Friday, January 19, 2024

शून्यकाल | बुंदेलखंड के रामभक्त मुस्लिम कवि नवीबख़्श ‘फ़लक’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम "शून्यकाल"
बुंदेलखंड के रामभक्त मुस्लिम कवि नवीबख़्श ‘फ़लक’         
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                      
      22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के अवसर ने समूचे देश में धार्मिक एवं साम्प्रदायिक सौहार्द की एक लहर दौड़ा दी है। सभी एक रंग में रंगे दिखाई पड़ रहे हैं और वह है श्रीरामलला का रंग। श्रीराम के प्रति भक्ति का धार्मिक सौहार्द बुंदेलखंड में हमेशा से रहा है। इस क्षेत्र में कई कवि ऐसे हुए जिन्होंने श्रीराम की भक्ति में कविताएं लिखीं धार्मिक सदभाव का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। कवि नबीबख़्श ‘‘फ़लक’’ भी एक ऐसे कवि हुए जिन्होंने श्री राम की भक्ति में अद्भुत रचनाएं लिखी हैं। वस्तुतः श्रीराम का रामत्व सभी को प्रभावित करता है।
नबीबख़्श ‘‘फ़लक’’ का जन्म सन् 1892 में दतिया में हुआ था। वे सांवले रंग के थे किन्तु उनके व्यक्तित्व में एक विशेष आकर्षण था। भैयालाल व्यास ने नबीबख़्श ‘‘फ़लक’’ का इन शब्दों में वर्णन किया है-‘‘छबीला गोल मुखमण्डल, हंसती आंखें, मुसकुराते दांत, खसखसी खिचड़ी दाढ़ी और संवरी हुई मूंछें , औसत कद, अलीगढ़ी पायजामा, उसके ऊपर कालरदार सिलेटी रंग का कोट तथा सिर फर गहरी झब्बेदार लाल रंग की तुर्की टोपी पहनते थे।’’ भैयालाल व्यास द्वारा किए गए इस वर्णन को पढ़ कर नबीबख़्श ‘‘फ़लक’’ के बाह्य व्यक्तित्व को भली-भांति समझा जा सकता है किन्तु उनके बाहरी व्यक्तित्व से भी अधिक आकर्षक एवं असरदार था उनका आंतरिक व्यक्तित्व जो उनकी भक्ति-कविताओं के रूप में परिलक्षित है। नबीबख़्श ‘‘फ़लक’’ पक्के मुसलमान थे। खुदा की इबादत में वे रोज मस्जिद जाते थे। कुरान की आयतें पढ़ते थे। साथ ही वे मंदिर भी जाते थे और वेद तथा पुराण भी पढ़ते थे। वस्तुतः वे विचारों से एकेश्वरवादी थे। वे कुरान और पुराण में भेद नहीं करते थे। उन्होंने स्वयं अपनी एक कविता में लिखा है- 
राम या रहीम का न भेद मान, 
मन्दिर में मस्जिद में रोज-रोज जाता हूं। 
आयतें कुरान की खुशी से पढ़ता हूं,
वेद और पुरान के तथैव गीत गाता हूं।
मेरे यहां काशी और काबा में न भेदभाव,
साधुओं फकीरों में प्रसन्नता दिखाता हूं। 
हिन्दी की जुबान हिन्दी-उर्दू का गुमान मुझे, 
दतिया निवासी कवि ‘फ़लक’ कहाता हूं।।

‘‘फलक’’ वे पंचवक्ता की नमाजी थे। किन्तु जब वे मंदिर में पहुंचते तो देवप्रतिमा के सामने ईश्वर की स्तुति करते। कवि सम्मेलनों का प्रारम्भ कवि ‘‘फलक’’ अपनी सरस्वती वंदना से कविसम्मेलन का श्रीगणेश किया करते थे। जब वे तन्मय हो कर सरस्वती वंदना करते तो पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता-
बुद्धि वरदानी, महारानी सुखखानी जग, 
उपमा न जानी वेद-भेद कह थाके हैं। 
घ्यावत रमेश, शेष धनद सुरेश आदि, 
गावत विमल गुन कवि नित ताके हैं। 
रिद्धि सिद्धि वैभव महान दान देन हारी, 
कहत ‘‘फ़लक’’ सब फल मन साके है। 
काव्य रस रंजनि स्वभक्त भयभंजनि त्यों, 
वन्दनीय चरण सरोज शारदा के हैं।।

भगवान श्रीराम के जीवन एवं चरित्र से वे अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने श्रीराम की स्तुति में कई रचनाएं लिखीं जिनमें से एक है-
बंदेहुं श्रीराम को जीने वचन निभाय।
राजपाट तिहुं छोड़ के वनजीवन अपनाय।।

श्रीराम के वनगमन का कवि फ़लक’’ ने अपनी कविता में बहुत मार्मिक वर्णन किया है। इन पंक्तियों में उस समय का दृश्य है जब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन के लिए प्रस्थान कर रहे हैं और प्रजाजन विलाप करते हुए पुकार कर रही है कि कोई उन्हें वन जाने से रोक ले। पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं- 
राम, लखन, सीय वन चले, रोकौ बनहिं न जाँय। 
कठिन भूमि कोमल चरन श्फलकश् परेंगे जाँय। 
अवधपुरी की दशा नेक तो विचार करो, 
आप बन रेहो यहाँ दुख बढ़ि जैहें नाथ। 
दसरथ वृद्ध राजभार को सम्हारिबे कों, 
कसे फिर चउदा बरस कड़ि पेहें नाथ। 
आपको निवास यहाँ सकल प्रजा की चाह, 
टेक निज राखिबे को सब अड़ि जैहें नाथ। 
कोमल चरन वन भूमि है कठोर महा, 
पायन में ‘‘फ़लक’’ तिहारे पड़ि जहें नाथ।

श्रीराम के प्रति समर्पित इन पंक्तियों को पढ़ कर भला कौन कह सकता है कि यह किसी पंचवक्ता नमाजी मुस्लिम कवि ने लिखीं हैं? वस्तुतः यही वह भारतीय चेतना है जो किसी भी धार्मिक विचारधारा पर आपसी भाईचारे की भावना को प्राथमिकता देती है। उनके इन विचारों को दृढ़ता प्रदान करने में उनके गुरु की शिक्षा का भी योगदान था। इस बात को ‘‘फ़लक’’ ने स्वीकार भी किया।
‘‘फलक’’ गुरु-शिष्य परंपरा को महत्वपूर्ण मानते थे। कवि ‘‘फलक’’ की अपने गुरु के प्रति अपार श्रद्धा थी। वे गुरु को ज्ञान और ईश्वर की राह दिखाने वाला व्यक्ति कहते थे। उन्होंने अपने गुरु बलवीर सिंह के प्रति ये पंक्तियां लिखी थीं-‘‘गुरुवर श्री बलवीर सिंह बन्दहुं बारम्बार। जासु कृपा-घन फलक सों बरसावत कृतिधार।’’
उनके समकालीन कवियों का कथन रहा कि कवि ‘‘फ़लक’’ कवि सम्मेलनों में जान डाल देते थे। लोग उनकी कविताएं सुनने दूर-दूर से आते थे। जबकि उनकी कविताएं हल्की अथवा स्तरहीन नहीं होती थीं। उनकी कविताओं में भाषाई सौंदर्य के साथ-साथ वैचारिक गरिमा भी होती थी जिसे सुन कर श्रोता आनन्दित होते थे। क्योंकि उनकी कविताों में आमजन के मन की बात होती थी, समानता की बात होती थी-
रंक राव सुकृती, अधी, कुटी-झोंपड़ी मौन। 
सपना है ये सब जगत अपना-पराया कौन? 
जैसे हैं अमीर जन, वैसे ही गरीब लोग,
जैसे नर तैसे पशु, पापी है सारी एक माया है।
कोई न पुरुष ना नपुंसक न जाया है।
पापी है न कोई, परमात्मा न कोई कहीं, 
ना देवता न दानव है, दानवी न दैवी सृष्टि,
मन्दिर न मस्जिद का रूप कहीं पाया है। 
विधि का बनाया यह जग, एक सपना है, 
कोई भी कहीं भी नहीं अपना पराया है।।

‘‘फ़लक’’ की भक्ति रचनाओं में समर्पण के जो भाव प्रकट हुए हैं वे अद्भुत हैं। उनकी प्रार्थनाएं, उनकी विनती किसी भी पढ़ने अथवा सुनने वाले के हृदय को स्पर्श करने की क्षमता रखती है। एक उदाहरण देखिए-
दीनवन्धु अशरण शरण, प्रभुवर दीनानाथ । 
भव सागर सों तारिये, पकरि ‘‘फलक’’ को हाथ।। 

58 वर्ष की आयु में सन् 1950 में फलक जी का देहावसान हुआ। उनके नश्वर शरीर ने भले ही उनका साथ छोड़ दिया किन्तु उनके सद्भावनापूर्ण विचार उनको सदा जीवित रखेंगे-  
रामसिया की शरण में, हनुमत को संसार।
मोको सोई देहु तुम, अपनी कृपा अपार।।
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