Saturday, December 28, 2019

बुंदेलखंड और फिल्मी दुनिया - डाॅ. शरद सिंह ... नवभारत, 28.12.2019 में प्रकाशित

Dr ( Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड और फिल्मी दुनिया
- डाॅ. शरद सिंह
( नवभारत, 28.12.2019 में प्रकाशित)
 

मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता-निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’ 
Navbharat -  Bundelkh Aur Filmi Duniya  - Dr Sharad Singh, 28.12.2019
      बेशक हप्पू सिंह का पात्र बुंदेली और बुंदेलखंड के परिप्रेक्ष्य में एक मील का पत्थर है जहां से मनोरंजन जगत में बुंदेली के लिए अनेक रास्ते खुलने लगे हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 20 जिलों में बुंदेली भाषा बोली और सुनी जाती है। बुंदेली संस्कृति के विद्वान स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने अपनी किताब बुंदेली संस्कृति और साहित्य में लिखा है कि ‘‘मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा और निमाड़ा, चार जिलों में बुंदेली का प्रवाह ज्यादा है। भारतीय लोक परंपरा के विकास में बुंदेली का अहम योगदान है।’’ अब बुंदेली का प्रभाव टीवी चैनल्स पर छाता जा रहा है। इससे पहले मंचों और सीडी के माध्यम से बुंदेली लोकगीतों एवं नाटकों का बोलबाला रहा किन्तु अपसंस्कृति की छाया ने इसमें फूहड़पन घोल दिया। जिससे बुंदेली एक बार फिर तिरस्कार की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन टीवी चैनल्स ने बुंदेली के प्रसार में एक नई जान फूंक दी। चूंकि टीवी चैनल्स परिवार के साथ देखे जा सकने वाले कार्यक्रम दिखाने के अधिकारी होते हैं अतः इनमें बुंदेली के स्तर को चोट पहुंचने की संभावना नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि हप्पू सिंह के किरदार के रूप में बुंदेली को हास्य की भाषा के रूप में प्रोजेक्ट करने से नुकसान हो सकता है किन्तु वस्तुतः यह भय निरापद है। हास्य-व्यंग्य के संवाद किसी भी व्यक्ति के दिल को गुदगुदाते हैं और उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इससे संबंधित भाषा को भी निकअता पाने का अवसर मिलता है। लोग आज बुंदेली के संवादों को बहुत पसंद करने लगे हैं। हप्पू सिंह के किरदार में कलाकार योगेश त्रिपाठी जब किसी भी मंच से अपने सीरियल के डाॅयलाॅग ‘‘काए कां गए थे’’ या ‘‘काय का हो रओ’’ बोलते हैं तो बुंदेलीखंड से बाहर के श्रोता ओर दर्शक भी न केवल तालियां बजाते हैं बल्कि उनके डाॅयलाॅग दोहराने लगते हैं। बुंदेली संवादों ने टीवी चैनल्स की टीआरपी पर भी अपनी धाक जमा ली है। एक और टीवी सीरियल ‘‘गुडिया हमारी सब वे भारी’’ में बुंदेली संवाद और बुन्देली पारिवारिक चुहलबाजी को बड़े खूबसूरत ढंग से प्रसतुत किया गया है। इसे भी हिन्दी भाषी क्षेत्रों भरपूर लोकप्रियता मिल रही है। इसमें चुलबुली गुडिया का किरदार सारिका बहरोलिया अपने बुन्देली के शब्दों से खूब वाहवाही पा रही हैं।
सन् 1992 में आए प्रसिद्ध टीवी धरावाहिक ‘‘परिवर्तन’’ से अपनी पहचान बनाने वाले गोविंद नामदेव आज एक लोकप्रिय अभिनेता हैं। उनके अभिनय की विविधता दर्शकों को हमेशा प्रभावित करती है। सन् 1995 में महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सीरियल ‘‘स्वाभिमान’’ में आशुतोष राणा एक सादगी भरे ऐसे ग्रामीण युवा जो शहर के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ है, के रोल में छोटे पर्दे पर आए तो दर्शकों के दिलों पर ‘‘त्यागी’’ के रूप में अपनी छाप छोड़ गए। महेश भट्ट ने उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ाया और आशुतोष राणा को अपनी फिल्म ‘‘दुश्मन’’ में सायको किलर ‘‘गोकुल पंडित’’ के रोल के लिए चुना। सन् 1098 में फिल्म ‘‘चाईना गेट’’ में सागर में जन्में और सागर में ही पले-बढ़े मुकेश तिवार को ‘‘जगीरा’’ का रोल मिला तो उनका बोला यह संवाद बच्चे-बच्चे की जुबान पर छा गया था-‘‘मेरे मन को भाया, मैं कुत्ता काट के खाया।’’ अकसर यह हंसी मज़ाक में कहा जाता है कि बुंदेलखंड के अभिनेताओं को हीरो के बदले विलेन का ही रोल मिलता है। जब यही प्रश्न गोविंद नामदेव से पूछा गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘बुंदेलखंड के पानी में ठसक है, इसलिए यहां के विलेन सबसे ज्यादा सामने आ रहे हैं और कोई बड़ा हीरो अभी तक नहीं आया।’’ यह बहुत हद तक सच है कि बुंदेलखंड के किसी भी अभिनेता को हीरो का रोल नहीं मिल पाया है लेकिन यह भी सच है कि ललितपुर में जन्में अभिनेता राजा बुंदेला ने ‘‘विजेता’’ और ‘‘अर्जुन’’ जैसी फिल्मों में सकारात्मक रोल किए। स्वयं गोविंद नामदेव ने अनेक सकारात्मक रोल किए हैं। बेशक़ यह कमी जरूर रही है कि बुंदेलखंड से किसी अभिनेत्री ने अपनी जोरदार उपस्थिति बाॅलीवुड में अभी तक दर्ज़ नहीं कराई है। लेकिन संभावनाएं विपुल हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड में फिल्म फेस्टिवल्स के छोटे-बड़े कई आयोजन हो चुके हैं। खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में देशी विदेशी फिल्मों के साथ बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा बनाई गई टेली और शार्ट फिल्मों तथा वृत्त चित्रों का भी प्रदर्शन किया जाने लगा है। इससे मंनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं में उत्साह बढ़ा है। झांसी और ओरछा में भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं। अभिनेता गोविंद नामदेव सागर, दमोह आदि शहरों में अभिनय प्रशिक्षण शिविर लगा कर प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे बुंदेली कलाकारों को अपनी अभिनय क्षमता को निखारने का अवसर मिलता है तथा वे आत्मविश्वास के साथ फिल्म और टेलीविजन की ओर बढ़ने लगे हैं।
खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में कई बुंदेली शार्ट्स फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें कुछ फिल्में वाकई गंभीर विषयों पर थीं ओर उन्हें पूरी गंभीरता से बनाया गया था। बुंदेलखंड के युवा फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा कि वे ‘‘टिकटाॅक’’ की ज़मीन से ऊपर उठ कर फिल्म बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। माना कि बुंदेलखंड में आर्थिक साधनों की कमी है लेकिन यह बात याद रखने की है कि ‘चक्र’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘अंकुर’ जैसी कालजयी फिल्में सीमित साधनों में बनाई गई थीं। यदि अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वरिष्ठ अभिनेताओं, निर्देशकों एवं निर्माताओं से सीखते हुए बुंदेलखंड के युवा मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड का नाम रोशन करेंगे।

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बुंदेलखंड की कुरैया सिखाती है अन्न का सम्मान और सामाजिकता - डाॅ. शरद सिंह ... नवभारत, 05.12.2019 में प्रकाशित

बुंदेलखंड की कुरैया सिखाती है अन्न का सम्मान और सामाजिकता
- डाॅ. शरद सिंह
(नवभारत, 05.12.2019 में प्रकाशित)
 
बुन्देलखण्ड में प्रचलित कुरैया, कहने को तो महज एक बरतन होता है। यह पीतल की बनाई जाती है जो कि पारम्परिक बरतन विक्रेताओं की दूकानों पर उपलब्ध रहती है। कुरैया से छोटा भी एक माप होता है जिसे चैथिया कहते हैं जो एक किलो माप का होता है। यह पीतल के अलावा लकड़ी का भी बनाया जाता है। किन्तु कुरैया सिर्फ़ पीतल का ही बनाया जाता है। कुरैया का आकार-प्रकार विशिष्ट होता है। अर्द्धगोलाकार आकृति के ऊपरी भाग में चौड़ा पाट बिठा कर इसे आकार दिया जाता है। यह चौड़ा पाट दोहरे पट्टे का होता है जिससे पकड़ते समय असुविधा न हो। यह एक ऐसा बरतन है जो प्रत्येक किसान के जीवन से जुड़ा रहता है। कुरैया अनाज मापने का एक बरतन होता है जिसके द्वारा अनाज को माप कर यह पता लगाया जाता है कि खेत में कुल कितनी फसल हुई। कुरैया से मापे जाने के बाद ही अनाज के बोरों को तराजू पर तौला जाता है। इस तरह माप का पहला विश्वास भी कुरैया ही होता है।
 Navbharat -  Bundelkhand Ki Kuraiya Sikhati Hai Ann Ka Samman Aur Samajikta  - Dr Sharad Singh, 05.12.2019
           कुरैया को प्रयोग में लाने के भी कुछ नियम होते हैं। आमतौर पर खेत पर पुरुष ही इसका उपयोग करते हैं। यह अथक श्रम से जुड़ा हुआ बरतन है। कुरैया को कभी भी जूता या चप्पल पहन कर उपयोग में नहीं लाया जाता है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि जिस स्थान पर इसे काम में लाते हैं वहां अनाज का ढेर अर्थात् अन्नदेव उपस्थित रहते हैं। जूते और चप्पल को उस स्थान से दूर उतार दिया जाता है। कुरैया से माप करने वाला व्यक्ति कभी नंगे सिर इससे माप नहीं करता है। सिर पर गमछा, साफ़ा या किसी भी प्रकार का कपड़ा बांध कर ही कुरैया को उपयोग में लाया जाता है। इसके पीछे यह विचार निहित रहता है कि कुरैया पवित्रा बरतन है जो अन्नदेव की सेवा में संलग्न है। कुरैया को अनाज मापने के अतिरिक्त किसी अन्य काम में नहीं लाया जाता है। कुरैया की मापक क्षमता पांच किलो अर्थात् एक पसेरी रहती है। अन्न का माप करते समय कुरैया को ऊपर तक पूरी तरह भरा जाता है। अन्न की यह ऊपर तक भरी हुई मात्रा पांच किलो मानी जाती है। कुरैया द्वारा मापा हुआ अन्न तराजू द्वारा तौल करने पर पांच किलो ही निकलता है। बीस कुरैया का एक बोरा होता है अर्थात् सौ किलो माप का। अनाज को कुरैया से मापते समय अन्न के खेप की गिनती भी विशेष प्रकार से की जाती है। पहली माप को ‘एक’ न कह कर ‘राम’ कहा जाता है। दूसरी माप करते समय, जब तक कुरैया ऊपर तक भर नहीं जाती तब तक ‘राम-राम-राम’ का ही उच्चारण किया जाता है। कुरैया ऊपर तक भरने के पश्चात दूसरी माप से ‘दो-दो-दो’ का उच्चारण किया जाता है। इसके बाद इसी क्रम में तीन-तीन-तीन, चार-चार-चार, पांच-पांच-पांच आदि सामान्यतौर पर माप की जाने वाली गिनती बोली जाती है। इस प्रकार अनाज की पहली माप ‘राम’ नाम से आरम्भ होती है जो शुभ-लाभ का पर्याय है।
कुरैया के प्रति जुड़ा हुआ यह सम्मान भाव उस लोक विश्वास का परिचायक है जो अन्न की महत्ता को स्थापित करता है। कुरैया अनाज का सम्मान करना सिखता है। इस सम्मान की भावना को बलवती बनाने के लिए उन सभी वस्तुओं को सम्मान दिया जाता है जो अन्नदेव से जुड़ी होती हैं। कुरैया भी उनमें प्रमुख वस्तु है। कुरैया का एक दूसरा पक्ष भी है जो पारस्परिक सौहार्य को सुदृढ़ता प्रदान करता है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक फसल उत्पादक के पास अपना कुरैया हो। यदि उसके पास कुरैया नहीं है तो वह दूसरे व्यक्ति से कुरैया मांग लेता है। एक कुरैया को एक से अधिक किसान उपयोग में लाते हैं। कई बार एक गांव के लोग दूसरे गांव से कुरैया मांग कर लाते हैं। माप का काम हो जाने के बाद पूरी ईमानदारी के साथ कुरैया उसके वास्तविक स्वामी के पास पहुंचा दिया जाता है। कई बार कुरैया को लौटाए जाने में देर होने पर उसके स्वामी के घर की महिलाएं इस प्रकार उसका स्मरण करती हैं जैसे उनकी छोटी बहन या बेटी ससुराल गई हो और बहुत अरसे से मायके न आई हो। इसी भाव को व्यक्ति करता यह लोकगीत कुरैया के प्रति आत्मीयता को दर्शाता है-
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई
कोऊ जाओ तो ले आओ, लेवउआ बन के
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई....
गहूं के लाने गई थी,
चना के लाने गई थी
कोऊ जाओ तो ले आओ, लेवउआ बन के
मोरी बिन्ना सी कुरैया अबे लों ने आई....
कुरैया मानो परिवार का सदस्य हो, कुरैया मानो अन्नदेव तक संदेश पहुंचाने वाला देवदूत हो। किसान कुरैया से अनुनय-विनय करता है कि उसका संदेश अन्नदेव तक पहुंचा दे-
कहियो, कहियो कुरैया! जा के नाजदेव से
अगले बरस सोई भर-भर आइयो
हमरी खबर मालिक ना बिसराइयो
कुइयां न सूकें, सूकें न नदियां
कहियो, कहियो कुरैया! जा के नाजदेव से.....
इस तरह धातु से बना मूक बरतन किसी सजीव व्यक्ति की भांति संदेशवाहक बन जाता है। यही तो जीवन्त विश्वास और मान्यता है जो प्रत्येक जड़-चेतन के महत्व को स्थापित करती है। कुरैया आपसी सौहार्य एवं भाईचारे का माध्यम बनता ही है किन्तु इससे से भी बढ़ कर महत्वपूर्ण तथ्य है कि प्रायः ग्राम्य अंचलों में जातीय भेद-भाव प्रभावी रहता है किन्तु कुरैया का उपयोग इसका अपवाद है। यह प्रत्येक जाति-धर्म के लोगों के बीच परस्पर आदान-प्रदान के रूप में काम में लाया जाता है। कुरैया मानव विश्वास और सामाजिकता का प्रतीक है।
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#नवभारत #बुंदेलखंड #शरदसिंह #कुरैया

Friday, December 27, 2019

इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में डॉ शरद सिंह का बतौर स्पीकर - दूसरा सत्र

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019
         इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019, 22 दिसंबर को मेरे दूसरे सत्र में 'साहित्यकार पाठक संबंधों में सूखा क्यों? तथा हिन्दी में बेस्टसेलर मारीचिका’ विषयों पर महत्वपूर्ण विचार विमर्श हुआ जिसमें मेरे साथ शामिल थे वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, आशुतोष दुबे, नीलोत्पल मृणाल और निर्मला जी... समाचार एवं छायाचित्र उसी सत्र के...
Thank you Indore Literature Festival 2019 🌹
Thank you Patrika, Indore
🌹

    मेरे दूसरे सत्र का संयुक्त विषय था-‘साहित्यकार पाठक संबंधों में सूखा क्यों? तथा हिन्दी में बेस्टसेलर मारीचिका’। इस दोनों मुद्दों पर महत्वपूर्ण विचार विमर्श हुआ, जिसमें मेरे साथ शामिल थे वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, आशुतोष दुबे, नीलोत्पल मृणाल और निर्मला जी। इसी सत्र में हिन्दी साहित्य जगत में पुस्तकों और पाठकों का पारस्परिक संबंध और पुस्तकों की राॅयल्टी पर चर्चा हुई। युवा लेखक नीलोत्पल मृणाल का कहना था कि उन्हें राॅयल्टी की कोई समस्या नहीं है। वहीं, लीलाधर जगूड़ी और डाॅ आशुतोष दुबे ने माना कि हिन्दी जगत में राॅयल्टी की समस्या है, उस पर कविता की किताबों पर तो और भी अधिक समस्या है। निर्मला जी ने उस ओर संकेत किया कि हिन्दी में बेस्टसेलर के चयन का तरीका संदिग्ध है। मैंने भी अपने विचार सामने रखे कि यदि हिन्दी में भी जब नए कथानक और नए शिल्प ले कर उपन्यास सामने आते हैं तो पाठक उसे हाथों-हाथ लेते हैं। मैंने अपने नवीनतम उपन्यास के अनुभव को भी वहां सामने रखा कि सोशल मीडिया पर अपने नवीनतम उपन्यास ‘शिखण्डी...स्त्री देह से परे’ के बारे में जैसे ही पोस्ट डाॅली तो फेसबुक से इंस्टाग्राम और ट्विटर तक मुढसे ये प्रश्न किए जाने लगे कि इसे किसने प्रकाशित किया है? यह कहां मिलेगा? यह कब तक उपलब्ध हो जाएगा? क्या यह विश्व पुस्तक मेले में मिल जाएगा? यानी पाठक नए विषय और नए दृष्टिकोण के प्रति हमेशा जिज्ञासु रहते हैं। रहा पुस्तक के बेस्टसेलर की दौड़ का सवाल तो इस दौड़ में बुराई नहीं है बशर्ते हम अपने लेखन की मूलप्रवृत्ति को न गिरने दें।

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

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Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

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Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

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Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019
Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019, Patrika, Indore, 23.12.2019
 

इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में डॉ शरद सिंह का बतौर स्पीकर - पहला सत्र

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019
इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019, 22 दिसंबर को मेरे पहले सत्र में मेरे लेखन और मेरे नए उपन्यास "शिखंडी" के बारे में मुझसे चर्चा की कवि मॉडरेटर आशुतोष जी ने... समाचार एवं छायाचित्र उसी सत्र के...
Thank you Indore Literature Festival 2019 🌹
Thank you Naidunia, Indore 🌹 


    हैलो हिन्दुस्तान द्वारा आयोजित इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में बतौर स्पीकर मैंने भी दो सत्रों में साहित्य पर चर्चाएं की। मेरे प्रथम सत्र में साहित्यकार डाॅ आशुतोष दुबे ने मुझसे मेरे लेखन के बारे में विस्तृत चर्चा की। मेरे उपन्यासों एवं स्त्रीविमर्श लेखन के संदर्भ में उन्होंने बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। जिनमें से एक प्रश्न था कि क्या साहित्य में फोटोग्राफिक यथार्थ होना चाहिए? मैं व्यक्तिगतरूप से यथार्थवादी लेखन की हिमायती हूं और यथार्थ मेरे साहित्य में मुखर रहता है। चूंकि यह साहित्य होता है अतः कल्पना और साहित्यिक शिल्प की सरसता तो इसमें स्वतः शामिल हो जाती है। इसी तारतम्य में डाॅ आशुतोष दुबे ने एक और मुद्दा उठाया कि हिन्दी में अकसर समीक्षकों द्वारा गढ़े गए फार्मेट पर खरे न उतर पाने का डर लेखक को बना रहता है जो लेखन को प्रभावित करता है। इस पर मैंने उत्तर दिया कि यह लेखक को स्वयं तय करना चाहिए कि वह अपने विषय के साथ न्याय करने के लिए और पाठकों के लिए लिख रहा है अथवा समीक्षकों के लिए। मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि समीक्षकों के डंडे डर के साए में कोई अच्छा साहित्य नहीं रच सकता है। लेखक में अपनी छूट लेने का हौसला होना चाहिए। चर्चा हुई मेरे उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ के संदर्भ में लिव इन रिलेशन पर। इस पर मैंने वही कहा जो मेरे उपन्यास के केन्द्र में है कि लिव इन रिलेशन एक आग का दरिया है, जो तैरने का हौसला रखता हो वह तैरे, लेकिन उससे जुड़ी चैतरफा समस्याओं को ध्यान में रख कर। ऐसे संबंधों में सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का होता है तो वह स्त्री का ही। फलां के साथ रह चुकी का टैग उसके नाम के साथ जुड़ जाता है जबकि उसका पुरुष साथी स्वतंत्र जीवन जीता है।
          इसी सत्र में डाॅ आशुतोष द्वारा मेरे नवीनतम उपन्यास ‘‘शिखण्डी ... स्त्री देह से परे’’ के बारे में प्रश्न किए। जिनका उत्तर देते हुए मैंने बताया कि मेरा यह उपन्यास महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र शिखण्डी के जीवन पर आधारित है। अपने उपन्यास में मैंने शिखण्डी के साथ जुड़े उस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है कि वह थर्ड जेंडर था। वस्तुतः वह मूलतः एक स्त्री थी जो परिस्थितिवश पुरुष बनने को विवश हुई किन्तु आत्मा और अंतर्मन से सदैव स्त्री ही रही। यह स्त्री संघर्ष की मार्मिक गाथा है जिसे मैंने तथ्यों का गहनता से अध्ययन करने के पश्चात उपन्यास में ढाला है। मेरा यह उपन्यास पाठकों को न केवल चौंकाएगा अपितु उन्हें नए सिरे से सोचने पर भी विवश करेगा। 

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019

Dr (Miss) Sharad Singh Speaker of Indore Literature Festival 2019, -News Nai Dunia Indore, 23.12.2019

Wednesday, December 25, 2019

चर्चा प्लस ... शीतऋतु में गरमाता रहा पुस्तक प्रकाशन, पाठक और राॅयल्टी चिंतन - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... शीतऋतु में गरमाता रहा पुस्तक प्रकाशन, पाठक और राॅयल्टी चिंतन
  - डाॅ. शरद सिंह
    21- 23 दिसंबर 2019 को ‘इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल’ हुआ मध्यप्रदेश की व्यावसायिक नगरी इन्दौर में। इस दौरान देश में माहौल रहा कैब के विरोध का। अनेक उड़ान स्थगित, अनेक ट्रेन रद्द। कहीं घना कोहरा, कहीं बादल, तो कहीं शीत लहर। किंतु साहित्य की दुनिया में दुनिया के चिंतन के साथ ही साहित्य की दिशा, दशा और भविष्य पर भी चिंता की गई। पुस्तकें प्रकाशन, पाठक, राॅयल्टी चिंतन और पाकिस्तान की हरक़तें ये सभी प्रश्न एक साथ उमड़ते-घुमड़ते रहे। यह पर्याप्त था वैचारिक शीत को गरमाने के लिए।     
भारतीय मूल के कनेडियन लेखक तारेक फतेह ने ‘‘पाकिस्तान: स्टेट स्पाॅन्सर आॅफ टेरोरिज़्म’ विषय पर बोलते हुए कहा कि ‘‘दिल्ली के लोदी रोड का नाम बदल देना चाहिए’’ तो मुद्दा आ सिमटा भारत के आंतरिक मामलों पर। इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल के संकल्पनाकार एवं माॅडरेटर प्रवीण शर्मा ने अपनी वाक्पटुता से उन्हें पुनः पाकिस्तान और वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान से उनकी निकटता का स्मरण कराया। यह सत्र वाकई विचारोत्तेजक रहा। सत्र के बाद कुछ लोगों का यह सोचना भी वाज़िब था कि दूसरे देश की नागरिकता ले कर भारतीयों पर आक्षेप लगाना सरल है, बेहतर होता कि वे अपने देश भारत की नागरिकता ले कर यहीं रहते हुए यहां की परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी उन सभी बातों पर अमल करते जो वे मंच से कह रहे थे। बहरहाल, इस आयोजन पर वर्तमान वातावरण का कुछ तो असर पड़ना ही था। लिहाज़ा नादिरा बब्बर, तरुण भटनागर आदि कुछ स्पीकरर्स नहीं आ सके किन्तु अप्रत्याशित रूप से तस्लीमा नसरीन का उपस्थित हा जाना सुखद किन्तु चैंका देने वाला रहा क्योंकि वे घोषित कार्यक्रम में शामिल नहीं थीं।
चर्चा प्लस ... शीतऋतु में गरमाता रहा पुस्तक प्रकाशन, पाठक और राॅयल्टी चिंतन - डाॅ. शरद सिंह
         हैलो हिन्दुस्तान द्वारा आयोजित इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में बतौर स्पीकर मैंने भी दो सत्रों में साहित्य पर चर्चाएं की। मेरे प्रथम सत्र में साहित्यकार डाॅ आशुतोष दुबे ने मुझसे मेरे लेखन के बारे में विस्तृत चर्चा की। मेरे उपन्यासों एवं स्त्रीविमर्श लेखन के संदर्भ में उन्होंने बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। जिनमें से एक प्रश्न था कि क्या साहित्य में फोटोग्राफिक यथार्थ होना चाहिए? मैं व्यक्तिगतरूप से यथार्थवादी लेखन की हिमायती हूं और यथार्थ मेरे साहित्य में मुखर रहता है। चूंकि यह साहित्य होता है अतः कल्पना और साहित्यिक शिल्प की सरसता तो इसमें स्वतः शामिल हो जाती है। इसी तारतम्य में डाॅ आशुतोष दुबे ने एक और मुद्दा उठाया कि हिन्दी में अकसर समीक्षकों द्वारा गढ़े गए फार्मेट पर खरे न उतर पाने का डर लेखक को बना रहता है जो लेखन को प्रभावित करता है। इस पर मैंने उत्तर दिया कि यह लेखक को स्वयं तय करना चाहिए कि वह अपने विषय के साथ न्याय करने के लिए और पाठकों के लिए लिख रहा है अथवा समीक्षकों के लिए। मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि समीक्षकों के डंडे डर के साए में कोई अच्छा साहित्य नहीं रच सकता है। लेखक में अपनी छूट लेने का हौसला होना चाहिए। चर्चा हुई मेरे उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ के संदर्भ में लिव इन रिलेशन पर। इस पर मैंने वही कहा जो मेरे उपन्यास के केन्द्र में है कि लिव इन रिलेशन एक आग का दरिया है, जो तैरने का हौसला रखता हो वह तैरे, लेकिन उससे जुड़ी चैतरफा समस्याओं को ध्यान में रख कर। ऐसे संबंधों में सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का होता है तो वह स्त्री का ही। फलां के साथ रह चुकी का टैग उसके नाम के साथ जुड़ जाता है जबकि उसका पुरुष साथी स्वतंत्र जीवन जीता है।    
मेरे दूसरे सत्र का संयुक्त विषय था-‘साहित्यकार पाठक संबंधों में सूखा क्यों? तथा हिन्दी में बेस्टसेलर मारीचिका’। इस दोनों मुद्दों पर महत्वपूर्ण विचार विमर्श हुआ, जिसमें मेरे साथ शामिल थे वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, आशुतोष दुबे, नीलोत्पल मृणाल और निर्मला जी। इसी सत्र में हिन्दी साहित्य जगत में पुस्तकों और पाठकों का पारस्परिक संबंध और पुस्तकों की राॅयल्टी पर चर्चा हुई। युवा लेखक नीलोत्पल मृणाल का कहना था कि उन्हें राॅयल्टी की कोई समस्या नहीं है। वहीं, लीलाधर जगूड़ी और डाॅ आशुतोष दुबे ने माना कि हिन्दी जगत में राॅयल्टी की समस्या है, उस पर कविता की किताबों पर तो और भी अधिक समस्या है। निर्मला जी ने उस ओर संकेत किया कि हिन्दी में बेस्टसेलर के चयन का तरीका संदिग्ध है। मैंने भी अपने विचार सामने रखे कि यदि हिन्दी में भी जब नए कथानक और नए शिल्प ले कर उपन्यास सामने आते हैं तो पाठक उसे हाथों-हाथ लेते हैं। मैंने अपने नवीनतम उपन्यास के अनुभव को भी वहां सामने रखा कि सोशल मीडिया पर अपने नवीनतम उपन्यास ‘शिखण्डी...स्त्री देह से परे’ के बारे में जैसे ही पोस्ट डाॅली तो फेसबुक से इंस्टाग्राम और ट्विटर तक मुढसे ये प्रश्न किए जाने लगे कि इसे किसने प्रकाशित किया है? यह कहां मिलेगा? यह कब तक उपलब्ध हो जाएगा? क्या यह विश्व पुस्तक मेले में मिल जाएगा? यानी पाठक नए विषय और नए दृष्टिकोण के प्रति हमेशा जिज्ञासु रहते हैं। रहा पुस्तक के बेस्टसेलर की दौड़ का सवाल तो इस दौड़ में बुराई नहीं है बशर्ते हम अपने लेखन की मूलप्रवृत्ति को न गिरने दें। सोशल मीडिया के प्रभाव पर भी कई सत्रों में चर्चा हुई जिसमें अंग्रेजी के युवा लेखकों ने अपने विचार साझा किए और चिंता जताई।
एक प्रश्न जिस पर विचार होना चाहिए कि जब हम हिन्दी साहित्य की दशा का आकलन करते हैं तो किताबों की बिक्री और अंग्रेजी के भारतीय लेखकों की बेस्टसेलर की लिस्ट को ले कर बैठ जाते हैं, क्या ऐसा ही होना चाहिए? क्या हमें यह ध्यान नहीं रखना चाहिए कि हिन्दी में साहित्य का स्तर आज भी ज़मीन से अधिक जुड़ा हुआ है, भारतीय अंग्रेजी साहित्य की तुलना में। दूसरी सबसे बड़ी बात कि हिन्दी और अंग्रेजी के पाठकों का अंतर वहीं से शुरू हो जाता है जहां माता-पिता अपने बच्चों को हिन्दी स्कूल और अंग्रेजी स्कूल में भर्ती करने की अपनी आर्थिक क्षमता में बंट जाते हैं। हिन्दी स्कूल से पढ़ कर निकला पाठक आमतौर पर औसत आमदनी वाला होता है और वह कई बार अपनी साहित्य पढ़ने की भूख मांग कर मिटाने को विवश रहता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जो किताब कम बिकी वह कम ही पढ़ी गई। हिन्दी साहित्य में अभी भी बिक्री और पाठकों का अनुपात बराबर का नहीं है। इसी का दूसरा पक्ष देखें तो जो बिकता है वह जरूरी नहीं है कि बेहतर ही हो। हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती। बेशक़ यह मुद्दा भी लम्बी और गहन चर्चा का विषय है जिस पर एक अच्छा-खासा सेमिनार हो सकता है।  
बहरहाल हमेशा की तरह कुछ वरिष्ठजन, कुछ मित्रो और कुछ नए सहधर्मियों से मुलाकात हुई। वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, डॉ शैलेंद्र कुमार शर्मा, श्रीमती निर्मला भुराड़िया, डॉ तेज प्रकाश व्यास आदि से मिलना सुखद रहा। जैसा कि हमेशा होता है कि ऐसे लिटरेचर फेस्टिवल कई ज्वलंत मुद्दे उठाते हैं, कई विचार दिमाग़ों में सुलगते हुए छोड़ जाते हैं जिनसे वैचारिक शीत की चादर धीरे-धीरे गरमाती रहती है।                  ---------------------------  
(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 25.12. 2019)
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Saturday, December 21, 2019

बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला - डॉ. शरद सिंह - नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित

Dr ( Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला
   - डॉ. शरद सिंह     
   ( नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित)
       जब मनुष्य ने आकृतियां बनाना आरंभ किया होगा तब सबसे पहले उसने मिट्टी का ही सहारा लिया होगा । खाने के उपयोग में लाए जाने वाले बर्तन, बच्चों के खिलौने,  महिलाओं के पहनने वाले आभूषण सभी वस्तुएं मिट्टी से ही बनाना शुरू किया होगा। मनुष्यों ने बुंदेलखंड में प्रागैतिहासिक काल से मनुष्यों का निवास स्थान रहा है। अनेक स्थानों से प्रागैतिहासिक कालीन खिलौने और आभूषण के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो यह साबित करते हैं बुंदेलखंड में मिट्टी से बनाई जाने वाली कलाकृतियों की परंपरा बहुत पुरानी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज की  मिट्टी से अनेक कलाकृतियां बनाई जाती हैं। जिनमें कुछ सजावटी होती हैं तो कुछ बच्चों के खेलने के लिए खिलौनों के रूप में, कुछ दैनिक जीवन में उपयोग में लाए जाने वाले बर्तनों के रूप में तथा कुछ आभूषण के रूप में।
बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला     - डॉ. शरद सिंह - नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित
           बुंदेलखंड में बच्चों के खेलने के लिए हाथी, पक्षी,  गुड्डे-गुड़िया आदि खिलौने बनाए जाते हैं। कुछ खिलौने आमतौर पर कुछ विशेष त्योहारों के समय बनाए और बेंचे जाते हैं। जैसे संक्रांति के समय मिट्टी के घोड़े और हाथी बनाए जाते हैं, जिनमें  पाहिए लगे होते हैं। इनकी सुंदरता देखते ही बनती है। इनमें लगाम और महावत सहित सुंदर चित्रकारी भी होती है। ये हाथी, घोड़े इस प्रकार के होते हैं कि जिनमें सुतली बांधकर बच्चे आसानी से दौड़ा सकते हैं। खिलौने  के रूप में बैलगाड़ी की बनाई जाती है। इसी प्रकार बालिकाओं को घरेलू कामकाज की शिक्षा देने वाले खिलौनों में गेहूं पीसने की चक्की बनाई जाती है। इसमें बाक़ायदे दो पाट होते हैं। गेहूं अथवा अनाज डालने के लिए छेद भी बना होता है। साथ ही चक्की में  मूठ फंसाने के लिए भी छेद होता है। बच्चों के खेलने के लिए गुड्डा और गुड़िया बनाई जाती हैं जिन्हें पुतरा- पुतरियां कहते हैं। यह पुतरा- पुतरिया खेलने के काम आती हैं और अक्षय तृतीया के समय इनका विवाह भी रचाया जाता है, जो सामाजिक संस्कारों की शिक्षा देने का एक बेहतरीन माध्यम बनता है।  मिट्टी की इन पुतरा- पुतरियों को सुंदर कपड़े पहनाए जाते हैं तथा हाथ से बने सुंदर ज़ेवरों से सजाया जाता है। बच्चों के खेलने के लिए है पानी भरने के लिए छोटे-छोटे घड़े, रसोई घर के बर्तन, चूल्हा आदि बनाया जाता है। आजकल आधुनिक युग में छोटे-छोटे गैस के सिलेंडर की बनाए जाते हैं, जिन्हें बड़ी खूबसूरती से लाल रंग से रंगा जाता है जिससे वे देखने में असली कुकिंग गैस के सिलेंडर जैसे दिखाई देते हैं।
        धार्मिक आयोजनों के  लिए मिट्टी की बनी कलाकृतियां बनाई जाती हैं।  दीपावली के दिए तो सर्वविदित है और यह लगभग सभी जगह बनाए जाते हैं किंतु कुछ कलाकृतियां ऐसी हैं जो देवी-देवताओं की हैं और जिनका संबंध बुंदेलखंड से ही है। जैसे  महालक्ष्मी की पूजा के लिए महालक्ष्मी की प्रतिमा बनाई जाती है। यह प्रतिमा गज पर सवार महालक्ष्मी की होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसे पूर्ण पकाया नहीं जाता है अर्थात  इसमें कच्चा रहता है किंतु इसकी साज-सज्जा बहुत ही सुंदर ढंग से की जाती है। चटक रंग का प्रयोग करते हुए साड़ी, कपड़े और सोने के रंग के आभूषण उकेरे जाते हैं। हाथी को भी सजाया जाता है। ग्वालन की मूर्तियां बनाई जाती है जो पूजा के दौरान दीप स्तंभ यानी कैंडल स्टैंड का काम भी करती हैं। इनमें पांच या पांच से अधिक दिए बनाए जाते हैं जिनमें तेल भरकर बाती लगाकर प्रज्वलित किया जाता है। देश के अन्य प्रांतों की भांति बुंदेलखंड  मे भी मिट्टी की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पूजा के उपयोग के लिए अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाने में बुंदेलखंड के कलाकारों को महारत हासिल है।
        दैनिक जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं में मिट्टी से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुएं हैं जैसे घड़े, नांद और तसले आदि।  ये दो प्रकार के होते हैं- लाल रंग के और काले रंग के। लाल रंग के बर्तनों में अधिक छिद्र होते हैं और इन पर हल्की रंगों से अथवा सफेद रंग से चित्रकारी की जाती है।   वही काले रंग के बर्तन ग्लेज़्ड होते हैं। इस प्रकार के बर्तनों का उपयोग आमतौर पर दही जमाने, भोजन पकाने, दूध-दही रखने और अचार आदि अधिक दिनों तक रखी जाने वाली खाद्य वस्तुओं  को रखने के लिए होता है।
          सुदूर ग्रामीण अंचलों में आंखें मिट्टी की गुरियां बनाई जाती हैं। इन गुरियों से तरह-तरह की मालाएं बनाई जाती हैं।  आजकल इस तरह की माला तथा आभूषणों का चलन बढ़ गया है। इनकी मांग शहरों की दुकानों से लेकर एंपोरियम तक होती है। यद्यपि इन्हीं बनाने वाले कारीगरों को इस बात का ज्ञान नहीं रहता है कि उनसे ओने पौने दामों में खरीदी गई उनकी ये कलाकृतियां बड़ी दुकानों में ऊंचे ऊंचे दामों पर बेची जाती हैं।  यही हाल उन सजावटी वस्तुओं काफी है जो बुंदेलखंड के माटी शिल्पकार अपनी शिल्पी हाथों से गढ़ते हैं। ड्राइंग रूम को सजाने के लिए छोटे-छोटे घरों की आकृतियां, फेंगशुई में प्रचलित कछुए, लाफिंग बुद्धा, विंड चाइम्स, लैंपशेड आदि अनेक वस्तुएं यहां के कलाकार बनाते हैं। यह आमतौर पर बाजार हाट में अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बेचते हैं।   मेलों में भी इस प्रकार की वस्तुएं बेची जाती हैं। ऐसे स्थानों पर इन कलाकारों को उनकी कला का उचित मूल्य कम ही मिल पाता है किंतु उन्हें इसकी बिक्री का आनंद अवश्य मिलता है। वहीं कुछ एजेंसियां कलाकारों से सीधे संपर्क करके उनकी कलाकृतियां बहुत कम दामों में खरीद लेते हैं। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह माटी की कलाकृतियां माटी के मोल ही खरीद ली जाती हैं और इन्हें पर्यटन स्थल शहरों की इंटीरियर डेकोरेशन की दुकानों में ऊंचे दाम पर बेचा जाता है। 
          दरअसल,  बुंदेलखंड की माटी कला को पर्याप्त संरक्षण दिए जाने की आवश्यकता है किससे आधुनिकता की दौड़ में यह कला कहीं पीछे न छूट जाए साथ ही माटी कला की कुशल कलाकारों को भी संरक्षण दिए जाने की जरूरत है ताकि ये कलाकार  आर्थिक तंगी को सहते सहते अपनी कला से मुंह मोड़ लें। बुंदेलखंड की माटी कला में बुंदेली संस्कृति बस्ती है अतः यदि माटी कला को बचाया जाएगा, तो बुंदेली संस्कृति को बचाने काफी महत्वपूर्ण कार्य स्वतः होता रहेगा।
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