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Tuesday, March 26, 2019

लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग - डॉ. शरद सिंह in Patrika.com

Dr (Miss) Sharad Singh
मैं आभारी हूं 'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने बुंदेलखंड की अनूठी होलियों पर आधारित मेरे लेख को पोस्ट के रूप में आज 'Patrika.com' में प्रकाशित कर इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया ... 
 

इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं......(20.03.2019)


Dr Sharad Singh - Article in Patrika . com -लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग - डॉ. शरद सिंह

patrika.com

लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग


लट्ठ बरसाना में ही नहीं, बुंदेलखंड में भी पड़ते हैं... जानिए अनूठी होलियों में घुले परंपराओं के रंग

बुंदेलखंड के विभिन्न हिस्सों में होली के साथ जुड़ी है उसकी दिलचस्प कथा या किंवदंती... डॉ. शरद सिंह ऐसे ही रंगों से आपको रू-ब-रू करवा रही हैं...

डॉ. शरद सिंह . सागर। प्रकृति जब अपना रूप बदलती है और लाल, पीले फूलों से स्वयं को सजा लेती है तब बुंदेलखंड अंचल में होली की उमंग सिर चढ़कर बोलती है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुंदेलखंड में होली मनाने की अनूठी परम्पराएं सदियों से चली आ रही हैं। इन परंपराओं से कुछ का त्रेतायुग से संबंध माना जाता है तो कुछ का द्वापर युग से। बुंदेलखंड में भी कहीं होली पर लट्ठ मारे जाते हैं तो कहीं फूलों की कोमल होली खेली जाती है। कहीं धुरेड़ी के दूसरे दिन होली मनाई जाती है तो कहीं रंगपंचमी धुरेड़ी से बढ़कर मनाई जाती है। यह भी माना जाता है कि बुंदेलखड से ही होली जलाने और होली खेलने की शुरुआत हुई।
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दुनिया की पहली होली
बुंदेलखंड में माना जाता है कि होली का त्योहार बुंदेलखंड से ही आरम्भ हुआ। एक किंवदंती के अनुसार झांसी से लगभग 66 किमी दूर स्थित एरच नामक गांव से इसकी शुरुआत हुई। कथा के अनुसार एरच कभी राजा हिरण्यकशिपु की राजधानी हुआ करता था। भगवान विष्णु के भक्त बालक प्रहलाद को एरच में ही होलिका अपनी गोद में लेकर उसे जलाकर भस्म करने को बैठी थी, किन्तु विष्णु के चमत्कार से बालक प्रहलाद सही-सलामत बच गया और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। इसके बाद ही होलिका दहन की परम्परा आरम्भ हुई जो धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गई। एरच में होली के त्योहार को मनाने के लिए एक महीने पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं और गर्व के साथ होली जलाई और खेली जाती है।
latth maar holi festival in bundelkhand

पुनावली कलां की लट्ठमार होली

बरसाने की 'लट्ठमार' होली विश्व विख्यात है, लेकिन बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर 'लट्ठमार' होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। एक लट्ठमार होली का संबंध हिरण्यकशिपु की कथा से ही है। झांसी जिले के रक्सा विकासखंड के पुनावली कलां गांव की लट्ठमार होली बरसाने से ज्यादा रोचक होती है। यहां महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठमार लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती है। यह पुरुषों के लिए चुनौती के समान होता है। जो भी पुरुष इस पोटली को पाने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरण्यकशिपु के समय होलिका विष्णुभक्त प्रहलाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुनकर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में "लट्ठमार होली" का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
latth maar holi festival in bundelkhand

कुंडौरा गांव की लट्ठमार होली
बुंदेलखंड में हमीरपुर (उप्र) के कुंडौरा गांव में भी लट्ठमार होली खेली जाती है। यहां रंगों की होली एक नहीं, बल्कि दो दिन होती है। होलिका दहन के ठीक अगले दिन महिलाएं होली खेलती हैं और उसके बाद दूसरे दिन पुरुष होली खेल पाते हैं। पहले दिन की होली में महिलाओं का जोर चलता है। इस दिन पुरुष अपने घर से निकलने से हिचकते हैं। जो पुरुष घर से बाहर नजर आ जाता है उसे महिलाओं के लट्ठ की मार का सामना करना पड़ता है। इसलिए रंगवाली होली के पहले दिन वे महिलाओं से बचकर रहते हैं। दूसरे दिन वे महिलाओं के साथ मिलकर होली खेल पाते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक रोचक कथा है। कथा के अनुसार ग्राम कुंडौरा में कभी एक रसूख वाला व्यक्ति हुआ करता था जिसका नाम था मेहर सिंह (या मेंबर सिंह)। एक बार होली के त्योहार पर जब गांव के राम-जानकी मंदिर में फाग गाई जा रही थी। उसी समय मेहर सिंह ने आपसी रंजिश में मंदिर में ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उसने वहां उपस्थित लोगों को भी धमकाया। क्योंकि उसे संदेह था कि मंदिर में उसके दुश्मन को पनाह दी गई थी। इस घटना से डर कर गांव वालों ने होली का त्योहार मनाना छोड़ दिया। वर्षों तक गांव में होली नहीं मनाई गई। तब वहां की महिलाओं ने पहल की और वे हुरियारों की तरह होली खेलने लट्ठ लेकर निकल पड़ीं। तभी से कुंडौरा में लट्ठमार होली खेली जाने लगी।
बुंदेलखंड में प्रचलित होली की इन कथाओं और परम्पराओं के संदर्भ में कवि पद्माकर का यह कवित्त सटीक बैठता है जिसमें यहां की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा गया है...
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी।।
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीडि़ कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी।।

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सागर की फूलों की होली
बुंदेली महिलाएं सामान्य होली और लट्ठमार होली तो खेलती ही हैं किन्तु यहां कई स्थानों पर महिलाओं द्वारा फूलों की होली भी खेली जाती है। यह परम्परा कृष्ण-कथा से भले ही प्रभावित हो, किन्तु बुंदेली प्राकृतिक सौंदर्य इसका असली प्रेरक बनता है। मौसम बदलता है और इसके साथ ही पेड़ों की डालियां फूलों से लद जाती हैं। ये रंग-बिरंगे फूल होली के त्योहार में और भी रंग भर देते हैं। सुर्ख लाल टेसू और अमलतास मानो रंगों से खेलने की लिए आमंत्रित करते हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश अंचल के सागर नगर में गोपालगंज झंडा चौक स्थित श्रीनृत्यगोपाल मंदिर में होलाष्टक के अवसर पर राधा-कृष्ण की प्रतिमाओं को फूलों के गहनों से सजाया जाता है। वे फाग गीत और भजन गाती हैं और उल्लास से भर कर नृत्य करती हैं। इस दौरान वे महिलाएं राधा-कृष्ण के साथ फूलों की होली खेलती हुई परस्पर एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करती हैं। इसके साथ ही वे सभी को अष्टगंध, चंदन व टेसू के फूलों से होली की शुभकामनाएं देती हैं। मथुरा वृंदावन की की भांति सागर में फूलों की होली की यह परम्परा शास्त्री परिवार के सौजन्य से कई वर्ष से अनवरत चल रही है।
कुलपहाड़ की फूलों की होली
महिलाओं द्वारा फूलों से होली खेलने की परम्परा उत्तरप्रदेश के बुंदेली अंचल कुलपहाड़ में भी है। कुलपहाड़ महोबा जिले में स्थित है। टेसू के फूलों की वर्षा और ईसुरी के गीतों के गायन के साथ यहां फूलों की होली खेली जाती है। जहां तक होली में गानों का प्रश्न है तो यहां परम्पराएं पीछे छूटती जा रही हैं। पहले समूचे बुंदेलखंड में ईसुरी रचित फागों को गाए बिना लोग होली नहीं खेलते थे। हुरियारे ईसुरी की फागों पर थिरकते थे। ढोलक व मंजीरे बजते थे। इसके अलावा परंपरागत फागों के गायक भी इस त्योहार पर पुरानी फागों को गाते थे। इन गीतों में किसानों, मजदूरों के जीवन का चित्रण होता था। खेती-किसानी की बातें होती थीं। इनमें छेड़-छाड़ के द्विअर्थी संवाद भी होते थे जो लोगों के मन को गुदगुदाते थे। ईसुरी अपनी फाग में कितनी सहजता से यह बात कहते हैं, जरा देखिए...
ऐंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर रानें।
सबखां लागौ रात जियत भर, जौ नई कभऊं बड़ानें।।
करियो काम घरी भर रै कैं,बिगर कछु नई जानें।
ई धंधे के बीच "ईसुरी" करत-करत मर जानें।।
बुंदेलखंड की परंपराओं के अनुरूप इनमें आल्हा-ऊदल व अन्य वीरों की गाथाएं होती थीं। मगर अब होली के गानों के नाम पर जगह-जगह डीजे पर बजते फिल्मी गाने बजते हैं। तथाकथित लोकगीतों और फिल्मी गानों के शोर तले कहीं दब गई हैं ईसुरी की फागें। ईसुरी की इन पंक्तियों का भाव-सौंदर्य अनूठा है...
दरस परस को है हरस हुलस को है।
फागुन को मास सखि, राग और रस को है।।
झांसी की दूज की होली
होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन अर्थात् पूर्णिमा को होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, एकम को धुरेड़ी यानी रंगों की होली खेली जाती है। लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजाकर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। लेकिन झांसी में आज भी अनेक लोगों द्वारा रंगों की होली एकम के बजाए दूज को खेली जाती है। इस संबंध में अलग-अलग मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार 21 नवंबर, 1853 को झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद वहां के राज की कमान रानी लक्ष्मीबाई के हाथों में आ गई थी। गंगाधर राव ने अपनी मृत्यु से पहले ही एक बालक दामोदर राव को गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। किन्तु अंग्रेजों ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिते हुए इस संबंध में एक फऱमान झांसी भेजा। चूंकि होली के दिन ही झांसी में अंग्रेजों का फरमान पहुंचा था कि वो लक्ष्मीबाई के गोद लिए हुए बेटे दामोदर राव को उनका उत्तराधिकारी नहीं मानते। इस फरमान से नाराज झांसी की रानी और वहां की जनता ने होली नहीं मनाई थी। बस तभी से यहां लोग धुरेड़ी को होली नहीं मनाते हैं। झांसी गजेटियर में भी इस फरमान का होली के दिन पहुंचने का उल्लेख मिलता है।
एक और मान्यता है कि होली के दिन ही झांसी के राजा गंगाधर राव व रानी के इकलौते पुत्र और झांसी के उत्तराधिकारी का स्वर्गवास हो गया था। इससे पूरा झांसी प्रदेश शोक में डूब गया और होली नहीं मनाई गई। जनता को शोक से उबारने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने दूसरे दिन सभी से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों के उत्साह को न दबाएं और होली खेलें। अपनी रानी के आग्रह पर लोगों ने दूसरे दिन होली खेली। उसी समय से झांसी में दूज के दिन होली खेलने की परम्परा चली आ रही हैं।
latth maar holi festival in bundelkhand

करीला की रंगपंचमी होली

बुंदेलखंड में होलिका दहन से पांच दिन तक होली की धूम रहती है। जितना उत्साह धुरेड़ी को रहता है उतनी ही पंचमी को भी देखा जा सकता है। रंगपंचमी को करीला नामक स्थान में एक अद्भुत आयोजन होता है। यूं तो अब प्रदेश शासन की ओर से भी मेले की व्यवस्था की जाती है किन्तु करीला का रंगपंचमी उत्सव प्राचीनतम माना जाता है। मध्यप्रदेश के अशोकनगर में स्थित चंदेरी नामक स्थान अपनी साडिय़ों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। इसी अशोक नगर से लगभग 75 कि.मी. दूर है ग्राम करीला। इस नन्हें से गांव को उसकी एक अनूठी परम्परा विशेष ख्याति दिलाई है। रंगपंचमी के अवसर पर इस छोटे से गांव में भीड़ उमडऩे लगती है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा की बेडिय़ा जाति की हजारों नृत्यांगनाएं यहां पहुंचकर खूब नाचती हैं। लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर यहां स्थित सीता माता के मंदिर में गुलाल अर्पित करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार श्रीराम द्वारा गर्भवती सीता का त्याग किए जाने के बाद करीला में ही ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। लव-कुश के जन्म पर प्रकृति प्रसन्न हो उठी थी। दिशाएं विविधरंगों से भर गई थीं और स्वयं अप्सराओं ने यहां नृत्य किया था। कहा जाता है कि अप्सराओं की इस नृत्य की इस परम्परा को बेडऩी नर्तकियां आज भी करीला में जारी रखे हुए है। मनौतियां पूरी होने पर भी श्रद्धालु मंदिर में गुलाल चढ़ाते हैं और रंग-गुलाल उड़ाते हुए बेड़नियों का नृत्य कराते हैं। यह भी माना जाता है कि इस मेले में आने से विवाहिता स्त्रियों की सूनी गोदें भर जाती हैं, जीवन में सुख समृद्धि आ जाती हैं और जिन लोगों की दुआएं यहाँ पूरी हो जाती हैं वे लोग राई नृत्य करवाते हैं। रंगपंचमी को करीला में धर्म, रंग, कला, आस्था और मान्यताओं का सुंदर मेल देखने को मिलता है।
इन अनूठी होलियों ने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक परम्परा को समृद्धि प्रदान की है और साथ ही यहां की सांस्कृतिक छटा को होली के अनूठे रंगों से भर दिया है।
- लेखिका डॉ. शरद सिंह साहित्यकार और समाजसेविका हैं।
शांतिविहार, रजाखेड़ी, सागर, मध्य प्रदेश

Thursday, March 7, 2019

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : ‘बैलेंस फॉर बेटर’ का आगाज़ हो बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाकों से - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... Patrika.com में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
Patrika.com' ने मेरे लेख " ‘बैलेंस फॉर बेटर’ का आगाज़ हो बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाकों से" को पोस्ट के रूप में आज 'Patrika.com'  में प्रकाशित कर इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया है। आप भी इस लिंक पर जा कर मेरा लेख पढ़ सकते हैं......

      - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                      
इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है-‘‘बैलेंस फॉर बैटर’’। थीम छोटी सी है लेकिन अर्थ व्यापक है- लैंगिक भेद को मिटाते हुए पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर दिए जाएं। सचमुच यह बहुत बड़ा कदम होगा यदि तीसरी दुनिया के कुण्ठित हो चले समाजों में दलित के रूप में जीने को विवश महिलाओं में आत्मसम्मान की भावना जगाई जा सके। चंद महिलाओं का फाईटर जेट उड़ाना या नमचीन उद्यमी बन जाना इस बात का द्योतक नहीं है कि देश की हर महिला सशक्त हो गई है और उसे समानता का दर्ज़ा मिल गया है। देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की अनेक संस्थाएं और सरकारें प्रयासरत हैं कि समाज में सि़्त्रयों और पुरुषों में समानता स्थापित हो सके। लेकिन कहीं तो गड़बड़ है जो इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक के समापन पर खड़े हो कर भी समानता का ही प्रयास करना पड़ रहा है।
Patrika.com - Balance for Better का बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाकों से हो आगाज - Dr Sharad Singh, 08 March 2019

महिला-प्रगति का सच 

वह कहावत है न कि चावल का एक दाना ही काफी होता है यह जानने के लिए कि चावल पका है या नहीं। इसी तरह देश में अमूमन महिलाओं की दशा को आंकने के लिए बुंदेलखंड में महिलाओं की दशा पर दृष्टिपात किया जा सकता है। वास्तविक दशा यह है कि बुंदेलखण्ड में अभी भी बहुत-सी महिलाएं शिक्षा से कोसों दूर हैं। जो साक्षर हैं उनमें भी बहुत-सी सिर्फ़ हस्ताक्षर करना जानती हैं, वह भी कांपती उंगलियों से। बुंदेलखण्ड में अभी भी महिलाओं को अपनी कोख पर अधिकार नहीं है। उनका मातृत्व उनका परिवार और परिवार के पुरुष तय करते हैं। नौकरी करने का निर्णय अधिकांशतः परिस्थितिजन्य होता है, भले ही उसके पीछे लड़की की अच्छी जगह शादी हो जाने का मंशा ही क्यों न हो। सेहत के मामले में आम भारतीय महिलाओं की भांति बुंदेलखंड की महिलाएं भी जागरुक नहीं हैं। अधिकतर महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों का पूरा ध्यान रखती हैं लेकिन स्वयं के पोषण और स्वास्थ्य के बारे में लापरवाही बरतती हैं। क्योंकि यही सिखाया गया है महिलाओं को सदियों से कि स्वयं को समर्पिता बनाए रखें। यहां यह भुला दिया जाता है कि एक कमजोर और बीमार स्त्री परिवार की बेहतर देखभाल नहीं कर सकती हैं। अधिकांश परिवारों में पुरुष सदस्य भी महिला सदस्य की सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं। बुंदेलखंड में महिलाएं और बालिकाएं आज भी पीने का पानी भरने के लिए सिर पर घड़े रख कर कई किलोमीटर चलती हैं। यह सच्चाई स्त्री-पुरुष समानता की तो कदापि नहीं हैं। यह सच्चाई तो समाज और हमारी मानसिकता के दोहरेपन को रेखांकित करती है। राजनीति में भी महिलाओं की ‘‘ईमानदार भागीदारी’’ बहुत कम है। ‘ईमानदार भागीदारी’ से आशय है कि वे रबर स्टैम्प बन कर नहीं बल्कि स्वनिर्णय के अधिकार सहित राजनीति में आने से है। जाहिर है कि इसमें पुरुषों को भी अपनी सदाशयता दिखाते हुए स्वयं के अधिकारों के लोभ पर काबू रखना होगा। बेशक़ यह समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण और निर्णायक कदम होगा।
महिला, औरत, वूमेन या कोई और सम्बोधन - किसी भी नाम से पुकारा जाए, महिला हर हाल में महिला ही रहती है और उसे महिला रहना भी चाहिए। प्रकृति ने महिला और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। यदि प्रकृति चाहती तो एक ही तरह के प्राणी को रचती और उसे उभयलिंगी बना देती। किन्तु प्रकृति ने ऐसा नहीं किया। संभवतः प्रकृति भी यही चाहती थी कि एक ही प्रजाति के दो प्राणी जन्म लें। दोनों में समानता भी हो और भिन्नता भी। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक बनें, प्रजनन करें और अपनी प्रजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाएं। पुरुष और महिला ने मिल कर जिस समाज को गढ़ा था, दुर्भाग्यवश, पुरुष उसका मालिक बनता चला गया और महिला दासी। इतिहास साक्षी है कि पुरुषों ने युद्ध लड़े और खामियाजा भुगता महिलाओं ने। जब महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने दमन का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पूरी दुनिया की औरतें संघर्षरत हैं किन्तु समानता अभी भी स्थापित नहीं हो सकी है। प्रयास निरन्तर किए जा रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी संगठन प्रयास कर रहे हैं लेकिन महिलाओं की अशिक्षा, अज्ञान और असुरक्षा आज भी उनके विकास में बाधा बनी हुई है। शिक्षा में कमी और हमारे रूढ़िगत सामाजिक ढांचे के कारण अब भी ग्रामीण भारत में लड़कियों को एक जिम्मेदारी या पराया धन माना जाता है। पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने की उम्र में उनका विवाह कर दिया जाता है। कई बार तो वे किशोरावस्था में ही मां भी बन जाती हैं। तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद अब भी 27 फीसदी लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से कम की आयु में हो जाता है।

समानता पाने के लंबा संघर्ष

समानता पाने का दुनिया की महिलाओं का यह संघर्ष एक शताब्दी से भी अधिक समय का है। सन् 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में प्रदर्शन करते हुए एक मार्च निकाला था। उनकी मांगें थीं - मतदान का अधिकार, काम के घंटे कम करने के लिए और योग्यतानुसार पुरुषों की तरह वेतन दिया जाए। इस प्रदर्शन के लगभग एक साल बाद 28 फरवरी 1909 को अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने महिला दिवस मानाने की घोषण की और अमेरीका में में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। दुनिया के इस पहले महिला दिवस ने मानो समूचे महिला जगत को प्रेरणा दी और सन् 1910 में जर्मनी की क्लारा जेटकिन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। क्लारा ने सुझाव दिया की दुनिया के हर देश की महिला को अपनी मांगे प्रकट करने और विचार साझा करने के लिए एक दिन तय करते हुए महिला दिवस मनाना चाहिए। क्लारा के इस सुझाव को 17 देशों की 100 से ज्यादा महिलाओं का समर्थन मिला और इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सुनिश्चित किया गया। उस समय प्रथमिक उद्देश्य था महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाना। इसके बाद, 19 मार्च 1911 को पहली बार आस्ट्रिया डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। सन् 1913 में अंतर्राट्रीय महिला दिवस के लिए एक सर्वमान्य तिथि घोषित की गई। यह तिथि है 8 मार्च।  अब हर वर्ष 8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।

दो तस्वीरें हैं महिलाओं की

प्रगति के हिसाब से समूची दुनिया की महिलाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर उन महिलाओं की है जो अपने साहस, अपनी क्षमता और अपनी योग्यता को साबित कर के पुरुषों की बराबरी करती हुई प्रथम पंक्ति में आ गई हैं या प्रथम पंक्ति के समीप हैं। दुनिया के उन देशों में जहां महिलाओं के अधिकारों की बातें परिकथा-सी लगती हैं, औरतें तेजी से आगे आ रही हैं और अपनी क्षमताओं को साबित कर रही हैं। चाहे भारत हो या इस्लामिक देश, औरतें अपने अधिकार के लिए डटी हुई हैं। वे चुनाव लड़ रही हैं, कानून सीख रही हैं, आत्मरक्षा के गुर सीख रही हैं और आम महिलाओं के लिए ‘आइकन’ बन रही हैं। औरत की दूसरी तस्वीर वह है जिसमें औरतें प्रताड़ना के साए में हैं और अभी भी संघर्षरत हैं। वैश्विक स्तर पर कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लैंगिक भेद पूरी तरह समाप्त हो गया हो।

महिलाओं के लिए ख़तरे भी बढ़े हैं

ग्लोबलाईजेशन ने महिलाओं के सामने जहां प्रगति के अनेक रास्ते खोले हैं, वहीं अनेक संकट भी खड़े कर दिए हैं। मानव तस्करी और इंटरनेट के जरिए ब्लेकमेलिंग सबसे बड़ा खतरा है। चाहे मोबाईल कैमरा हो या चेंजिंग रूम या बाथरूम में छिपा हुआ कैमरा महिलाओं लिए नित नए संकट खड़ा करता रहता है। अचानक या धोखे से तस्वीर खींच लिया जाना और फिर उसे इंटरनेट पर अपलोड कर देने की धमकी दे कर ब्लेकमेल करना प्रगति करती स्त्री की राह में एक ऐसी बाधा है जिससे स्वयं महिलाओं को ‘‘मी टू’’ जैसे कैम्पेन से जुड़ कर अपनी झिझक को तोड़ना होगा और काटना होगा उन जंजीरों को जो उन्हें ब्लेकमेल होने की मानसिकता से बांध देती हैं। वैसे स्त्री अस्मिता पर कैमरे के द्वारा हमले की घटनाओं का निरंतर बढ़ना चिन्ताजनक है। स्त्री अस्मिता के मामले में पूरी दुनिया संवेदनषील रहती है। कोई भी देष स्त्रियों की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे मामलों को रोकने के लिए जहां स्त्रियों की जागरूकता जरूरी है वहीं कठोर कानून भी आवष्यक हैं। त्वरित जांच और कड़ी सजा ही ऐसे अपराधियों के हौसले तोड़ सकती हैं।

आगाज़ हो पिछड़े इलाकों से

हमारे देश में भी संविधान द्वारा समान हक पाने के बावजूद आज भी स्त्रियां दोयम दर्जे पर हैं। यह स्थिति घर की देहरी से लेकर दफ्तर तक, हर जगह मौजूद है। हमारे देश में अनेक स्थानों पर महिलाओं को ना तो समान वेतन मिल रहा है और ना ही आर्थिक, राजनीतिक नेतृत्व में पर्याप्त प्रतिनिधित्व। इतना ही नहीं, अपने ही घर के भीतर भी उन्हें महिला होने के नाते कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस दोहरे रवैए के चलते वे आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। ‘‘बैलेंस फॉर बेटर’’ की थीम को सिर्फ़ कागजी नहीं वरन् वास्तविक व्यवहार में लाते हुए महिलाओं को समता का अधिकार दिया जाए तो समाज की तरक्की का रास्ता कोई नहीं रोक सकता है। थीम को साकार करने के लिए यह जरूरी है कि ‘‘बैलेंस फॉर बेटर’’ का आगाज़ हो महानगरों से नहीं बल्कि बुंदेलखंड जैसे देश के पिछड़े इलाकों से।
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Sunday, March 3, 2019

सेना पर गर्व... अपराधों पर शर्म...- डॉ शरद सिंह .. Patrika.com में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
Patrika.com' ने मेरे लेख "सेना पर गर्व... अपराधों पर शर्म..." को पोस्ट के रूप में आज 'Patrika.com'  में प्रकाशित कर इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया है। आप भी इस लिंक पर जा कर मेरा लेख पढ़ सकते हैं......

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