"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मां का पत्र पं. नेहरू के नाम
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
एक वृद्धा मां का पुत्र यदि संदेहास्पद स्थितियों में दिवंगत हो जाए, वह भी नज़रबंदी में तो उस मां पर क्या गुज़रेगी, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। वह व्यथित मां एक सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति से न्याय की गुहार करेगी ही। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद उनकी मां योगमाया ने अपने पुत्र की संदेहास्पद मृत्यु की जांच किए जाने की मांग तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहार लाल नेहरू को पत्र लिख कर की थी। यह पत्राचार कई पत्रों तक चला। मां योगमाया का प्रथम पत्र यहां प्रस्तुत है ताकि भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के अतीत को महसूस किया जा सके। लगभग पूरा पत्राचार सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व’’ श्रृंखला की मेरी छः पुस्तकों में से पुस्तक ‘‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी’’ में मौजूद है।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे ही राष्ट्रवादी नेता थे जो जीवनपर्यन्त राष्ट्र के लिए समर्पित रहे। वे महान शिक्षाविद, चिन्तक तथा प्रखर देशभक्त थे। 6 जुलाई, 1901 को कोलकाता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ। उनके पिता श्री आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। किन्तु डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपनी मां योगमाया के सबसे अधिक निकट थे। अपनी बाल्यावस्था से उन्होंने सत्यनिष्ठा, जनसेवा एवं देशभक्ति की भावना उन्हें अपनी मां से मिली। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सदैव न्याय के पक्ष में खड़े रहे। इसीलिए जब ढाका में दंगे भड़के तो वे ढाका गए और उन्होंने निर्भीकता पूर्वक दंगाप्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। मां को पुत्र का ढाका जाना भयभीत अवश्य किया किन्तु उन्होंने रोका नहीं। मां योगमाया को श्यामा प्रसाद जी के कश्मीर रवाना होने का भी समाचार मिला था किन्तु तब उन्होंने नहीं सोचा था कि यह उनके पुत्र की अंतिम यात्रा सिद्ध होने वाली है।
मां योगमाया देवी को जब अपने पुत्र श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु (23 जून 1953) हो जाने का समाचार मिला तो वे स्तब्ध रह गईं। उन्हें इस समाचार पर विश्वास ही नहीं हुआ। फिर जब मां योगमाया को पुत्र की मृत्यु की संदेहास्पद परिस्थितियों के बारे में पता चला तो वे शेख अब्दुल्ला सरकार की भूमिका से क्रोधित और व्यथित हो उठीं। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसका प्रमुख अंश इस प्रकार हैं -
‘‘प्रिय श्री नेहरू,
आपका दिनांक 30 जून का पत्र डाॅ. विधानचन्द्र राय ने 2 जुलाई को मेरे पास भेजा। संवेदना एवं सहानुभूति के संदेश के लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूं। राष्ट्र मेरे प्रिय पुत्र के निधन का शोक मना रहा है। उन्हें एक शहीद की मृत्यु प्राप्त हुई है। उनकी मां होने के नाते मुझे जो शोक है, वह इतना गहरा और अनन्य है कि शब्दों में उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता।
मैं आपसे सांत्वना प्राप्त करने के लिए आपको यह पत्र नहीं लिख रही हूं। किन्तु मैं आपसे न्याय की मांग करती हूं। मेरे पुत्र की मृत्यु नजरबन्दी में - बिना मुकदमा चलाए नजरबन्दी में हुई। आपने अपने पत्र में यह समझाने की कोशिश की है कि कश्मीर सरकार ने वह सब कुछ किया जो किया जाना चाहिए था। आपकी धारणा उन आश्वासनों और सूचनाओं पर आधारित है, जो आपको प्राप्त हुई हैं। मैं पूछती हूं कि ऐसी सूचना का क्या मूल्य है जब यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा दी गई हो जिन पर खुद मुकदमा चलना चाहिए। आपका कहना है कि आप मेरे पुत्र की नजरबन्दी के दौरान कश्मीर गए थे। परन्तु मुझे हैरानी है कि उनसे व्यक्तिगत रूप से वहां मिलने और उनके स्वास्थ्य तथा प्रबन्ध के बारे में अपने आपको संतुष्ट कर लेने से आपको किसने रोका था?
उनकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हुई है। क्या यह अत्यधिक आश्चर्यजनक एवं स्तब्धकारी नहीं है कि जब से उन्हें वहां नजरबन्द किया गया, उसके बाद मुझे, जो मैं उनकी मां हूं, सबसे पहली सूचना जो कश्मीर सरकार से मिली वह यह थी कि आपके पुत्र अब इस संसार में नहीं रहे और वह भी उनकी मृत्यु के कम से कम दो घंटे के उपरान्त? और यह संदेश कितने निर्दयतापूर्ण संक्षिप्त तरीके से भेजा गया था। उन्होंने लिखा था कि उन्हें अस्पताल ले जाया गया है, उनकी मृत्यु के दुखद समाचार के बाद हमारे पास पहुंचा। मेरे पास इस बात की पक्की जानकारी है कि मेरा पुत्र अपनी नजरबन्दी के दौरान लगभग आरंभ से ही अस्वस्थ था। कश्मीर की सरकार अथवा आपकी सरकार को भी मेरे पास अथवा मेरे परिवार के पास वह सभी जानकारी भेजने के लिए क्यों नहीं कहा गया, जो कुछ भी आपके या उनके पास थी?
यह बात भी साफ है कि कश्मीर सरकार ने श्यामा प्रसाद के स्वास्थ्य के बारे में उसके पिछले इतिहास को जानने की कभी परवाह नहीं की और आवश्यकता पघ्ने पर ‘नर्सिंगहोम’ की व्यवस्था करने तथा आपातकालीन चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की चिंता नहीं की। यहां तक कि उनके बार-बार बीमार होने को भी एक चेतावनी के रूप में नहीं लिया गया। किसी प्रकार की भी चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराने में अनावश्यक विलम्ब, अत्यधिक नासमझ तरीके से उन्हें अस्पताल ले जाया जाना, यहां तक कि अस्पताल में उनके साथ उनके दो नजरबन्द सहयोगियों को उपस्थित रहने की अनुमति देने से इनकार करना, सम्बंधित अधिकारियों के क्रूर व्यवहार के कुछ जीते-जागते उदाहरण हैं।
मेरा उन (कश्मीर सरकार) पर यह आरोप है कि उन्होंने अपने इस नियत कर्तव्य का पालन करने में घोर उपेक्षा की और वे इसके निर्वहन में विफल रहे। यह एक ऐसा विषय है, जिसकी जांच होनी चाहिए। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि उन्होंने जो पत्र दिनांक 15 जून को लिखा था वह हमें कश्मीर सरकार द्वारा 24 जून को अर्थात् उनका शव भेजने के एक दिन बाद एक पैकेट में डालकर भेजा गया, और यह पैकेट गत 27 जून को हमें मिला? मुझे आपसे यह सुनकर आश्चर्य और शर्म महसूस होती है कि उन्हें किसी कारागार में नहीं, अपितु श्रीनगर की सुप्रसिद्ध डल झील के किनारे एक निजी बंगले में ठहराया गया था। क्या कोई सोच सकता है कि एक सोने के पिंजरे में कैदी खुश रहता है? स्वतंत्र भारत का एक निर्भीक सपूत बिना मुकदमा चलाए, नजरबंदी में अत्यधिक दुखान्त एवं रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु को प्राप्त हुआ है।
मैं, उस महान दिवंगत आत्मा की मां, यह मांग करती हूं कि इसकी एक स्वतंत्र एवं सक्षम व्यक्तियों द्वारा अविलम्ब एक पूर्णतया निष्पक्ष एवं खुली जांच होनी चाहिए। मैं यह जरूर चाहती हूं कि एक स्वतंत्र देश में घटित इस महान दुखान्त घटना के बारे में भारत की जनता स्वयं निर्णय करे कि इसके असली कारण क्या थे और आपकी सरकार ने इसमें क्या भूमिका अदा की? यदि किसी व्यक्ति द्वारा, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, कहीं कोई गलती की गई है तो न्याय अपना काम करे और जनता सावधान हो जाए ताकि स्वतंत्र भारत में फिर कभी किसी मां को उसी पीड़ा और शोक के साथ आंसू न बहाने पड़ें।
आपने मुझे अपने योग्य सेवा से बिना किसी हिचकिचाहट के सूचित करने की महती कृपा की है। मेरी ओर से, भारत की माताओं की ओर से हमारी यही मांग है। भगवान आपको साहस दे कि आप सत्य को प्रकाश में आने दें।
मेरे आशीर्वाद सहित, शोकाकुल, भवदीया,
हस्ताक्षर:- योगमाया देवी’’
पं. जवाहर लाल नेहरू ने उनके पत्र का उत्तर दिया जिससे मां योगमाया संतुष्ट नहीं हुईं और वे लगातार पं. नेहरू से पत्राचार करती रहीं। एक वृद्धा मां जिसने अपने 52 वर्षीय पुत्र को संदेहास्पद स्थितियों में मृत्यु के हाथों खोया हो, तथा उसकी जांच की मांग बार-बार ठुकराई जाती रही हो, ऐसी मां के हृदय की पीड़ा को शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। वस्तुतः इतिहास में कई ऐसे प्रश्न हैं जो आज तक अनुत्तरित हैं। बस, इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी राष्ट्र के निर्माण में राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों के प्रयासों एवं बलिदान की सबसे अहम भूमिका रही है।
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