Thursday, November 30, 2023

बतकाव बिन्ना की | काय भैया हरों धुकधुकी हो रई के नईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

"काय भैया हरों धुकधुकी हो रई के नईं?" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
काय भैया हरों धुकधुकी हो रई के नईं?
        - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       कुल्ल दिनां बाद भैयाजी के घरे रौनक सी दिखानी। काय से के चुनाव के टेम पे तो बे ऐसे बिजी भए के मनो बे खुदई चुनाव में ठाड़े भये होंय। दो दिना से ऊंसई बदरा ऊंदें आएं। तनक-मनक बौछारें सी सोई पड़ गईं। मनो मावठे को पानी खेती के लाने सो अच्छो रैत आए पर जड़कारो सोई शुरू हो गओ कहाओ। खैर, बात हो रई हती भैयाजी की। पिछले कछू दिनां बे चुनाव के काम में बिजी रए। कोनऊं की केनवासिंग करी, तो कोनऊं के लाने झंडा टांगत फिरे। वोई टेम पे मोए एक दिना एक पार्टी को झंडा लगाउत दिखा गए रए। मैंने देखी के बे डंडा पे जोन झंडा बांध रए हते ऊपे पार्टी को निसान बनो हतो औ संगे निसान के नैचे अंग्रेजी में पार्टी को पूरो नांव लिखो हतो। मैने भैयाजी से पूछी के ‘‘काय भैयाजी, जोन जे मोहल्ला में आप जो झंडा लगा रए का इते इत्ते पढ़े-लिखे लोग आएं के जे पार्टी को नांव अंग्रजी में पढ़ लैंहें?’’
‘‘बे का पढ़ पाहें? जेई सो तो संगे निसान छापो गओ आए के लोग जे निसान देख के पैचान लेवें।’’ भैयाजी बोले हते।
‘‘मनो इते जे अंग्रेजी वारे झंडा भेजबे की जरूरतई का हती?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘को जाने? हमें तो लगत आए के जे उतई दिल्ली-मिल्ली से बन के आए हुइएं। ने तो इते होतो तो हिन्दी में लिखो जातो।’’ भैयाजी ने अपनी राय दई।
‘‘ठीक कओ आपने! मनो ऐसी पार्टी को का हुइए, मोय तो जे समझ में नई आ रई? जोन को इत्तई नई पतो के कोन सी जांगा पे कोन टाईप से प्रचार करो जाओ चाइए।’’ मैंने कई हती।
बाकी जा बात अब हो गई पुरानी। अब तो रिजल्ट को इंतजार आए। मैंने सोची के ई बारे में भैयाजी से तनक बतकाव करी जाए। सो मैं भैयाजी के घरे जा पौंची।
‘‘का हो रओ भैया जी?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘होने को का आए? कारवां सो कढ़ गओ अब गुबार की धूरा फांक रए।’’ भैयाजी तनक कविताई करत भए बोले।
‘‘सो अब का होबे जा रओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का मतलब?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मतलब जे, के जोन जे भैया हरें चुनाव में ठाड़े भए हैं, औ बैनजी हरें सोई, सबई की धुकधुकी हो रई हुइए के को जीतहे, को हारहे!’’ मैंने कई।
‘‘सो तो है! अभई परों बा एक उम्मींदवार मिले हतो। हमने उसे कई के आप तो जीत हो ई। सो बे कैन लगे के का पतो, जा जनता कोन खों चुनहे? मने उनको खुदई भरोसो सो नई दिखा रओ हतो के बे जीतहें के नईं। अब ऐसे में धुकधुकी सो हुइए ई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप को का लग रओ के कोन की बनहे सरकार? कछू उलटफेर हुइए का?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अब जे हमसे ने पूछो! जे सब के लाने बे टीवी वारे ई भौत आएं। बे सो सुभै से रात लों जेई अटकलें घालत रैत आएं के ई दफे बा आहे, ई दफे जा आहे। मनो बे वोट देबे वारन के पेट में सो घुसे बैठे जो उने सब पतो होय!’’ भैयाजी टीवी वारन पे भड़कत भए बोले।
‘‘अब बे ओरे बी का करें, उने सोई अपनी टीआरपी बढ़ाने रैत आए, सो बे ई टाईप के डिबेट कराउत आएं, एक्जिट पोल बताउत आएं औ मनो जोन सी बी नौटंकी करने परत है सो करत हैं। का करें, उने सोई अपनों पेट पालने परत आए।’’ मैंने टीवी वारन को पक्ष लओ।
‘‘तुमें बड़ी दया आ रई उन ओरन पे? औ बे जब खंडहर को रहस्य, भूत वारो कुआ जैसी रपट दिखात आएं सो तुमई गरियात आओ उनकों। बा सब बी तो बे अपनो पेट की खातिर दिखात आएं। तबे काय नईं आत दया तुमें उनपे?’’ भैयाजी को मौका मिल गओ मोरी टांग खिचाईं करबे को।
‘‘बा अंधविश्वास फैलाबे वारी बात आए। ऊको ई से काए जोड़ रए?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘काय ने जोड़ें? जो बा गलत सो जा गलत। औ जो जा सई, सो बा बी सई।’’ भैयाजी बहस करत भए बोले। आखिर चुनाव टेम पे नेता हरों के संगे फिरबे को कछू तो असर हुइए ई।
‘‘हऔ, चलो दोई सई औ दोई गलत। अब काय गिचड़ रए उन ओरन के नांव पे?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ सई कै रईं बिन्ना! उन ओरन को का? अपनी ड्यूटी बजाउत बेरा इते-उते की बतकाव करी, चिंचिंया-चिंचिंया के दो-चार खबरें सुनाईं औ फेर कोनऊं पब-फब में बैठ के दो-चार बाटलें चढ़ाईं औ घरे जा के पर रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे जो आप उन ओरन के बारे में बोल रए, जे कछू ज्यादा नईं हो गई?’’ मैंने भैयाजी खों टोको।
‘‘चलो छोड़ो! अपन ओरें सोई कां से कां पौंच गए? बात शुरू भई रई उम्मीदवारन से औ जा पौंची टीवी वारन लों। औ तुम बताओ के तुमाओ का चल रओ?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘मोरो का चलने? चलत तो उनकी आए जोन के पास लुटाबे खों पइसा होय, सोर्स-सिफारिश होय, उनसे सबई की अटकत होय! मैं सो ठैरी ऊंसई, सो मोरी का चलने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अरे, तुम तो इमोशनल भई जा रईं! हमने सो ऊंसई पूछी रई। हम तुमाओ दिल नईं दुखाओ चात्ते।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोय पतो आए। आपई ओंरे सो हो जो मोरो दुख-दरद समझत हो, ने तो बाकी के पास सो टेम लो नईयां के कभऊं हाल-खबर पूछ लेंवें।;’’ कैत भए मोय सांची में दुख सो लगो।
‘‘अरे, तुम काय दुखी हो रईं? जे दुनिया सो ऐसई चलत आए। इते कोनऊं खों कोनऊं की नईं परी। अभईं देखियो, तनक चुनाव को रिजल्ट तो आन देओ। जोन जे अपने उम्मींदवार के पांछू-पांछू फिरकी बने घूम रए हते, जो कऊं उनको उम्मीवार हार गओ, सो ऊके घरे झांकबे ने जाहें। जे जो अबे जैकारे लगात फिर रए हते, बे ऊसे हल्लो-हाय लों ने करहें। सो तुम अपनो जी ने दुखाओ। जोन को जो करने, सो करन दो।’’ भैयाजी मोय समझात भए बोले।
‘‘हऔ भैया! मैंने सोई गौर करी आए के कछू जने सो चुनाव टेम पे खाली प्रचार को पइसा खाबे खों आगे-आगे हो दिखात आएं। जो चुनाव हो गओ, सो बे सोई डकार लए बिगैर अपने घरे पर रैत आएं। आप सांची कै रए के बड़ी स्वारथ की दुनिया आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जे स्वारथ सोई राजनीति वारन ने ई अपन ओरन खों सिखाओ आए। उनको झूठ बोलत देख के अपन ओरें झूठ बोलबो सीख गए। उनको स्वारथपना देख के अपन ओरें स्वारथ की बतकाव करन लगें। जे राजनीति वारे सो आएं जो जात-धरम को भेद मिटाबे की जांगा भेद बढ़ात जा रए। पैले धरम की सल्ल रई औ अब जात-बिरादरी के सल्ल लों बात पौंचा दई। हमें सो जे सब अच्छो नईं लगत, मनो का करो जाए? एक हमाए सुधारे से सबरे थोड़ईं सुधरहें।’ भैयाजी सोई इमोशनल होत भए कैन लगे।
‘‘अब आप अपनो जी ने दुखाओ भैयाजी!’’ अबकी मैंने भैयाजी खों सहूरी बंधावे की कोशिश करी।
‘‘हऔ, हम तो जा सोचत आएं के कोनऊं जीते, मनो बा सबई के लाने अच्छो काम करे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ कछू ज्यादई उम्मींद नईं लगा रए आप?’’ मैंने भैयाजी खों टोंकी, ‘‘काय से के इते कोनऊं हमाम नोईं, इते तो खुल्ला घाट आएं ईमें सबई खुल्ला नहाऊत आएं। कोनऊं खों कोनऊं से शरम नोई। तभई तो ने तो पार्टी बदलत में देर लगत आए औ ने भ्रष्टाचार को कांड करे में कोनऊं शरम आऊत आए।’’
‘‘सांची कई। बाकी अब का सोचन लगीं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘सोच नई रई कछू! बाकी जो जी कर रओ के चुनाव में ठाड़े नेता हरों से जा के पूछो जाए के काय भैया हरों धुकधुकी हो रई के नईं?’’ मैंने मुस्का के भैयाजी से कई।
‘‘सो चलो, संगे चलत हैं! एकाध से तो पूछ ई सकत आएं।’’ कैत भए भैयाजी सांची में ठाड़े हो गए। मैंने बी सोची के चलों जा करबे में तनक मूड अच्छो सो हो जेहे। ऊंसई अबे तो नेता हरें फेर बी बतकाव कर लैंहें। औ जो कऊं एक बेरा जीत गए सो हम ओरन को मों देखबे को उनके पास टेम नई रैने। सो हम दोई निकर परे टीवी वारन घांईं चिटपिया सवाल धर के। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Tuesday, November 28, 2023

हमें उन सभी लोगों को याद रखना चाहिए जिन्होंने देश के प्रति अपना अवदान दिया है। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य अतिथि

" हमें उन सभी लोगों को याद रखना चाहिए जिन्होंने देश के प्रति अपना अवदान दिया है।" मुख्य अतिथि के रूप में मैंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा।
   अवसर था, 27.11.2023 को प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित समारोह में स्थानीय कवि श्री महेन्द्र खरे जी के काव्य संग्रह "भारत के महापुरुष एवं देशभक्ति गीत" के लोकार्पण का। 
      अध्यक्ष थे प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई के अध्यक्ष श्री टीकाराम त्रिपाठी जी विशिष्ट अतिथि  थे सागर कायस्थ महासभा के अध्यक्ष श्री शैलेंद्र श्रीवास्तव जी एवं गांधीवादी चिंतक श्री शुकदेव तिवारी जी। पुस्तक पर समीक्षात्मक आलेख का वाचन किया श्री आर पी मलैया जी तथा मनोज श्रीवास्तव जी ने। प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई के सचिव एड. पेट्रिस फुसकेले ने स्वागत भाषण दिया। संचालक थे डॉ सतीश पांडेय जी तथा संयोजक थे श्री मुकेश तिवारी। 
    लोकार्पण समारोह में कवि श्री वीरेंद्र प्रधान जी, श्री आशीष ज्योतिषी, श्री बसंत श्रीवास्तव आदि की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
  श्रीसरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय के सभागार में आयोजित इस समारोह की साझा कर रही हूं समारोह की कुछ तस्वीरें 😊
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पुस्तक समीक्षा | बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.11.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रो. बहादुर सिंह परमार द्वारा संपादित "चौकड़िया कलश" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास      
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - चौकड़िया-कलश
कवि        - लल्लूमल चौरसिया
संपादक     - प्रो. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक     - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, जी-508, गली नं. 17,विजयपार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 395/-
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बुंदेलखंड की साहित्यिक विधाओं में विविधता का अपरिमित सौंदर्य है। काव्य की अनेक विधाएं इस भू-भाग में पुष्पित-पल्लवित हुई हैं। इन्हीं में से एक विधा है चौकड़िया। जब बुंदेली काव्य की चर्चा आती है तो कवि ईसुरी का स्मरण सबसे पहले ताजा हो जाता है। ईसुरी ने चौकड़ियां लिखीं जो बहुत लोकप्रिय हुईं। कवि ईसुरी के बाद भी चौकड़िया विधा पर निरंतर काव्य सृजन होता रहा। कुछ प्रकाश में आया और कुछ अंधकार में ही छिपा रह गया। आमतौर पर पुस्तक के रूप में किसी भी सृजन के सामने आने में इच्छाशक्ति तथा आर्थिक स्थिति आड़े आ जाती है। यदि बात लोकभाषा में सृजन की हो तो लोकांचल में रहने वाले सर्जक प्रकाशन की प्रक्रिया की जानकारी न रखने के कारण उस ओर ध्यान ही नहीं देते हैं और उनका महत्वपूर्ण सृजन किसी डायरी, किसी पुस्तिका अथवा फुटकर पन्नों में रह जाने के कारण सुधि पाठकों तक नहीं पहुंच पाता है। इस दिशा में कई जागरूक व्यक्ति हैं जो अंधेरे में खोते जा रहे ऐसे तमाम सृजन को सामने लाने का अथक प्रयास कर रहे हैं। बुंदेलखंड अंचल में उनमें से एक प्रतिनिधि नाम है प्रो. बहादुर सिंह परमार का। दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा लिखा गया बुंदेलखंड का इतिहास जो कि बारह खंडों में है, उसे संपादित कर प्रकाशित कराने का श्रेय भी प्रो. बहादुर सिंह परमार को ही है। वे बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण एवं उन्नयन के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं। इसी क्रम में उन्होंने कवि लल्लूमल चौरसिया के काव्य संग्रह ‘‘चौकड़िया-कलश’’ को संपादित कर प्रकाशित कराया है। यह बुंदेली काव्य की चौकड़िया विधा को पुनः केन्द्र में लाने का सशक्त प्रयास है।
विद्वानों के अनुसार चौकड़िया में दो प्रकार के छंद प्रचलित हैं- ईसुरी छंद और टहूका छंद। दोनों ही छंद 16-12 में विधान में लिखे जाते हैं। यह छंद चार पद में ही लिखा जाता है, जिसके पदांत में तुक मिलाई जाती हैं। प्रथम पद के सोलह मात्रा की चौकड़ यति भी तुकांत में शामिल होती है। अर्थात् कवि को एक चौकड़िया लिखने में पांच तुकांते चाहिए। जिसमें एक बार प्रयोग की गई तुकांत दुबारा प्रयोग नहीं लाई जानी चाहिए, भले ही उसका अर्थ अलग हो। अंतिम पद में कवि के नाम/उपनाम के साथ एक कथ्य संदेश भी रहता है। यह माना जाता है कि चौकड़िया का आरम्भ ईसुरी ने किया किन्तु टहूका छंद के नाम से लिखी जाने वाली चौकड़िया भी बुंदेली अंचल में विद्यमान रही है जिसका आरम्भ लोकसृजन के रूप में है अतः यह कब शुरू हुई इस पर विद्वानों में मतभेद हैं।
संग्रह की भूमिका में प्रो. बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘ चौकड़ियां छंद बुंदेलखण्ड में अत्यधिक लोकप्रिय व प्रचलित छंद है। इसको ऊंचाइयां देने में बुंदेली त्रयी कवि ईसुरी, ख्यालीराम और गंगाधर व्यास प्रमुख हैं। इनके बाद लगातार बुंदेली कवियों द्वारा चौकड़िया छंद में रचनाएं लिखीं जा रही है, जिनमें प्रकाश जी, अवधेश, शिवाजी चौहान, अवध किशोर जड़िया, गोपालदास रूसिया, मोहनदास गुप्त, नर्मदा प्रसाद गुप्त ‘प्रसाद’, गुणसागर सत्यार्थी, शिवानंद बुंदेला, कुंजीलाल पटेल, प्रेमनारायण पाठक, लक्ष्मी प्रसाद गुप्त, प्रमोद कवि जैसे आदि अनेक कवियों की सुदीर्घ परम्परा है। इसी परम्परा में श्री लल्लूमल चौरसिया ने चौकड़िया छंद में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है, जो चौकड़िया कलश के रूप में आपके समक्ष है।’’
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, छतरपुर (म.प्र.) की अध्ययनशाला एवं शोध केन्द्र के हिन्दी के आचार्य प्रो. बहादुर सिंह परमार ने इस काव्य संग्रह के प्रकाशन के पूर्व की स्थितियों पर जानकारी देते हुए लिखा है कि ‘‘रचनाकार श्री लल्लूमल चौरसिया मेरी उच्च शिक्षा की प्रारंभिक नौकरी के समय शासकीय महाविद्यालय, बिजावर में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में साथ में कार्यरत रहें। तभी इनकी काव्य प्रतिभा से परिचय हुआ। समय गुजरता रहा लेकिन उनका संग्रह न आ सका। वृद्धावस्था के चलते उन्होंने पांडुलिपि मुझे सौंपी फिर भी प्रस्तुत संग्रह ‘चौकड़िया कलश’ का प्रकाशन बहुत दिनों से लंबित रहा। इनकी मूल रचनाओं का परिमार्जन अग्रज सुकवि गीतकार श्री सुरेंद्र शर्मा श्शिरीषश् द्वारा किया गया, उनकी स्वास्थ्यगत परेशानियों से उन्होंने मुझे निर्देशित किया कि इनका संपादन कर प्रकाशन करायें। आदेश को शिरोधार्य कर व्यस्तताओं के बीच प्रयास किया परिणाम आपके सामने है।’’
    कवि लल्लूमल चौरसिया का जन्म 30 दिसम्बर 1943 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के ग्राम पीपट में हुआ था। उन्होंने मध्यप्रदेश शासन के उचच शिक्षा विभाग में पुस्तकालयाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्ति पाई तथा आज भी वे साहित्य सृजन एवं चिंतन में लीन रहते हैं। उनकी काव्य प्रतिभा चौकड़िया छंद में मुखरित हुई है। उनकी चौकड़िया ईसुरी का चौकड़ियों से यदि इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। इनमें बुंदेली अंचल के लोकव्यवहार के सोंधेपन को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘वाँकी भूम बुन्देली न्यारी, हमें प्राण से प्यारी ’’ लिखते हुए कवि लल्लूमल  चौरसिया ने बुंदेलखंड की भौगोलिक विशेषताओं को अपनी चौकड़िया में बड़े मनोहारी ढंग से पिरोया है-
केन धसान नर्मदा जाके, जीवन की संचारी।
विन्ध्यवासिनी चित्रकूट की, महिमा पर बलिहारी ।।
सबसें भूमि बुन्देली प्यारी, विपत विड़ारन वारी।
कुदवा समाँ बसारा कुटकी, जुन्डी की बलिहारी ।।
पिसी जवा उर धान लठारा, काकुन तन हितकारी ।
छप्पन भोग लगाकें इनके, मिटवै निरसइ सारी।।

कवि चौरसिया की इन पंक्तियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है जिसमें उन्होंने राह चलती स्त्री के प्रति उद्दण्ड लोगों के रवैये को लक्षित किया है और ऐसे लोगों के लिए ‘‘फरचट्टा’’ शब्द का प्रयोग किया है। कवि के अनुसार ऐसे लोग अवसर की तलाश में रहते हैं और राह चलती स्त्रियों को घूरते रहते हैं। यदि इन्हें अवसर मिल जाए तो ये ‘‘साख में बट्टा’’ लगाने से नहीं चूकते हैं -
कऊँ कऊँ अँगुरिन की दुबीच सें, सामूँ कछू निहारें।
कझ्यक एक झलक खाँ ठाँड़े, पलक पाँवड़े डारें।।
गुइयाँ डारन लगौ दुपट्टा, नजरन लागे गट्टा ।
पीठ पछारुं चर्चा सोइ, करन लगे फरचट्टा ।।
देखत डारें लार गली में, मारें वाज झपट्टा।
तनक चूक में देखौ बिन्नू, लगै साख में बट्टा ।।

फिर इसी तारतम्य में वे उस प्रेम भावना की भी बात करते हैं जिसमें परिष्कार है। कवि चौरसिया ने श्रृंगार रस को भी बड़ी सुंदरता एवं सहजता से व्यक्त किया है। वे कुशलता पूर्वक प्रेयसी नायिका एवं प्रिय नायक के मनोभावों को वर्णित कर देते हैं, किन्तु कहीं भी सीमाएं नहीं लांघते हैं-
हरदम नैनन डोलत रातीं, रूप अनूप दिखातीं ।
बिना तार के तार जोर कें, कानन में बतयातीं ।।
पकर स्वाँस की डोर हृदय को, मन माफिक धड़कातीं।
यौवन आँच लहू खाँ दैकें, रग-रग खाँ फड़कातीं ।।
गुइयाँ जब ऐंगर आ जातीं, हँसतीं और हँसातीं।
तन मन के सारे कष्टन कों, छिन में तुरत भुलातीं ।।
सूने जीवन के मरुस्थल में, नौने फूल खिलातीं।
छणिक मिलन में पुनः मिलन की, फिर-फिर ललक बड़ातीं ।।

लल्लूमल चौरसिया उनका सृजन श्रृंगार रस तक सीमित नहीं है। उन्होंने समाज में व्याप्त व्यसनों पर भी लक्ष्य किया है। बुंदेलखंड में ग्रामीण अंचल में लोगों को प्रायः आर्थिक विपन्नता से जूझना पड़ता है। उस पर यदि घर के मुखिया को ही ‘‘दारू खोरी’’ अर्थात् शराब पीने की आदत हो जाए तो घर का सत्यानाश होना तय है। इसीलिए कवि ने ‘दारू खोरी’ न करने का संदेश देते हुए चौकड़ियां लिखी हैं-
दारु पीकें रोटी खावें, नाहक जिंस नशावें।
टोरत कौर हाँत के काँपत, तरकारी लुड़कावें ।।
झूमत कौर लगे डाँड़ी में, सब मों तुरत भिड़ावें।
खात-खात थारी पै लुड़कें, झबलन लार बहावें ।।

दारु पीवौ छोड़ौ सइयाँ, परों तुमारी पड्याँ।
खुखलौ भओ करेजौ जरकें, तन में धज रइ नइयाँ ।।
भर ज्वानी में चबुआ बैठे, बन गइ कमर धनुइयाँ।
खों खों करौ रात भर लेटे, तनक परत कल नइयाँ।।

जो तुम चाहौ नेक भलाई, नशा छोड़ दो भाई।
दारु पियें गलिन में गिरकें, होश हवास गँवाई।।
पाँव उठाकें कूकर मूतै, जग में होत हँसाई।
सात पुस्त की इज्जत छिन में, माटी में मिल जाई ।।

दारु होश हवास विगारै, बुद्धि भ्रष्ट कर डारै।
मद के अंधे बने भेड़िया, कुकरम करम विचारै ।।
बेटी-बहु वैन के रिश्ते, मद में सबई बिसारै।
लोक लाज मरजाद नशा में, मन से तुरत उतारै।।
- इतना व्यवहारिक वर्णन एवं चेतावनी भरा संदेश देती ये चौकड़ियां लोकव्यवहार में जागरूकता लाने में सहायक हैं। 
कवि चौरसिया ने देशद्रोहियों को भी निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है-
घर कौ भेदी भेद बताकें, छिन में लंका ढायें।
देश बचावें इन द्रोहिन खाँ, सूली पै लटकायें।।

वस्तुतः विगत कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य में काव्य की पाश्चात्य शैली एवं अरबी-फारसी शैली ने अपना प्रभाव जमा लिया है। यह सच है कि शैलियों की विविधता एवं बहुसंख्यात्मकता साहित्य को समृद्ध करती है किन्तु अपनी मौलिक एवं देशज शैली को भूल कर या त्याग कर किसी अन्य शैली में रम जाना अपनी जड़ों से कटने के समान है। काव्य की देशज शैलियां हमेशा संबंधित अंचल की पहचान लिए हुए होती हैं। इस पहचान की पुनस्र्थापना की दिशा में ‘‘चौकड़िया-कलश’’ का प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण कदम है और निश्चत ही इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। हां, इस हार्डबाउंड पुस्तक का मूल्य रुपये 395/- बहुत अधिक है अतः इसे पेपरबैक में कम मूल्य पर भी प्रकाशित किया जाना चाहिए, तब जन-जन तक पहुंचने का इसका असली उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा।
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Saturday, November 25, 2023

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | जड़कारे में अपने इते के पल्ली प्रेम की का कई जाए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आज पत्रिका में "टॉपिक एक्सपर्ट" में बुंदेली में ...
Thank you #patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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टाॅपिक एक्सपर्ट
जड़कारे में अपने इते के पल्ली प्रेम की का कई जाए !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अपने इते पल्ली से कछू ज्यादा प्रेम दिखात आए। अब आप कैहो के जड़कारे में पल्ली से प्रेम ने हुइए, सो कब हुइए। हऔ! हमने मान लई बात। जड़कारे में पल्ली ओढ़ी जात आए। बाकी अपने इते तो बारो मईना पल्ली ओढ़ी जात आए। अब ई बारे में का कैहो? जेई से सो कहनात बन गई ‘‘पल्ली ओढ़ के सोबे’’ वारी। हमें तो लगत आए के जे कहनात इते अपन ओरन खों देख के ई बनी आए। काय से के इते कछू के कछू हो जाए मनांे अपन सो पल्ली ओढ़ के सोत रैत आएं। कभऊं भूले-भटके एकाध दिनां पल्ली से निकरे सो कछू मंगताई दिखाई औ फेर जा घुसे पल्ली में। जो हम झूठी कै रए हों सो बोलो! 
           इते अच्छो-भलो शहर दो टुकड़ा में बांट दओ गओ औ हम पल्ली ओढ़ के सोए रए। एक हीसां में विकास हो रओ औ दूसरे हींसा में नीकास लो को ढंग-ढार नइयां। कैबे में बुरो लगत आए, मनो कोनऊं खों कैने तो परहेई। खैर, बा छोड़ो, अभई की लेओ। अपन ओंरे मना रए गौर-उत्सव। वा बी सात दिनां कों। मनो बा मांग कां गई जो चिचियां-चिचियां के करी रई के हमाए गौर बब्बा खों ‘‘भारत रत्न’’ दओ जाए! जे समारोह के टेम पे कोनऊं-कोनऊं को मनो याद आ बी जाए सो समारोह खतम होतई साथ वोई गद्दा, वोई पल्ली। सबरे बिसर जैहें के हमने का मांग करी रई। गौर बब्बा बी सोचत हुइएं के हमने इन ओरन खों जागरूक करबे के लाने इते यूनीवर्सिटी खोली, मनो जे सो पल्ली प्रेमी के पल्ली प्रेमी ई बने रए गए। सो, भैया-बैन हरों पल्ली से निकरो, इते के लाने कछू अच्छो करो-धरो!   
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Thursday, November 23, 2023

बतकाव बिन्ना की | जबे इन्दर देव ने धरती पे विजिट करी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | प्रवीण प्रभात

"जबे इन्दर देव ने धरती पे विजिट करी" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
जबे इन्दर देव ने धरती पे विजिट करी
        - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       एक दिनां इन्दर देव ने सोची के सबरे देवता हरें जब चाए तब धरती पे घूम आउत आएं औ एक हम ठैरे के उते जा नई सकत। काए से के जब-जब हम धरती पे पौंचबो चात आएं के संगे जोर को पानी बरसने लगत आए। सो, सबरे प्राणी कैन लगत आएं के महराज, अब जाओ इते से, ने तो बाढ़ आ जैहे। उते कोनऊं खों हमाओ पौंचबो नईं पोसात। खाली दो मईना उते स्वागत-सत्कार होत आए, वो बी हमाओ नोंई बल्कि हमाए भेजे गए पानी वारे बादरा हरों को। ऐसो का करो जाए के हम सोई औ देवता घांई धरती की सैर कर आएं? इन्दर देव अभईं जा सोचई रए हते के उते नारद मुनी आ पौंचे।
‘‘का सोच रए महराज? आज आपको दरबार इत्तो सूनो काय दिखा रओ? आपकी बा रंभा-संभा औ मेनका, उरवसी कां गई?’’ नारद मुनी ने पूछी।
‘‘हमाओ जी ठीक नईं लग रओ!’’ इन्दर देव ने कई।
‘‘काए ठीक नईं लग रओ? ऐसो का हो गओ?’’ नारद मुनी ने पूछी।
‘‘काए का हम दुखी नई हो सकत?’’ इन्दर देव ठनक के बोले।
‘‘नईं, आप काय दुखी हुइयो? आपके मनोरंजन के लाने इते इत्ती अप्सराएं आएं, जे गाने-माने वारे आएं औ बाकी आपको कोनऊं किसम की कमी नइयां, फेर आप काय दुखी हो रए?’’ नारद मुनी ने कई।
‘‘जे अप्सराओं को डांस देख-देख के हम बोर होन लगे अब तो। औ जे हमाए दरबार के गंधर्व हरें एकई टाईप के राग अलापत रैत आएं। जबके हमने सुनी आए के उते धरती पे रोज नओ टाईप को खेल, तमासा होत रैत आए। हमाए सबरे देवता हरें उने उते जा-जा के देखत रैंत आएं, औ एक हम ठैरे के हमाए उते जाबे से बाढ़ आन लगत आए औ सबरे हमें भगाबे की जुगत पैलई करन लगत आएं।’’ इन्दर देव ने दुखी होत भए कई।
‘‘कै तो आप सांची रए। बाकी आप चात का हो?’’ नारद मुनी ने पूछी।
‘‘हऔ, सो सुनो! हमें कोनऊं ऐसी जुगत बताओ के हम धरती पे घूम आएं औ उते कोनऊं खों पता बी ने परे।’’ इन्दर देव ने अपनी मंसा बताई।
‘‘हूं! जे आए आपकी इच्छा। जे आप कछू दिनां पैले बताउते तो काम आसानी से बन जातो।’’ नारद मुनी बोले।
‘‘बा कैसे?’’ इन्दर देव ने पूछी।
‘‘बा ऐसे के अबे धरती पे कछू जांगा चुनाव भए रए औ चुनाव के पैले उते रैली, रोड शो, आम सभाएं होत रईं। ओई कोई में हम आपके लाने सेटिंग करा देते। मनो अबे चुनाव को सीजन पूरो भओ नईयां। कछू दिनां बाद जे पैले चुनाव को रिजल्ट आहे, औ ऊके बाद अगली चुनाव के लाने मारा-मारी होन लगहे। तब हम आपकी सेंटिंग करा देबी। ऊ टेम पे घूम लइयो धरती पे।’’ नारद मुनी बोले।
‘‘नईं! हमें तो अभईं जाने। जो कछू सेटिंग करने होय सो अभईं करो। ने तो हम तुमें अपने दरबार में घुसन ने देबी।’’ इन्दर देव ने हठ करी औ संगे धमकी सोई दे डारी।
‘‘चलो, जो अभईं चलने होय सेा हमाए संगे चलो! हम धरती पेई जा रए।’’ नारद मुनी बोले।
‘‘तुम तो ढाई घड़ी में खसक लैहो, फेर हम उते अकेले का करबी? मनो हमाए उते रैबे से बाढ़ आन लगी तो?’’ इन्दर देव ने अपनी चिंता बताई।
‘‘फजूल की चिन्ता ने करो आप! कछू बाढ़-माढ़ ने आहे। उते नदियां सूकी जा रईं। आप चलो हमाए संगे। जो ढाई घड़ी से ज्यादा आपको उते टिकबे को मन होय सो बताइयो, हम कछू ने कछू व्यवस्था बना देबी।’’ नादर मुनी ने सहूरी बंधाई।
‘‘हऔ चलो!’’ इन्दर देव राजी हो गए।
दोई धरती की तरफी चल परे। नारद मुनी सो हते चतुरा। उन्ने सोची के जो इन्दर देव को धरती पे आबे-जाबे की लत लग गई सो बड़ी सल्ल मचहे। इने बाकी देवताओं की करतूतें सोई पता परन लगहें के बे ओरें धरती पे आ के का-का करत आएं। ईसे अच्छो आए के इन्दर देव खों ऐसी जांगा लेजाओ जाए, जां पौंच के बे खुदई बोल देबें के अब हमें धरती पे पांव नईं धरने।
सो, नारद मुनी सबसे पैले इन्दर देव खों दिल्ली लेवा ले गए। कां स्वर्ग की साफ-सुफेद हवा औ कां दिल्ली की करिया हवा। दिल्ली पौंचतई साथ इन्दर देव खों खांसी के ठसका लगन लगे। तनक देर में उने खांसी उठन लगी। आंखों से अंसुआ की धार बहन लगी।
‘‘जे तुम हमें कां लिवा लाए?’’ इन्दर देव घबड़ा के बोले।
‘‘महराज, जे दिल्ली आए। भारत देस की राजधानी। अबे तो इते पराली को धुंआ नइयां। कछू दिनां बाद आइयो सो ऊको मजा बी ले लइयो।’’नारद मुनी मुस्क्यात भए बोले।
‘‘खांसत-खांसत हमाओ कलेजा फटो जा रओं और जे चिरमिटिया हवा से हमाई आंखें फूटी जा रईं, औ तुम कै रए मजा अेबे की। हमें कऊं औ ले चलो।’’ इन्दर देव घबड़ात भए बोले।
‘‘हओ चलो! बाकी आप तो इते ढाई घड़ी ने टिक पाए।’’ नारद मुनी ने कई।
फेर नारद मुनी इन्दर देव खों दिल्ली से मुतकी दूर मध्यप्रदेश में सागर लिवा लाए।
‘‘कछू राहत मिली?’’ नारद मुनी ने पूछी।
‘‘हऔ! इते आ के तनक अच्छो सो लगो।’’ इन्दर देव बोले।
बाकी नारद मुनी ने सोच रखी हती के इन्दर देव खों अच्छो तो लगवाने नइयां। ने तो बे सागर के जांगा इन्दौर ने ले जाते?
‘‘जो नओ सो पुल दिखा रओ! नोनो लग रओ। मनो, जे पुल के नैंचे का आए? जे पानी की जांगा घास-पतूला से काए दिखा रए?’’ इन्दर देव चकित होते भए बोले।
‘‘आप सई समझे। जे कारीडोर कहाउत आए। नओ बनो आए। मनो तला पुरो डरो। ईकी सफाई अबे नईं भई।’’ नारद मुनी बोले।
‘‘जे का बात भई? जब लौं तला की सफाई हुइए, तबलौं जे पुल मने बा तुमने का कई, हां करियाडोर पुरानी हो जैहे।’’ इन्दर देव खों धरती के करमन की इत्ती समझ कां हती।
‘‘जे करियाडोर नईं, कारीडोर आए।’’ नारद मुनी ने सुधारो।
‘‘जब चाए कारी कओ, चाए करिया! बात तो एकई ठैरी। बाकी, इते नैचे सो देखो नई जा रओ। तला की जांगा गिलावो सो दिखा रओ।’’ इन्दर देव बोले।
नारद मुनी उने उते से दूसरी तरफी लेवा ले गए। कछू गली, कछू सड़कें घुमाईं।
‘‘जे बताओ हमें के हमने इते हर गली, हर सड़क पे कछू अहाता सो बनो देखो। बा का आए? तुमने हमें बा भीतरे से ने दिखाओ।’’ इन्दर देव बोले।
‘‘महराज! बा तुमाए जोग नइयां। बा देसी दारू को ठेका को अहातो आए। इते हर चार कदम पे मिल जैहे। मगर आप आओ स्वरग की शुद्ध सुरा पीबे वारे औ जे ठैरी देसी ठर्रा। आपको ने पचहे।’’ नारद मुनी ने समझाई।
‘‘हैं? ऐसो का? पर हमने तो देखी के बा स्कूल के पास आए, बैंक के सामने आए, औ तो औ बच्चन के खेलबे के मैदान से लगो परो आए? जो का हो रओ? का ऐसी जांगा ऐसो अहातो होने चाइए?’’ इन्दर देव अचरज से पूछन लगे।
‘‘इत्ते हैरान ने हो आप! इते धरती पे सरकार को जेई से पइसा मिलत आए औ जो उने पइसा ने मिलहे सो बे मुफत में बांटबे के लाने कां से लाहें? सो, आप ईमें ने परो।’’ नारद मुनी बोल परे।
‘‘का मतलब?’’ इन्दर देव को कछू समझ ने परी।
‘‘ने समझो, जेई में आपकी भलाई आए। औ घूमने का? काय से हमाओ टेम भओ जा रओ इते से जाबे को।’’ नारद मुनी बोले।
‘‘नईं भैया! हम तो अफर गए। अब हमसे इते रुको नई जा रओ। नाएं-माएं कचरा सोई दिखा रओ। बे गइयां, बैल सोई छुट्टा फिर रए। हमें नईं रुकने इते।’’ इन्दर देव ने कई। औ ईके बाद दोई जने लौट परे स्वरग खों।    
सो जे हतो इन्दर देव को दौरा। ईसे मोय तो जे समझ परी के हमाए देवता हरें साल में कछू दिनां सो काए जात आएं? जेई से के बे इते धरती पे घूमत-घूमत बीमार होन लगत आएं, सो सेहत बनाबे के लाने मेडिकल लीव पे चले जात आएं। बाकी देवोत्थानी पे हम उने जगा के ई मानत आएं। मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, November 22, 2023

चर्चा प्लस | डाॅ. हरीसिंह गौर : जिन्होंने स्वप्न देखा और उसे पूरा किया | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
डाॅ. हरीसिंह गौर : जिन्होंने स्वप्न देखा और उसे पूरा किया
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       यूं तो हर व्यक्ति कोई न कोई स्वप्न देखता है और चाहता है कि उसका सपना पूरा हो। लेकिन सिर्फ़ चाहने से सपने पूरे नहीं होते। अपना सपना पूरा करने के लिए हरसंभव प्रयास करना भी जरूरी होता है। बुंदेली सपूत डाॅ. हरीसिंह गौर ने भी एक स्वप्न देखा सागर में उच्च शिक्षा केन्द्र स्थापित करने का और उसे पूरा करने के लिए अपना तन, मन, धन सब न्योछावर कर दिया। यूं भी उनका स्वप्न एक ऐसा लोकव्यापी स्वप्न था जो सबकी आंखों में बसा हुआ था। बस, उसे साकार करना डाॅ. हरीसिंह गौर जैसे दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था।
     डाॅ. हरीसिंह गौर ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, महान दानी, देशभक्त थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। वह स्वप्न था बुंदेलखण्ड को शिक्षा का केन्द्र बनाना। वे आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की भांति एक विश्वविद्यालय की स्थापना बुंदेलखण्ड में करना खहते थे। जिस समय वे बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा केन्द्र का सपना देखा करते थे, उन दिनों बुंदेलखण्ड विकट दौर से गुज़र रहा था। गौरवपूर्ण इतिहास के धनी बुंदेलखण्ड के पास आत्मसम्मान और गौरव से भरे ऐतिहासिक पन्ने तो थे किन्तु धन का अभाव था। अंग्रेज सरकार ने बुंदेलखण्ड को अपने लाभ के लिए छावनियों के उपयुक्त तो समझा लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि यहां औद्योगिक विकास हो जबकि यहां आकूत प्रकृतिक संपदा मौजूद थी। ठग और पिण्डारियों के आतंक को कुचलने वाले अंग्रेज कभी इस बात को महसूस नहीं कर सके कि वह अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता ही थी जिसने ठग और पिण्डारियों को जन्म दिया। अंग्रेजों ने कभी यह नहीं सोचा कि बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा का कोई केन्द्र भी स्थापित किया जा सकता है जिसमें पढ़-लिख कर बुंदेली युवा आमदनी के नए रास्ते पा सकता है।
अनेक युवा नहीं जानते थे कि स्कूल की चार कक्षाएं पढ़ लेने के बाद आगे क्या कर सकते हैं? किसी कार्यालय में चपरासी बनना अथवा कि स्कूल में शिक्षक बनना सबकी चाहत नहीं हो सकती थी। अपने जीवन को सफल बनाते हुए दूसरों से आगे कौन नहीं बढ़ना चाहता है? हर व्यक्ति एक सफल व्यक्ति का जीवन जीना चाहता है। डाॅ. हरीसिंह गौर ने इस चाहत को समझा और उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वे बुंदेलखण्ड में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे जहां दुनिया भर से विद्वान आ कर शिक्षा देंगे और बुंदेलखण्ड के युवाओं को विश्व के शैक्षिकमंच तक ले जाएंगे। उनका यह सपना विस्तृत आकार लिए हुए था। उसमें बुंदेली युवाओं के साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले युवाओं और विदेशी युवाओं तक के लिए जगह थी। बल्कि वे विश्व के विभन्न क्षेत्रों के युवाओं में परस्पर संवाद और मेलजोल को ज्ञान के प्रवाह का एक अच्छा माध्यम मानते थे।

सागर विश्वविद्यालय की स्थापना
डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना ‘सागर विश्वविद्यालय’ के नाम से डाॅ. हरीसिंह गौर ने की थी। परतंत्र देश में अपनी इच्छानुसार कोई शिक्षाकेन्द्र स्थापित करना आसान नहीं था। डाॅ. हरीसिंह गौर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी इच्छा प्रकट की। ब्रिटिश सरकार को विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने की अनुमति देने के लिए मनाना टेढ़ीखीर था। अंग्रेज तो यही सोचते थे कि अधिक पढ़ा-लिखा भारतीय उनके लिए कभी भी सिरदर्द बन सकता है। किन्तु एक सकारात्मक स्थिति यह थी कि उस समय तक ब्रिटिश सरकार को इतना तो समझ में आने लगा था कि  अब भारत से उनका दाना-पानी उठने वाला है। एक तो द्वितीय विश्वयुद्ध के वे दुष्परिणाम जिन्हें झेलना ब्रिटेन की नियति बन चुका था और दूसरे भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बढ़ते हुए आंदोलन।  अंततः डाॅ. हरीसिंह गौर अपने स्वप्न को साकार करने की दिशा में एक क़दम आगे बढ़े और उन्हें हग्रटिश सरकार से अनुमति मिल गई। लेकिन शर्त यह थी कि सरकार उस उच्चशिक्षा केन्द्र की स्थापना का पूरा खर्च नहीं उठाएगी। डाॅ. हरीसिंह गौर चाहते तो देश के उन पूंजीपतियों से धन हासिल कर सकते थे जो उनकी विद्वता के कायल थे। लेकिन उन्होंने किसी से धन मांगने के बदले स्वयं एक उदाहरण प्रस्तुत करना उचित समझा और अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की।  आगे चल कर वसीयत द्वारा अपनी पैतृक संपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया।
डाॅ. हरीसिंह गौर ने ‘सागर विश्वविद्यालय’ के स्थापना करके ही अपने दायित्वों कीे समाप्त नहीं समझ लिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इसके विकास के लिए संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसे सहेजने में अपना पूरा श्रम अर्पित किया। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वां विश्वविद्यालय था। सन 1983 में इसका नाम डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। 27 मार्च 2008 से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है। विंध्याचल पर्वत शृंखला के एक हिस्से पथरिया हिल्स पर स्थित सागर विश्वविद्यालय का परिसर देश के सबसे सुंदर परिसरों में से एक है। यह करीब 803.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। विश्वविद्यालय परिसर में प्रशासनिक कार्यालय, विश्वविद्यालय शिक्षण विभागों के संकुल, ब्वायज़ हाॅस्टल, गल्र्स हाॅस्टल, स्पोट्र्स कांप्लैक्स तथा कर्मचारियों एवं अधिकारियों के आवास हैं। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।

  अनुकरणीय जीवनयात्रा
डॉ. सर हरीसिंह गौर का जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी सागर में 26 नवम्बर 1870 को एक निर्धन परिवार में हुआ था। डॉ. गौड़ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राइमरी के बाद इन्होनें दो वर्ष मेँ ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण इन्हेँ सरकार से 2 रुपये की छात्रवृति मिली जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन मैट्रिक में ये फेल हो गये जिसका कारण था एक अनावश्यक मुकदमा। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया।
डॉ. गौर फिर मैट्रिक की परीक्षा में बैठे और इस बार न केवल स्कूल मेँ बल्कि पूरे प्रान्त में प्रथम आये। इन्हें 50 रुपये नगद एक चांदी की घड़ी एवं बीस रूपये की छात्रवृति मिली। मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। पूरे कॉलेज में अंग्रेजी एव इतिहास मेँ ऑनर्स करने वाले ये एकमात्र छात्र थे। उन्होंने छात्रवृत्ति के सहारे अपनी पढ़ाई का क्रम जारी रखा। सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् 1892 में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1896 में एम.ए., सन 1902 में एल. एल. एम. और अन्ततः सन 1908 में एल. एल. डी. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी की पढ़ाई करते थे। उन्होने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ. सर हरीसिंह गौर ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह ‘‘दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स’’ और ‘‘रेमंड टाइम’’ की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में अतिरिक्त सहायक आयुक्त के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल मे वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। 1902 में उनकी ‘‘द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया’’ पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष 1909 में ‘‘दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम 2)’’ प्रकाशित हुई। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके इस ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ. गौर ने बौद्ध धर्म पर ‘‘दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म’’ नामक पुस्तक लिखी। उस समय तक डाॅ. हरीसिंह गौर की प्रसिद्धि चतुर्दिक फैल चुकी थी। उन्हें ‘सर’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था।
डॉ. हरीसिंह गौर ने 20 वर्ष तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन सन 1920 में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे 1935 तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। 25 दिसम्बर 1949 को डाॅ. हरीसिंह गौर का निधन हुआ।
  
वे कंजूस नहीं मितव्ययी थे
डाॅ. हरीसिंह गौर के बारे में कई रोचक किस्से प्रचलित हैं। यह किस्से यथार्थ घटनाओं पर आधारित हैं। उन्हीं में से एक किस्सा है आठ आने के सिक्के के खो जाने का। डाॅ. गौर का सब काम नियत समय पर होता था। वे समय के पाबंद थे। निर्धारित समय पर अपने कार्यालय पहुंचना और पूरे समय वहां रुक कर काम करना उनकी आदत थी। उनके पीए को भी उनके साथ जागरूकता एवं तत्परता से काम करना पड़ता था। एक दिन जब उनके पीए कुलपति कार्यालय पहुंचे तो उन्होंने देखा कि डाॅ गौर फर्श पर झुक-झुक कर कुछ ढूंढ रहे हैं। उनके माथे पर चिन्ता की रेखाएं खिंच आई हैं। यह देख कर पीए ने डाॅ. गौर से पूछा कि वे क्या ढूंढ रहे हैं? क्या कोई जरूरी काग़ज़ गिर गया है? इस पर डाॅ. गौर ने पीए को बताया कि उनकी एक अठन्नी गिर गई है जो उन्हें मिल नहीं रही है, उसे ही ढूंढ रहे हैं। तब पीए ने कहा कि एक अठन्नी के लिए आप इतने परेशान क्यों हो रहे हैं? इस पर डाॅ. गौर ने कहा कि ‘‘प्रश्न एक अठन्नी का नहीं है, प्रश्न है पैसे की सुरक्षा और सहेजने का।’’ डाॅ गौर का यह उत्तर सुन कर उनके पीए झेंप गए और वे भी उनकी अठन्नी ढूंढने लगे। अंततः एक सोफे के नीचे से वह अठन्नी बरामद हो गई, तब कहीं जा कर डाॅ. गौर ने चैन की सांस ली। उनके पीए जो कुछ समय पहले उन्हें कंजूस समझ रहे थे, वे जान चुके थे कि यह कंजूसी नहीं मितव्ययिता है। यह पैसे के महत्व को याद रखने का भाव है।
डाॅ. गौर के जन्म के समय किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि गरीबी में जन्मा बालक एक दिन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा और अनेक निर्धन छात्रों के लिए उच्चशिक्षा के द्वार खोल देगा। डॉ. गौर के जीवन के अनेक ऐसे पक्ष हैं युवाओं को सफलता से जीने का रास्ता दिखा कसते हैं। स्मरणीय हैं ये पंक्तियां जो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने डॉ. हरीसिंह गौर की प्रशंसा में लिखी थीं -
     सरस्वती-लक्ष्मी दोनों ने दिया तुम्हें सादर जय-पत्र
     साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञानदान का अक्षय सत्र 
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Tuesday, November 21, 2023

पुस्तक समीक्षा | स्त्री, पुरुष और समाज के त्रिकोण का विश्लेषण करता उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 21.11.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक चन्द्रभान ‘राही’ के उपन्यास "मानसी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
स्त्री, पुरुष और समाज के त्रिकोण का विश्लेषण करता उपन्यास       
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास      - मानसी
लेखक         - चन्द्रभान ‘राही’
प्रकाशक  - सर्वत्र, मंजुल पब्लिकेशन, द्वितीय तल, उषा प्रीत काॅम्प्लेक्स, 42 मालवीय नगर, भोपाल (म.प्र.)
मूल्य     - 399/-
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समाज की संरचना के दो मुख्य घटक हैं- स्त्री और पुरुष। दोनों से मिल कर ही परिवार और समाज बनता है। फिर भी प्रायः स्त्री को दोयम अथवा गौण समझ लिया जाता है और इसीलिए समाज का समीकरण बिगड़ने लगता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है जब स्त्री, पुरुष और समाज त्रिकोण के तीन कोणों की भांति परस्पर जुड़े हुए हो कर भी परस्पर दूर हो जाते हैं। ऐसे ही एक त्रिकोण की कथा कहता है उपन्यासकार चन्द्रभान ‘राही’ का उपन्यास ‘‘मानसी’’। चन्द्रभान ‘राही’ के अब तक छः उपन्यास और तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कथालेखन में उनकी पकड़ मजबूत हो चुकी है। कथानक की संरचना और पात्रों के मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से सामने रखना उनके लेखन की विशेषता है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘‘मानसी’’ में भी स्त्री, पुरुष और समाज के मनोविज्ञान को परखने का विशेष प्रयास किया है। यह मूलतः एक स्त्री प्रधान उपन्यास है।
‘‘मानसी’’ का कथानक बहुत संवेदनशील है। स्त्री की आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं को समझने का प्रयास न तो पुरुष करता है और न समाज। पुरुष अपनी व्याकुलता को शांत करने तथा दैहिक संतुष्टि के लिए एक से अधिक स्त्री से संपर्क बनाए रखता है और उसमें उसे कोई दोष दिखाई नहीं देता है। समाज भी ‘‘घरवाली’’ और ‘‘बाहरवाली’’ का एक प्रहसन अपनाकर, इस गंभीर मसले को किसी हद तक स्तरहीन बना देता है। लेखक ने उपन्यास की नायिका ‘‘मानसी’’ के माध्यम से उस नारी संसार को रेखांकित किया है जहां उसे छल, कपट और मृगतृष्णा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता है। दैहिक जिज्ञासाएं दैहिक लालसाओं में ढल कर इतना भ्रमित कर देती हैं कि अच्छे और बुरे में भेद करना कठिन हो जाता है। फिर जब तक वास्तविकता का भान होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। छद्म प्रेम का भटकाव मन को छीलता है लेकिन एक स्त्री से ‘‘बोर’’ हो चुके पुरुष को आगे बढ़ कर दूसरी स्त्री अपनाते देर नहीं लगती है। इस प्रकार के छल-छद्म में जब पढ़ी-लिखी, सुशिक्षित एवं जागरूक स्त्रियां तक उलझ जाती हैं और सच से बहुत दूर जा निकलती हैं तो फिर एक ऐसी स्त्री जिसका बचपन आदिवासी टोले में व्यतीत हुआ, जिसने अपने स्त्रीत्व को अपने टोले में रहते हुए ही जाना, पहचाना और अनुभव किया, मानसी के रूप में लेखक ने उस अबोध लड़की के आरंभिक जीवन से कथानक आरम्भ किया है जो दैहिक एवं लैंगिक मनोभावों से सर्वथा अपरिचित थी। हमवय लड़के की चेष्टाओं के द्वारा वह वासनात्मक मनोभावों से परिचित होती है। इसके साथ ही उसकी मनोग्रंथियां मानो सहसा जाग्रत हो जाती हैं। अनेक अबूझे प्रश्नों से वह घिर जाती है। वह अपने प्रश्नों के उत्तर पाना चाहती है, किन्तु कोई नहीं है जिससे वह अपने प्रश्न कर सके। युवावस्था में प्रवेश के साथ ही लोलुप दृष्टियां उस लड़की पर पड़ने लगती हैं, जिसे अपने अस्तित्व का ही ठीक से पता नहीं है।
        युवावस्था में कदम रखती मानसी को मुंडा नाम का युवक दैहिक स्पर्श का बोध करता है, उसके भीतर एक अनजान कौतूहल जगाता है। मुंडा मानसी को साथ भगा ले जाने की भी बात करता है। यह ‘‘भगा लेजाना’’ उन दोनों के टोले में एक रिवाज़ की भांति स्वीकार्य था। यहां लेखक ने स्पष्ट रूप से ‘‘भगोरिया’’ परंपरा का उल्लेख नहीं किया है किन्तु कन्या को भगा कर लेजाने और उससे विवाह करने की सामाजिक स्वीकृति भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक विशेषता रही है।
मुंडा की चेष्टाओं को गहराई से समझ पाने के दौरान मानसी मां और टोले की नज़र में ‘‘बड़ी’’ (अर्थात् रजस्वला) हो जाती है। उसे पांच दिन अलग कमरे में रहने को बाध्य किया जाता है। जो उसे अटपटा लगता है किन्तु मना करने का तो प्रश्न ही नहीं था। पांच दिन बाद स्नान और कुलदेवी पूजन की परम्परा। बहुत कुछ अबूझ। अनजाना। एक नवयुवती के लिए जिसके भीतर बाॅयोलाॅजिकल परिवर्तन हो रहे हों,  स्वयं के प्रति चकित करते जाते हैं। विडम्बना यह कि मानसी एक गरीब परिवार की कन्या थी जिसके लिए वर की आयु नहीं वरन भावी जीवन में धन-सम्पदा की उपलब्धता को महत्व दिया जाता है। उसे अपनी आयु से बड़ा वर पसंद नहीं आता है, किन्तु सजधज कर दुल्हन बनना अच्छा लगता है। उसे तब क्या पता था कि यही सजधज उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाएगी और उसे एक अभिशप्त जीवन जीने को विवश कर देगी।
मानसी का जीवन उसे उस दिशा में ले जाता है जहां वासना और ग्लैमर का दबदबा है। कहने को तो माॅडलिंग का पेशा, किन्तु उसकी आड़ में वेश्यावृत्ति का घिनौना खेल। माॅडलिंग भी ऐसी जो ‘नीलीफिल्मों’ की ओर धकेलती चली जाती है। इसी कथा में एक प्रोफेसर प्रो. दिवाकर है जो फोटोग्राफी में गहरी रुचि रखता है। वह एक स्टूडियो में शौकिया फोटोग्राफी भी करता है। मानसी को उन लोगों के संपर्क में लाता है जो उसे ग्लैमर की दुनिया में राज करा सकते हैं। मानसी के साथ के लिए नैना नाम की युवती को आदेशित किया जाता है। मानसी को जैसे-जैसे नैना के जीवन-कथा पता चलती जाती है, उसकी आंखों के आगे उस ग्लैमर की दुनिया के अनेक पक्ष उजागर होते जाते हैं। कई ऐसे पहलू जो स्त्री होते हुए भी उसके लिए अज्ञात थे, नैना के द्वारा ज्ञात होते जाते हैं।
महुआ बीनते हुए व्यतीत किए गए बचपन के बाद आयु के प्रस्फुटन के साथ उसे मदिरापान कर अपने मुखौटे उतार फेंकने वाली कथित सोसायटी के साथ मदिरापान करने की आदत डालनी पड़ती है। अपनी ही देह के सौंदर्य के प्रति मुग्धता का अनुभव करने वाली मानसी को कुछ अन्य स्त्रियों से मिलने और उनके जीवन के अनुभव सुनने के बाद अहसास होता है कि यह सारा खेल युवावस्था बने रहने तक ही है। शूटिंग स्थल पर जो स्त्री मानसी के लिए चाय बनाने का काम करती है, वह स्वयं पहले मानसी की भांति माॅडलिंग कर चुकी थी। युवावस्था की चमक फीकी पड़ते ही उसके नाम और ग्लैमर का सितारा डूब गया। अब वह पेट पालने के लिए नवोदित माॅडलों के लिए चाय बनाने और पिलाने का काम करने पर मजबूर हो गई। उस स्त्री के जीवन का यह कड़वा सच मानसी के भविष्य की ओर भी स्पष्ट संकेत करता है। और भी कई स्त्रियों से मानसी का संपर्क होता है जो उसे समझाता है कि पुरुष और समाज दोनों ही स्त्री को उपभोग और लांछन की वस्तु मान कर चलते हैं। उनके लिए स्त्री की भावनाओं, आकांक्षाओं एवं इच्छाओं का कोई महत्व नहीं है। सुविधा भोगियों के लिए स्त्री को एक ‘सुविधा’ की सामग्री बना दिए जीने की नियति मानसी के हिस्से में भी आती है।
बाजारवाद ने स्त्री के लिए नए रास्ते बनाए है जो उन्हें स्वतंत्र, आत्मनिर्भरता और शक्तिसम्पन्नता की ओर ले जाते हैं। जिनमें फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया की दुनिया भी है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष भी है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को दैहिक शोषण के गहरे गड्ढे में गिरने के अनेक छिपे हुए अवसर भी बढ़ा दिए हैं। ‘मी-टू’ अभियान ने उजागर कर दिया है कि फिल्म और मीडिया में स्त्रियों को किन शर्तों पर काम करना पड़ता है।
जहां तक समाज का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण है तो वहां वे स्त्रियां भी पुरुषवादी सोच से ग्रस्त दिखाई देती हैं, जब वे स्त्री हो कर स्त्री की परिस्थितियों को समझने से मना कर देती हैं। जब एक स्त्री दूसरी स्त्री पर लांछन लगाती है, तो पीड़ित स्त्री के विरुद्ध स्त्रियों और पुरुषों से बना समाज ही दिखाई देता है। कम उम्र में सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में वह मानव नहीं ‘रखैल’ है। पुरुषों का अहं पत्नी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। सत्ता कोई भी हो वह यथास्थितिवाद की समर्थक होती है, परिवर्तन को रोकना उसका स्वभाव है।                
       एक समय ऐसा आता है जब मानसी का मन अपने टोले में लौट जाने को करता है। मानसी को बाहरी परेशानियों के साथ अंतर्द्वन्द्व में जीना पड़ता है। एक सीधी-सादी आदिवासी लड़की के ग्लैमर की दुनिया में पहुंचने का उतार-चढ़ाव भरी यात्रा का दस्तावेज है यह उपन्यास। यह उपन्यास चौंकाता है, चेतना को झकझोरता है और अनेक प्रश्न उठाता है। हर प्रश्न स्त्री जीवन से जुड़ा हुआ। नारी जीवन के उन पक्षों को प्रस्तुत किया है, जिनकी चर्चा से साहित्य और समाज-विज्ञान में परहेज किया जाता था। दैहिक प्रसंग उत्तेजक माने जा सकते हैं, किंतु मासिक धर्म के समय स्त्री को ‘आम’ से ‘खास’ बना देने की दूषित परंपरा किशोरियों को कुंठित कर देती है।   यद्यपि लेखक ने दैहिक-मनोदशा को कुछ अधिक ही लेखबद्ध कर दिया है। कई स्थानों पर ऐसे विवरण एवं वर्णन अतिरिक्त प्रतीत होते हैं। ऐसे प्रसंगों पर अंकुश रखा जा सकता था। ऐसे प्रसंगों ने ही इस उपन्यास को ‘‘बोल्ड’’ बना दिया है। वैसे लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने उपन्यास के पूर्व आत्मकथन में उन वाक्यों को रखा है जो स्त्री की दशा को बखूबी प्रस्तुत करते हैं। भाषाई सादगी और छोटे-छोटे वाक्य संरचना की सहजता को समेटे हुए है। चन्द्रभान ‘राही’ का यह उपन्यास ‘‘मानसी’’ ‘‘बोल्डनेस’’ की हद तक विवरणात्मक एवं प्रसंगात्मक होते हुए भी बाजारवाद में विभिन्न रूपों में स्त्रियों की बोली लगने के कटुयथार्थ को प्रस्तुत करता विचारोत्तेजक कथानक से परिपूर्ण है।
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Monday, November 20, 2023

'जनसत्ता' के वार्षिक अंक 'दीपावली 2023' में डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "लव ट्रेंडिंग वाया मलूकदास"


ब्लॉग  मित्रो, 'जनसत्ता' के  वार्षिक अंक 'दीपावली 2023' में मेरी कहानी "लव ट्रेंडिंग वाया मलूकदास" प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं आदरणीय मुकेश भारद्वाज जी तथा प्रिय मृणाल वल्लरी जी की हार्दिक आभारी हूं जिन्होंने वार्षिकांक में मेरी कहानी को शामिल किया 🌹🙏🌹
#heartythanks  to Mukesh Bhardwaj ji 🙏
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Sunday, November 19, 2023

Article | Carefully Read ! Puranas Says Save Environment | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


Article
Carefully Read ! Puranas Says Save Environment
        -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

We all want a good healthy life and to get it we do yoga, exercises and eat vitamin pills. We try our best to control our diet. We have understood that our modern lifestyle has started having a negative impact on our health. Unfortunately, we forget that these efforts are not enough to keep us healthy. If one wants to remain healthy then one has to keep the environmental elements like air, water, soil etc. clean. This is what has been explained in the Puranas. We read the Puranas as religious texts but do not try to understand their messages.


      Our Indian civilization and culture seems to have started from the worship and worship of Prati since ancient times. Whose basis is fear and worship. Indian literature has its own special importance and that is why Puranas have a special place in Indian literature. In these, not only is there an explanation of the Nirguna meanings of the Vedas, apart from this, along with ritual worship and expansion of knowledge, there is also a mantra or source for the protection of the environment, which is an attempt to bring humans closer to nature and make them aware about doing good with it. Does. In the Puranas, yagyas were performed for the purification of the environment by those people who consider yagya to be performed only to fulfill one's work or wish. The elements of protecting the atmosphere of nature remained present through these yagyas. For this reason it is said in Padma Purana that-
Yagyenpyayita deva vrishtyutsargen manvah.
Apyayan Vai kurvati yagyah kalyan hetavah
    That is, it is clearly said that the gods are nourished by Yagya, rains caused by Yagya sustain the life of humans and trees. That is, it is clear that these rivers were created not only to distribute the gods but also to preserve and protect them.

      All types of Yagya are performed not only to please God but also to clean the elements that pollute the environment. At present, human attention is being attracted towards scientific concepts, ignoring these reasons for environmental protection. To protect the environment, the message of saving the life of trees, rivers, ponds and purifying the environment has been continuously given in the Puranas or in Indian literature. The Puranas serve as an inspiration to conserve and protect the environment. Matsya Purana clearly says-
Dashkoop samovapi dashvapisamohardah
Dashahridasam: Putro, Dashputrasam: Drumah
(Vidhan Parijat Section 4.A. 49)

     That is, the virtue in building one lake is equal to the construction of ten wells and the virtue in building ten ponds is equal to the construction of one heart (huge lake). Ten huge lakes have been considered like a son. And planting of one tree was said to be equivalent to ten sons, that is, the highest ideal of life has been presented. In the Puranas, saving the environment has been linked to virtue. Many virtues have been attributed to the planting of trees in the Puranas, so that humans can also plant trees due to their virtues. It is said in the Shiv Purana that those who plant gardens and shade trees, go to Yamaloka without suffering. People who plant flowers in large quantities go to Yamaloka through Pushpak Vimana. Water has been said to sustain the entire living community because the environment is not only the basis of trees and human civilization, but water is also the main basis of the environment. Life cannot be imagined without water. Or it would be more appropriate to say that Panch Mahabhoot elements are the main basis of life because life cannot be imagined without them.
Paniyadanam Paramam Danamuttaman Tada
Sarvesham jeevapunjaanam tarpanam jeevanam smashtam

     According to the Puranas, the virtuous work of serving the entire creation is accomplished by serving trees. Irrigation with water has a paramount place in the service of trees. Getting enough water protects the life of trees, they grow faster, the creatures dependent on them get happiness and the environment improves. In Skanda Purana, Bhavishya Purana and other Puranas too, there is a provision of watering trees like Tulsi, Peepal and Bael etc. with religious significance, which is prevalent even today in our religious beliefs. Rishis and scholars who do research on human consciousness believe that the hard work and effort a person spends in the service of the Lord reduces his sins, increases the power of virtue and due to its effect, all kinds of sorrows and misfortunes are removed and happiness and good fortune are obtained. arises. This earning is not done without hard work but in exchange for penance. The presence of sacred trees under the pretext of water irrigation gives us good thoughts and the power to follow them and refines our personality.
Sechanadapi vrikshasya ropitasya paren tu.
Mahatphalamvaapnoti natra karya vicharana.'
(Vishnuttara Purana 3.297)
      
          That is, irrigating a tree planted by someone else also yields great fruits, there is no need to think about it.
All humans should make stepwells (ponds). When water is drawn from a well or comes out, it eliminates half of the sins of the sinful person. Takes away all the sins of man. The one whose cow, Brahmin, sage, saint and sage drink water from the dug pond, he saves his entire clan. If we want the welfare of the environment, then its edification is necessary and sages have given indications through mantras to save the environment. If present day humans adopt these tips, then our world will not fall victim to this modernity and the entire world will become free from environmental pollution. Mahatmas, sages and monks have said that those who plant trees at inaccessible places save their past and future generations, for which planting trees is very important and the environment will continue to be protected and protected. Explaining the usefulness of trees in the Bhavishya Purana, it has been said that at that time the area around ten feet from the root of the tree was considered to be the best area, and as far as its shadow extends, the water flowing in contact with a healthy tree is as far as that area. The area it reaches is considered as sacred as the sanctity of the Ganga. Aayu Vedic tree science has been described in Agni Purana. After achieving the goal in the north direction of the planet, Banyan in the East, Mango in the South and a healthy Peepal tree in the South is considered Mars. A thorny tree growing in the south direction near the house is also auspicious. A garden should be built near the residence.

       Actually in almost all the Puranas i.e. Vishnu Purana, Agni Purana, Natsya Purana, Varaha Purana, Vamana Purana and other Puranas, instructions related to environmental protection have been given, all that is needed is to understand them.
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Thank you Central Chronicle 🙏
(19.11.2023)
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Saturday, November 18, 2023

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | कां गओ आईटी सेक्टर औ कां गई यूनीवर्सिटी? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | "टॉपिक एक्सपर्ट" | बुंदेली में ...
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टाॅपिक एक्सपर्ट
कां गओ आईटी सेक्टर औ कां गई यूनीवर्सिटी?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          अपने गौर बब्बा मने, डाॅ. हरीसिंह गौर जू बड़े दूरदर्शी हते। जेई से उन्ने इते इत्तो अच्छो विश्वविद्यालय बनावा दओ। वा बी अपनो गांठ को पइसा लगा के। भला इत्तो कोन कर आए दूसरों के लाने। मनो बे जेई सोचत्ते के अपनो सागर में सबरे पढ़-लिख जाएं। मनो आज जे दसा आए के सरकारी औ निजी सेक्टर के पइसा पे लो कछू अच्छो काम नई हो पा रओ। न जाने कित्ते सालें हो गईं मांगत-मांगत के इते एक महिला यूनीवर्सिटी खुल जाए। जे मांग तो पूरी ने भई, मनो अपनई इते के धनी-धोरी हरन ने डाॅ. हरीसिंह गौर यूनीवर्सिटी को सेन्ट्रल यूनीवर्सिटी बनवा दई। चलो, कोनऊं बात नोंईं। सेंट्रल बन गई, सो बन गई। बनतई साथ हो गओ धमाको। ऊ टेम के कुलपति, जोन ने भर्ती करी हती, बे सोई जेल पौंचाए गए। 
सो महिला यूनीवर्सिटी तो अबे लौं ने बन पाई। मनो समै-समै पे आई सेक्टर खोले जाबे की मांग करी गई, ऊपे कोनऊं ने सुध ने लई। बाकी सांची कओ जाए के तो ने उनसे देबो बनत औ ने अपन ओरें से सई से मांगत बनत आए। एक दार बोली औ चिमां गए। जे कोन तरीका आए मांगबे को? जबे प्रधानमंत्री जू खों इते आने रओ सो सबई दोंदरा देत फिरत रै के हमाए गौर बब्बा खों ‘‘भारत रत्न’’ दओ जाए। पीएम के इते से जातई साथ सबरे भूल गए के बे का मांग रए हते? पिछली चुनाव में आई टी सेक्टर के लाने हो-हल्ला करो गओ, जो कछू ने मिलो तो फेर चिमा गए। सो ने तो जनता अपनी मांग को भूले औ न जनप्रतिनिधि गच्चा देबें। ने तो विकास उल्टो चलत भओ दिखाहे।   
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Friday, November 17, 2023

चर्चा प्लस | गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस  
गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो।’’ यह मुक्तिबोध का मानवतावादी दृष्टिकोण था जो उनकी कहानियों में बेलौस मुखर हुआ।
13 नवंबर, 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर, ग्वालियर में जन्म हुआ था गजानन माधव मुक्तिबोध का। वे 20वीं शताब्दी के सबसे सशक्त  कवि, आलोचक माने जाते हैं। मुक्तिबोध ‘नया खून’ और ‘वसुधा’ के सहायक संपादक भी रहे। वे तार सप्तक के पहले कवि थे किन्तु उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘‘चांद का मुंह टेढ़ा है’’ उनकी मृत्यु (11 सितम्बर 1964) के बाद प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘काठ का सपना’ प्रकाशित हुई जिसमें उनकी कहानियां संकलित हैं। मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वान मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित मानते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताया है। किन्तु यह माना जाता है कि मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववाद दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी कहानियों की मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। इस लेख में मैंने मुक्तिबोध की मात्र तीन कहानियों कसे चुना है। इन कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकेगा।¬¬
‘‘ब्रह्मराक्षस’’ एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। इतना आज्ञाकारी शिष्य कि उसने अपनी उन जिज्ञासाओं को शांत रखा जिसका उत्तर अन्य विद्यार्थी सबसे पहले पाने का प्रयत्न करते। किन्तु गुरु भी ऐसा अनुशासनप्रिय था कि वह अपने शिष्यों को आठवीं मंज़िल से उतर कर सातवीं मंज़िल पर भी नहीं जाने देता और शिक्षांत में सीधे कर की ओर प्रस्थानित होने का निर्देश देता। आज्ञाकारी शिष्य पर भी यही कठोर अनुशासन लागू था। गुरु की समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
शिष्य यह सब जानकर, सुन कर चकित रह जाता है किन्तु वह यह भी समझ जाता है कि अब गुरु का स्थान लेना ही उसकी नियति है और वह उसे स्वीकार कर लेता है।
इस कहानी में मुक्तिबोध भारतीय शिक्षा परम्परा को रेखांकित करते हैं। वे गुरु- शिष्य परम्परा के प्रवाह में गुरु और शिष्य की महत्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हैं। एक योग्य शिष्य मिलने पर ही, उसे विद्या में पारंगत कर के शिक्षक स्वयं को कत्र्तव्यमुक्त मान पाता है, यही भारतीय शैक्षिक परम्परा रही है, यह परम्परा कहीं छूटती जा रही है, इस बात की पीड़ा मुक्तिबोध के मन में अवश्य ही रही होगी।

दूसरी कहानी ‘‘पक्षी और दीमक’’ है। इस कहानी में कई तथ्य एक साथ उभर कर सामने आते हैं। जैसे- शिक्षाजगत में व्याप्त भ्रष्टाचार, पंचतंत्र जैसी नीतिकथाएं एवं युवा नायिका श्यामला के प्रति नायक का आकर्षण। कथानायक प्रौढ़ वय का है जो अपनी युवा सहगामिनी श्यामला के प्रति अपने प्रेम और व्यवहार को ले कर उलझन का अनुभव करता है। इसके विपरीत श्यामला सहज भाव से अपने संबंधों को जी रही है। अपने प्रौढ़वय पे्रमी के प्रति उसके मन में कोई दुराव अथवा शंका नहीं है। वह दुनिया को अपनी दृष्टि देखती है और अपनी संवेदनाओं से महसूस करती है। जबकि श्यामला को ले कर उलझन में डूबे नायक की दृष्टि श्यामला के शारीरिक विशेषताओं पर भी जाती है। मानो नायक अपनी प्रेयसी की हर छोटी-बड़ी बातें जान लेना चाहता है। वस्तुतः यह कथानायक एक पुरुष ही तो है जो स्त्री को पूरी तरह जान लेने को तत्पर रहता है कि कहीं स्त्री का कोई गोपन उससे छूट न जाए। वह स्त्री के विचारों को नहीं अपतिु भाव-भंगिमाओं को भी पढ़ लेना चाहता है जिससे उसे विश्वास हो सके कि वह स्त्री हर दृष्टि से उसके योग्य है और इस बात का आत्मसंतोष कि उसने पे्रेमपात्र का सही चयन किया है। किन्तु इससे ही सब कुछ ठीक हो जाए, यह संभव नहीं है। एक प्रेमी को इस बात की चिन्ता भी रहती है कि प्रेयसी सर्वयोग्य है तो उसे भी अपनी प्रेयसी की दृष्टि में उत्कृष्ट बने रहना होगा-‘‘ मैं उसकी आंखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूं। प्रेमी जो हूं अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।’’
चूंकि प्रेमी भी इसी दुनिया में रहता है जहां लालच है, भ्रष्टाचार है, घोखाधड़ी है। भ्रष्टाचार के साए में सरकारी खरीद का रहस्यमय संसार है, जहां खरीद मात्र रसीदी-कागजों पर होती है। लम्बे-चैड़े बिल बन जाते हैं, खरीदने और बेचने वाले कमीशन के समीकरण पर स्वार्थ एवं लोलुपता के सवाल हल करते रहते हैं। जब शिकायत की जाती है, तो जांच की प्रक्रिया भी चलती है। इसी के समानांतर मुक्तिबोध ने प्रेम के कोमल संवेग को भी यथार्थ के खुरदरे धरातल के समीप रखते हुए ‘पक्षी और दीमक’ कहानी की रचना की। प्रेमी, प्रेयसी और भ्रष्टाचार की एक साथ चर्चा करता कथानक उस समय अपने सोपान की पूर्णता पर जा पहुंचता है जब नायक  श्यामला  को पक्षी और दीमक की नीति कथा सुनाता है- एक पक्षी दीमक बेचने वाले से अपने पंख दे कर दीमक खरीदता है और दीमकों को स्वाद ले कर खाता है। अन्य पक्षी उसे समझाते भी हैं कि यह सौदा उचित नहीं है किन्तु पक्षी अपने साथियों की बात नहीं मानता है। एक दिन ऐसा आता है जब वह दीमकों के बदले अपने दोनों पंख गंवा बैठता है। इसके बाद उसे दीमक बेचने वाला भी दिखाई नहीं देता है। उड़ने से लाचार पक्षी स्वयं दीमक इकट्ठे करने लगता है कि एक दिन अचानक उसे वह दीमक बेचने वाला पुनः दिखाई देता है। पक्षी उस दीमक बेचने वाले से कहता है कि वह उससे दीमकें ले ले और बदले में उसके पंख उसे लौटा दे। इस पर दीमक बेचने वाला दो टूूक उत्तर देता है-‘‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।’’
पक्षी पछता कर रह जाता है। एक दिन एक बिल्ली आती है और उस पंखविहीन पक्षी को मुंह में दबा कर उसके लाचार जीवन को समाप्त कर देती है। इस कथा को सुनाते हुए नायक श्यामला से कहता है कि वह पक्षी की तरह लाचार नहीं हुआ है, वह भ्रष्टाचार का सामना करेगा औा झुकेगा नहीं। इस तरह प्रेम और आसक्ति से आरम्भ कथा एक नीतिकथा की भांति ही चर्मोत्कर्ष पर पहुंचती है। यह कहानी मुक्तिबोध के कथाकौशल का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

तीसरी कहानी ‘‘क्लाॅड ईथरली’’ पांचवीं कहानी। यह एक मनोवैज्ञानिक कथा है। इसमें क्लाॅड ईथरली का चरित्र एक तुलना की भांति नायक के चरित्र के साथ-साथ चलता है। क्लाॅड ईथरली हिरोशिमा पर बम गिराने वाला अमरीकी हवाबाज जिसे अमेरिका में ‘वार हीरो’ कहा गया किन्तु स्वयं क्लाॅड ने जब हिरोशिमा का भयावह परिणाम देखा तो उसकी आत्मा कांप उठी और उसने स्वयं को दोषी मानते हुए सजा का अधिकारी माना। वह चाहता था कि उसे सजा दी जाए लेकिन एक ‘वार हीरो’ को सजा कौन देता। सजा पाने के लिए उसने चोरी, डकैती, मारपीट की मगर काम नहीं बना, अलबत्ता उसे पागलखाने अवश्य भेज दिया गया। यह कहानी एक जासूस पात्र लेखक रूपी पात्र को सुनाता है।
कथानायक एक लेखक है जो एक जासूस को अपना परिचय देता हुआ कहता है कि -‘‘ पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूं, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूं, दगा या फरेब नहीं करताय अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूं कि बुनियादी तौर से बेईमान हूं। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूं।’’
जासूस लेखक को क्लाॅड ईथरली के बारे में बताते-बताते भारत की चर्चा करने लगता है और वह देशवासियों के पश्चिमी संस्कृति के प्रति प्रेम की विवेचना इन शब्दों में करता है-‘‘‘‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है!’’ साहित्य जगत के बारे में भी जासूस का आकलन एकदम स्पष्ट है। वह कहता है कि -‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
जासूस इतने पर ही नहीं रुकता, वह पागलपन की भी व्याख्या करता है, उस पागलपन की जो क्लाॅड ईथरली में भी था और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के किसी न किसी कोने में मौजूद रहता है। जासूस की बातों की तह में उतरते ही लेखक को आभास होता है कि वह स्वयं भी तो क्लाॅड ईथरली है, एक पागलपन से भरा व्यक्ति। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका कथानक, इसके संवाद मुक्तिबोध को साम्यवाद के अंधानुकरण से बड़ी दूर खड़ा हुआ इंगित करते हैं। यह कहानी सिद्ध करती है कि मुक्तिबोध साम्यवादी अथवा पूंजीवादी नहीं वरन् विशुद्ध मानवतावादी थे।
यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानवतावाद   की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लाॅड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्री-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियां में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं, वहीं वे साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होनेचर्चा प्लस  
गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो।’’ यह मुक्तिबोध का मानवतावादी दृष्टिकोण था जो उनकी कहानियों में बेलौस मुखर हुआ।

13 नवंबर, 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर, ग्वालियर में जन्म हुआ था गजानन माधव मुक्तिबोध का। वे 20वीं शताब्दी के सबसे सशक्त  कवि, आलोचक माने जाते हैं। मुक्तिबोध ‘नया खून’ और ‘वसुधा’ के सहायक संपादक भी रहे। वे तार सप्तक के पहले कवि थे किन्तु उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘‘चांद का मुंह टेढ़ा है’’ उनकी मृत्यु (11 सितम्बर 1964) के बाद प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘काठ का सपना’ प्रकाशित हुई जिसमें उनकी कहानियां संकलित हैं। मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वान मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित मानते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताया है। किन्तु यह माना जाता है कि मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववाद दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी कहानियों की मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। इस लेख में मैंने मुक्तिबोध की मात्र तीन कहानियों कसे चुना है। इन कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकेगा।¬¬
‘‘ब्रह्मराक्षस’’ एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। इतना आज्ञाकारी शिष्य कि उसने अपनी उन जिज्ञासाओं को शांत रखा जिसका उत्तर अन्य विद्यार्थी सबसे पहले पाने का प्रयत्न करते। किन्तु गुरु भी ऐसा अनुशासनप्रिय था कि वह अपने शिष्यों को आठवीं मंज़िल से उतर कर सातवीं मंज़िल पर भी नहीं जाने देता और शिक्षांत में सीधे कर की ओर प्रस्थानित होने का निर्देश देता। आज्ञाकारी शिष्य पर भी यही कठोर अनुशासन लागू था। गुरु की समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
शिष्य यह सब जानकर, सुन कर चकित रह जाता है किन्तु वह यह भी समझ जाता है कि अब गुरु का स्थान लेना ही उसकी नियति है और वह उसे स्वीकार कर लेता है।
इस कहानी में मुक्तिबोध भारतीय शिक्षा परम्परा को रेखांकित करते हैं। वे गुरु- शिष्य परम्परा के प्रवाह में गुरु और शिष्य की महत्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हैं। एक योग्य शिष्य मिलने पर ही, उसे विद्या में पारंगत कर के शिक्षक स्वयं को कत्र्तव्यमुक्त मान पाता है, यही भारतीय शैक्षिक परम्परा रही है, यह परम्परा कहीं छूटती जा रही है, इस बात की पीड़ा मुक्तिबोध के मन में अवश्य ही रही होगी।

दूसरी कहानी ‘‘पक्षी और दीमक’’ है। इस कहानी में कई तथ्य एक साथ उभर कर सामने आते हैं। जैसे- शिक्षाजगत में व्याप्त भ्रष्टाचार, पंचतंत्र जैसी नीतिकथाएं एवं युवा नायिका श्यामला के प्रति नायक का आकर्षण। कथानायक प्रौढ़ वय का है जो अपनी युवा सहगामिनी श्यामला के प्रति अपने प्रेम और व्यवहार को ले कर उलझन का अनुभव करता है। इसके विपरीत श्यामला सहज भाव से अपने संबंधों को जी रही है। अपने प्रौढ़वय पे्रमी के प्रति उसके मन में कोई दुराव अथवा शंका नहीं है। वह दुनिया को अपनी दृष्टि देखती है और अपनी संवेदनाओं से महसूस करती है। जबकि श्यामला को ले कर उलझन में डूबे नायक की दृष्टि श्यामला के शारीरिक विशेषताओं पर भी जाती है। मानो नायक अपनी प्रेयसी की हर छोटी-बड़ी बातें जान लेना चाहता है। वस्तुतः यह कथानायक एक पुरुष ही तो है जो स्त्री को पूरी तरह जान लेने को तत्पर रहता है कि कहीं स्त्री का कोई गोपन उससे छूट न जाए। वह स्त्री के विचारों को नहीं अपतिु भाव-भंगिमाओं को भी पढ़ लेना चाहता है जिससे उसे विश्वास हो सके कि वह स्त्री हर दृष्टि से उसके योग्य है और इस बात का आत्मसंतोष कि उसने पे्रेमपात्र का सही चयन किया है। किन्तु इससे ही सब कुछ ठीक हो जाए, यह संभव नहीं है। एक प्रेमी को इस बात की चिन्ता भी रहती है कि प्रेयसी सर्वयोग्य है तो उसे भी अपनी प्रेयसी की दृष्टि में उत्कृष्ट बने रहना होगा-‘‘ मैं उसकी आंखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूं। प्रेमी जो हूं अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।’’
चूंकि प्रेमी भी इसी दुनिया में रहता है जहां लालच है, भ्रष्टाचार है, घोखाधड़ी है। भ्रष्टाचार के साए में सरकारी खरीद का रहस्यमय संसार है, जहां खरीद मात्र रसीदी-कागजों पर होती है। लम्बे-चैड़े बिल बन जाते हैं, खरीदने और बेचने वाले कमीशन के समीकरण पर स्वार्थ एवं लोलुपता के सवाल हल करते रहते हैं। जब शिकायत की जाती है, तो जांच की प्रक्रिया भी चलती है। इसी के समानांतर मुक्तिबोध ने प्रेम के कोमल संवेग को भी यथार्थ के खुरदरे धरातल के समीप रखते हुए ‘पक्षी और दीमक’ कहानी की रचना की। प्रेमी, प्रेयसी और भ्रष्टाचार की एक साथ चर्चा करता कथानक उस समय अपने सोपान की पूर्णता पर जा पहुंचता है जब नायक  श्यामला  को पक्षी और दीमक की नीति कथा सुनाता है- एक पक्षी दीमक बेचने वाले से अपने पंख दे कर दीमक खरीदता है और दीमकों को स्वाद ले कर खाता है। अन्य पक्षी उसे समझाते भी हैं कि यह सौदा उचित नहीं है किन्तु पक्षी अपने साथियों की बात नहीं मानता है। एक दिन ऐसा आता है जब वह दीमकों के बदले अपने दोनों पंख गंवा बैठता है। इसके बाद उसे दीमक बेचने वाला भी दिखाई नहीं देता है। उड़ने से लाचार पक्षी स्वयं दीमक इकट्ठे करने लगता है कि एक दिन अचानक उसे वह दीमक बेचने वाला पुनः दिखाई देता है। पक्षी उस दीमक बेचने वाले से कहता है कि वह उससे दीमकें ले ले और बदले में उसके पंख उसे लौटा दे। इस पर दीमक बेचने वाला दो टूूक उत्तर देता है-‘‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।’’
पक्षी पछता कर रह जाता है। एक दिन एक बिल्ली आती है और उस पंखविहीन पक्षी को मुंह में दबा कर उसके लाचार जीवन को समाप्त कर देती है। इस कथा को सुनाते हुए नायक श्यामला से कहता है कि वह पक्षी की तरह लाचार नहीं हुआ है, वह भ्रष्टाचार का सामना करेगा औा झुकेगा नहीं। इस तरह प्रेम और आसक्ति से आरम्भ कथा एक नीतिकथा की भांति ही चर्मोत्कर्ष पर पहुंचती है। यह कहानी मुक्तिबोध के कथाकौशल का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

तीसरी कहानी ‘‘क्लाॅड ईथरली’’ पांचवीं कहानी। यह एक मनोवैज्ञानिक कथा है। इसमें क्लाॅड ईथरली का चरित्र एक तुलना की भांति नायक के चरित्र के साथ-साथ चलता है। क्लाॅड ईथरली हिरोशिमा पर बम गिराने वाला अमरीकी हवाबाज जिसे अमेरिका में ‘वार हीरो’ कहा गया किन्तु स्वयं क्लाॅड ने जब हिरोशिमा का भयावह परिणाम देखा तो उसकी आत्मा कांप उठी और उसने स्वयं को दोषी मानते हुए सजा का अधिकारी माना। वह चाहता था कि उसे सजा दी जाए लेकिन एक ‘वार हीरो’ को सजा कौन देता। सजा पाने के लिए उसने चोरी, डकैती, मारपीट की मगर काम नहीं बना, अलबत्ता उसे पागलखाने अवश्य भेज दिया गया। यह कहानी एक जासूस पात्र लेखक रूपी पात्र को सुनाता है।
कथानायक एक लेखक है जो एक जासूस को अपना परिचय देता हुआ कहता है कि -‘‘ पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूं, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूं, दगा या फरेब नहीं करताय अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूं कि बुनियादी तौर से बेईमान हूं। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूं।’’
जासूस लेखक को क्लाॅड ईथरली के बारे में बताते-बताते भारत की चर्चा करने लगता है और वह देशवासियों के पश्चिमी संस्कृति के प्रति प्रेम की विवेचना इन शब्दों में करता है-‘‘‘‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है!’’ साहित्य जगत के बारे में भी जासूस का आकलन एकदम स्पष्ट है। वह कहता है कि -‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
जासूस इतने पर ही नहीं रुकता, वह पागलपन की भी व्याख्या करता है, उस पागलपन की जो क्लाॅड ईथरली में भी था और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के किसी न किसी कोने में मौजूद रहता है। जासूस की बातों की तह में उतरते ही लेखक को आभास होता है कि वह स्वयं भी तो क्लाॅड ईथरली है, एक पागलपन से भरा व्यक्ति। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका कथानक, इसके संवाद मुक्तिबोध को साम्यवाद के अंधानुकरण से बड़ी दूर खड़ा हुआ इंगित करते हैं। यह कहानी सिद्ध करती है कि मुक्तिबोध साम्यवादी अथवा पूंजीवादी नहीं वरन् विशुद्ध मानवतावादी थे।
यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानवतावाद   की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लाॅड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्री-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियां में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं, वहीं वे साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।    
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#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #CharchaPlus  #SagarDinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह #मुक्तिबोध 

Thursday, November 16, 2023

बतकाव बिन्ना की | सहूरी के लाने किसां-कहानी सोई जरूरी आएं | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"सहूरी के लाने किसां-कहानी सोई जरूरी आएं" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
सहूरी के लाने किसां-कहानी सोई जरूरी आएं
        - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       एक हते राजा औ एक हती परजा। राजा की मुतकी रानियां हतीं। मनो, बा अलग मसला कहाओ। इते किसां आए राजा और परजा की। ऊ टेम पे राजा खों जबे परजा को सई हाल मालूम करने होत्तो, सो बा अपनो भेस बदल के अपने महल-अटारी से दुबक के निकर पड़त्तो। आजकाल घांई नोंई के पैले पार्टी औ आफिस वारन ने मिल के बना दओ एक ठइयां दौरा कार्यक्रम औ राजा, मंत्री हरें निकर परे ढोल-ढमाका के संगे अपनी परजा को हाल जानबे। जेई से तो जब जे ओरें कोनऊं अस्पतालें देखबे पौंचत आएं सो उते पैलई इत्र छिड़क दओ जात आए। सबरे डाक्टर, नर्सें, वार्ड ब्याय हरें अपनी डरेस सूंट के ऐसे ठाड़े दिखात आएं मनो बे तो मरीज की सेवा में जियत-मरत होएं। कोनऊं-कोनऊं ऐसे होत बी आएं, मनो अब ऊ टाईप की प्रजाति बढ़ाई जा रई। अब तो बा दूसरी टाईप की प्रजाति दिखात आए जोन में सेवा भावना नोईं, मेवा भावना रैत आए। अब का करो जाए जो किस्मत फूटी होय तो हिरना सोई बाघ घांईं दहाड़न लगत आए।
सो का भओ के राजा जी अपने दरबार में बैठे हते औ चापलूसन ने चापलूसी चालू कर रखी हती। एक दरबारी बोलो,‘‘महाराज! आप घांई राजा तो ई धरती पे ने कभऊं भओ औ ने कभऊं हुइए।’’
‘‘हऔ महाराज! आपके राज में आपकी परजा ऐश कर रई। खूबई खा रई औ खूबई उड़ा रई।’’ दूसरो दरबारी बोल परो।
‘‘महाराज! जो मैं कऊं झूठ, सो मोरो सिर काट लइयो! मनो सांची जे आए के आपके पुरखन के टेम पे बी ऐसो नोनो राज नईं रओ, जैसो के आपके ई टेम पे आए।’’ तीसरो दरबारी औरई तरचटुआ निकरो।
राजा ने अपने दरबारियों के मों से तारीफें सुनी, सो बा फूलो न समाओ। ऊको सीना फूल के तिगुनो हो गओ। गरदन हती सो अकड़न लगी। शान के मारे मुंडी झुकबो भूल गई। तनक देर में दरबार हो टेम हो गओ खतम। राजा जी उठ खड़े भए।
राजा जी अपने महल में पौंचेई हते के बड़ी रानी बोलीं-‘‘महाराज! हमें नौलखा हार चाऊंने।’’
‘‘सो ईमें का? अभईं मंगा देत आएं।’’ राजा जी सो ऊंसई दरबार से फूले-फूले चले आ रए हते, उन्ने झट से कई।
‘‘जे का? बड़ी रानी की बड़ी सुध आए औ हम का आपकी दासी आएं जो हमाई नईं पूछ रए?’’ मंझली रानी आ टपकीं। बे पैलई से परदा के पांछू छिपी ठाड़ी हतीं।
‘‘कओ! तुमें का चाउने?’’ राजा जी ने मंझली रानी से पूछी।
‘‘इने नौलखा दिला रए, सो हमें कछू नईं तो हीरों को हार देवा देओ।’’ मंझली रानी इठलात भई बोलीं।
‘‘हऔ! सो लेओ।’’ कैत भए राजा जी बोले। इत्ते में संझली रानी आ पौंची।
‘‘महाराज! जे दोई तुमाई लाड़ली कैहाईं औ हम को आएं तुमाई?’’ संझली रानी रूठबो जतात भई बोलीं।
‘‘तुम सोई हमाई रानी ठैरीं! बोलो तुमाए लाने का मंगा दएं?’’ राजा जी ने संझली रानी से पूछी।
‘‘हमाए लाने केसर को इत्र मंगा देओ!’’ संझली रानी ने अपनी डिमांड बताई।
‘‘केसर को इत्र? जो कोन लगात आए?’’ राजा जी को भओ अचरज।
‘‘हम लगाबी औ कोन लगाहे? आप मंगा रए के नईं?’’ संझली रानी मों बनात भई बोलीं।
‘‘हऔ, काय ने मंगाबी?’’ कैत भए राजा जी सेवक से बोले,‘‘सुनो, सुनार के संगे तुम बा इत्र वारे के इते सोई चले जइयो औ उसे कइयो के राजी जू के लाने केसर को इत्र ले के फौरन पौंचो।’’
‘‘हऔ हजूर!’’ सेवक ने कई। के इत्ते में छोटी रानी आ गईं।
‘‘वा महाराज, वा! एक के लाने नौलखा, एक के लाने हीरों को हार और एक के लाने केसर को इत्र मंगाओ जा रओ, औ हमाई आपको फिकरई नइयां? आपने एक दफा जे ने सोची के छोटी रानी से सोई पूछ लओ जाए के उने कछू चाउने तो नईं? मगर आप काय ऐसो सोचहो? आपके लाने सो जे तीनऊं सगी वारी आएं औ हमाई तो कोनऊं खों सोचबे की फुरसत नइयां।’’ छोटी रानी ने अल्ल-गल्ल सब कछू सुना दओ।
‘‘ऐसो ने कओ! जे इन ओरन ने खुदई अपनी इच्छा बताई आए, अब तुम सोई बोल देओ के तुमें का चाउंने?’’ राजा जी ने छोटी रानी से पूछी।
‘‘हमें ने नौलखा चाउने, ने हीरा चाउंने, ने इत्तर-मित्तर चाउंने। हम सो जे चात आएं के आप हमाई एक बात मान लेओ।’’ छोटी रानी बोली।
‘‘कओ, का बात आए?’’ राजा जी ने पूछी।
‘‘पैले जे सेवक को जान देओ औ जे रानियन खों सोई आराम करन देओ। फेर बताबी।’’ कैत भई छोटी रानी उते से चली गई।
राज जी जानत्ते के जब लौं सुनार और इत्र वारो ने आ जैहे तब लौं बे तीनऊं रानियां उते से टरबेे वारी ने हतीं। कछू देर में सुनार आ गओ और संगे इत्र वारो सोई। तीनों रानियन खों अपनी-अपनी चीजें मिल गईं औ बे इतरात भईं अपने-अपने कमरा में चली गईं। राजा ने सेवक से कई के जे सुनार औ इत्र वारे खों खजाना से पइसा देवा देओ। राजा जी को आदेश पा के सेवक उन दोई जने खों ले के उते से चलो गओ।
अब राज जी छोटी रानी के लिंगे पौंचे।
‘‘कऔ का कै रई हतीं?’’ राजा जी ने छोटी रानी से पूछी।
‘‘हम जे कै रए महाराज! के आप खजाना को पइसा लुटात फिर रए, कभऊं परजा की सोई सोच लेओ करे।’’ छोटी रानी ने सूदे-सूदे कै दओ।
‘‘परजा की का सोचने? हमाए दरबारी आजई बता रए हते के हमाई परजा हमाए राज में इत्ती सुखी आए के जित्ती पैलऊं कभऊं ने हती।’’ राजा जी अकड़त भए बोले।
‘‘सुनी-सुनाई में ने परो! तनक भेस बदल के निकरो औ अपनी आंखन से देखो के परजा सुखी आए के दुखी आए?’’ छोटी रानी बोली।
‘‘तुमें का पतो? औ तुमई सोचो के जो परजा खों कोनऊं दुख होतो तो बा हमाएं लिंगे ने आती अपनी फरियाद ले के?’’ राजा जी बोले।
‘‘जो कां की फंकाई दे रए? ऐसो कऊं हो ‘‘जो कां की फंकाई दे रए? ऐसो कऊं हो पात आए के परजा अपनो दुख सुनाबे राजा के लिंगे पौंच पाए? दरबारी का, दरबार के दरबान लौं उने दरवज्जा से नईं घुसन देत आएं। औ आप पूछ रए के हमें कैसे पतो? सो सुनो! हम कल्ल रात खों भेस बदल के निकरे हते औ हमने अपने जेई दोई सगे कानों से सुनी के परजा आपके लाने कित्तो गरिया रई हती।’’ रानी कोन डरात्ती, ऊने सांची-सांची बोल दई। अब राजा सोच में पर गए। उने लगो के कऊं छोटी रानी सच्ची ने कै रई होंए?
‘‘चलो, आज हम सोई तुमाए संगे रात को भेस बदल के चलबी।’’ राजा जी बोले।
‘‘पर कोनऊं से ई बारे में कइयो ने! ढिंढोरा ने पीटियो!’’ छोटी रानी ने चेताया।
रात भई सो दोई संगे निकरे। फटो-पुरानो कपड़ा पैन्ह के। दोई पूरे शहर में घूमें। राजा जी ने सोई अपनी कानों से सुन लई के परजा उनके लाने कित्तो गरिया रई हती। राजा जी की आंखें हतीं सो खुल गईं। उन्ने दूसरई दिन तीनऊं रानियन से उनको जेवर औ इत्र छुड़ाओ औ वापस करा दओ। दरबारियन के खरचा में सोई कटौती को ऐलान कर दओ। संगे परजा के लाने काम देवाबे की सांची वारी घोषणा कर दई। दरबारी हते सो मों दाब के रै गए। उने समझ ने परी के राजा जी को होश कां से आ गओ। औ उते परजा ने सुनी सो बा जैकारे करन लगी।
जे किसां सुनबे में नोनी लगी ने? किसांएं हमेसई नोनी होत आएं, पर असल जिनगी नोईं। सो कभऊं-कभऊं किसां-कहानी कै लओ जाए सो जी हल्को हो जात आए, सहूरी हो जात आए। ने तो मैंगाई सो अब कोनऊं मुद्दा रओ नई। मुतके राजा बनबे की लेन में ठाड़े औ मुतकी घोषणाएं कर रए। मुफतखोरी कराबे की होड़ मची दिखात आए। अब का-का की कएं? मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम !
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