Tuesday, January 30, 2024

पुस्तक समीक्षा | गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 30.01.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ सतीश चंद्र

पांडेय के काव्य संग्रह  "ग़ुलदस्ता" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ 
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - गुलदस्ता
कवि        - सतीश चन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक     - साहित्यपेडिया पब्लिशिंग, नोएडा - 201301
मूल्य        - 150/-
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हिन्दी साहित्य काव्य का धनी है। हिन्दी में गद्य के विकास के पूर्व से ही काव्य अपना स्थान बना चुका था। इतिहास की दृष्टि से हिन्दी काव्य को विविध कालखण्डों में विभक्त किया गया है क्योंकि इसकी समृद्धि इसके कथ्य की विशिष्टता एवं इसकी विधाओं की बहुलता में निहित है। विद्वानों ने वीररस के काव्य की बहुलता के काल को वीरगाथा काल नाम दिया तो भक्तिमय रचनाओं की बहुलता के काल को भक्तिकाल कहा। समय के साथ काव्य की विषय-वस्तु में परिवर्तन आया। प्रेम, प्रकृति, यथार्थ ने कविता में अपनी जगह बनाई फलस्वरूप बने छायावाद, प्रगतिवाद एवं उत्तर आधुनिकता काल। इस दौरान विशेष बात यह रही कि काव्य में छांदासिक परिवर्तन तो हुए किन्तु नूतन शिल्प प्रविधियों के साथ ही परम्परागत शिल्प भी गतिमान रहे। आज अतुकांत, छंदविहीन कविताएं लिखी जा रही हैं तो साथ ही दोहे, घनाक्षरी, कुंडलिया आदि छंद भी बहुतायत लिखे जा रहे हैं। यदि आकलन की दृष्टि से देखा जाए तो विधाओं की इस विविधता के एक साथ चलन में होने से हिन्दी साहित्य की समृद्धि को सौगुना कर रखा है। प्रायः एक काव्य विधा का एक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया जाता है किन्तु कभी-कभी कवि अपनी विविध काव्य विधाओं को एक ही काव्य संग्रह में प्रस्तुत कर के अपने भावों एवं कथ्य की समग्रता से पाठकों को परिचित कराता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय का प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ में उनकी विविध काव्य विधाओं की कविताएं एक साथ एक गुलदस्ते के रूप में प्रकाशित हुई हैं। जिस प्रकार गुलदस्ते में विविध रंग, रूप, प्रकार के फूलों से गुलदस्ते का सौंदर्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार इस संग्रह में विविध काव्य विधाओं के होने से पाठकों को एक अलग ही अनुभूति होगी।

यद्यपि एक ही संग्रह में काव्य की विभिन्न विधाओं की रचनाओं के होने के अपने अलग ही जोखिम होते हैं। इससे पाठकों को भी पता चल जाता है कि कवि काव्य की किस विधा में अधिक रम्य अर्थात् कम्फर्टेबल है। सभी विधाओं को एक साथ समान रूप से साधना प्रायः कठिन होता है। किन्तु यदि कवि की अंतःदृष्टि गहन है तथा उसे विधाओं के विधान का भरपूर ज्ञान है तो वह एकाधिक विधाओं को एक साथ भी साध सकता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएं गोष्ठियों में मैंने सुनी हैं। किन्तु कई बार सुनने और पढ़ने के बीच स्पष्ट अंतर होता है। सुनते समय जिन बारीकियों की ओर सुनने वाले का ध्यान नहीं जाता है, पढ़ते समय ध्यान भी जाता है तथा बार-बार उसे पढ़ कर उसकी तह तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के इस प्रथम काव्य संग्रह को पढ़ते समय मेरे मन में भी जिज्ञासा थी कि एक साथ विविध विधाओं के अपने काव्य को कवि ने प्रस्तुत तो किया है किन्तु वह सभी विधाओं के साथ न्याय कर सका है अथवा नहीं? पूरे संग्रह से गुज़रने के दौरान जो बात उभर कर सामने आई, वह थी कि कवि को अपनी कहन के प्रति विश्वास है, वह कहीं भी अनिश्चय की स्थिति में नहीं है। वर्तमान हालात पर कवि की पकड़ भी उम्दा है और शाब्दिक संतुलन में भी सटीकता है।

संग्रह की पहली कविता ‘‘नहीं चाहिए ऐसी बरसात’’ छंदविहीन रचना है जिसमें कवि ने बारिश से प्रभावित होने वाले पीड़ित वर्ग के दुखों को रेखांकित किया है-
नहीं चाहिए ऐसे बादल,
पूंजीवाद के पक्षधर
समाजवाद के विरोधी
दुर्घटनाओं के संवाहक
आफत, गरीबी के वाहक
नहीं चाहिये ऐसे बादल

कवि ने उन सभी लोगों को जो समाज की समस्याओं एवं मानव के हितों के प्रति उदासीन रहते हैं तथा अपनी शक्तियों को भुला कर अकर्मण्य बने रहते हैं, उन सभी को लक्षित कर के एक छोटी कविता लिखी है-‘‘बिजूके’’। इस कविता में तीखा कटाक्ष है, कुछ पंक्तियां देखिए-
खेत में खड़े बिजूकों से कोई नहीं डरता,,
पशु पक्षी मन ही मन हंसी उड़ाते हैं
परिंदे तो उनके सिर पर बैठकर
बीट करते हैं और व्यंग करते हुए
उड़ जाते हैं,
जानवर बगल से मुंह चिढ़ा कर
निकल जाते हैं

कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय चिन्ता व्यक्त करते हैं आज के उस वातावरण पर जिसमें पारस्परिक संवादों का टोटा होता जा रहा है। वस्तुतः यह सच है कि संवादहीनता वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या है। लोग आभासीय दुनिया के इंद्रजाल में इस कदर जकड़ गए हैं कि वास्तविकता से दूर होते जा रहे हैं। यदि विकास संवादहीन बना रहा हो तो ऐसे विकास पर पुनःविचार करना अतिआवश्यक है। यही आग्रह कवि की इस कविता ‘‘संवादहीनता’’ में स्पष्ट ध्वनित हो रही है-
आखिर हो क्या रहा है
संवाद शून्य होते जा रहें हैं
आदमी चांद पर, मंगल पर
हर ग्रह पर
पर खुद के ग्रह घर से बाहर
प्रगति कर शून्य पर
प्रगति का अर्थ सिफर,
समय की कमी,
भावों का टोटा,
संवेदनहीनता,
आंसू के अक्षर
बोने पर प्रतिबन्ध
धुंए में नहाते हुए शब्द,
बौनी विचारों की फसल

कवि के विचार प्रगतिशील हैं किन्तु वह नास्तिक नहीं है। यूं भी आस्था और अनास्था नितांत निजी स्थिति है। आस्था यदि विप्लवकारी नहीं है और अनास्था विध्वंसकारी नहीं है तो ये दोनों मानवता के हित में लाभप्रद हो सकती हैं। कवि पाण्डेय को ईश्वर की उपस्थिति एवं उसकी कृपा के प्रति आस्था है, विश्वास है। शिव स्तुति में लिखे गए ये दोहे देखिए-
छोड़ सकल जंजाल सब, कर शिव का गुणगान।
ब्रम्हा विष्णु आदि सब, करते रहते ध्यान।।
करते रहते ध्यान, देव शरणागत रहते।
महिमा अमित अपार शंभु को भजते रहते।
दीनन की सुध लेत, हरें सब विपदा भारी।
पार्वती पति भजो, भजो शंकर त्रिपुरारी।।

कवि ने दोहों में मात्र भक्ति भावना को ही नहीं वरन वर्तमान परिवेश को भी व्यक्त किया है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के दोहों की धार तीक्ष्ण है तथा वे सटीक प्रहार करने में सक्षम हैं। ‘‘आज के दोहे’’ शीर्षक से उनके दोहों में से कुछ दोहे देखिए-
जाने कैसी सभ्यता, कैसा है परिवेश।
अहंकार नित दे रहा, ज्ञानी को उपदेश।।
अहंकार है इक तरफ, एक तरफ अवसाद।
सत्ता और विपक्ष में शून्य रहा संवाद ।।
जुमले फिर वाचाल के, लोकलुभावन बोल।
झोपड़ियों के मौन व्रत, आत्ममुग्धता ढोल ।।

जहां तक काव्य विधाओं की विविधता का प्रश्न है तो कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कुंडलियां भी प्रभावी हैं। देश में स्त्रियों की स्थिति को स्पष्ट करने वाली यह कुंडलिया विचारणीय है- 
नारी को विधि ने दिया, हर युग में बस मौन।
सहती उत्पीडन मगर, सुनने वाला कौन।।
सुनने वाला कौन, भोग का विषय बनाया।
नफरत, हिंसा द्वेष, कपट, छल, आड़े आया।
नारी पूजक देश, कष्ट फिर भी है भारी।
हर युग में बस कष्ट, भोगती आयी नारी।।

यह कवि पर निर्भर करता है कि वह अपने किन भावों को किस शिल्प में प्रस्तुत करना चाहता है। वैसे मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि विचार स्वयं अपनी विधा एवं अपना शिल्प चुनते हैं। कवि ने मुक्तक पर भी अपनी कलम आजमाई है-
दरिंदे इस कदर हावी, अंधेरे ही अंधेरे है।
उजालों ने अमीरों के यहां डाले बसेरे हैं।।
भले कोई कहे कुछ भी हकीकत है यही पांडे
जहां देखो वहीं दिखता लुटेरे ही लुटेरे है।

सतीश चन्द्र पाण्डेय का यह प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ विविध भावों एवं विविध शिल्पों का एक सुंदर गुलदस्ता है जिसमें दोहे से ले कर अतुकांत कविता तक संग्रहीत है। जहां तक कवि की अतुकांत कविताओं का प्रश्न है तो अभी उन्हें अतुकांत विधा को और अधिक साधने की आवश्यकता है। कवि की छांदासिक कविताओं में जो प्रवाह है, उनकी कुछ अतुकांत कविताओं में उसकी कमी का अनुभव होता है। अतुकांत कविताएं भी एक सरस प्रवाह लिए होती हैं। कई कवियों की कविताएं ऐसी प्रतीत होती हैं गोया उन्होंने गद्य को कई पंक्तियों में तोड़ कर कविता का रूप दे दिया हो। जबकि अतुकांत कविता का अपना वलय होता है जो जल में बनने वाले वलय की भांति एक सुंदर क्रम में विस्तार लेता जाता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय की अतुकांत कविताओं में प्रवाह की कमी भले ही हो किन्तु वे नीरस नहीं हैं। वे अपने कथ्य के साथ पूरी तरह से मुखर हैं। उनका यह काव्य संग्रह वैचारिक दृष्टि से सुसम्पन्न है। वर्तमान स्थितियों पर खुल कर कटाक्ष करके सुधार का आग्रह करता है। इसमें संग्रहीत सभी रचनाएं पठनीय और विचारणीय हैं। 
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