Friday, November 17, 2023

चर्चा प्लस | गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस  
गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो।’’ यह मुक्तिबोध का मानवतावादी दृष्टिकोण था जो उनकी कहानियों में बेलौस मुखर हुआ।
13 नवंबर, 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर, ग्वालियर में जन्म हुआ था गजानन माधव मुक्तिबोध का। वे 20वीं शताब्दी के सबसे सशक्त  कवि, आलोचक माने जाते हैं। मुक्तिबोध ‘नया खून’ और ‘वसुधा’ के सहायक संपादक भी रहे। वे तार सप्तक के पहले कवि थे किन्तु उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘‘चांद का मुंह टेढ़ा है’’ उनकी मृत्यु (11 सितम्बर 1964) के बाद प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘काठ का सपना’ प्रकाशित हुई जिसमें उनकी कहानियां संकलित हैं। मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वान मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित मानते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताया है। किन्तु यह माना जाता है कि मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववाद दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी कहानियों की मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। इस लेख में मैंने मुक्तिबोध की मात्र तीन कहानियों कसे चुना है। इन कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकेगा।¬¬
‘‘ब्रह्मराक्षस’’ एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। इतना आज्ञाकारी शिष्य कि उसने अपनी उन जिज्ञासाओं को शांत रखा जिसका उत्तर अन्य विद्यार्थी सबसे पहले पाने का प्रयत्न करते। किन्तु गुरु भी ऐसा अनुशासनप्रिय था कि वह अपने शिष्यों को आठवीं मंज़िल से उतर कर सातवीं मंज़िल पर भी नहीं जाने देता और शिक्षांत में सीधे कर की ओर प्रस्थानित होने का निर्देश देता। आज्ञाकारी शिष्य पर भी यही कठोर अनुशासन लागू था। गुरु की समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
शिष्य यह सब जानकर, सुन कर चकित रह जाता है किन्तु वह यह भी समझ जाता है कि अब गुरु का स्थान लेना ही उसकी नियति है और वह उसे स्वीकार कर लेता है।
इस कहानी में मुक्तिबोध भारतीय शिक्षा परम्परा को रेखांकित करते हैं। वे गुरु- शिष्य परम्परा के प्रवाह में गुरु और शिष्य की महत्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हैं। एक योग्य शिष्य मिलने पर ही, उसे विद्या में पारंगत कर के शिक्षक स्वयं को कत्र्तव्यमुक्त मान पाता है, यही भारतीय शैक्षिक परम्परा रही है, यह परम्परा कहीं छूटती जा रही है, इस बात की पीड़ा मुक्तिबोध के मन में अवश्य ही रही होगी।

दूसरी कहानी ‘‘पक्षी और दीमक’’ है। इस कहानी में कई तथ्य एक साथ उभर कर सामने आते हैं। जैसे- शिक्षाजगत में व्याप्त भ्रष्टाचार, पंचतंत्र जैसी नीतिकथाएं एवं युवा नायिका श्यामला के प्रति नायक का आकर्षण। कथानायक प्रौढ़ वय का है जो अपनी युवा सहगामिनी श्यामला के प्रति अपने प्रेम और व्यवहार को ले कर उलझन का अनुभव करता है। इसके विपरीत श्यामला सहज भाव से अपने संबंधों को जी रही है। अपने प्रौढ़वय पे्रमी के प्रति उसके मन में कोई दुराव अथवा शंका नहीं है। वह दुनिया को अपनी दृष्टि देखती है और अपनी संवेदनाओं से महसूस करती है। जबकि श्यामला को ले कर उलझन में डूबे नायक की दृष्टि श्यामला के शारीरिक विशेषताओं पर भी जाती है। मानो नायक अपनी प्रेयसी की हर छोटी-बड़ी बातें जान लेना चाहता है। वस्तुतः यह कथानायक एक पुरुष ही तो है जो स्त्री को पूरी तरह जान लेने को तत्पर रहता है कि कहीं स्त्री का कोई गोपन उससे छूट न जाए। वह स्त्री के विचारों को नहीं अपतिु भाव-भंगिमाओं को भी पढ़ लेना चाहता है जिससे उसे विश्वास हो सके कि वह स्त्री हर दृष्टि से उसके योग्य है और इस बात का आत्मसंतोष कि उसने पे्रेमपात्र का सही चयन किया है। किन्तु इससे ही सब कुछ ठीक हो जाए, यह संभव नहीं है। एक प्रेमी को इस बात की चिन्ता भी रहती है कि प्रेयसी सर्वयोग्य है तो उसे भी अपनी प्रेयसी की दृष्टि में उत्कृष्ट बने रहना होगा-‘‘ मैं उसकी आंखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूं। प्रेमी जो हूं अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।’’
चूंकि प्रेमी भी इसी दुनिया में रहता है जहां लालच है, भ्रष्टाचार है, घोखाधड़ी है। भ्रष्टाचार के साए में सरकारी खरीद का रहस्यमय संसार है, जहां खरीद मात्र रसीदी-कागजों पर होती है। लम्बे-चैड़े बिल बन जाते हैं, खरीदने और बेचने वाले कमीशन के समीकरण पर स्वार्थ एवं लोलुपता के सवाल हल करते रहते हैं। जब शिकायत की जाती है, तो जांच की प्रक्रिया भी चलती है। इसी के समानांतर मुक्तिबोध ने प्रेम के कोमल संवेग को भी यथार्थ के खुरदरे धरातल के समीप रखते हुए ‘पक्षी और दीमक’ कहानी की रचना की। प्रेमी, प्रेयसी और भ्रष्टाचार की एक साथ चर्चा करता कथानक उस समय अपने सोपान की पूर्णता पर जा पहुंचता है जब नायक  श्यामला  को पक्षी और दीमक की नीति कथा सुनाता है- एक पक्षी दीमक बेचने वाले से अपने पंख दे कर दीमक खरीदता है और दीमकों को स्वाद ले कर खाता है। अन्य पक्षी उसे समझाते भी हैं कि यह सौदा उचित नहीं है किन्तु पक्षी अपने साथियों की बात नहीं मानता है। एक दिन ऐसा आता है जब वह दीमकों के बदले अपने दोनों पंख गंवा बैठता है। इसके बाद उसे दीमक बेचने वाला भी दिखाई नहीं देता है। उड़ने से लाचार पक्षी स्वयं दीमक इकट्ठे करने लगता है कि एक दिन अचानक उसे वह दीमक बेचने वाला पुनः दिखाई देता है। पक्षी उस दीमक बेचने वाले से कहता है कि वह उससे दीमकें ले ले और बदले में उसके पंख उसे लौटा दे। इस पर दीमक बेचने वाला दो टूूक उत्तर देता है-‘‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।’’
पक्षी पछता कर रह जाता है। एक दिन एक बिल्ली आती है और उस पंखविहीन पक्षी को मुंह में दबा कर उसके लाचार जीवन को समाप्त कर देती है। इस कथा को सुनाते हुए नायक श्यामला से कहता है कि वह पक्षी की तरह लाचार नहीं हुआ है, वह भ्रष्टाचार का सामना करेगा औा झुकेगा नहीं। इस तरह प्रेम और आसक्ति से आरम्भ कथा एक नीतिकथा की भांति ही चर्मोत्कर्ष पर पहुंचती है। यह कहानी मुक्तिबोध के कथाकौशल का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

तीसरी कहानी ‘‘क्लाॅड ईथरली’’ पांचवीं कहानी। यह एक मनोवैज्ञानिक कथा है। इसमें क्लाॅड ईथरली का चरित्र एक तुलना की भांति नायक के चरित्र के साथ-साथ चलता है। क्लाॅड ईथरली हिरोशिमा पर बम गिराने वाला अमरीकी हवाबाज जिसे अमेरिका में ‘वार हीरो’ कहा गया किन्तु स्वयं क्लाॅड ने जब हिरोशिमा का भयावह परिणाम देखा तो उसकी आत्मा कांप उठी और उसने स्वयं को दोषी मानते हुए सजा का अधिकारी माना। वह चाहता था कि उसे सजा दी जाए लेकिन एक ‘वार हीरो’ को सजा कौन देता। सजा पाने के लिए उसने चोरी, डकैती, मारपीट की मगर काम नहीं बना, अलबत्ता उसे पागलखाने अवश्य भेज दिया गया। यह कहानी एक जासूस पात्र लेखक रूपी पात्र को सुनाता है।
कथानायक एक लेखक है जो एक जासूस को अपना परिचय देता हुआ कहता है कि -‘‘ पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूं, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूं, दगा या फरेब नहीं करताय अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूं कि बुनियादी तौर से बेईमान हूं। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूं।’’
जासूस लेखक को क्लाॅड ईथरली के बारे में बताते-बताते भारत की चर्चा करने लगता है और वह देशवासियों के पश्चिमी संस्कृति के प्रति प्रेम की विवेचना इन शब्दों में करता है-‘‘‘‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है!’’ साहित्य जगत के बारे में भी जासूस का आकलन एकदम स्पष्ट है। वह कहता है कि -‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
जासूस इतने पर ही नहीं रुकता, वह पागलपन की भी व्याख्या करता है, उस पागलपन की जो क्लाॅड ईथरली में भी था और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के किसी न किसी कोने में मौजूद रहता है। जासूस की बातों की तह में उतरते ही लेखक को आभास होता है कि वह स्वयं भी तो क्लाॅड ईथरली है, एक पागलपन से भरा व्यक्ति। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका कथानक, इसके संवाद मुक्तिबोध को साम्यवाद के अंधानुकरण से बड़ी दूर खड़ा हुआ इंगित करते हैं। यह कहानी सिद्ध करती है कि मुक्तिबोध साम्यवादी अथवा पूंजीवादी नहीं वरन् विशुद्ध मानवतावादी थे।
यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानवतावाद   की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लाॅड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्री-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियां में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं, वहीं वे साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होनेचर्चा प्लस  
गजानन माधव मुक्तिबोध थे एक मुखर मानवतावादी कथाकार
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो।’’ यह मुक्तिबोध का मानवतावादी दृष्टिकोण था जो उनकी कहानियों में बेलौस मुखर हुआ।

13 नवंबर, 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर, ग्वालियर में जन्म हुआ था गजानन माधव मुक्तिबोध का। वे 20वीं शताब्दी के सबसे सशक्त  कवि, आलोचक माने जाते हैं। मुक्तिबोध ‘नया खून’ और ‘वसुधा’ के सहायक संपादक भी रहे। वे तार सप्तक के पहले कवि थे किन्तु उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘‘चांद का मुंह टेढ़ा है’’ उनकी मृत्यु (11 सितम्बर 1964) के बाद प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘काठ का सपना’ प्रकाशित हुई जिसमें उनकी कहानियां संकलित हैं। मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वान मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित मानते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताया है। किन्तु यह माना जाता है कि मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववाद दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी कहानियों की मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। इस लेख में मैंने मुक्तिबोध की मात्र तीन कहानियों कसे चुना है। इन कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकेगा।¬¬
‘‘ब्रह्मराक्षस’’ एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। इतना आज्ञाकारी शिष्य कि उसने अपनी उन जिज्ञासाओं को शांत रखा जिसका उत्तर अन्य विद्यार्थी सबसे पहले पाने का प्रयत्न करते। किन्तु गुरु भी ऐसा अनुशासनप्रिय था कि वह अपने शिष्यों को आठवीं मंज़िल से उतर कर सातवीं मंज़िल पर भी नहीं जाने देता और शिक्षांत में सीधे कर की ओर प्रस्थानित होने का निर्देश देता। आज्ञाकारी शिष्य पर भी यही कठोर अनुशासन लागू था। गुरु की समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
शिष्य यह सब जानकर, सुन कर चकित रह जाता है किन्तु वह यह भी समझ जाता है कि अब गुरु का स्थान लेना ही उसकी नियति है और वह उसे स्वीकार कर लेता है।
इस कहानी में मुक्तिबोध भारतीय शिक्षा परम्परा को रेखांकित करते हैं। वे गुरु- शिष्य परम्परा के प्रवाह में गुरु और शिष्य की महत्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हैं। एक योग्य शिष्य मिलने पर ही, उसे विद्या में पारंगत कर के शिक्षक स्वयं को कत्र्तव्यमुक्त मान पाता है, यही भारतीय शैक्षिक परम्परा रही है, यह परम्परा कहीं छूटती जा रही है, इस बात की पीड़ा मुक्तिबोध के मन में अवश्य ही रही होगी।

दूसरी कहानी ‘‘पक्षी और दीमक’’ है। इस कहानी में कई तथ्य एक साथ उभर कर सामने आते हैं। जैसे- शिक्षाजगत में व्याप्त भ्रष्टाचार, पंचतंत्र जैसी नीतिकथाएं एवं युवा नायिका श्यामला के प्रति नायक का आकर्षण। कथानायक प्रौढ़ वय का है जो अपनी युवा सहगामिनी श्यामला के प्रति अपने प्रेम और व्यवहार को ले कर उलझन का अनुभव करता है। इसके विपरीत श्यामला सहज भाव से अपने संबंधों को जी रही है। अपने प्रौढ़वय पे्रमी के प्रति उसके मन में कोई दुराव अथवा शंका नहीं है। वह दुनिया को अपनी दृष्टि देखती है और अपनी संवेदनाओं से महसूस करती है। जबकि श्यामला को ले कर उलझन में डूबे नायक की दृष्टि श्यामला के शारीरिक विशेषताओं पर भी जाती है। मानो नायक अपनी प्रेयसी की हर छोटी-बड़ी बातें जान लेना चाहता है। वस्तुतः यह कथानायक एक पुरुष ही तो है जो स्त्री को पूरी तरह जान लेने को तत्पर रहता है कि कहीं स्त्री का कोई गोपन उससे छूट न जाए। वह स्त्री के विचारों को नहीं अपतिु भाव-भंगिमाओं को भी पढ़ लेना चाहता है जिससे उसे विश्वास हो सके कि वह स्त्री हर दृष्टि से उसके योग्य है और इस बात का आत्मसंतोष कि उसने पे्रेमपात्र का सही चयन किया है। किन्तु इससे ही सब कुछ ठीक हो जाए, यह संभव नहीं है। एक प्रेमी को इस बात की चिन्ता भी रहती है कि प्रेयसी सर्वयोग्य है तो उसे भी अपनी प्रेयसी की दृष्टि में उत्कृष्ट बने रहना होगा-‘‘ मैं उसकी आंखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूं। प्रेमी जो हूं अपने व्यक्तित्व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।’’
चूंकि प्रेमी भी इसी दुनिया में रहता है जहां लालच है, भ्रष्टाचार है, घोखाधड़ी है। भ्रष्टाचार के साए में सरकारी खरीद का रहस्यमय संसार है, जहां खरीद मात्र रसीदी-कागजों पर होती है। लम्बे-चैड़े बिल बन जाते हैं, खरीदने और बेचने वाले कमीशन के समीकरण पर स्वार्थ एवं लोलुपता के सवाल हल करते रहते हैं। जब शिकायत की जाती है, तो जांच की प्रक्रिया भी चलती है। इसी के समानांतर मुक्तिबोध ने प्रेम के कोमल संवेग को भी यथार्थ के खुरदरे धरातल के समीप रखते हुए ‘पक्षी और दीमक’ कहानी की रचना की। प्रेमी, प्रेयसी और भ्रष्टाचार की एक साथ चर्चा करता कथानक उस समय अपने सोपान की पूर्णता पर जा पहुंचता है जब नायक  श्यामला  को पक्षी और दीमक की नीति कथा सुनाता है- एक पक्षी दीमक बेचने वाले से अपने पंख दे कर दीमक खरीदता है और दीमकों को स्वाद ले कर खाता है। अन्य पक्षी उसे समझाते भी हैं कि यह सौदा उचित नहीं है किन्तु पक्षी अपने साथियों की बात नहीं मानता है। एक दिन ऐसा आता है जब वह दीमकों के बदले अपने दोनों पंख गंवा बैठता है। इसके बाद उसे दीमक बेचने वाला भी दिखाई नहीं देता है। उड़ने से लाचार पक्षी स्वयं दीमक इकट्ठे करने लगता है कि एक दिन अचानक उसे वह दीमक बेचने वाला पुनः दिखाई देता है। पक्षी उस दीमक बेचने वाले से कहता है कि वह उससे दीमकें ले ले और बदले में उसके पंख उसे लौटा दे। इस पर दीमक बेचने वाला दो टूूक उत्तर देता है-‘‘बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं।’’
पक्षी पछता कर रह जाता है। एक दिन एक बिल्ली आती है और उस पंखविहीन पक्षी को मुंह में दबा कर उसके लाचार जीवन को समाप्त कर देती है। इस कथा को सुनाते हुए नायक श्यामला से कहता है कि वह पक्षी की तरह लाचार नहीं हुआ है, वह भ्रष्टाचार का सामना करेगा औा झुकेगा नहीं। इस तरह प्रेम और आसक्ति से आरम्भ कथा एक नीतिकथा की भांति ही चर्मोत्कर्ष पर पहुंचती है। यह कहानी मुक्तिबोध के कथाकौशल का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

तीसरी कहानी ‘‘क्लाॅड ईथरली’’ पांचवीं कहानी। यह एक मनोवैज्ञानिक कथा है। इसमें क्लाॅड ईथरली का चरित्र एक तुलना की भांति नायक के चरित्र के साथ-साथ चलता है। क्लाॅड ईथरली हिरोशिमा पर बम गिराने वाला अमरीकी हवाबाज जिसे अमेरिका में ‘वार हीरो’ कहा गया किन्तु स्वयं क्लाॅड ने जब हिरोशिमा का भयावह परिणाम देखा तो उसकी आत्मा कांप उठी और उसने स्वयं को दोषी मानते हुए सजा का अधिकारी माना। वह चाहता था कि उसे सजा दी जाए लेकिन एक ‘वार हीरो’ को सजा कौन देता। सजा पाने के लिए उसने चोरी, डकैती, मारपीट की मगर काम नहीं बना, अलबत्ता उसे पागलखाने अवश्य भेज दिया गया। यह कहानी एक जासूस पात्र लेखक रूपी पात्र को सुनाता है।
कथानायक एक लेखक है जो एक जासूस को अपना परिचय देता हुआ कहता है कि -‘‘ पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूं, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूं, दगा या फरेब नहीं करताय अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूं कि बुनियादी तौर से बेईमान हूं। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूं।’’
जासूस लेखक को क्लाॅड ईथरली के बारे में बताते-बताते भारत की चर्चा करने लगता है और वह देशवासियों के पश्चिमी संस्कृति के प्रति प्रेम की विवेचना इन शब्दों में करता है-‘‘‘‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है!’’ साहित्य जगत के बारे में भी जासूस का आकलन एकदम स्पष्ट है। वह कहता है कि -‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
जासूस इतने पर ही नहीं रुकता, वह पागलपन की भी व्याख्या करता है, उस पागलपन की जो क्लाॅड ईथरली में भी था और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के किसी न किसी कोने में मौजूद रहता है। जासूस की बातों की तह में उतरते ही लेखक को आभास होता है कि वह स्वयं भी तो क्लाॅड ईथरली है, एक पागलपन से भरा व्यक्ति। इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका कथानक, इसके संवाद मुक्तिबोध को साम्यवाद के अंधानुकरण से बड़ी दूर खड़ा हुआ इंगित करते हैं। यह कहानी सिद्ध करती है कि मुक्तिबोध साम्यवादी अथवा पूंजीवादी नहीं वरन् विशुद्ध मानवतावादी थे।
यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानवतावाद   की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लाॅड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्री-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियां में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं, वहीं वे साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।    
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