प्रस्तुत है आज 07.11.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई उपन्यासकार मुकेश भारद्वाज के उपन्यास "बेगुनाह" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
फिर सामने है ‘अभिमन्यु’ एक सनसनीखेज़ वारदात पर से पर्दा उठाने
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - बेगुनाह
लेखक - मुकेश भारद्वाज
प्रकाशक - यश पब्लिकेशंस, 1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शहदरा, नई दिल्ली-110032
मूल्य - 495/-
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लेखक एवं पत्रकार मुकेश भारद्वाज का नवीनतम जासूसी उपन्यास ‘‘बेगुनाह’’ उनके लोकप्रिय पात्र जासूस ‘अभिमन्यु’ की सिरीज़ का दूसरा उपन्यास है। अभिमन्यु वह जासूस नायक है जिसने पहले उपन्यास ‘‘मेरे बाद’’ से ही पाठकों के दिल-दिमाग में अपनी जगह बना ली थी। कुछ-कुछ जेम्सबांड जैसा चरित्र। शराब और शबाब का शौकीन लेकिन उतना ही चुस्त, चालाक और खोजी। यूं भी सिरीज़ वाले उपन्यास पाठकों को रोचक लगते हैं। आर्थरकानन डायल का ‘शारलाक होम्स’ हो या अगाथा क्रिस्टी का ‘हरक्यूल पोईराॅट’, या फिर इयान फ्लेमिंग का ‘जेम्स बाॅण्ड’, ये सभी पात्र आज भी सभी के दिलों पर राज कर रहे हैं। हिन्दी में ही देख लें तो सुरेन्द्र मोहन पाठक के जासूस ‘सुनील’ ने पाठकों को प्रतीक्षा की लाईन में खड़ा करा दिया था। अब इसी क्रम में मुकेश भारद्वाज का जासूस ‘अभिमन्यु’ अपने पाठकों को प्रतीक्षा की उस पंक्ति में खड़ा करने लगा है जहां पाठकवर्ग सोचता है कि अब अभिमन्यु सिरीज का अगला उपन्यास कब आएगा। अपने पहले ही उपन्यास से इस सिरीज को इस तरह की सफलता मिलना लेखकीय कौशल का कमाल है। इसीलिए अभिमन्यु सिरीज का दूसरा उपन्यास ‘‘बेगुनाह’’ आते ही पाठकों ने इसका स्वागत किया।
जासूसी उपन्यासों का एक बड़ा पाठक वर्ग हमेशा ही रहा है। जिन उपन्यासकारों ने एक ही जासूस नायक को ले कर कथाएं लिखीं, वे पाठकों को अधिक लुभाती रही हैं क्योंकि वह जासूस पात्र उन्हें बहुत जल्दी अपना मित्र सरीखा लगने लगता था। जासूस से लगाव का यह क्रम हमेशा रहा है और आज भी यथावत है। वस्तुतः जासूस के कारनामे पढ़ते समय पाठक उसके साथ-साथ चलता है और उसके साथ चलते हुए अपराध की गुत्थी को सुलझाने में स्वयं को भी मानसिक रूप से लिप्त पाता है। इसीलिए जब अंत में गुत्थी सुलझती है तो एक पाठक भी स्वयं को विजयी और प्रफुल्लित अनुभव करता है। यूं भी आपराधिकता क्यों, कैसे, कहां, कब, किसने आदि इतने सारे प्रश्नों को ले कर सामने आती है कि हर व्यक्ति उसकी तह तक जाने को जिज्ञासु हो उठता है। देखा जाए तो जासूसी उपन्यासों की सफलता का सबसे बड़ा राज़ भी यही है। ऐसे उपन्यास सबसे पहले पाठक की जिज्ञासा पर दस्तक देते हैं।
‘‘बेगुनाह’’ आज के माहौल में घटित सनसनीखेज़ वारदात के कथानक पर आधारित है। उपन्यास का आरम्भ एक लोमहर्षक घटना से होता है। जब अपराध की घटना घटेगी तो वहां पुलिस और जासूस का पहुंचना स्वाभाविक है। सिया वह स्त्री पात्र है जो कथानक का केन्द्र बिन्दु है। चित्रा, माया, नंदा, रुक्मणी आदि अन्य स्त्री पात्र भी हैं, जिनमें चित्रा, माया, रुक्मणी में चकित कर देने वाली बोल्डनेस है। लेखक मुकेश भारद्वाज जो वर्तमान में ‘‘जनसत्ता’’ के संपादन का दायित्व सम्हाल रहे हैं, स्वयं कभी एक क्राईम रिपोर्टर रह चुके हैं, इसलिए उन्होंने अपराध की बारीकियों पर सिद्धहस्तता से कलम चलाई है। अपराध घटित होने के बाद उस अपराध के कारणों की तह तक पहुंचने से शुरू होता है जासूसी का सफ़र। उस पर यदि अपराध का शिकार अर्थात् विक्टिम जासूस का परिचित रहा हो तो पेंचीदगी और बढ़ जाती है। ‘बेगुनाह’ में ठीक यही स्थिति है। जिसे उसके ही घर में, उसके ही बेडरूम में, उसके ही बिस्तर पर जीवित जला कर मार दिया गया, वह जासूस अभिमन्यु का परिचित था। अभिमन्यु उसके गुणों और दुर्गुणों से परिचित था। वह एक नंबर का अय्याश था। अपनी पत्नी पर अत्याचार करता था तथा विवाहेत्तर संबंध उसके लिए मामूली बात थी। पैसों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। दिल्ली के गुलमोहर इलाके में स्थित उसका घर उसकी सम्पन्नता की कहानी कहता था। फिर भी क्या ऐसी वीभत्स मौत का हकदार का वह? इस प्रश्न के भीतर अनेक प्रश्न सामने आते जाते हैं, जिनके उत्तर पाने में अभिमन्यु को कई बार असंभावित सच का सामना करना पड़ता है।
अभिमन्यु की मित्र माया आमतौर पर उसके साथ घटनास्थल पर नहीं जाया करती है। लेकिन इस बार वह ‘‘रास्ते में मुझे ड्राप कर देना’’ कहती हुई भी अभिमन्यु के साथ घटनास्थल तक पहुंच जाती है। वह आगे चल कर कदम-कदम पर उसका साथ देती है। फिर अचानक एक चौंका देने वाला सच सामने आता है कि वह जो करती दिखाई दे रही थी, वह सच नहीं था। सच कुछ और ही था। कहते हैं न कि जहां विश्वास होता है, वहीं विश्वासघात होता है। लेकिन क्या यह अभिमन्यु के प्रति माया का यह सचमुच विश्वासघात था, या फिर इसमें कोई और अंतर्कथा थी? कोई ऐसा रहस्य जिसका उजागर होना बाकी था, ऐसी गुत्थी जिसका खुलना शेष था।
अभिमन्यु एक स्वतंत्र जासूस है अतः पुलिस का अनापेक्षित रवैया सदा उसका स्वागत करता है। लेकिन यह उसके लिए कोई नई बात नहीं है। नई बात तो यह सामने आती है कि पुलिस अपराधी से सांठगांठ करती हुई मिलती है। यहां यह कहावत भी चरितार्थ होती दिखती है कि झूठ तो झट से कूद कर आपके सामने आ खड़ा होता है लेकिन सच को आपके सामने आने के लिए अनेक टेढ़े-मेढ़े कठिन रास्तों से हो कर पहुंचना पड़ता है। अपराधी का पता लगाने के लिए अभिमन्यु को भी कई टेढ़े रास्तों से हो कर गुज़रना पड़ता है। जब भी अभिमन्यु को लगता है कि वह हत्यारे के करीब पहुंच गया है, ठीक उसी समय कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि हत्यारा उसकी पहुंच से बहुत दूर जा निकलता है।
नंदा जो अभिमन्यु की मित्र ही नहीं, वकील भी है, मृतक की पत्नी, पूर्व पत्नी से न केवल पूछताछ करती है बल्कि उनकी जांच-पड़ताल भी करती है। नंदा की जांच और संदेह का घेरा उसकी प्रेमिका के गिर्द भी पहुंच जाता है लेकिन जांच खाली हाथ ही रहती है। हर संदिग्ध ‘क्लीनचिट’ का फ्लैग उठाए घूम रहा हो तो अभिमन्यु के लिए चुनौतियां कठिन से कठिनतर तो होनी ही थी। कुल मिला कर स्थिति यह कि एक अपराध, जिसके पीछे अपराधियों की मिलीभगत और उस पर पुलिस की संदिग्ध कार्यप्रणाली। उस पर कानूनी ‘लूपहोल्स’। हर कदम पर यह प्रश्न उभरता है कि क्या एक अकेला जासूस अपने दमखम पर मामले की तह तक पहुंच सकेगा या फिर इस बार उसे नाकामी का चेहरा देखना पड़ेगा? इस उपन्यास की यही विशेषता है कि वह हर चार पन्ने बाद चौंकाता है, एक नया परिदृश्य सामने रखता है, अनेक ऐसे प्रश्न जोड़ता जाता है जो रहस्य को और गहराते जाते हैं। ‘‘ओपन एण्ड शट’’ जैसा लगने वाला केस एक थ्रिलर बनता चला जाता है जिसमें आपराधिक मनोवृत्तियों के विविध पक्ष जुड़ते जाते हैं। जब रहस्य खुलने लगते हैं तो जो जैसा था, वैसा नहीं रह जाता है। अपराध का एक ऐसा चक्रव्यूह जिसे भेदना अभिमन्यु को आता है लेकिन आपराधिक महारथी उसके रास्ते पर बाधाएं खड़ी करने से एक पल को भी नहीं चूकते हैं।
‘‘बेगुनाह’’ एक गुनाहगार की वह कहानी है जिसे भावनात्मक स्तर पर बेगुनाह ही माना जाएगा। यह बात अलग है कि अदालत भावनाओं से नहीं वरन पुख़्ता सबूतों पर चलती है। यह तथ्य इस बात के प्रति सचेत करता है कि स्वयं को इंसाफ दिलाने के इरादे से किया गया अपराध भी अपराध ही होता है। अपराध के रास्ते से किसी को न्याय नहीं मिल सकता है। साथ ही यह उपन्यास स्त्रियों के प्रति अत्याचारी रवैये तथा घरेलू हिंसा की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है। पत्नी होने का अर्थ यह नहीं होता कि वह अपने पति की खरीदी गई दासी है, कि जिसके साथ मनचाहा बुरे से बुरा व्यवहार किया जा सकता हो। पत्नी को मात्र उपभोग की वस्तु एवं गुलाम समझने वालों को एक सबक देता है यह उपन्यास।
पिछले दो-तीन दशक से, विशेषरूप से जब से टेलीविजन और उसके बाद इंटरनेट का दौर आया, ठीक इसी दौर में जासूसी उपन्यास के क्षेत्र में एक ऐसी नीरवता छा गई थी, जो खटकती थी। दिलचस्प बात यह है कि इस नीरवता को भंग किया पत्रकारिता जगत से जुड़े लेखकों ने। जैसे संजीव पालीवाल का रहस्य-अपराध पर आधारित ‘पिशाच’ और ‘नैना’, विभूतिनारायण राय का उपन्यास ‘रामगढ़ में हत्या’ आदि कुछेक जासूसी उपन्यासों के नाम लिए जा सकते हैं। लेकिन वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक के बाद एक नायक की सिरीज वाले उपन्यास की कमी फिर भी रही, इस कमी को दूर किया मुकेश भारद्वाज ने अपने अभिमन्यु सिरीज के रूप में। चर्चा है कि इसी श्रृंखला का उनका तीसरा उपन्यास भी आने की तैयारी में है। यह श्रृंखलाबद्ध क्रम एक बार फिर जासूसी उपन्यासों से पाठकों को तेजी से जोड़ रहा है। अभिमन्यु सिरीज की लोकप्रियता का श्रेय है लेखक मुकेश भारद्वाज के पत्रकारिता के अनुभव, विशिष्ट लेखन शैली और प्रस्तुति की बारीकियों को। भाषा को ले कर लेखक ने सहजता को स्वीकार किया है। यूं भी जासूसी उपन्यास में आम बोलचाल की भाषा ही सटीक बैठती है। समूचे उपन्यास में घटनाक्रमों का एक स्वाभाविक प्रवाह है जो पाठकों को सम्मोहनावस्था तक बांधे रखता है। जितने समय में पाठक इस उपन्यास को पढ़ेगा, उतने समय वह स्वयं को घटनाक्रम के साथ चलता हुआ पाएगा।
बाजार में आते ही ‘‘बेगुनाह’’ ने लोकप्रियता हासिल कर ली, किन्तु इसकी पाठक संख्या और बढ़ सकती थी बशर्ते इसकी कीमत कुछ कम रहती। एक उपन्यास पर पांच सौ (495/-) का एक नोट बटुए से निकाल कर खर्च करते समय उंगलियां हिचकती हैं। प्रकाशकों को इस हिचक को दूर करने के लिए अपनी ओर से प्रयास करने होंगे जिससे ‘‘बेगुनाह’’ जैसे बेहतरीन जासूसी उपन्यास बटुआ-फ्रेंडली हो सकें और बहुत से पाठकों को मनमसोस के न रह जाना पड़े। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि इस उपन्यास की रोचकता इसके दाम पर भारी है।
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