चर्चा प्लस
कैकेयी को समझना स्त्रीविमर्श को सही अर्थ में समझना है
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
आधुनिक युग में स्त्रीविमर्श एक नारा बन कर उभरा है। जब कोई विमर्श नारा बन जाए तो भ्रम के अनेक बिन्दु उसमें समाहित होने लगते हैं। अतिवाद उस पर प्रभावी होने लगता है। इसीलिए स्त्री स्वतंत्रता को ले कर दो प्रश्न बार-बार उठते रहे हैं कि क्या यौनिक स्वेच्छाचारिता ही स्त्री स्वतंत्रता का मूल है? अथवा स्त्री को पुरुषों के समान अधिकार दिया जाना स्त्री स्वतंत्रता का आधार है? दोनों प्रश्न जब आपस में उलझ जाते हैं तो भ्रम उत्पन्न होने लगता है। वहीं यदि हम रामकथा में देखें तो कैकेयी के रूप में एक सामर्थ्यवान स्त्री हमें दिखाई देती है। जो हर तरह से सक्षम है, अधिकार प्राप्त है, स्त्री सशक्ति की उत्तम प्रतीक है। यहां तक कि राजा दशरथ से दो वरदान मांगने की विशेषाधिकार प्राप्त भी है। किन्तु अधिकारों का दुरुपयोग स्त्री और पुरुष दोनों के लिए घातक सिद्ध होता है। कैकेयी के जीवन और उसके कर्म को देख कर आसानी से समझा जा सकता है कि स्त्रीविमर्श असली स्वरूप क्या होना चाहिए?
कैकेयी रामकथा की एक ऐसी पात्र है जिसके बिना रामकथा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कैकेयी ही वह प्रथम सूत्र चरित्र है जिसके कारण राम के रामत्व का प्रस्फुटन हुआ अर्थात् उनके द्वारा अपने पिता दशरथ की आज्ञा का सम्मान पूर्वक स्वीकार कर के वनगमन कर जाना रामत्व का आरम्भिक चरण था। किन्तु क्या इसके लिए कैकेयी को क्षमा किया जा सकता है? नहीं। किसी भी विपरीत चरित्र को क्षमा करना मानवीय मूल्यों का हनन होगा। किन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि कैकेयी समाज में स्त्ऱी-पुरुष समानता की स्पष्ट प्रतीक थी। साथ ही कैकेयी के जीवन एवं चरित्र से यह भी समझा जा सकता है कि समानता की आकांक्षा समानता तक रहे तो वह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उत्तम होती है किन्तु यदि उसमें स्त्री स्वार्थमयी हो जाए तो समानता के आग्रह को चोट पहुंचा देती है। चलिए, इस बात को विस्तार से परखते हैं।
त्रेता युग में कैकेय देश के राजा अश्वपति थे जिनकी कोई संतान नही थी। इसलिये उन्होंने आर्यावर्त जाकर ऋषि-मुनियों की सेवा की। तब उन्हें सूर्य देव से वरदान प्राप्त हुआ कि उन्हें एक पुत्र व एक पुत्री का सौभाग्य प्राप्त होगा। कुछ समय बाद उनकी पत्नी गर्भवती हो गयी जिससे उन्हें पुत्र व पुत्री की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम उन्होंने युद्धजीत व पुत्री का नाम कैकेयी रखा। जब कैकेयी विवाह योग्य हो गयी तब उसका अयोध्या के अधिपति दशरथ के साथ विवाह संपन्न हुआ। दशरथ की प्रथम पत्नी कौशल्या थी जो अयोध्या की प्रमुख महारानी थी। तत्कालीन परंपरा के अनुरूप राजपरिवारों में विवाह के बाद दास-दासियां वधू के साथ भेजी जाती थीं। इसके सबसे बड़े दो कारण थे - पहला कि दूर देश में ब्याही जाने वाली कन्या को वहां मात्र अपरिचित वातावरण न मिले। उसके साथ कुछ अपने लोगों के रहने से उसे मानसिक संबल मिलेगा। दूसरा कारण था कि कोई भी संकट आने पर कन्या अपने लोगों से अपने मायके सहायता के लिए सूचना भेज सके। उस समय कई दासियां गुप्तचर का भी काम करती थीं और कुछ अपनी राजकुमारी ककी सुख-सुविधा का विशेष ध्यान रखने तथा उन्हें उचित सलाह देने का काम करती थीं। इसीलिए विवाह के बाद कैकेयी के साथ उसकी प्रिय दासी मंथरा भी अयोध्या आई। स्पष्ट था कि मंथरा को अपनी राजकुमारी कैकेयी के लाभ की, सुख की, समृद्धि की और अधिकारों की अधिक चिंता रहती। अब यह निर्णय लेना कैकेयी का कर्तव्य था कि वह मंथरा की सलाह को मानती अथवा नहीं मानती। वैसे कैकेयी के बाद राजा दशरथ का एक और विवाह हुआ जिसका नाम सुमित्रा था। इन तीनों में कैकेयी ही राजा दशरथ को सबसे अधिक प्रिय थी। क्योंकि वह सबसे रुपवती और साहसी थी। कैकेयी युद्धकौशल में भी निपुण थी।
एक बार देवराज इंद्र ने दशरथ को देवताओं की ओर से युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया। तब कैकेयी भी उनके साथ गयी। युद्ध के दौरान राजा दशरथ बुरी तरह घायल हो गए थे तब कैकेयी उन्हें चतुराई से युद्धभूमि से बाहर दूर ले गयी तथा वहां ले जाकर उनका उपचार किया। जब राजा दशरथ की मूर्छा टूटी तो वे पुनः युद्धभूमि की ओर चल दिए। कैकेयी भी पुनः उनके साथ रथ पर सवार हो गई। युद्धभूमि में पहुंचते समय रथ के चके की कील निकल गई। कैकेयी समझ गई कि यदि रथ का चका निकल गया तो रथ एक ओर झुक कर पलट जाएगा और राजा दशरथ शत्रुओं के निशाने पर आ जाएंगे। तब कैकेयी ने अपनी उंगली रथ के पहिए में कील की जगह फंसा दी। युद्ध में दानवों पर विजय प्राप्त करने तक कैकेयी की उंगली क्षतिग्रस्त हो गई थी। उसे अपार पीड़ा हो रही थी किन्तु उसने दशरथ को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी। युद्ध की समाप्ति पर ही दशरथ को कैकेयी के इस साहस का पता चला। वे अवाक रह गए। फिर प्रसन्न हो कर उन्होंने कैकेयी से कहा कि तुम कोई दो वरदान मुझसे मांग लो। उस समय तक कैकेयी के मन में कोई दोष या कपट नहीं था अतः उसने यही कहा कि अभी मैं क्या मांगू? मुझे कुछ नहीं चाहिए। तब दशरथ ने कैकेयी से कहा कि यह वरदान मुझ पर तुम्हारा ऋण रहेगा। जब चाहो मांग लेना। इस प्रकार राजा दशरथ कैकेयी के प्रति वचनबद्ध हो गए।
धीरे-धीरे समय बीता व राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। इसके फलस्वरूप कैकेयी को भरत नामक पुत्र की प्राप्ति हुई तो कौशल्या को श्रीराम व सुमित्रा को लक्ष्मण व शत्रुघ्न पुत्र रूप में प्राप्त हुए। कैकेयी का सभी पुत्रों से समान लगाव था।
यहां तक का कैकेयी का जीवन एक ऐसी स्त्री शक्ति के रूप में सामने आता है जो विदुषी है, शस्त्रविद्या में निपुण है, चिकित्साशास्त्र की भी ज्ञाता है तथा प्रेममयी है। वह समाज में स्त्री-पुरुष की समानता की प्रतीक बन कर सामने आती है। जब युद्ध भूमि में स्त्रियां नहीं जाती थीं, तब कैकेयी युद्धभूमि में गई। भले ही उसने स्वयं शस्त्र नहीं उठाया किन्तु उसके कारण ही दशरथ को और देवताओं को असुरों के विरुद्ध विजय मिली। अब जब हम आधुनिक युग में स्त्री स्वतंत्रता की बात करते हैं तथा समाज में स्त्री-पुरुष में समानता की बात करते हैं तो यही स्वरूप हमारे सामने आता है जिसमें हम परिवार ही नहीं वरन समाज में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकारवान देखना चाहते हैं। आधुनिक युग का तमाम स्त्री विमर्श इसी बात पर टिका है कि स्त्रियों को भी पुरुषों के लिए आरक्षित समझे जाने वाले कार्य क्षेत्र में अपनी क्षमता साबित करने का अवसर मिले। ऐसा हो भी रहा है। सेना के विविध अंगों में यौद्धिक पदों पर स्त्रियों की भर्ती होने लगी है। स्त्रियों को लगभग हर क्षेत्र में काम करने के अवसर दिए जाने लगे हैं। उन्हें आर्थिक अधिकार भी मिलते जा रहे हैं। समाज में ऐसी स्त्रियां बहुत हैं जो पुरुषों की भांति किसी न किसी रूप में अपने परिवार का संबल बनना चाहती हैं जबकि ऐसी स्त्रियां कम हैं जो स्त्री स्वतंत्रता को मात्र यौन स्वतंत्रता के रूप में मानती हैं। यौन स्वतंत्रता पाने की भावना विशेष रूप से उन स़्ित्रयों में अधिक रहती है जिनके मन में पुरुषों के प्रति प्रतिशोध की भावना होती है। वे ऐसे विपरीत मार्ग को चुन कर यह साबित करने का प्रयास करती हैं कि यदि पुरुष यौनसंबंधों की स्वतंत्रता का उपभोग कर सकते हैं तो स्त्रियां क्यों नहीं। यह स्त्री स्वतंत्रता की भावना का वह पक्ष है जो अतिवाद की ओर ले जाता है। निःसंदेह इस बिन्दु को ले कर मतभेद हो सकते हैं लेकिन रामकथा में ही यौनिक स्वेच्छाचारिता की भावना के दुष्परिणाम की कथाएं विद्यमान हैं। रावण पुरुषों की यौनिक स्वेच्छाचारिता का प्रतीक था। उसके मन में सीता के प्रति प्रेम जाग्रत नहीं हुआ था वरन वह सीता के दैहिक सौंदर्य पर आसक्त हो उठा था। जिसके फलस्वरूप उसने वह कृत्य कर डाला जो एक ज्ञानवान राजा को नहीं करना चाहिए था। उसने छल का सहारा लेते हुए परस्त्री का अपहरण किया। किन्तु विषय है यहां स्त्री की यौनिक स्वेच्छाचारिता का तो इसी रामकथा में रावण की बहन शूर्पणखा का चरित्र है। वह भी अपने भाई की भांति यौनिक स्वेच्छाचारिता की पक्षधर है। वह जब राम को देखती है तो उसके मन में राम के प्रति प्रेम की भावना नहीं जागती है बल्कि वह राम की दैहिक बलिष्ठता पर आसक्त हो कर उन्हें पाने की कामना करती है। इस तथ्य का प्रमाण वह स्वयं ही दे देती है जब राम कहते हैं कि वे तो विवाहित हैं और उनके साथ उनकी पत्नी सीता भी हैं किन्तु लक्ष्मण अकेले हैं। शूर्पणखा के मन में यदि राम के प्रति प्रेम होता तो वह लक्ष्मण के पास जाने की बात सोचती भी नहीं किन्तु उसके मन में तो वासनामय भावनाएं थीं। उसे लक्ष्मण का भी दैहिक सौंदर्य आसक्तिपूर्ण लगा और उसने लक्ष्मण के सम्मुख सहचर्य का प्रस्ताव रख दिया। परिणाम सभी को विदित है कि शूर्पणखा को लक्ष्मण के हाथों अपने नाक से हाथ धोना पड़ा। यह यौनिक स्वेच्छाचारिता की भावना का दुष्परिणाम था जिसने रावण और शूर्पणखा के विवेक को हर लिया था। यदि रावण लंका का ज्ञानवान अधिपति था तो शूर्पणखा भी उसकी बहन अर्थात् लंका की सुशिक्षित, रूपवती राजकुमारी थी। उस काल में राजकुमारियों को हर पर की शिक्षा दी जाती थी ताकि वे किसी भी संकट का सामना कर सकें। इस प्रसंग की यहां चर्चा करने का आशय यही है कि यौनिक स्वेच्छाचारिता स्वयं स्त्री को ही नहीं वरन स्त्री स्वातंत्र्य की भावना को भी हानि पहुंचाती है, लाभ नहीं।
कैकेयी में यौनिक स्वेच्छाचारिता नहीं थी। वह स्त्री समानता की एक उत्तम प्रतीक थी। युद्धभूमि में अपने पति के साथ जाना और उसे विजय प्राप्त करने में सहयोग देना उसके स्वयं के लिए गौरवशाली और श्रेष्ठता का पल था। उसकी इस वीरता का उस राजा दशरथ को भी सम्मान करना पड़ा जिससे सहायता मांगने के लिए स्वयं देवराज इंद्र ने संदेश भेजा था। इस घटना के बाद तीनों रानियों में कैकेयी का सम्मान और अधिक बढ़ गया था। किन्तु इसी समानता की भावना में जब स्वार्थ का ग्रहण लगा तो कैकेयी रामकथा की एक खलपात्र बन कर रह गई। सर्वविदित है कि मंथरा कैकेयी को समझाती है कि यदि राम अयोध्या में रहेंगे तो तुम्हारा पुत्र भरत कभी राजा नहीं बन सकेगा। वह राम का सेवक ही बना रह जाएगा। मंथरा कैकेयी के विचारों को कलुषित करने में सफल हो जाती है जो इस बात को दर्शाता है कि कैकेयी भले ही चारों राजकुमारों के प्रति स्नेह रखती थी किन्तु उसके मन के किसी कोने में अपने पुत्र के लिए राजसत्ता पाने की भावना दबी हुई थी अन्यथा वह मंथरा की बातों में नहीं आती।
जब महाराज दशरथ परंपरा के अनुरुप अपने सबसे बड़े पुत्र राम का राज्याभिषेक करने का विचार करते हैं तो कैकेयी कोपभवन में जा बैठती है। वस्तुतः यह भावनात्मक शोषण की शुरूआत थी जिसे आज के शब्दों में ‘‘इमोशनल ब्लैमेल’’ कह सकते हैं। कैकेयी जानती थी कि राजा दशरथ अपनी सबसे प्रिय रानी के रुष्ट होने का कारण जानने कोप भवन में अवश्य आएंगे, जहां एकांत में वह अपनी शर्तें मनवा सकेगी। हुआ भी यही। कैकेयी ने राजा दशरथ को उन दो वचनों की याद दिलाई जिसके लिए वे आबद्ध थे। विवश दशरथ को कैकेयी के दोनो वचन स्वीकार करने पड़े जिसमें एक था राम को चौदह वर्ष का वनवास और दूसरा भरत का राज्याभिषेक। एक विदुषी, साहसी और विलक्षण स्त्री के पतन के कारण को दशार्ता है कैकेयी का यह आग्रह।
वस्तुतः रामकथा चाहे वह किसी भी कवि अथवा किसी भी भाषा में, किसी भी रूप में लिखी गई हो, जीवन के मूल्यों का गूढ़ संदेश देती है। यह कथा समझाती है कि जीवन को अच्छे ढंग से जीने के लिए तथा समाज को एक उत्तम स्वरूप देने के लिए कौन से तत्व आवश्यक हैं। स्त्री हो या पुरुष उसका सशक्त होना, समाज में समान अधिकार प्राप्त होना, आर्थिक रूप से समर्थ होना आवश्यक है। ऐसा होने पर ही समाज भी सशक्त रहता है। किन्तु यदि स्वतंत्रता में उच्छृंखलता समा जाए तो वह विनाशकारी साबित होती है। इस तरह यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो कैकेयी का पात्र रामकथा का एक ऐसा पात्र है जो स्त्री स्वतंत्रता के सही अर्थ प्रस्तुत करता है जिसमें उस सीमा का भी उल्लेख है जहां स्वतंत्रता की भावना स्त्री के स्वरूप को ही ठेस पहुंचाने लगती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो रामकथा में कैकेयी स्त्री-स्वातंत्र्य को सही अर्थों में परिभाषित करने वाला पात्र है।
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