बुंदेलखंड और पलायन का मुद्दा
- डॉ. शरद सिंह
राजनीतिक बहसों के दौरान जिस तरह जाति, धर्म और नागरिकता पर जंग छिड़ी हुई है उसके बीच मजदूरों के मुद्दे कहीं खो से गए हैं। गोया मजदूरों के बारे में चिन्ता करने की कतई जरूरत नहीं है। जबकि देश में अब कृषकों से भी बड़ी मजदूरों की संख्या हो चली है। इनमें वे कृषक मजदूर भी शामिल हैं जो माईग्रेट कर के एक राज्य से दूसरे राज्य मजदूरी करने जाते हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार और अब बुंदेलखंड के मजदूरों की मांग सबसे अधिक होती है। वहीं इनका मेहनताना सबसे कम होता है। अपना घर, गांव, जमीन छोड़ कर कोई कहीं और नहीं जाना चाहता है। लेकिन जब पेट भरने का कोई उपाय दिखाई न दे, व्यक्ति दाने-दाने को मोहताज हो जाए तो उसे सबकुछ छोड़-छाड़ कर परदेस में भटकना पड़ता है। भारतीयों का गिरमिटिया मजदूर बन कर दक्षिण आफ्रिका में गन्ने के खेतों में काम करने जाना और पशुवत् जीवन जीने को विवश होना इसी तरह के पलायन की वह आरम्भिक कड़ी है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज़ है। उस समय हम गुलाम थे लेकिन अब अपने प्रजातंत्र में रहते हुए भी किसानों को मजदूर बनते देख रहे हैं।
सन् 2011 को मुझे कटनी से सागर आना था। नियत समय पर स्टेशन पहुंची तो वहां देखा कि छत्तीसगढ़ी मजदूर परिवारों से प्लेटफाॅर्म अटा पड़ा था। बौखलाई सी स्त्रियां, झंुझलाए से पुरुष और कुपोषण के शिकार बच्चे। मैंने अपनी आंखों से उन बच्चों को मिट्टी के बरतन में सहेज कर रखे बासी भात पर झपटते देखा। उस पल मन में यही विचार आया कि क्या यही है मेरा भारत? मजदूरों का वह समूह अकेले नहीं था। उनके साथ उनका एक कथित ठेकेदार था। उसी ने उन्हें रेल में ले जाने की व्यवस्था की थी। वह बीच-बीच में आकर समझा रहा था कि उनमें से कितने लोगों को किस डिब्बे में चढ़ना है। उन मजदूर परिवारों के चेहरों पर साफ देखा जा सकता था कि वे अपने अनिश्चित भविष्य को ले कर भयभीत हैं।
लगभग यही दृश्य मुझे सन् 2017 में खजुराहो रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला। अंतर मात्र इतना था कि कटनी रेलवे स्टेशन में मैंने छत्तीसगढ़ी मजदूरों को देखा था जो पोटली में मिट्टी के बरतनों में बासी भात बांध कर पलायन कर रहे थे। जबकि खजुराहो रेलवेस्टेशन पर मैंने जिन मजदूरों को देखा वे बुंदेलखंड के थे और उनकी पोटलियों में बाजरे की मोटी रोटियां बंधी थीं। इन मजदूरों के साथ भी उनके बीवी-बच्चे थे। वे दिल्ली जा रहे थे। इस आशा से कि उस महानगर में उन्हें कोई न कोई काम मिल जाएगा। जिससे उनके बीवी-बच्चों का तो पेट भरेगा ही और बचा हुआ पैसा वे अपने बूढ़े मां-बाप के लिए अपने गांव भेज सकेंगें। एक छलावे भरा स्वप्न उन्हें ज़िन्दगी के रेगिस्तान की ओर ले जा रहा था।
शून्यकाल ... बुंदेलखंड और पलायन का मुद्दा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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सूखे के प्रकोप, लचर जल प्रबंधन और जल की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड के सैकड़ों गांवों से प्रतिवर्ष अनेक ग्रामीण अपने-अपने गांव छोड़ कर दूसरे राज्यों तथा महानगरों की ओर पलायन करने को विवश हो जाते हैं। असंगठित, अप्रशिक्षित मजदूरों के रूप में काम करने वाले इन मजदूरों का जम कर आर्थिक शोषण होता हैं। यह स्थिति तब और अधिक भयावह हो जाती है जब उन्हें कर्जे के बदले अपना घरबार बेच कर अपने बीवी-बच्चों समेत गांवों से पलायन करना पड़ता है। गरमी का मौसम आते ही गांवों में पानी की कमी विकराल रूप धारण कर लेती हैै। कुंआ, तालाब, पोखर और हैंडपंप सब सूख जाते हैं। अंधाधुंध खनन से यहां की नदियां भी सूखती जा रही हैं। बिना पानी के कोई किसान खेती कैसे कर सकता है? बिना पानी के सब्जियों भी नहीं उगाई जा सकती हैं। खेत और बागीचों के काम बंद हो जाने पर पेट भरने के लिए एकमात्र रास्ता बचता है मजदूरी का। हल चलाने वाले हाथ गिट्टियां ढोने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अभावग्रस्त बुंदेलखंड से हर साल रोजी रोटी की तलाश में हजारों परिवार परदेश जाते हैं। मगर रोटी की खातिर गरीबों का यह पलायन राजनीतिक दलों के एजेंडे में दिखाई नहीं देता है। बुंदेलखंड का क्षेत्र मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विस्तृत है। इस क्षेत्र में कुल आठ संसदीय क्षेत्र आते हैं। टीकमगढ़, खजुराहो, दमोह और सागर जैसी लोकसभा सीटें मध्य प्रदेश में आती हैं, तो झांसी, जालौन, हमीरपुर और बांदा उत्तर प्रदेश के हिस्से में हैं। इस क्षेत्र में आय का एक मात्र साधन खेती है। यहां कोई बड़ा उद्योग-धंधा नहीं है। दरअसल, खेती भी कुछ खास वर्गो के पास ही है और बहुसंख्यक वे लोग हैं, जो मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं। जब सूखा पड़ता है तो बहुसंख्यक वर्ग दाने-दाने को मोहताज हो जाता है। इन्हीं स्थितियों में इस क्षेत्र से लोग पलायन करते हैं।
बुंदेलखंड के ही चित्रकूट जिले की मंदाकिनी, गुन्ता, बरदहा, बानगंगा सूखकर नाली की तरह कहने लगती है। बांदा की रंज, बागेन, केन जैसी बड़ी नदियों की धार जगह जगह से टूट गई है। महोबा की चंद्रावल, बिरमा, अर्जुन, उर्मिल जैसी नदियों में दूर-दूर तक पानी नहीं नजर आ रहा है। बुंदेलखंड की पहज, धसान, सौर, नारायणी जैसी कई नदियां वैसे ही मृतप्राय हो चुकी हैं। सागर की बेबस नदी अपनी बेबसी पर आंसू बहाती रहती है। अवैध रेत खनन के कारण अब यमुना और बेतवा जैसी नदियों के पाट भी सूखने लगे हैं। नदियों के तटवर्ती गांव पांच-पांच किमी की दूरी तय करके किसी तरह अपनी जान बचा रहे हैं। जिन गांवों के आस-पास कहीं भी पानी का इंतजाम नहीं है उन गांवों के लोग पानी और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पिछले एक दशक के दौरान करीब 45 लाख लोग यहां से पलायन कर चुके हैं। कुछ साल पहले तक लोग अपने भूखे बच्चों की भूख मिटाने के लिए रोजी-रोटी की तलाश मे परदेश कमाने जाते थे। अब भूख और प्यास दोनों से बचने के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मंबई, कोलकाता जैसे महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार बुंदेलखंड छोड़कर जाने वालों का प्रतिशत इसी जून माह में 50 फीसदी का आंकड़ा पार कर सकता है।
भला कौन चाहता है अपना घर, गांव और अपने लोगों को छोड़ कर कहीं बाहर जाना? यदि दो समय की रोटी का जुगाड़ अपने क्षेत्र में ही हो जाए तो कोई भी दूसरे क्षेत्र या दूसरे प्रदेश में नहीं जाना चाहेगा। पेट की लाचारी जिस तरह बुंदेलखंड के किसानों को बेघर कर रही है और दर-दर भटका रही है, बुंदेली युवा रोजगार के लिए महानगरों में भटकते हुए अपराधों की भेंट चढ़ रहे हैं, बुंदेली युवतियों को अपने परिवार का आर्थिक सहारा बनने का प्रयास जिस तरह छल-कपट और शोषण का सामना करना पड़ रहा है वह चिंताजनक है। पलायन की विविशता को आड़ बना कर मानव-तस्करी जैसे घृणित अपराध भी बुंदेलखंड में अपने पांव जमाने लगे हैं। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों के अधिकांश बड़बोले नेताओं को जाति, धर्म और नागरिकता से फुर्सत मिले तो वे इन मजदूरों की दीन दशा पर दृष्टिपात करें। काश वे समझ पाते कि पलायन के लिए विवश कृषक से श्रमिक बनते जा रहेे दीन-हीन इंसानों की चिंता भी करनी जरूरी है। ---------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 05.02.2020)
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