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Sunday, August 31, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह "कस्बाई साइमन" उपन्यास कन्नड़ पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक - 6


कन्नड़ की लोकप्रिय, प्रतिष्ठित एवं बहुप्रसारित साप्ताहिक पत्रिका "सुधा" में धारावाहिक प्रकाशित हो रहे मेरे उपन्यास "कस्बाई सिमोन" की आज प्रकाशित 6 वीं कड़ी प्रस्तुत है.
Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine  🚩🙏🚩
आभार विद्वान अनुवादक डी.एन. श्रीनाथ जी 🌹🙏🌹

Presenting the 6th episode of my novel "Kasbai Simon" published today, which is being serialized in the popular, reputed and widely circulated Kannada weekly magazine "Sudha".

Hearty Thanks "Sudha" Kannada Magazine 🚩🙏🚩
Thanks to the learned translator D.N. Srinath ji 🌹🙏🌹


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Tuesday, March 11, 2025

पुस्तक समीक्षा | स्त्री जीवन और पारिवारिक ढांचे में आती दरारों को रेखांकित करता उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 11.03.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
स्त्री जीवन और पारिवारिक ढांचे में आती दरारों को रेखांकित करता उपन्यास 
     - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास        - श्यामली
लेखिका        - सुनीला सराफ
प्रकाशक        - अनुज्ञा बुक्स,1/10206, पश्चिम गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली- 2
मूल्य           - 200/-
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      हिंदी साहित्य में ऐसे कई उपन्यास है जिनमें मुख्य पात्र नायिका है अर्थात एक स्त्री मुख्य पात्र है। कथाकार सुनीला सराफ का प्रथम उपन्यास ष्श्यामलीष् स्त्री-जीवन पर आधारित है और उसकी प्रमुख पात्र उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् ही है। एक पारंपरिक परिवेश में स्त्री को एक साथ बहुत सारी जिम्मेदारियों  को निभाना पड़ता है। विवाह पूर्व जब वह मायके में रहती है तो उसे माता-पिता की आज्ञा का सम्मान करना होता है। उसे अपने मायके की परंपराओं का पालन करना होता है। किंतु जब एक लड़की का विवाह हो जाता है और वह नववधू बन कर अपनी ससुराल आती है तो उसे ससुराल की परंपराओं को आत्मसात करना पड़ता है। अब यह उसका दायित्व होता है कि वह ससुराल की परंपराओं को सहेजे और आगे बढ़ाए। उसके लिए यह एक चुनौती भरी स्थिति होती है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जो परंपराएं उसके मायके में संचालित थी वही परंपराएं ससुराल में भी उसे मिलें। कई बार आचार व्यवहार संस्कार का अंतर मिलता है जिसके साथ तालमेल बिठाना सिर्फ उसे नव विवाहिता का दायित्व होता है और किसी का नहीं। इससे भी बड़ी विडंबना का विषय भारतीय समाज में यह है कि सभी को गोरी, सुंदर, सुघढ़ वधू चाहिए, चाहे वर में  कितने भी ऐब क्यों न हों। श्यामली के माध्यम से लेखिका ने समाज में व्याप्त इन्हीं विसंगतियों को सामने रखा है। यदि लड़की की रंगत सांवली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी भी दृष्टि से अयोग्य है। एक सांवली लड़की भी किसी साफ रंगत वाली लड़की की भांति पूर्णतया योग्य होती है फिर भी सांवली  रंगत वाली लड़की को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। पहले तो उसके विवाह में दिक्कत आती है। विवाह तय होता भी है तो दहेज की मोटी रकम और दया भावना के प्रदर्शन के साथ। यदि उसके कुशल व्यवहार से उसके सास ससुर उसे स्वीकार कर भी ले तो भी उसे अपने पति की उपेक्षा झेलनी पड़ती है क्योंकि वह पति की आकांक्षा के अनुरूप गोरी-चिट्टी जो नहीं होती। यूं भी यदि पति में ऐब हैं यानी वह शराबी है, जुआरी है या घर से विमुख है तो उसे सुधारने का दायित्व भी नवविवाहिता पर होता है मानो उसके पास कोई जादू की छड़ी हो जिसे वह घुमाएगी और उसका पति जो अपने माता-पिता के कहने से भी नहीं सुधरा उसके कहने पर एक रात में सुधर जाएगा। या फिर उसके पास कोई गोया वशीकरण मंत्र हो जिससे वह अपने पति को वश में करके सुधार सकेगी। यहां भी एक दिक्कत है कि यदि पत्नी ने अपने कुशल व्यवहार से पति को अपने प्रति आकर्षित कर भी लिया, अपना कहना मानने वाला बना भी लिया तो ससुराल के अन्य सदस्यों का यह आक्षेप रहेगा की बहू ने आते ही बेटे को अपने वश में कर लिया यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। श्यामली को भी ऐसे विकट अनुभवों से जूझना पड़ा। वह एक आम भारतीय नारी की भांति अपनी ससुराल की सारी उपेक्षाएं सहती हुई अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रहती है जिससे एक समय ऐसा आता है जब उसके लिए परिस्थितियों किसी हद तक अनुकूल होने लगती है लेकिन यह अनुकूलता कब तक ठहरने वाली थी? 

सुनीला सराफ के उपन्यास की नायिका ष्श्यामलीष् के अनुभवों से गुजरते हुए सहसा मालती जोशी का उपन्यास ‘‘समर्पण का सुख’’ स्मृति में कौंध जाता है। सामाजिक एवं पारिवारिक विषयों पर सिद्धहस्त प्रतिष्ठित लेखिका  मालती जोशी ने  जिस आंतरिक संवेदनशीलता से अपने उपन्यास और कहानियां लिखी हैं, उसी विशेषता की झलक इस उपन्यास में देखी जा सकती है। 
वस्तुतः स्त्री जीवन विभिन्न सामाजिक संबंधों पारिवारिक दायित्व एवं परिवार के सदस्यों की आकांक्षाओं के बीच बिखरा रहता है इस बिखराव में उसे स्वयं के अनुरोध जीने का समय कभी नहीं मिलता है । पारिवारिक जीवन की आपत्ति में वह अपनी आकांक्षाओं को लगभग भूल ही जाती है फिर भी उसे इतनी अभिलाषा तो रहती है की परिवार संयुक्त बना रहे उसकी संताने उसकी भावनाओं का सम्मान करें। किंतु आज विखंडित होते परिवारों में मां की भावनाओं का सम्मान करने की फुर्सत किसी को नहीं रहती है बहुत कम ऐसे परिवार हैं जिसमें बच्चे अपने माता-पिता की खुशियों अथवा उनकी आकांक्षाओं के बारे में विचार करते हैं।     
सुनीला सराफ का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आह्वान तो करता ही है साथ ही परिवार में उपेक्षा का शिकार होने वाले युवाओं की समस्या पर भी दृष्टिपात करता है। शामली का पति एक ऐसा ही युवा है जिस पर किसी को भरोसा नहीं है, यहां तक की उसका स्वयं का पिता उसकी योग्यता पर विश्वास नहीं करता है। सोने चांदी अर्थात सराफा के परंपरागत व्यवसाय को अपने पुत्र के हाथों सौंपने का विचार भी पिता के मन में तब तक नहीं आता है जब तक परिस्थितिवश उसे पुत्र को सौंपना नहीं पड़ता। यहां एक बात और उभर कर सामने आती है की श्यमली का पति पहले अपने पारंपरिक व्यवसाय में रुचि नहीं रखता था वह मुंबई जाकर फिल्मी दुनिया में अपनी किस्मत आजमाना चाहता था और उसने घर से भाग कर यह प्रयास किया भी अतः इस स्थिति में पिता का रुष्ट होना स्वाभाविक था किंतु जब वह घर लौट आया और उसे पत्नी की प्रेरणा से अनुभव हुआ कि वह अपने पारंपरिक व्यवसाय में ही अपना जीवन सवार सकता है, तबभी उसका पिता उसके भीतर के विश्वास को दृढ़ बनाने की बजाय उसके प्रति अविश्वास करता रहा। यह स्थितियां अनेक परिवारों में आती है जहां पारंपरिक व्यवसाय अपनाने की बात पसंद-नापसंद के विवाद में ढल जाती है। इस मुद्दे को उठाकर लेखिका ने एक ज्वलंत समस्या को बड़ी स्वाभाविकता के साथ रेखांकित किया है। 
लगभग तीन पीढियां का विस्तार लिए हुए कथानक ने उपन्यास में बहुत सारी घटनाएं और पात्र समेट रखे हैं जोकि स्वाभाविक रूप से आते चले गए हैं। जीवन का विस्तार है तो अनेक घटनाएं भी होगी अनेक उतार-चढ़ाव होंगे ही, और उन सब का विवरण बड़ी सटीकता से लेखिका ने दिया है। ष्श्यामलीष् एक ऐसा उपन्यास है जिसका विस्तृत कैनवस है। जिसमें बहुत सारे दृश्य है और बहुत सारी घटनाएं भी। उपन्यास का आरंभ कोरोना काल से होता है। इसके बाद घटनाक्रम फ्लैशबैक में चलता है। श्यामली का पूरा जीवन फ्लैशबैक में वर्णित है। उपन्यास के एक-एक पात्र जीवंत हैं। कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं। जैसेकि आम जीवन में होते हैं। परिस्थितियोंवश उन पात्रों के स्वभाव में भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिवर्तन होते हैं। जिन पर पाठकों को कभी सहानुभूति होगी, कभी दया आएगी, कभी झुंझलाहट होगी, तो कभी क्रोध आएगा। यह सब इसलिए संभव है क्योंकि कथानक पाठक से तादात्म्य में बनाने में सक्षम है। उपन्यास में एक पक्ष और भी है वह है संपत्ति के बंटवारे को लेकर पारिवारिक विवाद जिसके चलते भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है, संतान माता-पिता को अपना शत्रु मानने लगती है और तमाम संवेदनाओं को तक में रखकर वैमनस्यता तक मामला पहुंच जाता है। कई बार तो यह स्थिति भी बनती है कि माता अथवा पिता मृत्युशैया पर पड़े होते हैं और संतानों को संपत्ति के बंटवारे की चिंता रहती है। परिवार के इस संवेदनशील पक्ष को भी लेखिका ने बड़ी सटीकता से प्रस्तुत किया है।
लेखिका सुनीला सराफ के काव्य संग्रह एवं कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कथा लेखन में उनकी अच्छी पकड़ है और इसी बात का लाभ उनके इस प्रथम उपन्यास को भी मिला है। इस उपन्यास में प्रवाह है, सहजता है, सरलता है। कथानक आम जीवन से उठाया गया है जिससे यह सभी से सहजता के साथ तारतम्य जोड़ सकता है। कई बार कथा लेखन करने वालों को उपन्यास के रूप में कथानक को विस्तार देना कठिन हो जाता है किंतु लेखिका ने सुंदर ढंग से कथानक को विस्तार दिया है। सामाजिक श्रेणी का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का आधार लेते हुए पारिवारिक एवं सामाजिक विमर्शों की भी समुचित व्याख्या करता है। उपन्यास की शैली पाठकों को बांधे रखने में सक्षम है। लेखिका के प्रथम उपन्यास की दृष्टि से इसे एक सशक्त उपन्यास कहा जा सकता है। इसे पढ़ने में निश्चित रूप से सभी पाठकों को आनंद आएगा तथा कुछ समय के लिए उन्हें चिंतनशीलता के उसे संसार से जोड़ देगा जहां परिवार और समाज में संबंधों की जटिलता व्याप्त है, जहां स्त्री आज भी अपने अधिकारों के लिए जूझ रही है और अपने परिवार पर अपना सर्वस्व मिटाने के बावजूद भी अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए संकट से घिरी हुई है।
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Monday, October 14, 2024

कृष्णा सोबती के उपन्यास 'समय सरगम' का मनोसामाजिक महत्व - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | शोध पत्रिका 'चिंतन सृजन' में प्रकाशित शोध आलेख

आस्था भारती, दिल्ली की उच्च स्तरीय त्रैमासिक शोध पत्रिका "चिंतन-सृजन" के जुलाई सितंबर 2024 अंक में कृष्णा सोबती के उपन्यास "समय सरगम" पर केंद्रित मेरा एक शोधलेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है - "कृष्णा सोबती के उपन्यास 'समय सरगम' का मनोसामाजिक महत्व"। 
      मेरे शोध आलेख के प्रकाशन पर संपादक डॉ. शिवनारायण जी का हार्दिक आभार 🙏
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शोध-आलेख

कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का मनोसामाजिक महत्व

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्राक्थन

समय यदि संगीत है तो आयु उसका आरोह और अवरोह है। जन्म से ले कर चरम युवा काल तक आरोह और फिर प्रौढ़ावस्था के लघु ठहराव के बाद अवरोह का स्वर फूटने लगता है। समय और आयु किसी की के लिए ठहरती नहीं है। समय का राग अपने अनेक स्वरों के साथ ध्वनित होता रहता हैै और आशाओं, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं की स्वरलिपि आयु अनुरूप राग छेड़ती रहती है। तार सप्तक के बाद मंद सप्तक पर लौटना अनुभवों से भरे जीवन का गुरूतम स्वरूप होता है जिसे आरोही स्वर अवरोह का थका हुआ स्वर मान लेते हैं और अपनी स्फूर्ति पर इठलाते हुए मंद-सप्तक स्वरों को बोझ समझने लगते हैं। यही समय और आयु का सत्य है और मानव के सामाजिक जीवन का भी। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘‘समय सरगम’’ में जीवन के स्वरों के अवरोह का भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक स्पष्टता से उसी बेबाकी से किया गया है, जिसके लिए उनका लेखनकर्म ख्यातिलब्ध रहा है। समाज द्वारा गढ़े गए उस मनोविज्ञान का भी विश्लेषण इस उपन्यास में है जो वृद्धजन की सामाजिक एवं मानसिक स्थितियों से साक्षात्कार कराता है।

कृष्णा सोबती का जीवन

कृष्णा सोबती हिन्दी की लेखिकाओं में वह क्रांतिकारी नाम है जिसने खुल कर, साहस के साथ कलम चलाई और वे कभी डरी या घबराई नहीं। वे अपने लेखन के साथ समाज के कट्टरपंथियों के सामने डट कर खड़ी रहीं। कृष्णा सोबती का जन्म पंजाब प्रांत के गुजरात नामक उस हिस्से में 18 फरवरी 1925 को हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने आरम्भ में लाहौर के फतेहचंद कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा की शुरुआत की थी, परंतु जब भारत का विभाजन हुआ तो उनका परिवार भारत लौट आया। कृष्णा सोबती की शिक्षा दिल्ली और शिमला में हुई।
कृष्णा सोबती को अपने कथापात्रों के मनोविज्ञान को अपने उपन्यासों और कहानियों में उतारने में महारत हासिल थी। उनके सभी पात्र प्रखर होते थे। विशेषरूप से उनकी कहानियों के स्त्री पात्र अपने अस्तित्व के लिए आवाज बुलंद करने वाले होते थे, जिसके कारण वे कई बार विवादों में भी रहीं। उन्होंने जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान, ऐ लड़की, दिल-ओ-दानिश और चन्ना जैसे उपन्यास लिखें।
लेखन में निर्भीकता, खुलापन और भाषागत प्रयोगशीलता ये तीन विशेषताएं कृष्णा सोबती को अपने समकालीन लेखिकाओं से अलग करती हैं। सामाजिक बंदिशों के समय में अपने स्त्री समाज के प्रति मुखर होना उनके आंतरिक साहस को रेखांकित करता है। सन् 1950 में कहानी ‘‘लामा’’ से अपनी साहित्यिक यात्रा आरंभ करने वाली कृष्ण सोबती स्त्री की स्वतंत्रता और न्याय की पक्षधर थीं। उन्होंने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को गढ़ा। अपने लेखन के बारे में उनका कहना है कि ‘‘मैं बहुत नहीं लिख पाती हूं। मैं तब तक कलम नहीं चला पाती हूं, जब तक अंदर की कुलबुलाहट और उसे अभिव्यक्त करने का दबाव इतना अधिक न बढ़ जाए कि मैं लिखे बिना न रह सकूं।’’
उन पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि एक स्त्री होने के बाबजूद ‘‘यारों के यार’’ और ‘‘मित्रों मरजानी’’ में उन्होंने उन्मुक्त भाषा (बोल्ड) का प्रयोग किया जबकि वे भली-भांति जानती थीं कि उन पर ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप लगेंगे। अपने एक विदेशी रेडियो साक्षात्कार में उन्होंने ‘‘अश्लील लेखन’’ के आरोप पर खुल कर अपने विचार रखे थे। उन्होंने कहा था कि - ‘‘भाषिक रचनात्मकता को हम मात्र बोल्ड के दृष्टिकोण से देखेंगे तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे। भाषा लेखक के बाहर और अंदर को एकसम करती है। उसकी अंतरदृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्द कोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रुपांतरित करता है तो कुछ ‘नया’ घटित होता है। मेरी हर कृति के साथ भाषा बदलती है। मैं नहीं, वह पात्र है जो रचना में अपना दबाव बनाए रहते हैं। ‘जिन्दगीनामा’ की भाषा खेतिहर समाज से उभरी है। ‘दिलोदानिश’ की भाषा राजधानी के पुराने शहर से है, नई दिल्ली से नहीं। उसमें उर्दू का शहरातीपन है। ‘ऐ लड़की’ में भाषा का मुखड़ा कुछ और ही है। उसकी गहराई की ओर संकेत कर रही हूं।’’
कृष्णा सोबती को सन 1980 में जिंदगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 1981 में शिरोमणि पुरस्कार के अतिरिक्त मैथिली शरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया। सन 1982 में कृष्णा सोबती को हिंदी अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। सन 1996 में कृष्णा सोबती को साहित्य अकादमी फेलोशिप से पुरस्कृत किया गया। सन 1999 में, लाइफटाइम लिटरेरी अचीवमेंट अवार्ड के साथ कृष्णा सोबती प्रथम महिला बनीं जिन्हें कथा चूड़ामणि अवार्ड से नवाजा गया। सन 2008 में हिंदी अकादमी दिल्ली का ‘शलाका अवार्ड’ भी उनको मिला तथा सन 2017 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एक दिलचस्प बात जिसके बारे में उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ सन् 1952 में लिख कर प्रकाशक के पास भेजा किन्तु प्रकाशक ने उसकी भाषा पर आपत्ति करते हुए उसमें परिवर्तन करने को कहा। कृष्णा सोबती को यह स्वीकार्य नहीं हुआ और उन्होंने उसे प्रकाशक से वापस ले लिया। अंततः वह उपन्यास सन् 1979 में प्रकाशित हुआ और उस पर उन्हें 1980 साहित्य अकादमी अवार्ड दिया गया। यद्यपि कुछ दशक बाद उन्होंने असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी अवार्ड सहित हिंदी अकादमी का ‘शलाका सम्मान’ और ‘व्यास सम्मान’ भी लौटा दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने ‘पद्मभूषण’ लेने से भी मना कर दिया था। ऐसी दृढ़ और जीवट लेखिका के बारे जानने की जिज्ञासा हर साहित्यकार के मन में होना स्वाभाविक है।
25 जनवरी 2019 को 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

‘समय सरगम’ का मनोसामाजिक विश्लेषण एवं महत्व

वृद्धावस्था जीवन की एक अनिवार्य स्थिति है। व्यक्ति जब तक युवा रहता है तब तक उसमें स्फूर्ति का सागर हहराता रहता है। किन्तु वृद्धावस्था दैहिक ऊर्जा को निरंतर क्षीण करती जाती है। उस समय उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है पारिवारिक एवं सामाजिक मनोबल की, अपनत्व की और सहारे की। ऐसी अवस्था में यदि किसी व्यक्ति को एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़े तो वह छोटे-छोटे सहारे को भी बड़ा मान बैठता है। वस्तुतः यह एक जटिल मानसिक स्थिति है।
‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक अनूठा उपन्यास है। यह समय की गति को उसकी नब्ज़ और सामाजिक दुरावस्थाओं के साथ जांचता है। ‘समय सरगम’ को पढ़ते हुए सहसा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का संस्मरणात्मक निबंध ‘वृद्धावस्था’ याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है -‘‘काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन निर्मला से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूं।’’

अवस्था चाहे कोई भी हो प्रायः किसी अन्य व्यक्ति के बोध कराने पर अनुभव होती है, वृ़़द्धावस्था तो विशेषरूप से। बच्चे आयु में कितने भी बड़े हो जाएं किन्तु माता-पिता की दृष्टि में बच्चे ही रहते हैं। पचास वर्षीय संतान को भी चोट लगती है तो मां को ठीक उतनी ही पीड़ा होती है जितनी कि उसे शैशवावस्था में चोट लगने पर पीड़ा होती थी। इसके विपरीत मां की गोद में छिप कर सारे संसार के भय, निराशा और क्रोध से मुक्ति पा लेने वाली संतान जब आत्मनिर्भर हो जाती है तब उसे अपनी वही मां अनापेक्षित लगने लगती है। वह अपनी अशक्त हो चली मां को वह संरक्षण, वह सहारा, वह स्नेह देने को तैयार नहीं होता है जो उसने अपनी मंा से पाया था।

वृद्धावस्था का अहसास उस पल पहली बार होता है जब अपनी ही संतान द्वारा अवहेलना का शिकार होना पड़ता है वहीं वृद्धावस्था समाज द्वारा ‘बेचारी’ अवस्था के रूप में देखे जाने के कारण भी व्यक्ति को तोड़ने लगती है। ‘समय सरगम’ में दो प्रमुख पात्र हैं- आरण्या और ईशान। दोनों वृद्धावस्था में पहुंच चुके हैं। वह अवस्था जिसे ‘सीनियर सिटिजन’ के सम्बोधन से खोखला सम्मान तो दे दिया जाता है किन्तु सत्यता इससे परे कटु से कटुतर होती है। ईशान बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं किन्तु उनके बेटे उन्हें अपने साथ नहीं रखते हैं। ईशान अकेले रहते हैं और इस बात की प्रतीक्षा रहती है उन्हें कि उन्हीं पोती अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उन्हें फोन करेगी और बुलाएगी। यह अल्प सुख ईशान के भीतर जीवित रहने की जिजिविषा बनाए रखता है। यह सच है कि आरण्या के साथ ने उनके जीवन में उत्साह का संचार किया। वहीं आरण्या एकाकी महिला है। जीवन जीने की दिशा में ईशान से कहीं अधिक स्फूत्र्त। वह लेखिका है। शायद इसी लिए उसका एकाकीपन उसे नैराश्य से बचाए रखता है। दोनों व्यक्ति दिल्ली महानगर में रहते हैं। दोनों दिल्ली विकास प्राधिकरण के आभारी हैं जिसने ऐसे पार्क बना रखे हैं जहां जवान, बूढ़े हर कोई घूम सकता है, हल्के-फुल्के व्यायाम करते हुए परस्पर एक दूसरे से परिचित हो सकता है। वृद्धों के लिए ऐसी जगह सबसे आरामदेह है। ‘‘बूढ़ों सयानों की टोली हर शाम इस छोटे से बगीचे में पहले टहलती है, फिर बतियाती है। डी.डी.ए. की बदौलत। नागरिक कृतज्ञ हैं इस छुटके से बगीचे में बिछी हरियाली घास के लिए। फूलों की क्यारियों और लतरों के लिए। न होता ये सुहाना टुकड़ा तो देखती रहती यह अंाखें सीमेंट के अपार्टमेंट जंगल को।’’ (पृ.89)

खुली हवा में सांस लेते हुए अपने हमउम्रों के दुख-सुख को बांटने का एक अलग ही आनन्द है। लेकिन पार्क से लौटते ही वही एकाकीपन। इस एकाकीपन के पास कृष्णा सोबती कैसे पहुंची? कैसे उन्हें उस पीड़ा का अहसास हुआ कि अकेले वृद्ध किस तरह खुशियों के एक-एक कतरे के लिए तरसते हैं? इस तारतम्य में उनका स्वयं का कथन बहुत अर्थ रखता है-‘‘मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया। यानी एक थी आजादी और एक था विभाजन। मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ़ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता और न ही सिर्फ़ अपने दुख-दर्द और खुशी का लेखा-जोखा पेश करता है। लेखक को उठना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ, इतिहास के फैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैंने देखा, जो मैंने जिया वही मैंने लिखा ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘समय सरगम’, ‘यारों का यार’ में।’’ (बीबीसी हिन्दी डाॅट काॅम, 18 अगस्त 2004)  

कथानक भले ही एकाकी वृद्धों के जीवन पर केन्द्रित हो किन्तु देश के बंटवारे का दर्द ‘समय सरगम’ में भी अपनी सम्पूर्णता के साथ दिखाई पड़ता है। ‘‘नई पुरानी दिल्ली अपनी घनी सजीली छब में हर हाल में अपनी सूरत और सीरत सम्हाले रहती। आज़ादी के साथ ही राजधानी में बाढ़ की तरह रेला उठ आया। आक्रामक विस्थापितों के ठट्ठ के ठट्ठ। यहां-वहां सब जगह। शहर के हर इलाके में। दिल्ली निवासी शरणार्थियों की भीड़ से परेशान और गंाव-कस्बों और शहरों से उखड़े हुए आक्रामक शरणार्थी-दिल्ली के सुसंस्कृत मिज़ाज में घूल भरी आंधियां चलने लगीं।’’ (पृ.43)

शरणार्थी अपने और अपनों के जीवन के लिए आक्रामक मुद्रा में भले ही थे किन्तु अधिकांश ऐसे थे जो अकेले रह गए थे। अतः अकेलेपन की चर्चा के समय देश के बंटवारे के दौरान उपजा अकेलापन भी विषयानुकूल है। पहले भरपूरा परिवार पारम्परिक और संस्कृति से ओतप्रोत फिर एक लम्बा अकेला जीवन। यह बंटवारे के समय परिस्थिति का परिणाम रहा किन्तु वर्तमान में यह प्रारब्ध बन गया है। दिल्ली जैसे महानगरों की गंगनचुम्बी इमारतों के छोटे-छोटे फ्लैट्स में एकल परिवार और अकेले बूढ़ों की वो दुनिया बस गई है जिनके बीच स्नेह की बेल सूख चुकी है। आरण्या और ईशान संयुक्त परिवार की अवधारणा के समाप्त होने पर चर्चा करते हैं तो आरण्या बोल उठती है-‘‘ईशान, मुझे संयुक्त परिवार का अनुभव नहीं। दूर-पास से जो इसकी आवाज़ें सुनीं वह सुखकर नहीं थीं। इतना जानती हूं कि परिवार की सुव्यवस्थित अस्मिता ओर गरिमा का मूल्य भी उनहें ही चुकाना होता है जिनका खाता दुबला हो। परिवार की सांझी श्री पैसे के व्यापारिक प्रबंधन में निहित है। उसकी आंतरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है। घनी छांह की जगह घिसी हुई पुरानी चिन्दियां फरफरा रही हैं। जानती हूं ईशान, आपको यह बात ठीक नहीं लग रही, पर मैं अपनी कीमत पर इसकी पड़ताल कर रही हूं और ‘सत्य’ के  नाना-रूप में संचारित छोटे-बड़े झूठ और झूठों से बनाए गए स्वर्णिम सत्यों की ठोंक-पीट ही इस सात्विक संसार की प्रेरणा है।’’ (पृ.64)
यदि वृद्धावस्था आ गई है तो क्या चैबीस घंटे ईश्वर की स्तुति एवं धर्म-दर्शन में व्यतीत करना चाहिए? ईशान आरण्या का परिचय दमयंती से कराता है। वह भी उनकी हमउम्र है। किन्तु वह इन दोनों की भांति एकाकी नहीं है वरन् अपने बेटों-बहुओं के साथ रह रही है। उसने समाज एवं परिवार की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप स्वयं को एक गुरु की शिष्या बना कर सत्संग के हवाले कर दिया है। ऊपर से देखने से यही लगता है कि वह अपनी इस स्थिति से प्रसन्न एवं संतुष्ट है। वास्तविकता इससे परे है। दमयंती का खान-पान गुरू के निर्देशानुसार बदल चुका है। पहनावा भी उन्हीं के अनुसार अपना लिया है। लेकिन बेटे, बहू फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। दमयंती मानो किसी भुलावे में जी रही है। वह कहती है-‘‘आरण्या, मैं सूती कपड़ा तन को छुआती न थी। एक दिन सत्संग के बाद मेरी गुरूजी ने टोक दिया। अब सूफियाने-से सूती जोड़े बनवाए हैं। मेरे बेटों और बहुओं की सुनो। रेशम पहनो तो कहते हैं, इस उम्र में ये मचक-दमक अच्छी नहीं लगती। सूती पहनूं तो वह भी पसंद नहीं। कहते हैं कि इनमें आप हमारी मां नहीं लगतीं। तुम्हीं बताओ क्या करूं?’’ (पृ.72) लेखन और समाजहित के कार्यों के संबंध में यही दमयंती आगे कहती है-‘‘बहन, यह काम तो यहीं धरे रह जाएंगे ओर कभी पूरे न होंगे। हमें आगे का भी सोचना है।’’ कितनी दिग्भ्रमित है दमयंती। जिसने अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्हें सही और गलत का अर्थ समझाया। सही रास्ता दिखाया। जीवन का अर्थ समझाया। वहीं दमयंती वृद्धावस्था में आते ही अपने बच्चों के व्यवहार से इतनी भयाक्रांत हो गई कि उसने सही और गलत में भेद करना ही भुला दिया। परलोक के अस्तित्व के विचारों ने उसे इहलोक के उन दायित्वों से विमुख कर दिया जो अभी वह भली-भांति निभा सकती थी। अपितु ये कहा जाए कि यही वृद्धावस्था की दायित्वमुक्त आयु स्वयं को जीने की आयु होती है जिसे दमयंती जैसे व्यक्ति जीने का न तो साहस कर पाते हैं और न दसके बारे में सोच पाते हैं। परलोक के अस्तित्व की एक भेड़चाल या फिर वृद्धों को भयभीत कर रखने की वह चाल जिसमें उलझ कर वे युवाओं के जीवन में हस्तक्षेप न कर सकें।

आरण्या परलोक-भय की भेड़चाल से परे अपने रास्ते पर चल रही है। वह अपने तयशुदा दायित्वों के प्रति न केवल सजग है अपितु उन्हें निष्ठापूर्वक पूरे भी करना चाहती है। आयु को ले कर ईशान के ऊहापोह के उत्तर में आरण्या कहती है-‘‘मैं अपने को उम्र में इतना बड़ा महसूस नहीं करती जितना आप मान रहे हैं। मेरे आसपास मेरा परिवार नहीं फैला हुआ कि मैं अपने में मंा, नानी, दादी की बूढ़ी छवि ही देखने लगूं। ईशान, मुझे मेरा अपनापन निरंतरता का अहसास देता है।’’ (पृ.80) यही तो वह तथ्य है कि आयु को अनुभव करना ही आयु को से समझौता कर लेना है। आरण्या को यह समझौता स्वीकार नहीं है। वह बड़ी-बूढ़ी छवियों में उलझ कर स्वयं को बूढ़ी मान कर थकाना नहीं चाहती है। क्योंकि वह जानती है कि एकाकीपन उन रिश्तों की बूढ़ी छवियों के बीच और अधिक गहरा जाता है।

रिश्तों के एकाकीपन के तारतम्य में उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ सहसा स्मरण हो आती है। एक व्यक्ति जब रिटायर हो कर घर लौटता है तो घर में खलबली मच जाती है। उसे सदा के लिए कोई अपने बीच नहीं पाना चाहता है। घर का प्रत्येक सदस्य, यहां तक कि उसकी पत्नी भी चाहती है कि वह उसकी तरह समझौतावादी बन कर रहे अथवा फिर कहीं चला जाए। उसकी घर वापसी उसके घरवालों के लिए ही खटकने वाली हो जाती है। यही है अपनों के बीच का परायापन जो सेवानिवृत्त व्यक्ति को अकेला कर देता है। ईशान इसी अकेलेपन को जी रहा है। किन्तु आरण्या नहीं। आरण्या मंा, नानी, दादी नहीं बल्कि एक स्वावलम्बी स्त्री के रूप में जीवन जी रही है, वृद्धावस्था के फेंटे में आने के बावजूद भी। वह उन लोगों जैसी समझौतावादी नहीं है जो स्वयं को अशक्त मान लेते हैं और बहू-बेटों के तिरस्कार में भी अपने सुखों की तलाश करते शेष जीवन बिता देते हैं। बहुमंजिला इमारत में अपने फ्लैट (जो उनका अपना नहीं रहा, बहुओं-बेटों का हो चुका ) के ठीक बाहर सड़क के उस पार बने नन्हें से पार्क में उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। वे यही सोच कर स्वयं को ढाढस बंधाते हैं कि ‘‘कामकाज से छुट्टी पा इसे भोगना भी सुख है जीने का। बहू-बेटों की नज़रों में रुखाई, अवज्ञा, उदासीनता कुछ भी दीखती रहे-परिवार के साथ हाने का सुख है गहरा। रहती है आत्मा शांत कि सभी कोई पास हैं। अपने साथ हैं।.....यह बात अलग है कि परिवारों में बड़े-बूढ़ों के अधिकार कमतर और ‘हां’ ‘न’ का संकोच ज्यादा है। पीढ़ी सरक जाए तो अख्तियार खुद ही आधे-पौने हो जाते हैं। बहू -बेटों की मरजी मुताबिक चलना। वे जैसा चाहें रहते रहें। हम क्यों तानाशाह बने हुक्म चलाते रहें।’’ (पृ.89-90) अपनी स्थिति को नियति मान लेना और अपने बहू-बेटों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना इतना भी बुरा नहीं है जितना कि रिश्तेदारों के होते हुए भी अकेले पड़ जाना। ईशान की परिचित कामिनी इसी विडम्बना को जी रही है। कामिनी का भाई अपने परिवार के साथ अलग रहता है। कामिनी की सेवा-टहल के लिए ‘खूकू’ नाम की नौकरानी है। नौकरानी भी ऐसी जो कामिनी की अवस्था से तादात्म्य नहीं बिठा सकी है। वह आलमारी की चाबी के बारे में पूछने पर ईशान से कहती है-‘‘कभी मेम साहिब के पास होती है, कभी मेरे पास। उन्हें कुछ याद नहीं रहता। कहीं रख देती हैं और मुझ पर बरसने लगती हैं। क्या करूं साहिब, मुझे ऐसी नौकरी छोड़ देनी चाहिए पर इनकी हालत पर तरस आता है।’’ (पृ.99) ईशान और आरण्या दोनों समझ जाते हैं कि यह ‘तरस’ वास्तविक ‘तरस’ नहीं है। इसके पीछे निहित स्वार्थ की गंध उन्होंने स्पष्ट महसूस की। किन्तु वे उस लाचार वृद्धा के रिश्तेदार नहीं हैं जो कोई ठोस कानूनी क़दम उठा सकें। जो रिश्तेदार है अर्थात् कामिनी का भाई उसे अपनी बहन से अधिक अपनी बहन के घर से प्यार है। कामिनी ईशान और आरण्या को बताती है कि ‘‘मुझे दलाल बता गया है कि भाई ने मेरे घर का सौदा कर लिया है। बयाना ले चुका है। खूकू ने मुझे नहीं बताया पर बिल्डर घर को दो बार आगे-पीछे और अंदर से देख गया है। मैं तब सोई पड़ी थी।’’ कामिनी आगे बताती है कि ‘‘एक रात देखा तो मेरी डाक्यूमेंट फाईल में घर के पेपर नहीं थे। अगली रात यह (खूकू) बाहर ताला डाल कर चली गई तो फिर आलमारी खोली। सब खाने छान मारे फाईल खोली तो असली की जगह फोटोस्टेट काॅपी रखी थी।....असली अब मेरे पास नहीं है।’’ (पृ. 98) यह छल, वह भी अपने सगे भाई और अपनी नौकरानी के हाथों। कामिनी को यह सब सहन करना पड़ रहा था। क्यश एक वृद्धा के लिए जिसने अपना जीवन शान से सिर उठा कर, निद्र्वन्द्व हो कर जिया हो, आसान हो सकता था? कामिनी के लिए कुछ भी आसान नहीं था।

आरण्या के अपने अनुभव भी कम कटु नहीं थे। यदि वृद्ध व्यक्ति अकेला हो तो क्या उसे सुगमता से किराए का घर मिल सकता है? वह न तो युवाओं जैसी पार्टियां करेगा, न तो लड़कियों अथवा लड़कों को अपने घर लाएगा, युवाओं में प्रचलित कोई भी असमाजिक हरकत नहीं करेगा चाहे वह वृद्ध हो या वृद्धा। फिर तो मकान मालिक को ऐसे वृद्धों को किराए से मकान देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति से सुरक्षित वृद्ध का तो और पहले स्वागत किया जाना चाहिए। किन्तु इस सिक्के का दूसरा पहलू अत्यंत भयावह है। आरण्या को मकान बदलने की नौबत आती हैं वह एक अदद किराए का मकान ढूंढने निकल पड़ती है।

‘‘एक अच्छे खासे घर को दो-तीन बार देख कर उसका एडवांस देना चाहा तो ऐजेंट के साथ खड़े बुजुर्ग ने पूछा-यह बताएं कि आपकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
जिम्मेदारी? क्या मतलग?
आप अकेली रहेंगी कि कोई और भी साथ में होगा?
मैं रहूंगी और मैं ही अपने लिए जिम्मेदार हूं।
आपकी जन्म तारीख किस सन् की है?
यह क्यों पूछ रहे हैं आप? इसलिए कि हमें पूछना चाहिए। कल को चली-चलाई को कुछ चक्कर हो तो हम झमेले में क्यों पड़ें।’’ (पृ. 122)
यानी मृत्यु का आकलन करके मकान किराए पर देना तय करना। एकदम अमानवीय विचार। एकदम अमानवीय कृत्य। किन्तु यही सामाजिक सत्य है, घिनौना, स्वाभाविक सोच से परे। मृत्यु वृद्धावस्था की सगी-संगिनी हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आयु का उतार चढ़ाव नहीं देखती है। बस, अपने मतलब की संासें गिनती है और आ धमकती है। शिशु भी युवा भी, वृद्ध भी सभी इसी की छांह में सांसे लेते हैं। यदि पल भर को मान लिया जाए कि मृत्यु और वृद्धावस्था सगी बहनें हैं तो ऐसी दशा में तो वृद्ध को सहारा और सिर पर छत मिलनी ही चाहिए। किन्तु स्वार्थ और आर्थिक लोभ इंसान को पाषाणहृदय बना देता है। तभी तो जब एक अन्य फ्लैट को तय करने के लिए आरण्या एजेंट से बातचीत करती है।
‘‘एजेंट ने कंपनी लीज़ की मांग की।
कुछ देर सोचती रही फिर हामी भरी। हां, दे सकूंगी।
नाम बताइए कंपनी का। कौन है?
मेरे प्रकाशक हैं।
क्या आप लेखक हैं! किताबें लिखती हैं? ऐसा है तो कहां से ला कर देंगी किराया?
आरण्या बिना जबाव दिए नीचे उतर गई।’’ (पृ. 122)

कृष्णा सोबती यहां एक साथ दो बिन्दुओं पर प्रहार करती हैं। एक तो वृद्धों के प्रति मकानमालिक और ऐजेंट के मानवतारहित व्यवहार पर और दूसरा भारत में लेखकों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा पर। भारत में आदिकाल से लेखन को चैंसठ कलाओं में से एक कला माना जाता रहा है। किन्तु मान्यता और यथार्थ के बीच की गहरी खाई यहां हमेशा रही है। राजाओं के जमाने में राजाश्रय पा जाने वाले साहित्यकार अर्थ और समाज से प्रतिष्ठित रहते थे जबकि राजाश्रयविहीन साहित्यकार यदि पूछ ेभी जाते रहे हैं तो अपनी मृत्यु के सदियों बाद। आधुनिक युग में भी यही स्थिति है। पाश्चात्य जगत में ऐसा नहीं है। वहां साहित्यकार सिर्फ साहित्य सृजन कर के रायल्टी के दम पर अपनी रोजी-रोटी चला सकता है। किन्तु भारत में नहीं। यहां लेखक को बुद्धिजीवी की श्रेणी में भले ही गिना जाए परन्तु उसकी ‘लक्ष्मीप्रिया’ नहीं मानी जाती है। जो बुद्धि सीधे धनार्जन में लगे उसकी साख है, साहित्य में लगने वाली बुद्धि की नहीं। साहित्य का ‘मार्केट वेल्यू’ साहित्य व्यवसायी के लिए भले हो पर साहित्यकार के लिए नहीं होता है। अस्तु एक साहित्यकार की आर्थिक साख और उसके साहित्य के बल पर उसके जीवन की मूल्यवत्ता होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।

आरण्या को अपनी सहेली के घर शरण लेनी पड़ती है। तब ईशान के मन में आता है कि क्यों न आरण्या उसके घर में आ कर रहे एक साथी की तरह। आरण्या कुछ हिचकते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है। दो वृद्धजन परस्पर एक-दूसरे का सहारा बन कर जीने लगते हैं। विपरीत लिंगी होते हुए भी एक वासना रहित जीवन। विशुद्ध मैत्री पर आधारित साथ जिसमें एक-दूसरे का सुख-दुख, चिन्ता, आवश्यकताएं और पूरकता निहित है। ‘‘कितने बरस गुज़र गए। हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गए। कहां मालूम था  िकपतझर के इस मौसम में हम लोग मिल जाएंगे, पुराने परिचितों की तरह नहीं-नए मित्रों की तरह। लंबा अरसा हो गया है इस शहर में रहते। अपने-अपने खातों को देंखें तो कहां जान पाएंगे कि कितना खोया और कितना पाया। हां, आरण्या, तुम्हें जान लेने पर यह तो लगता है कि जीना बैंक का अकाउंट नंबर नहीं, जिसका कुल जोड़ कुछ आंकड़ों में हो। मैं अब किसी असमंजस में नहीं हूं। क्यों न अपने जाने को सहज-सरल कर लें। हम दोनों में से किसी को दिक्कत न होगी।’’ (पृ.147)

जीवन से एक साझापन ही आयु के समय को आसान बना सकता है बशर्ते यह साझापन विवशता का नहीं सहजता और उत्फुल्लता का हो। अन्यथा एकाकी वृद्धों के पास अपनी बचीखुची सांसें गिनते हुए दिन काटने के सिवा कोई चारा नहीं बचता है। एक ओर कामिनी, दमयंती जैसे वृद्ध हैं जो पारिवारिक दबाव के चलते आयु के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं या फिर एक निःश्वास की भांति मंथर गति से घिसटते रहते हैं मृत्यु की ओर। ईशान जैसे वृद्ध व्यक्ति भी हैं जो परिस्थितियों को एक मध्यममार्गी की भांति स्वीकार करते हैं। वहीं आरण्या जैसे वृद्ध हैं जो बिना किसी को कष्ट पहुंचाए अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं। स्वावलंबी और स्वाभिमानी ढंग से। यद्यपि ऐसे मार्ग में अवरोध ही अवरोध हैं। एक तो स्त्री, वह भी अकेली और उस पर लेखिका। न कोई आर्थिक साख, न कोई सामाजिक सहारा। फिर भी अडिग रह कर जीवन के शेष दिनों को अपनी इच्छानुरुप ढालने का साहस। यही साहस उसे ईशान की निर्विकार मित्रता उपलब्ध कराता है। कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ में इसी सत्य को बखूबी सामने रखती हैं कि जीवन उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण है। यदि तार-स्वर हैं तो मंद-स्वर भी हैं। फिर भी ये सभी एक रागों में निबंद्ध हैं।
‘समय सरगम’ की भाषा पाठक से सीधा संवाद करती है। अपनी भाषा के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती ने कहा था कि-‘‘ पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।’’ उनकी भाषा की यही विशेषता कृष्णा जी के सृजन में आत्मीयता पैदा करती है। इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उनका कथानक जो ‘समय सरगम’ में ढल कर समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता है, महसूस कराता है।

निष्कर्ष

‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक ऐसा उपन्यास है जो वृद्धावस्था को प्राप्त एकाकी रह रहे स्त्री-पुरुष के विचारों, इच्छाओं, परिस्थितियों एवं हर ओर से मिलने वाली उपेक्षा व अवहेलना का मनोसामाजिक विश्लेषण करता है। यह उपन्यास वृद्धविमर्श का एक ऐसा धरातल तैयार करता है जिस पर खड़े हो गया वृद्धावस्था के कम्पन को सूक्ष्मा से अनुभव किया जा सकता है। संवेदनाओं एवं दृढ़ता की प्रचुरता को रेखांकित करने के साथ ही यह समाज से आग्रह करता है कि वृद्धों के प्रति अपने दृष्टिकोण में सुधार लाने की आवश्यकता है। वस्तुतः ‘समय सरगम’ एक सशक्त मनोसामाजिक उपन्यास है।  
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संदर्भ:
1. समय सरगम, कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, सन 2008, पेपर बैक।
2. लेख, समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता समय सरगम, लेखिका- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, सापेक्ष 60 (कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित), संपादक- महावीर अग्रवाल,प्रकाशक- सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
3. सापेक्ष 60 (कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित), संपादक- महावीर अग्रवाल,प्रकाशक- सापेक्ष, ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग (छ.ग.)
4. कृष्णा सोबती के कृतित्व पर केन्द्रित एक अनूठी पुस्तक ‘‘सापेक्ष 60’’, पुस्तक समीक्षा, समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, दैनिक ‘‘आचरण’’ सांगर संस्करण, 14.12.2012
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- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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Friday, February 9, 2024

शून्यकाल | स्व. अनिल चंद्र मैत्रा के उपन्यास में है तत्कालीन सागर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम 'शून्यकाल'.        
  स्व. अनिल चंद्र मैत्रा के उपन्यास में है        तत्कालीन सागर         
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
❗️साहित्य समय और समाज का वह एल्बम होता है जिसमें तत्कालीन तस्वीरें सुरक्षित रहती हैं। जब साहित्य के पन्ने पलटते हैं तो उन तस्वीरों से हो कर गुज़रते हैं तथा तत्कालीन स्थितियों से साक्षात्कार करते हैं। उपन्यासों में तो समय की और अधिक जीवंत तस्वीर होती है। जैसे प्रेमचंद के उपन्यासों में उनके समय के समाज को देखा जा सकता है। कुछ काल्पनिक मिलावट के साथ सही लेकिन उपन्यास सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक इतिहास बखूबी सहेजते हैं। ठीक इसी प्रकार सागर के कथाकार स्व. अनिल चंद्र मैत्रा के उपन्यास में मिलता है सागर शहर का तत्कालीन परिवेश।❗️      

यूं तो प्रत्येक दशक में अनेक उपन्यास लिखे गए किन्तु लेखक अनिल चंद्र मैत्रा के सन् 1980 में प्रकाशित उपन्यास ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ सागर शहर की तत्कालीन स्थितियों को जानने की दिशा में महत्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है। यह बात मुझे महसूस हुई इसे पढ़ने के बाद। यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि जब मैंने अनिल चंद्र मैत्रा जी का उपन्यास ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ पढ़ने को उठाया तो उस समय एक पूर्वाग्रह मेरे मन में मौजूद था कि इस उपन्यास में कहीं न कहीं शरतचंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर या बंकिमचंद्र की छाप अवश्य होगी। इसमें निश्चित रूप से बंगाली औपन्यासिक विन्यास मिलेगा। निःसंदेह, मैत्रा जी ने बंगाल की कथा परंपरा को अपने उपन्यास में विस्तार दिया होगा। लेकिन जब मैंने इस उपन्यास को पढ़ना आरंभ किया तो आरंभ के 2 पृष्ठ के बाद ही मेरा यह पूर्वाग्रह समूल समाप्त हो गया। यह उपन्यास पूरी तरह से बुंदेलखंड की सामाजिक भावभूमि का उपन्यास सिद्ध हुआ। इस उपन्यास में कथाकार अनिल चंद्र मैत्रा की अपनी एक मौलिक शैली आरंभ में ही परिलक्षित होने लगी जिस पर बंगाली कथाशैली का रत्तीभर प्रभाव नहीं था।  संवाद, चरित्र, कथानक - सभी कुछ सागर और बुंदेलखंड अंचल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यदि परंपरा की बात की जाए तो इसमें ठेठ हिंदी उपन्यास की परंपरा का निर्वहन स्पष्ट दिखाई दे रहा था। बंगाली भाषा और अंग्रेजी साहित्य के ज्ञाता अनिल चंद्र मैत्रा की यह अपनी विशेषता थी कि उन्होंने अपने आसपास के परिवेश को अपने उपन्यास के कथानक रूप में चुना और जैसे-जैसे मैं उपन्यास के पन्ने पलटती गई वैसे-वैसे जिज्ञासा बढ़ती गई। उपन्यास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचते-पहुंचते बहुत सारी स्थितियां स्पष्ट होने लगीं, तो बहुत कुछ गोपन रहकर अंत की ओर बढ़ने को प्रेरित करता रहा। ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा का यूं तो दूसरा उपन्यास है किंतु यह अपने आप में एक सशक्त उपन्यास है और उनके औपन्यासिक विन्यास कौशल से परिचित कराने में पूर्णतया सक्षम है।
इस उपन्यास के कथानक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह स्त्री को केंद्र में रखकर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायायिक विमर्श करता है। समूची कथा उपन्यास की नायिका मीना और नायक विनय के इर्द-गिर्द घूमती है। नायिका मीना विश्वविद्यालय की छात्रा है और वह गायन विधा में इतनी निपुण है कि यूथ फेस्टिवल में उसे प्रथम स्थान प्राप्त होता है। वह सागर नगर का गौरव है। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। किंतु वह है तो एक लड़की ही। जब बात अधिकारों और विवाह संबंध की आती है तो उसके सारे गुणों को ताक में रखकर एक लड़की के रूप में उसे देखा जाने लगता है। यहीं से आरंभ होता है वास्तविक स्त्रीविमर्श जो बुंदेलखड के एक सामान्य परिवार में स्त्री के अधिकारों की पड़ताल करता है। 
उपन्यास के आरंभ में ही नायिका मीना के सशक्त चरित्र को सामने रखते हुए लेखक ने एक घटना का विवरण दिया है कि नगर के एक जाने-माने राजनीतिज्ञ का बेटा मीना को देखकर गाना गाता है और आपत्तिजनक फब्तियां कसता है। इस पर क्रोधित होकर मीना उस आवारा लड़के की पिटाई कर देती है। यह दृश्य देखकर वहां से गुजरने वाले लोग भी जुड़ जाते हैं और सब मिलकर उस लड़के की पिटाई करते हैं। उसी दौरान पुलिस आ जाती है और उस लड़के को थाने ले जाती है। तब आवारा लड़के का राजनीतिक पिता थाने पहुंचकर सौदेबाजी करता है और जो थानेदार पहले उसूलों की बात कर रहा था वह लालच में फंसकर सौदेबाजी कर लेता है और केस को न बनाते हुए लड़के को छोड़ देता है। इसी घटना से जुड़ा दूसरा पक्ष एक मुख्य समाचार पत्र के दबंग संपादक का है जो इस घटना पर बहुत ही उत्साहित होकर स्वयं रिपोर्ट तैयार करता है और मीना की भूरी भूरी प्रशंसा करता है किंतु जब नेताजी उस अखबार के दफ्तर में पहुंचते हैं और संपादक को विज्ञापन का लालच देते हैं तो वह भी अपनी ईमानदारी को साथ में रखकर पूरी कहानी ही बदल देता है। जहां एक पल पहले वह मीना के साहस की प्रशंसा का समाचार बना रहा था, वहीं वह मीना के विरोध में समाचार बना देता है। इस प्रकार देखा जाए तो लेखक ने समाज के 3 महत्वपूर्ण स्तंभों का वह चेहरा दिखाया है जो पूरी तरह से वीभत्स है। अखबार जो समाज का चैथा स्तंभ माना जाता है, वह कितना खोखला हो चुका है यह इस उपन्यास में खुलकर सामने रखा गया है। एक दबंग दिखाई देने वाले संपादक का भीतरी चरित्र कितना कमजोर है, यह इस उपन्यास को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। मीना का पक्ष लेने के बजाय थानेदार अपने हित साधने के चक्कर में एक अपराधी मनोवृति के लड़के को छोड़कर स्वयं अपराध करता है, जिसके दुष्परिणाम का उसे अनुमान भी नहीं है कि आगे चलकर वह लड़का क्या गुल खिलाएगा। इसी तरह विज्ञापन का लालची संपादक भी एक अपराधी का पक्ष लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता है।
यह उपन्यास समाज में लड़कियों के प्रति समाज की विचारधारा को विश्लेषणात्मक ढंग से सामने रखता है। यदि लड़की पढ़ी-लिखी न हो तो विवाह में समस्या आती है और यदि लड़की ज्यादा पढ़-लिख जाए तो भी समस्या आती है। विवाह के संदर्भ में ही एक और दृष्टिकोण है जिसे उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा ने बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है। यह दृष्टिकोण है जाति और धर्म पर केंद्रित। मीना ब्राह्मण परिवार की लड़की है जबकि उसके पिता के स्वर्गीय मित्र का बेटा विनय जो बचपन से ही उसके घर आता जाता रहा है, वह कायस्थ परिवार का है। पुराने विचारों के पोषक मीना के पिता कभी यह सोच भी नहीं पाते हैं कि मीना के जीवनसाथी के रूप में विनय को चुना जा सकता है। मीना की मां परंपराओं की पोषिका होते हुए भी एक स्त्री के रूप में मीना की पीड़ा को समझती है और उसका पूर्ण समर्थन करती है। किंतु पुरुष प्रधान समाज में न मीना की कोई सुनवाई है और न उसकी मां की। यह उपन्यास कई दशक पहले लिखा गया किंतु यदि हम देखें तो स्थितियां आज भी वही हैं। लड़की को अपने इच्छा अनुसार वर चुनने का अधिकार खुशी से आज भी नहीं दिया जाता है। 
मीना के पिता के एहसानों तले दबे विनय के वश में नहीं है कि वह खुलकर कदम बढ़ा सके। अतः वह स्वयं को इस योग्य साबित करने में जुट जाता है कि जिससे एक दिन मीना के पिता स्वेच्छा से उसे स्वीकार कर लें। दूसरी ओर मीना अविवाहित रहते हुए अपने जीवन से संघर्ष करने के लिए दूसरे शहर यानी सागर से इंदौर चली जाती है। जहां वह नौकरी करके अपना जीवन यापन करती है। किंतु समाज में छोड़ दिए गए आपराधिक मनोवृत्ति के व्यक्तियों के द्वारा कभी भी किसी भी स्त्री को चोट पहुंचाए जाने की पूरी संभावना रहती है। फिर भी ऐसे व्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है। उन पर कोई धारा नहीं लगाई जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि वे अपराध की दिशा में दबंगई से बढ़ते चले जाते हैं। मीना का सामना एक बार फिर उस आवारा लड़के से होता है जिसे उसने अपने कॉलेज के दिनों में अभद्रता करने पर पीटा था। वह लड़का प्रतिशोध की गांठ मन में बांधकर घूम रहा था तथा अवसर पाते ही मीना से बदला लेने का प्रयास करता है
यहां से उपन्यास का एक और नया अध्याय शुरू होता है जिसमें अदालत, पुलिस, अपराध सभी कुछ है किंतु केंद्र में मीना ही है। चूंकि लेखक स्वयं वरिष्ठ अधिवक्ता रहे हैं, कानून के ज्ञाता रहे हैं, उन्हें गहन अदालती अनुभव रहा है अतः अदालत और कानून से संबंधित सारे दृश्य बहुत ही रोचक विश्लेषणात्मक और तर्कसंगत ढंग से लिखे गए हैं। इनसे उपन्यास में रोचकता बढ़ती जाती है। यह एक सामाजिक उपन्यास होने के साथ ही मीडिया और राजनीति के दूषित गठबंधन को उजागर करता है। चाहे प्रशासनिक स्तर हो अथवा राजनीतिक क्षेत्र अपने पद का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति पर करारा  प्रहार करता है। जैसे नेता जी अपने पुत्र की आवारागर्दी के केस को लेकर जब हाईकमान के दरबार में पहुंचते हैं तो हाईकमान पर भी इस बात का दबाव बनाते हैं कि उनके साथ उनके जैसे 4-5 एमएलए का गुट है, इसलिए हाईकमान के लिए यही बेहतर है कि वह भी नेताजी का साथ दें। किसी स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाने का हथियार, सबसे अचूक हथियार इस समाज ने बना रखा है जिसका दुरुपयोग हर वह व्यक्ति करने से नहीं चूकता है जिसे किसी स्त्री को नुकसान पहुंचाना हो। उपन्यास में अनेक दिलचस्प घटना क्रम हैं। 
‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ का भाषा विन्यास प्रभावी है। संवाद रोचक है। कथाप्रवाह पूरे समय पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा ने इस उपन्यास में एक प्रखर स्त्रीविमर्श प्रस्तुत किया है किंतु वे किसी विशेष विचारधारा अथवा खेमे में खड़े हुए दिखाई नहीं देते हैं अपितु एक निष्पक्ष साहित्यकार के रूप में वे उपन्यास के पात्रों को चुनते हैं और कथावस्तु को संवारते हैं। वे उपन्यास के हर चरित्र के साथ न्याय करते हुए दिखाई देते हैं, चाहे वह चरित्र सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक। जो चरित्र नकारात्मक है वह ऐसा क्यों है, इस तथ्य को भी लेखक ने शामिल किया है। यदि कोई पिता जो स्वयं ही भ्रष्टाचार में डूबा हो, अनियमितताओं और अन्याय का पक्षधर  हो तथा अपने पुत्र को हर अपराध से अपने पद का दुरुपयोग करते हुए बचाता रहे, तो ऐसा पुत्र अपराधी बनेगा ही। जबकि एक अच्छे वातावरण में पलने, बढ़ने वाला युवक एक अच्छे चरित्र और अच्छे भविष्य को प्राप्त करेगा। इन तथ्यों को रखते हुए भी लेखक कहीं भी उपदेशात्मक नहीं हुआ है। लेखक ने उपन्यास की रोचकता और प्रवाह के साथ कोई समझौता नहीं किया है। सारे तथ्य नपेतुले तरीके से उपन्यास में पिरोए गए हैं। यह उपन्यास बुंदेलखंड के सामाजिक परिवेश को बखूबी रेखांकित करता है। साथ ही इस भू-भाग के संस्कारों, परंपराओं और सामाजिक दोषों को भी बेझिझक प्रस्तुत करता है और परिचित कराता है सागर शहर के तत्कालीन परिवेश से । 
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