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Thursday, August 1, 2024

बतकाव बिन्ना की | जबे भौजी ने भैयाजी खों पढ़ा दओ स्त्रीविमर्श को पाठ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जबे भौजी ने भैयाजी खों पढ़ा दओ स्त्रीविमर्श को पाठ
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      मैं भैयाजी के इते पौंची तो देखों के भैयाजी औ भौजी में कोनऊं बात पे गिचड़ चल रई हती।
‘‘काय भैयाजी, का हो गओ? भौजी खों काय चिड़का रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हम चिड़का रए? हम कऊं नईं चिड़का रए। जे खुदई दोंदरा दे रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! हमई तो दोंदरा दे रए। आप तो दूध के धुले ठैरे। मों बोलत नईं जानत।’’ भौजी बिगरत भईं बोलीं।
‘‘हऔ हम तो जनम से सीधे रए, तभई तो तुमाई चलत रैत आए।’’ भैयाजी सोई हथियार डारबे वारे ने हते। 
‘‘देख लेओ बिन्ना, तुमाए सीधे भैयाजी खों! जे तो लड़कौरें में पानी को पप्पा कैत रए हुइएं।’’ भौजी तिन्ना के बोलीं। बाकी मोय भौजी की ‘‘पानी को पप्पा’’ वारी बात पे हंसी आ गई।
‘‘मनो हो का गओ?’’ मैंने अपनी हंसी पे ब्रेक लगाओ औ पूछो। काय से मोय लगो के कऊं भौजी बुरौ ने मान जाएं।
‘‘देखी जाए तो बात कछू नईयां। का भओ आए के हमने एक ठईंया बिलाउज सिलाओ आए। ऊकी पीठ तनक खुली आए। अब तुम तो जानतई आओ के आजकाल डोरियन वारो खुली पीठ के बिलाउज को फैशन आए। हमने पैन्ह के इनको दिखाओ तो जे बर्रयान लगे। के तुम ईको ने पहनियो। तुमई बताओ के हम काय ने पैन्हें? सबरी लुगाई सो ऊसे खुलो बिलाउज पैन्ह रईं। हमने तो तनक पीठई खुलवाई आए, बाकी जनी तो आगूं से बी खूबई नीचों करवा लेत आएं।’’ भौजी ने अपनो मसला मोय एकई संास में सुना डारो।
‘‘आप ठीक कै रईं भौजी! आजकाल तो इत्तो छोटो-छोटो ब्लाउज को फैशन आए के पतोई नईं परत के बे ब्लाउज आएं के कछू और आएं। बो का कहाउत आए ‘नूडल्स स्ट्रेप्स’ औ ‘स्ट्रेप्स लेस’। मनो सब चल रओ। आपने भैयाजी खों का टीवी सीरियल ने दिखाए? तनक इने सोई बे दिखा देतीं तो इनके बुद्धि के किवारें खुल जाते।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘हमाए बुद्धि के किवारें पैलई से खुले आएं। औ हमने खींब देखे आएं टीवी सीरियल। मनो बे ओरें ऊमें जो करत आएं, बे सब अपन ओरे सोई करें, जे जरूरी आए का?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात टीवी सीरियल की नईं हो रई, बात हो रई फैशन की। जोन फैशन चल रओ, ऊको अपनाए में का खराबी आए? का आपने कभऊं हिप्पी कट लम्बे बाल ने राखे हते के, कभऊं बेलबाटम ने पैन्हों रओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ, लंबे बाल बी काढ़त्ते औ बेलबाटम बी पैन्हत्ते, मनो बा टेम हमाई ज्वानी को रओ।’’भैयाजी को कै आओ।
‘‘हऔ, सो अब आप बुढ़ा गए हुइयो, हम नोंई बुढ़ाए। औ जो बुढ़ाई गए हो, सो जे जींस-मींस काय पैन्हत आओ? धुतिया पैन्हों करे।’’ भौजी ने फेर के भैयाजी की खिंचाई करी।
मोय दोई की जा गिचड़ में जे समझ ने पर रई हती के जो भौजी ने बद्धियन वारो ब्लाउज सिलवा लओ सो, भैयाजी खों काय को पीरा हो रई?  सो मैंने फेर के भैयाजी से पूछी।
‘‘मनो आप खों का कष्ट हो रओ? भौजी को जोन टाईप को ब्लाउज पैन्हने होय सो इने पैन्हन दो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हमें कोनऊं कष्ट नोंईं। जे पूरी खुल्ली पीठ पैन्हें सो हमें का? बात जे नोईं। हमाओ कैबे को मतलब जे आए के बा फैशन करो जोन में सई दिखाओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मतलब?’’ मैंने पूछी।
‘‘मतलब जे बिन्ना, के इन्ने बद्धियन वारो खुली पीठ को बिलाउज सो बनवा लओ, मनो इने जे नईं दिखा रओ के इनकी पीठ पे बनत भए टायर सोई दिखा रए।’’ भैयाजी बोलई परे।
‘‘सो, हमाई पीठ, हमाए पीठ के टायर दिखान देओ, आप काय बिसुर रए? जे आप ओरन चात आओ के लुगाइयां ऊंसई दिखे, जोन टाईप की आप ओरन देखबो चात आओ। सबरी छत्तीस-चौबीस-छत्तीस की बनी रएं, चाय ई चक्कर में उनके प्रान काए ने कढ़ जाएं।’’ भैयाजी की बात सुन के भौजी को पारा सातवें आसमान पे जा पौचों। 
‘‘देखो भैयाजी, भौजी सई कै रईं। फैशन में तनक-मनक सब चलत आए। अब सबरी कैटरीना कैफ तो बन नईं सकत, पर ईको मतलब जे नोंई के बे जया भदुड़ी के जमाने को फैशन करन लगंे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘तुमाओ कैबो सई आए। हम बी जे नईं कै रए के जया भादुड़ी घांईं ‘मिली’ औ ‘गुड्डी’ के जमाने सी ढंकी-मुंदी रओ। मनो नओ फैशन पैन्हबे पे अच्छो बी तो लगो चाइए।’’ भैयाजी ने घुमा-धुमू के अपनो बोई राग फेर के अलाप दओ।
‘‘रामधई बिन्ना, जो इते संसद होती, सो हम इनको माईक खाली बंद नईं करते, बल्कि पूरोई पटा देते। जे कां की दए जा रए आएं।’’ भौजी ने बा छक्का मारो के मैं सो मैं, भैयाजी सोई मों बाए देखत रै गए। बड़ी गजबई की बात कै दई रई भौजी ने।
‘‘अरे, बा तो ऊंसई कओ जात आए के माईक बंद कर दओ रओ। कोनऊं ने माईक बंद ने करो हुइए, कोनऊं टेक्निकल गड़बड़ी रई हुइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, जरूर टेक्निकल गड़बड़ी रई हुइए! तुम ओरें हम औरतन खों बोलन कां देत आओ? कछू ने कछू कर के हम ओरन की आवाज दबा दई जात आए।’’भौजी आज कछू औरई अवतार में हतीं। उन्ने ब्लाउज को छोड़-छाड़ के स्त्रीविमर्श को पकर लओ। आज भैयाजी की खैर ने हती। काय से के बात जब सबरी औरतन के अधिकारों की होय सो मोसे कैसो चुप रओ जातो?
‘‘ऐसो नइयां! इते घर में तुमई-तुम तो बोलत रैत आओ, हमने का कभऊं तुमें चुप कराओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बिन्ना तुमई बताओ के जो अपन ओरन खों इन ओरन के घांई सबई जांगा फिरबे औ बतियाबे खों मिले, तो अपन ओरें घरे काय बोलहें? अपन ओरें सोई बाहरे बतिया के बोलबे को कोटा खाली कर  लैहें।’’ भौजी ने ऐसी बात कै दई जोन जे बड़ी-बड़ी स्त्रीविमर्श वारी ने कै पाती आएं। बे तो पईसा की आजादी, संबंधों की आजादी की बात करत आएं, बाकी बोलबे की आजादी की ई टाईप की बात तो करई नईं पात आएं।
‘‘आपने बिलकुल सांची कई भौजी! आपने मोरे दिल की बात आज कै दई।’’ मैं गदगद होत भई बोली।
‘‘नईं तुमई बताओ बिन्ना! हमने तो यां तक देखी आए के जो कोनऊं लुगाई संकारे से अखबार पढ़न लगे, सो ऊको घरवारो ऊसे अखबार छीन के कैन लगत आए के -तुम का करहो ईको पढ़ के, ईमें तुमाए जोग कछू नईंया। तुम तो चाय बना ल्याओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! पढ़ी-लिखी लुगाइयां लौं अखबार पढ़बे की आदत नईं डार पात आएं, काय से के उने पढ़न नईं दओ जात आए। उने तो बस, चूला-चौका, चाय-नास्ता में उरझा के रखो जात  आए।’’ मैंने भौजी की बात को समर्थन करो। काय से के भौजी खांटी सच्ची बोल रई हतीं। औ बा बी पूरी प्रैक्टिकल बात।
‘‘हमने कभऊं तुमे अखबार पढ़बे से टोंको का?’’ भैयाजी मासूम बनत भए बोले।
‘‘सीधे तो नईं टोंको। मने जब कभऊं हम संकारे अखबार ले के बैठे सो आपसे जे नईं भओ के आप चाय बना ल्याओ। हमई से कई के तनक एक कप चाय सो बना दइयो। अब तुमई बताओ बिन्ना! के जो एक बेर अपन ओरन के हाथन से अखबार छूटो औ अपन ओरें चौका में पौंचे, तो फेर उतई के काम-धाम में उरझ के रै जात आएं। है के नईं?’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी।’’ मैंने फौरन अपनी मुंडी हिलाई।
‘‘हऔ, हमें समझ में आ गई। अब हम तुमें कभऊं ने टोंकबी। तुम पैले अखबार पढ़ियो, औ हम तुमाए बाद पड़हें।’’ भैयाजी हथियार डारत भए बोले।
‘‘ज्यादा नाटक नोंई! घरे दो अखबार आत आएं। अपन ओरें संगे चाय बना के संगे पढ़बे काय नईं बैठ सकत आएं?’’ भौजी ने भैॅयाजी खों झारत भई कई।
‘‘हऔ, तुमने सई कई। जे तो हमने सोचोई ने हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो सल्ल आए के अपन ओरन खों लरकौरें सेई ठांस-ठांस के जे समझा दओ जात आए के, जे काम लुगवा हरों को आए औ जे लुगाइयन को। जबके सबरे काम बच्चा जनबे के नईं होत के लुगवा हरें ने कर सकें।’’भौजी ने अपने स्त्रीविमर्श खों क्लाईमेक्स पे पौंचा दओ। मोय उनको जे रूप देख के भौतई अच्छो लगो। भैयाजी खों सोई समझ में आ गई औ बे बोल परे।
‘‘हऔ, हम समझ गए! तुमें जो पैन्हने होय सो पैन्हों, जो खाने हो सो खाओ, जां जाने हो जाओ, हम तुमें ने टोंकबी। तुम खुदई समझदार आओ।’’ भैयाजी की बात सुन के भौजी मुस्कान लगीं औ दोई की गिचड़ को सीजफायर हो गओ।        

सो भैया हरों, आप ओरें सोई भौजी की बातन पे तनक गौर करियो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, January 10, 2024

चर्चा प्लस | कैकेयी को समझना स्त्रीविमर्श को सही अर्थ में समझना है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
कैकेयी को समझना स्त्रीविमर्श को सही अर्थ में समझना है  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      आधुनिक युग में स्त्रीविमर्श एक नारा बन कर उभरा है। जब कोई विमर्श नारा बन जाए तो भ्रम के अनेक बिन्दु उसमें समाहित होने लगते हैं। अतिवाद उस पर प्रभावी होने लगता है। इसीलिए स्त्री स्वतंत्रता को ले कर दो प्रश्न बार-बार उठते रहे हैं कि क्या यौनिक स्वेच्छाचारिता ही स्त्री स्वतंत्रता का मूल है? अथवा स्त्री को पुरुषों के समान अधिकार दिया जाना स्त्री स्वतंत्रता का आधार है? दोनों प्रश्न जब आपस में उलझ जाते हैं तो भ्रम उत्पन्न होने लगता है। वहीं यदि हम रामकथा में देखें तो कैकेयी के रूप में एक सामर्थ्यवान स्त्री हमें दिखाई देती है। जो हर तरह से सक्षम है, अधिकार प्राप्त है, स्त्री सशक्ति की उत्तम प्रतीक है। यहां तक कि राजा दशरथ से दो वरदान मांगने की विशेषाधिकार प्राप्त भी है। किन्तु अधिकारों का दुरुपयोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए घातक सिद्ध होता है। कैकेयी के जीवन और उसके कर्म को देख कर आसानी से समझा जा सकता है कि स्त्रीविमर्श असली स्वरूप क्या होना चाहिए?  
   
कैकेयी रामकथा की एक ऐसी पात्र है जिसके बिना रामकथा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कैकेयी ही वह प्रथम सूत्र चरित्र है जिसके कारण राम के रामत्व का प्रस्फुटन हुआ अर्थात् उनके द्वारा अपने पिता दशरथ की आज्ञा का सम्मान पूर्वक स्वीकार कर के वनगमन कर जाना रामत्व का आरम्भिक चरण था। किन्तु क्या इसके लिए कैकेयी को क्षमा किया जा सकता है? नहीं। किसी भी विपरीत चरित्र को क्षमा करना मानवीय मूल्यों का हनन होगा। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि कैकेयी समाज में स्त्ऱी-पुरुष समानता की स्पष्ट प्रतीक थी। साथ ही कैकेयी के जीवन एवं चरित्र से यह भी समझा जा सकता है कि समानता की आकांक्षा समानता तक रहे तो वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उत्तम होती है किन्तु यदि उसमें स्त्री स्वार्थमयी हो जाए तो समानता के आग्रह को चोट पहुंचा देती है। चलिए, इस बात को विस्तार से परखते हैं।
त्रेता युग में कैकेय देश के राजा अश्वपति थे जिनकी कोई संतान नही थी। इसलिये उन्होंने आर्यावर्त जाकर ऋषि-मुनियों की सेवा की। तब उन्हें सूर्य देव से वरदान प्राप्त हुआ कि उन्हें एक पुत्र व एक पुत्री का सौभाग्य प्राप्त होगा। कुछ समय बाद उनकी पत्नी गर्भवती हो गयी जिससे उन्हें पुत्र व पुत्री की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम उन्होंने युद्धजीत व पुत्री का नाम कैकेयी रखा। जब कैकेयी विवाह योग्य हो गयी तब उसका अयोध्या के अधिपति दशरथ के साथ विवाह संपन्न हुआ। दशरथ की प्रथम पत्नी कौशल्या थी जो अयोध्या की प्रमुख महारानी थी। तत्कालीन परंपरा के अनुरूप राजपरिवारों में विवाह के बाद दास-दासियां वधू के साथ भेजी जाती थीं। इसके सबसे बड़े दो कारण थे - पहला कि दूर देश में ब्याही जाने वाली कन्या को वहां मात्र अपरिचित वातावरण न मिले। उसके साथ कुछ अपने लोगों के रहने से उसे मानसिक संबल मिलेगा। दूसरा कारण था कि कोई भी संकट आने पर कन्या अपने लोगों से अपने मायके सहायता के लिए सूचना भेज सके। उस समय कई दासियां गुप्तचर का भी काम करती थीं और कुछ अपनी राजकुमारी ककी सुख-सुविधा का विशेष ध्यान रखने तथा उन्हें उचित सलाह देने का काम करती थीं। इसीलिए विवाह के बाद कैकेयी के साथ उसकी प्रिय दासी मंथरा भी अयोध्या आई। स्पष्ट था कि मंथरा को अपनी राजकुमारी कैकेयी के लाभ की, सुख की, समृद्धि की और अधिकारों की अधिक चिंता रहती। अब यह निर्णय लेना कैकेयी का कर्तव्य था कि वह मंथरा की सलाह को मानती अथवा नहीं मानती। वैसे कैकेयी के बाद राजा दशरथ का एक और विवाह हुआ जिसका नाम सुमित्रा था। इन तीनों में कैकेयी ही राजा दशरथ को सबसे अधिक प्रिय थी। क्योंकि वह सबसे रुपवती और साहसी थी। कैकेयी युद्धकौशल में भी निपुण थी।

एक बार देवराज इंद्र ने दशरथ को देवताओं की ओर से युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया। तब कैकेयी भी उनके साथ गयी। युद्ध के दौरान राजा दशरथ बुरी तरह घायल हो गए थे तब कैकेयी उन्हें चतुराई से युद्धभूमि से बाहर दूर ले गयी तथा वहां ले जाकर उनका उपचार किया। जब राजा दशरथ की मूर्छा टूटी तो वे पुनः युद्धभूमि की ओर चल दिए। कैकेयी भी पुनः उनके साथ रथ पर सवार हो गई। युद्धभूमि में पहुंचते समय रथ के चके की कील निकल गई। कैकेयी समझ गई कि यदि रथ का चका निकल गया तो रथ एक ओर झुक कर पलट जाएगा और राजा दशरथ शत्रुओं के निशाने पर आ जाएंगे। तब कैकेयी ने अपनी उंगली रथ के पहिए में कील की जगह फंसा दी। युद्ध में दानवों पर विजय प्राप्त करने तक कैकेयी की उंगली क्षतिग्रस्त हो गई थी। उसे अपार पीड़ा हो रही थी किन्तु उसने दशरथ को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी। युद्ध की समाप्ति पर ही दशरथ को कैकेयी के इस साहस का पता चला। वे अवाक रह गए। फिर प्रसन्न हो कर उन्होंने कैकेयी से कहा कि तुम कोई दो वरदान मुझसे मांग लो। उस समय तक कैकेयी के मन में कोई दोष या कपट नहीं था अतः उसने यही कहा कि अभी मैं क्या मांगू? मुझे कुछ नहीं चाहिए। तब दशरथ ने कैकेयी से कहा कि यह वरदान मुझ पर तुम्हारा ऋण रहेगा। जब चाहो मांग लेना। इस प्रकार राजा दशरथ कैकेयी के प्रति वचनबद्ध हो गए।
धीरे-धीरे समय बीता व राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। इसके फलस्वरूप कैकेयी को भरत नामक पुत्र की प्राप्ति हुई तो कौशल्या को श्रीराम व सुमित्रा को लक्ष्मण व शत्रुघ्न पुत्र रूप में प्राप्त हुए। कैकेयी का सभी पुत्रों से समान लगाव था।

     यहां तक का कैकेयी का जीवन एक ऐसी स्त्री शक्ति के रूप में सामने आता है जो विदुषी है, शस्त्रविद्या में निपुण है, चिकित्साशास्त्र की भी ज्ञाता है तथा प्रेममयी है। वह समाज में स्त्री-पुरुष की समानता की प्रतीक बन कर सामने आती है। जब युद्ध भूमि में स्त्रियां नहीं जाती थीं, तब कैकेयी युद्धभूमि में गई। भले ही उसने स्वयं शस्त्र नहीं उठाया किन्तु उसके कारण ही दशरथ को और देवताओं को असुरों के विरुद्ध विजय मिली। अब जब हम आधुनिक युग में स्त्री स्वतंत्रता की बात करते हैं तथा समाज में स्त्री-पुरुष में समानता की बात करते हैं तो यही स्वरूप हमारे सामने आता है जिसमें हम परिवार ही नहीं वरन समाज में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकारवान देखना चाहते हैं। आधुनिक युग का तमाम स्त्री विमर्श इसी बात पर टिका है कि स्त्रियों को भी पुरुषों के लिए आरक्षित समझे जाने वाले कार्य क्षेत्र में अपनी क्षमता साबित करने का अवसर मिले। ऐसा हो भी रहा है। सेना के विविध अंगों में यौद्धिक पदों पर स्त्रियों की भर्ती होने लगी है। स्त्रियों को लगभग हर क्षेत्र में काम करने के अवसर दिए जाने लगे हैं। उन्हें आर्थिक अधिकार भी मिलते जा रहे हैं। समाज में ऐसी स्त्रियां बहुत हैं जो पुरुषों की भांति किसी न किसी रूप में अपने परिवार का संबल बनना चाहती हैं जबकि ऐसी स्त्रियां कम हैं जो स्त्री स्वतंत्रता को मात्र यौन स्वतंत्रता के रूप में मानती हैं। यौन स्वतंत्रता पाने की भावना विशेष रूप से उन स़्ित्रयों में अधिक रहती है जिनके मन में पुरुषों के प्रति प्रतिशोध की भावना होती है। वे ऐसे विपरीत मार्ग को चुन कर यह साबित करने का प्रयास करती हैं कि यदि पुरुष यौनसंबंधों की स्वतंत्रता का उपभोग कर सकते हैं तो स्त्रियां क्यों नहीं। यह स्त्री स्वतंत्रता की भावना का वह पक्ष है जो अतिवाद की ओर ले जाता है। निःसंदेह इस बिन्दु को ले कर मतभेद हो सकते हैं लेकिन रामकथा में ही यौनिक स्वेच्छाचारिता की भावना के दुष्परिणाम की कथाएं विद्यमान हैं। रावण पुरुषों की यौनिक स्वेच्छाचारिता का प्रतीक था। उसके मन में सीता के प्रति प्रेम जाग्रत नहीं हुआ था वरन वह सीता के दैहिक सौंदर्य पर आसक्त हो उठा था। जिसके फलस्वरूप उसने वह कृत्य कर डाला जो एक ज्ञानवान राजा को नहीं करना चाहिए था। उसने छल का सहारा लेते हुए परस्त्री का अपहरण किया। किन्तु विषय है यहां स्त्री की यौनिक स्वेच्छाचारिता का तो इसी रामकथा में रावण की बहन शूर्पणखा का चरित्र है। वह भी अपने भाई की भांति यौनिक स्वेच्छाचारिता की पक्षधर है। वह जब राम को देखती है तो उसके मन में राम के प्रति प्रेम की भावना नहीं जागती है बल्कि वह राम की दैहिक बलिष्ठता पर आसक्त हो कर उन्हें पाने की कामना करती है। इस तथ्य का प्रमाण वह स्वयं ही दे देती है जब राम कहते हैं कि वे तो विवाहित हैं और उनके साथ उनकी पत्नी सीता भी हैं किन्तु लक्ष्मण अकेले हैं। शूर्पणखा के मन में यदि राम के प्रति प्रेम होता तो वह लक्ष्मण के पास जाने की बात सोचती भी नहीं किन्तु उसके मन में तो वासनामय भावनाएं थीं। उसे लक्ष्मण का भी दैहिक सौंदर्य आसक्तिपूर्ण लगा और उसने लक्ष्मण के सम्मुख सहचर्य का प्रस्ताव रख दिया। परिणाम सभी को विदित है कि शूर्पणखा को लक्ष्मण के हाथों अपने नाक से हाथ धोना पड़ा। यह यौनिक स्वेच्छाचारिता की भावना का दुष्परिणाम था जिसने रावण और शूर्पणखा के विवेक को हर लिया था। यदि रावण लंका का ज्ञानवान अधिपति था तो शूर्पणखा भी उसकी बहन अर्थात् लंका की सुशिक्षित, रूपवती राजकुमारी थी। उस काल में राजकुमारियों को हर पर की शिक्षा दी जाती थी ताकि वे किसी भी संकट का सामना कर सकें। इस प्रसंग की यहां चर्चा करने का आशय यही है कि यौनिक स्वेच्छाचारिता स्वयं स्त्री को ही नहीं वरन स्त्री स्वातंत्र्य की भावना को भी हानि पहुंचाती है, लाभ नहीं।

कैकेयी में यौनिक स्वेच्छाचारिता नहीं थी। वह स्त्री समानता की एक उत्तम प्रतीक थी। युद्धभूमि में अपने पति के साथ जाना और उसे विजय प्राप्त करने में सहयोग देना उसके स्वयं के लिए गौरवशाली और श्रेष्ठता का पल था। उसकी इस वीरता का उस राजा दशरथ को भी सम्मान करना पड़ा जिससे सहायता मांगने के लिए स्वयं देवराज इंद्र ने संदेश भेजा था। इस घटना के बाद तीनों रानियों में कैकेयी का सम्मान और अधिक बढ़ गया था। किन्तु इसी समानता की भावना में जब स्वार्थ का ग्रहण लगा तो कैकेयी रामकथा की एक खलपात्र बन कर रह गई। सर्वविदित है कि मंथरा कैकेयी को समझाती है कि यदि राम अयोध्या में रहेंगे तो तुम्हारा पुत्र भरत कभी राजा नहीं बन सकेगा। वह राम का सेवक ही बना रह जाएगा। मंथरा कैकेयी के विचारों को कलुषित करने में सफल हो जाती है जो इस बात को दर्शाता है कि कैकेयी भले ही चारों राजकुमारों के प्रति स्नेह रखती थी किन्तु उसके मन के किसी कोने में अपने पुत्र के लिए राजसत्ता पाने की भावना दबी हुई थी अन्यथा वह मंथरा की बातों में नहीं आती।  
   
     जब महाराज दशरथ परंपरा के अनुरुप अपने सबसे बड़े पुत्र राम का राज्याभिषेक करने का विचार करते हैं तो कैकेयी कोपभवन में जा बैठती है। वस्तुतः यह भावनात्मक शोषण की शुरूआत थी जिसे आज के शब्दों में ‘‘इमोशनल ब्लैमेल’’ कह सकते हैं। कैकेयी जानती थी कि राजा दशरथ अपनी सबसे प्रिय रानी के रुष्ट होने का कारण जानने कोप भवन में अवश्य आएंगे, जहां एकांत में वह अपनी शर्तें मनवा सकेगी। हुआ भी यही। कैकेयी ने राजा दशरथ को उन दो वचनों की याद दिलाई जिसके लिए वे आबद्ध थे। विवश दशरथ को कैकेयी के दोनो वचन स्वीकार करने पड़े जिसमें एक था राम को चौदह वर्ष का वनवास और दूसरा भरत का राज्याभिषेक। एक विदुषी, साहसी और विलक्षण स्त्री के पतन के कारण को दशार्ता है कैकेयी का यह आग्रह।

वस्तुतः रामकथा चाहे वह किसी भी कवि अथवा किसी भी भाषा में, किसी भी रूप में लिखी गई हो, जीवन के मूल्यों का गूढ़ संदेश देती है। यह कथा समझाती है कि जीवन को अच्छे ढंग से जीने के लिए तथा समाज को एक उत्तम स्वरूप देने के लिए कौन से तत्व आवश्यक हैं। स्त्री हो या पुरुष उसका सशक्त होना, समाज में समान अधिकार प्राप्त होना, आर्थिक रूप से समर्थ होना आवश्यक है। ऐसा होने पर ही समाज भी सशक्त रहता है। किन्तु यदि स्वतंत्रता में उच्छृंखलता समा जाए तो वह विनाशकारी साबित होती है। इस तरह यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो कैकेयी का पात्र रामकथा का एक ऐसा पात्र है जो स्त्री स्वतंत्रता के सही अर्थ प्रस्तुत करता है जिसमें उस सीमा का भी उल्लेख है जहां स्वतंत्रता की भावना स्त्री के स्वरूप को ही ठेस पहुंचाने लगती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो रामकथा में कैकेयी स्त्री-स्वातंत्र्य को सही अर्थों में परिभाषित करने वाला पात्र है।  
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Monday, January 23, 2023

पुस्तक चर्चा | मुख्य वक्ता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा - डाॅ. सुजाता मिश्र की यह पुस्तक वैचारिक आंदोलन का आग्रह करती और स्त्रीविमर्श का नया प्रतिमान गढ़ती हैं। डॉ सुजाता के पास अपनी एक मौलिक दृष्टि है। उन्होंने हिंदी सिनेमा में स्त्री की स्थिति को अपनी तार्किकता की कसौटी पर कसा है, फिर उसे लिखा है। इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि विचारों के बंद दरवाजे पर एक ज़ोरदार दस्तक है।" - मुख्य वक्ता के रूप में  डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने  यानी मैंने पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा।    
       अवसर था सिविल लाइंस स्थित होटल वरदान  के सभागार में श्यामलम् और अ.भा. महिला काव्य मंच के संयुक्त आयोजन में  डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में अतिथि विद्वान डॉ.सुजाता मिश्र द्वारा लिखित पुस्तक "हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा" पर चर्चा का।
  कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे सागर संभाग के कमिश्नर मुकेश शुक्ला जी, अध्यक्षता की डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो.आनंदप्रकाश‌ त्रिपाठी जी ने तथा विशिष्ट अतिथि थीं डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान अध्यक्ष प्रो. चंदा बेन‌‌ जी। आयोजन का बेहतरीन संचालन किया स्वशासी महिला महाविद्यालय की प्राध्यापक एवं महिला काव्य मंच की अध्यक्ष डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी जी ने।
छायाचित्र सौजन्य : श्री मुकेश तिवारी एवं श्री माधवचंद्र चंदेल ... आप दोनों का हार्दिक आभार 🌷🙏🌷

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Tuesday, June 28, 2022

पुस्तक समीक्षा | स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई सुप्रसिद्ध कथाकार उर्मिला शिरीष  के उपन्यास "चांद ग़वाह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     -  चांद गवाह
लेखिका     -  उर्मिला शिरीष
प्रकाशक     -  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य        -  250/- 
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फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’

लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं।

ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियांे को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबावा डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उसके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।

नायिका दिशा का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करा दिया गया जो कोई काम-काज तो नहीं करता था लेकिन शराब के नशे में डूबे रहना उसे पसंद था। विवाह के बाद दो बेटियों की मां बन जाने पर भी दिशा अपने पति से कभी प्रेम नहीं कर पाई। एक ऐसे व्यक्ति के प्रति उसका प्रेम जागता भी कैसे जो उसकी परवाह करने के बजाए ताने मारने का एक मौका भी नहीं छोड़ता है। दिशा के मायकेवाले इन परिस्थितियों को जानते थे लेकिन उन्होंने दिशा को उसके भाग्य भरोसे छोड़ दिया था। उन सभी की नींद तो तब टूटी जब दिशा ने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप की प्रेरणा और अपनत्व के दम पर विद्रोह का शंखनाद कर दिया। वह संदीप के साथ अपने उजाड़ फार्म हाऊस में जा कर रहने लगी। परिवार और समाज दोनों को यह नागवार गुज़रा। लेकिन स्वार्थी पति को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई क्योंकि वह संदीप से भी अपने काम करा लिया करता था। अर्थात् एक ऐसा पति जो अपनी पत्नी के विवाहेत्तर संबंध से भी लाभ उठाने से नहीं हिचकता है। उसका आक्रोश अपनी पत्नी दिशा को गालियां देने तक ही सिमटा रहता है। दूसरी ओर दिशा के भाइयों और बहनों को इससे अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता होने लगती है। ‘‘लोग बातें बनाने लगे हैं’’ का दंश उनके मन को विषाक्त करता रहता है। किसी को भी दिशा की वास्तविक मनःस्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। यदि दिशा चुपचाप घुट-घुट कर जीती रहती तो रिश्तेदारों की प्रतिष्ठा खतरे में नहीं पड़ती लेकिन उसका अपने ढंग से अपना जीवन जीने का निर्णय किसी सुनामी से कम नहीं। लेखिका ने दिशा की मनःस्थिति को रेखांकित करते हुए लिखा है-‘‘शादी से पहले प्रेम करो तो गुनाह, शादी के बाद प्रेम करो तो और भी बड़ा गुनाह। फिर प्रेम करो कब? हर इंसान को प्रेम करने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए।’’(पृ.45)

दिशा की बेटियां भी मां के इस संबंध को स्वीकार करने को तैयार नहीं होती हैं। इस मुद्दे पर वे अपनी मां को अपशब्द कहने और नीचा दिखाने से नहीं चूकती हैं। उनके अनुसार जवान बेटियों की मां को ऐसा नहीं करना चाहिए। मां के इस विद्रोह से चिढ़ कर बड़ी बेटी प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाती है तथा अपने ब्यायफ्रेंड्स बदलती रहती है। विवाह के संबंध में वह मां को ताना मारती हुई कहती है-‘‘शादी कर के मैं तुम्हारी तरह बर्बाद नहीं होना चाहती। आज तुम क्या हो? एक फालतू औरत। एक ऐसी औरत जो जीवनभर से एक फालतू, नशैले और मक्कार आदमी की गुलामी करती आ रही हो। कितनी बार कहा था कि इसे बाहर निकाल दो, लेकिन नहीं.....।’’(पृ.83)
यह उपन्यास बेमेल वैवाहिक संबंध में बंधी स्त्री की स्वतंत्रता की चाह एवं संघर्ष को पूरी ईमानदारी से सामने रखता है और अनेक प्रश्नों के बीज पाठकों के मस्तिष्क में रोप देता है। दिशा के मन में अपने अस्तित्व की पहचान की भावना को जगाने वाला एक्टिविस्ट संदीप स्वयं शादीशुदा और बाल-बच्चेदार है। फिर भी वह अपनी पत्नी से संबंध विच्छेद किए बिना दिशा के साथ रहने चला आता है। फिर जब उसे लगता है कि दिशा अब अपने ढंग से जीने में सक्षम हो गई है तो वह उससे विदा ले कर दूर चला जाता है। जबकि संदीप के जाने के बाद दिशा को संदीप के प्रति अपने प्रेम की तीव्रता का अहसास होता है और वह एक बार फिर अपने अस्तित्व को खोने लगती है। अब उसका नया संघर्ष शुरू हो जाता है जो कि किसी और के नहीं बल्कि खुद के साथ है। दोनों परिवारों का विरोध और अनादर झेलते हुए संदीप का पहले दिशा के साथ रहना और फिर अपने निर्णय के आधार पर उससे दूर चला जाना, यह सोचने को विवश करता है कि क्या दिशा उसके लिए सिर्फ एक ‘‘एक्सपेरीमेंट’’ थी? यदि यह सच था तो इसका अर्थ है कि दिशा विद्रोह नहीं कर रही थी अपितु स्वयं को भ्रमित कर रही थी। यह भ्रम संदीप के प्रेम से उपजा था। सच क्या था, यह पूरा उपन्यास पढ़ने पर ही पता चलता है और तब अनेक प्रश्न मन को कुरेदने लगते हैं कि हर बार स्त्री ही क्यों समझौतों के लिए विवश की जाती है? या फिर निजता और अस्तित्व के प्रश्न देह की सीढ़ियां चढ़ कर ही हल होते हैं? परिवार को एकसूत्र में जोड़े रखने वाली मां और पत्नी रूपी स्त्री स्वच्छंदता को अपना ले तो परिवार पर इसका क्या असर पड़ता है? ये सारे प्रश्न एक स्त्री के प्रति सामाजिक सोच को रेशा-रेशा उजागर करते हैं।
‘‘चांद गवाह’’ एक बैठक में पूरा पढ ़जाने को बाध्य करने में सक्षम है। इसका कथानक धाराप्रवाह गतिमान रहता है और कौतूहल जगाता रहता है कि अब आगे क्या होगा? उपन्यास की भाषा आम बोलचाल की है और शैली संवादों से भरपूर है। यह एक अत्यंत रोचक उपन्यास है जो स्त्रीविमर्श के साथ ही गहरा समाजविमर्श भी रचता है। साथ ही स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के बीच की मौजूद बारीक-सी रेखा की गरिमा को परखने का आग्रह करता है।
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Wednesday, January 19, 2022

चर्चा प्लस | स्त्रियों की आवाज़ वाया कोरोना आपदा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

चर्चा प्लस
स्त्रियों की आवाज़ वाया कोरोना आपदा
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
             
हाल ही में यह तथ्य सामने आया है कि कोविड के टीके से माहवारी में अनियमितता होने लगती है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान यह तथ्य सामने आया था किन्तु घर-परिवार में इसे गंभीरता से नहीं लिया। अकसर देखने में आता है कि स्त्रियों की बातें अमूमन गंभीरता से ली ही नहीं जाती हैं। यदि स्त्री बड़े पद पर है तो भी उसके निर्णय को उसका अधीनस्थ पुरुषवर्ग संदेह की दृष्टि से ही देखता है। स्त्री की सलाह को हल्के से लेना आम बात है। जबकि यह प्रवृत्ति संकट में डाल सकती है।


प्रजनन क्षमता की दृष्टि से स्त्रियों में माहवारी का सबसे अधिक महत्व है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो माहवारी स्त्री की प्रजनन क्षमता को तय करती है। अतः माहवारी चक्र में किसी भी प्रकार का अचानक परिवर्तन होना चिन्ता का विषय होना चाहिए। हर परिवार, हर दंपत्ति अपनी संतति अथवा वंश बढ़ाने के लिए संतान पैदा करना चाहता है। भले ही इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि यदि संतान नहीं हो पा रही है तो उसका कारण सिर्फ़ स्त्री नहीं बल्कि पुरुष में भी कमी के कारण ऐसा हो सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में स्त्रियां अभी भी माहवारी जैसे विषय पर अपने परिजन से भी खुल कर बात नहीं कर पाती हैं। लेकिन योरोप में स्थिति थोड़ी भिन्न है। वहां स्त्रियां अपनी शारीरिक समस्याओं को ले कर जागरूक रहती हैं और खुल कर डाॅक्टरी सलाह लेती हैं। उनकी इसी अगुवाई के कारण वह तथ्य सामने आया जो भारतीय स्त्रियों में भी रहा होगा किन्तु वह प्रमुखता से सामने नहीं आ सका, जिससे उसके संबंध में यहां कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन भी नहीं हो सका। 
सोन्या अंगेलिका डीन एक योरोपियन महिला हैं जिन्होंने कोविड के दोनों टीके समय पर लगवाए। लेकिन इसके बाद उन्हें माहवारी की गंभीर अनियमित झेलनी पड़ी। सोन्या अंगेलिका डीन ने जो विशेषज्ञ समिति को जो जानकारी दी, वह उन्हीं के शब्दों में -‘‘मुझे बायोनटेक-फाइजर का पहला टीका गर्मियों में लगा था। वैसे तो कुछ लोगों ने मुझे बताया था कि टीका लगने के बाद वे कितना बीमार महसूस कर रहे थे। लेकिन मुझे तसल्ली थी कि मेरे साइड इफेक्ट हल्के-फुल्के ही थे। एक महीने बाद, मुझे दूसरा टीका लगा और उसके बाद मैं अपने परिवार के साथ छुट्टियों पर निकल गईं। यात्रा की शुरुआत में ही मेरे पीरियड आ जाने चाहिए थे। एक दिन मुझे काफी ज्यादा ब्लीडिंग हुई। अगले दिन एक बूंद भी नहीं। फिर एक सप्ताह से ज्यादा समय तक यानी करीब-करीब पूरी छुट्टियों के दौरान मेरा रक्तस्राव होता रहा। ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो रही थी और दर्द भी ज्यादा हो रहा था। मेरे लिए ये सामान्य बात नहीं थी।’’
घबरा कर सोन्या अंगेलिका ने पहले गूगल सर्च किया। उससे उन्हें कोई विशेष मदद नहीं मिली। यद्यपि यह जानकारी जरूर मिली कि कुछ अन्य महिलाओं को भी टीका लगवाने के बाद इस तरह की अनियमितताओं का समाना करना पड़ा है। चूंकि इस संबंध में कोई चेतावनी नहीं दी गई थी कि इस प्रकार का साईड इफैक्ट भी हो सकता है अतः महिलाओं का भयभीत होना स्वाभाविक था। इसके बाद महिलाओं की प्रमुखता वाली एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई जिसने अध्ययन कर के पाया कि टीके का माहवारी पर कुछ समय के लिए दुष्प्रभाव पड़ा है। लगभग 4,000 महिलाएं जिनमें से कुछ को टीके लगे थे और कुछ को नहीं, उन सभी के डाटा की मदद से, माहवारी के एक ट्रैकिंग ऐप का इस्तेमाल करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन्हें नया-नया टीका लगा था, उनके माहवारीचक्र में सामान्य की अपेक्षा अहम बदलाव आया था। उनके पीरियड औसतन एक दिन अधिक समय तक चले थे। इस जानकारी से जहां टीके में सुधार संभव हो सकेगा वहीं इस बात की घबराहट भी दूर हो जाएगी कि यह दुष्प्रभाव स्त्री की प्रजनन क्षमता पर गहरा असर डाल सकता है।
वैज्ञानिक, शोध अथवा चिकित्सकीय धरातल पर यह महत्वपूर्ण तथ्य इसलिए सामने आ सका क्यों कि पीड़ित महिलाओं ने अपनी समस्या पर खुल कर चर्चा की और उनके परिजनों ने भी आगे बढ़ कर उनका साथ दिया। जबकि भारत जैसे देश में माहवारी को ले कर अनेक वर्जनाएं आज भी व्याप्त हैं। महिलाओं को यदि माहवारी संबंधी कोई समस्या हो तो वे खुल कर बात नहीं कर पाती हैं। इस संबंध में उन्हें झिझक होती है। क्योंकि यह उनके मन में एक वर्जित विषय के रूप में बैठा हुआ है। अधिक से अधिक वे इस विषय पर बात करेंगी भी तो ऐसी दूसरी महिला से जो ज्ञान के मामले में उसी के समकक्ष रहती है या फिर और कमतर रहती है। स्थिति गंभीर होने पर ही वे किसी महिला चिकित्सक तक पहुंचती हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि घर का पुरुषवर्ग विशेष रूप से पति भी अपनी पत्नी की गायनिक समस्याओं के प्रति ध्यान नहीं देते हैं और न इस संबंध में उनसे चर्चा करते हैं। यदि पति-पत्नी दोनों के बीच इस संबंध में चर्चा हो भी जाए तो वह परिवार की या किसी परिचित महिला के साथ पत्नी को चिकित्सक के पास जाने की सलाह दे देता है। स्वयं साथ जाने में उसे झिझक महसूस होती है। पढ़े-लिखे तबके में इस संबंध में जागरूकता आती जा रही है लेकिन ग्रामीण अंचलों में बसे परिवारों तथा शहरों में भी घोर परंपरावादी परिवारों में अभी भी पति अपनी पत्नी की गायनिक परेशानियों के बारे में लापरवाही से पेश आते हैं।
समाज और परिवार में आमस्त्रियों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। वह विज्ञापन आज भी टीवी के पर्दे पर स्त्री की स्थिति की सच्चाई बयान करता है जिसमें बाॅलीबुड अभिनेता अक्षय कुमार अस्पताल की ओर इशारा कर के बीड़ी फूंकते एक व्यक्ति से पूछता है कि यहां कैसे? और वह व्यक्ति लापरवाही से उत्तर देता है कि तुम्हारी भाभी को वही औरतों वाली बीमारी हो गई है। उसका उत्तर देने का अंदाज़ बताता है कि उसे बीमारी की गंभीरता से कोई सरोकार नहीं है। यह एक कड़वा सच है जिसे सेनेटरीपैड के विज्ञापन में बड़ी गंभीरता से सामने रखा गया। इसी विज्ञापन में आगे अक्षय कुमार उसे झिड़कता है कि सिगरेट में फूंकने के लिए तेरे पास पैसे हैं लेकिन सेनेटरीपैड खरीदने को पैसे नहीं है? यही सच्चाई है समाज के एक बड़े हिस्से की जिसे हम मध्यम वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय के रूप में अपने बीच पाते हैं। वस्तुतः हम स्वयं भी उसी का हिस्सा हैं। हर सेनेटरीपैड मंहगा नहीं होता है। सरकार, एन्जियोज़ और अनेक संस्थाएं ग़रीब तबके की महिलाओं के लिए, लड़कियों के लिए सेनेटरीपैड निःशुल्क अथवा न्यूनतम दाम में उपलब्ध कराती हैं। किन्तु इसकी मांग की जानी भी तो ज़रूरी है। जब स्त्री स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर स्त्री, पुरुष, परिजन कोई भी पहल नहीं करेगा तो इन मुद्दों का हल कैसे निकलेगा? 
किसी भी दवा अथवा टीके का साईड इफैक्ट होना स्वाभाविक है क्योंकि इस दुनिया में हर इंसान पर पर टीकों का कुछ न कुछ अलग असर होता है। वहीं, साईड इफैक्ट का पता चलने पर स्थिति की गंभीरता का आकलन करने में सुविधा होती है। माहवारी अनियमितता के संबंध में यदि विशेषज्ञ आगाह नहीं कर पाए तो वह इसलिए कि उन्हें इस प्रकार कोई सूचना मिली ही नहीं। कुछ महिलाओं के आगे आने और अपनी समस्या बताने पर आज दुनिया को इस साईड इफैक्ट का पता चल पाया है। जबकि हमें आज भी पता नहीं है कि हमारे देश में कोविड-19 के टीके लगवाने के बाद कितनी महिलाओं को माहवारीचक्र में समस्या का सामना करना पड़ा? अगर यह आंकड़े हमारे देश में सामने आते तो हमारे वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ भी इस दिशा में अध्ययन करते और निदान ढूंढते। यह तो मात्र एक ताज़ा उदाहरण है अन्यथा ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं जो स्त्रियों के जीवन को प्रभावित करती रहती हैं, जिन पर खुल कर चर्चा करने से स्वयं स्त्रियां, कतराती हैं, डरती हैं अथवा संकोच करती हैं। वस्तुतः समर्थन की कमी उनके मनोबल को तोड़ती है। यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी उन्हें अपनी समस्याओं को बताने से रोकता है कि उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा और उनका मज़ाक बनाया जाएगा। इस आपदा के दौर ने यह एक और सबक दे दिया है कि यदि गंभीर दुष्परिणामों से बचना है तो स्त्रियों की समस्याओं को हल्के में लेने अथवा अनदेखा करने की आदत छोड़नी होगी। यानी स्त्रियों को अपनी समस्याएं बताने में मुखर होना होगा और पुरुषवर्ग को उसे गंभीरता से सुनना और समझना होगा। तरह-तरह की आपदाओं के बीच मानवता को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है।  
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Wednesday, January 5, 2022

चर्चा प्लस | कारा में क़ैद किया जा रहा जेंडर | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
कारा में क़ैद किया जा रहा जेंडर  
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

          स्त्री के लिए ‘लेखिका’ शब्द है और पुरुषों के लिए ‘‘लेखक’’ शब्द। लेकिन फिसलन यह कि ‘‘महिला लेखिका’’ शब्द का प्रयोग भी कर दिया जाता है। अर्थात् एक स्त्री के लिए विशेषण का दोहरा जेंडर। वैसे इस दौरान एक विशेषण प्रत्यय प्रचलन में आया है ‘‘कारा’’। जैसे ‘‘ग़ज़लकारा’’। यहां तक कि मैंने स्वयं अपने लिए संबोधन सुना है ‘‘कहानीकारा’’, ‘‘उपन्यासकारा’’। देखा जाए तो भाषा और स्त्री दोनों को भाषाई दोष की काराओं में बांधा जा रहा है। यह बात हंसी में नहीं उड़ाई जा सकती है क्योंकि थर्ड जेंडर राईटर्स के रूप में रचनाकार-संसार का विस्तार हो रहा है। इस समय विशेषणयुक्त संबोधनों को ले कर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
वर्ष 2009 में नरेन्द्र कोहली की छः भागों की एक उपन्यास श्रृंखला आई थी जिसका नाम था ‘‘तोड़ो, कारा तोड़ो’’। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित थी। मेरी इस चर्चा का इस उपन्यास से मात्र इतना ही तारतम्य है कि इस उपन्यास के नाम में ‘‘कारा’’ शब्द आया है और कारा अर्थात् बंधन को तोड़ने का आह्वान किया गया है। स्त्री-जीवन से भी कारा शब्द का गहरा संबंध है। स्त्री-जीवन अनेक काराओं से अर्थात् बंधनों से जकड़ा हुआ है। इस बंधन की बुनियाद उसके बचपन में ही पड़ जाती है जब उसकी प्रत्येक चेष्टा पर ‘‘ऐ लड़की’’ कह कर अंकुश पर अंकुश लगाए जाते हैं। कृष्णा सोबती ने इसी संबंध में एक उपन्यास लिख डाला था जिसका नाम ही है-‘‘ऐ लड़की’’। स्त्री जीवन की काराओं का आरम्भिक रूप है कि ‘‘ऐ लड़की तू ये न कर’’, ‘‘ऐ लड़की तू वो न कर’’, ‘‘ऐ लड़की तू यहां मत जा’’, ‘‘ऐ लड़की तू वहां मत जा’’, ‘‘ऐ लड़की तू यह मत पहन’’, ‘‘ऐ लड़की तू वह मत पहन’’, ‘‘ऐ लड़की तू इससे बात मत कर’’,‘‘ऐ लड़की तू उससे बात मत कर’’ आदि-आदि अनेक बंधन। स्त्रियों ने इन अनावश्यक काराओं से मुक्त होने के लिए दुनिया भर में लंबा संघर्ष किया है। यह संघर्ष आज भी जारी है। किन्तु जिस अपनी पहचान और अस्तित्व की स्थापना के लिए अनेक स्त्रियां संघर्षरत हैं वहीं कथित प्रबुद्ध स्त्रियां अपने कार्य से जुड़े अस्तित्व की पहचान के साथ ‘‘कारा’’ जोड़े जाने पर कोई आपत्ति नहीं कर रही हैं।
चलिए बता दूं कि यह मुद्दा कहां से दिमाग़ में आया। वस्तुतः फेसबुक पर एक साहित्यिक कार्यक्रम का पोस्टर देखा। जिसमें कवियों के साथ कवयित्रियों, शायराओं की तस्वीरें थीं और उनके नाम के साथ उनकी विधा को स्पष्ट करते हुए ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द लिखा गया था। अब यह ‘‘ग़ज़लकारा’’ क्या होता है? ‘‘ग़ज़लगो’’, ‘‘शायरा’’, ‘‘कवयित्री’’ जैसे शब्द प्रचलन में रहे हैं लेकिन इधर कुछ समय से ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द वाया सोशल मीडिया तेजी से प्रचलन में आया है। अभी कुछ समय पहले एक कार्यक्रम में मेरा लेखकीय परिचय देते हुए एक संचालक महोदय ने मेरे लिए कहा था कि ‘‘ये चर्चित कहानीकारा हैं, उपन्यासकारा हैं, स्तम्भकारा हैं....।’’ अपने परिचय के साथ तीन-तीन ‘‘कारा’’ सुन कर मुझे लगा कि इसके बाद बस, कारागार ही शेष बचता है।

एक ओर स्त्रियों और पुरुषों की समानता के लिए आवाज़ उठाई जाती है। बुद्धिजीवी साहित्यिक वर्ग यहां तक कहता है कि ‘‘लेखक’’, ‘‘साहित्यकार’’ ‘‘कवि’’ आदि शब्दों को लिंगभेद से अलग कर के देखा जाना चाहिए और चाहे स्त्री रचनाकार हो अथवा पुरुष रचनाकार दोनों के लिए एक समान सम्बोधन होना चाहिए। जैसे अंग्रेजी में ‘‘राईटर’’, ऑथर’’ जैसे शब्द दोनों के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। जहां जेंडर स्पष्ट करने की आवश्यकता होती है वहां ‘‘मेल राईटर’’, ‘‘फीमेल राईटर’’ का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में भी स्त्री लेखक, पुरुष लेखक जैसे शब्द प्रचलन में आ चुके हैं। लेकिन मजे की बात है कि इन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी के प्राध्यापकों एवं शोधकर्ताओं तक को गलती करते पाया है। कई बार लिखा हुआ पढ़ने में आया ‘‘महिला लेखिका’’। बोलने में भी कई बार लोग ‘‘महिला लेखिका’’ बोल देते हैं किन्तु इसे ज़बान की फिसलन मान कर अनदेखा किया जा सकता है किन्तु लिखे हुए अथवा मुद्रित सामग्री में ‘‘महिला लेखिका’’ को कैसे फिसलन मान लेंगे? अब कोई ऐसी त्रुटि करने वाले से पूछे कि यदि आप ‘‘महिला लेखिका’’ शब्द ही प्रचलन में लाना चाहते हैं तो फिर साथ में ‘‘पुरुष लेखिका’’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं करते हैं? आखिर तय तो करना पड़ेगा कि आप महिला को ‘‘महिला’’ और ‘‘लेखिका’’ के दोहरे जेंडर सूचक शब्द में बांधना चाहते हैं या फिर सही और उचित संबोधन देना चाहते हैं?
यूं भी अब बात स्त्री या पुरुष सर्जकों की नहीं रह गई है। थर्ड जेंडर की कृतियां भी सामने आने लगी हैं। महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’’ मराठी, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आर. रेवती दक्षिण भारत में रहने वाली ट्रांसजेंडर सर्जक है। उनकी प्रथम पुस्तक तमिल में प्रकाशित हुई थी जिसका अंग्रेजी अनुवाद का नाम था ‘‘अवर लाइव्स, अवर वर्ड्स’’। फिर 2010 में उनकी दूसरी पुस्तक आई ‘‘ दी ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाईफ स्टोरी’’। आर. रेवती से प्रभावित हो कर ट्रांसजेंडर प्रियाबाबू ने 2007 में ‘‘नान सर्वनान अल्ला’’ और ट्रांसजेंडर विद्या ने ‘‘आई एम विद्या’’ पुस्तक लिखी। तो प्रश्न यह उठता है कि थर्ड जेंडर के साहित्य सर्जकों के लिए किस तरह का संबोधन प्रयोग में लाया जाएगा? क्या बेहतर यही नहीं होगा कि साहित्य सर्जकों को जेंडर सूचक शब्दों की कारा से मुक्त रखा जाए। यदि ‘‘लेखक’’ शब्द सभी के लिए प्रयोग किया जाना है तो वह स्त्री, पुरुष और थर्ड जेंडर तीनों के लिए प्रयोग में आना चाहिए।

इस विषय पर मेरा ध्यान हमेशा ही आकृष्ट हुआ है। सन् 2005 में मेरे उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था जिसकी भूमिका में मैंने हिन्दी व्याकरण में जेंडर की बात उठाते हुए लिखा था कि- ‘‘अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ पर्सन अर्थात व्यक्ति शब्द जुड़ा होता है। यह पर्सन पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी। किंतु हिंदी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष। फिर स्त्री के लिए जगह कहां है? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित है? क्या स्त्री की पहचान मात्र लिंग तक सीमित है? मैं न तो व्याकरण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न ही आधिकारिक व्याख्याकार हूं, लेकिन एक औरत होने के नाते मुझे यह बात सदैव चुभती है।’’      

खैर, बात चल रही थी, ‘‘ग़ज़लकारा’’ की। इस शब्द ने मुझे इतना परेशान किया कि मैंने अपनी शंका-समाधान के लिए जाने-माने शायर अशोक मिजाज़ जी से इस बारे में पूछा कि उर्दू में ‘‘ ग़ज़लकारा’’ शब्द होता है क्या? वे उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान रूप से ग़ज़ल कहते हैं इसलिए मुझे उनसे अपना उत्तर मिलने की पूरी उम्मीद थी। उन्होंने भी वहीं उत्तर दिया जिसका मुझे पता था कि उर्दू में ऐसा कोई शब्द नहीं होता है। फिर उन्होंने विस्तार से समझाया कि ‘‘ग़ज़ल लिखी नहीं जाती बल्कि कहीं जाती है इसीलिए ग़ज़ल कहने वाले को ग़ज़लगो कहा जाता है। गजलकार शब्द हिंदी में प्रचलन में आ गया है जो उचित नहीं है। क्योंकि ग़ज़ल स्वतः बनती है, उसमें किसी प्रकार की कलाकारी नहीं की जाती है। जहां कलाकारी हो वही कार शब्द उचित लगता है जैसे अदाकार या अदाकारा।’’

इस बारे में मैंने डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर तथा संस्कृत विभागाध्यक्ष डाॅ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी जी से भी चर्चा कर डाली। उन्होंने भी ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द पर आपत्ति जताई कि ‘‘यह सर्वथा गलत है।’’ एक ग़ज़ल विधा के ज्ञाता और दूसरे भाषाशास्त्र के ज्ञाता, इन दोनों से चर्चा करने के उपरांत मुझे विश्वास हो गया कि मैं सही दिशा में चिंतन कर रही हूं। दरअसल प्रश्न मात्र ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द का ही नहीं है, प्रश्न है भाषा और स्त्री दोनों की अस्मिता का, पहचान का। इस प्रकार के शब्द गढ़ने वाले स्वयं को साहित्य का विद्वान कहते हैं और उसे अनदेखा करने वाले उन्हें अनजाने में प्रोत्साहन देते हैं। यह तो हुई भाषा में दोषपूर्ण शब्दों के समावेश की। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है स्त्री की बौद्धिक विशेषता के लिए दिए जा रहे संबोधन की। स्त्री समाज जहां एक ओर अपनी काराओं को तोड़ कर स्वयं की क्षमता प्रमाणित करने में जुटा हुआ है, वहीं संबोधन में ‘कारा’ का विशेषण प्रफुल्लित हो कर स्वीकार किया जा रहा है। कवियों के लिए तो यूं भी प्रचलित है कि ‘‘जहां न जाए रवि, वहां जाए कवि’’, तो क्या कवि समुदाय इन काराओं तक पहुंच नहीं पा रहा है अथवा देख कर अनदेखा कर रहा है या फिर इस ओर सोचना ही व्यर्थ मानता है? बेशक़ प्रश्न अनेक हैं। क्या करूं, दिल है कि प्रश्न किए बिना मानता ही नहीं। वैसे, फिलहाल तो दिलयही कहना चाहता है (नरेन्द्र करेहली जी से क्षमायाचना सहित) कि ‘‘प्रिय रचनाकार बंधु-बांधवी, तोड़ो कारा तोड़ो और उचित शब्द जोड़ो’’।
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