Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
प्रवासी मजदूरों की काम पर वापसी :
कौन समझेगा दर्द इनका ?
- डाॅ शरद सिंह
कोरोना लाॅकडाउन के दौरान मई की चिलचिलाती गर्मी में जो प्रवासी मजदूर नंगे सिर, पैदल महानगरों से अपने घरों के लिए चल पड़े थे, उनमें से जो सकुशल घर पहुंचे वे आज फिर महानगरों की ओर लौट रहे हैं। इस बार सब पैदल नहीं हैं। ट्रेन, ट्रक, बस, बैलगाड़ी, गुड्स कैरियर जो भी साधन मिल रहा है, भेड़-बकरियों की तरह उसमें भर कर लौट रहे हैं अपने अनिश्चित भविष्य की ओर। इस वापसी में उनका दर्द पूछने वाला कोई नहीं है, सिवाय चंद मीडिया कर्मियों के। वे अपने परिवार भरण-पोषण के लिए जूझ रहे हैं अपनी नियति से, जो उन पर थोपी गई है।
एनएच-26-ए रोड जिसे झांसी रोड भी कहा जाता है, अब यातायात के लिए पूरी तरह से खोली जा चुकी है। इसी एनएच-26-ए रोड पर पिछले कुछ दिनों से ऐसी कई मालवाहक मिनी ट्रकें दिखाई दे जाती हैं जिसमें लोग ठसाठस भरे हुए दिखाई देते हैं। मोटी रस्सियों से बांध कर इन मिनी ट्रकों का पीछे का हिस्सा सुरक्षित बना दिया जाता है जिससे कोई मजदूर ट्रक के पीछे के हिस्से से गिर न जाए। उन ओव्हर लोडेड मिनी ट्रकों के पीछे के हिस्से में ठूंस-ठूंस कर भरे हुए मजदूरों में से किनारे की ओर खड़े मजदूर अपने हाथ, अपनी टांगे उन रस्सों से बाहर लटकाए हुए होते हैं। यह दृश्य देख कर ऐसा लगता है जैसे पशुओं को निर्दयतापूर्वक मिनी ट्रकों में भर कर ले जाया जा रहा हो। ये वही मजदूर हैं जो मई की चिलचिलाती गर्मी में महानगरों से अपने घरों की ओर लौटने को विवश कर दिए गए थे। जब वे घर जा रहे थे तब भी वे मुसीबतें झेल रहे थे। उन दिनों के दृश्य आज भी भुलाए नहीं जा सके हैं। सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौत के आंकड़े नहीं हैं लेकिन उन दिनों समाचारपत्रों में सुर्खियां बने वे समाचार गवाह हैं प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के।
Kaun Samjhega Dard Inka - Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 23. 09. 2020 . |
मई 2020 की घटना- दिल्ली की एक मिल में काम करने वाले चित्रकूट के निवासी पन्नालाल को जो भूख और अपमान दिल्ली में मिला उसने उसे दिल्ली छोड़ने को विवश कर दिया। पन्नालाल के मन में तड़प इस बात की है कि जहां वह दस साल से काम कर रहा था, अपने मालिक को लाभ पहुंचा रहा था, उसी मालिक ने हाथ खड़े कर दिए कि जब मिल ही बंद हो गई तो अब मैं तुम्हें पैसे कहां से दूं? मालिक का कहना भी दुरुस्त था लेकिन पन्नालाल को जब उसके उस 10 गुना 10 के कमरे से भी धक्केमार कर बाहर निकाल दिया गया जहां वह अन्य आठ मजदूरों के साथ रहता था, तब उसे अहसास हुआ कि अब तो वह बेरोजगार, बेघर और दाना-पानी से मोहताज हो गया है। वह मात्र चार सौ रुपए की अपनी कुल जमापूंजी के सहारे पैदल ही निकल पड़ा दिल्ली से चित्रकूट के लिए। यह स्थिति मात्र पन्नालाल की नहीं थी, अपितु उन हजारों मजदूरों की थी जो सड़कों, खेतों, जंगलों और रेल की पटरियों के रास्ते अपने घरों की ओर निकल पड़े थे।
एक और मजदूर, जिसका नाम रामबलि था। वह मुंबई के पालघर जिले में एक ठेकेदार के टोल नाके पर मजदूरी करता था। मुंबई से निकले अन्य मजदूरों की भांति रामबलि भी अपने घर सिद्धार्थनगर, उ.प्र. के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। मुंबई से मध्यप्रदेश के बंडा तहसील तक की यात्रा उसने अपार कष्ट सहते हुए भी सफलतापूर्वक तय कर ली थी। लेकिन बंडा से गुजरते समय वह तेज धूप की मार नहीं सह सका और अचानक गिर पड़ा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। रिपोर्ट के अनुसार रामबलि की मौत डीहाइड्रेशन के चलते हुई थी। उसकी खाली जेब से बस एक आधार कार्ड बरामद हुआ जो तेलगू़ भाषा में था। जो बयान कर रहा था कि पेट की खातिर रामबलि कभी आंध्र प्रदेश भी गया था।
दुर्दिन भोग रहे इन मजदूरों में से अनेक ऐसे थे कि रोटियां भी जिनकी जान नहीं बचा पाईं। औरंगाबाद की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना क्या कोई कभी भुला सकता है? हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए थक कर चूर मजदूर रेल की पटरी पर ही सो गए। तब उन्हें क्या पता था कि रेल आएगी और उन्हें कभी जागने नहीं देगी। वे रोटियां भी उनकी जान नहीं बचा पाएंगी जो उन्होंने अपने सीने पर बांध रखी थीं। क्षत-विक्षत शवों पर कपड़ों में बंधी हुई रोटियां। जिसने भी घटनास्थल पर पहुंच कर उन रोटियों को देखा, वह लौट कर अपने हलक से रोटी का निवाला नहीं उतार सका। उसके आंसू भी उसके गले को इतना तर नहीं कर सके कि निवाला हलक से उतर सके। इससे पहले 12 साल की एक लड़की की मौत की खबर सबने पढ़ी थी। जो तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव आ रही थी। करीब 150 किलोमीटर लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया था। जिन्हें भाग्यवश ट्रक जैसे साधन मिल गए उनके भी भाग्य ने उनका अधिक साथ नहीं दिया। जैसे मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले की सीमा पर एक बड़े सड़क हादसे में पांच मजदूरों की मौत हो गई थी और 11 मजदूर घायल हो गए थे। पुलिस के अनुसार आम के ट्रक में सवार 20 मजदूरों में से 11 मजदूर झांसी के रहने वाले थे जबकि 9 एटा के थे। सभी मजदूर हैदराबाद से अपने घर जाने के लिए निकले थे।
मेहनत कर के पेट भरने वाले मजदूरों की दशा उस समय भिखारियों और शराणार्थियों जैसी हो गई थी। वे समाजसेवी संगठनों एवं स्थानीय प्रशासनों की उदारता पर निर्भर थे। लेकिन टोटल लाॅकडाउन के उन दिनों में चैकिंग और क्वारंटाईन किए जाने को ले कर उनके मन में जो अविश्वास था, उसके चलते वे रेल की पटरियों और जंगलों के रास्ते चुन रहे थे। जिससे उन्हें हर तरह की सहायता से वंचित होना पड़ रहा था। खाली पेट, खाली जेब सैंकडों किलोमीटर पैदल सफर की असंभव सी दूरियां तय किया उन्होंने तो सिर्फ अपने हौसले के दम पर।
अपार कष्टों को उठा कर वे अपने गंाव, अपने घर पहुंचे। वे जानते थे कि वहां भी मुश्किलें हैं। यदि उनके गांवों में उनके लिए पर्याप्त काम होता तो वे पहले ही महानगरों कीे ओर क्यों पलायन करते? घर लौटने पर शुरू हुआ उनका एक अलग तरह का आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संघर्ष। जिनके लिए वे कमाने महानगरों में गए थे, उन्होंने ही बोझ समझा। ऐसे प्रकरण भी हुए जिनमें कोरोना संक्रमण की शंका से प्रवासी मजदूर को गांव में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जबकि उसे कोरोना नहीं था, किन्तु भूख और अन्य बीमारी से अपने गांव के बाहर तड़प-तड़प कर मर गया। उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी घटनाएं भी सामने आईं जिनमें संपत्ति को लेकर विवाद खड़े हो गए। यानी गांव में रह रहा जो भाई यह सोच कर प्रसन्न था कि उसका एक भाई कमाने महानगर चला गया है और अब कभी नहीं लौटेगा। जिससे सारी संपत्ति पर उसका अकेले का अधिकार हो जाएगा। लेकिन जब उसका भाई गिरता-पड़ता वापस आ गया तो उसके सही-सलामत आने की खुशी के बजाए उसे यह चिंता हुई कि संपत्ति का हिस्सेदार फिर लौट आया। इस प्रकार के विवाद पंचायतों तक पहुंचे। प्रवासियों के गांव लौटने के साथ पैतृक संपत्ति और खेती की जमीन को लेकर परिवार में झगड़े हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 20 मई तक संपत्ति विवाद को लेकर 80,000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। अब उस प्रवासी मजदूर की मानसिक दशा के बारे में सोचिए जिसने महानगर में रोजी-रोटी के लिए संघर्ष किया, अपना पेट काट कर अपने गांव अपने परिजन के पास पैसे भेजे, टोटल लाॅकडाउन के कारण नौकरी छूटने पर बेइंतहां कष्ट सहते हुए अपने गांव लौटा और वहां उसे सांत्वना के बजाए घोर परायापन मिला। नतीजा यह हुआ कि जिन मजदूरों ने वापसी के समय कसमें खाईं थीं कि वे अब कभी महानगरों की ओर रुख नहीं करेंगे, वे तीन माह बाद ही उन्हीं महानगरों की ओर लौट पड़े हैं। यह लौटना उनकी मजबूरी है। उनके गांव में उनकी आमदनी के लिए कोई स्थाई जरिया नहीं है, घर-परिवार में पूछ-परख नहीं है। भूख और उपेक्षा उन्हें फिर उसी दिशा में ले जा रही है जहां से वे संकट में निकाल बाहर कर दिए गए थे।
एनएच-26-ए रोड से गुजरते एक मिनीट्रक में भर कर जा रहे मजदूरों से मैं स्वयं तो बात नहीं कर सकी लेकिन मेरे एक परिचित पत्रकार ने बातचीत की। जिसकी जानकारी उसने मुझे फोन पर बताई। पानी पीने के लिए एक हैंडपंप के पास रुके मजदूरों से संयोगवश उस पत्रकार को बात करने का अवसर मिल गया। बातचीत में पता चला कि वे मजदूर ललितपुर, राठ और उरई के आसपास के हैं। वे सभी एक ठेकेदार के काम दिलाने के आश्वासन पर महाराष्ट्र जा रहे हैं। जगह का ठीक-ठीक नाम वे नहीं बता सके। वे यह भी नहीं बता सके कि उन्हें कौन-सा काम करने के लिए ले जाया जा रहा है और उन्हें काम के बदले कितना पैसा मिलेगा। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि ‘‘यह तो वहीं पहुंच कर पता चलेगा।’’ तब पत्रकार ने पूछा कि जिस ट्रक में बीस से तीस लोग आ सकते हैं उसमें तुम साठ-पैंसठ लोग भरे हो तो दिक्कत नहीं जा रही है? इतना लम्बा सफर क्या खड़े-खड़े तय करोगे?’’ मजदूरों ने कहा कि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। या तो वे इसी तरह ठस कर जाएं या फिर पैदल जाएं। इसलिए ठस कर जाना ही बेहतर है।
काश! इन्हें भी अभिनेता सोनू सूद की तरह कोई मददगार मिल जाता जो इनकी यात्रा, इनके काम, इनके रहने का बंदोबस्त करता। लेकिन इन लगभग अपढ़ मजदूरों के पास मदद के नाम पर हैं सरकारी एप्प, मदद की कुछ सरकारी योजनाएं और ठेकेदार का आश्वासन। कोविड-19 के कारण लॉक डाउन के दौरान महानगरों से अपने गांव वापस आए प्रवासी मजदूरों का महानगरों के लिए लौटने से पहले प्रधानमंत्री जन आरोग्य कार्ड बनाए जाने का प्रावधान है, ताकि वे कहीं भी रहें, पूरे परिवार को भविष्य में गंभीर तथा महंगे इलाज के लिए परेशान न होना पड़े। अनलॉक के बाद रोजगार की आस में प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहरों में वापस पहुंच रहे हैं। ग्रामीण इलाकों से राजधानी दिल्ली में काम की तलाश में दोबारा लौटने वाले लोग बसों में भरकर पहुंच रहे हैं और बस अड्डे पर प्रवासियों के पहुंचने के बाद उन्हें लाइन में लगने को कहा जाता है जिसके बाद उनका रैपिड कोविड-19 टेस्ट होता है। जो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें क्वारंटीन सेंटर भेज दिया जाता है। दिल्ली के अंतर-राज्यीय बस टर्मिनस में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पहुंचना जारी है। वे दोबारा रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंच रहे हैं। वे सस्ते मास्क या गमछे से अपना चेहरा ढंके रहते हैं। जबकि देश में संक्रमण दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है।
मई माह में हुए प्रवासी मजदूरों के उस सामूहिक पलायन को कई विशेषज्ञ नेे विभाजन के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा। लेकिन आज एक बार फिर जो पलायन हो रहा है, गांव से महानगरों की ओर उस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है। गोया अब प्रवासी मजदूरों के दर्द से कोई नाता ही न बचा हो।
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(दैनिक सागर दिनकर में 23.09.2020 को प्रकाशित)
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