सुरजन बाबू जी ने जो मार्ग प्रशस्त किया मानो उसका शिलान्यास स्वयं ज्योतिषी दादा ने किया था। बड़ों का आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता है। मैं वे दोनों किताबें ले कर ज्योतिषी दादा के पास गई। उन दिनों वे अस्वस्थ चल रहे थे। किन्तु मेरी किताबें देख कर वे बहुत खुश हुए। उस समय उन्होंने मुझे जो आशीर्वाद दिया वह मेरे लिए पथ प्रदर्शक की तरह है। उन्होंने कहा था-‘‘अब इस यात्रा को जारी रखना और पीछे मुड़ कर कभी मत देखना।’’

दादा ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी, मायाराम सुरजन बाबू जी और कमला प्रसाद जी भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उन तीनों का आर्शीवाद सदा अपने साथ महसूस करती हूं जिससे मुझे हमेशा आत्मिक संबल मिलता है। 
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सागर, मध्यप्रदेश

चर्चा प्लस | पुण्यतिथि | डाॅ. एपीजे अब्दुल क़लाम : अख़बार बेचनेवाला लड़का जो राष्ट्रपति बना | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | पुण्यतिथि :
डाॅ. एपीजे अब्दुल क़लाम : अख़बार बेचनेवाला लड़का जो  राष्ट्रपति बना
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           ‘‘यदि आप चाहते हैं कि आपके सपने सच हों तो इसके लिए आपको सबसे पहले सपने देखने होंगे।’’ यही तो कहा था ‘मिसाइल मैन’ के नाम से विख्यात वैज्ञानिक, पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम ने। उन्होंने यह सिर्फ़ कहा नहीं बल्कि इसे अपने स्वयं के जीवन पर चरितार्थ कर के दिखाया। तभी तो अखबार बेचने वाला एक हाॅकर लड़का एक दिन भारत के लिए मिसाइल बना सका और उसने राष्ट्रपति बन कर देश का गौरव बढ़ाया। यह लड़का और कोई नहीं स्वयं डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम थे।
हमारा देश एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है जहां सब कुछ संभव है। इस देश में चाय बेचने वाला एक लड़का बड़ा हो कर प्रधानमंत्री बन सकता है, आदिवासी जीवन के रूप में मुख्यधारा से कट कर जीवन जीने को विवश बालिका राष्ट्रपति बन सकती है, इसी प्रकार अपने स्कूल की फीस भरने के लिए अख़बार बेचने वाला एक लड़का पहले उच्चकोटि का वैज्ञानिक और फिर देश राष्ट्रपति बन सकता है।इन तीनों उदाहरणों में दो स्थितियां एक समान हैं- एक तो संघर्षमय अतिसामान्य जीवन से शुरुआत और दूसरी दृढ़ इच्छाशक्ति। हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम एक ऐसे ही व्यक्तित्व थे जिन्होंने ज़मीन से आरम्भ किया और आसमान तक जा पहुंचे। देश के 11वें राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने भारत को सशक्त बनाने का सपना देखा और उस सपने को पूरा करने के लिए देश में ही मिसाइल निर्माण की शुरुआत की। इसीलिए उन्हें ‘‘मिसाईल मैन’’ भी कहा जाता है।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पिता जैनुलाब्दीन नाविक थे। वह पढ़े-लिखे नहीं थे, न ही ज्यादा पैसे वाले थे। लेकिन वह नियम के बहुत पक्के थे। वह मछुआरों को नाव किराए पर दिया करते थे। डॉ. कलाम ने अपनी शुरुआती शिक्षा जारी रखने के लिए हाॅकर के रूप में अखबार बांटने काम किया था। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का पूरा नाम अवुल पकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम था। उनका जन्म 15 अक्तूबर, 1931 को तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम् जिले के धनुषकोड़ी गांव में हुआ था। कलाम एक बहुत बड़े परिवार के सदस्य थे, जिसमें पांच भाई और पांच बहन थी। कलाम ने अपनी आरम्भिक शिक्षा रामेश्वरम् में पूरी की, सेंट जोसेफ कॉलेज से ग्रेजुएशन की डिग्री ली। वे पायलेट बनना चाहते थे किन्तु किन्हीं कारणवश वे अपनी यह इच्छा पूरी नहीं कर सके। तब उन्होंने अपनी इच्छा के मार्ग को दूसरी ओर मोड़ दिया लेकिन यह मार्ग भी उन्हें आसमान की ओर ले जाता था। उन्होंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की।
डाॅ. कलाम बेहद सादगी से जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। अनुशासन में रहना और दैनिक रूप से पढ़ना इनकी दिनचर्या में था। अपने गुरु से उन्होंने सीखा था कि यदि आप किसी भी चीज को पाना चाहते है तो अपनी इच्छा तीव्र रखनी होगी। डाॅ. कलाम विलासिता और दिखावे से दूर रहते थे। एक बार राष्ट्रपति भवन में उनके परिजन रहने के लिए आए, जहां उनका स्वागत उन्होंने बहुत अच्छे से किया। परिजन 9 दिन तक राष्ट्रपति भवन में रहे, जिसका खर्च साढ़े तीन लाख रुपए हुआ। यह बिल उन्होंने अपनी जेब से भरा।
सन् 1962 में वे अंतरिक्ष विभाग से जुड़ गए जहां उन्हें विक्रम साराभाई, सतीश धवन और ब्रह्म प्रकाश जैसे महान हस्तियों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। 1980 में पूर्ण रूप से भारत में निर्मित उपग्रह रोहिणी का प्रक्षेपण किया, जो सफल रहा। अब्दुल कलाम विभिन्न सरकारों में विज्ञान सलाहकार और रक्षा सलाहकार के पद पर रहे। डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन में रहते हुए इन्होंने ‘पृथ्वी’ और ‘अग्नि’ जैसी मिसाइल का निर्माण कराया। उन्होंने राजस्थान में हुए दूसरे परमाणु परीक्षण (शक्ति-2) को सफल बनाया।
डाॅ. कलाम बच्चों से बहुत प्रेम करते थे और वे बच्चों को जीवन में विज्ञान के महत्व के बारे में समझाया करते थे। वे कहते थे कि -‘‘विज्ञान जब विशेष ज्ञान है तो हमें उसकी विशेषताओं को समझना चाहिए और उससे लाभ उठाना चाहिए।’’
जब सन् 2002 में उन्होंने राष्ट्रपति पद का भार ग्रहण किया उसके बाद भी राष्ट्रपति-भवन के दरवाज़े सदा आमजन के लिए खुले रहे। युवा और बच्चे उन्हें पत्र लिख कर उनसे जीवन और विज्ञान संबंधी प्रश्न पूछा करते थे। उन पत्रों का जबाव वे स्वयं अपने हाथों से लिखकर देते थे।
डाॅ. कलाम अविवाहित थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन देशसेवा को समर्पित कर दिया था। उनका जीवन एक महानायक की तरह था। उन्होंने 30 से अधिक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘‘विंग्स ऑफ फायर’’, ‘‘इंडिया 2020’’, ‘‘इग्नाइटेड मांइड’’, ‘‘माय जर्नी’’ बहुचर्चित और प्रेरक रहीं। अब्दुल कलाम को 48 यूनिवर्सिटी और इंस्टीट्यूशन द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई थी। डाॅ. अब्दुल कलाम ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ की विचारधरा को मानते थे। वे मानते थे कि यह धरती ही एक मात्र उपग्रह है, जहां जीवन संभव है। मानव जाति को इसकी रक्षा और संरक्षण का दायित्व निभाना ही होगा। हमारा समाज और हमारी शासन प्रणाली अब पहले से कहीं अधिक संजीदा है क्योंकि मामूली सी देरी से भी अपूर्णीय क्षति हो सकती है। भारत रत्न डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम प्रकृति के संरक्षण के प्रति सजग थे। वे इसे पृथ्वी के सुरक्षित भविष्य के जिए जरूरी मानते थे।  27 जुलाई, 2015 को शिलांग में, भारतीय प्रबंधन संस्थान में ‘क्रिएटिंग ए लिवेबल प्लैनेट अर्थ’ (पृथ्वी को रहने योग्य ग्रह बनाना) विषय पर अपने व्याख्यान में उन्होंने विकास की जद्दोजहद में पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को हो रहे नुक्सान के प्रति आगाह किया था। उन्होंने प्रकृति को बचाने के लिए भावी कार्ययोजना की रूपरेखा भी सामने रखी थी। डा. कलाम ने सबसे पहले 2 नवम्बर, 2012 को चीन में में भी अपने व्याख्यान के द्वारा इस ओर ध्यानाकर्षण किया था कि धरती को रहने योग्य बनाए रखना कितना जरूरी है।  उन्होंने कहा था कि मानव जाति को अपने सभी संघर्षों को परे धकेल कर पूरी दुनिया के नागरिकों के लिए शांति और खुशहाली का सांझा लक्ष्य रखना होगा। हमें एक रमणीक पृथ्वी के लिए वैश्विक दृष्टि विकसित करनी होगी। मानव जाति के लिए इससे अधिक कल्याणकारी कुछ नहीं हो सकता। वर्ष 1996 में डॉक्टर कलाम टेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन, फोरकास्टिंग एंड एसेसमेंट काउंसिल (टिफैक) के अध्यक्ष थे और 1996-97 में उन्हीं की अध्यक्षता में ‘‘विजन 2020’’ डॉक्यूमेंट तैयार किया गया था। इसी के आधार पर संगठन ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया था कि साल 2020 तक भारत को क्या हुछ हासिल करने का लक्ष्य रखना चाहिए। डॉ. कलाम ने सरकार को सलाह दी थी कि देश के विकास के तकनीक, विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्र में सरकार को क्या करना चाहिए और इसमें आम नागरिक को क्या भूमिका निभानी चाहिए। इस किताब पर काम करने के लिए डॉ. अब्दुल कलाम और उनके सहयोगी वाईएस राजन ने दर्जनों जानकारों के इंटरव्यू किए और लाखों पन्नों के दस्तावेज पढ़े. ये किताब ‘‘इंडिया 2020: ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम’’ नाम से प्रकाशित हुई थी।
यूं तो ‘टिफैक’ की रिपोर्ट विज्ञान और तकनीक पर केंद्रित थी, लेकिन डाॅ. कलाम ने इसमें जोर दे कर कहा है कि विकास की राह में समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए। वे बुनियादी बातों से विकास की चर्चा शुरू करने में विश्वास रखते थे। डॉ. कलाम के अनुसार, ‘‘भारत में हर साल दो करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं। इस सभी बच्चों का क्या भविष्य होगा? जीवन में उनका लक्ष्य क्या होगा? क्या हमें उनके भविष्य के लिए कुछ कदम उठाने चाहिए या फिर हमें उन्हें उनके नसीब के सहारे छोड़ अभिजात्य वर्ग के फायदे के लिए ही काम करना चाहिए?’’
 डॉ. कलाम ने इसमें सवाल उठाया था कि - ‘‘बाजार में मांग के अनुसार स्ट्रेटेजी, और कंपीटीशन का दौर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए क्या हम उन्हें उनके हाल पर छोड़ देंगे या फिर आने वाले दो दशकों में उनके लिए कुछ खास योजना तैयार करेंगे।’’ साल 1998 में लिखी गई इस किताब में डॉक्टर अब्दुल कलाम कहा कि- ‘‘सैंकड़ों एक्सपर्ट से बात कर के और कई रिपोर्टें पढ़ने के बाद मैं ये समझ पाया हूं कि हमारा देश साल 2020 तक विकसित देशों की सूची में शामिल हो सकता है।’’ उन्होंनेे कहा था कि, ‘‘तब भारत के लोग गरीब नहीं रहेंगे, वो लोग तरक्की के लिए अधिक कुशलता से काम करेंगे और हमारी शिक्षा व्यवस्था भी और बेहतर होगी। ये सपना नहीं बल्कि हम सभी लोगों के लिए एक लक्ष्य होना चाहिए।’’
डॉ. कलाम का कहना था कि देश के लक्ष्य हासिल करने के बाद रुकना नहीं चाहिए बल्कि और बेहतरी के लिए सतत प्रयास करते रहना चाहिए। उनका कहना था, ‘‘हमेशा के लिए हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि कैसे हम लोगों की जिंदगियों को बेहतर बनाने की कोशिश करते रहें. वो केवल युवा हैं जिनमें ज्ञान और कौशल तो है ही। साथ ही कुछ हासिल करने का जज््बा भी है, उन्हें आगे नए लक्ष्यों की तरफ बढ़ना चाहिए। देश उस मुकाम तक पहुंचे इसके लिए हमें एक दूसरे की मदद करनी होगी और लक्ष्य के रास्ते से बिना डगमगाए हमें ये सुनिश्चित करना होगा ताकि बदलाव का असर हर व्यक्ति तक पहुंचे।’’
वे युवाओं से कहते थे कि ‘‘ये कभी मत सोचो कि आप अकेले अपने देश के लिए कुछ नहीं कर सकते, आप जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हों आप अपनी योग्यता बढ़ाएं। सभी के प्रयासों से ही भारत विकसित देश बन सकता है।’’
27 जुलाई 2015 को ‘‘अग्नि मिसाइल’’ को उड़ान देने वाले मशहूर वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे विलक्षण व्यक्तित्व ने इस नश्वर संसार से विदा ले ली। शिलांग आईआईएम में लेक्चर देते हुए उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया, किन्तु तब तक देर हो चुकी थी। 83 वर्ष की आयु में डाॅ. कलाम ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं किन्तु देश को भविष्य के सपनों का रास्ता दिखा गए। डाॅ. अब्दुल कलाम उन चुनिंदा लोगों में से रहे हैं जिन्हें सभी सर्वोच्च पुरस्कार मिले। सन् 1981 में पद्म भूषण, 1990 में पद्म विभूषण, 1997 में भारत रत्न से उन्हें सम्मानित किया गया था। वे एक सच्चे पथ-प्रदर्शक थे।
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Tuesday, July 26, 2022

पुस्तक समीक्षा | ‘‘पांचवां स्तम्भ’’ : रिपोर्टिंग व्यंग्यों की पैनीधार और नवाचार | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 26.07.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा के  व्यंग्य संग्रह  "पांचवां स्तम्भ" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘‘पांचवां स्तम्भ’’ : रिपोर्टिंग व्यंग्यों की पैनीधार और नवाचार
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह     -  पांचवां स्तम्भ
लेखक         -  जयजीत ज्योति अकलेचा
प्रकाशक        -  मेंड्रेेक पब्लिकेशंस, ए-6, बीडीए काॅलोनी, कोहेफ़िज़ा, भोपाल, म.प्र. -462001
मूल्य           -  199/-  
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साहित्य जगत में यह बात पिछले कुछ अरसे से चिंता का विषय रही है कि हिन्दी व्यंग्य की धार भोथरी हो चली है अर्थात शरद जोशी या हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों जैसी मारक क्षमता गुम होती जा रही है। आज का अमूमन व्यंग्यकार बच-बच कर चलना चाहता है यानी व्यंग्यकार व्यंग तो करना चाहता है लेकिन खुलकर कहने से बचता भी है। बहुत कम व्यंग्यकार ऐसे हैं जो खुल कर तंज़ करने का साहस करते हैं। लेकिन हाल ही में प्रकाशित हुए ‘‘पांचवा स्तम्भ’’ ने एक झटके से इस निराशा को दूर कर दिया है। यह व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा का प्रथम व्यंग संग्रह है। आज व्यंग्य में जिस धार, जिस पैनेपन की जरूरत है उसे जयजीत के इस व्यंग्य संग्रह में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह समूचा संग्रह व्यंग्य की तपिश भरी फुहारों से सराबोर है जिसका आगाज़ आभार के पृष्ठ से ही हो जाता है। फिर एक के बाद एक हर व्यंग्य विचारों को आंदोलित करता जाता है।
जयजीत ज्योति अकलेचा इब्ने इंसा के इस मशहूर कथन से अपने संग्रह की शुरूआत करते हैं कि ‘‘हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है। वैसे तो आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है।’’ इब्ने इंसा के इस कथन के जरिए जयजीत व्यंग्य कला की दशा-दिशा पर ज़ोरदार पहली थाप देते हैं। फिर अनुक्रम की औपचारिकता के बाद धमाका होता है ‘‘आभार एवं अपने मन की बात’’ का। एक बानगी आभार की -‘‘सबसे पहले तो आभार उन नेताओं का जिनकी वज़ह से इस धरती के कण-कण में विडंबनाओं के दर्शन इतने सुलभ हो जाते हैं कि एक आम लेखक भी व्यंग्यकार होने के आत्मगौरव से भर उठता है।’’ लेखक ने अफ़सरों और आमजनता का भी आभार माना है, जिसको स्वयं पढ़ने का अपना ही आनंद है।
ग़ज़ब का चुटीलापन है हर वाक्य में। कोई बनावट नहीं, कोई कलाकारी नहीं, आम बोलचाल की भाषा में आमजन के मन की बात। लेकिन आमजन को भी नहीं छोड़ा है लेखक ने। वे आमजन की कमियों और भीरुता की ओर तर्जनी उठाने से नहीं चूकते हैं। इस संग्रह के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी शैली। जयजीत ने अपने व्यंग्यों को रिर्पोंटिंग शैली में लिखा है। किसी भी विषय को खांटी पत्रकारिता की खुरदरी भावहीन ज़मीन से उठ कर रसात्मक व्यंग्यों में ढाल देना व्यंग्यकार जयजीत के लिए मानो बांए हाथ का खेल है। लेखक की इसी महारत पर टिप्पणी करते हुए आलोक पुराणिक ने लिखा है (जो कि पुस्तक के पिछले बाहरी पृष्ठ पर प्रकाशित है) कि ‘‘जयजीत अकलेचा उन बहुत कम व्यंग्यकारों में हैं, जिनके पास व्यंग्य के नए प्रयोगों की क्षमता, साहस और विवेक सब है। पांचवां स्तम्भ में जयजीत जो कुछ रचते हैं, उसका एक सिरा पत्रकारिता से तो दूसरा सिरा साहित्य से जुड़ता है।’’ आलोक पुराणिक ने जयजीत के इस तेवर को ‘‘नए प्रयोगों का साहस’’ कहा है।
‘‘पांचवां स्तम्भ’’ के समूचे व्यंग्य तीन भागों में विभक्त हैं- रिपोर्टिंग आधारित व्यंग्य, इंटरव्यूज़ आधारित व्यंग्य और सूत्र आधारित कुछ ख़बरी किस्से।  रिपोर्टिंग आधारित व्यंग्यों में ‘‘ख़बरदार! यहां डरना मना है’’, ‘‘सत्य उर्फ़ एलियन से सीधी भिडंत’’, ‘‘एक डंडे का फ़ासला’’, ‘‘काबुलीवाले के चंद सवाल’’, ‘‘निठल्ली संसद और बापू’’, ‘‘नो वन किल्ड कोविड पेशेंट’’ आदि जैसे अतिसंवदेनशील और तीखे व्यंग्य हैं। आमजन कदम-कदम पर डरता रहता है। उसके दिल में इतने गहरे तक डर समाया हुआ है कि वह उस डर से अब बाहर आना ही नहीं चाहता है। जब कोई नेता अपना बुलेटप्रुफ हटवा कर आतंकी जगह से गुजरते हुए कहता है कि यहां डरने की जरूरत नहीं है तो क्या सचमुच वह आत्मघाती निडरता का परिचय दे रहा होता है? क्या प्रशासनिक सुरक्षा व्यवस्था की अदृश्य दीवार उसके चारों ओर खड़ी नहीं रहती है? यह ऐसा प्रश्न है जो आमजन और उसके भीतर बैठे डर को व्याख्यायित करता है। सत्य आज फ़ालतू-सी ग़ैरज़रूरी वस्तु बन गया है और इसीलिए उसे किसी न किसी दांवपेंच के ज़रिए कूड़ादान में पहुंचा दिया जाता है। इसलिए लेखक को रिपोर्टिंग करते समय सत्य कूड़ादान में छिप कर समय बिताता मिलता है, किसी एलियन की तरह। ‘‘सत्य उर्फ़ एलियन से सीधी भिड़ंत’’ आज के समय में सत्य की इसी दुरावस्था से परिचित कराता है। ‘‘एक डंडे का फ़ासला’’ ज़बर्दस्त कटाक्ष है। व्यंग्यकार जयजीत ने जनतंत्र के बारे में लिखा है कि यूं तो जन और तंत्र हमेशा साथ रहते हैं लेकिन ‘‘जन और तंत्र के बीच एक बहुत बड़ा डैश है। सरकारी स्कूलों का मास्टर उसे समझाने के लिए डंडा कहता है। यही डंडा तंत्र के पास है, जन के पास नहीं। इसीलिए दोनों साथ-साथ रहते हुए भी साथ नहीं हैं। एक डंडे का फ़ासला है दोनों के बीच।’’ इस तरह जनतांत्रिक व्यवस्था में जन पर अव्यवस्थाओं एवं भ्रष्टाचार के बोलबाले पर गहरी चोट की है लेखक ने।
‘‘काबुलीवाले के चंद सवाल’’ अफ़गानिस्तान पर तालिबानों के कब्ज़े के संबंध में दुनियाभर के देशों के रवैये के साथ ही संयुक्तराष्ट्र संघ के रवैए का भी पर्दाफाश करता है। वहीं, ‘‘नो वन किल्ड कोविड पेशेंट’’ एक ऐसा व्यंग्य है जो मौत की बिसात पर राजनीति की घिनौनी बाज़ियों को अपने निशाने पर रखता है। मुद्दा है कि सरकार ने बयान ज़ारी किया था कि आॅक्सीजन के अभाव से एक भी कोरोना पेशेंट नहीं मरा। जिनकी मौत हुई, वे रेमडीसीवर इंजेक्शन न मिल पाने के कारण मरे। व्यंग्यकार जयजीत इस पर कटाक्ष करते हैं कि ‘‘सरकार ने संसद में बताया कि कोरोना की दूसरी लहर में कोई भी व्यक्ति आॅक्सीजन की कमी से नहीं मरा। मतलब? सरकार की मानें तो आज आॅक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा, कल इंजेक्शन की कमी से कोई नहीं मरेगा...। तो स्साला आदमी मरेगा कैसे? इस व्यंग्य के पीछे बस यही चिंता निहित थी।’’
‘‘इंटरव्यूज़’’ के खंड में रखे गए व्यंग्यों के बारे में शृरू में ही लिखा गया है कि ‘‘कुरेद-कुरेद कर व्यंग्य निकालने की क़वायद वैसे ही जैसे रिपोर्टर अपने हर इंटरव्यू में ब्रेकिंग न्यूज़ की जुगाड़ लगाने की कोशिश करता है।’’ ज़ाहिर है कि इसके बाद जो व्यंग्य मिलेंगे उनमें हर तरह के विषयों का तड़का मिलेगा। इस खंड के व्यंग्यों की शुरुआत होती है इंटरव्यू ‘‘बुलडोज़र महाराज से’’। इसमें रिपोर्टर बुलडोज़र से पूछता है कि वह ग़रीबों का घर ही क्यों गिराता है, अमीरों का घर क्यों नहीं? और बुलडोज़र कुशल राजनीतिज्ञ की भांति कहता है-‘‘नो काॅमेंट!’’
एक इंटरव्यू है ‘‘नीरो की ऐतिहासिक बंसी से’’। बेहद रोचक और उतना ही प्रहारक। इस खंड में सबसे दिलचस्प दो इंटरव्यूज़ हैं जिन्हें हर कांग्रेसी को पढ़ना चाहिए और आत्मावलोकन करना चाहिए। यदि कांग्रेसी इन व्यंग्यों को पढ़ लें तो उन्हें किसी चिंतन-शिविर में जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पहला व्यंग्य है-‘‘इंटरव्यू...कांग्रेस से (पहली मुलाक़ात)’’। रिपोर्टर दिल्ली में 24 अकबर रोड पर टहलने निकल गया। वहां उसे अचानक एक भूतनुमा बुढ़िया दिखाई दी। रिपोर्टर ने उससे बातचीत शुरू की-‘‘जी, मैं रिपोर्टर...मैं भी सालों बाद इस खंडहर इमारत के सामने से गुज़र रहा था तो आप दिख गईं। पहले तो मैं डर गया कि आप कोई भूत-वूत तो नहीं। फिर आपके पैरों से कंफर्म किया कि आप भूत ना हैं। पर आप हैं कौन?’’
चर्चा आगे चलती है और वह बुढ़िया रिपोर्टर को बताती है कि ‘‘बेटा, अब मैं क्या परिचय दूं? परिचय के लिए कुछ बचा ही नहीं। फिर भी बता देती हूं, मैं कांग्रेस हूं...135 साल की बुढ़िया। इसलिए मैं खुद को भूत कह रही थी, अतीतवाला भूत।’’
इसी तरह धांसू है ‘‘इंटरव्यू ... कांग्रेस से (दूसरी मुलाक़ात)’’। जब रिपोर्टर एक राज्य में कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं की आपसी लड़ाई बारे में ‘‘कांग्रेस अम्मा’’ से चर्चा करता है तो वह कहती है कि ‘‘लड़ रहे हैं, यह क्या कम है? कांग्रेसियों को लड़ते हुए देखे तो जमाना हो गया।’’ लेखक ने यहां कांग्रेस की वर्तमान दशा पर कटाक्ष करते हुए एक मजबूत, दमदार विपक्ष की चाहत अप्रत्यक्ष रूप से रखी है जोकि लोकतांत्रिक प्रणाली को बनाए रखने के लिए बेहद ज़रूरी है।
संग्रह का तीसरा खंड ‘‘सूत्र आधारित कुछ ख़बरी किस्से’’। इसके आरंभ में ही लेखक की टीप है-‘‘सब के सब झूठे, जैसे अमूमन होते हैं... पर व्यंग्य सच्चा, जैसा कि इस किताब में दावा किया गया है।’’ इस हिस्से के कुछ व्यंग्यों के शीर्षक देखिए जिनसे इनकी वज़नदारी का अंदाज़ा हो जाएगा-‘‘जब अर्णब ने अपने पैनलिस्ट के लिए शुरू की ईएमआई स्कीम’’, ‘‘जब मुलायम ने रख दी थी इतनी कठोर शर्त, खुद भी पास नहीं हो पाए थे’’, ‘‘जब बेशर्म रोड ने पांच बार की बारिश के बाद भी उखड़ने से कर दिया मना’’,‘‘जब चीन ने भारत से मांगे थे केवल और केवल 1000 नेता’’ आदि और भी छोटे-छोटे व्यंग्य लेख इस खंड में हैं जो इस दोहा-पंक्ति को चरितार्थ करते हें कि -‘‘ देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’।
पत्रकारिता जगत के जयजीत ज्योति अकलेचा ने अपना प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘‘पांचवा स्तम्भ’’ के साथ हिन्दी साहित्य जगत में रिपोर्टिंग व्यंग्य के नवाचार को ले कर जिस तरह धमाकेदार प्रवेश किया है वह दूर तरह गहरा असर डालेगा। व्यंग्यों में सहज सम्प्रेषणीयता, भाषा का प्रवाह है ओर विषय की ताज़गी विचारों को झकझोरने में समर्थ है। जयजीत के व्यंग्य ठीक वैसे ही हैं जैसा कि पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था-‘‘व्यंग्य वह है, जहां अधरोष्ठों में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बनाना हो जाता है।’’ यानी हर मानक पर खरे हैं ये व्यंग्य। लिहाज़ा यह व्यंग्य संग्रह निश्चित रूप से पढ़े जाने योग्य और मनन किए जाने योग्य है।
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Sunday, July 24, 2022

My new book "Climate Change : We Can Slow The Speed" is published - Dr (Ms) Sharad Singh

A good news... My new book "Climate Change : We Can Slow The Speed" is published by Shivna Prakashan... Sharing the cover here....
 Thank you #shivnaprakshan

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संस्मरण | पढ़ाई का भंवरजाल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

संस्मरण
पढ़ाई का भंवरजाल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
       बचपन से ही मैं पढ़ाई में अच्छी रही। फिर भी समूचे स्कूली जीवनकाल में  पांच बार मुझे सज़ा मिली, वह भी मात्र दो विषयों में। उस जमाने में जब मुझे सज़ा मिली थी, तब भी मुझे लगा था कि मुझे ग़लत सज़ा दी जा रही है और आज मैं जब उन घटनाओं के बारे में सोचती हूं तो मुझे और अधिक विश्वास हो जाता है कि मुझे ग़लत सज़ा दी गई थी।  उन सज़ाओं के पीछे दोष मेरा नहीं बल्कि एक मामले में शिक्षक की शिक्षण शैली का दोष था तो दूसरे मामले में शिक्षक की धन-लिप्सा का दोष था। 
चलिए विस्तार से बताती हूं। बात उन दिनों की है, जब मैं आठवीं कक्षा की छात्रा थी। उन दिनों आठवीं कक्षा तक संस्कृत एक अनिवार्य विषय के रूप में था। संस्कृत की मेरी जो शिक्षिका थीं वे महाराष्ट्रीयन थीं। संस्कृत पर उनकी बड़ी अच्छी पकड़ थी। मां उनकी बहुत तारीफ करती थीं। लेकिन उनकी शिक्षण शैली बहुत भयानक थी। किसी भी भाषा को कभी रट कर नहीं सीखा जा सकता है। लेकिन वे संस्कृत के श्लोक रट कर आने को कहती थीं, साथ ही रूप, धातु आदि भी रटने का होमवर्क दिया करती थी। यानी रामौ, रामा, रामाभ्याम.. हमें रट कर स्कूल पहुंचना पड़ता था। फिर जब मेडम कक्षा में आतीं तो एक-एक छात्रा को खड़ी कर के उनसे रूप, धातु आदि सुनाने को कहतीं। जिन छात्राओं की स्मरण शक्ति तेज थी, वे धाराप्रवाह सब कुछ सुना दिया करती थीं लेकिन मेरी जैसी छात्राएं जो किसी भी विषय को बिना समझे याद रख पाने में कच्ची थीं, गड़बड़ा जातीं। जो भी रूप और धातु सुनाने में अटक जाता उसको  खड़े रहने की सज़ा मिलती। मैं भी सुनाते-सुनाते भूल जाती थी लिहाज़ा मुझे भी कुल 4 बार सज़ा भुगतनी पड़ी। यह मेरे लिए दुखद था। क्योंकि मेरी समस्या सज़ा पाकर ख़त्म हो जाने वाली नहीं थी। मैं उसी स्कूल में पढ़ रही थी, जहां मां व्याख्याता थीं। संस्कृत वाली टीचर मुझे तो सज़ा देतीं ही और कक्षा के बाद जाकर मां से शिक़ायत कर देती थीं कि - आपकी लड़की का मन नहीं लगता है पढ़ने में। आज भी वह धातु याद करके नहीं आई, आदि-आदि। सो, मुझे कक्षा में तो सज़ा मिलती ही, साथ ही घर में भी डांट खाने की नौबत आ जाती।
      इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मुझे संस्कृत भाषा से चिढ़ होने लगी और मैं इस बात की प्रतीक्षा करने लगी कि कब आठवीं कक्षा पास कर लूं और इस संस्कृत भाषा से मेरा पीछा छूट जाए। नौवीं कक्षा से संस्कृत और अंग्रेजी दो  ऐच्छिक (ऑप्शनल) विषय थे, इनमें से कोई भी एक चुना जा सकता था। ज़ाहिर है कि नौवीं कक्षा में पहुंचते ही मैंने संस्कृत को अलविदा कह दिया। इसके कई वर्षों बाद जब मैं प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व  विषय में एम.ए. कर रही थी तब मुझे पालि और संस्कृत भाषाओं के प्राचीन लेखों को पढ़ने की आवश्यकता पड़ी। तब मैंने संस्कृत के व्याकरण को समझने का प्रयास किया। मुझे महसूस हुआ कि यह भाषा न तो बहुत कठिन है और न भयानक है जैसी कि मुझे स्कूल के जमाने में लगी थी। यदि इसके  व्याकरण को उस जमाने में समझा-समझा कर पढ़ाया गया होता तो मुझे संस्कृत से पहले ही प्रेम हो गया होता। यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मैं आज संस्कृत में पारंगत हो गई हूं लेकिन आज मेरे मन में संस्कृत के प्रति चिढ़ नहीं बल्कि बहुत सम्मान है।
      स्कूल में सज़ा पाने की दूसरी घटना है उस समय की, जब मैं अपने मामा जी कमल सिंह चौहान के पास तत्कालीन शहडोल जिले के कोल माइंस एरिया बिजुरी के सरकारी स्कूल में 11वीं कक्षा के छात्रा थी। मेरी त्रासदी यह थी कि इस स्कूल में मामा जी व्याख्याता थे। यानी जो शिक़ायत के ख़तरे पन्ना में मेरे लिए थे वही ख़तरे बिजुरी में भी थे। अतः मैं मन लगाकर पढ़ाई करती और ऐसा अवसर नहीं आने देती कि मेरे टीचर को मेरी शिक़ायत करने का मौका मिले। चूंकि मेरी वर्षा दीदी बायो ग्रुप से पढ़ रही थीं इसलिए मैंने भी जोश में आकर बायो ग्रुप ले रखा था, जिसमें बॉटनी, जूलॉजी, केमिस्ट्री, फिजिक्स के साथ अंग्रेजी और हिंदी भाषाएं हुआ करती थीं। हम लोगों के केमिस्ट्री वाले टीचर  केमिस्ट्री के बहुत अच्छे जानकार थे लेकिन अफ़सोस कि वे धनलिप्सा से पीड़ित थे। उन दिनों कोचिंग सेंटर्स नहीं होते थे बल्कि शिक्षक घर पर ट्यूशन पढ़ाते थे। देखा जाए तो यह कोचिंग सेंटर का आरंभिक संस्करण था। केमिस्ट्री वाले सर चाहते थे कि मैं भी उनके घर ट्यूशन के लिए पहुंचा करूं, जबकि मुझे ट्यूशन पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मुझे स्वाध्याय अच्छा लगता था। विषय को समझने और याद रखने का मैंने अपना मौलिक तरीका ढूंढ निकाला था। मैं केमिस्ट्री के फार्मूले भी लिख-लिख कर याद करती थी। इससे होता है यह था कि जब मुझे कोई फार्मूला भूलने लगता था तो मैं उस लिखे हुए कागज का ध्यान करती थी और मुझे वह लिखावट याद आ जाती, जिससे पूरा फार्मूला याद आ जाता था। मेरा यह तरीक़ा सिर्फ केमिस्ट्री के लिए नहीं बल्कि सभी विषयों पर कारगर था। मैंने इसी तरह से इतिहास की तारीखों को भी क्रमबद्ध तरीके से याद रखा और वे तारीखें आज भी मुझे अच्छी तरह याद है। जबकि इतिहास के लिए यह माना जाता है कि- रात भर पढ़ा और सवेरे सफा।
       तो मैं बता रही थी कि उन केमिस्ट्री वाले टीचर ने  पहले तो कक्षा में मुझे डांटना शुरू किया और फिर बात-बात में इस बात का सुझाव देने लगे कि तुम्हें ट्यूशन की जरूरत है। तुम अगर ट्यूशन नहीं पढ़ोगी तो फेल हो जाओगी। उस पर प्रैक्टिकल में भी बहुत बुरे नंबर आएंगे ।जब उन्होंने देखा कि उनकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ रहा है तो एक दिन उन्होंने मुझसे एक फार्मूला पूछा। चूंकि उसके पिछले दिन में स्कूल नहीं गई थी इसलिए मुझे पता नहीं था कि उस दिन वह फार्मूला याद करके कक्षा में सुनाना है। यदि मुझे पता होता तो मैं निश्चित रूप से याद करके पहुंचती। दुर्भाग्य से उस कक्षा में साइंस के कुल 7 विद्यार्थी थे जिसमें 6 लड़के थे और मैं अकेली छात्रा थी अतः मेरे कोई सहेली भी नहीं थी जो मुझे इस होमवर्क के बारे में बताती। सर तो मानो बहाना ही ढूंढ रहे थे। उन्होंने मुझसे फर्मूला पूछा। मैं नहीं बता सकी। यद्यपि मैंने उनसे कहा कि मुझे नहीं मालूम था क्योंकि मैं कल स्कूल नहीं आई थी। मेरी बात सुनकर सर बिगड़ उठे और अपना गुस्सा प्रकट करते हुए मुझसे कहने लगे कि- अगर तुम ट्यूशन में आती होतीं तो तुम्हें पता रहता कि क्या होमवर्क दिया गया है? अब चलो, अपना हाथ आगे करो! मैंने डरते- डरते अपना दायां हाथ आगे कर दिया। सर ने स्केल से मेरी हथेली पर प्रहार किया। चोट लगने का दर्द इतना अधिक नहीं था जितना कि गलत सज़ा मिलने का दर्द था। मेरी आंखों में आंसू आ गए। यद्यपि मैं रोई नहीं। क्योंकि मैं लड़कों के सामने रोना नहीं चाहती थी। लेकिन मैं इस बात से डर गई कि यदि केमिस्ट्री वाले सर इसी तरह नाराज़ रहे तो निश्चित रूप से प्रैक्टिकल में मेरे नंबर काट लेंगे या शायद मुझे फेल ही कर दें। अतः घर लौटने पर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने मामा जी को सारी बात बताई। तब मामा जी ने केमिस्ट्री वाले सर से चर्चा की और उन्हें स्पष्ट शब्दों में समझा दिया कि मेरी भांजी आपके पास ट्यूशन पढ़ने अगर नहीं आना चाहती है तो वह नहीं आएगी और इसके बदले आप उसे किसी प्रकार की सज़ा देने के बारे में सोचिएगा भी नहीं। हां, यदि वह पढ़ने में गड़बड़ी करें तो भले दंडित करिए लेकिन ट्यूशन के नाम पर दंड देने का विचार मन में मत लाइएगा।
     केमिस्ट्री वाले सर मामा जी की बात समझ गए और इसके बाद उनका मेरे प्रति रवैया सुधर गया। लेकिन इस घटना से हुआ यह कि मुझे साइंस के शिक्षकों से ही नफ़रत होने लगी। मुझे लगा कि ये लोग ट्यूशन और प्रैक्टिकल के नंबरों के नाम पर छात्रों पर अनावश्यक दबाव डालते हैं अतः 11वीं बोर्ड की कक्षा के बाद कॉलेज में दाखिला लेने के समय मैंने अपनी फैकल्टी ही बदल ली। मैं साइंस स्टूडेंट से आर्ट स्टूडेंट बन गई। यद्यपि इसके पीछे एक कारण और भी था जो ज़रा हास्यास्पद था, जिसकी चर्चा फिर कभी करूंगी लेकिन यदि साइंस के शिक्षकों का ट्यूशन और प्रैक्टिकल वाला दबाव न होता तो शायद मैं साइंस छोड़ने पर विचार न करती।
       यह कहा जाता है कि गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन गुरु विद्वान होते हुए भी यदि उचित शिक्षण पद्धति काम में न लाएं तब भी ज्ञान प्राप्त करना मुश्क़िल होता है और इसका जीता-जागता अनुभव मेरा स्वयं का रहा है। काश! उस संस्कृत टीचर ने सही ढंग से संस्कृत पढ़ाई होती, काश! उस केमिस्ट्री टीचर ने लालच किए बिना केमिस्ट्री पढ़ाई होती है तो मैं इन दोनों विषयों से मुंह न मोड़ती। यह शिक्षक ही होता है जो शिक्षा को रोचक और उपयोगी बना सकता है अथवा उसे भंवर जाल में तब्दील कर सकता है।             
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नवभारत | 24.07.2022  
#संस्मरण #डॉसुश्रीशरदसिंह #हिंदीसाहित्य #लेख #memoir #mymemories  #DrMissSharadSingh

Article | Do You Know? Our Blue Planet Is Turning Red | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article | Do You Know? Our Blue Planet Is Turning Red | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle 
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Article
Do You Know? Our Blue Planet Is Turning Red

-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh

These days' heat waves are showing their effect from America to Europe and from China to India. Continuous warnings are being given in China, Britain, America and Europe of the continuous increase in heat. There are many areas of India where there should have been plenty of rain till now, there has been intermittent insufficient rain. The heavy humidity has bothered the people. In the recently released photo of the Earth, instead of blue, it appears red due to heat. Is there still any doubt about climate change?

It is getting hot these days in most parts of the world. From European countries to America, hot weather is wreaking havoc. The situation is even worse in Britain. Meanwhile, an alert has been issued in the United States regarding heat. The meteorological agency there says that the outbreak of heat can increase to dangerous levels in most parts of central and southwest America. In view of this, an alert has been issued for other areas including California.
It has been told that more than 40 million people in the plains of America and Central California are affected by the outbreak of severe heat. It has been feared that an increase of 10 to 15 degree Celsius can be recorded in the normal temperature these days. July has also brought extremely hot days for Texas. There people are taking measures to avoid the heat through AC. Due to this, the power grid is getting full for a few weeks. The Meteorological Agency says that the outbreak of heat can increase to dangerous levels in most parts of Central and Southwest America. In many areas of America, a warning was issued to break all the heat records. Alerts and advisories were also issued for people in Texas, Oklahoma, Kansas, Nebraska, Montana and Dakota. During this people were asked to stay in their homes. They were appealed that they should not leave their homes if it is not very important. In Texas, Oklahoma and South Dakota, maximum temperatures can reach 44 °C. In such a situation, a warning was issued for these areas regarding the heat. The temperature in the San Joaquin Valley was also expected to rise to 43 degrees Celsius. In the second fortnight of July, about 20 percent of the US population, or 60 million people, may have to endure temperatures of 38 degrees Celsius or higher.

Many countries of Western Europe including China are going to be in the grip of severe heat. Heat wave warnings have been issued for parts of China, Europe, the Southwest and Central America this week. Red alert has been issued in at least 86 cities in the eastern and southern parts of the country. The situation is that construction work has been completely banned in these cities. People are so troubled by the heat that they are always looking for a cool place. The Shanghai administration, which has a population of about 25 million, has warned people that the next few weeks are going to be similar, so they should be prepared to face the heat. Chinese meteorologists have forecast temperatures to reach 40 degrees Celsius in some cities in the coming days. The effect of rising temperatures in Spain and France is beginning to be felt in Britain as well. Meteorological Department Many cities of China are facing severe heat these days. To avoid the scorching heat, people have started taking shelter in underground shelters. It also includes Shanghai, Nanjing. Red Alert is a three tire heat wave warning.

With this, amidst heavy rains in China, the country's National Meteorological Center has issued a blue alert for thunderstorms in some parts of the country. The torrential downpour and rain-caused floods have wreaked havoc in 80 provinces since May 28. In south China's Guangxi Zhuang Autonomous Region, floods and heavy rains have affected more than 3.75 million residents, according to local officials. 

The effect of rising temperatures in Spain and France is beginning to be felt in Britain as well. The heat has wreaked havoc in France, Portugal, Spain, Greece and Britain. Usually the weather is pleasant in these countries at this time, but this time everyone is troubled by the heat. In Britain, the temperature has reached 40 degrees. Britain's Health Protection Agency has imposed a 'National Emergency'. At the same time, the Meteorological Office has issued the first 'red alert' of extreme heat. This alert is a life threatening warning of extreme heat. Apart from this, there has been a situation of drought in many parts from northern Italy.

Britain's Health Protection Agency has imposed a 'National Emergency'. At the same time, the Meteorological Office has issued the first 'red alert' of extreme heat. This alert is a life threatening warning of extreme heat. Apart from this, there has been a situation of drought in many parts from northern Italy.
According to meteorologists, due to climate change, this deadly heat will come more frequently and will last longer. NASA has shown how surface temperatures in the eastern hemisphere are in this image from July 13, 2022. In this picture, this blue earth is looking red due to the scorching heat. It is seen in this picture that northern India is also facing the heat. The effect of heat has been felt more than what was feared due to the effect of global warming. As global warming continues, this pattern of catastrophic heat will continue to fall again and again. Will we still ignore climate change and global warming? All the countries will have to pay united attention towards this dangerous truth and necessary steps will have to be taken soon.
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 (24.07.2022)
#climatechange  #MyClimateDiary 
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Thursday, July 21, 2022

बतकाव बिन्ना की | हमें काए उंगरियां दिखा रईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात


 "हमें काए उंगरियां दिखा रईं? "... मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
हार्दिक धन्यवाद "प्रवीण प्रभात" 🙏
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बतकाव बिन्ना की           
हमें काए उंगरियां दिखा रईं?                                 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
     ‘‘का हो गओ भैयाजी? ऐसो मों बनाए काए फिर रए मनो तुमाओ उम्मीदवार हार गओ होए।’’ भैयाजी को उतरो भओ मों देख के मैंने उनसे पूछी।
‘‘ने पूछो, संकारे से बड़ो नुसकान हो गओ।’ भैयाजी पिल्ला घांई कूं-कूं सी करत भए बोले।
‘‘पैले तो आप नुसकान नईं, नुकसान बोलो!’’ मैंने टोंकी।
‘‘हऔ, वोई नुकसान! नुकसान हो गओ।’’ भैयाजी खों मोरी टोंका-टांकी पोसाई नईं।
‘‘सो अब बोलो के का नुकसान हो गओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘ने पूछो बिन्ना! जे बरसात में सोई दो दिना में नल आ रए। तुमाई भौजी बोलीं के सबरो पानी बासो भरो पड़ो आए, सो सब खों मेंक के ताजो पानी भरने परहे। हमने कही के ऊमें बाताबे जोग का आए? पुरानो मेंको औ भर लेओ ताजो पानी।’’
‘‘फेर?’’
‘‘फेर का? तुमाई भौजी बोलीं के मों ने चलाओ, हाथ चलाओ औ इते आ के बासो पानी पलटत जाओ। अब तुम सो जानत हो बिन्ना, के तुमाई भौजी की कही तो मनो पत्थर की लकीर होय। को काट सकत ऊको। सो हम उठे औ हमने गइया की हौदी में कलसा पलटो। अभई दो कलसा पलटे हते के तुमाई भौजी गरियात-सी बोलीं के जे का कर रै? हमने कहीं के तुमाए आदेस को पालन कर रए। कलसा खाली कर रए भरबे के लाने। सो वे बोलीं के जो तो हम सोई देख रए मनो तुम जे हौदी में काए डाल रए? का गऊ माता खों बासी पानी पिलाहो? हमने कही के सो, ऊमें का हो गओ? घरे की गऊ माता को सो पानी, खली, भुसी सबई कछु मिल जात आएं औ तनक उनकी सोचो जो भिखमंगन घाईं सड़क पे डोल रईं। उनको सो नरदा को पानी पीबे खों मिलत आए। हमाई बात सुन के तुमाई भौजी भड़क गईं। औ कहने लगीं के जो सड़क पे अपनी गऊ माता खों अवारा-सी छोड़ देत हैं, उनखों सो कीड़ा पड़हें! पर जे तुम हमाई गऊ माता के लाने बासी पानी ने भरो। औ जो तुमसे नई हो रओ सो जाओ इते से। जे बोलत भईं बे हमाए हाथ से कलसा छुड़ान लगीं। हमने कोसिस करी के बे ने छुड़ा पाएं। बस जेई खींचा-तानी में हमाओ मोबाईल हौदी के पानी में जा गिरो।’’ भैयाजी ने अपनी ट्रेजडी बताई।
‘‘सो, आपने रखो कहां हतो मोबाईल? का हौदी के पाट पे रखो हतो?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे नईं, हमाई जे शर्ट की जे ऊपर वाली खींसा में खुसो रओ। मनो कोनऊ झटका में वा हौदी में टपक गओ। हम सो रै गए सन्न! मनो तुमाई भौजी खों कोनऊ फरक नईं परो। बे तो औ अपनी उंगलियां चटकात, मुस्कात भईं बोलीं के जे अच्छो भओ अब कछु दिना टिपियाते भए ने बैठे रैहो। जरे पे नमक छिड़कबो जोई कहाउत आए। हमने हाथ डार के हौदी से अपनो मोबाईल निकारो। ऊमें से पानी चुचुआ रओ हतो। जे देख के हमाई आंखन में अंसुआं भर आए।’’ भैयाजी उदास होत भए बोले।
‘‘फिकर ने करो भैयाजी! उते चैराहा पे जो मोबाईल की दूकान आए, उते दिखा लेओ। उते मोबाईल सुधरे जात आएं।’’ मैंने भैयाजी को सहूरी बंधाई चाही।
‘‘उतई दे आएं हैं सुधारबे खों।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘कब लों मिलहे?’’ मैंने पूछी।
‘‘जेई तो सल्ल आए। बो कै रओ के दो दिना लग जेहें।’’
‘‘अब लग जान देओ! का कर सकत हो।’’ मैंने कही।
‘‘जेई तो बात आए के जे मोबाईल खों अबई हौदी में गोता लगाने रओ। अब हम दो दिना कछु ने कर पाहें।’’ भैयाजी खिजियात से बोले।
‘‘सो करने का आए? फेसबुक की डीपी दो दिनां बाद बदल लइयो।’’ मैंने भैयाजी को मूड ठीक करबे के लाने उने छेड़ो।
‘‘अरे, डीपी गई चूला में! तुमे पता नईं बिन्ना के जे टेम पे मोबाईल की खूबई जरूरत परने है मोए, औ अबई जे टें बोल गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसी का जरूरत परने?’’ मोए अचरज भओ।
‘‘देखो बिनना, अबई चुनाव भए आएं। सो, सबरी जांगा फेरबदल हुइए। कच्ची में लगे पुराने कर्मचारी बदल दए जेहें। अब जो कुर्सी सम्हालहे बो अपने लोगन खों रखहे। अब तुमे पतोई आए के हमाए मोहल्ला में हमाओ आदमी जीतो आए, सो ऊकी चलहे औ ऊसे सिफारिश के लाने लोग हमसे संपर्क करहें। अब जेई टेम पे मोबाईल को राम नाम सत्त हो गओ, अब हम का करबी?’’ भैयाजी अकुलात भए बोले।
‘‘सो आपका सिरफारिश करहो?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ!’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर जे तो गलत बात आए।’’ मैंने विरोध जताई।
‘‘ईमें कछु गलत नईं! कोनऊं खों काम चाउने, सो हमने उनके लाने बोल दओ, सो ईमें गलत का हो जेहे?’’ भैयाजी ने तर्क दओ।
‘‘सिफारिश के बदले कछु दान-दक्षिणा सोई लेहो?’’ मैंने शंका जताई।
‘‘थोड़ी-भौत ले लेबी सो का हो जेहे?’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोए आपसे जे उम्मींद नई हती।’’ भैयाजी की बात सुन के मोए बुरौ लगो। मैंने आगे कही के ‘‘जे तो आप सोई भ्रष्टाचार करहो।’’
‘‘काए को भ्रष्टाचार? जे हमाई नगरपालिका झाड़ू के, नाली सफाई के, कचरा के औ न जाने काए-काए के पइसा बसूलत रैत आए जबके जे सबई कछु ठीक से होत दिखात है का? सो बो गलत नईं कहाओ? हमें काए उंगरियां दिखा रईं? हम सो जोन की सिफारिस करबी बोई से पइसा लेबी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप हमें जे सब ने सुनाओ! हम तो सोचत्ते के आप कछु गलत ने करहो, पर आप सोई ऊंसई निकरे।’’ मोए भैयाजी पे भौतई गुस्सा आ रओ हतो।
‘‘काए, जे सरकार जो मुफत-मुफत बांटत रैत आए, सो ईके लाने पइसा कहां से आउत आए। जे अपनई ओरन को पइसा रैत आए, जोन अपन टैक्स में भरत आएं। सरकार ले सो कछु नईं, औ हम लें सो दोंदरा। अबई सो कछु नईं, हम जरा अपने लोगन खों सेट कर लेवें फेर देखियो के हमें कोनऊ जमीन पे कब्जा कर के प्लाट काटने है, काए से के अगली चुनाव के पैले सबरी अवैध कालोनियां वैध होई जेहें।’’ भैयाजी उचकत भए बोले। मनो उन्ने प्लाट काट देओ होय औ पइसा बरसन लगे होंए।
‘‘बुरौ बोहो, सो बुरौ काटहो - जे कहनात आए। सो, आप सोई गलत ने सोचो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘तुम औ बिन्ना! कहूं हम ऐसो कर सकत आएं? हम तो तुमें चिड़का रए हते।’’ भैयाजी हंसत भए बोले। फेर तनक दुखी होत कैन लगे,‘‘ बाकी मोबाईल बिना जिनगी झण्ड लग रई। सबई कछु सूनो-सूनो लग रओ। मोबाईल रैतो सो अबे लों पचासेक की पोस्टन पे टिपिया लेने हतो। खैर, जब मिलहे तभईं कसर पूरी कर लेबी।’’
भैयाजी की बात सुन के मोरी जान में जान आई। काए से के हमाए नोने भैयाजी जमाने के संगे बिगड़ जाएं, सो मोए सबसे ज्यादा दुख हुइए। मोरो तो सिद्धांत आए के - कम्म खाओ, गम्म खाओ औ बेंच के घोड़ा नींदें पाओ!     
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए कोनऊ प्लाट काटे, चाए कान काटे, मोए का करने? मनो हुइए बोई जो भैयाजी खुद करबे के लाने कै रै हते। भैयाजी सो ने करहें पर दूसरे सो करहें। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(21.07.2022)
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Wednesday, July 20, 2022

चर्चा प्लस | यूं तो इस दिन चांद पर क़दम रखा था हमने | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
यूं तो इस दिन चांद पर क़दम रखा था हमने
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           कवियों और शायरों का पंसदीदा शब्द है ‘चांद’। कोई अपनी महबूबा को चांद-सा कहता है तो कोई चांद को रोटी-सा देखता है। किसी को चांद खुश दिखता है तो किसी को तन्हा। यानी चाहे अहसास कोमल हों या खुरदरे, चांद के बिना काम नहीं चलता है। चांद के प्रति यह मोह आज भी टूटा नहीं है जबकि अब हम चांद की सच्चाई जान चुके हैं, वह भी वर्षों पहले, आज ही के दिन 20 जुलाई को जब मनुष्य ने चांद पर अपना पहला क़दम रखा था। तो स्थानीय चुनावों के गंभीर माहौल के बाद चांद की कुछ चर्चा हो जाएं।  
इतिहास के पन्नों में 20 जुलाई एक ऐतिहासिक घटना है, जिसने चांद को कवियों की कल्पनाओं और रूमानियत से छीनने का प्रयास किया और चांद यानी चंद्रमा की सच्चाई दुनिया के सामने खोल कर रख दी। दरअसल, 20 जुलाई वह दिन था जब अंतरिक्ष नाविक नील आर्मस्ट्रान्ग ने दुनिया का पहला इंसान होने का गौरव पाते हुए चंद्रमा की सतह पर अपना पहला कदम रखा था। वह 20 जुलाई का ही दिन था कोई इंसान पहली बार चांद पर पहुंचा था। यह सदियों पुरानी इच्छाओं और वर्षोंं की मेहनत का परिणाम था। सन् 1969 की 16 जुलाई को अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत में स्थित जॉन एफ कैनेडी अंतरिक्ष केन्द्र से नासा का अंतरिक्ष यान अपोलो-11 चांद की ओर सफ़र पर निकला था। अपना चार दिन का सफर पूरा करके अपोलो-11 ने 20 जुलाई 1969 को इंसान को धरती से चांद पर पहुंचा दिया था। यह यान 21 घंटे 31 मिनट तक चंद्रमा की सतह पर रहा।

चांद हमेशा कौतूहल का विषय रहा है। शुक्ल पक्ष में चांद के छोटा, बड़ा होने और कृष्ण पक्ष में गायब हो जाने ने अनेक कहानियों और कविताओं को जन्म दिया है। चंद्रमा के जन्म की विभिन्न कहानियां पुराणों में हैं। ज्योतिष और वेदों में चन्द्र को मन का कारक कहा गया है। वैदिक साहित्य में सोम (चांद) का स्थान भी प्रमुख देवताओं में मिलता है। अग्नि ,इंद्र ,सूर्य आदि देवों के समान ही सोम की स्तुति के मन्त्रों की भी रचना ऋषियों द्वारा की गई है। पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी। महर्षि अत्रि ने अनुत्तर नाम का तप आरम्भ किया। तपकाल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी जो बहुत प्रकाशमय थीं। दिशाओं ने स्त्री रूप में आ कर पुत्र प्राप्ति की कामना से उन बूंदों को ग्रहण कर लिया जो उनके उदर में गर्भ रूप में स्थित हो गया। परन्तु उस प्रकाशमान गर्भ को दिशाएं धारण न रख सकीं और त्याग दिया। उस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुआ। स्कन्द पुराण के अनुसार जब देवों तथा दैत्यों ने क्षीर सागर का मंथन किया था तो उस में से चौदह रत्न निकले थे। चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक है जिसे लोक कल्याण हेतु, उसी मंथन से प्राप्त कालकूट विष को पी जाने वाले भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया।

कल्पनाओं से परे चांद का सच कुछ और ही है। चंद्रमा लगभग 4.5 करोड़ वर्ष पूर्व धरती और थीया ग्रह (मंगल के आकार का एक ग्रह) के बीच हुई भीषण टक्कर से जो मलबा पैदा हुआ, उसके अवशेषों से बना था। यह मलबा पहले तो धरती की कक्षा में घूमता रहा और फिर धीरे-धीरे एक जगह इकट्टा होकर चांद की शक्ल में बदल गया। अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा लाए गए पत्थरों की जांच से पता चला है कि चंद्रमा और धरती की उम्र में कोई फर्क नहीं है। इसकी चट्टानों में टाइटेनियम की मात्रा अत्यधिक पाई गई है। एक अन्य परिकल्पना विखंडन सिद्धांत पर आधारित है, जिसके अनुसार पृथ्वी की सतह के करीब 2900 किलोमीटर नीचे एक नाभिकीय विखंडन के फलस्वरूप पृथ्वी की धूल और पपड़ी अंतरिक्ष में उड़ी और इस मलबे ने इकट्ठा होकर चांद को जन्म दिया। यद्यपि इस सिद्धांत पर सभी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। फिर भी इस बात पर सभी एकमत हैं कि चंद्रमा का गुरूत्व पृथ्वी के महासागरों पर ज्वार-भाटा का पैदा करता है। वहीं आमौतर पर यह उपग्रह दिशासूचक की तरह भी काम करता है और कई देशों के कैलेंडर भी इसकी गति पर निर्भर हैं। अगर चांद नहीं होता तो धरती पर दिन-रात 24 घंटे के बजाए सिर्फ छह से 12 घंटे का ही होता। एक साल में 365 दिन नहीं बल्कि 1000 से 1400 के आसपास दिन होते।

पुराण चाहे जो भी कथा कहें या वैज्ञानिक चाहे जो भी सच सामने रखें लेकिन शायर मन तो अभी भी चांद को उसी रूमानियत से देखता है जैसे पहले देखता था। शायरों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि आज चांद पर प्लाटिंग हो रही है और बस्तियां बसाए जाने की जोर-शोर से तैयारियां चल रही हैं। शायरी में चांद आज भी खूबसूरत चांद है, तन्हा चांद है, रोटी जैसा चांद है, माथे की बिन्दी जैसा चांद है और किसी-किसी के लिए तो पूरी की पूरी महबूबा जैसा चांद है। आनन्द बख़्शी का यह गीत भला कौन भूल सकता है-
चांद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था
हां, तुम बिलकुल  वैसी हो,  जैसा मैंने सोचा था

या फिर शक़ील बादायुनी के इस गाने को भूला पाना तो नामुमकिन है-
चौदहवीं  का  चांद हो  या   आफ़ताब हो
जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाज़वाब हो

    चांद पर भले ही क्रेटर पाए गए हों या अब यह पता लगा लिया गया हो कि वहां भी पृथ्वी जैसे भूकंप आते हैं अथवा आ चुके हैं लेकिन इससे न तो शायरों को कोई अन्तर पड़ता है न शायराओं को। मीना कुमारी ने चांद को तन्हाई का प्रकीत माना और यह शेर कह डाला-
चांद  तन्हा  है   आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा

जबकि जावेद अख़्तर चांद को फ़ीका मानते हैं और चांद के साथ वे सूखी टहनी और तन्हा चिड़िया की बात करते हुए कहते हैं कि-
सूखी टहनी, तन्हा  चिड़िया, फीका चांद
आंखों के  सहरा में  एक नमी  का चांद
उस  माथे  को  चूमे  कितने  दिन बीते
जिस माथे की ख़ातिर था इक टीका चांद

मगर चांद को ले कर निदा फ़ाज़ली का नज़रिया कुछ और ही है। वे चांद को मां की ममता और बचपन से जोड़ कर देखते हैं-
नील-गगन में तैर रहा है उजला-उजला पूरा चांद
मां की लोरी-सा,  बच्चे के दूध-कटोरे  जैसा चांद

सच तो ये है कि चांद का महत्व मन की स्थिति के अनुसार समझा जाता-बूझा है। कोई चंदा को ‘‘पल भर को मुंह फेरने’’ के लिए कहता है तो कोई कभी नायिका परदेस में बैठे पिया के पास संदेशा ले जाने को चंदा से कहती है, तो कभी कोई अपने मायके अपने भाई के पास सावन में आने का संदेश ले जाने को कहती है। लेकिन शायरा परवीन शाकिर अपने दुख में डूब कर चांद को देखती हैं तो उन्हें यह दिखाई देता है-
पूरा  दुख  और  आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद
दिन में  वहशत  बहल  गई
रात  हुई और  निकला चांद

साहिर लुधियानवी संज़ीदा शायर थे। वे जो कुछ अपनी शायरी में कहते उसमें भरपूर दृश्यात्मकता भी होती। यदि उनकी कोई शायरी फिल्म में नहीं फिल्माई गई होती तब भी उसे पढ़ते हुए एक दृश्य किसी चलचित्र की भांति आंखों के सामने से गुज़र जाता। एक बानगी देखिए-  
चांद मद्धम है आसमां चुप है
नींद की गोद में  जहां चुप है

गुलजार का मसला अलग ही है वे  चांद  की उपस्थिति को बेअसर मानते हुए कहते हैं कि-
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं,
रात भी आयी और चांद भी था, मगर नींद नहीं।

लेकिन ग़ज़लकार डाॅ. वर्षा सिंह ने अपनी शायरी में चांद और सपनों के आपसी संबंध को बड़ी खूबसूरती से बयान किया है और चांद को अपने प्रिय की उपस्थिति का आभास माना है-  
तुम रात के सिरहाने इक चांद तो रख जाते
नींदों में   उदासी   के   सपने  तो नहीं आते

चांद की तारीफ़ करती डॉ. वर्षा सिंह यहीं नहीं ठहरती हैं, वे चांद को ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं से जोड़ती हुई, उसकी विशेषताएं बताती हैं-  
रात के माथे  टीका चांद
खीर सरीखा  मीठा चांद
हंसी चांदनी  धरती पर
आसमान में  चहका चांद
महकी बगिया  यादों की
लगता महका-महका चांद

शायर कुमार विश्वास मानते हैं कि चांद में नूर है लेकिन उतना नहीं जितना प्रियतमा के सौंदर्य में है। इसीलिए वे कहते हैं कि-
रात हुई है चांद  जमीं पर  हौले-हौले उतरा है,
तुम भी आ जाते तो सारा नूर मुकम्मल हो जाता
    
चांद पर शायरों की जो बयानबाज़ी है उनमें से चुनिंदा तो मैंने आपके सामने रख दी। अब मेरे क्या ख़्याल है चांद के बारे में, यदि मैंने अपना कुछ नहीं बताया तो मुझे लगेगा कि मेरी बात पूरी नहीं हुई। अतः मैं यानी ग़ज़लकार डाॅ (सुश्री) शरद सिंह चांद के बारे में क्या कहती है, यह भी देख लीजिए -
आसमान में  तारे तो हैं, चांद नहीं है
मद्धम से उजियारे तो हैं,चांद नहीं है
दूरी का अंधियारापन है बेहद गहरा
हम दोनों  बेचारे तो हैं, चांद नहीं है

यूं तो आज के दिन हमने चांद पर अपना पहला क़दम रखा था लेकिन शायरी ने तो हमेशा ही चांद से रिश्ता जोड़ रखा है। यूं भी स्थानीय चुनावों के भारी-भरकम माहौल के बाद कुछ हल्की-फुल्की, रूमानीयत भरी बातें ज़रूरी थीं। लिहाज़ा चांद-चर्चा भी ज़रूरी थी। है न!
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Tuesday, July 19, 2022

भारत भवन भोपाल में डॉ (सुश्री) शरद सिंह का अतिथि वक्तव्य

भारत भवन भोपाल में डॉ (सुश्री) शरद सिंह का अतिथि वक्तव्य
"हर कहानीकार अपने-अपने बंदरगाह का लाईटहाउस होता है इसलिए साहित्य का जहाज न भटके इसका ध्यान रखना भी कथाकार का दायित्व है। हर कथाकार अपने दायित्व को समझे।" यह बात मैंने (डॉ सुश्री शरद सिंह) ने अपने वक्तव्य में कहा।  भारत भवन भोपाल द्वारा मध्यप्रदेश की रचनाशीलता पर  आयोजित 15- 21 जुलाई तक चलने वाले सात दिवसीय समारोह युवा-8 के अंतर्गत "कथा का हृदय प्रदेश" विषय पर मैंने प्रदेश की महिला कथाकारों की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालने के साथ ही नवोदित कथाकारों से कहा कि "आज कई कथाकार जिनमें महिला कथाकार भी शामिल हैं, अपने कथानक को किया रैपर (रैप सिंगर) की तरह ट्रीट करते हैं। जिन विषयों पर ठहर कर, जांच-पड़ताल कर के लिखने की आवश्यकता है, उन्हें भी सोशल मीडिया की हर घंटे की पोस्ट की तरह जल्दबाज़ी में परोस दिया जाता है। इस तरह  जल्दबाजी में साहित्य परोसे जाने को मैं साहित्यिक अपराध ही कहूंगी और यह अपराध करने से नवोदित कथाकारों को खुद को रोकना होगा।" 
     इस आयोजन के सूत्रधार एवं संचालक थे  भारत भवन के प्रशासनिक अधिकारी एवं प्रसिद्ध कवि प्रेमशंकर शुक्ल। इस चर्चा में सहभागी रही भोपाल से मुकेश वर्मा, प्रदीप जिलवाने तथा खरगोन से भालचंद्र जोशी। इस अवसर पर भोपाल के वरिष्ठ साहित्यकारों में डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. उर्मिला शिरीष की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
तस्वीरें उसी अवसर की...
छतरपुर के समाचारपत्रों में -
प्रवीणप्रभात, 19.07.2022

छतरपुर भ्रमण, 20.07.2022
शुभभारत, 20.07.2022

(16.07.2022)
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पुस्तक समीक्षा | विचारों को आंदोलित करने वाला एक महत्वपूर्ण उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 19.07.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कथाकार विवेक मिश्र के  उपन्यास  "जन्म-जन्मांतर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
विचारों को आंदोलित करने वाला एक महत्वपूर्ण उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास       -  जन्म-जन्मांतर
लेखक         -  विवेक मिश्र
प्रकाशक        -  सामयिक प्रकाशन, 3320, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज,दिल्ली-02
मूल्य           -  250/-  
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विवेक मिश्र आज हिन्दी जगत के एक सशक्त कथाकार हैं। अपने पहले उपन्यास ‘‘डोमनिक की वापसी’’ से ख्याति अर्जित करने वाले विवेक मिश्र का ताज़ा उपन्यास है ‘‘जन्म-जन्मातंर’’। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसके कथानक का विस्तार दो महाद्वीपों ही नहीं वरन दो जन्मों तक फैला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण उपन्यास है और उपन्यास के मर्म को जानने के लिए इसके कथानक की उस गहराई में उतरना जरूरी है जो वर्तमान में व्याप्त वैचारिक कट्टरता पर तीव्रता से प्रहार करती है।

उपन्यास आरम्भ होता है डाॅ. व्योम के क्लीनिक से। गली के अंतिम छोर पर स्थित क्लीनिक। जहां शायद कोई और डाॅक्टर अपना क्लीनिक नहीं खोलता। लेकिन डाॅ. व्योम की विवशता है। उनका अनाथराइज़्ड क्लीनिक ऐसी ही छिपी हुई जगह में खुल सकता था। अनाथराइज़्ड होने के पीछे का किस्सा अलग है। पर वे अपने इस क्लीनिक में रूबी नाम की सहायिका के साथ चिकित्सा कार्य करते हैं और अपने छोटे-छोटे रोगों के लिए अनेक मरीज उनके पास आते हैं। घटनाक्रम वहां से शुरू होता है जब जाड़े की सन्नाटे भरी रात को क्लीनिक बंद कर जाते समय अचानक एक घायल व्यक्ति मिल जाता है। वे उसे अपने क्लीनिक ले आते हैं। उसकी गंभीर स्थिति देखकर अपनी सहायिका रूबी को भी बुला लेते हैं। वह घायल व्योम को पहचान लेता है और अपना नाम सीतेश बताता है। यही कथानक का मूल प्रस्थान बिन्दु है। डाॅ. व्योम के मानस में अतीत की पर्तें खुलने लगती हैं और वह शनैः शनैः रूबी से अपने और सीतेश के संबंधों तथा उन दोनों के निजी जीवन से जुड़ी हुई घटनाओं को साझा करता है। यहां से चौंका देने वाले तथ्य सामने आने शुरू होते हैं।

सीतेश को पास्ट लाईफ रिग्रेशन अर्थात् पूर्वजन्म की घटनाओं पर विश्वास है। वह अपने पूर्व जन्म के बारे में सब कुछ जानना चाहता है। वह एक डाॅक्टर के संपर्क में आता है जो पूर्वजन्म का स्मरण कराने का काम करता है। सीतेश उसके माध्यम से स्वयं के बारे में बहुत कुछ जान लेता है। उसे पता चलता हैकि वह पूर्व जन्म में एक जर्मन सैनिक था और उसने द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की ओर से लड़ते हुए भयानक नृशंसता का परिचय दिया था। उसने एक ब्रिटिश डाॅक्टर को निर्ममता से जिंदा ही दफ़्न कर दिया था। सीतेश अपने पूर्व जन्म की पत्नी और बेटी के बारे में जानना चाहता है किन्तु उस डाॅक्टर की मृत्यु हो जाने से उसकी इच्छा अधूरी रह जाती है। तब उसकी बचपन की सहेली जिसका नाम मिली है और जिसे सभी उसकी बहन मानते (वह स्वयं नहीं) हैं, उसे प्रोत्साहित करती है और स्वयं भी पास्ट लाईफ रिग्रेशन थेरेपी सीतेश पर आजमाती है। इसी दौरान सीतेश अपने मित्र व्योम पर भी इस थेरेपी का एक्सपेरीमेंट करता है जिससे व्योम को स्वप्न की भांति अपना पूर्व जन्म दिखाई देता है जिसमें वह स्वयं को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन डिटेंशन कैम्प में ब्रिटिश डाॅक्टर के रूप में बंदी पाता है। वह डाॅक्टर अपने मारे जाने का इंतज़ार कर रहा है। अंततः वह दिन भी आ जाता है। उसके बाद के घटनाक्रम का जो विवरण व्योम सीतेश को देता है, वह उसे सुन कर वहां रुक नहीं पाता है और थेरेपी को बीच में ही छोड़ कर वहां से चला जाता है। आंख खुलने पर व्योम स्वयं को उस कमरे में अकेला पाता है।
इस कथानक के समानांतर कई कथाएं चलती रहती हैं। जैसे रूबी की कथा जो नार्थ-ईस्ट की है। उसका परिवार स्वयं के भारतीय नागरिक होने का सबूत नहीं दे पाया जबकि उनके पास पुश्तैनी जमीन थी, जिस पर वे खेती-किसानी करते थे। अवैध रूप से भारत में रहने पर पिता को गिरफ़्तार कर लिए जाने के बाद रूबी को काम की तलाश में अपनी मां के साथ अपने क्षेत्र से बाहर निकलना पड़ा। जहां कदम-कदम पर उन दोनों के साथ ऐसा व्यवहार किया गया मानो वे भारतीय नागरिक न हों। इस तरह लेखक ने रूबी के बहाने बड़ी सहजता से भारतीय नागरिकता की समस्या को सामने रखा है। कोई नारा नहीं, कोई राजनीतिक स्वर नहीं, लेकिन समस्या का व्यवहारिक रूप पाठक की आंखों के सामने दृश्यवत आ जाता है।

सीतेश को अपने पूर्व जन्म की विवशता याद आती है जब वह अपनी उस जन्म की पत्नी से कहता है कि वह चाह कर भी सेना की नौकरी नहीं छोड़ सकता है। वह अपनी पत्नी को समझाता है कि -‘‘अगर मैंने ऐसा किया तो वे जबरन मुझे ले जाएंगे। वे पहले मुझे, फिर मेरे परिवार को ख़त्म कर देंगे। हमने पहले एक विचार को चुना, फिर हिटलर को और उसकी फौज को चुना, युद्ध चुना और ऐसा करके, हमने आज कुछ भी चुनने का अधिकार खो दिया।’’ यह लिखते हुए लेखक कट्टरतापूर्ण विचारों के कटु परिणामों की ओर स्पष्ट संकेत करता है। विचारों की कट्टरता विचारों की स्वतंत्रता और लचीलेपन को छीन लेती है। यह भयावह है। यही भयावहता सीतेश वर्तमान में देखता है और उसमें शामिल होने से इनकार कर देता है। परिणाम यह कि कट्टरपंथी उसका नाम अपनी प्रमुख सूची में जोड़ कर उसे मिटा देने के लिए कटिबद्ध हैं। एक विशेष विचार के लिए दूसरे सभी विचारों को मिटा देने का उन्माद उसी राह की ओर धकेलने लगता है जिस राह पर चल कर हिटलर ने दुनिया को द्वितीय विश्वयुद्ध की आग में झोंक दिया था।

डाॅ. व्योम का साला आशीष कट्टरपंथी विचारों के पोषकों के साथ चलने लगता है जिससे व्योम के मतभेद अपनी पत्नी और साले से बढ़ने लगते हैं। जिसका अंत पति-पत्नी के अलगाव से होता है। दरअसल व्योम यह स्वीकार नहीं कर पाता है कि उसके मित्र सीतेश का नाम दण्डित किए जाने वालों की उस सूची में रहे जिसे ले कर उसका साला घूम रहा है। वह सूची फाड़ देता है। इसके बाद वैचारिक टकराव होना स्वाभाविक था। व्योम शहर छोड़ देता है और सीतेश को शहर छोड़ने पर मजबूर किया जाता है। लेखक ने यहा इस विडंबना को रेखांकित करने का प्रयास किया है कि सीतेश को पूर्व जन्म में न चाहते हुए भी वैचारिक कट्टरता और नृशंसता स्वीकार करनी पड़ती है और इस जन्म में भी उसे विवश किया जा रहा है कि वह वैचारिक कट्टरता के आगे अपने घुटने  टेक दे। यह सब देखते हुए तो यही मानना होगा कि अनेक मनुष्यों में वह ढिठाई है कि वे अपने अतीत के विघ्वंस से सबक लेना ही नहीं चाहते हैं।

उपन्यास में तमाम विमर्शों के साथ कथानकीय सूत्र पास्ट लाईफ रिग्रेशन है। पास्ट लाइफ रिग्रेशन थैरेपी एक ऐसा ही मनोवैज्ञानिक तरीका है जिसमें किसी भी इंसान को सम्मोहन के जरिए उसकी बीती जिंदगी की यादों मे ले जाया जा सकता है। पास्ट लाईफ रिग्रेशन थेरेपी के जरिए न सिर्फ किसी इंसान के पिछले जन्म की घटनाओं तक पहुंचा जा सकता है बल्कि मनोवैज्ञानिक पद्धति के द्वारा कई दिक्कतों से छुटकारा पाया जा सकता है। पास्ट लाईफ रिग्रेशन की प्रक्रिया मे इंसान को चेतना अवस्था मे परिवर्तन किया जाता है। चेतना की इस अवस्था मे इंसान की सुझाव ग्रहण करने की क्षमता मे एकदम से तेजी आ जाती है और वह सुझावों पर अमल भी करने लगता है। इसमे सम्मोहन के जरिए पिछले जन्म की घटनाओं को भी याद कराया जाता है। इसका उदेश्य इंसान की वर्तमान मानसिक समस्याओं तक पहंुचना होता है। इस थेरेपी को करने वालों के अनुसार इस थेरेपी द्वारा उस घटना तक पहुंचकर इंसान को उससे जुड़ी मानसिक परेशानी को वही छोड़ने का आदेश दिया जाता है। इससे इंसान उस पीड़ा श परेशानी दूर हो जाती है। इसमें पहली थ्योरी है, रीइंकार्नेशन यानी पुनर्जन्म। जिसमें कहा जाता है कि जब तक इंसान अपनी आत्मा का पूर्ण विकास नहीं कर लेता, तब तक वह जन्म लेता रहता है। अपनी हर एक जिंदगी में वो अलग-अलग अनुभव लेता है और विभिन्न चीजें सीखता है जो भविष्य में एक नए जन्म तक उसके साथ जाती हैं। दूसरी थ्योरी है- लॉ ऑफ कर्मा। जिसका मतलब है जो आप बोते हैं, वही काटते हैं। यानी अगर किसी के साथ आपने बुरा किया है, तो अगले जन्म में आपको इस ऋण को चुकाना होगा और उस इंसान के लिए कुछ बेहतर करना होगा। इस थ्योरी को लेकर आज तक किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका है और वैज्ञानिक भी इस थैरेपी को पूरी तरह से स्वीकार नहीं करते हैं। फिर भी यह उन लोगों में चलन में है जो इस पर विश्वास करते हैं।
बहरहाल पास्ट लाईफ रिग्रेशन को ले कर वर्तमान जीवन की वैचारिक, राजनीतिक, दार्शनिक, सामाजिक समस्याओं को जांचने-परखने और तार्किक ढंग से उपन्यास में पिरोने का यह अनूठा प्रयास है, जो स्वागत योग्य है। क्योंकि यह किसी थैरेपी विशेष या अंधविश्वास की ओर नहीं धकेलता है अपितु उस डरावने यथार्थ को समझने का आग्रह करता है जिसकी ओर जाने-अनजाने हम बढ़ते जा रहे है। विवेक मिश्र का यह उपन्यास उनकी लेखनशैली की रोचकता और गहराई को सिद्ध करने में सक्षम है। उपन्यास में आद्योपांत जिज्ञासा बनी रहती है। उपन्यास का वह अंत जिसका मैंने उल्लेख नहीं किया है, अत्यंत चैंकाने वाला और महत्वपूर्ण है, जिसे पढ़ कर ही महसूस करना उचित है। मूलकथा के साथ कई सहकथाएं भी है जो विचारों को झकझोरती हैं और दो पल ठहर कर सोचने को मजबूर करती हैं। ऐसे ही चिंतनशील उपन्यासों की आज आवश्यकता भी है। विवेक मिश्र का उपन्यास ‘‘जन्म-जन्मांतर’’ उनके लिए भी रुचिकर है जो पूर्वजन्म पर विश्वास रखते हैं और उनके लिए भी जो सिर्फ वर्तमान जीवन पर विश्वास करते हैं। पाठकों द्वारा इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए।  
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