Wednesday, September 9, 2020

चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष : टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के - डाॅ शरद सिंह

 


चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष :

      टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के      

      - डाॅ शरद सिंह

 

जिसने ‘युद्ध और शांति’, ‘अन्ना करेनीना’ और ‘पुनरुत्थान’ नहीं पढ़ा उसने विश्व साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानो पढ़ा ही नहीं। रूसी लेखक लियो टाॅल्सटाॅय ने अपनी महान कृतियों से विश्व के साहित्य पर तो अपनी छाप छोड़ी ही, वहीं अपने विचारों से महात्मा गांधी का मार्गदर्शन किया। विश्व की दो महान विभूतियों के बीच महत्वपूर्ण पत्राचार होता रहा जिसने वैश्विक वैचारिकता को जन्म दिया। देश की सीमाओं को पीछे छोड़ कर मानवता की दिशा में की गई यह पहलकदमी आज के अशांत विश्व को शांति का रास्ता दिखा सकती है।

 

9 सितंबर 1828 को जन्मे लियो टॉलस्टॉय उन कालजयी लेखकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समूचे विश्व के साहित्य को प्रभावित किया। उनका जन्म मास्को से लगभग 100 मील दक्षिण में स्थित रियासत यास्नाया पोलिनाया में एक संपन्न परिवार हुआ था। इनके माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अतः लालन-पालन इनकी चाची कात्याना ने किया। सन 1844 में लियो टॉलस्टॉय कजान विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और सन 1847 तक उन्होंने पूर्वीं भाषाओं और विधि संहिताओं का अध्ययन किया। ज़मींदारी के विवाद के कारणों से उन्हें स्नातक हुए बिना ही विश्वविद्यालय छोड देना पडा। सन 1851 में लियो टॉलस्टॉय कुछ समय के लिए सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कॉकेशस पर्वतीय कबीलों से होने वाली दीर्घकालीन लडाई में हुई, जहां अवकाश का समय वे लिखने-पढने में लगाते रहे। यहीं पर उन्हें अपनी प्रथम रचना ‘चाईल्डहुड’ (1852) में लिखी, जो ‘‘एलटी’’ के नाम ‘‘द कंटपोरेरी’’ नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उनकी लगभग सभी कृतियों ने प्रसिद्धि पाई लेकिन उनमें उनके उपन्यास ‘‘युद्ध और शांति’’ (1869), ‘‘अन्ना करेनिना’’ (1877), ‘‘पुनरुत्थान’’ (1899) ने वैश्विक कृतियां होने का इतिहास रच दिया। 


 
महात्मा गांधी टॉलस्टॉय के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। यद्यपि वे दोनों कभी एक-दूसरे से मिल नहीं सके किन्तु पत्रों के माध्यम से उनके बीच महत्वपूर्ण विचार विनिमय होता रहा। अपनी आत्मकथा में गांधी ने लिखा है कि टॉलस्टॉय की किताब ‘‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदइन यू’’ ने उनकी जिंदगी बदल दी। सन् 1894 में जर्मनी में प्रकाशित यह किताब स्वयं टाॅल्सटाय के देश रूस में प्रतिबंधित हो कर दी गई थी क्योंकि इसमें ईसाईत को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया था जो धर्मान्ध सत्ताधारियों को पसंद नहीं आई। टॉलस्टॉय की इस किताब को गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जोहानिसबर्ग से डरबन की ट्रेन यात्रा के दौरान एक अक्टूबर 1904 को पढ़ी थी। वह इस किताब से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने एक अक्टूबर 1909 को ही टॉलस्टॉय को पत्र लिखा। यहां से आरम्भ हुआ टॉलस्टॉय और गांधी के बीच पत्राचार का सिलसिला।


टॉलस्टॉय ने अपने विचारों से चर्च की व्यस्थाओं पर जबरदस्त प्रहार किया था। टॉल्सटॉय ने लिखा कि ‘‘चर्च का इतिहास क्रूरतापूर्ण और भयावह है और ईसा के सिद्धातों के खिलाफ है। यह बात हर जगह, हर धर्म के लिए क्यों इतनी सटीक मालूम होती है? हर धर्म- नए या पुराने- के तथाकथित रक्षकों ने अपना-अपना दमन चक्र चलाया है। यूरोप और ईसाई धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा।’’ टॉलस्टॉय ने उपनिवेशवाद पर भी कड़ाई से लिखा। उन्होंने लिखा कि ‘‘एक इंसान का दूसरे के लिए सबसे बड़ा उपहार है ‘शान्ति’ और फिर भी यूरोप के ईसाई देशों ने अपने मातहत लगभग तीन करोड़ लोगों के भाग्य का फैसला हथियारों से किया है।’


हिंसा का उत्तर अहिंसा से देने का रास्ता भी उन्होंने ईसा के उपदेशों से ही सुझाया कि ‘‘तुम अपने पडोसी से झगड़ो मत, और न ही हिंसा का सहारा लो। किसी और को पीड़ा देने से अच्छा है खुद पीड़ित हो जाओ और बिना किसी प्रतिरोध के हिंसा के सामना करो।’’ उनके इस सुझाव का महात्मा गांधी के विचारों पर गहरा प्रभाव डाला। गांधी जी के अहिंसावादी विचारों को इससे दृढ़ता मिली और आगे चल कर गांधी जी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन चलाया। गोपाल कृष्ण गोखले गांधी के राजनैतिक गुरु थे तो टॉलस्टॉय उनके वैचारिक गुरु थे।


गांधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका का ट्रांसवाल सविनय अवज्ञा आंदोलन टॉलस्टॉय की विचारधारा से प्रभावित था। जिसकी चर्चा गांधीजी ने अपने टाल्सटाॅय को लिखे अपने पहले पत्र में की थी। इस पत्र के बारे में टॉलस्टॉय ने अपनी डायरी में लिखा था- ‘‘आज मुझे एक हिंदू द्वारा लिखा हुआ दिलचस्प पत्र मिला है।’’ इसके जवाब में उन्होंने गांधी को लिखा, ‘मुझे अभी आपके द्वारा भेजा गया दिलचस्प पत्र मिला है और इसे पढ़कर मुझे अत्यंत खुशी हुई। ईश्वर हमारे उन सब भाइयों की मदद करे जो ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं। ‘सौम्यता’ का ‘कठोरता’ से संघर्ष, ‘प्रेम’ का ‘हिंसा’ से संघर्ष हम सभी यहां पर भी महसूस कर रहे हैं। मैं, आप सभी का अभिवादन करता हूं।’’


गांधीजी ने उन्हें दूसरा खत 4 अप्रैल, 1910 में लिखा और साथ में अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ भी भेजा। गांधीजी ने आग्रह किया कि अगर उनका स्वास्थ्य ठीक हो तो किताब के बारे में अपनेे विचारों से अवगत कराएं। उन दिनों टॉलस्टॉय अस्वस्थ रहने लगे थे। टॉलस्टॉय ने 10 अप्रैल 1910 को अपनी डायरी में लिखा कि ‘‘आज मुझसे दो जापानी मिलने आये जो यूरोपियन सभ्यता की प्रशंसा किए जा रहे थे और वहीं मुझे एक हिंदू का पत्र और उसकी किताब मिली जो यूरोप की सभ्यता में कमियों को साफ-साफ उजागर करते हैं।’’


गांधीजी के पत्र के उत्तर में टॉलस्टॉय ने 24 अप्रैल 1910 को लिखा कि ‘‘मुझे आपका पत्र और किताब मिली। सत्याग्रह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही नहीं वरन, संपूर्ण विश्व के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण है।’’

गांधी 15 अगस्त 1910 को लिखे अपने अगले खत में टॉलस्टॉय को लिखा कि उन्होंने अपने साथी कालेनबाख के साथ मिल कर जोहनिसबर्ग में ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की है। गांधी जी के इन पत्रों ने और विचारों ने टॉलस्टॉय को गांधी जी की ओर आकर्षित किया। अब टॉलस्टॉय की डायरी में ‘गांधी’ शब्द कई बार आने लग था और वे उनके ट्रांसवाल के संघर्ष में काफी दिलचस्पी भी ले रहे थे। टॉलस्टॉय ने गांधीजी को अपना आखिरी पत्र 20 सितम्बर 1910 को लिखा। यह पत्र लम्बा होने के साथ-साथ मार्मिक भी था। पत्र में उन्होंने लिचाा के -‘‘अब जब मौत को मैं अपने बिलकुल नजदीक देख रहा हूं तो मैं कहना चाहता हूं जो मेरे जेहन में साफ- साफ नजर आता है और जो आज सबसे ज्यादा जरूरी है, और वह है - ‘निष्क्रय प्रतिरोध‘ (इसे आप ‘सत्याग्रह’ भी कह सकते हैं) जोकि कुछ और नहीं बल्कि प्रेम का पाठ है। प्रेम इंसान के जीवन का एकमात्र और सर्वोच्च नियम है और यह बात हर इंसान की आत्मा भी जानती हैय और अगर इंसान किसी गलत अवधारणा को न माने, तो शायद वह इसे समझ सकता है। इसी प्रेम की उद्घोषणा सभी संतों ने की है फिर वह चाहे भारतीय हो, चीनी हो, यहूदी हो, यूनानी हो या रोमन हो। जब प्रेम में बल का प्रवेश हो जाता है तो फिर वह जीवन का नियम नहीं रह पाता और हिंसा का रूप धारण कर लेता है और ताकतवर की शक्ति बन जाता है।’’


20 नवम्बर, 1910 को टॉलस्टॉय ने अंतिम सांस ली। टॉलस्टॉय की मृत्यु के समाचार से गांधी जी को बहुत ठेस पहुंचीं। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा कि ‘‘मुझको तो अभी बहुत सीखना था उनसे। काल के क्रूर हाथों ने मुझसे मेरा पथ-प्रदर्शक छीन लिया। इस पीड़ा से उबरने के लिए मैंने कुछ समय एकांत में बिताया।’’

यदि विभिन्न देशों के बीच भौगोलिक विवाद त्याग कर दुनिया के सभी देश परस्पर वैचारिक विचार-विमर्श करें तो युद्ध, हिंसा और अशांति के दरवाजे़ आसानी से बंद हो सकते हैं। यही तो संदेश था टॉलस्टॉय का।

 

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(दैनिक सागर दिनकर में 02.09.2020 को प्रकाशित)


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