नवभारत मेंं 10.07.2022 को प्रकाशित /हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण | भय का भूत बनाम भूत का भय
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
बचपन और भय का चोली दामन का साथ रहता है। उस समय भय का भूत हावी रहता है और भूत का भय है, डराता रहता है। अगर मैं यह कहूं कि मैं बचपन में किसी से नहीं डरती थी तो भी सरासर झूठ होगा। मुझे कई चीजों से डर लगता था। जिसमें सबसे अधिक अंधेरे से डर लगता था। वह डर भी इस कारण क्योंकि मुझे लगता था कि अंधेरे में कोई जानवर छुपा बैठा है। जैसे ही मैं अंधेरे में जाऊंगी और वह मुझ पर अटैक कर देगा। मेरा यह भय अकारण नहीं था। दरअसल, हमारे घर की रसोई घर वाले हिस्से में एडबेस्टस शीट की छत थी और पड़ोस में जो सटा हुआ घर था उसके और हमारे घर के बीच लगभग आठ फुट ऊंची दीवार थी। एक पार्टीशन वाॅल। उस दीवार पर कोई छत नहीं थी। बल्कि पडोसी के घर के पीछे के उस आंगन में एक अमरूद का पेड़ लगा था। दिन में तो वह पेड़ बड़ा सुंदर लगता लेकिन रात होते ही वह डरावना लगने लगता। वह पार्टीशन वाॅल लगभग 8 इंच चौड़ी थी। रात को उस दीवार के ऊपरी हिस्से पर अंधेरा हो जाता था। जिससे दीवार के ऊपरी भाग पर कौन-सा प्राणी बैठा है यह दिखाई नहीं देता था। कभी-कभी दो चमकती हुई आंखें भर दिखाई देती जिन्हें देखकर मुझे बहुत डर लगता। कभी-कभार चमकती हुई चार आंखें भी दिख जातीं। मैं लंबे समय तक रात को उस दीवार से डरती रही। मैं सूने रसोईघर में जाने से हिचकती थी। एक बार रात दस बजे के करीब मां ने किसी काम से मुझे रसोईघर भेजा। मैं जाना नहीं चाहती थी लेकिन मां का मूड ठीक नहीं था इसलिए उनका कहना मानना पड़ा। मैं रसोईघर गई लेकिन मेरी नजरें उस दीवार पर ही टिकी थीं। मुझे लग रहा था कि उस दीवार पर अवश्य कोई बैठा हुआ है और तभी मुझे दो आंखें चमकती दिखाई दीं। उसी समय कुछ अजीब-सी आवाजें भी सुनाई दीं। डर के मारे मेरी चींख निकल गई और मैंने जोर-जोर से रोना शुरू कर दी है। मां ने मेरी चींख और रोना सुना, तो वे भागी-भागी रसोईघर में आईं। उन्हें लगा कि मैं शायद गिर पड़ी हूं मुझे चोट लग गई है और इसीलिए मैं रो रही हूं। उन्होंने आते ही मुझसे पूछा ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘कहां चोट लगी?’’
मैं डर के मारे बोल ही नहीं पा रही थी। मां मुझे अंदर के कमरे में ले गई और वहां बिठाकर समझाया-बुझाया, लाड़-दुलार किया, तब कहीं जाकर मेरा डर कुछ दूर हुआ। मां के फिर पूछने पर मैंने उन्हें बताया कि मुझे चोट नहीं लगी है बल्कि दीवार पर कोई है और उसकी आंखें चमक रही है अंधेरे में बहुत डरावना जानवर है। या फिर कोई भूत है। मां ने कहा कि ‘‘डरावना जानवर यहां कहां आएगा? और भूत-वूत कुछ नहीं होता है। चलो, मैं चल कर देखती हूं।’’
मैंने मां का हाथ पकड़ लिया और उन्हें रोकने की भरपूर कोशिश की। मैं नहीं चाहती थी कि वे वहां जाएं। मुझे डर था कि मां वहां जाएंगी और व जंगली जानवर या भूत, जो भी है वह मां के ऊपर अटैक कर देगा। मगर मां मेरा हाथ छुड़ाकर वहां गई उन्होंने टॉर्च से दीवार के ऊपर देखा। फिर वे मेरे पास आईं और मुझे पकड़कर जबरदस्ती उस दीवार के पास ले गईं। मैं बहुत डर रही थी।
‘‘दीवार के ऊपर देखो, कहीं कुछ दिख रहा है?’’
‘‘नहीं!’’ मैंने कहा। उस समय वहां सचमुच कुछ नहीं दिख रहा था।
तब मां ने वर्षा दीदी से एक कुर्सी मंगाई और उस पर मुझे खड़ा होने को कहा। मरता क्या न करता। मां का कहना टाल नहीं सकती थी। झक मार कर मैं कुर्सी पर खड़ी हो गई। डर के मारे हालत पतली हुई जा रही थी क्योंकि अब मैं दीवार के और करीब थी। तब मां ने मेरे हाथ में टॉर्च पकड़ा दी और कहा कि ‘‘अब दीवार के ऊपर देखो।’’
मैंने दीवार पर देखा तो दीवार के कोने में एक बिल्ली बैठी हुई दिखाई दी। वह काली बिल्ली थी इसलिए टाॅर्च की रोशनी के बिना दिखाई नहीं दे सकती थी। मेरे मुंह से निकला है, ‘‘ये तो बिल्ली है।’’ तब मां ने मुझे समझाया कि ‘‘हां यही बिल्ली यहां दीवार पर बैठी हुई रही होगी जिसकी आंखें अंधेरे में तुम्हें चमकती हुई दिखाई दीं।’’
‘‘लेकिन मैंने तो डरावनी आवाजें सुनी थीं।’’ मैंने मां से कहा। इा पर उन्होंने कहा कि ‘‘हो सकता है कि कोई और बिल्ली भी उस दौरान आ गई हो और दोनों आपस में लड़ने लगी हों। इसलिए डरने की कोई जरूरत नहीं है। यहां कोई शेर, भालू नहीं आएगा और भूत तो बिलकुल नहीं होता है। ये सब काल्पनिक बातें हैं। ये बिल्लियां ही हैं जो यहां घूमती रहती हैं और इन से डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। ये किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं। ये तो सिर्फ दूध पीने की ताक में घूमती रहती हैं।‘‘
उस दिन के बाद से मेरा डर दूर हुआ। लेकिन अवचेतन में बैठा हुआ डर मुझे चैकन्ना जरूर बनाए रखता था। मैं रात-बिरात रसोई घर में जाती लेकिन तब भी मेरी निगाह दीवार पर जरूर चली जाती। अगर उस पर आंखें चमकती हुई दिखाई देतीं तो मैं समझ जाती बिल्ली बैठी है। फिर मैं उसे ‘‘मिनी-मिनी’’ या ‘‘किटी- किटी’’ कहकर पुकारती। वास्तव में मेरा यह पुकारना खुद को तसल्ली देने के लिए होता था कि वह बिल्ली ही है, और कुछ नहीं। लेकिन यह भय तब पूरी तरह से दूर हो गया जब हम लोगों ने स्वयं एक बिलौटा पाला। दरअसल सच तो यह है कि उसे हमने पाला नहीं था बल्कि वह जब छोटा-सा बच्चा था, तब खुद ही कहीं से घूमते-फिरते आ गया था और हमने उसे खिलाया पिलाया और वह अपने आप हमारे घर का सदस्य बन गया। यानी हमने उसे नहीं बल्कि उसने हमें चुना था। उसकी गतिविधियां देख-देख कर मुझे बिल्लियों के जीवन के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली और फिर धीरे-धीरे उस दीवार पर बैठने वाली बिल्लियों का डर भी पूरी तरह मन से निकल गया।
दूसरी घटना भी दीवार से जुड़ी हुई है लेकिन वह मेरे डर की कहानी नहीं बल्कि वर्षा दीदी के डर की कहानी है। हमारी कॉलोनी जो हिरणबाग कहलाती थी, लगभग 10 फीट ऊंचीं दीवार से घिरी थी। वह दीवार ईटों के आकार के पत्थरों की थी। रात के समय बाहर के आंगन में लाइट जलती रहती थी जिससे हमें उस दीवार के पास जाने में डर नहीं लगता था लेकिन धीरे-धीरे वर्षा दीदी को उस दीवार के पास जाने से डर लगने लगा। मुझे इस बारे में पता नहीं था। मां को पता नहीं कैसे इस बारे में अंदेशा हुआ कि वर्षा दीदी उस दीवार के पास जाने से घबराती हैं। तब उन्होंने एक दिन दीदी से पूछा कि ‘‘दीवार के पास जाने से क्यों डरती हो?’’ तब दीदी ने उन्हें बताया कि दीवार में कोई चीज छिपी रहती है। जिसकी आंख अंधेरे में चमकती है लेकिन वह जानवर नहीं हो सकता है क्योंकि उसकी एक ही आंख है। वह भूत टाईप की कोई चीज है। मां को दीदी की बात सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? उन्होंने दीदी को समझाया भी कि ‘‘किसी भी जानवर की सिर्फ एक आंख नहीं होती है और भूत-प्रेत होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। जरूर तुम्हें भ्रम हुआ होगा।’’
दीदी मां की बात मानने को तैयार नहीं थीं। उनके मन में डर बैठ चुका था। तब मां ने दीवार के पास उस जगह जाकर देखा, जहां जाने से दीदी डरती थीं। मां ने जब ध्यान से दीवार को देखा तो उन्हें समझ में आया कि अंधेरे में जिस चमकती हुई चीज से दीदी डरती थीं, वह दरअसल दो पत्थरों के बीच दरार खुल गई थी जिसमें से सड़क की रोशनी दिखाई पड़ती थी। वह रोशनी थी जो वाहनों के आने-जाने पर कभी बाधित हो जाती थी और कभी चमकने लगती थी। वह दरार भी इतनी बारीक थी कि एक खास एंगल पर ही उससे लाइट चमकती दिखती थी। यह बात समझ में आने के बाद मां ने एक अखबार से उस छेद को ढंका और फिर दीदी से पूछा कि क्या उन्हें लाईट दिख रही है? दीदी ने कहा कि नहीं। इसके बाद उन्होंने अखबार हटा कर पूछा तो दीदी ने कहा कि हां अब फिर दिख रही है। तब मां दीदी को भी दीवार के पास ले गईं और उन्हें वह दरार दिखाई। उसे देखकर दीदी समझ गई कि वह कोई डरावना जंतु नहीं बल्कि सड़क की लाइट है जो उस दरार से दिखाई देने लगती है।
आज इन दोनों घटनाओं के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि मां एक बेहतरीन मां थीं। बहादुर भी और समझदार भी। एक ऐसी मां जो अपनी बेटियों को निडर बनाना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने मन से भय को दूर करने का सही तरीका अपनाया था। उन्होंने हमें भय की तह तक पहुंचना सिखाया। वो कहते हैं न कि ‘‘डर के आगे जीत है’’। एक बार मन से भय मिट जाए तो जीना आसान हो जाता है। लेकिन आज बच्चों की मनोदशा समझने के लिए अनेक मांओं के पास समय ही नहीं रहता है। अब तो चलन यहां तक आ पहुंचा है कि छोटे बच्चों को भी अलग कमरे में सुला दिया जाता है। वे अपने मन का भय अपनी मां से नहीं बल्कि टेडी बियर या अपने काल्पनिक मित्र (इमेजनरी फ्रेंड) से कह कर काम चलाते हैं। वे भय को अपने मन में समेटे हुए बड़े होते हैं। यदि हमारी मां ने मेरे मन से भय को नहीं मिटाया होता तो शायद आज भी मैं अंधेरे से डरती रहती और बिल्लियों को भी अंधेरे का भूत समझती रहती।
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