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Tuesday, July 27, 2021

पुस्तक समीक्षा | अनगढ़पन के स्वाभाविक सौंदर्य की कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

पुस्तक समीक्षा
अनगढ़पन के स्वाभाविक सौंदर्य की कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - उद्गार
कवयित्री    - श्रीमती शशि दीक्षित
प्रकाशक    - जे.टी.एस. पब्लिकेशन, बी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली-53
मूल्य       - 350/-
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समीक्ष्य पुस्तक ‘‘उद्गार’’ नवोदित कवयित्री श्रीमती शशि दीक्षित का पहला काव्य संग्रह है। ‘उद्गार’ शब्द से ही प्रकट होता है कि इस संग्रह की कविताएं मन से निकली हुई भावनाओं की मधुर अभिव्यक्ति होगी। जिस प्रकार भूमिगत जलश्रोत किसी उद्गम से फूट पड़ने पर बाहर आते हैं और नदियों के रूप में प्रवाहित होने लगते हैं। ये नदियां अपने आरम्भिक रूप में संकरी, सीमित जलयुक्त और अनिश्चित आकार-फैलाव में होती हैं किन्तु ये जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, वैसे-वैसे इनका रूप और स्वरूप निखरता जाता है। ये नदियां लम्बाई-चैड़ाई में निरंतर विस्तार पाती जाती हैं और कहीं-कहीं तो अथाह पा लेती हैं। दो तटों के बीच बहती नदी की भांति काव्य का भी अस्तित्व होता है। मन के भीतर उमड़ते-घुमड़े भाव जब लेखनी के माध्यम से बाहर आते हैं तो आरम्भ में उनमें विस्तार और गहराई उतनी नहीं होती है जितनी कि निरंतर सृजन के बाद वह विस्तार और गहराई पाती है। मन और मस्तिष्क - इन दो तटों के बीच बहती हुई कविता अपने आरम्भिक स्तर पर परिष्कार की स्वतः मांग करती है लेकिन इन कविताओं में एक अनघढ़पन, एक सोंधापन होता है जो चित्ताकर्षक होता है। यह प्रभावित करता है और काव्य के सिद्धांतों से परे जा कर संवाद स्थापित करता है।
श्रीमती शशि दीक्षित एक गृहणी हैं। उन्होंने अपने अब तक का अधिकांश जीवन परिवार-प्रबंधन में व्यतीत किया। किन्तु उनके मन में काव्यात्मकता के तत्व मौजूद थे जो उन्हें कुछ न कुछ लिखने की प्रेरणा देते रहते थे। लिहाज़ा, कवयित्री शशि दीक्षित ने कलम उठाई और अपनी डायरी के पन्नों पर काव्य के रूप में पनी भावनाओं को सहेजती गईं। यही कविताएं अब ‘‘उद्गार’’ काव्य संग्रह के रूप में प्रकाशित हो कर पाठकों के हाथों में पहुंचा है। संग्रहीत कविताओं में विचारों-भावनाओं की लहरें हिलोरे मारती दिखाई देती हैं। कहा जाता है कि कोई भी काम आरम्भ करने के पूर्व ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। ‘‘उद्गार’’ का आरम्भ सरस्वती वंदना से किया है। इसके उपरांत सहज काव्ययात्रा आरम्भ होती है जो ‘समय परिंदा’ शीर्षक कविता के द्वारा समय का आकलन के रूप में सामने आती है-
समय परिंदा उड़ता जाता
हम सब पीछे-पीछे हैं।
जीवन का शैशव धरा अंक में
यौवन चंचल जल-सा है
उम्र ढली तो पाया मैंने 
हुनर सलीका जीने का
समय परिंदा उड़ता जाता
हम सब पीछे-पीछे हैं।

ईश्वर और समय के बाद उस भूमि, उस देश के प्रति अपनी भावनाओं का उद्घोष स्वाभाविक है। 
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
यह श्लोक वाल्मीकि रामायण में है, जिसमें भारद्वाज मुनि श्रीराम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि  ‘‘मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। किन्तु माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।’’ यदि मातृभूमि दासत्व की श्रृंखला से बंधी रही हो तो उसके द्वारा श्रृंखलाएं तोड़ कर मुक्त होना सबसे सुखद पक्ष होती है। कविता ‘‘भारत मां’’ की यह पंक्तियां देखिए-
भारत मां जब मुक्त हुई थीं
दो सौ वर्षों के बंधन से 
तीन रंग से हुआ था स्वागत
धानी, धवल और केसरिया।
धानी आंचल धरती का था
ममता का आंचल फैलाए
केसरिया सूरज का रंग था
मुखड़े की आभा बन आए।

शशि दीक्षित के सृजन में तरलता और सरलता दृष्टिगोचर होती है। देश में व्याप्त अव्यवस्थाएं कवयित्री के मन को प्रभावित करती हैं और वह इसकी पड़ताल में लग जाती हैं। पड़ताल के बाद अव्यवस्था का एक कारण असहिष्णुता के रूप में सामने आता है। ‘‘असहिष्णुता’’ शीर्षक से कविता लि1खती हुई कवयित्री देश के भीतर उत्पन्न वातावरण को लक्षित करती हैं-
धरती प्यासी, अम्बर सूखा
हैरान परेशान फिरते हम सब
आओ हम तुम मिल कर सोचें
क्या बिगड़ा है? देश के अंदर,
कुछ अपने, कुछ बहुत पराए
फैलाएं हैं बाहें अपनी
जकड़ रहे सारी खुशियों को
रौंद रहे ताज़ा फूलों को
फिर भी ख़ुशबू नहीं हाथ में
लहू भरे हाथों से देखो
तिलक लगाते मां लक्ष्मी को।

पिता पर दो कविताएं हैं जिनमें पिता की महत्ता को शब्दांकित किया गया है। कवयित्री रक्तसंबंधों के साथ ही दिल के रिश्तों की भी बात करती दिखाई देती हैं। उनकी दृष्टि में दिल के रिश्ते अटूट होते हैं तथा समय या परिस्थिति भी उन्हें तोड़ नहीं पाती है। ‘‘दिल के रिश्ते’’ कविता की यह पंक्तियां ध्यानाकर्षित करती हैं कि -
हम सब मिलते खुश होते हैं
कोई तो बात निराली है
रंग लहू का गाढ़ा होता
दिल का रिश्ता भी गाढ़ा है
सावन के मौसम जैसा है
हम सब का मन पावन है
दूरी अपना क्या छीनेगी
दिल से जब हम दूर नहीं
इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता है ‘‘अपनी ख़ातिर’’। यह एक गृहणी के सच्चे उद्गार हैं जो अपने विशेष दायित्वों से लगभग निवृत्त हो कर स्वयं के बारे में चिंतन करती है। उसे लगता है कि घर-परिवार अर्थात् दूसरों के लिए जीते हुए जीवन का अधिकांश समय व्यतीत कर दिया। अब बचा हुआ समय स्वयं के लिए होना चाहिए। यही भारतीय परिवेश में एक गृहणी के जीवन का सच है कि वह अपना पूरा जीवन अपने परिवार के लिए समर्पित कर देती है और स्वयं की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को भुलाती चली जाती है। जबकि जीवन की दूसरी पारी में यानी अपने मूल दायित्वों को पूर्ण करने के बाद वह अपने सपनों को साकार करने की दिशा में प्रयत्न कर सकती है। यह स्वार्थ नहीं अपितु स्वचेतना का विस्तार है जो स्वयं पर ध्यान देने का आग्रह करता है। 
सबकी ख़ातिर जिया है अब तक
कुछ अपनी ख़ातिर भी जी लो।
व्यर्थ गंवाया सारा जीवन 
अब आंचल खुशियों से भर लो
समय गति बड़ी तेज है प्यारे 
जल्दी-जल्दी सब कुछ कर लो
सबकी ख़ातिर जिया है अब तक
कुछ अपनी ख़ातिर भी जी लो।

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण कविता है ‘‘नन्हीं चिड़िया’’। यह चिड़िया के बहाने उन स्त्रियों को लक्षित करके लिखी गई कविता है जो अपनी उच्चाकांक्षाओं के चलते छोटी-छोटी सफलताओं के भ्रम में पड़ कर आकाश में इतनी ऊंची उड़ान भरती चली जाती हैं कि उनसे उनकी ज्त्रमीन और उनकी जड़ें बहुत पीछे छूट जाती हैं। इस कविता में ऐसी ही ऊंची उड़ान भरने वाली एक नन्हीं चिड़िया को सचेत करते हुए चिड़वा कहता है कि इतनी ऊंची उड़ान भी मत भरो कि जब तुम नीचे गिरो तो मैं तुम्हें सम्हाल भी न सकूं। बड़ी सहज औा सुंदर कविता है यह। इसकी कुछ पंक्तियां देखें-
सुनो सखी मैं एक कहानी
तुमको आज सुनाती हूं
व्यथा नहीं यह कथा समझना
जो भी आज सुनाती हूं
बहुत समय की बात नहीं
यह घटना ताज़ी-ताज़ी है
एक नन्हीं सी चिड़िया थी
और बहुत ही प्यारी लगती थी
बहुत ही कोमल पंख थे उसके
फिर भी उड़ना मांगती थी

जीवन साथी, प्रेम, पर्यावरण और कोरोना जैसे विषयों पर भी कविताएं इस संग्रह में है। पुस्तक के आरम्भिक पृष्ठों पर कवयित्री द्वारा लिखी गई संग्रह की भूमिका, श्रीमती सुनीला चैरसिया द्वारा दी गई शुभकामनाएं तथा विदुषी कवयित्री डाॅ. सरोज गुप्ता द्वारा संग्र की कविताओं की गई समीक्षा दी गई है। श्रीमती शशि दीक्षित का यह प्रथम काव्य संग्रह भावनाओं और विचारों का एक सुंदर सम्मिश्रण है तथा संग्रह की कविताएं अपने अनघगढ़पन का स्वाभाविक, प्रकृतिक सौंदर्य लिए हुए हैं। इन्हें पढ़ कर लगता है कि ये कविताएं सप्रयास नहीं लिखी गई वरन् स्वतः उघोषित हुई हैं। निःसंदेह इस संग्रह में पठनीयता के तत्व मौजूद हैं।    
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