Wednesday, September 30, 2020

चर्चा प्लस | घातक है राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन | डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस

घातक है राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन

- डाॅ शरद सिंह

 राजनीति में दलों का गठबंधन आम बात हो चली है लेकिन जब राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन हो जाए तो अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बिगड़े बोलों  ने मर्यादाओं की बोली लगा रखी है। छुटभैये नेता ही नहीं वरन देश की ऊंची कुर्सियों पर बैठे नेता भी अपना भाषाई स्तर गिराने से नहीं चूकते हैं। चुनावों के दौरान यह स्तर रसातल की ओर जाने लगता है। कम से कम राजभाषा मास के समापन के समय इस विषय पर चिंता करना जरूरी है कि हम जिन नेताओं से भाषा के उत्थान एवं विकास में सहयोग चाहते हैं, उनकी अपनी भाषा अर्थात् राजनीतिक अरोप-प्रत्यारोप वाली भाषा अभी और कितना गिरेगी और उसे कैसे रोका जा सकता है? 
Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 23. 09. 2020

चुनावों का समय आते ही अब यह सोच कर सिहरन होने लगती है कि न जाने कितने अभद्र बोल इन कानों को सुनने पड़ेंगे। चाहे आमचुनाव हों या उपचुनाव, नेताओं के बिगड़े बोल राजनीति की गरिमा को चकनाचूर करने से नहीं चूकते हैं। यह एक चलन बनता जा रहा है कि नेता चाहे किसी भी पार्टी के हों गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करने के बाद माफी मांग लेते हैं। पार्टी के साथी नेता गाली देने वाले नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेते हैं। भारत की राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। चाहे मंच हो या टेलीविज़न पर डिबेट का कार्यक्रम हो चुभती हुई निर्लज्ज भाषा का प्रयोग आम हो गया है। भारतीय राजनीति में आज किसी भी पार्टी के लिए यह नहीं कहा जा सकता है इस पार्टी ने भाषा की गरिमा को बनाए रखा है। समय-समय पर और चुनाव के समय देश की सभी पार्टियों ने भाषा की गिरावट के नए-नए कीर्तिमान रचे हैं। राजनीति में मौजूद महिलाएं सबसे पहले इसका शिकार बनती हैं। उन पर अभद्र बोल बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी उस समय यह भूल जाते हैं कि वह महिला उस समाज का अभिन्न हिस्सा है जिसमें वह स्वयं रहता है। राजनीतिक वर्चस्व की लालसा के साथ अब जुड़ गया है मीडिया में बने रहने का जुनून। ‘‘बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ’’ वाले सिद्धांत को अपनाते हुए कुछ नेता जानबूझ कर, इरादतन अपने विपक्षी के चरित्र पर ऐसे लांछन लगाने लगते हैं जिसके पलटवार की सौ प्रतिशत संभावना रहती है। जाहिर है कि कोई भी व्यक्ति अपने चरित्र पर कीचड़ उछाला जाना पसंद नहीं करता है। फिर यदि वह व्यक्ति एक नेता के रूप में सार्वजनिक जीवन से जुड़ा हो तो किसी भी प्रकार की चारित्रिक अवमानना उसे उकसाने का ही कार्य करेगी। इसी मनोविज्ञान का लाभ उठाते बिगड़े बोल बोलने वाले बिगड़े बोल बोलते रहते हैं। इससे उन्हे मनचाहा लाभ यह मिलता है कि वे मीडिया की सुर्खियों में बने रहते हैं।

सन् 2019 में हुए चुनावों को ही लें, तो लोकसभा चुनाव 2019 के प्रचार के दौरान कुछ उम्मीदवार अपने बिगड़े बोल के चलते सुर्खियों में बने रहे। इन्होंने चुनावी रैलियों में या सोशल मीडिया पोस्टों या मीडिया के सवालों के जवाब में विवादास्पद टिप्पणियां कीं। इनमें हर दल के नेता शामिल रहे। पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक कई उम्मीदवारों ने अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया। राजनीतिक विश्लेषकों ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘सन् 2019 का चुनाव व्यक्तिगत हमलों, विषाक्त चुनाव प्रचार और दलों-नेताओं के हर तरह की मर्यादा को ताक पर रख देने के लिए जाना जाएगा।’’ जनता से जुड़े मुद्दे गायब रहे। सारी बहस आरोप-प्रत्यारोप पर टिकी रही और खुद को दूसरे से बेहतर बनाने पर खत्म हो गईं। इससे पहले के चुनावों में एक योगी या एक आजम खान होते थे जिन्हें हम ‘‘फ्रिंज एलीमेंट’’ कहके खारिज कर देते थे। इंतेहा इस बार रही कि मोर्चा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने संभाल लिया था। इससे चैतरफा गिरावट आई। बड़े राजनेताओं ने रास्ता दिखाया और छोटे व नए लोगों ने इसको सफलता का सूत्र मान लिया। अखबार, टीवी और सोशल मीडिया इस तरह की अभद्र भाषा का प्रचारक और विस्तारक बना।
अगर पन्ने पलटे जाएं तो यह देखने में आएगा कि पिछले कुछ वर्षों में चुनावी अभियानों के दौरान न पद का लिहाज किया गया और न ही उम्र का ख्याल रखा गया और न ही भाषा की मर्यादा रखी गई। राजनीति की गलियों में गालियांे और सड़कछाप शब्दों की धूम बढ़ती गई है। कुछ नेता तो बिगड़े बोल बोलने के लिए ही जाने जाते हैं। वहीं, कुछ नेता ऐसे हैं जिनसे अपशब्द की आशा नहीं थी लेकिन उन्होंने भी भाषाई नैतिकता को ताक में रखने में हिचक नहीं दिखाई। समाजवादी पार्टी के आजम खान और भाजपा के गिरिराज सिंह जैसे राजनेता अपने बड़ेबोलेपन तथा भाजपा की प्रज्ञा सिंह ठाकुर और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार जैसे नेता अपने आपत्तिजनक बयानों से लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे। वर्ष 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले में आरोपी प्रज्ञा ठाकुर भोपाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ीं। उन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बताकर सात चरण के लोकसभा चुनाव के अंतिम दौर में एक तीखी बहस छेड़ दी थी। ठाकुर के इस बयान पर कांग्रेस ने कहा था कि ‘‘शहीदों का अपमान करना भाजपा के डीएनए में है’’। 

सपा नेता आजम खान के कथित बोल ने तो मर्यादा की सारी हदें ही लांघ दीं थीं। उनके ‘अंडरवियर’ वाले विवादित बयान के बाद देश में खासा बवाल मच गया था। आजम खान के अलावा चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और बसपा सुप्रीमो व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के विवादित बयानों को ले कर भी उन पर कुछ समय के लिए उन के चुनाव प्रचार करने पर प्रतिबंध की घोषणा की। इसके बाद जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि- ‘‘हम कह सकते हैं कि चुनाव आयोग ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया। उस ने आचार संहिता तोड़ने वालों पर काररवाई की। लगता है आयोग हमारे आदेश के बाद जाग गया है।’’ लेकिन लगता है कि नेता फिर भी नहीं जागे हैं। सोशल मीडिया में राहुल गांधी को ले कर जितना मजाक उड़ाया जाता है उसमें मर्यादा की धज्जियां उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं रहती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ कांग्रेसी नेता ही अपशब्द का निशाना बनते हैं, पिछले चुनावों के दौरान कांग्रेसी नेताओं द्वारा भाजपा नेताओं को अपशब्द कहे गए। एक ओर जब यह अपेक्षा रखी जाती है कि राजनीति में अच्छे चाल, चरित्र के लोग आएं लेकिन दूसरी ओर भाषाई स्तर की गिरावट को देखते हुए ऐसा लगता है मानो यह आगाह किया जा रहा हो कि जिसमें अभद्रता झेलने की दम हो वही राजनीति में आए। पिछले चुनाव से पहले उर्मिला मातोंडकर पर ध्यान नहीं दिया गया था लेकिन इस बाॅलीवुड हीरोइन ने जैसे ही से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की घोषणा की वैसे ही उन्हें निशाना बना कर अभद्र लैंगिक शब्दों वाले हमले किए गए।
  
चुनावी रणनीतिकार मानते हैं कि दो विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा नेताओं के बिगड़े बोल चुनाव प्रचार का ही एक हथकंडा हो सकता है जिस में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हामी होती है। मगर सवाल यह भी है कि क्या भारतीय राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि वोट की खातिर नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाए? देश की राजनीति अगर इतनी गंदी हो गई तो लोकतंत्र की बात करने वाले सफेदपोश नेताओं को व्यक्तिगत छींटाकशी करने की स्वतंत्रता किस ने दे दी? इसके लिए उत्तरदायी कौन है, आम जनता या फिर वे शीर्ष नेता जिन पर दायित्व है अपने दल के नेताओं को दल के सिद्धांतों पर चलाने का। डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे ‘‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’’ इस संदर्भ में याद रखना होगा उस बात को जो पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘‘पोलिटिकल डायरी’’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।’’ अर्थात् जो भाषाई स्तर को गिराए और अभद्रता की सारी सीमाएं लांघने लगे, उसे मतदाता राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं ताकि राजनीति और अभद्र भाषा का अमार्यादित गठबंधन टूट सके।
            ------------------------
(दैनिक सागर दिनकर में 30.09.2020 को प्रकाशित)
#दैनिक #सागर_दिनकर #शरदसिंह #चर्चाप्लस #DrSharadSingh #CharchaPlus #miss_sharad #राजनीति #अभद्रभाषा #अमार्यादित #गठबंधन #भाषा #बिगड़ेबोल #चुनाव #मतदाता #राममनोहरलोहिया #दीनदयालउपाध्याय #पोलिटिकलडायरी #आजमखान #विवादितबयान #चुनावआयोग #योगीआदित्यनाथ #मेनकागांधी #मायावती #महात्मागांधी #चुनावप्रचार

Friday, September 25, 2020

पिछले पन्ने की औरतें | उपन्यास | पुनर्पाठ | डॉ वर्षा सिंह | आचरण

डॉ वर्षा सिंह सागर से प्रकाशित दैनिक आचरण में "पुनर्पाठ" कॉलम लिखती हैं। आज उन्होंने अपने कॉलम में मेरे पहले उपन्यास "पिछले पन्ने की औरतें को जगह दी है... जो यहां साझा कर रही हूं...
Pichhale Panne Ki Auraten - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh

प्रिय मित्रों, 
               स्थानीय दैनिक समाचार पत्र "आचरण" में प्रकाशित मेरा कॉलम "सागर : साहित्य एवं चिंतन " जिसमें पुस्तकों के पुनर्पाठ की श्रृंखला के अंतर्गत आठवीं कड़ी के रूप में प्रस्तुत है - सागर नगर निवासी, राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात लेखिका डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, जो मेरी अनुजा भी हैं, के उपन्यास  "पिछले पन्ने की औरतें" का पुनर्पाठ।

सागर: साहित्य एवं चिंतन

       पुनर्पाठ: ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास

                          -डॉ. वर्षा सिंह
                            Email- drvarshasingh1@gmail.com

इस बार पुनर्पाठ में मैं जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रही हूं उसका नाम है ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘। इस उपन्यास की लेखिका है डॉ. शरद सिंह। यह उपन्यास मुझे हर बार प्रभावित करता है इसलिए नहीं कि यह मेरी छोटी बहन शरद के द्वारा लिखा गया है बल्कि इसलिए कि इसे हिंदी साहित्य का बेस्ट सेलर उपन्यास और हिंदी साहित्य का टर्निंग प्वाइंट माना गया है। इसे बार-बार पढ़ने की ललक इसलिए भी जागती है कि इसमें एक अछूते विषय को बहुत ही प्रभावी ढंग से उठाया गया है। जी हां, इस उपन्यास में हाशिए में जी रही उन महिलाओं के जीवन की गाथा उनकी सभी विडंबनाओं के साथ सामने रखी गई है, जिन्हें हम बेड़नी के नाम से जानते हैं। समग्र हिन्दी साहित्य में स्त्रीविमर्श एवं आधुनिक हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में सागर नगर की डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह का योगदान अतिमहत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास का प्रथम संस्करण सन् 2005 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद अब तक इस उपन्यास के हार्ड बाऊंड और पेपर बैक सहित अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह न केवल पाठकों में बल्कि शोधार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में इस उपन्यास पर शोध कार्य किया जा चुका है और वर्तमान में भी अनेक विद्यार्थी इस उपन्यास पर शोध कार्य कर रहे हैं।
हिन्दी साहित्य में ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ ऐसा प्रथम उपन्यास है जिसका कथानक बेड़नियों के जीवन को आाधार बना कर प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की शैली भी हिन्दी साहित्य के लिए नई है। यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कड़ियों को बड़ी ही कलात्मकता से जोड़ते हुए इसे पढ़ने वाले को वहां पहुंचा देता है जहां बेड़नियों के रूप में औरतें आज भी अपने पैरों में घंघरू बांधने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास ‘‘रहस्यमयी श्यामा’’ से लेखिका की मुलाकात से आरम्भ होता है। कहने को तो यह मामूली सी घटना है कि लेखिका को सागर से भोपाल की बस-यात्रा के दौरान एक महिला सहयात्री मिलती है। लेकिन कथानक का श्रीगणेश ठीक वहीं से हो जाता है जब लेखिका को बातचीत में पता चलता है उस स्त्री का नाम श्यामा है और वह एक बेड़नी है। श्यामा राई नृत्य करती है और नृत्य करके अपने परिजन का पेट पालती है। यहीं से आरम्भ होती है एक जिज्ञासु यात्रा। इसके बाद लेखिका बेड़िया समाज के इतिहास और पारिवारिक संरचना पर अपनी शोधात्मक दृष्टि डालती है। वह स्वयं उन गांवों में जाती है जहां बेड़नियां रहती हैं। उनसे बात करती है, उनके जीवन को टटोलती है और उनके साथ, उनके घर पर रह कर उनके जीवन की बारीकियों को समझने का प्रयास करती है। यह एक बहुत बड़ा क़दम था। वाचिक और लिखित स्रोतों और ज़मीनी कार्यों के बीच तालमेल बिठाती हुई लेखिका शरद सिंह उपन्यास की अंतर्कथा के रूप में लिखती हैं गोदई की नचनारी बालाबाई की मर्मांतक कथा। जब एक गर्भवती बेड़नी को भी देह-पिपासु पुरुषों ने भावी मंा नहीं अपितु मात्र स्त्रीदेह के रूप में ही देखा। यह कथा मन को विचलित कर देती है। उपन्यास आगे बढ़ता है चंदाबाई, फुलवा के जीवन से होता हुआ रसूबाई के जीवन तक जा पहुंचता है। स्त्री को मात्र देह मानने वालों के द्वारा स्त्री के सम्मान और स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने, उन पर अत्याचार करने वालों की दुर्दांत कुचेष्टाएं झेलती ये स्त्रियां। जिनके बारे में शरद सिंह कहती हैं कि ये वे औरतें हैं जिन्हें समाज अपनी खुशियों को बढ़ाने के लिए अपने पारिवारिक उत्सवों में नाचने के लिए तो बुलाता है लेकिन इन्हें अपने परिवार में शामिल करने से हिचकता है। वह इनकी खुशियों से कतई सरोकार नहीं रखना चाहता है।
Article on Novel Pichhale Panne Ki Auraten by Dr Varsha Singh

इस उपन्यास का एक और पहलू है कि यह उपन्यास परिचित कराता है उस औरत से जिसने अल्मोड़ा में जन्म लिया, लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य बेड़िया समाज के लिए समर्पित करते हुए ‘बेड़नी पथरिया’ नामक गांव में ‘सत्य शोधन आश्रम’ की स्थापना की। उसका नाम था चंदाबेन। इस उपन्यास की खांटी वास्तविक पात्र हैं चंदाबेन, जिन्होंने अपने जीवन के विवरण को इस उपन्यास का हिस्सा बनने दिया। वस्तुतः ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ एक उपन्यास होने के साथ-साथ यथार्थ का औपन्यासिक दस्तावेज़ भी है। इसमें बेड़िया समाज का इतिहास है, बेड़नियों के त्रासद जीवन का रेशा-रेशा है, बेड़नियों के संघर्ष का विवरण है, उनकी आकांक्षाओं एवं आशाओं का लेखा-जोखा है। यही तो है सच्चा स्त्रीविमर्श कि जब किसी उपन्यास में जीवन की सच्चाई को पिरो कर उसे सच के क़रीब ही रखा जाए, इतना क़रीब कि इस उपन्यास को पढ़ने वाला पाठक बेड़नियों की त्रासदी से उद्वेलित हुए बिना नहीं रह पाए और उपन्यास के अंतिम पृष्ठ तक पहुंचते हुए बेड़नियों के उज्ज्वल भविष्य की दुआएं करने लगे।    
परमानंद श्रीवास्तव जैसे समीक्षकों ने उनके इस उपन्यास को हिन्दी उपन्यास शैली का ‘‘टर्निंग प्वाइंट’’ कहा है। यह हिन्दी में रिपोर्ताजिक शैली का ऐसा पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें आंकड़ों और इतिहास के संतुलित समावेश के माध्यम से कल्पना की अपेक्षा यथार्थ को अधिक स्थान दिया गया है। यही कारण है कि यह उपन्यास हिन्दी के ‘‘फिक्शन उपन्यासों’’ के बीच न केवल अपनी अलग पहचान बनाता है अपितु शैलीगत एक नया मार्ग भी प्रशस्त करता है। शरद सिंह जहां एक ओर नए कथानकों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाती हैं वहीं उनके कथा साहित्य में धारदार स्त्रीविमर्श दिखाई देता है।
‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला शोधपरक उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में दर्ज कर भुला दी गईं औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास के स्त्री पात्र महत्वपूर्ण हैं। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। ’पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास में शरदसिंह ने समाज की आन्तरिक और बाह्य परतों को खोलने का प्रयास किया वे समाज के कुरूप सत्य को बड़े ही बोल्ड ढंग से प्रस्तुत करती हैं उनकी लेखकीय क्षमता की विशेषता है कि वे जीवन और समाज के अनछुए विषयों को उठाती हैं।
जब भी मैं इस उपन्यास को पढ़ती हूं तो मुझे सुप्रसि़द्ध समीक्षक स्व. परमानंद श्रीवास्तव का वह समीक्षा-लेख याद आने लगता है जो उन्होंने ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के बारे में लिखा था - “ रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा ‘तीली-तीली आग’ कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे? विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था।......शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- ‘लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।’ शरद सिंह ने जैसे एक.सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है। ‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं। शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति ‘पिछले पन्ने की औरतें’’। जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।”
निःसंदेह यह उपन्यास तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक औरतें समाज के पिछले पन्नों में क़ैद रखी जाएंगी। और अंत में मैं दे रही हूं बार-बार पढ़े जाने योग्य इस उपन्यास के आरम्भिक पन्ने में लिखी शरद सिंह की ही वे काव्य पंक्तियां जो एक नए स्त्रीविमर्श के पक्ष में आवाज़ उठाती हैं-
छिपी रहती है
हर औरत के भीतर
एक और औरत
लेकिन
लोग अक्सर
देखते हैं
सिर्फ बाहर की औरत।

                -----------------------
( दैनिक, आचरण  दि.19.09.2020)
#आचरण #सागर_साहित्य_एवं_चिंतन #वर्षासिंह #मेरा_कॉलम #पुस्तक #पुनर्पाठ #Recitation
#MyColumn #Dr_Varsha_Singh  #डॉ_सुश्री_शरद_सिंह #पिछले_पन्ने_की_औरतें #Sagar_Sahitya_Evam_Chintan #Sagar #Aacharan #Daily
#drvarshasingh1#डॉशरदसिंह
Dr ( Miss) Sharad Singh, Hindi Novelist

Wednesday, September 23, 2020

चर्चा प्लस | प्रवासी मजदूरों की काम पर वापसी | कौन समझेगा दर्द इनका ? | डाॅ शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

चर्चा प्लस

 प्रवासी मजदूरों की काम पर वापसी :

  कौन समझेगा दर्द इनका ?        

            - डाॅ शरद सिंह

                              

   कोरोना लाॅकडाउन के दौरान मई की चिलचिलाती गर्मी में जो प्रवासी मजदूर नंगे सिर, पैदल महानगरों से अपने घरों के लिए चल पड़े थे, उनमें से जो सकुशल घर पहुंचे वे आज फिर महानगरों की ओर लौट रहे हैं। इस बार सब पैदल नहीं हैं। ट्रेन, ट्रक, बस, बैलगाड़ी, गुड्स कैरियर जो भी साधन मिल रहा है, भेड़-बकरियों की तरह उसमें भर कर लौट रहे हैं अपने अनिश्चित भविष्य की ओर। इस वापसी में उनका दर्द पूछने वाला कोई नहीं है, सिवाय चंद मीडिया कर्मियों के। वे अपने परिवार भरण-पोषण के लिए जूझ रहे हैं अपनी नियति से, जो उन पर थोपी गई है।


     एनएच-26-ए रोड जिसे झांसी रोड भी कहा जाता है, अब यातायात के लिए पूरी तरह से खोली जा चुकी है। इसी एनएच-26-ए रोड पर पिछले कुछ दिनों से ऐसी कई मालवाहक मिनी ट्रकें दिखाई दे जाती हैं जिसमें लोग ठसाठस भरे हुए दिखाई देते हैं। मोटी रस्सियों से बांध कर इन मिनी ट्रकों का पीछे का हिस्सा सुरक्षित बना दिया जाता है जिससे कोई मजदूर ट्रक के पीछे के हिस्से से गिर न जाए। उन ओव्हर लोडेड मिनी ट्रकों के पीछे के हिस्से में ठूंस-ठूंस कर भरे हुए मजदूरों में से किनारे की ओर खड़े मजदूर अपने हाथ, अपनी टांगे उन रस्सों से बाहर लटकाए हुए होते हैं। यह दृश्य देख कर ऐसा लगता है जैसे पशुओं को निर्दयतापूर्वक मिनी ट्रकों में भर कर ले जाया जा रहा हो। ये वही मजदूर हैं जो मई की चिलचिलाती गर्मी में महानगरों से अपने घरों की ओर लौटने को विवश कर दिए गए थे। जब वे घर जा रहे थे तब भी वे मुसीबतें झेल रहे थे। उन दिनों के दृश्य आज भी भुलाए नहीं जा सके हैं। सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौत के आंकड़े नहीं हैं लेकिन उन दिनों समाचारपत्रों में सुर्खियां बने वे समाचार गवाह हैं प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के।

Kaun Samjhega Dard Inka - Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 23. 09. 2020 .

मई 2020 की घटना- दिल्ली की एक मिल में काम करने वाले चित्रकूट के निवासी पन्नालाल को जो भूख और अपमान दिल्ली में मिला उसने उसे दिल्ली छोड़ने को विवश कर दिया। पन्नालाल के मन में तड़प इस बात की है कि जहां वह दस साल से काम कर रहा था, अपने मालिक को लाभ पहुंचा रहा था, उसी मालिक ने हाथ खड़े कर दिए कि जब मिल ही बंद हो गई तो अब मैं तुम्हें पैसे कहां से दूं? मालिक का कहना भी दुरुस्त था लेकिन पन्नालाल को जब उसके उस 10 गुना 10 के कमरे से भी धक्केमार कर बाहर निकाल दिया गया जहां वह अन्य आठ मजदूरों के साथ रहता था, तब उसे अहसास हुआ कि अब तो वह बेरोजगार, बेघर और दाना-पानी से मोहताज हो गया है। वह मात्र चार सौ रुपए की अपनी कुल जमापूंजी के सहारे पैदल ही निकल पड़ा दिल्ली से चित्रकूट के लिए। यह स्थिति मात्र पन्नालाल की नहीं थी, अपितु उन हजारों मजदूरों की थी जो सड़कों, खेतों, जंगलों और रेल की पटरियों के रास्ते अपने घरों की ओर निकल पड़े थे।

एक और मजदूर, जिसका नाम रामबलि था। वह मुंबई के पालघर जिले में एक ठेकेदार के टोल नाके पर मजदूरी करता था। मुंबई से निकले अन्य मजदूरों की भांति रामबलि भी अपने घर सिद्धार्थनगर, उ.प्र. के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। मुंबई से मध्यप्रदेश के बंडा तहसील तक की यात्रा उसने अपार कष्ट सहते हुए भी सफलतापूर्वक तय कर ली थी। लेकिन बंडा से गुजरते समय वह तेज धूप की मार नहीं सह सका और अचानक गिर पड़ा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। रिपोर्ट के अनुसार रामबलि की मौत डीहाइड्रेशन के चलते हुई थी। उसकी खाली जेब से बस एक आधार कार्ड बरामद हुआ जो तेलगू़ भाषा में था। जो बयान कर रहा था कि पेट की खातिर रामबलि कभी आंध्र प्रदेश भी गया था।    

       दुर्दिन भोग रहे इन मजदूरों में से अनेक ऐसे थे कि रोटियां भी जिनकी जान नहीं बचा पाईं। औरंगाबाद की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना क्या कोई कभी भुला सकता है? हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए थक कर चूर मजदूर रेल की पटरी पर ही सो गए। तब उन्हें क्या पता था कि रेल आएगी और उन्हें कभी जागने नहीं देगी। वे रोटियां भी उनकी जान नहीं बचा पाएंगी जो उन्होंने अपने सीने पर बांध रखी थीं। क्षत-विक्षत शवों पर कपड़ों में बंधी हुई रोटियां। जिसने भी घटनास्थल पर पहुंच कर उन रोटियों को देखा, वह लौट कर अपने हलक से रोटी का निवाला नहीं उतार सका। उसके आंसू भी उसके गले को इतना तर नहीं कर सके कि निवाला हलक से उतर सके। इससे पहले 12 साल की एक लड़की की मौत की खबर सबने पढ़ी थी। जो तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव आ रही थी। करीब 150 किलोमीटर लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया था। जिन्हें भाग्यवश ट्रक जैसे साधन मिल गए उनके भी भाग्य ने उनका अधिक साथ नहीं दिया। जैसे मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले की सीमा पर एक बड़े सड़क हादसे में पांच मजदूरों की मौत हो गई थी और 11 मजदूर घायल हो गए थे। पुलिस के अनुसार आम के ट्रक में सवार 20 मजदूरों में से 11 मजदूर झांसी के रहने वाले थे जबकि 9 एटा के थे। सभी मजदूर हैदराबाद से अपने घर जाने के लिए निकले थे।

        मेहनत कर के पेट भरने वाले मजदूरों की दशा उस समय भिखारियों और शराणार्थियों जैसी हो गई थी। वे समाजसेवी संगठनों एवं स्थानीय प्रशासनों की उदारता पर निर्भर थे। लेकिन टोटल लाॅकडाउन के उन दिनों में चैकिंग और क्वारंटाईन किए जाने को ले कर उनके मन में जो अविश्वास था, उसके चलते वे रेल की पटरियों और जंगलों के रास्ते चुन रहे थे। जिससे उन्हें हर तरह की सहायता से वंचित होना पड़ रहा था। खाली पेट, खाली जेब सैंकडों किलोमीटर पैदल सफर की असंभव सी दूरियां तय किया उन्होंने तो सिर्फ अपने हौसले के दम पर।

        अपार कष्टों को उठा कर वे अपने गंाव, अपने घर पहुंचे। वे जानते थे कि वहां भी मुश्किलें हैं। यदि उनके गांवों में उनके लिए पर्याप्त काम होता तो वे पहले ही महानगरों कीे ओर क्यों पलायन करते? घर लौटने पर शुरू हुआ उनका एक अलग तरह का आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संघर्ष। जिनके लिए वे कमाने महानगरों में गए थे, उन्होंने ही बोझ समझा। ऐसे प्रकरण भी हुए जिनमें कोरोना संक्रमण की शंका से प्रवासी मजदूर को गांव में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जबकि उसे कोरोना नहीं था, किन्तु भूख और अन्य बीमारी से अपने गांव के बाहर तड़प-तड़प कर मर गया। उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी घटनाएं भी सामने आईं जिनमें संपत्ति को लेकर विवाद खड़े हो गए। यानी गांव में रह रहा जो भाई यह सोच कर प्रसन्न था कि उसका एक भाई कमाने महानगर चला गया है और अब कभी नहीं लौटेगा। जिससे सारी संपत्ति पर उसका अकेले का अधिकार हो जाएगा। लेकिन जब उसका भाई गिरता-पड़ता वापस आ गया तो उसके सही-सलामत आने की खुशी के बजाए उसे यह चिंता हुई कि संपत्ति का हिस्सेदार फिर लौट आया। इस प्रकार के विवाद पंचायतों तक पहुंचे। प्रवासियों के गांव लौटने के साथ पैतृक संपत्ति और खेती की जमीन को लेकर परिवार में झगड़े हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 20 मई तक संपत्ति विवाद को लेकर 80,000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। अब उस प्रवासी मजदूर की मानसिक दशा के बारे में सोचिए जिसने महानगर में रोजी-रोटी के लिए संघर्ष किया, अपना पेट काट कर अपने गांव अपने परिजन के पास पैसे भेजे, टोटल लाॅकडाउन के कारण नौकरी छूटने पर बेइंतहां कष्ट सहते हुए अपने गांव लौटा और वहां उसे सांत्वना के बजाए घोर परायापन मिला। नतीजा यह हुआ कि जिन मजदूरों ने वापसी के समय कसमें खाईं थीं कि वे अब कभी महानगरों की ओर रुख नहीं करेंगे, वे तीन माह बाद ही उन्हीं महानगरों की ओर लौट पड़े हैं। यह लौटना उनकी मजबूरी है। उनके गांव में उनकी आमदनी के लिए कोई स्थाई जरिया नहीं है, घर-परिवार में पूछ-परख नहीं है। भूख और उपेक्षा उन्हें फिर उसी दिशा में ले जा रही है जहां से वे संकट में निकाल बाहर कर दिए गए थे।  

       एनएच-26-ए रोड से गुजरते एक मिनीट्रक में भर कर जा रहे मजदूरों से मैं स्वयं तो बात नहीं कर सकी लेकिन मेरे एक परिचित पत्रकार ने बातचीत की। जिसकी जानकारी उसने मुझे फोन पर बताई। पानी पीने के लिए एक हैंडपंप के पास रुके मजदूरों से संयोगवश उस पत्रकार को बात करने का अवसर मिल गया। बातचीत में पता चला कि वे मजदूर ललितपुर, राठ और उरई के आसपास के हैं। वे सभी एक ठेकेदार के काम दिलाने के आश्वासन पर महाराष्ट्र जा रहे हैं। जगह का ठीक-ठीक नाम वे नहीं बता सके। वे यह भी नहीं बता सके कि उन्हें कौन-सा काम करने के लिए ले जाया जा रहा है और उन्हें काम के बदले कितना पैसा मिलेगा। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि ‘‘यह तो वहीं पहुंच कर पता चलेगा।’’ तब पत्रकार ने पूछा कि जिस ट्रक में बीस से तीस लोग आ सकते हैं उसमें तुम साठ-पैंसठ लोग भरे हो तो दिक्कत नहीं जा रही है? इतना लम्बा सफर क्या खड़े-खड़े तय करोगे?’’ मजदूरों ने कहा कि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। या तो वे इसी तरह ठस कर जाएं या फिर पैदल जाएं। इसलिए ठस कर जाना ही बेहतर है।

         काश! इन्हें भी अभिनेता सोनू सूद की तरह कोई मददगार मिल जाता जो इनकी यात्रा, इनके काम, इनके रहने का बंदोबस्त करता। लेकिन इन लगभग अपढ़ मजदूरों के पास मदद के नाम पर हैं सरकारी एप्प, मदद की कुछ सरकारी योजनाएं और ठेकेदार का आश्वासन। कोविड-19 के कारण लॉक डाउन के दौरान महानगरों से अपने गांव वापस आए प्रवासी मजदूरों का महानगरों के लिए लौटने से पहले प्रधानमंत्री जन आरोग्य कार्ड बनाए जाने का प्रावधान है, ताकि वे कहीं भी रहें, पूरे परिवार को भविष्य में गंभीर तथा महंगे इलाज के लिए परेशान न होना पड़े। अनलॉक के बाद रोजगार की आस में प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहरों में वापस पहुंच रहे हैं। ग्रामीण इलाकों से राजधानी दिल्ली में काम की तलाश में दोबारा लौटने वाले लोग बसों में भरकर पहुंच रहे हैं और बस अड्डे पर प्रवासियों के पहुंचने के बाद उन्हें लाइन में लगने को कहा जाता है जिसके बाद उनका रैपिड कोविड-19 टेस्ट होता है। जो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें क्वारंटीन सेंटर भेज दिया जाता है। दिल्ली के अंतर-राज्यीय बस टर्मिनस में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पहुंचना जारी है। वे दोबारा रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंच रहे हैं। वे सस्ते मास्क या गमछे से अपना चेहरा ढंके रहते हैं। जबकि देश में संक्रमण दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है।

      मई माह में हुए प्रवासी मजदूरों के उस सामूहिक पलायन को कई विशेषज्ञ नेे विभाजन के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा। लेकिन आज एक बार फिर जो पलायन हो रहा है, गांव से महानगरों की ओर उस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है। गोया अब प्रवासी मजदूरों के दर्द से कोई नाता ही न बचा हो।      

                ------------------------- 

(दैनिक सागर दिनकर में 23.09.2020 को प्रकाशित)

#दैनिक #सागर_दिनकर #शरदसिंह #चर्चाप्लस #DrSharadSingh #miss_sharad  #CharchaPlus #SagarDinkar #प्रवासीमजदूर 

Thursday, September 17, 2020

विशेष लेख : सुरखी विधान सभा उपचुनाव उर्फ़ दूबरे और दो अषाढ़ - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा विशेष लेख "सुरखी विधान सभा उपचुनाव उर्फ़ दूबरे और दो अषाढ़" 🚩

❗हार्दिक आभार "दैनिक जागरण"🙏 

Dr (Miss) Sharad Singh


विशेष लेख :


सुरखी विधान सभा उपचुनाव उर्फ़ दूबरे और दो अषाढ़

 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

             

          जैसे-जैसे सुरखी विधान सभा उपचुनाव की तारीख की घोषणा होने के दिन करीब आते जा रहे हैं वैसे-वैसे रोचकता बढ़ती जा रही है। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के परिवहन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत की जुबान फिसल गई और वह बीजेपी  को ही कोस गए। राजपूत पिछले दिनों कांग्रेस छोड़कर पूर्व कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल हुए थे। सागर जिले के सुरखी विधानसभा से विधायक रहे राजपूत ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था। उन्हें आगामी समय में होने वाले उपचुनाव में सुरखी से बतौर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव लड़ना है। इससे पहले उन्होंने यहां रामशिला पूजन यात्रा निकाली। इस यात्रा का सोमवार को समापन हुआ। सुरखी विधानसभा क्षेत्र के 300 गांवों में तेरह दिनों तक भ्रमण के बाद सोमवार को पहलवान बब्बा मंदिर, सागर में रामशिलाओं का पूजन हुआ। इसी के साथ रामशिला पूजन यात्रा का समापन हो गया। समापन अवसर पर मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए राजपूत बीजेपी के पक्ष में बोल रहे थे कि अचानक उनकी जुबान फिसल गई और बीजेपी के विरोध में बोल उठे। सोशल मीडिया पर जो वीडियो वायरल हुआ उसमें राजपूत कहते दिखाई दिए कि ‘‘इस समय पूरा मध्यप्रदेश राममय है, सुरखी राममय है, बीजेपी को नकली राम नाम का, भगवा झंडे को धारण करना पड़ रहा है...।’’ कांग्रेसियों ने राजपूत की इस चूक को आड़े हाथों लिया और उन्हें खूब ट्रोल किया।

Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Dainik Jagaran, 17.09.2020
    
बुंदेली में एक कहावत है-दूबरे और दो अषाढ़। जिसका आशय है कि गोविंद सिंह राजपूत अपनी जुबान फिसलने से पहले ही फजीहत में फंस गए और उस पर कांग्रेस में दमदार नाम मिलने की सुगबुगाहट कमरों से निकल कर अब सड़कों तक आ गई है। जहां कल तक कांग्रेस के खेमे में अनिश्चितता की स्थिति थी वहां अब कई दमदार नाम उभर कर सामने आने लगे हैं। इसमें से दो नाम ऐसे हैं जो अभी तो कांग्रेस में नहीं हैं लेकिन उनमें से एक के भी कांग्रेस में शामिल होते ही सुरखी में गोविंद सिंह राजपूत के लिए चुनौतियां बढ़ जाएंगी। भाजपा में असंतोष के स्वर उसी समय से तेज हो चुके हैं जब से गोविंद सिंह राजपूत भाजपा में आए और उन्हें सुरखी की कमान के साथ-साथ मंत्रीपद भी सौंपा गया। भाजपा के समर्पित कुछ नेताओं को यह नागवार गुज़रा और उन्होंने भाजपा की उन नीतियों पर उंगली उठानी शुरू कर दी जो उन्हें दोषपूर्ण लगीं। इनमें सबसे चर्चित रही वह फेसबुकपोस्ट जो सुरखी सीट से विधायक रह चुकी पारुल साहू ने पोस्ट की थी। अपने फेसबुक पेज पर पारुल साहू ने विभागों के बंटवारे में सिंधिया खेमें को महत्व दिए जाने पर तंज कसते हुए लिखा था कि ‘‘ये राजनीतिक दहेज प्रताड़ना कहीं तलाक का कारण ना बन जाए, मेरा शीर्ष नेतृत्व से निवेदन है कि जननायक मुख्यमंत्री शिवराज जी के प्रति आम जन में लगाव और सम्मान को इस तरह धूमिल नहीं किया जाये। उनके अनुभव, पार्टी के प्रति निष्ठा और कार्यकर्ताओं की भावना अनुरूप कोई भी निर्णय लेने के लिये आदरणीय मुख्यमंत्री जी को पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए।’’ 

        बुंदेलखंड की महिलाओं पर प्रकाशित अपने एक लेख को जब मैंने अपनी फेसबुक वाॅल पर शेयर किया तो उस पर पारुल साहू ने जो टिप्पणी की थी, उसमें भी उनके रोष के संकेत स्पष्ट थे।  उन्होंने लिखा था कि ‘‘रानी लक्ष्मीबाई की कर्मभूमि में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी जीरो है एक भी महिला विधानसभा या लोकसभा में बुंदेलखंड से नहीं है।’’ पारुल साहू सागर की सुरखी सीट से विधायक रह चुकी हैं। साल 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के गोविंद सिंह राजपूत को चुनाव में हराया था। साल 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पारुल साहू को टिकिट नहीं दिया था और गोविंद सिंह राजपूत कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर सुरखी से चुनाव जीते थे। कहा जा रहा है कि पारुल साहू पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से भेंट कर चुकी हैं जिसके बाद उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा जोर पकड़ती जा रही है।  

         पारुल साहू के अलावा दूसरा नाम पूर्व मंडी अध्यक्ष राजेंद्र सिंह मोकलपुर का भी सामने आ रहा है। यह भी एक दमदार नाम है। यदि राजेंद्र सिंह मोकलपुर कांग्रेस में जाते हैं तो भाजपा को सुरखी में जीत के लिए जम कर पापड़ बेलने पड़ेंगे क्योंकि उनके पास भी व्यापक जनाधार है। यह तो कुछ दिन बाद ही स्पष्ट होगा कि ऊंट किस करवट बैठने जा रहा है लेकिन यह तो तय है कि गोविंद सिंह राजपूत के लिए चुनावी डगर आसान नहीं है। प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरने वाली चुनौतियों को साधने के साथ ही उन्हें अपने उद्गार पर भी ध्यान देना होगा वरना उनका दांव उन्हीं पर उल्टा पड़ सकता है। बहरहाल, सुरखी विधान सभा क्षेत्र में इन दिनों चुनावी रोचकता बढ़ती जा रही है।   

                         --------------------- 

(दैनिक जागरण में 17.09.2020 को प्रकाशित)
#शरदसिंह #DrSharadSingh #miss_sharad #DainikJagaran
#postforawareness #भाजपा #कांग्रेस #सुरखी_विधान_सभा_क्षेत्र
#गोविंदसिंहराजपूत #पारुलसाहू #राजेंद्रसिंहमोकलपुर #उपचुनाव #सागर #रोचक #SurkhiMiniPole #govindsinghrajput #parulsahu #rajendrasinghmokalpur #BJPMP #congress

Wednesday, September 16, 2020

चर्चा प्लस : विश्व ओजोन दिवस (16 सितम्बर) पर विशेष: धरती की छत में कोई छेद न रहे - डाॅ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
 
चर्चा प्लस :  विश्व ओजोन दिवस (16 सितम्बर) पर विशेष:


 धरती की छत में कोई छेद न रहे          

 - डाॅ शरद सिंह


         ऐसा माना जा रहा है कि कोरोना काल में दुनिया के विभिन्न देशों में हुए लाॅकडाउन से हानिकारक उत्सर्जन घट गया जिसने ओजोन परत में बढ़ते छेदों को छोटा करने में मदद की है। लेकिन यह तो स्थाई हल नहीं है। दुनिया हमेशा लाॅकडाउन नहीं रह सकती है। जंगल कटेंगे, जलेंगे और विषाक्त उत्सर्जन फिर बढ़ेगा तो ओजोन परत के लिए फिर खतरा पैदा हो जाएगा। आम इंसान को ये बातें गै़रज़रूरी लग सकती हैं लेकिन ओजोन परत का सरोकार इंसान सहित हर प्राणी की संासों से है। इसलिए इसके बारे में सभी को सोचना होगा। 


 हर इंसान को, हर प्राणी को जीवित रहने के लिए सांसें चाहिए। हवा और पर्यावरण की शुद्धता ही स्वस्थ सांसें दे पाती है। लेकिन हम इंसानों ने अपने ही हाथों अपने घर को जलाने और प्रदूषण फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दिल्ली को ही लें तो हर वर्ष शीतऋतु में स्माॅग के चलते वहां इंसानों का दम घुटने लगता है। संास की बीमारियां बढ़ जाती हैं और अब कोरोना संक्रमण जो संासों के जरिए तेजी से फैलता है, ने ख़तरा और बढ़ा दिया है। माॅस्क के पीछे क़ैद संासें और उस पर शुद्ध हवा की कमी सेहत के लिए घातक परिणाम पैदा कर सकती है। किन्तु शुद्ध हवा, शुद्ध पर्यावरण आए कहां से, जब हमने वायुमण्डल को विषैली गैसों का ‘डम्पिंग स्टेशन’ बना रखा है। यह सोच कर सुखद लगता है कि इस कोरोना काल में दुनिया भर के देशों में किए गए लाॅकडाउन ने धरती की छत यानी ओजोन परत में मरम्मत की है। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण दुनिया के अधिकांश देशों में लाॅकडाउन किया गया। उद्योगों के संचालन को बंद किया गया। सड़कों पर परिवहन सीमित हो गए। इससे वायु प्रदूषण अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। नदियों का जल साफ होने लगा, आसमान साफ और नीला दिखाई देने लगा। लाॅकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर उद्योगों के बंद रहने से विषैली गैसों के उत्सर्जन में बड़ी गिरावट आई जिससे ओजोन परत के बड़े होते छेद सिकुड़ने लगे, छोटे होने लगे। लेकिन यह स्थाई हल नहीं है। कोरोना-संक्रमण के बावजूद दुनिया अपनी पुरानी पटरी पर लौट रही है। यह जरूरी भी है। उद्योग नहीं रहेंगे तो अर्थव्यवस्था और विकास ध्वस्त हो जाएगा और तब बेरोजगारी और भुखमरी को सम्हाल पाना कठिन से कठिनतर हो जाएगा। कहने का आशय यह है कि जो हमें अपनी नंगी आंखों से दिखाई नहीं देता है वह भी हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण है- ओजोन परत।  

Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 16. 09. 2020 World Ozone Day

वर्ष 1980 में पहली बार ओजोन परत में छेद का पता चला था। प्रदूषण बढ़ने के साथ साथ ओजोन छिद्र भी बढ़ता गया। जिस कारण सूर्य की पैराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचने लगी, इससे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचने के साथ ही पौधों को भी नुकसान पहुंचने लगा। इससे बचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 1987 में एक माॅन्ट्रियल प्रोटोकाॅल संधि की गई।

ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की एक परत है। ओजोन परत हमें सूरज से आने वाली अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है। वायुमंडल में 91 प्रतिशत से अधिक ओजोन गैसें यहां मौजूद हंै, वहीं दूसरी ओर जमीनी स्तर पर ओजोन परत सूर्य की पैराबैंगनी किरणों से बचाने के लिए सन स्क्रीन की तरह काम करती है। ओजोन की परत की खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। धरती से 30-40 किमी की ऊंचाई पर ओजोन गैस का 91 प्रतिशत हिस्सा एकसाथ मिलकर ओजोन की परत का निर्माण करता है। ओजोन सूर्य के उच्च आवृत्ति के प्रकाश की 93 से 99 प्रतिशत मात्रा अवशोषित कर लेती है। ओजोन परत में छेद के लिए क्लोरोफ्लोरो कार्बन यानी सीएफसी गैसों को भी जिम्मेदार माना जाता है। सन् 1985 में सबसे पहले ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में एक बड़े छेद की खोज की थी। वैज्ञानिकों को पता चला कि इसकी जिम्मेदार क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस है। जिसके बाद इस गैस के उपयोग को रोकने के लिए दुनियाभर के देशों में सहमति बनी और 16 सितंबर 1987 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किया गया था। जिसके बाद से ओजोन परत के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा साल 1994 में 16 सितंबर की तारीख को ‘‘विश्व ओजोन दिवस’’ मनाने की घोषणा की गई। पहली बार ‘‘विश्व ओजोन दिवस’’ साल 1995 में मनाया गया था, जिसके बाद हर साल 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है।

ओजोन परत को इंसानों द्वारा बनाए गए कैमिकल्स से काफी नुकसान होता है। इन कैमिकल्स से ओजोन की परत पतली हो रही है। फैक्ट्री और अन्य उद्योगों से निकलने वाले कैमिकल्स हवा में फैलकर प्रदूषण फैला रहे हैं। ओजोन परत के बिगड़ने से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ऐसे में अब गंभीर संकट को देखते हुए दुनियाभर में इसके संरक्षण को लेकर जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन कोरोना संक्रमण के दौरान लाॅकडाउन ने जहां उद्योगों में रुकावट डाल कर तात्कालिक रूप से ओजोन परत को संवारा वहीं दूसरी ओर स्थाई हल की ओर कदम बढ़ाने का आह्वान करते लोगों और उनके धरना-प्रदर्शनों पर बाधा पहुंचा दी। अकसर सरकारें अकेले अपने दम पर बड़े उद्योंगों के उत्पादन के घातक तरीकों पर अंकुश नहीं लगा पाती हैं लेकिन जब उन्हें जनता के दबाव के रूप में समर्थन मिलता है तो वे ठोस कदम उठा पाती हैं। पर्यावरण के हित में किए जा रहे सक्रिय सामूहिक प्रयासों की गति में कमी पर्यावरण और विषैली गैसों के उत्सर्जन के समीकरण को एक बार फिर चिंताजनक स्तर तक ले जा सकती है। 

और अंत में एक रोचक कथा। बहुत पहले एक राजकुमारी हुआ करती थी जिसका नाम था विद्योत्तमा। वह असाधारण विदुषी थी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह उसी से विवाह करेगी जो उससे अधिक विद्वान हो। उससे विवाह के लिए अनेक विद्वान आये पर शास्त्रार्थ में उससे पराजित होकर लौट गए। विवाह में असफल विद्वानों ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए षडयंत्र रचा और किसी महामूर्ख से उसका विवाह करवा देने का निश्चय किया। वे सभी किसी महामूर्ख को खोजने के लिए चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक व्यक्ति मिला जो वृक्ष की जिस डाल पर बैठा हुआ था, उसी को ही काट रहा था। ऐसा महामूर्ख उन्होंने कभी नहीं देखा था। उसे वृक्ष से उतारा गया और समझाया गया कि वह एकदम मौन रहेगा तो उसका विवाह राजकुमारी से करवा दिया जाएगा। उस व्यक्ति का परिचय विद्योत्तमा को यह कह कर दिया गया कि यह अद्वितीय विद्वान है लेकिन इस समय मौन व्रत धारण किए हुए है, अतः जो पूछना हो, वह इशारों से पूछा जाए। विद्योत्तमा ने उसकी ओर एक अंगुली उठाई जिसका तात्पर्य था कि ब्रह्म एक है। उस व्यक्ति ने समझा कि वह मेरी एक आंख फोडना चाहती है। उसने दो अंगुलियां उठा दीं, जिसका तात्पर्य था कि यदि तुम एक आंख फोड़ोगी तो मैं तुम्हारी दोनों आंख फोड़ दूंगा। लेकिन पंडितों ने संकेत की व्याख्या कर दी कि ब्रह्म के दो रूप हैं। एक पुरुष और एक प्रकृति। अब विद्योत्तमा ने पंचतत्वों को बताने के लिए पांच अंगुली दिर्खाइंं। पर उस व्यक्ति ने समझा कि विद्योत्तमा मुझे थप्पड़ मारना चाहती है। उसने उसे मुक्का दिखाया कि यदि तुम मुझे थप्पड़ मारोगी तो मैं मुक्का मारूंगा। पंडितों ने व्याख्या कर दी कि तत्व तो पांच अवश्य होते हैं पर जब एक साथ मिलते हैं, तभी उनकी सार्थकता है। विद्योत्तमा ने उस व्यक्ति को विद्वान मान लिया और दोनों का विवाह हो गया। लेकिन विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस व्यक्ति की मूर्खता का भेद खुल गया और इस छल से क्रोधित विद्योत्तमा ने उसे महामूर्ख कहते हुए धक्का दे दिया। वह व्यक्ति सीढियों से लुढ़कते हुए नीचे आ गिरा। उसी पल उस व्यक्ति ने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञानी नहीं हो जाऊंगा तब तक विद्योत्तमा को मुंह नहीं दिखाऊंगा। उस व्यक्ति ने न केवल ज्ञान अर्जित किया बल्कि ‘‘अभिज्ञान शकुन्तलम’’, ‘‘मेघदूत’’ आदि महान काव्यों की रचना की और कालिदास के नाम से विख्यात हुआ। इस कहानी को याद करने का उद्देश्य यही है कि हमने कालिदास के मूर्खरूप को जीते हुए उस धरती और उसके पर्यावरण को पर्याप्त नुकसान पहुंचाया है, जिस धरती पर हम रहते हैं। अब आवश्यकता है कालिदास की तरह प्रण करने और बुद्धिमान बन कर अपनी धरती की छत को बचाने की।

                                                 ------------------------- 

(दैनिक सागर दिनकर में 16.09.2020 को प्रकाशित)


#दैनिक #सागर_दिनकर #शरदसिंह #चर्चाप्लस #DrSharadSingh #miss_sharad  #CharchaPlus #SagarDinkar #WorldOzoneDay #Environment #Kalidaas #SaveThe Earth #Earth

Saur Tapiya Urja - Dr (Miss) Sharad Singh - Book on Use of Solar Energy





Monday, September 14, 2020

हिन्दी दिवस पर विशेष : बस, एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाए हिन्दी - डाॅ शरद सिंह

हिन्दी दिवस पर विशेष :    
बस, एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाए हिन्दी
        - डाॅ शरद सिंह
हमारे देश के तीन नाम हैं-भारत, हिन्दुस्तान और इंडिया। लेकिन अभाव है तो एक राष्ट्रभाषा का। भारत में किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया गया है। संविधान का अनुच्छेद 343, अंग्रेजी के साथ हिंदी (देवनागरी लिपि में लिखित) को संघ की आधिकारिक भाषा यानी भारत सरकार की अनुमति देता है। अनेक बार प्रयास किए गए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिल सके लेकिन हर बार हिन्दी एक सीढ़ी नीचे ही रह गई। जबकि हिन्दी में विविध भाषाओं के शब्द समाहित हैं और यह देश के विविध भाषा-भाषियों के बीच एक अच्छी, सरल संपर्क की भाषा की भूमिका निभा सकती है। बस, आवश्यकता है हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिलने की। 
भारत में जो भी विदेशी आया उसे हिन्दी सीखना सबसे आसान लगा, वह चाहे अंग्रेज हो या मुग़ल, अफ़गान। चैदहवीं सदी में अमीर खुसरो ने अपनी कविताओं में ‘हिन्दवी’ का प्रयोग किया जिसमें एक पंक्ति फारसी की तो दूसरी हिन्दी (हिन्दवी) की होती थी। वर्तमान में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजराती भाषी होते हुए भी धाराप्रवाह हिन्दी बोल लेते हैं। जिससे यह तथ्य सिद्ध होता है कि यदि हिन्दी के प्रति प्रेम और इच्छाशक्ति है तो हिन्दी को सीखना, बोलना और समझना सबसे आसान है, क्योंकि यह एक लचीली भाषा है। इसने विभिन्न भाषाओं और बोलियों के शब्द समाहित हैं। इसकी प्रकृति सार्वभौमिक (यूनीवर्सल) भाषा की प्रकृति है। हिंदी में एक भी ऐसा शब्द नहीं है जिसका उच्चारण उसके लिखने से थोड़ा भी अलग हो। इसी वजह से अंग्रेजों ने हिंदी को ‘फोनेटिक लेंग्वेज़’ कहा था। किन्तु उल्लेखनीय यह कि जहां हमारे देश के तीन-तीन नाम हैं- भारत, हिन्दुस्तान और इंडिया। वहां अभाव है तो एक राष्ट्रभाषा का। भारत में किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया गया है। संविधान का अनुच्छेद 343, अंग्रेजी के साथ हिंदी (देवनागरी लिपि में लिखित) को संघ की आधिकारिक भाषा यानी भारत सरकार की अनुमति देता है। अनेक बार प्रयास किए गए कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिल सके लेकिन हर बार हिन्दी एक सीढ़ी नीचे ही रह गई। जबकि हिन्दी में विविध भाषाओं के शब्द समाहित हैं और यह देश के विविध भाषा-भाषियों के बीच एक अच्छी, सरल संपर्क की भाषा की भूमिका निभा सकती है। बस, आवश्यकता है हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा मिलने की। 

किसी भी देश या राष्ट्र द्वारा किसी भाषा को जब अपने राजकार्य के लिए भाषा घोषित किया जाता है तो उसे उसकी राष्ट्र भाषा कहा जाता है। भारतीय संविधान में कोई भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में उल्लिखित नहीं है। कई बार हिंदी को राष्ट्रभाषा कह दिया जाता हैै, लेकिन वास्तविकता यह है कि संविधान के सत्रहवें अध्याय में हिंदी को राजभाषा अर्थात राजकाज की भाषा के रूप में अंकित किया गया है। अन्य राज्यों या प्रदेशों की 22 भाषाओं को भी राज्य की राजभाषा के रूप में रखा गया है। भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा को लेकर देश में अनेक आंदोलन, प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं, फलतः देश की कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं पा सकी है। भारत की आधिकारिक भाषा, हिन्दी है और अंग्रेजी सहायक या गौण आधिकारिक भाषा है, भारत के राज्य अपनी आधिकारिक भाषा या भाषाएं विधिक रूप से घोषित कर सकते हैं। भारतीय संविधान और भारतीय कानून किसी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा के रूप में  परिभाषित नहीं करता है। उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान लागू किया जा रहा था, उस समय अंग्रेजी आधिकारिक रूप से केन्द्र और राज्य दोनो स्तरों पर उपयोग में थी। संविधान द्वारा यह परिकल्पित किया गया था कि अगले 15 वर्ष में अंग्रेजी को चरणबद्ध रूप से हटा कर विभिन्न भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी, को उपयोग में लाया जाएगा, लेकिन तब भी संसद को यह अधिकार दिया गया था कि वह विधिक रूप से उसके बाद भी अंग्रेजी का उपयोग हिन्दी के साथ केन्द्र स्तर पर और अन्य भाषाओं के साथ राज्य स्तर पर चालू रख सकती है।

भारतीय संविधान द्वारा, 1950 में, देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया। यदि संसद द्वारा तुष्टिकरण वाला निर्णय नहीं लिया जाता, तो 15 वर्षों बाद अर्थात 26 जनवरी, 1965 को अंग्रेजी का उपयोग आधिकारिक कार्यों के लिए समाप्त होना था। लेकिन अहिन्दी-भाषी राज्यों में विरोध की लहर चली। परिणामस्वरूप संसद द्वारा आधिकारिक भाषा अधिनियम के तहत आधिकारिक कार्यों के लिए अंग्रेजी के उपयोग को हिन्दी के साथ-साथ 1965 के बाद भी जारी रखने को स्वीकृति दी गई। परिणामस्वरूप, भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जबकि 22 आधिकारिक भाषाएं हैं। 

पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगों को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी। बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’

पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं। स्वतंत्र भारत में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’

हिन्दी के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमने वह वातावरण निर्मित होने दिया है जहां अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दे कर ही इस बुनियादी बाधा को दूर किया जा सकता है। हिन्दी लोकप्रिय भाषा तो है ही, बस, एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाए अर्थात् हिन्दी राष्ट्रभाषा बन जाए तो वह दुनिया में देश की भाषाई पहचान बन सकती है।
               --------------------------
(दैनिक सागर दिनकर में 14.09.2020 को प्रकाशित)
#दैनिक #सागर_दिनकर #शरदसिंह #हिन्दीदिवस #SagarDinkar #DrSharadSingh #HindiDiwas2020 #HindiDiwas

Thursday, September 10, 2020

कोरोना संक्रमण के विस्फोटक आंकड़ों के लिए कौन है जिम्मेदार? - डॉ. शरद सिंह, दैनिक जागरण में प्रकाशित



दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा विशेष लेख "कोरोना संक्रमण के विस्फोटक आंकड़ों के लिए कौन है जिम्मेदार?" 🚩


❗हार्दिक आभार "दैनिक #जागरण"🙏
....................................................

 

कोरोना संक्रमण के विस्फोटक आंकड़ों के लिए कौन है जिम्मेदार? 
   - डॉ. शरद सिंह

    कोरोना संक्रमण के विस्फोटक आंकड़ों के लिए कौन है जिम्मेदार - सरकार, अनलाॅक या हम खुद? जो आंकड़े पहले विस्फोट तक पहुंचे थे, वे अनलाॅक 4.0 में महाविस्फोट में जा पहुंचे हैं। लाॅकडाउन और कर्फ्यू लगा कर सरकार सख़्ती करती रहती तो हम इसे उसका तानाशाही रवैया कहते। सरकार ने अपने नागरिकों के विवेक पर भरोसा किया और क्रमशः अनलाॅक करते हुए आज उस चरण में पहुंचा दिया जहां से व्यापार, शिक्षा, यात्रा आदि एक बार फिर गतिमान हो सकते हैं। लेकिन बदले में हम सरकार को नहीं बल्कि खुद अपने आपको दे रहे हैं संक्रमण के विस्फोटक आंकड़े। यह लिखने का मकसद सरकार के अनलाॅक की प्रक्रिया की समीक्षा करना या उसे क्लीनचिट देना नहीं है, बल्कि मकसद है इस बात की गंभीरता को महसूस कराने का कि हमारे अपने लोग जो लापरवाहियां कर रहे हैं, वह हम पर ही भारी पड़ेंगी। ‘‘हमें कछु न हुइये!’’ की ढिठाई का नतीज़ा हमारे सामने है।
सागर जिले को ही लीजिए, 8 सितम्बर को कोरोना संक्रमण ने रिकार्ड तोड़ दिया। अभी तक  एक दिन में एक साथ सर्वाधिक 51 मरीज पॉजिटिव निकले। जिले में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़कर 1358 हो गई है। वहीं 72 लोगो की मौत हो चुकी है। बाजार का आलम यह है कि कोरोनाकाल के पहले जिस तरह फुटपाथ पर अतिक्रमण कर के दूकानें लगाई जाती थीं, ठीक उसी तरह लगाई जाने लगीं हैं। इन दूकानों को दोपहर में हटवाया जाता है तो शाम तक वे फिर यथास्थान पहुंच जाती हैं। इनके बीच खरीददारों की भीड़। न कोई सोशल डिस्टेंसिंग और न कोई सुरक्षा उपाय। एक ग़ज़ब की ढिठाई देखी जा सकती है। सागर शहर में ही जहां विगत 10 अप्रैल तक मात्र एक कोरोना पाॅजिटिव था, वहां आज संक्रमण के आंकड़े जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, वे चिंतित करने वाले हैं।

        यहां साझा करना जरूरी समझती हूं उस व्यक्ति की पीड़ा जो कोरोना संकट की ग़िरफ्त में है। शायद उसके अनुभवों से कुछ सबक लिए जा सकें। वह व्यक्ति हैं मेरे फेसबुक मित्र - देवेन्द्र कुमार पाण्डेय। वाराणसी में रहते हैं। प्रत्यक्ष भेंट कभी नहीं हुई। उनकी फेसबुक वाॅल से साभार उनकी 7 सितम्बर की पोस्ट यहां दे रही हूं- ‘‘पिछला एक सप्ताह कठिन मानसिक यातना वाला गुजरा है। पूरा घर कोरोना पॉजिटिव हो गया। घर से दूर रहने के कारण मैं बच गया। अभी सभी घर में ही आइसोलेशन में हैं। घर सील है। बनारस में रहकर भी मैं घर नहीं जा सकता। घर से थोड़ी दूर रहकर परिवार को दवा, भोजन की व्यवस्था कर रहा हूं। अब सभी के हालत में सुधार दिख रहा है। थोड़ी राहत मिली है तो पोस्ट साझा करने की हिम्मत कर रहा हूं। उम्मीद है कि अब सब ठीक होगा। 15 अगस्त को नाना बना था। सभी बारी-बारी से हॉस्पिटल आ-जा रहे थे। सिजेरियन ऑपरेशन था। अस्पताल में 9 दिन रुकना पड़ा। मेरा पुत्र जो होली से 15 अगस्त तक कभी घर से बाहर नहीं निकला, वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा, वह भी अस्पताल गया था और 2,3 दिन जग गया। वहीं कहीं या आने-जाने में संक्रमित हो गया। पहले तो बुखार आया, दूसरे दिन सूंघने की क्षमता खतम हो गई। डॉक्टर ने तुरंत कोरोना टेस्ट की सलाह दी। 2 दिन बाद जब तक उसका रिपोर्ट आता सभी में वही लक्षण आने लगे। श्रीमतीजी भयंकर सावधानी रखती थीं। मैं दूसरे शहर से सप्ताह में एक या दो दिन के लिए घर आता तो मुझे अलग कमरे में कोरेन्टीन कर देतीं। बाकी सब आपस मे हिले मिले रहते थे। बीच मे एक दो सप्ताह तो घर भी नहीं जाता था कि जब वहां जाकर कैद ही होना है तो जाने से भी क्या फायदा! परिणाम यह हुआ कि मैं बच गया और सभी संक्रमित हो गए। मेरा बचना भी अच्छा रहा। मैं सबकी देखभाल कर पा रहा हूं। मैं भी संक्रमित हो जाता तो कौन मदद करता? सरकारी हॉस्पिटल के ऊपर इतना बोझ है कि वहां सब भगवान भरोसे हैं। प्राइवेट हॉस्पिटल  इतने मंहगे हैं कि फीस पूछ कर ही हिम्मत जवाब दे जाती है। कुछ ईश्वर की कृपा और कुछ आप लोगों की दुआएं कि अब लगता है मुसीबत टल जाएगी। सबसे कष्ट में 20 दिन के बच्चे को लेकर बड़ी बिटिया है। यह बीमारी जो है सो है, सबको पता ही है लेकिन मेरा अनुभव यह रहा कि इसमें मानसिक संतुलन भी डगमगाने लगता है। पड़ोसी दूरी बनाकर आपका हाल पूछते हैं। मुसीबत में साथ नहीं देते। कुछ तो हाल पूछते भी डरते हैं...कहीं मदद लेने घर में आ गया तो? आपके मित्रों, रिश्तेदारों में ही कोई आपके साथ खड़ा हो सकता है। यह बीमारी बड़ी घातक है। सब कुछ सही रहा, ईश्वर की कृपा रही, होम आइसोलेशन में ही आप स्वस्थ हो गए तो भी आपको एक कठिन मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है।...कोरोना हो ही न इसी में सबकी भलाई है। ईश्वर से प्रार्थना है कि यह कष्ट किसी को न सहना पड़े।’’ 

        वाकई ऐसी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पीड़ा से किसी को न गुज़रना पड़े। इसलिए सावधानी में ही सुरक्षा है। चुनाव और त्यौहार हमारे सामने हैं। संक्रमण के आंकड़ें घटाना या बढ़ाना हमारे अपने हाथ में है। हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। यदि हम सावधानी रखेंगे तो संक्रमितों के आंकड़ों का विस्फोट थम जाएगा वरना कोरोना  के महाविस्फोट की ख़बरें आना शुरु हो ही गई हैं।
-------------------------
(दैनिक जागरण में 10.09.2020 को प्रकाशित)
 #शरदसिंह #DrSharadSingh #miss_sharad #DainikJagaran
#postforawareness #corona
#Unlock4.0
#Safety #दैनिकजागरण #कोरोना #अनलॉक4.0 #विस्फोटक_आंकड़े #सावधानी #सुरक्षा #postforawareness

Wednesday, September 9, 2020

चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष : टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के - डाॅ शरद सिंह

 


चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष :

      टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के      

      - डाॅ शरद सिंह

 

जिसने ‘युद्ध और शांति’, ‘अन्ना करेनीना’ और ‘पुनरुत्थान’ नहीं पढ़ा उसने विश्व साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानो पढ़ा ही नहीं। रूसी लेखक लियो टाॅल्सटाॅय ने अपनी महान कृतियों से विश्व के साहित्य पर तो अपनी छाप छोड़ी ही, वहीं अपने विचारों से महात्मा गांधी का मार्गदर्शन किया। विश्व की दो महान विभूतियों के बीच महत्वपूर्ण पत्राचार होता रहा जिसने वैश्विक वैचारिकता को जन्म दिया। देश की सीमाओं को पीछे छोड़ कर मानवता की दिशा में की गई यह पहलकदमी आज के अशांत विश्व को शांति का रास्ता दिखा सकती है।

 

9 सितंबर 1828 को जन्मे लियो टॉलस्टॉय उन कालजयी लेखकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समूचे विश्व के साहित्य को प्रभावित किया। उनका जन्म मास्को से लगभग 100 मील दक्षिण में स्थित रियासत यास्नाया पोलिनाया में एक संपन्न परिवार हुआ था। इनके माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अतः लालन-पालन इनकी चाची कात्याना ने किया। सन 1844 में लियो टॉलस्टॉय कजान विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और सन 1847 तक उन्होंने पूर्वीं भाषाओं और विधि संहिताओं का अध्ययन किया। ज़मींदारी के विवाद के कारणों से उन्हें स्नातक हुए बिना ही विश्वविद्यालय छोड देना पडा। सन 1851 में लियो टॉलस्टॉय कुछ समय के लिए सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कॉकेशस पर्वतीय कबीलों से होने वाली दीर्घकालीन लडाई में हुई, जहां अवकाश का समय वे लिखने-पढने में लगाते रहे। यहीं पर उन्हें अपनी प्रथम रचना ‘चाईल्डहुड’ (1852) में लिखी, जो ‘‘एलटी’’ के नाम ‘‘द कंटपोरेरी’’ नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उनकी लगभग सभी कृतियों ने प्रसिद्धि पाई लेकिन उनमें उनके उपन्यास ‘‘युद्ध और शांति’’ (1869), ‘‘अन्ना करेनिना’’ (1877), ‘‘पुनरुत्थान’’ (1899) ने वैश्विक कृतियां होने का इतिहास रच दिया। 


 
महात्मा गांधी टॉलस्टॉय के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। यद्यपि वे दोनों कभी एक-दूसरे से मिल नहीं सके किन्तु पत्रों के माध्यम से उनके बीच महत्वपूर्ण विचार विनिमय होता रहा। अपनी आत्मकथा में गांधी ने लिखा है कि टॉलस्टॉय की किताब ‘‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदइन यू’’ ने उनकी जिंदगी बदल दी। सन् 1894 में जर्मनी में प्रकाशित यह किताब स्वयं टाॅल्सटाय के देश रूस में प्रतिबंधित हो कर दी गई थी क्योंकि इसमें ईसाईत को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया था जो धर्मान्ध सत्ताधारियों को पसंद नहीं आई। टॉलस्टॉय की इस किताब को गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जोहानिसबर्ग से डरबन की ट्रेन यात्रा के दौरान एक अक्टूबर 1904 को पढ़ी थी। वह इस किताब से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने एक अक्टूबर 1909 को ही टॉलस्टॉय को पत्र लिखा। यहां से आरम्भ हुआ टॉलस्टॉय और गांधी के बीच पत्राचार का सिलसिला।


टॉलस्टॉय ने अपने विचारों से चर्च की व्यस्थाओं पर जबरदस्त प्रहार किया था। टॉल्सटॉय ने लिखा कि ‘‘चर्च का इतिहास क्रूरतापूर्ण और भयावह है और ईसा के सिद्धातों के खिलाफ है। यह बात हर जगह, हर धर्म के लिए क्यों इतनी सटीक मालूम होती है? हर धर्म- नए या पुराने- के तथाकथित रक्षकों ने अपना-अपना दमन चक्र चलाया है। यूरोप और ईसाई धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा।’’ टॉलस्टॉय ने उपनिवेशवाद पर भी कड़ाई से लिखा। उन्होंने लिखा कि ‘‘एक इंसान का दूसरे के लिए सबसे बड़ा उपहार है ‘शान्ति’ और फिर भी यूरोप के ईसाई देशों ने अपने मातहत लगभग तीन करोड़ लोगों के भाग्य का फैसला हथियारों से किया है।’


हिंसा का उत्तर अहिंसा से देने का रास्ता भी उन्होंने ईसा के उपदेशों से ही सुझाया कि ‘‘तुम अपने पडोसी से झगड़ो मत, और न ही हिंसा का सहारा लो। किसी और को पीड़ा देने से अच्छा है खुद पीड़ित हो जाओ और बिना किसी प्रतिरोध के हिंसा के सामना करो।’’ उनके इस सुझाव का महात्मा गांधी के विचारों पर गहरा प्रभाव डाला। गांधी जी के अहिंसावादी विचारों को इससे दृढ़ता मिली और आगे चल कर गांधी जी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन चलाया। गोपाल कृष्ण गोखले गांधी के राजनैतिक गुरु थे तो टॉलस्टॉय उनके वैचारिक गुरु थे।


गांधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका का ट्रांसवाल सविनय अवज्ञा आंदोलन टॉलस्टॉय की विचारधारा से प्रभावित था। जिसकी चर्चा गांधीजी ने अपने टाल्सटाॅय को लिखे अपने पहले पत्र में की थी। इस पत्र के बारे में टॉलस्टॉय ने अपनी डायरी में लिखा था- ‘‘आज मुझे एक हिंदू द्वारा लिखा हुआ दिलचस्प पत्र मिला है।’’ इसके जवाब में उन्होंने गांधी को लिखा, ‘मुझे अभी आपके द्वारा भेजा गया दिलचस्प पत्र मिला है और इसे पढ़कर मुझे अत्यंत खुशी हुई। ईश्वर हमारे उन सब भाइयों की मदद करे जो ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं। ‘सौम्यता’ का ‘कठोरता’ से संघर्ष, ‘प्रेम’ का ‘हिंसा’ से संघर्ष हम सभी यहां पर भी महसूस कर रहे हैं। मैं, आप सभी का अभिवादन करता हूं।’’


गांधीजी ने उन्हें दूसरा खत 4 अप्रैल, 1910 में लिखा और साथ में अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ भी भेजा। गांधीजी ने आग्रह किया कि अगर उनका स्वास्थ्य ठीक हो तो किताब के बारे में अपनेे विचारों से अवगत कराएं। उन दिनों टॉलस्टॉय अस्वस्थ रहने लगे थे। टॉलस्टॉय ने 10 अप्रैल 1910 को अपनी डायरी में लिखा कि ‘‘आज मुझसे दो जापानी मिलने आये जो यूरोपियन सभ्यता की प्रशंसा किए जा रहे थे और वहीं मुझे एक हिंदू का पत्र और उसकी किताब मिली जो यूरोप की सभ्यता में कमियों को साफ-साफ उजागर करते हैं।’’


गांधीजी के पत्र के उत्तर में टॉलस्टॉय ने 24 अप्रैल 1910 को लिखा कि ‘‘मुझे आपका पत्र और किताब मिली। सत्याग्रह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही नहीं वरन, संपूर्ण विश्व के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण है।’’

गांधी 15 अगस्त 1910 को लिखे अपने अगले खत में टॉलस्टॉय को लिखा कि उन्होंने अपने साथी कालेनबाख के साथ मिल कर जोहनिसबर्ग में ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की है। गांधी जी के इन पत्रों ने और विचारों ने टॉलस्टॉय को गांधी जी की ओर आकर्षित किया। अब टॉलस्टॉय की डायरी में ‘गांधी’ शब्द कई बार आने लग था और वे उनके ट्रांसवाल के संघर्ष में काफी दिलचस्पी भी ले रहे थे। टॉलस्टॉय ने गांधीजी को अपना आखिरी पत्र 20 सितम्बर 1910 को लिखा। यह पत्र लम्बा होने के साथ-साथ मार्मिक भी था। पत्र में उन्होंने लिचाा के -‘‘अब जब मौत को मैं अपने बिलकुल नजदीक देख रहा हूं तो मैं कहना चाहता हूं जो मेरे जेहन में साफ- साफ नजर आता है और जो आज सबसे ज्यादा जरूरी है, और वह है - ‘निष्क्रय प्रतिरोध‘ (इसे आप ‘सत्याग्रह’ भी कह सकते हैं) जोकि कुछ और नहीं बल्कि प्रेम का पाठ है। प्रेम इंसान के जीवन का एकमात्र और सर्वोच्च नियम है और यह बात हर इंसान की आत्मा भी जानती हैय और अगर इंसान किसी गलत अवधारणा को न माने, तो शायद वह इसे समझ सकता है। इसी प्रेम की उद्घोषणा सभी संतों ने की है फिर वह चाहे भारतीय हो, चीनी हो, यहूदी हो, यूनानी हो या रोमन हो। जब प्रेम में बल का प्रवेश हो जाता है तो फिर वह जीवन का नियम नहीं रह पाता और हिंसा का रूप धारण कर लेता है और ताकतवर की शक्ति बन जाता है।’’


20 नवम्बर, 1910 को टॉलस्टॉय ने अंतिम सांस ली। टॉलस्टॉय की मृत्यु के समाचार से गांधी जी को बहुत ठेस पहुंचीं। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा कि ‘‘मुझको तो अभी बहुत सीखना था उनसे। काल के क्रूर हाथों ने मुझसे मेरा पथ-प्रदर्शक छीन लिया। इस पीड़ा से उबरने के लिए मैंने कुछ समय एकांत में बिताया।’’

यदि विभिन्न देशों के बीच भौगोलिक विवाद त्याग कर दुनिया के सभी देश परस्पर वैचारिक विचार-विमर्श करें तो युद्ध, हिंसा और अशांति के दरवाजे़ आसानी से बंद हो सकते हैं। यही तो संदेश था टॉलस्टॉय का।

 

                -------------------------   

(दैनिक सागर दिनकर में 02.09.2020 को प्रकाशित)


#दैनिक #सागर_दिनकर #शरदसिंह #चर्चाप्लस #DrSharadSingh #miss_sharad  #CharchaPlus #SagarDinkar #युद्धऔरशांति #अन्नाकरेनीना #पुनरुत्थान #टॉलस्टॉय #वैचारिकगुरु #महात्मागांधी #MahatmaGandhi #Tolstoy #AnnaKarenina #WarAndPeace #Resurrection #TolstoyFarm #SouthAfrican #HermannKallenbach #PostForAwareness


Friday, September 4, 2020

बुंदेली व्यंग्य | लाईव ने भए तो कछु न भए | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित

पत्रिका समाचारपत्र ने आज से एक नया कॉलम आरम्भ किया  है- #पत्रिका_व्यंग्य । इसकी शुरुआत मेरे #बुंदेली_व्यंग्य से की गई जिसके लिए मैं #पत्रिका की हृदय से आभारी हूं। तो ये है मेरा बुंदेली व्यंग्य...
----------------------
बुंदेली व्यंग्य
लाईव ने भए तो कछु न भए
     - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

        आज भुनसारे हमाए मोबाईल पे कक्का ने फोन करो। हमने देखो, जो का! कक्का तो वीडियो कॉलिंग कर रये। हमने ने उठाई। काए से के हम ऊ टेम पे पगलूं घांई दिखा रए हते। ने तो कंघी करी हती, ने कछु मेकअप-सेकअप करो रओ। अब भला पगलूं घाईं वीडियो पे तो आ न सकत ते। हमें फोन उठात ने देख उन्ने दस-बारा बार घंटी दे मारी। मनो मिस्डकॉल को रिकॉर्ड बना रये होएं। हमने जल्दी-फल्दी बाल ऊंछे। क्रीम-श्रीम लगाई। तनक अच्छी-सी सकल बना के हमने कक्का को कॉलबेक करो। बे तो मनो उधारई खाए बैठे हते। कहन लगे,‘‘इत्ती देर काए लगा दई बिन्ना? का कर रई हतीं?’’
‘‘कछु नई कक्का, चाय-शाय बना रई हती। हाथ भिड़ो हतो सो फोन ने उठा सकी।’’ हमने बहानो दओ।

‘‘खैर छोड़ो, तुम तो जा बताओ के तुम लाईव कबे हो रईं ?’’ कक्का ने पूछी।
‘‘का कै रये कक्का? हम कौन बढ़ा गए, जे लाईव तो हैं तुमाए आंगरे।’’
‘‘अरे, जे लाईव नई, हम तो सोसल मीडिया की बात कर रये। काए से के ई टेम पे तो हमाए लाने फुरसतई नईं मिल रई, लाईव कविताई करे से। आजई की ले लेओ अबई दस बजे से एक लाईव आए, फेर बारा बजे से दूसरो लाईव, तीसरो चार बजे से, चौथे रात आठ बजे और...’’
‘‘बस-बस कक्का, आप तो जे बताओ के आप अनलाईव कबे रहत हो?’’
‘‘बिन्ना, जोई तो कहात है आपदा में अवसर। तुम सोई अवसर को लाभ उठा लेओ। बो का कहात आए बहती गंगा में हाथ धो लेओ। काए से के ई टेम पे सोसल मीडिया पे जो लाईव ने भओ ऊकी ज़िन्दगी मनो झंड आए। तुमे सोई लाईव होने चइये। कहो तो आज दुपारी वारी गोष्ठी में तुमाओ नाम जुड़वा दओ जाये। तुमाई सोई तनक पूछ परख बढ़ जेहे। औ हओ, लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिल जेहे। काए से के जा तो हमने तुमें पैलऊं बताई नई के लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिलत है। हमें तो अब लों सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल गए हैं।’’ कक्का ने बताई।
‘‘सो, आपको ड्राईंगरूम तो प्रमाणपत्रन से भर गओ हुईए। दीवारन पे जांगा बची के नई?’’
‘‘अरे नईं! दीवारन पे जांगा काए ने बचहे, प्रमाणपत्र कोनऊ कगदा पे नईयां, बे तो ऑनलाईन आंए। हम उन्हें सोसल मीडिया पे भेजत रहत हैं। तुमे सोई मिलहें, तुम लाईव रओ करे।’’ कक्का ने समझाई।
‘‘हओ कक्का, भली कहीं! जिन्दा होबे को सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल जाएं, सो ऊमें का बुराई? बाकी, मनो एक लाईव सर्टीफिकेट के लाने तो लोगन खों सौ-सौ पापड़ बेलने पड़त हैं। दफ्तरन के चक्कर लगाबे पड़त हैं।’’ हमने हंस के कही।
‘‘तुम तो और! अरे, तुमसे तो कछु कहबो-सुनबो फिजूल आए।’’ कक्का ने फोन काट दओ और हमने लाईव होने को मौका गवां के मनो आपदा में अवसर गवां दओ। बस, हम तभई से मरे-डरे से फील कर रये हैं, मनो लाईव ने भए तो कछु न भए।
             ---------------------------
(पत्रिका में 04.09.2020 को प्रकाशित)
#DrSharadSingh #miss_sharad #डॉसुश्रीशरदसिंह #पत्रिका #बुंदेली #बुंदेलीव्यंग्य #व्यंग्यलेख #बुंदेलीसाहित्य #बुंदेलखंड #जयबुंदेलखंड #लेख #patrikaNewspaper #BundeliSatire #satire #BundeliLitrature #Bundelkhand