Tuesday, November 28, 2023

पुस्तक समीक्षा | बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.11.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रो. बहादुर सिंह परमार द्वारा संपादित "चौकड़िया कलश" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
बुंदेलीकाव्य की चौकड़िया विधा को केन्द्र में लाने का सार्थक प्रयास      
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - चौकड़िया-कलश
कवि        - लल्लूमल चौरसिया
संपादक     - प्रो. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक     - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, जी-508, गली नं. 17,विजयपार्क, दिल्ली-110053
मूल्य        - 395/-
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बुंदेलखंड की साहित्यिक विधाओं में विविधता का अपरिमित सौंदर्य है। काव्य की अनेक विधाएं इस भू-भाग में पुष्पित-पल्लवित हुई हैं। इन्हीं में से एक विधा है चौकड़िया। जब बुंदेली काव्य की चर्चा आती है तो कवि ईसुरी का स्मरण सबसे पहले ताजा हो जाता है। ईसुरी ने चौकड़ियां लिखीं जो बहुत लोकप्रिय हुईं। कवि ईसुरी के बाद भी चौकड़िया विधा पर निरंतर काव्य सृजन होता रहा। कुछ प्रकाश में आया और कुछ अंधकार में ही छिपा रह गया। आमतौर पर पुस्तक के रूप में किसी भी सृजन के सामने आने में इच्छाशक्ति तथा आर्थिक स्थिति आड़े आ जाती है। यदि बात लोकभाषा में सृजन की हो तो लोकांचल में रहने वाले सर्जक प्रकाशन की प्रक्रिया की जानकारी न रखने के कारण उस ओर ध्यान ही नहीं देते हैं और उनका महत्वपूर्ण सृजन किसी डायरी, किसी पुस्तिका अथवा फुटकर पन्नों में रह जाने के कारण सुधि पाठकों तक नहीं पहुंच पाता है। इस दिशा में कई जागरूक व्यक्ति हैं जो अंधेरे में खोते जा रहे ऐसे तमाम सृजन को सामने लाने का अथक प्रयास कर रहे हैं। बुंदेलखंड अंचल में उनमें से एक प्रतिनिधि नाम है प्रो. बहादुर सिंह परमार का। दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा लिखा गया बुंदेलखंड का इतिहास जो कि बारह खंडों में है, उसे संपादित कर प्रकाशित कराने का श्रेय भी प्रो. बहादुर सिंह परमार को ही है। वे बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण एवं उन्नयन के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं। इसी क्रम में उन्होंने कवि लल्लूमल चौरसिया के काव्य संग्रह ‘‘चौकड़िया-कलश’’ को संपादित कर प्रकाशित कराया है। यह बुंदेली काव्य की चौकड़िया विधा को पुनः केन्द्र में लाने का सशक्त प्रयास है।
विद्वानों के अनुसार चौकड़िया में दो प्रकार के छंद प्रचलित हैं- ईसुरी छंद और टहूका छंद। दोनों ही छंद 16-12 में विधान में लिखे जाते हैं। यह छंद चार पद में ही लिखा जाता है, जिसके पदांत में तुक मिलाई जाती हैं। प्रथम पद के सोलह मात्रा की चौकड़ यति भी तुकांत में शामिल होती है। अर्थात् कवि को एक चौकड़िया लिखने में पांच तुकांते चाहिए। जिसमें एक बार प्रयोग की गई तुकांत दुबारा प्रयोग नहीं लाई जानी चाहिए, भले ही उसका अर्थ अलग हो। अंतिम पद में कवि के नाम/उपनाम के साथ एक कथ्य संदेश भी रहता है। यह माना जाता है कि चौकड़िया का आरम्भ ईसुरी ने किया किन्तु टहूका छंद के नाम से लिखी जाने वाली चौकड़िया भी बुंदेली अंचल में विद्यमान रही है जिसका आरम्भ लोकसृजन के रूप में है अतः यह कब शुरू हुई इस पर विद्वानों में मतभेद हैं।
संग्रह की भूमिका में प्रो. बहादुर सिंह ने लिखा है कि ‘‘ चौकड़ियां छंद बुंदेलखण्ड में अत्यधिक लोकप्रिय व प्रचलित छंद है। इसको ऊंचाइयां देने में बुंदेली त्रयी कवि ईसुरी, ख्यालीराम और गंगाधर व्यास प्रमुख हैं। इनके बाद लगातार बुंदेली कवियों द्वारा चौकड़िया छंद में रचनाएं लिखीं जा रही है, जिनमें प्रकाश जी, अवधेश, शिवाजी चौहान, अवध किशोर जड़िया, गोपालदास रूसिया, मोहनदास गुप्त, नर्मदा प्रसाद गुप्त ‘प्रसाद’, गुणसागर सत्यार्थी, शिवानंद बुंदेला, कुंजीलाल पटेल, प्रेमनारायण पाठक, लक्ष्मी प्रसाद गुप्त, प्रमोद कवि जैसे आदि अनेक कवियों की सुदीर्घ परम्परा है। इसी परम्परा में श्री लल्लूमल चौरसिया ने चौकड़िया छंद में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है, जो चौकड़िया कलश के रूप में आपके समक्ष है।’’
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, छतरपुर (म.प्र.) की अध्ययनशाला एवं शोध केन्द्र के हिन्दी के आचार्य प्रो. बहादुर सिंह परमार ने इस काव्य संग्रह के प्रकाशन के पूर्व की स्थितियों पर जानकारी देते हुए लिखा है कि ‘‘रचनाकार श्री लल्लूमल चौरसिया मेरी उच्च शिक्षा की प्रारंभिक नौकरी के समय शासकीय महाविद्यालय, बिजावर में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में साथ में कार्यरत रहें। तभी इनकी काव्य प्रतिभा से परिचय हुआ। समय गुजरता रहा लेकिन उनका संग्रह न आ सका। वृद्धावस्था के चलते उन्होंने पांडुलिपि मुझे सौंपी फिर भी प्रस्तुत संग्रह ‘चौकड़िया कलश’ का प्रकाशन बहुत दिनों से लंबित रहा। इनकी मूल रचनाओं का परिमार्जन अग्रज सुकवि गीतकार श्री सुरेंद्र शर्मा श्शिरीषश् द्वारा किया गया, उनकी स्वास्थ्यगत परेशानियों से उन्होंने मुझे निर्देशित किया कि इनका संपादन कर प्रकाशन करायें। आदेश को शिरोधार्य कर व्यस्तताओं के बीच प्रयास किया परिणाम आपके सामने है।’’
    कवि लल्लूमल चौरसिया का जन्म 30 दिसम्बर 1943 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के ग्राम पीपट में हुआ था। उन्होंने मध्यप्रदेश शासन के उचच शिक्षा विभाग में पुस्तकालयाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्ति पाई तथा आज भी वे साहित्य सृजन एवं चिंतन में लीन रहते हैं। उनकी काव्य प्रतिभा चौकड़िया छंद में मुखरित हुई है। उनकी चौकड़िया ईसुरी का चौकड़ियों से यदि इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। इनमें बुंदेली अंचल के लोकव्यवहार के सोंधेपन को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘वाँकी भूम बुन्देली न्यारी, हमें प्राण से प्यारी ’’ लिखते हुए कवि लल्लूमल  चौरसिया ने बुंदेलखंड की भौगोलिक विशेषताओं को अपनी चौकड़िया में बड़े मनोहारी ढंग से पिरोया है-
केन धसान नर्मदा जाके, जीवन की संचारी।
विन्ध्यवासिनी चित्रकूट की, महिमा पर बलिहारी ।।
सबसें भूमि बुन्देली प्यारी, विपत विड़ारन वारी।
कुदवा समाँ बसारा कुटकी, जुन्डी की बलिहारी ।।
पिसी जवा उर धान लठारा, काकुन तन हितकारी ।
छप्पन भोग लगाकें इनके, मिटवै निरसइ सारी।।

कवि चौरसिया की इन पंक्तियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है जिसमें उन्होंने राह चलती स्त्री के प्रति उद्दण्ड लोगों के रवैये को लक्षित किया है और ऐसे लोगों के लिए ‘‘फरचट्टा’’ शब्द का प्रयोग किया है। कवि के अनुसार ऐसे लोग अवसर की तलाश में रहते हैं और राह चलती स्त्रियों को घूरते रहते हैं। यदि इन्हें अवसर मिल जाए तो ये ‘‘साख में बट्टा’’ लगाने से नहीं चूकते हैं -
कऊँ कऊँ अँगुरिन की दुबीच सें, सामूँ कछू निहारें।
कझ्यक एक झलक खाँ ठाँड़े, पलक पाँवड़े डारें।।
गुइयाँ डारन लगौ दुपट्टा, नजरन लागे गट्टा ।
पीठ पछारुं चर्चा सोइ, करन लगे फरचट्टा ।।
देखत डारें लार गली में, मारें वाज झपट्टा।
तनक चूक में देखौ बिन्नू, लगै साख में बट्टा ।।

फिर इसी तारतम्य में वे उस प्रेम भावना की भी बात करते हैं जिसमें परिष्कार है। कवि चौरसिया ने श्रृंगार रस को भी बड़ी सुंदरता एवं सहजता से व्यक्त किया है। वे कुशलता पूर्वक प्रेयसी नायिका एवं प्रिय नायक के मनोभावों को वर्णित कर देते हैं, किन्तु कहीं भी सीमाएं नहीं लांघते हैं-
हरदम नैनन डोलत रातीं, रूप अनूप दिखातीं ।
बिना तार के तार जोर कें, कानन में बतयातीं ।।
पकर स्वाँस की डोर हृदय को, मन माफिक धड़कातीं।
यौवन आँच लहू खाँ दैकें, रग-रग खाँ फड़कातीं ।।
गुइयाँ जब ऐंगर आ जातीं, हँसतीं और हँसातीं।
तन मन के सारे कष्टन कों, छिन में तुरत भुलातीं ।।
सूने जीवन के मरुस्थल में, नौने फूल खिलातीं।
छणिक मिलन में पुनः मिलन की, फिर-फिर ललक बड़ातीं ।।

लल्लूमल चौरसिया उनका सृजन श्रृंगार रस तक सीमित नहीं है। उन्होंने समाज में व्याप्त व्यसनों पर भी लक्ष्य किया है। बुंदेलखंड में ग्रामीण अंचल में लोगों को प्रायः आर्थिक विपन्नता से जूझना पड़ता है। उस पर यदि घर के मुखिया को ही ‘‘दारू खोरी’’ अर्थात् शराब पीने की आदत हो जाए तो घर का सत्यानाश होना तय है। इसीलिए कवि ने ‘दारू खोरी’ न करने का संदेश देते हुए चौकड़ियां लिखी हैं-
दारु पीकें रोटी खावें, नाहक जिंस नशावें।
टोरत कौर हाँत के काँपत, तरकारी लुड़कावें ।।
झूमत कौर लगे डाँड़ी में, सब मों तुरत भिड़ावें।
खात-खात थारी पै लुड़कें, झबलन लार बहावें ।।

दारु पीवौ छोड़ौ सइयाँ, परों तुमारी पड्याँ।
खुखलौ भओ करेजौ जरकें, तन में धज रइ नइयाँ ।।
भर ज्वानी में चबुआ बैठे, बन गइ कमर धनुइयाँ।
खों खों करौ रात भर लेटे, तनक परत कल नइयाँ।।

जो तुम चाहौ नेक भलाई, नशा छोड़ दो भाई।
दारु पियें गलिन में गिरकें, होश हवास गँवाई।।
पाँव उठाकें कूकर मूतै, जग में होत हँसाई।
सात पुस्त की इज्जत छिन में, माटी में मिल जाई ।।

दारु होश हवास विगारै, बुद्धि भ्रष्ट कर डारै।
मद के अंधे बने भेड़िया, कुकरम करम विचारै ।।
बेटी-बहु वैन के रिश्ते, मद में सबई बिसारै।
लोक लाज मरजाद नशा में, मन से तुरत उतारै।।
- इतना व्यवहारिक वर्णन एवं चेतावनी भरा संदेश देती ये चौकड़ियां लोकव्यवहार में जागरूकता लाने में सहायक हैं। 
कवि चौरसिया ने देशद्रोहियों को भी निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है-
घर कौ भेदी भेद बताकें, छिन में लंका ढायें।
देश बचावें इन द्रोहिन खाँ, सूली पै लटकायें।।

वस्तुतः विगत कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य में काव्य की पाश्चात्य शैली एवं अरबी-फारसी शैली ने अपना प्रभाव जमा लिया है। यह सच है कि शैलियों की विविधता एवं बहुसंख्यात्मकता साहित्य को समृद्ध करती है किन्तु अपनी मौलिक एवं देशज शैली को भूल कर या त्याग कर किसी अन्य शैली में रम जाना अपनी जड़ों से कटने के समान है। काव्य की देशज शैलियां हमेशा संबंधित अंचल की पहचान लिए हुए होती हैं। इस पहचान की पुनस्र्थापना की दिशा में ‘‘चौकड़िया-कलश’’ का प्रकाशित होना एक महत्वपूर्ण कदम है और निश्चत ही इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। हां, इस हार्डबाउंड पुस्तक का मूल्य रुपये 395/- बहुत अधिक है अतः इसे पेपरबैक में कम मूल्य पर भी प्रकाशित किया जाना चाहिए, तब जन-जन तक पहुंचने का इसका असली उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा।
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