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Wednesday, April 23, 2014

राजनीति के समीकरण में महिलाओं का गणित


चुनावी संदर्भ पर विशेष ......
Dr Sharad Singh

मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के April 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख आप सभी के लिए ....
पढ़ें, विचार दें ....आपका स्नेह मेरा उत्साहवर्द्धन करता है.......
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वामा (प्रकाशित लेख...Article Text....)......
राजनीति के समीकरण में महिलाओं का गणित 
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

राजनीति के समीकरण में महिलाओं के गणित को हर बार इतनी चतुराई से रखा जाता है कि मानो चुनाव परिणाम आते ही यह गणित भी हल हो जाएगा। हर बार की तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में भी प्रत्येक राजनीतिक दलों ने अपनी जीत सुनिष्चित करने के लिए महिलाओं रिझाने का हर संभव प्रयास कर किया। किसी ने तैंतीस प्रतिषत आरक्षण का पुराना राग अलापा तो किसी ने रसोई गैस सिलेंडरों की सब्सिडी और गैर सब्सिडी संख्या के पासे फेंके। ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अपने दल के प्रति आकर्षित करने के लिए टी.वी. टॉकशोनुमा कार्यक्रम भी किए गए। कुल मिला कर निचोड़ यही कि प्रत्येक पार्टी की यह मंषा रही है कि महिलाओं के सारे के सारे वोट उनकी झोली में आ कर गिरें। पूरे के पूरे शत-प्रतिशत । लेकिन यही गणित टिकट वितरण के समय नहीं रहता है। चाहे 2004 का आम चुनाव हो या 2009 का, महिला उम्मीदवारों की संख्या पुरुष उम्मींदवारों से बहुत कम रही। यदि प्रत्याशी का चुनाव करने, वोट दे कर उन्हें सांसद या विधायक बनवाने की योग्यता महिलाओं में देखी जाती है लेकिन ऐसा लगता है कि महिला प्रत्याशी के मामले में यह विष्वास कहीं भटक जाता है।

स्वतंत्रता से पहले ही देश में पहली बार 1917 में महिलाओं को राजनीति में भागीदारी की मांग उठी थी, जिसके बाद वर्ष 1930 में पहली बार महिलाओं को मताधिकार मिला। हमारे देश में महिलाएं बेशक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन रही हैं, लेकिन राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में अधिक सुधार नहीं हुआ। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण विधेयक कुछ पार्टियों के रवैये के चलते सालों से लंबित पड़ा है। इससे ज्यादा दुख की बात है कि राष्ट्रीय दल भी 10.15 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देते हैं। 
एक समय था जब महिलाओं को सक्रिय राजनीति में आने नहीं दिया जाता था। इसलिए नहीं कि महिलाओं में राजनीति की समझ नहीं थी बल्कि इसलिए कि राजनीतिक गलियारों को महिलाओं के योग्य नहीं माना जाता था। निःसंदेह इक्कीसवीं सदी के आरम्भ तक परिदृश्य कहुत कुछ बदला। पंचायतों से ले कर संसद तक महिलाओं की पहुंच दिखाई देने लगी। मगर प्रश्न वही कि इन महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में कितना रहा... दस प्रतिशत, बीस प्रतिशत या तीस प्रतिशत। पंचायतों पंच, सरपंच के रूप में क्रियाशील दिखाई देने वाली महिलाओं के सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू में वे महिलाएं हैं जो अपने दम-खम से पंचायत के निर्णय लेती हैं और गांवों के विकास के ढांचे तैयार करती हैं। दुर्भाग्य से ऐसी महिलाओं का प्रतिशत बहुत ही कम है। अधिसंख्या उन महिलाओं की है जो -महिलाओं के लिए आरक्षित सीट- होने के कारण चुनाव में खड़ी कर दी गईं। परिवार के पुरुषों के दांवपेंच ने उन्हें जिताया और चुनाव जीतने के बाद वे एक बार फिर अपने घर की चैखट के भीतर सिमट कर रह गईं। इसके बाद उनके नाम से उनके -सरपंच पति- उनका काम सम्हालने लगे। जब भी निचले स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े सामने रखे जाते हैं तो उन आंकड़ों में यह विभाजनरेखा नहीं होती है। अतः जमीनी सच्चाई से परे ये सुनहरे आंकड़े राजनीति में महिलाओं की तरक्की के शंखनाद करते नज़र आते हैं।

भारत षासन के एक सर्वेक्षण के अनुसार आम चुनाव 2009 में महिलाओं की सबसे बड़ी संख्या 59 लोकसभा में आई थी, जबकि उसके पहले सदन में महिला सदस्यों की संख्या 45 थी। 15वीं लोकसभा में महिलाओं की सदस्यता 10.86 प्रतिशत थी और 13वीं लोकसभा भी 9.02 प्रतिशत सदस्यता के साथ इसके काफी करीब थी। 1996 से निचले सदन में सदैव कम से कम 40 महिलाएं चुनी जाती रही है। महिलाओं की सबसे कम संख्या लोकसभा में 1977 में थी जब मात्र 19 सदस्य ही निचले सदन में पहुंच पायी थी, जो कि लोकसभा की कुल सीटों का महज 3.50 प्रतिशत ही था। इसके अतिरिक्त इतिहास में और कोई दूसरा अवसर नहीं है जिसमें की महिलाएं 20 संख्या तक भी नहीं पुहंच पायी। महिलाओं के चुनाव लड़ने के संबंध में महिला प्रतिभागियों की सर्वाधिक संख्या 1996 के चुनाव में 599 थी जिसके बाद 2009 में 556 महिला उम्मीदवारों की संख्या और 2004 में 355 थी। यह 1980 की सातवीं लोकसभा थी जब महिला उम्मीदवारों ने 100 के आंकड़े को पार किया। उससे पहले महिला उम्मीदवारों की संख्या हमेशा 100 के नीचे ही रही थी। चुनाव लड़ने में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में काफी कम हैं। 9वें आम चुनाव तक महिलाओं की भागीदारी पुरूषों से 30 गुना कम थी। जबकि, 10वें आम चुनाव से इस भागीदारी में सुधार हुआ। 

राजनीति में महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व के न्यून आंकड़ों के पीछे कहीं राजनीति और अपराध की परस्पर भागीदारी तो जिम्मेदार नहीं है, इस प्रश्न को टटोलना भी जरूरी है। यदि विगत कुछ दशकों के पन्ने पलटे जाएं तो कए भयावह दृश्य आंखों के समाने उभरने लगता है। एक चेहरा उभरता है नैना साहनी का जो दिल्ली प्रदेश युवा कांग्रेस की महासचिव थी। नैना के पति सुशील शर्मा उसी दल में प्रदेश युवक कांग्रेस अध्यक्ष थे। सुशील शर्मा नैना को तंदूर में जलाने के अभियुक्त पाए गए। नैना की तरह सुषमा सिंह भी जघन्य अपराध की शिकार हुई। सुषमा सिंह को मगरमच्छ को खिला दिया गया था। इसी तरह मधुमिता शुक्ला, गीतिका शर्मा, पूर्णिमा सिंह, शहला मसूद आदि अनेक ऐसे नाम हैं जो राजनीति की सीढि़यां चढ़ ही रही थीं कि उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया गया। यह राजनीति का हिंसात्मक रूप ही है जो आम महिलाओं को राजनीति की ओर मुड़ने से संभवतः रोकता है। इसके परे वही दूसरा तथ्य कि राजनीतिक दलों में पुरुषों का वर्चस्व व्याप्त है। अपराधी प्रवृत्ति के पुरुषों को यह नागवार गुजरता होगा कि कोई महिला उनसे आगे कैसे बढ़ रही है। 
भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर होनी चाहिए लेकिन ऐसा तभी संभव है जब प्रत्याशी के रूप में भी महिलाओं की योग्यता पर उतनी ही विश्वास किया जाए जितना कि एक मतदाता के रूप में किया जाता है। 2014 के आम चुनाव में जिस तरह प्रत्येक दलों ने महिला मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया, उसी तरह प्रत्याशी का टिकट देते समय भी किया गया होता तो इस चुनाव में ही महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ गई होती। महिलाओं के हित में योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए सक्रिय राजनीति में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी आवश्यक है।

India Inside, April 2014-page-017