Dr (Miss) Sharad Singh |
घातक है राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन
- डाॅ शरद सिंह
राजनीति में दलों का गठबंधन आम बात हो चली है लेकिन जब राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन हो जाए तो अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बिगड़े बोलों ने मर्यादाओं की बोली लगा रखी है। छुटभैये नेता ही नहीं वरन देश की ऊंची कुर्सियों पर बैठे नेता भी अपना भाषाई स्तर गिराने से नहीं चूकते हैं। चुनावों के दौरान यह स्तर रसातल की ओर जाने लगता है। कम से कम राजभाषा मास के समापन के समय इस विषय पर चिंता करना जरूरी है कि हम जिन नेताओं से भाषा के उत्थान एवं विकास में सहयोग चाहते हैं, उनकी अपनी भाषा अर्थात् राजनीतिक अरोप-प्रत्यारोप वाली भाषा अभी और कितना गिरेगी और उसे कैसे रोका जा सकता है?
चुनावों का समय आते ही अब यह सोच कर सिहरन होने लगती है कि न जाने कितने अभद्र बोल इन कानों को सुनने पड़ेंगे। चाहे आमचुनाव हों या उपचुनाव, नेताओं के बिगड़े बोल राजनीति की गरिमा को चकनाचूर करने से नहीं चूकते हैं। यह एक चलन बनता जा रहा है कि नेता चाहे किसी भी पार्टी के हों गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करने के बाद माफी मांग लेते हैं। पार्टी के साथी नेता गाली देने वाले नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेते हैं। भारत की राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। चाहे मंच हो या टेलीविज़न पर डिबेट का कार्यक्रम हो चुभती हुई निर्लज्ज भाषा का प्रयोग आम हो गया है। भारतीय राजनीति में आज किसी भी पार्टी के लिए यह नहीं कहा जा सकता है इस पार्टी ने भाषा की गरिमा को बनाए रखा है। समय-समय पर और चुनाव के समय देश की सभी पार्टियों ने भाषा की गिरावट के नए-नए कीर्तिमान रचे हैं। राजनीति में मौजूद महिलाएं सबसे पहले इसका शिकार बनती हैं। उन पर अभद्र बोल बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी उस समय यह भूल जाते हैं कि वह महिला उस समाज का अभिन्न हिस्सा है जिसमें वह स्वयं रहता है। राजनीतिक वर्चस्व की लालसा के साथ अब जुड़ गया है मीडिया में बने रहने का जुनून। ‘‘बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ’’ वाले सिद्धांत को अपनाते हुए कुछ नेता जानबूझ कर, इरादतन अपने विपक्षी के चरित्र पर ऐसे लांछन लगाने लगते हैं जिसके पलटवार की सौ प्रतिशत संभावना रहती है। जाहिर है कि कोई भी व्यक्ति अपने चरित्र पर कीचड़ उछाला जाना पसंद नहीं करता है। फिर यदि वह व्यक्ति एक नेता के रूप में सार्वजनिक जीवन से जुड़ा हो तो किसी भी प्रकार की चारित्रिक अवमानना उसे उकसाने का ही कार्य करेगी। इसी मनोविज्ञान का लाभ उठाते बिगड़े बोल बोलने वाले बिगड़े बोल बोलते रहते हैं। इससे उन्हे मनचाहा लाभ यह मिलता है कि वे मीडिया की सुर्खियों में बने रहते हैं।
सन् 2019 में हुए चुनावों को ही लें, तो लोकसभा चुनाव 2019 के प्रचार के दौरान कुछ उम्मीदवार अपने बिगड़े बोल के चलते सुर्खियों में बने रहे। इन्होंने चुनावी रैलियों में या सोशल मीडिया पोस्टों या मीडिया के सवालों के जवाब में विवादास्पद टिप्पणियां कीं। इनमें हर दल के नेता शामिल रहे। पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक कई उम्मीदवारों ने अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया। राजनीतिक विश्लेषकों ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘सन् 2019 का चुनाव व्यक्तिगत हमलों, विषाक्त चुनाव प्रचार और दलों-नेताओं के हर तरह की मर्यादा को ताक पर रख देने के लिए जाना जाएगा।’’ जनता से जुड़े मुद्दे गायब रहे। सारी बहस आरोप-प्रत्यारोप पर टिकी रही और खुद को दूसरे से बेहतर बनाने पर खत्म हो गईं। इससे पहले के चुनावों में एक योगी या एक आजम खान होते थे जिन्हें हम ‘‘फ्रिंज एलीमेंट’’ कहके खारिज कर देते थे। इंतेहा इस बार रही कि मोर्चा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने संभाल लिया था। इससे चैतरफा गिरावट आई। बड़े राजनेताओं ने रास्ता दिखाया और छोटे व नए लोगों ने इसको सफलता का सूत्र मान लिया। अखबार, टीवी और सोशल मीडिया इस तरह की अभद्र भाषा का प्रचारक और विस्तारक बना।
अगर पन्ने पलटे जाएं तो यह देखने में आएगा कि पिछले कुछ वर्षों में चुनावी अभियानों के दौरान न पद का लिहाज किया गया और न ही उम्र का ख्याल रखा गया और न ही भाषा की मर्यादा रखी गई। राजनीति की गलियों में गालियांे और सड़कछाप शब्दों की धूम बढ़ती गई है। कुछ नेता तो बिगड़े बोल बोलने के लिए ही जाने जाते हैं। वहीं, कुछ नेता ऐसे हैं जिनसे अपशब्द की आशा नहीं थी लेकिन उन्होंने भी भाषाई नैतिकता को ताक में रखने में हिचक नहीं दिखाई। समाजवादी पार्टी के आजम खान और भाजपा के गिरिराज सिंह जैसे राजनेता अपने बड़ेबोलेपन तथा भाजपा की प्रज्ञा सिंह ठाकुर और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार जैसे नेता अपने आपत्तिजनक बयानों से लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे। वर्ष 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले में आरोपी प्रज्ञा ठाकुर भोपाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ीं। उन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बताकर सात चरण के लोकसभा चुनाव के अंतिम दौर में एक तीखी बहस छेड़ दी थी। ठाकुर के इस बयान पर कांग्रेस ने कहा था कि ‘‘शहीदों का अपमान करना भाजपा के डीएनए में है’’।
सपा नेता आजम खान के कथित बोल ने तो मर्यादा की सारी हदें ही लांघ दीं थीं। उनके ‘अंडरवियर’ वाले विवादित बयान के बाद देश में खासा बवाल मच गया था। आजम खान के अलावा चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और बसपा सुप्रीमो व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के विवादित बयानों को ले कर भी उन पर कुछ समय के लिए उन के चुनाव प्रचार करने पर प्रतिबंध की घोषणा की। इसके बाद जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि- ‘‘हम कह सकते हैं कि चुनाव आयोग ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया। उस ने आचार संहिता तोड़ने वालों पर काररवाई की। लगता है आयोग हमारे आदेश के बाद जाग गया है।’’ लेकिन लगता है कि नेता फिर भी नहीं जागे हैं। सोशल मीडिया में राहुल गांधी को ले कर जितना मजाक उड़ाया जाता है उसमें मर्यादा की धज्जियां उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं रहती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ कांग्रेसी नेता ही अपशब्द का निशाना बनते हैं, पिछले चुनावों के दौरान कांग्रेसी नेताओं द्वारा भाजपा नेताओं को अपशब्द कहे गए। एक ओर जब यह अपेक्षा रखी जाती है कि राजनीति में अच्छे चाल, चरित्र के लोग आएं लेकिन दूसरी ओर भाषाई स्तर की गिरावट को देखते हुए ऐसा लगता है मानो यह आगाह किया जा रहा हो कि जिसमें अभद्रता झेलने की दम हो वही राजनीति में आए। पिछले चुनाव से पहले उर्मिला मातोंडकर पर ध्यान नहीं दिया गया था लेकिन इस बाॅलीवुड हीरोइन ने जैसे ही से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की घोषणा की वैसे ही उन्हें निशाना बना कर अभद्र लैंगिक शब्दों वाले हमले किए गए।
चुनावी रणनीतिकार मानते हैं कि दो विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा नेताओं के बिगड़े बोल चुनाव प्रचार का ही एक हथकंडा हो सकता है जिस में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हामी होती है। मगर सवाल यह भी है कि क्या भारतीय राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि वोट की खातिर नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाए? देश की राजनीति अगर इतनी गंदी हो गई तो लोकतंत्र की बात करने वाले सफेदपोश नेताओं को व्यक्तिगत छींटाकशी करने की स्वतंत्रता किस ने दे दी? इसके लिए उत्तरदायी कौन है, आम जनता या फिर वे शीर्ष नेता जिन पर दायित्व है अपने दल के नेताओं को दल के सिद्धांतों पर चलाने का। डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे ‘‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’’ इस संदर्भ में याद रखना होगा उस बात को जो पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘‘पोलिटिकल डायरी’’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।’’ अर्थात् जो भाषाई स्तर को गिराए और अभद्रता की सारी सीमाएं लांघने लगे, उसे मतदाता राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं ताकि राजनीति और अभद्र भाषा का अमार्यादित गठबंधन टूट सके।
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(दैनिक सागर दिनकर में 30.09.2020 को प्रकाशित)
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सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 02-10-2020) को "पंथ होने दो अपरिचित" (चर्चा अंक-3842) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
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"मीना भारद्वाज"
प्रिय मीना भारद्वाज जी,कृतज्ञ हूं कि आपने मेरे लेख को चर्चा मंच में शामिल किया है🙏
Deleteआपको हार्दिक धन्यवाद 💐
मैं अवश्य उपस्थित रहूंगी 🙏🌹🙏
इस लेख का शब्द-शब्द सच और केवल सच है । इस कटु सत्य को नेता तो देखने-सुनने-पढ़ने वाले नहीं । जनता ही देख-सुन-पढ़-समझ ले और अपना (अमूल्य) मत डालते समय याद रखे, यही कामना है । इस सत्य को संपूर्ण निष्पक्षता के साथ रेखांकित करने के लिए अभिनंदन शरद जी आपका ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जितेन्द्र माथुर जी 🙏
Deleteराजनीतिक क्षेत्र में भाषा के अवमूल्यन पर सभी लोग चिंतन करें, यही मेरा प्रयास है।
इस लेख का शब्द-शब्द सच और केवल सच है । इस कटु सत्य को नेता तो देखने-सुनने-पढ़ने वाले नहीं । जनता ही देख-सुन-पढ़-समझ ले और अपना (अमूल्य) मत डालते समय याद रखे, यही कामना है । इस सत्य को संपूर्ण निष्पक्षता के साथ रेखांकित करने के लिए अभिनंदन शरद जी आपका ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद 🙏
Deleteमेरे ब्लॉग्स पर सदा आपका स्वागत है 💐
जब सुशिक्षित-संस्कारवान नेताओं का आगमन होंगा तभी नीति और व्यवहार का सवाल उठेगा !
ReplyDeleteसटीक।
ReplyDeleteवाह शरद जी, सदैव की भांति आपने सही प्रश्न उठाए कि क्या भारतीय राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि वोट की खातिर नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाए? देश की राजनीति अगर इतनी गंदी हो गई तो लोकतंत्र की बात करने वाले सफेदपोश नेताओं को व्यक्तिगत छींटाकशी करने की स्वतंत्रता किस ने दे दी?...ये तो हमें ही सोचना होगा
ReplyDeleteवाह !बेहतरीन 👌👌यथार्थ को क़लम से कसा है आपने हर शब्द कुछ प्रश्न उडेलता ।
ReplyDeleteवाह क्या बात! बेहद खूबसूरत रचना।
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