Sunday, February 9, 2020

शून्यकाल ... कबीर के स्त्री-विरोधी दोहों का सच- डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल 
कबीर के स्त्री-विरोधी दोहों का सच
- डॉ. शरद सिंह
      कबीर ने समाज को आईना दिखाने वाले और मानव-प्रेम के दोहे रचे। वह भी उस काल में जब बोधन जैसे कवि को मात्र इसलिए मृत्युदण्ड दे दिया गया था कि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म में कोई अंतर नहीं है। ऐसे दुरूह समय में पाखण्डियों को स्पष्ट शब्दों में ललकारने वाले कबीर क्या स्त्री-विरोधी दोहे लिख सकते हैं? यह एक चौंकाने वाला तथ्य है। यह एक शोध का विषय भी हो सकता है लेकिन इसके लिए पूर्वाग्रह से उठ कर बारीकी से तथ्यों को परखना होगा। इस संभावना पर भी गौर करना होगा कि कबीर को लांछित करने के लिए उनके नाम से स्त्री-विरोधी दोहे रच दिए गए हों।
कुछ समय पहले लखनऊ की एक शोध छात्रा ने मुझसे प्रश्न किया था कि ‘‘क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?’’ यह प्रश्न चेतना को आंदोलित करने वाला था। मैंने उससे पूछा कि आप किस आधार पर कबीर के बारे में यह प्रश्न कर रही हैं? इस पर उस छात्रा ने मुझे कबीर के दो दोहे सुनाए। निश्चितरूप से वे दोनों दोहे स्त्री-विरोधी थे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि मैं तत्काल इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगी दो दिन बाद उत्तर दूंगी। दो दिन में मैंने कबीर का लगभग तमाम साहित्य खंगाल डाला और साथ ही उस परिदृश्य पर भी ध्यान दिया जो कबीर के समय मौजूद था। दो दिन बाद उस शोध छात्रा ने फिर अपना प्रश्न दोहराया कि ‘‘क्या कबीर स़्त्री-विरोधी थे?’’ मैंने पूर्ण आश्वस्ति के साथ उसे उत्तर दिया कि मेरे विचार से कबीर स़्त्री-विरोधी नहीं थे। उसने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन वे दोहे जिनमें कबीर ने स्त्री को सर्प से अधिक विषधारी बताया है? उसने जो दो दोहे मुझे उदाहरण स्वरूप सुनाए वे इस प्रकार थे -
(1) नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
‘कबिरा’ तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।
तथा,
(2) नारी तो हमहूं करी, तब न किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।
इस पर मैंने उससे पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि वे स्त्री-विरोधी दोहे कबीर ने ही रचे हैं। कबीर वाचिक परम्परा के कवि थे। उन्होंने स्वयं कहा है कि -“मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।“ अतः जब विरोधीजन प्रकाशित, प्रमाणित रचनाओं में भी हेरफेर कर देते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि कबीर की स्पष्टवादिता से खीझे हुए विरोधियों ने उन्हें अपने खेमे का दिखाने के लिए कुछ स्त्री-विरोधी दोहे उनके नाम से प्रचारित कर दिए हों। इस पर गंभीरता से शोध होना चाहिए। मेरे विचार से तो शोध के उपरांत ऐसे भ्रामक दोहे कबीर-साहित्य से खारिज़ किए जाने चाहिए।

शून्यकाल ... कबीर के स्त्री-विरोधी दोहों का सच- डॉ. शरद सिंह, Dainik Bundeli Manch, .09.02.2020

07 दिसम्बर 2016 को बीना कॉलेज की प्राचार्या डॉ संध्या टिकेकर द्वारा ग्राम हिरनछिपा में जनजागरूकता अभियान के तहत एक अत्यंत सार्थक संगोष्ठी कराई गई। जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में अपने विचार रखते हुए मैंने इसी विषय की चर्चा करते हुए शोधार्थियों और विद्वानों से आग्रह किया कि संत कबीर के स्त्री-विषयक दोहों की पड़ताल करना आवश्यक है क्योंकि मुझे संदेह है कि स्त्री-विरोधी दोहे संत कबीर ने लिखे हैं। वे वाचिक परम्परा के कवि थे अतः यह संभव है कि उनके विरोधियों ने दुष्प्रचार के रूप में ऐसे दोहे उनके नाम के साथ प्रचारित कर दिए हों। इस पर उपस्थित विद्वानों मेरे मेरे विचार का समर्थन किया किन्तु एकाध विद्वान ने उस संदर्भ का घालमेल कर दिया जो तुलसीदास के स्त्री-विरोधी दोहे के रूप में जाना जाता है-‘ढोर, गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।’’ मैंने उनसे आग्रह किया कि कबीर और तुलसी के दोहों के संदर्भ परस्पर एकदम भिन्न हैं। तुलसी ने जो दोहा लिखा है वह रामकथा के अंतर्गत् विशिष्ट चरित्रों के संदर्भ मे लिखा है और इस पर अलग से स्वतंत्र विचार किया जाना चाहिए। जबकि कबीर के नाम वाले ये दोहे लिखित नहीं मौखिक परम्परा से आए हैं जिनमें नाम के दुरुपयोग की पूरी संभावना है। ये दोहे किसी कथा-संदर्भ के अंतर्गत भी नहीं हैं। अतः इन पर विचार करते हुए तुलसी के दोहे को परे रखना होगा।
कबीर ने जिस काल में दोहों की रचना की उस समय सिकन्दर लोदी का शासन था। सिकन्दर लोदी एक असहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक भेद-भाव की नीतियों के कारण समाज हिन्दू और मुस्लिम दो भागों में बंटा हुआ था। दोनों धार्मिक समाजों में एकता की बात करना अपराध की श्रेणी में गिना जाता था। इसका उदाहरण कवि बोधन के हश्र के रूप् में देखा जा सकता है। कवि बोधन ने यही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म एक समान है और परिणामस्वरूप उसे मुत्युदण्ड दे दिया गया। ऐसे दुरूह समय में कबीर दोनों धर्मों के पाखण्डियों को खुले शब्दों में ललकार रहे थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति, एक समाज का स्वरूप दिया। मूर्तिपूजा पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है -
पहान पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
या तो यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।
        इसी प्रकार खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर वे कटाक्ष करते हैं कि -
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय”
कबीर का नाम हिंदी भक्त कवियों में निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा में प्रमुखता से गिना जाता है। कबीर की रचनाओं को मुख्यतः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैः रमैनी, सबद, साखी। ’रमैनी’ और ’सबद’ गाए जाने वाले ’गीत या भजन’ के रूप में प्रचलित हैं। ’साखी’ शब्द साक्षी शब्द का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है - “आंखों देखी अथवा भली प्रकार समझी हुई बात।“ कबीर की साखियां दोहों में लिखी गई हैं जिनमें भक्ति व ज्ञान उपदेशों को संग्रहित किया गया है। कबीर ने उलटबांसियां भी कही हैं। कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वह आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के नायक थे। कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था, इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं तथा चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडियों को संबोधित करके कहा कि -
जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
जो तुम तुरक तुरकानी जाया, तो भीतर खतना क्यूं न कराया।।
कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी। यहां विचारणीय है कि जो कवि, जो विचारक मानवप्रेम और मानव एकता की बात करता हो वह स्त्री-विरोधी दोहे कैसे रच सकता है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि -
जांत-पांत पूछे नहिं कोय। 
हरि को भजे सो हरि का होय।।
इसके बाद कबीर के उस पक्ष को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें वे सूफी भावना को स्वीार करते हुए स्वयं को अर्थात् आतमा को स्त्री और परब्रह्म को पुरूष मानते हैं-
सुर तैंतीस कौतिक आए, मुनियर सहस अठासी।
कहैं ‘कबीर’ हम ब्याह चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।
अतः कबीर ने तो स्वयं को भी स्त्री माना और अपने गुरु रामानंद का स्मरण करते हुए यही कहा कि - 
कहैं ‘कबीर’ मैं कछु न कीन्हा। 
सखि सुहाग राम मोहि दीन्हा।।
एक बिन्दु यह भी है कि कबीर का जीवन के प्रति सकारात्मक एवं तटस्थ दृष्टिकोण था। उन्होंने कहा कि - 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
इस भंगुर जीवन का अंत जब मृत्यु ही है तो उससे भयभीत क्यां होना? इसी सत्य के महत्व को समझते हुए वे स्पष्टवादी बने रहे। उन्हें शासक, शासन अथवा पाखण्डियों से कभी भय नहीं लगा। उन्होंने कहा कि -
आए हैं तो जाएंगे, राजा, रंक, फकीर। 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।।
        कबीर ऐसे कवि थे जिन्होंने प्रेम की महत्ता को ज्ञान से भी ऊंचा बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है किन्तु प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो सच्चे अर्थों में मनुष्य बन गया शेष ज्ञान तो उसे स्वयं हो जाएगा-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
अतः प्रेम को सर्वोपरि मानने वाले, पाखण्ड को ललकारते हुए स्पष्ट बोलने वाले, आत्मा को स्त्री और ब्रह्म को पुरुष मानने वाले कबीर स्त्री-विरोधी दोहे भला कैसे रच सकते थे? मुझे तो संदेह है इन दोहों पर। मेरा हमेशा यही आग्रह रहेगा कि कबीर के विचारों के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले दोहों को जांचने और संदेहास्पद निकलने पर खारिज करने की जरूरत है।
-----------------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 09.02.2020)
#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #स्री_विरोधी #कबीर #दोहे #सच #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column 
#DrSharadSingh #drsharadsingh #miss_sharad

Saturday, February 8, 2020

शून्यकाल ... पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु और कुछ अनुत्तरित प्रश्न - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल 
पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु और कुछ अनुत्तरित प्रश्न
    - डॉ. शरद सिंह
      12 फरवरी, 1968, संध्या सात बज कर छः मिनट पर दीनदयाल जी के ममेरे भाई प्रभुदयाल ने मुखाग्नि दी और दीनदयाल जी की पार्थिव देह को अग्नि को समर्पित कर दिया गया। पंडित दीनदयाल जी की हत्या ने सभी के मन में ये दो प्रश्न जगा दिए थे कि ‘हत्या किसने की?’ और ‘हत्या का उद्देश्य क्या था?’ नानाजी देशमुख ने कहा था, ‘‘इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या आज भी भयंकर रहस्य बनी हुई है।’’
यहां मैं अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : दीनदयाल उपाध्याय’’ के कुछ अंश साझा कर रही हूं। 
    
10 फरवरी, 1968 को सुबह आठ बजे का समय था। दीनदयाल जी उस समय लखनऊ में अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना के निवास पर थे। देश की तत्कालीन राजनीतिक दशा पर चर्चा चल रही थी कि उसी समय दीनदयाल जी के लिए एक फोन आया। यह फोन किया था बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विन कुमार ने। वे पटना में बिहार जनसंघ की कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने जा रहे थे। अश्विन कुमार एवं बिहार इकाई के सभी पदाधिकारियों की यह हार्दिक इच्छा थी कि दीनदयाल जी इस सम्मेलन में उपस्थित रहें एवं सभी को उचित मार्गनिर्देश दें। इसी सम्बन्ध में अश्विन कुमार ने दीनदयाल जी से निवेदन किया। चूंकि 11 फरवरी, 1968 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल की बैठक होनी थी अतः दीनदयाल जी के समक्ष असमंजस की स्थिति थी। उस समय तक उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिला था कि उन्हें दिल्ली की बैठक में उपस्थित होना है अथवा नहीं। यही बात उन्होंने अश्विन कुमार से कही, ‘‘यदि सुंदर सिंह भंडारी जी ने दिल्ली की बैठक में भाग लेने को नहीं कहा तो मैं पटना आ सकता हूं।’’

शून्यकाल ... पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु और कुछ अनुत्तरित प्रश्न - डॉ. शरद सिंह, Dainik Bundeli Manch, 08.02.2020
    दीनदयाल जी की ओर से इतना अश्वासन अश्विन कुमार के लिए आशाजनक था। उधर अश्विन कुमार दीनदयाल जी के सम्भावित आगमन के समय स्वागत की तैयारी में जुट गये और इधर दीनदयाल जी सुंदर सिंह भंडारी के निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। अंततः पटना जाना तय हुआ।  पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस में प्रथम श्रेणी बोगी में दीनदयाल जी के लिए बर्थ आरक्षित कराई गयी। पठानकोट-स्यालदह एक्सप्रेस शाम सात बजे लखनऊ स्टेशन पहुंचती थी।
प्रथम श्रेणी के तीन कम्पार्टमेंट थे ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’। दीनदयाल जी की बर्थ ‘ए’ श्रेणी में थी। इसी कम्पार्टमेंट में भौगोलिक सर्वेक्षण के सहायक निदेशक ए.पी. सिंह के लिए आरक्षित बर्थ थी। ‘बी’ कम्पार्टमेंट में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के कांग्रेसी सदस्य गौरीशंकर राय के लिए बर्थ आरक्षित थी। यह कहा जाता है कि दीनदयाल जी ने अपनी सुविधा के लिए गौरीशंकर राय से अपनी सीट बदल ली और वे कम्पार्टमेंट ‘बी’ में आ गये। वे गौरीशंकर राय से परिचित थे अतः इस प्रकार से सीट की अदला-बदली में कोई विशेष बात नहीं थी। गौरीशंकर राय भी बिना किसी आपत्ति के कम्पार्टमेंट ‘ए’ में दीनदयाल जी की सीट पर चले गये।
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त एवं उत्तरप्रदेश विधान परिषद के तत्कालीन सदस्य पीताम्बर दास सहित अनेक लोग दीनदयाल जी को विदा देने स्टेशन पहुंचे थे। उस समय दीनदयाल जी ने धोती, खादी की बनियान, बिना बांह का स्वेटर, उस पर एक और स्वेटर और पश्मीना का कुर्ता पहना हुआ था। उत्तरप्रदेश की कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए कुर्ते के ऊपर ऊनी जैकेट पहन रखी थी। कन्धे पर ऊनी शॉल भी थी। उनके साथ कुल तीन सामान थेµसूटकेस, बिस्तर तथा एक थैला जिसमें पुस्तकें थीं।
नियत समय पर गाड़ी ने लखनऊ स्टेशन छोड़ दिया। दीनदयाल जी अपनी बर्थ पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने में मगन हो गये। यात्रा के दौरान वे पुस्तकें पढ़ना और लेख इत्यादि लिखना पसन्द करते थे। यह उन्हें यात्रा के समय का सदुपयोग प्रतीत होता था। पर्याप्त समय होने पर इसीलिए कई बार वे पैसेन्जर रेल में यात्रा करना पसन्द करते थे और यात्रा के दौरान वे या तो नया लेख लिख डालते थे अथवा पुराने अधूरे लेख को पूरा कर डालते थे। वे अपने जीवन के एक-एक मिनट को उपयोगी बनाए रखना चाहते थे। 

रात्रि दो बज कर पचास मिनट पर दिल्ली-हावड़ा ट्रेन पटना की ओर जा चुकी थी। इसके लगभग चालीस मिनट बाद रात्रि तीन बज कर तीस मिनट पर रेलवे के लाइनमैन ईश्वर दयाल को अपनी ड्यूटी करते समय सूचना मिली कि प्लेटफॉर्म से लगभग एक सौ पचास गज दूर बिजली के पोल नं.1267 से लगभग तीन फुट की दूरी पर गिट्टियों के ढेर पर एक शव पड़ा हुआ है। यह स्थान रेल लाइन से दूर था अतः रेल से कट कर मरने वाले का शव नहीं हो सकता था।
ईश्वर दयाल ने तत्परता दिखाते हुए सहायक स्टेशन मास्टर को फोन पर शव के बारे में सूचना दी। ईश्वर दयाल तथा अन्य कर्मचारियों से पूछताछ करने पर पता चला कि शव को सबसे पहले रात्रि लगभग तीन बजे दिगपाल नाम के पोर्टर ने देखा था। उस समय एक इंजन शंटिंग कर रहा था जिसका ड्राइवर था गफूर और उस इंजन में सुरक्षा गार्ड किशोर मिश्र भी सवार था। किशोर मिश्र ने यह सूचना लाईनमैन ईश्वर दयाल को दी। ईश्वर दयाल ने सहायक स्टेशन मास्टर को इसकी जानकारी फोन पर दी थी।
शव का पंचनामा बनाने से पहले रेलवे चिकित्सक को बुलाया गया जिसने चिकित्सकीय आधार पर शव की पुष्टि की। इसके बाद शव की तस्वीरें लेने के लिए फोटोग्राफर को बुलाया गया। फोटोग्राफर के कैमरे में फ्लैश लाइट न होने सुबह का पर्याप्त उजाला होने की प्रतीक्षा की गयी। सुबह लगभग सात बजकर तीस मिनट पर शव की तस्वीरें खीचीं गयी। चित्र में शव की जो स्थिति दर्ज़ हुई, वह इस प्रकार थी, ‘‘शव पीठ के बल पड़ा था। सिर उत्तर दिशा की ओर तथा पैर पश्चिम की ओर थे। दायां हाथ सिर की ओर था तथा बायां हाथ शॉल के ऊपर से होकर सीने पर था। शॉल से कमर से मुंह तक का भाग ढंका था।’’
एक बात ध्यानाकर्षित करने वाली थी कि शव के बाएं हाथ की कलाई में घड़ी बंधी हुई थी तथा मुट्ठी में पांच रुपये का नोट दबा हुआ था। यह इस तथ्य की ओर संकेत था कि मृतक के साथ लूटपाट नहीं की गयी थी। मृतक के कपड़ों की तलाशी लेने पर 04348 नं. का प्रथम श्रेणी का टिकट प्राप्त हुआ, 47506 नं. की आरक्षण रसीद, कुल 26 रुपये बरामद हुए। कलाई में बंधी घड़ी की पड़ताल करने पर घड़ी के पीछे ‘नाना देशमुख’ नाम लिखा मिला।
‘अज्ञात मृतक’ के रूप में शव का पंचनामा तैयार किया गया। शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाना था। भीड़ देखकर स्टेशन के एक कर्मचारी बनमाली भट्टाचार्य का ध्यान आकृष्ट हुआ। वह भी उत्सुकतावश वहां आ गया और उसने जैसे ही शव को देखा तो वह स्तब्ध रह गया। उसके मुंह से निकला,‘‘ये तो जनसंघ के प्रधान पंडित दीनदयाल जी हैं।’’
मुगलसराय के जनसंघ के कार्यकर्ताओं के बीच यह सूचना जंगल में आग की तरह फैल गयी। आरक्षण कार्यालय से मिली जानकारी ने इस बात की पुष्टि कर दी कि जिस शव को पुलिस ‘अज्ञात व्यक्ति का’ मान रही थी, वह राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त राजनीतिज्ञ पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव था।

माननीय चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित ‘चन्द्रचूड़ आयोग’ ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के कारणों एवं परिस्थितियों को नये सिरे से जांचना आरम्भ किया। आयोग ने वाराणसी के विशेष जिला एवं सत्र न्यायाधीश मुरलीधर द्वारा दिए गये कई बिन्दुओं पर अपनी असहमति जताई। आयोग ने नवीन दृष्टिकोण से घटना का स्पष्टीकरण सामने रखा। आयोग ने विवेचना करते हुए लिखा, ‘‘यदि श्री उपाध्याय की मृत्यु के साथ उनके सामान की चोरी भी हुई और यदि हत्या और चोरी किसी एक योजना के अंग हैं तो यह निष्कर्ष निकालना युक्तिसंगत है कि इस हत्या का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है। हत्या कुछ लाभ के उद्देश्य से की गयी और हत्या का कुछ तत्कालीन कारण या तो चोरी करते समय पकड़े जाने से बचना था या यह कि चोरी सुविधा से की जा सके।’’
पं. दीनदयाल उपाध्याय के एक हाथ में पांच रुपए के नोट का पाया जाना एक अहम बिन्दु था। इस बिन्दु पर आयोग की ओर से टिप्पणी की गई, ‘‘केवल इस बात के अलावा मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया कि कौन और क्यों उनके हाथ में नोट रखेगा? हत्यारे, विशेषकर राजनीतिक हत्यारे, अपना काम करने के बाद घटनास्थल पर ठहरते नहीं। यह भी समझ में आ सकता है, यद्यपि मैंने इस सम्भावना को नहीं माना है, लाश खम्भे के पास रखी गयी ताकि वह एक दुर्घटना जान पड़े परन्तु यह मैं नहीं मान सकता कि दुर्घटना सिद्ध करने के प्रयास में षड्यंत्रकारियों ने इत्मीनान से काम किया कि उसमें कोई त्रुटि न रह जाए। अतः नोट उनके हाथ में रखने की बात सर्वथा अमान्य है।’’
इसी तारतम्य में आयोग का मत था, ‘‘पहले वाले निष्कर्ष से यह युक्तियुक्त परिणाम निकलता है कि मृतक अपनी मुत्यु के समय नोट अपने साथ लिए हुए था।’’
उपरोक्त दोनों बिन्दुओं के निष्कर्षतः परिणाम न निकल पाने तथा जांच के दौरान रह जाने वाली कमियों के कारण ‘चन्द्रचूड़ आयोग’ भी पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के वास्तविक कारणों की तह तक नहीं पहुंच सका। आयोग के निष्कर्षों पर टिप्पणी करते हुए नानाजी देशमुख ने कहा था, ‘‘इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या आज भी भयंकर रहस्य बनी हुई है।’’                
 ----------------

Friday, February 7, 2020

चर्चा प्लस ... कौन जिम्मेदार था देश के विभाजन के लिए?- डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... कौन जिम्मेदार था देश के विभाजन के लिए?  
        - डाॅ. शरद सिंह 
       देश का विभाजन क्यों हुआ? कैसे हुआ? इसके लिए जिम्मेदार कौन था? क्या इसे रोका जा सकता था? ये चारो प्रश्न बार-बार उठते रहते हैं। आज राजनीतिक मंचों और टेलीविजन चैनल्स के डिस्कशन में जिस तरह कटुता भरे आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं उसे देख-सुन कर ऐसा लगता है गोया हम उसी बंटवारे के दौर में जा पहुंचे हैं। जबकि कुछ भी कहने से पहले बेहतर है कि पहले हम समझ लें  तत्कालीन स्थितियों को। इस संदर्भ में मैं यहां अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: महात्मा गांधी’’ (सामयिक प्रकाशन नईदिल्ली, वर्ष 2015) के कुछ अंश दे रही हूं जिनसे तत्कालीन परिस्थितियां समझी जा सकती हैं।

अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति रंग लाने लगी थी। भारतीय मुस्लिमों और हिन्दुओं को दो धार्मिक समुदाय में बांटने में अंग्रेजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनकी अलगाववादी नीतियों का ही प्रभाव था कि भारत का एक बड़ा मुस्लिम समुदाय भारत से अलग होकर मुस्लिम राष्ट्र के रूप में स्थापित होने के लिए व्याकुल हो उठा। आरम्भिक गतिविधियों के रूप में मार्च, 1940 में लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिए एक अलग राज्य की मांग उठाई। मुस्लिम लीग के इस निर्णय के पीछे कुछ कट्टरपन्थी विचारधारा वाले मुस्लिमों का हाथ था। 8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस द्वारा पारित ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा कांग्रेस के कई महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। कांग्रेस के नेताओं की अनुपस्थिति में मुस्लिम लीग को अपना राजनीतिक उद्देश्य पूर्ण करने के लिए मुस्लिम जनमत को अपने पक्ष में करने एक अच्छा अवसर मिल गया।

20 अक्टूबर, 1943 को जब लार्ड लिनलिथगो के स्थान पर फील्ड मार्शल वावेल को भारत का वायसराय बना कर भेजा गया तो उसका उद्देश्य भारत में उत्पन्न राजनीतिक गतिरोध को समाप्त करना और द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीयों का सहयोग लेना था। फील्ड मार्शल वावेल ने 5 मई, 1944 को महात्मा गांधी तथा अन्य नेताओं को रिहा कर दिया और विश्व युद्ध को समाप्त होता हुआ देखकर वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ 25 जून से 24 जुलाई, 1945 तक शिमला में बातचीत की। इस बातचीत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग भारत के भविष्य पर एकमत नहीं हो सके। विश्वयुद्ध की समाप्ति के एक सप्ताह के भीतर ही वावेल ने केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान परिषदों के लिए निर्वाचन की घोषण कर दी। मुस्लिम लीग ने केन्द्रीय विधान परिषद में मुस्लिमों के लिए आरक्षित सभी 30 सीटें जीत लीं। प्रान्तीय विधान परिषद् में मुस्लिम लीग को मुस्लिमों के लिए आरक्षित 560 सीटों में से 427 सीटें प्राप्त हुईं। सन् 1946 में कैबिनेट मिशन भारत आया। कैबिनेट मिशन ने प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ लम्बी बातचीत के बाद दो प्रस्ताव रखे। पहला प्रस्ताव एक संयुक्त भारत के निर्माण का सुझाव था। दूसरे प्रस्ताव में पंजाब और बंगाल के हिन्दू बहुसंख्यक क्षेत्रों में समीपवर्ती प्रान्तों को भारत में मिलने की स्वतंत्रता के साथ पाकिस्तान के रूप में एक अलग मुस्लिम राज्य को स्वीकार करने का सुझाव दिया गया था। मुस्लिम लीग ने पहले प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। यूं तो कांग्रेस ने भी इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति जताई किन्तु वह समूह सम्बन्धी व्यवस्था के पक्ष में नहीं थी तथापि अंतरिम साझा सरकार और संविधान सभा का गठन करने के लिए वायसराय फील्ड मार्शल वावेल ने राजनीतिक कार्यवाही शुरू कर दी।
चर्चा प्लस ... कौन जिम्मेदार था देश के विभाजन के लिए?- डाॅ. शरद सिंह

कांग्रेस के अधिकतर नेता पंथ-निरपेक्ष थे और सम्प्रदाय के आधार पर भारत का विभाजन करने के विरुद्ध थे। महात्मा गांधी का विश्वास था कि हिन्दू और मुसलमान साथ रह सकते हैं और उन्हें साथ रहना चाहिए। उन्होंने विभाजन का घोर विरोध किया, ‘‘मेरी पूरी आत्मा इस विचार के विरुद्ध विद्रोह करती है कि हिन्दू और मुसलमान दो विरोधी मत और संस्कृतियां हैं। ऐसे सिद्धांत का अनुमोदन करना मेरे लिए ईश्वर को नकारने के समान है।’’ 

मुस्लिम लीग और कांग्रेस में विचारधारा के मतभेद उभरने शुरू हो गये थे। 27 जुलाई, 1946 को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया और 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ के रूप में मनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इससे कलकत्ता में दंगा भड़क उठा, जिसमें लगभग 5000 लोग मारे गये तथा 15000 लोग घायल हुए। इस दंगे में लगभग 1 लाख लोग बेघर हो गये थे। बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, नोआखाली और उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत में भी भीषण साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इस दौरान वाइसराय वावेल ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया पूर्ण कर ली थी। अंतरिम सरकार का मुस्लिम लीग ने पहले तो बहिष्कार किया लेकिन बाद में फिर वह अपना कोटा मंत्रालयों में भरने के लिए तैयार हो गयी। इस प्रकार देश में साझा अंतरिम सरकार का गठन हो गया। बाद में मुस्लिम लीग ने सरकार की कार्यवाहियों में अनेक बाधाएं खड़ी करनी शुरू कर दीं। मुस्लिम लीग द्वारा लगातार बाधा उत्पन्न करने की स्थितियों से व्यथित होकर जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल यह सोचने के लिए विवश हो गये कि साझा अंतरिम सरकार से तो बेहतर होता कि विभाजन के लिए ही कार्यवाही की जाती। इस तरह विभाजन को वैकल्पिक रूप से सही मानना तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए विवशता बन गयी थी। लगातार भारत में अपने विरुद्ध बिगड़ती हुई परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया। 

जून, 1948 सत्ता हस्तान्तरण की अवधि घोषित की गई थी किन्तु भारत के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लगातार गहरे होते जा रहे मतभेदों के कारण अंततः समस्त परिस्थितियों पर विचार करते हुए, 3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की घोषणा कर दी। सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त, 1947 की तिथि घोषित की गई। सत्ता हस्तांतरण की तिथि पूर्व घोषित तिथि जून, 1948 से अगस्त, 1947 कर दिए जाने के कारण देश के सामने गम्भीर चुनौतियां उत्पन्न हो गयीं। क्योंकि भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन होने के कारण उत्पन्न होने वाली प्रशासनिक और कानून व्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई पूर्व निश्चित योजना तैयार नहीं की गयी थी। स्वयं रेडक्लिफ ने लिखा, ‘‘जब मैं नक्शे पर विभाजन की लकीर खींच रहा था, तब मुझे पता नहीं था कि मेरी खींची लकीर किसी के घर के बीच से गुज़र रही है, आंगन के बीच से गुज़र रही है अथवा शयनकक्ष के बीच से गुज़र रही है। लकीर खींचते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे।’’ भारत का विभाजन हो गया। देश का 30 प्रतिशत भाग कटकर पाकिस्तान नाम से एक अलग देश बन गया। ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’- की घोषणा करने वाले महात्मा गांधी असहाय से देखते रहे।

वस्तुतः देश के विभाजन के लिए कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि के लिए हम तत्कालीन भारतीय ही जिम्मेदार थे जो अंग्रेजों के बहकावे में आ गए और आपस में बैर मान बैठे। चौंकन्ने रहना होगा कि कहीं वही बैर एक बार फिर न जाग उठे।
          -------------------------
(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 05.02.2020)
 #सागरदिनकर #दैनिक #मेराकॉलम     #Charcha_Plus #Sagar_Dinkar #Daily
#SharadSingh #मॉबलिंचिंग #MobLynching

Wednesday, February 5, 2020

शून्यकाल ... बुंदेलखंड और पलायन का मुद्दा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल 
बुंदेलखंड और पलायन का मुद्दा
  - डॉ. शरद सिंह
       राजनीतिक बहसों के दौरान जिस तरह जाति, धर्म और नागरिकता पर जंग छिड़ी हुई है उसके बीच मजदूरों के मुद्दे कहीं खो से गए हैं। गोया मजदूरों के बारे में चिन्ता करने की कतई जरूरत नहीं है। जबकि देश में अब कृषकों से भी बड़ी मजदूरों की संख्या हो चली है। इनमें वे कृषक मजदूर भी शामिल हैं जो माईग्रेट कर के एक राज्य से दूसरे राज्य मजदूरी करने जाते हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार और अब बुंदेलखंड के मजदूरों की मांग सबसे अधिक होती है। वहीं इनका मेहनताना सबसे कम होता है। अपना घर, गांव, जमीन छोड़ कर कोई कहीं और नहीं जाना चाहता है। लेकिन जब पेट भरने का कोई उपाय दिखाई न दे, व्यक्ति दाने-दाने को मोहताज हो जाए तो उसे सबकुछ छोड़-छाड़ कर परदेस में भटकना पड़ता है। भारतीयों का गिरमिटिया मजदूर बन कर दक्षिण आफ्रिका में गन्ने के खेतों में काम करने जाना और पशुवत् जीवन जीने को विवश होना इसी तरह के पलायन की वह आरम्भिक कड़ी है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज़ है। उस समय हम गुलाम थे लेकिन अब अपने प्रजातंत्र में रहते हुए भी किसानों को मजदूर बनते देख रहे हैं। 
सन् 2011 को मुझे कटनी से सागर आना था। नियत समय पर स्टेशन पहुंची तो वहां देखा कि छत्तीसगढ़ी मजदूर परिवारों से प्लेटफाॅर्म अटा पड़ा था। बौखलाई सी स्त्रियां, झंुझलाए से पुरुष और कुपोषण के शिकार बच्चे। मैंने अपनी आंखों से उन बच्चों को मिट्टी के बरतन में सहेज कर रखे बासी भात पर झपटते देखा। उस पल मन में यही विचार आया कि क्या यही है मेरा भारत? मजदूरों का वह समूह अकेले नहीं था। उनके साथ उनका एक कथित ठेकेदार था। उसी ने उन्हें रेल में ले जाने की व्यवस्था की थी। वह बीच-बीच में आकर समझा रहा था कि उनमें से कितने लोगों को किस डिब्बे में चढ़ना है। उन मजदूर परिवारों के चेहरों पर साफ देखा जा सकता था कि वे अपने अनिश्चित भविष्य को ले कर भयभीत हैं। 
शून्यकाल ... बुंदेलखंड और पलायन का मुद्दा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
         लगभग यही दृश्य मुझे सन् 2017 में खजुराहो रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला। अंतर मात्र इतना था कि कटनी रेलवे स्टेशन में मैंने छत्तीसगढ़ी मजदूरों को देखा था जो पोटली में मिट्टी के बरतनों में बासी भात बांध कर पलायन कर रहे थे। जबकि खजुराहो रेलवेस्टेशन पर मैंने जिन मजदूरों को देखा वे बुंदेलखंड के थे और उनकी पोटलियों में बाजरे की मोटी रोटियां बंधी थीं। इन मजदूरों के साथ भी उनके बीवी-बच्चे थे। वे दिल्ली जा रहे थे। इस आशा से कि उस महानगर में उन्हें कोई न कोई काम मिल जाएगा। जिससे उनके बीवी-बच्चों का तो पेट भरेगा ही और बचा हुआ पैसा वे अपने बूढ़े मां-बाप के लिए अपने गांव भेज सकेंगें। एक छलावे भरा स्वप्न उन्हें ज़िन्दगी के रेगिस्तान की ओर ले जा रहा था।
सूखे के प्रकोप, लचर जल प्रबंधन और जल की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड के सैकड़ों गांवों से प्रतिवर्ष अनेक ग्रामीण अपने-अपने गांव छोड़ कर दूसरे राज्यों तथा महानगरों की ओर पलायन करने को विवश हो जाते हैं। असंगठित, अप्रशिक्षित मजदूरों के रूप में काम करने वाले इन मजदूरों का जम कर आर्थिक शोषण होता हैं। यह स्थिति तब और अधिक भयावह हो जाती है जब उन्हें कर्जे के बदले अपना घरबार बेच कर अपने बीवी-बच्चों समेत गांवों से पलायन करना पड़ता है। गरमी का मौसम आते ही गांवों में पानी की कमी विकराल रूप धारण कर लेती हैै। कुंआ, तालाब, पोखर और हैंडपंप सब सूख जाते हैं। अंधाधुंध खनन से यहां की नदियां भी सूखती जा रही हैं। बिना पानी के कोई किसान खेती कैसे कर सकता है? बिना पानी के सब्जियों भी नहीं उगाई जा सकती हैं। खेत और बागीचों के काम बंद हो जाने पर पेट भरने के लिए एकमात्र रास्ता बचता है मजदूरी का। हल चलाने वाले हाथ गिट्टियां ढोने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अभावग्रस्त बुंदेलखंड से हर साल रोजी रोटी की तलाश में हजारों परिवार परदेश जाते हैं। मगर रोटी की खातिर गरीबों का यह पलायन राजनीतिक दलों के एजेंडे में दिखाई नहीं देता है। बुंदेलखंड का क्षेत्र मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विस्तृत है। इस क्षेत्र में कुल आठ संसदीय क्षेत्र आते हैं। टीकमगढ़, खजुराहो, दमोह और सागर जैसी लोकसभा सीटें मध्य प्रदेश में आती हैं, तो झांसी, जालौन, हमीरपुर और बांदा उत्तर प्रदेश के हिस्से में हैं। इस क्षेत्र में आय का एक मात्र साधन खेती है। यहां कोई बड़ा उद्योग-धंधा नहीं है। दरअसल, खेती भी कुछ खास वर्गो के पास ही है और बहुसंख्यक वे लोग हैं, जो मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं। जब सूखा पड़ता है तो बहुसंख्यक वर्ग दाने-दाने को मोहताज हो जाता है। इन्हीं स्थितियों में इस क्षेत्र से लोग पलायन करते हैं।
बुंदेलखंड के ही चित्रकूट जिले की मंदाकिनी, गुन्ता, बरदहा, बानगंगा सूखकर नाली की तरह कहने लगती है। बांदा की रंज, बागेन, केन जैसी बड़ी नदियों की धार जगह जगह से टूट गई है। महोबा की चंद्रावल, बिरमा, अर्जुन, उर्मिल जैसी नदियों में दूर-दूर तक पानी नहीं नजर आ रहा है। बुंदेलखंड की पहज, धसान, सौर, नारायणी जैसी कई नदियां वैसे ही मृतप्राय हो चुकी हैं। सागर की बेबस नदी अपनी बेबसी पर आंसू बहाती रहती है। अवैध रेत खनन के कारण अब यमुना और बेतवा जैसी नदियों के पाट भी सूखने लगे हैं। नदियों के तटवर्ती गांव पांच-पांच किमी की दूरी तय करके किसी तरह अपनी जान बचा रहे हैं। जिन गांवों के आस-पास कहीं भी पानी का इंतजाम नहीं है उन गांवों के लोग पानी और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पिछले एक दशक के दौरान करीब 45 लाख लोग यहां से पलायन कर चुके हैं। कुछ साल पहले तक लोग अपने भूखे बच्चों की भूख मिटाने के लिए रोजी-रोटी की तलाश मे परदेश कमाने जाते थे। अब भूख और प्यास दोनों से बचने के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मंबई, कोलकाता जैसे महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार बुंदेलखंड छोड़कर जाने वालों का प्रतिशत इसी जून माह में 50 फीसदी का आंकड़ा पार कर सकता है।
भला कौन चाहता है अपना घर, गांव और अपने लोगों को छोड़ कर कहीं बाहर जाना? यदि दो समय की रोटी का जुगाड़ अपने क्षेत्र में ही हो जाए तो कोई भी दूसरे क्षेत्र या दूसरे प्रदेश में नहीं जाना चाहेगा। पेट की लाचारी जिस तरह बुंदेलखंड के किसानों को बेघर कर रही है और दर-दर भटका रही है, बुंदेली युवा रोजगार के लिए महानगरों में भटकते हुए अपराधों की भेंट चढ़ रहे हैं, बुंदेली युवतियों को अपने परिवार का आर्थिक सहारा बनने का प्रयास जिस तरह छल-कपट और शोषण का सामना करना पड़ रहा है वह चिंताजनक है। पलायन की विविशता को आड़ बना कर मानव-तस्करी जैसे घृणित अपराध भी बुंदेलखंड में अपने पांव जमाने लगे हैं। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के अधिकांश बड़बोले नेताओं को जाति, धर्म और नागरिकता से फुर्सत मिले तो वे इन मजदूरों की दीन दशा पर दृष्टिपात करें। काश वे समझ पाते कि पलायन के लिए विवश कृषक से श्रमिक बनते जा रहेे दीन-हीन इंसानों की चिंता भी करनी जरूरी है।            ---------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 05.02.2020)
#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #शरदसिंह #पलायन #बुंदेलखंड  #migration #Bundelkhand #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column #SharadSingh

Monday, February 3, 2020

समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें
 - डाॅ. शरद सिंह
(नवभारत में 03.02.2020 को प्रकाशित)
    हर वर्ष गणतंत्र दिवस मनता है और हर वर्ष वसंत भी आता है। बुंदेलखंड में भी हर्षोल्लास का वातावरण दिखता है, यहां के खेतों में सरसों फूलती है, देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है, साहित्यकार समाज महाकवि ‘निराला’ की जयंती मनाते हुए उन्हें कृतित्व का स्मरण करता है। ठीक वैसे ही जैसे पूस के बाद माघ, और माघ के बाद फागुन मास प्रतिवर्ष आता और चला जाता है। प्रत्येक सामयिक खुशी के बाद सामने खड़ा रह जाता है क्षेत्र का सदियों पुराना पिछड़ापन। देश को स्वतंत्र हुए भले ही दशकों व्यतीत हो गए किन्तु बुंदेलखंड में विकास की दर कछुआ चाल से ही चलती रही है। कुछ बदलाव तो ऐसे हैं जो मानों समय के साथ स्वतः होते चले गए। यहां शिक्षा की दर आज भी शत-प्रतिशत नहीं हो सकी है। आवागमन के साधनों की आज भी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हैं। रोजगार के अवसरों की तो यह दशा है कि युवाओं को अपना घर-द्वार छोड़ कर दूसरे प्रदेशों में रोजी-रोजगार ढूंढना पड़ता है। जल प्रबंधन की कमियां उस समय उजागर होने लगती है जब किसान अच्छी फसल न होने के कारण कर्जे में डूब कर आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं। हर बार केन्द्रीय बजट बनता है और समूचा बुंदेलखंड अपने आप को ठगा-सा महसूस कर के रह जाता है। ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड के विकास के लिए कभी कोई पैकेज नहीं दिया जाता है लेकिन जो पैकेज दिया जाता है उसकी धनराशि कहां, कैसे और कब खर्च होती है, पता नहीं चलता है क्योंकि विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण सामने दिखता ही नहीं है। इसका अर्थ तो यही है कि या तो धनराशि को सही ढंग से उपयोग में नहीं लाया जाता है अथवा उसके खर्च की माॅनीटरिंग में कमी रह जाती है।   

बुंदेलखंड के माता-पिता अपना पेट काट कर अपने बच्चों का भविष्य संवारने में जुटे रहते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चे अच्छी से अच्छी शिक्षा पाएं और कोई अच्छी नौकरी पा सकें। बेटियों को पढ़ाने की रूचि भी बढ़ी है। लेकिन शिक्षा और रोजगार के मामले में दो समस्याएं हैं। पहली तो यह कि उच्चशिक्षा के भरोसेमंद और प्रतिष्ठित केन्द्र इस अंचल में कम ही हैं। इसी का लाभ उठाते हुए कुछ ऐसी संस्थाएं भी अपनी दूकानदारी खोल कर बैठी हुई हैं जो कम पैसों में कथित डिग्री दे कर युवाओं के भविष्य और उनके माता-पिता के सपनों के साथ खुल कर खिलवाड़ कर रही हैं। दूसरी समस्या है आवागमन के साधनों की कमी की। बुंदेलखंड के अनेक अंचल ऐसे हैं जो आज भी रेल सुविधा की बाट जोह रहे हैं। जिन्हें रेल मार्ग मिल गया है उन्हें गिनती की रेलें मिली हैं। इससे होता यह है कि लम्बी दूरी की कई गाड़ियां इस पूरे अंचल से लगभग रात्रि को ही गुजरती हैं जिससे उनके द्वारा यात्रा कर पाना छात्राओं एवं महिलाओं के लिए जोखिम भरा होता है यदि वे अकेली यात्रा करने की स्थिति में हों। रोजगार के संदर्भ में युवाओं द्वारा कई बार मांग उठाई जा चुकी है कि बुंदेलखंड में आईटी सेक्टर की स्थापना की जाए ताकि युवाओं को अच्छे रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में न भटकना पड़े। किन्तु बात वहीं आवागमन के साधनों की कमी पर आ कर अटकती है। कोई भी मल्टीनेशनल कंपनी आईटी सेक्टर मं तभी निवेश करने का मन बनाएगी जब विदेशों से आने वाले उनके प्रतिनिधियों को आवागमन की बेहतर सुविधाएं सुलभ होंगी। समूचे बुंदेलखंड में एकमात्र खजुराहो ही ऐसा हवाई अड्डा है जहां से यात्री उड़ाने भरी जाती हैं किन्तु वह भी गिनती की हैं और वहां से सभी महत्वपूर्ण शहरों के लिए उड़ानों की कमी है। इस मामले पर विशेषज्ञों का कहना है कि यदि खजुराहो हवाई अड़डे का और अधिक विस्तार करते हुए उड़ानों की संख्या बढ़ाई जाएगी तो इससे वहां के ऐतिहासिक एवं अत्यंत कलात्मक विश्वविख्यात मंदिरों को क्षति पहुंच सकती है। इस स्थिति में जरूरी हो जाता है कि बुंदेलखंड के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र के लिए घरेलू उड़ानों के कम से कम दो और ऐसे हवाई अड्डे स्थापित किए जाएं जहां सस्ती उड़ान सेवाएं सुलभ हो सकें और बुंदेलखंड के निवासी देश के अन्य क्षेत्रों से हवाई मार्ग द्वारा जुड़ सकें। 

Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat, समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें - डाॅ. शरद सिंह
             बुंदेलखंड में चिकित्सा साधनों की भी कमी यथावत बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र एवं गरीब तबका आज भी नीम हकीमों के हाथों अपनी जान का खतरा उठाता रहता है। अशिक्षित तबका पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित डाॅक्टरों में तथा नीम हकीमों के बीच अंतर वह समझ नहीं पाता है। यदि समझ भी जाए तो वह मंहगी चिकित्सा सेवा का बोझ न उठा पाने की स्थिति में नीम हकीमों से दवाएं ले कर संतोष कर लेता है। भले ही दशा बिगड़ने पर उसे जिला चिकित्सालयों की ओर भागना पड़े किन्तु छोटी-छोटी सी प्रतीत होने वाली बीमारियों के लिए वह मंहगी दवाएं या डाॅक्टर की बड़ी-बड़ी फीस नहीं चुका सकता है क्यों कि उसकी कमजोर आर्थि स्थिति उसे इसकी इजाजत नहीं देती है। रहा सवाल सरकारी अस्पतालों की दशा का तो वह आए दिन समाचारपत्रों की सुखियां बनती रहती है। यहां तक कि सरकारी मेडिकल काॅलेजों की दशा भी कोई अच्छी नहीं है। कभी ‘‘मुन्ना भाइयों’’ का स्कैम सामने आता है तो कभी मरीजों के साथ बदसलूकी की दशा दुखी कर देती है। सेवाकार्य के रूप में पहचानी जाने वाली चिकित्सा सेवा आज बुंदेलखंड में भी अपने व्यावसायिक रूप को स्थापित कर चुकी है। गंव के लोग अच्छी चिकित्सा की आशा में शहर की ओर आते हैं और शहर के लोग उसी अच्छी चिकित्सा की आशा में महानगरों का मुंह ताकते हैं।

बुंदेलखंड में विकास की गति धीमी क्यों है? इस तथ्य की तह में पहुंचना जरूरी है और उससे अधिक जरूरी है बुंदेलखंड की जरूरतों को जानने की। लेकिन सवाल उठता है कि जब आजादी के सात दशकों बाद भी ये जरूरतें क्यों बनी हुई हैं जबकि इनकी पूर्ति तो देश स्वतंत्र होने के बाद पहली, दूसरी या तीसरी पंचवर्षीय योजना में ही हो जानी चाहिए थी। कहीं तो कोई चूक, कोई कमी है जो बुंदेलखंड का समुचित विकास नहीं होने देती है।            
--------------------------------
#शरदसिंह #नवभारत #बुंदेलखंड  #ज़रूरतें

शून्यकाल...गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम- डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल...गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम
- डॉ. शरद सिंह 
      देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमेन ट्रेफिकिंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी।  वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढ़ने वाले स्कूली बच्चे हैं।
शून्यकाल...गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम- डॉ. शरद सिंह 

आखिर महानगरों के चैराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नज़र से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है। 
बच्चों के लापता होने के कई मामले जब पुलिस ने सुलझाए तो पता चला कि इनके गायब होने के पीछे सूनी गोद रह जाना भी एक बड़ा कारण है। अस्पतालों से नवजात शिशुओं से ले कर चार-पांच साल तक की आयु के बच्चे संतान विहीन दंपत्ति की सूनी गोद भरने के लिए अपहृत कर लिए जाते हैं। कई बार गोद लेने वाले दंपत्ति को भी इसकी जानकारी नहीं रहती है कि वह बच्चा चुराया गया है। मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।  2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुकेे हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर ज़िलों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को ज़बरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है। सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ़ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। 
            ---------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 03.02.2020)
#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #शरदसिंह #गुमहोतेबच्चे #बुंदेलखंड  #MissingChildren #Bundelkhand #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column #SharadSingh #miss_shara

Sunday, February 2, 2020

शून्यकाल ... इंडिया क्यों? सिर्फ़ भारत क्यों नहीं ? - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल ... इंडिया क्यों? सिर्फ़ भारत क्यों नहीं ?
   - डाॅ. शरद सिंह
    विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र का दर्ज़ा रखने वाला देश - भारत, हिन्दुस्तान या इंडिया। एक देश जिसके तीन नाम। आधिकारिक तौर पर दो नाम हैं-इंडिया और भारत। बार-बार इस बात की मांग उठती रही है कि देश का एक नाम रहे-‘भारत’। अभी कुछ अरसा पहले विश्वविख्यात जैन संत आचार्य विद्यासागर ने ‘इंडिया’ शब्द की व्याख्या करते हुए देश का नाम ‘भारत’ रखे जाने पर तार्किक पक्ष रखे हैं और ‘भारत बोलो’ मुहिम का आह्वान किया है। 

भारत या इंडिया, क्या नाम है इस देश का? हिन्दुस्तान सिर्फ़ बोलचाल में है अथवा पुराने अभिलेखों में किन्तु ‘इंडिया’ और ‘भारत’ आज भी समान रूप से प्रयोग में लाया जा रहा है। सन् 2012 में लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने केंद्र सरकार से यह प्रश्न किया था। सूचना के अधिकार के अंतर्गत उर्वशी शर्मा ने पूछा था कि सरकारी तौर पर भारत का नाम क्या है? उन्होंने अपने प्रश्न पूछे जाने का कारण बताते हुए उल्लेख किया ािा कि “इस बारे में हमारे बीच काफी असमंजस है। बच्चे पूछते हैं कि जापान का एक नाम है, चीन का एक नाम है लेकिन अपने देश के दो नाम क्यूं हैं।“ इसीलिए वे यह जानना चाहती हैं कि वे बच्चों को सही-सही उत्तर दे सकें और आने वाली पीढ़ी के बीच इस बारे में कोई संदेह न रहे। उर्वशी ने कहा कि  “हमें सुबूत चाहिए कि किसने और कब इस देश का नाम भारत या इंडिया रखा? कब ये फैसला लिया गया?“ 

उर्वशी का तर्क था कि यह एक भ्रम की स्थिति है जो सरकारी स्तर पर भी देश के दो नामों का प्रयोग किया जाता है। इसी आधार पर उन्होंने कहा कि ‘‘मैं केवल ये जानना चाहती हूं कि भारत का सरकारी नाम भारत है या इंडिया क्योंकि सरकारी तौर पर भी दोनों नाम इस्तेमाल किए जाते हैं।“ उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा है- ’इंडिया दैट इज़ भारत’। अर्थात् देश के दो नाम हैं। सरकारी कामकाज में ’गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया’ और ’भारत सरकार’ दोनों का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी में भारत और इंडिया दोनों का इस्तेमाल किया जाता है जबकि हिंदी में भी इंडिया कहा जाता है. उर्वशी ने कहा था कि वे इस मुद्दे को गंभीरता से लेती हैं क्योंकि ये देश की पहचान का सवाल है। 
Dainik Bundeli Manch -  Shoonyakaal, शून्यकाल ... इंडिया क्यों? सिर्फ़ भारत क्यों नहीं ?  - Dr Sharad Singh, 01-02-2020

उर्वशी को प्रधानमंत्री कार्यालय से जवाब मिला जिसमें कहा गया कि उनके आवेदन को गृह मंत्रालय के पास भेजा गया हैं। किन्तु गृह मंत्रालय में इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। इसलिए इसे संस्कृति विभाग और फिर वहां से राष्ट्रीय अभिलेखागार भेजा गया, जहां जानकारी की ढूंढ-खोज शुरू हुई। राष्ट्रीय अभिलेखागार 300 वर्षों के सरकारी दस्तावेज़ों का खज़ाना है। आज भी उर्वशी को अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा है।

देश के नामों को ले कर उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके मांग की जा चुकी हैै कि ‘इंडिया’ का नाम बदल कर भारत किया जाना चाहिए। याचिका में कहा गया था कि महाराजा परीक्षित, कुरु वंश के अंतिम दुर्जेय सम्राट की मृत्यु तक, पूरी दुनिया भारतवर्ष के रूप में जाना जाता था। इसके अलावा दुनिया के एक महान सम्राट का शासन था । भारत ऋग्वेद में उल्लेख किया है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा। यह याचिका को महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता निरंजन भटवाल ने दायर की थी। मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू और न्यायाधीश अरूण मिश्रा की पीठ ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस जनहित याचिका पर नोटिस भी जारी किया। इस याचिका में केंद्र को किसी सरकारी उद्देश्य के लिए और आधिकारिक पत्रों में इंडिया नाम का उपयोग करने से रोकने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता निरंजन भटवाल ने आग्रह किया कि न केवल सरकारी अपितु गैर सरकारी संगठनों और कॉरपोरेट्स को भी सभी आधिकारिक और अनाधिकारिक उद्देश्यों के लिए देश का नाम ‘भारत’ का उपयोग करने का निर्देश दिया जाना चाहिए।  दुर्भाग्यवश लगभग छह माह बाद भी याचिकाकर्ता को कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला।

भारत का इतिहास सदियों से काफी गौरवशाली रहा है। भारत का नाम प्राचीन वर्षों में ‘भारतवर्ष’ था। इसके पूर्व भारत नाम जम्बूदीप था। देश का नाम भारत होने के संबंध में एक सर्वमान्यकथा प्रचलित है कि कुरूवंशीय राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर ही देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। यद्यपि कई आधुनिक विद्वान इस कथा को प्रमाण के अभाव में खारिज़ करते हैं किन्तु पुराणों में ‘भारतवर्ष’ नाम का उल्लेख नकारा नहीं जा सकता है। ‘वायु पुराण’ में इस बात की पुष्टि होती है कि देश का नाम भारतवर्ष क्यों पड़ा। इस संदर्भ में ‘वायु पुराण’ का यह श्लोक ध्यान देने योग्य है जिसमें कहा गया है कि हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है-
 हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्। 
तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधाः। 
इंडिया नाम तो अंग्रेजों की गुलामी के साथ आयाजबकि पुराणों में भारत के प्राचीन नाम जम्बूद्वीप का भी उल्लेख मिलता है। जम्बूदीप का अर्थ है समग्र द्वीप। भारत के प्राचीन धर्म ग्रंथों में हर जगह जम्बूदीप का उल्लेख आता है। उस समय भू-भाग एक विस्तृत द्वीप था जिसे आगे चल कर भारतीय उपमहाद्वीप कहा गया। ‘वायु पुराण’ में ही दी गई एक अन्य कथा के अनुसार त्रेता युग में देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ‘वायु पुराण’ के अनुसार त्रेता युग के प्रारंभ में स्वंयभू मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने भरत खंड को बसाया था। लेकिन राजा प्रियव्रत के कोई भी पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नींध्र को गोद ले लिया था जिसका पुत्र नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था और ऋषभ के पुत्र का नाम भरत था और भरत के नाम पर ही देश का नाम भारतवर्ष पड़ा था। 

विचारणीय है कि जब कम्बोडिया अपना नाम बदल कर मौलिक नाम कम्पूचिया कर सकता है, सिलोन अपने मौलिक नाम श्रीलंका को अपना सकता है तो इंडिया सिर्फ़ भारत क्यों नहीं हो सकता है। एक देश, एक नाम, एक पहचान - यह जरूरी है देश के वैश्विक गौरव के लिए।        -----------------------------------------
छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 01.02.2020)
#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #शरदसिंह #भारत #India #CountryName #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column #SharadSingh #miss_sharad