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Saturday, July 5, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा 'आचरण' में

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा 'आचरण' में
"आचरण" में मेरे काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की गीतऋषि डॉ. श्याममनोहर सीरोठिया जी द्वारा की गई समीक्षा...
इतनी सारगर्भित समीक्षा हेतु हार्दिक आभार डॉ. सीरोठिया जी 🙏
हार्दिक आभार "आचरण" 🙏

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डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Monday, June 30, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की डॉ श्याम मनोहर सिरोठिया द्वारा समीक्षा

"गीत ऋषि" की उपाधि से विभूषित देश के वरिष्ठ गीतकार डॉ श्याम मनोहर सिरोठिया जी ने मेरे कविता संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की बहुत गहराई से सुंदर समीक्षा की है। अत्यंत आभारी हूं 🚩🙏🚩
       मेरे अनुरोध पर डॉ. सीरोठिया जी ने मुझे समीक्षा का टेक्स्ट भी प्रेषित किया है जिसे पठन सुविधा के लिए यहां साझा कर रही हूं... साभार... 🙏
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 *त्रासदी की कोख से जन्मी धैर्य, हिम्मत एवं जीवटता  की कविताएँ* 
  कविता संग्रह--- *तीन पर्तों में देवता* 
कवयित्री---डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
प्रकाशक---बुक्स क्लिनिक पब्लिशिंग कुडूडांड, पंचमुखी हनुमान मंदिर के पास बिलासपुर (छ. ग.)495001
मूल्य---200/

समीक्षक ----डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया 

     
 आद सुश्री शरद सिंह जी का नाम हिंदी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श को लेकर बेहद सम्मानित एवं चर्चित  है, पिछले पन्ने की औरतें,पचकौड़ी, कस्बाई सिमोन एवं शिखंडी उपन्यासों ने  हिंदी उपन्यास जगत में बड़ी हलचल पैदा की है।हिंदी, अंग्रेजी एवं बुंदेली में गद्य एवं पद्य में समान अधिकार से लेखन करने वाली डॉ शरद सिंह की 60 पुस्तकें प्रकाशित  हो चुकी हैं. कथा, कहानी, गीत, नवगीत, गजल, कविता, नाटक, समीक्षा एवं नियमित स्तंभ लेखन का एक यशश्वी  इतिहास डॉ शरद जी के साथ जुड़ा हुआ है. आपकी रचनाधर्मिता ने हमारे शहर सागर को पूरे देश में गौरवान्वित किया है। आपको पढ़ते हुए पाठक एक नए रचना संसार में विचरण करते हुए चिंतन के ऐसे आयामों का स्पर्श कर आता है जो साधारणतः उसकी कल्पनाओं से परे होते हैं.
         डॉ शरद सिंह का कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता* कोरोना काल की त्रासदी  से गुजरते हुए बेहद अवसाद के क्षणों में गहन मानवीय संवेदना की स्याही से लिखा गया है। यह विडंबना ही है कि कोरोना के दूसरे चरण में डॉ शरद सिंह ने पहले तो  अपनी पूज्य माताजी सुप्रसिद्ध रचनाकार डॉ विद्यावती मलाविका जी को हृदयाघात से खोया और उनकी सेवा करते हुए कोरोना से संक्रमित होने के बाद मात्र तेरह दिनों के अंतराल से सखी जैसी अपनी बड़ी बहन चर्चित गज़लकार  सुश्री डॉ वर्षा सिंह जी को खो दिया। इन दोहरे  वज्राघातों ने डॉ शरद सिंह को बुरी तरह तोड़ दिया था। इस त्रासदी ने डॉ शरद सिंह के अवचेतन में ईश्वर के प्रति अनास्था का भाव पैदा कर दिया था, ऐसे में ईश्वरीय सत्ता को नकारना केवल आक्रोश ही नहीं था वरन ईश्वर के प्रति नाराजी के साथ उपालंभ का उपक्रम भी था। जीवन के ऐसे भयावह, और अनिश्चित दौर में एकाकी मन ने क्या कुछ नहीं सहा होगा? जब दूर- दूर तक कोई अपना नहीं था तब शोक के उस भीषण दौर की पीड़ा की कल्पना मात्र से ही मन द्रवित हो उठता है,तब महाशोक के अथाह सागर में भटकती हुई अपनी इस प्रिय पुत्री को माँ सरस्वती ने अपने आशीष का संबल शब्दों के रुप में दिया और  फिर लिखा गया कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता*, चूँकि उन दिनों कोरोना के प्रोटोकाल को ध्यान में रखते हुए पार्थिव देह को तीन पर्तों में लपेट कर अंतिम संस्कार किया जाता था, अतः डॉ शरद सिंह द्वारा  *तीन पर्तों में देवता* को  लपेटने  का अर्थ उसकी सत्ता से विमुख होने का प्रयास जैसा भी रहा होगा 
वह लिखती हैं---
हाँ मुझसे छिन गया विश्वास 
छिन गई आस्था 
टूट गई देव प्रतिमा
हो गया दीपक औंधा
बह गया तेल
बची हुई, बुझी हुई बाती को 
तीन पर्तों में लपेट दिया है मैंने
अब कोई देवता 
न करे मुझसे
प्रार्थना की उम्मीद 
नहीं दी उसने मुझे 
मेरे अपनों के जीवन की भीख 
अब उसे भी नहीं मिलेगा 
कोई भी चढ़ावा मुझसे.....

     यह ईश्वर के प्रति अनास्था की पराकाष्ठा थी, इस संग्रह की यह कविता और ऐसी अनेक कविताएँ शोक गीत की तरह मार्मिक और हृदय को झकझोर देने वालीं हैं। इस कविता में उनका दर्प नहीं व्यथित हृदय की करुणा झलकती है।
हमारी संस्कृति में 
तीन अंक का बहुत महत्व है, तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा- विष्णु- महेश, तीन काल- भूत काल, वर्तमान काल,भविष्यकाल, तीन गुण- सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण, मुख्यतः तीन लोक- स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक, पाताल लोक, जीवन की तीन अवस्थाएँ- बाल अवस्था, युवा अवस्था, वृद्धावस्था,और शिव जी का तीसरा नेत्र, तीन अंक का यह महत्व डॉ शरद सिंह के लेखन में चिंतन के नए स्वरूप में शब्दाकार हुआ है,मुझे लगता है *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह के सृजन काल में डॉ शरद जी ने गहन शोक के सागर को भाव, भाषा और शिल्प के तीन आचमनों में समेट लिया है.
   *तीन पर्तों में देवता* की कविताएँ छंद मुक्त कविताएँ हैं लेकिन शिल्प कसा हुआ है ये कविताएँ भावों से मुक्त नहीं हैं, मेरा मानना है कि मानसिक प्रताड़ना के बोझिल क्षणों में ये कविताएँ डॉ शरद जी के अन्तःकरण में ऐसे ही बची रही होंगी जैसे अनेक ज्वालामुखियों के बीच भी पृथ्वी बचाकर रखती है अपने भीतर शीतल और मीठा जल।
      *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह पढ़ते हुए, मैं अनेक बार डॉ शरद सिंह के कल्पना लोक की विराटता का अनुभव करते हुए आश्चर्यचकित हो जाता हूँ।संग्रह की 
प्रथम कविता "सपने" की एक पंक्ति देखिए-- नहीं आते सपने रतजगे में
जैसे अमावस में नहीं आता चाँद 
जैसे काले बादल से नहीं गिरती धूप 
जैसे पहले सा नहीं जुड़ता है
टूटा हुआ काँच / 
     - इस कविता की विंबधर्मिता अद्भुत है, यह दृष्टि मन को जोड़ती है कविता से।आपकी कविताओं में अर्थबोध ऐसे छुपा होता है जैसे पुष्प के भीतर सुगंध।
        *तीन पर्तों में देवता*कविता संग्रह की भूमिका में डॉ सर हरिसिंह गौर केंद्रीय वि. वि. सागर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ आनंद प्रकाश त्रिपाठी कहते हैं कि-- हमारे समय की मशहूर कथाकार शरद सिंह ने बहुत शिद्दत से अपनी बेचैनियों को  अपनी कविताओं में दर्ज किया है. कवयित्री की आंतरिक छटपटाहट, करुणा, प्रेम और कहीं आक्रोश के रुप में व्यक्त होती है।
 कविता संग्रह की एक कविता प्रेम के उस अलौकिक स्वरूप के खोज की कविता है जिसे सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है वह लिखती हैं --
उसे नहीं मिला प्रेम 
जेबें खाली करके भी 
आखिर 
सच्चा  साबुत प्रेम 
बाजारू जो नहीं होता

   -प्रेम की ऐसी  शोधपरक  अनमोल व्याख्या डॉ शरद सिंह के आत्म सौंदर्य बोध को उजागर करती है।
       कवयित्री डॉ शरद सिंह प्रेम के मूल तत्व की उपासिका हैं, उनकी यह उपासना *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह में शब्दाकार हुई है। डॉ शरद सिंह का प्रेम रुमानी नहीं है -
वह रहना चाहता है  
सोनागाछी के तंग कमरों में, 
वह प्रेम छटपटाता है 
धारावी की स्लम बस्ती में रहने के लिए, 
वह प्रेम सीरिया, तंजानिया, 
एवं बुरुडी के 
शरणार्थी शिवरों में 
जीवन का संघर्ष करते हुए 
रहना चाहता है. 

        कविता देखिए --
वह (प्रेम) बोला 
छल करते हैं लोग 
मेरा मुखौटा लगाकर 
मुझे रहने नहीं देते
मेरी मनचाही जगह 
वह देर तक बोलता रहा 
मैं सुनती रही 
फिर रोते रहे 
गले लग कर 
हम दोनों 
नींद खुलने तक 

      डॉ शरद सिंह की कविता *रजस्वला* पाठक को चिंतन का अत्यंत संवेदनशील धरातल देती है यह ऐसा विषय है जिस पर चर्चा करने से लोग बचते हैं इस सामाजिक सच्चाई से आँख चुराते हैं लेकिन डॉ शरद सिंह खुले मन से ऐसे सामाजिक विषय पर चर्चा के लिए समाज का आव्हान करती हैं ----
क्या याद है उस कवि को 
कि कितनी बार ख़रीदा था 
सेनेटरी नेपकिन
अपनी रजस्वला पत्नी के लिए 
कि उसने कितनी बार 
डिस्पोज किया था 
पत्नी का इस्तेमाल किया हुआ 
सेनेटरी नेपकिन
कवि की कविता में मौजूद
स्त्रियों- सी 
क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती ...

डॉ शरद सिंह का यह एक प्रश्न समाज के संवेदनहीन गलियारों में भटक रहा है अनंतकाल से अनुत्तरित, और लगता है यह एक और प्रश्नचिन्ह हमारे मनुष्य होने पर।
 *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह डॉ शरद सिंह की व्यष्टि से लेकर समष्टि तक की यात्रा का दस्तावेज भी कहा जा सकता है।
*टोहता है गिद्ध* कविता युद्ध की विभीषिका से परिचित कराने में समर्थ है --
एक उजाड़ संसार का देवता है युद्ध
युद्ध एक गिद्ध है 
जो टोहता है
विभीषिका को
लाशों को
और बच रहे उन अनाथों को 
जो कहलाते हैं शरणार्थी 
युद्ध नहीं चाहती माँ, पिता, नाना- नानी, दादा- दादी 
युद्ध नहीं चाहते बच्चे 

      जीवन के सत्य की सहज सरल निर्दोष ऐसी अभिव्यक्ति डॉ  शरद सिंह की लेखनी से ही संभव हो सकती है, कविताओं में संवेदनशील कवयित्री डॉ शरद सिंह ने संवेदनाओं की एक ऐसी भाव सलिला को प्रवाहित किया है जिसमें अवगाहन कर कोई भी पाठक मनुष्यता के शाश्वत सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। यह कविता भावांजलि है, शब्दांजलि है धीरे -धीरे मरती जा रही सभ्यता, संस्कृति एवं मनुष्यता के लिए साथ ही अपनों के लिए और अपनेपन के लिए भी। कविता संग्रह का भाव पक्ष एवं कला पक्ष अत्यंत सशक्त है, भाषा उत्कृष्ट एवं गंभीर अर्थबोध से भरी है डॉ शरद सिंह ने अपनी बात को पूरी मजबूती से कहने के लिए हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी, उर्दू एवं फ़ारसी के शब्दों को भी सहजता से कविताओं में पिरोया है, कविताओं की संप्रेषणीयता बेजोड़ है, सीधे हृदय से संवाद करने में सिद्ध हैं ये कविताएँ। 
डॉ शरद सिंह शब्दों की महत्ता को जानती हैं वह लिखती हैं--
शब्द जोड़ भी सकते हैं 
शब्द तोड़ भी सकते हैं 
शब्द प्रेम में घुलें तो अमृत 
शब्द बैर में घुलें तो विष
शब्द कभी कह देते हैं बहुत कुछ तो
कभी छुपा लेते हैं सब कुछ 

     - शब्दों की असीम सत्ता को कितनी सहजता से लिख दिया है आपने इस छोटी सी कविता में जैसे समेट लिया हो गागर में अनंत विस्तारित सागर को।
      *तीन पर्तों में देवता*  कविता संग्रह की अनेक कविताएँ जैसे- हैरत, अपराधी, छापमार उदासी, त्वचा का आवरण, निर्लज्जता, रद्दीवाला,मुखौटे, सूखे हुए फूल के साथ, सीने में समुद्र,वस्त्र के भीतर, शाप की एक और किश्त जैसी तमाम कविताएँ केवल वाणी विलास का माध्यम नहीं हैं, ये और  लगभग ऐसी सभी कविताएँ समाज के देखे- अनदेखे,भोगे-अनभोगे यथार्थ की मूक पीड़ाओं को स्वर देती हैं। इन कविताओं में समसामयिक परिवेश की पथरा गई आँखों से छलकते आँसूओं को आत्मीयता के रुमाल से पोंछने का सारस्वत् दायित्व बोध है जिसे डॉ शरद सिंह ने पूरी ईमानदारी से निभाया है. आपकी कविताएँ भावनाओं को, विचारों को, नई दिशा एवं दशा देने में सक्षम हैं, इन कविताओं के माध्यम से डॉ शरद सिंह ने जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना, संरक्षण एवं संवर्धन का अभिनव कार्य किया है. आपकी दृष्टि में मानवता स्वमेव एक धर्म है। आपका यह वैचारिक चिंतन आपकी व्यवहारिकता में भी परिलक्षित होता है।
*तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह में सम्मिलित 53 कविताओं में से प्रत्येक कविता एक पूरी एवं विस्तृत समीक्षा के योग्य है जिन पर फिर कभी किसी अवसर पर यथा ढंग से साहित्य जगत चर्चा करेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
         डॉ शरद सिंह का कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता* : आपकी यश पताका को हिंदी के साहित्याकाश में नई ऊचाईयों तक 
फहराएगा और आपको देश की कवत्रियों की अग्रिम पंक्ति में सादर स्थापित करेगा इन्हीं मंगल कामनाओं एवं अशेष बधाइयों सहित।
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 *डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया*
पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, इंडियन मेडिकल एशोसिएसन  मध्य प्रदेश, सागर 
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मेरा यह काव्य संग्रह Amazon पर भी उपलब्ध है

Tuesday, March 5, 2024

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की विशुद्ध प्रस्तुति का काव्यात्मक संसार है - ‘‘रंगमंच’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 05.03.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ आभा श्रीवास्तव के कविता संग्रह "रंगमंच" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भावनाओं की विशुद्ध प्रस्तुति का काव्यात्मक संसार है - ‘‘रंगमंच’’
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - रंगमंच
कवयित्री    - आभा श्रीवास्तब
प्रकाशक    - लेखिका द्वारा, सीनिट्स काॅलोनी, सी-5, सटई रोड, कलेक्टर बंगला के पीछे, छतरपुर म.प्र.
मूल्य        - मुद्रित नहीं
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काव्य अभिव्यक्ति का एक सरस माध्यम होता है। छायावाद की चर्चित कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपने निजी दुखों को भी काव्य के माध्यम से व्यक्त कर उन्हें परदुख के साथ समेकित कर दिया। यूं भी जब कोई अभिव्यक्ति मुद्रण अथवा मंच द्वारा मुखर होती है तो वह सबके दुख-सुख के अपने-अपने दर्पण की भूमिका में ढल जाती है। कवयित्री आभा श्रीवास्तव की कविताएं ‘निज’ से ‘पर’ तक और ‘पर’ से ‘निज’ तक की यात्रा का बोध कराती हैं। ‘‘रंगमंच’’ उनका द्वितीय काव्य संग्रह है। इस काव्य संग्रह में उन्होंने अपन जिन कविताओं को चुन कर सहेजा है, वे कवयित्री की संवेदनाओं का गहनता से साक्षात्कार कराती हैं।
रंगमंच का सीधा संबंध नाटक और अभिनय से होता है। जैसे एक नाटक में हर पात्र का रोल तय रहता है किसी का रोल छोटा होता है तो किसी का बड़ा। हर कलाकार अपनी-अपनी तयशुदा भूमिका के अनुरुप पर्दा गिरने तक अपनी भूमिका निभाता रहता है। ठीक यही जीवन के साथ होता है। इसीलिए दार्शनिकों ने इस दुनिया को रंगमंच कहा है। एक ऐसा रंगमंच जिसमें हर मनुष्य की भूमिका तय है। उसे अपनी भूमिका निभानी है और जीवन के यवनिका पतन के साथ अपनी भूमिका से मुक्त हो जाना है। यह जीवन दर्शन का एक गंभीर विषय है। आभा श्रीवास्तव की कविताओं में यह गंभीर दर्शन सहज रूप से प्रस्तुत हुआ है। इस संग्रह की उनकी कविताओं की खूबी यह है कि उन्होंने उसे ठीक वैसा ही प्रकाशित कराया है जैसा कि प्रथम बार में उन्होंने लिखा। अर्थात यह कहा जा सकता है कि इन कविताओं में भावों की मूल आत्मा माजूद है। कविता सृजन में कलमकारी और कलाकारी दोनों का अलग-अलग स्थान है। कलमकारी भावनाओं को शुद्ध खांटी रूप में प्रकट करती है, जबकि यदि उसमें कलाकारी की जाए अर्थात बार-बार शब्दों में हेरफेर किया जाए अथवा शब्द बदले जाएं तो कविता की शब्दवत्ता भले ही बढ़ जाए किन्तु अर्थवत्ता एवं भावनात्मक शुद्धता घट जाती है। बुनियादी रूप से कविता भावनाओं का विषय है, विचारों का नहीं। कविता में विचार भावनाओं की पतवार थाम कर यात्रा करते हैं, भावना विचार की नहीं। आभ श्रीवास्तव ने अपनी कविताओं को भावना की पतवार के द्वारा विचारों को पार उतारा है।
संग्रह की भूमिका में समीक्षात्मक दृष्टि से टिप्पणी करते हुए प्रो. बहादुर सिंह परमार आचार्य हिंदी अध्ययन शाला एवं शोध केंद्र महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर ने लिखा है कि ‘‘कविता में नारी संघर्ष को मार्मिक ढंग से रखा गया है। समाज की मानसिकता तथा उससे उठने वाले प्रश्न व अंगुलियों के मध्य एक नारी का जीवन कितनी यंत्रणाओं व परेशानियों से जूझता है, पाठकों के समक्ष रखा गया है। कुल मिलाकर संग्रह की कविताएं वस्तुगत वैविध्यपूर्ण हैं। भाषा सहज व सरल है। लय व प्रवाह में अभी अभ्यास की आवश्यकता प्रतीत होती है।’
        निःसंदेह निरंतर अभ्यास से शिल्प सधता है और कवयित्री इसे बखूबी साध सकती हैं, इसकी प्रचुर संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
छतरपुर की वरिष्ठ कवियित्री विमल बुंदेला ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘जीवन का यथार्थ रिश्तों की मिठास और कड़वाहट, स्वार्थों का टकराव व मानव मूल्यों के शिथिल होने वाले अवसाद। यह सब उनकी रचनाओं में परिलक्षित हो रहा है। तो दूसरी ओर अपनी मां के प्रति अटूट प्रेम व कर्म साधना के प्रति उनका अटूट विश्वास भी दिखाई दे रहा है।’’
कविताएं रचनाकार की मनःस्थिति स्वयं बयान कर देती हैं। आभा श्रीवास्तव की मंा पर केन्द्रित कविताएं यह बताती हैं कि उनके जीवन में मां का कितना अधिक महत्व था और उनका चिरविछोह उन्हें कितनी अधिक पीड़ा दे गया। मुत्यु शास्वत सत्य है। हर व्यक्ति को कभी न कभी किसी न किसी अपने को खोना पड़ता है, यह जानते हुए भी विछोह़ का दुख हर व्यक्ति के मन को एक समान पीड़ा देता है। एकाकी जीवन की पीड़ा भी उनकी कविताओं में व्यक्त हुई है। स्कूल शिक्षण विभाग से प्राचार्य पद से सेवामुक्त आभा श्रीवास्तव ने एक कामकाजी स्त्री की पीड़ा को भी बखूबी व्यक्त किया है। जब नौकरी मिलती है तो उत्साह छलकता है। स्फूर्ति रहती है। धीरे-धीरे सब कुछ दिनचर्या में ढल जाता है। फिर जब सेवानिवृत्ति होती है तो अहसास होता है कि नौकरी के दौरान आर्थिक उपलब्धि भले हासिल की किन्तु अपनों की निकटता की उष्मा को निरंतर खोना पड़ा। फिर भी कवयित्री निराश या हताश नहीं हैं। वे जीवन की दूसरी पारी को डट कर खेलने की प्रेरणा देती हैं। कविता की ये पंक्तियां देखिए-
सेवा निवृत्ति ने चेताया
जी थोडा और
अपने लिये भी जी ले
अपने मन की भी सुन।
छोड़ दे काम की धुन
चलता रह,
राह में मुस्कान भी जरूरी
एक निश्चित समय था
कमाने के लिये समय पूरा
हुआ एक बड़े काम का।
जिंदगी अभी ठहरी नहीं है
तू चल, चलता रह।
   एक कविता है ‘‘संबंधीजन’’। इस कविता में कवयित्री ने संबंधों के महत्व को रेखांकित करते हुए आगाह किया है कि मोबाईल पर चैटिंग और गेम्स ने लोगों को ऐसा उलझाया है कि रिश्तों के तार चटकने लगे हैं-
बचपन खेले खेल हजार।
इन सब पर जब किया विचार
मॉम डैड आँटी अंकल
बस इतने रिश्ते पास-पड़ोस अंजान
मोबाईल टी.बी. भगवान ।
गेम, सेम चेटिंग संदेह डर
असुरक्षित विकास की
राह शीघ्र पाने की चाह
सुकून की कल्पना
बूढी आँखे का इंतजार
संतान सात समंदर पार।
संबंधीजन लुप्त हो गये।
संबंधों से सब मुक्त हो गये।
   यह दूरी कवयित्री को सहेलियों के बीच भी दिखाई देती है और वे अपनी सखि से आग्रह करती हैं कि ‘‘चल बाहर टहलें’’। यह बाहर टहलना मात्र भ्रमण नहीं है, वरन खोती जा रहा परस्पर निकटता को पुनः सहेजने का आग्रह है-
ऐ री सखी।
सुन री सखी
पल भर बाहर निकलें,
थोड़ा टहलें।
तुम लिखती थी, सुंदर कविता,
ले आना वह डायरी।
सुन री सखी, तुम्हारा सुरीला राग,
भजन व गीतो, की साज आज सजाये मंडली।
सुन री सखी घर से निकले,
चल बाहर टहले।
शतरंज न खेली कब से।
गुड़िया का ब्याह, रचाया था तब ।
नाचे गाएं बेरी झाडी इमली में फेंकी ढेली
लुक-छिप खेली बचपन की मीठी याद करेंगे।
   संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जो मन को गहरे स्पर्श करती हैं। कहीं-कहीं शिल्प भले ही तनिक कमजोर हो किन्तु भावाभिव्यक्ति सशक्त है। कवयित्री ने जैसा कि अपने पूर्वकथन में लिखा है कि वे ‘‘मूलरूप से कथाकार’’ हैं। किन्तु इन कविताओं से गुजरते कहा जा सकता है कि काव्यसृजन में भी उनमें भरपूर संभावनाएं हैं। बहरहाल, इस संग्रह का सबसे दुखद पक्ष यह है कि इसमें प्रकाशक का पन्ना ही नहीं हैं जिसमें प्रिंट लाइन होती है। इससे न तो इसके मुद्रक का पता चलता है और न ही मूल्य का। संग्रह का मुखपृष्ठ बहुरंगी है किन्तु नाम से तालमेल नहीं बिठा सका है। मुद्रण की त्रुटियां भी जहां-तहां मौजूद हैं। इस पक्ष को ध्यान में रखते हुए यही कहा जा सकता है कि आभा श्रीवास्तव अपनी इन सारगर्भित कविताओं के संग्रह को सावधानी पूर्वक पुनः प्रकाशित कराएं जिससे उनकी ये उम्दा कविताएं अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंच सकें। 
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Tuesday, January 30, 2024

पुस्तक समीक्षा | गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 30.01.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ सतीश चंद्र

पांडेय के काव्य संग्रह  "ग़ुलदस्ता" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
गुलदस्ते की विशेषता समेटे काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ 
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - गुलदस्ता
कवि        - सतीश चन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक     - साहित्यपेडिया पब्लिशिंग, नोएडा - 201301
मूल्य        - 150/-
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हिन्दी साहित्य काव्य का धनी है। हिन्दी में गद्य के विकास के पूर्व से ही काव्य अपना स्थान बना चुका था। इतिहास की दृष्टि से हिन्दी काव्य को विविध कालखण्डों में विभक्त किया गया है क्योंकि इसकी समृद्धि इसके कथ्य की विशिष्टता एवं इसकी विधाओं की बहुलता में निहित है। विद्वानों ने वीररस के काव्य की बहुलता के काल को वीरगाथा काल नाम दिया तो भक्तिमय रचनाओं की बहुलता के काल को भक्तिकाल कहा। समय के साथ काव्य की विषय-वस्तु में परिवर्तन आया। प्रेम, प्रकृति, यथार्थ ने कविता में अपनी जगह बनाई फलस्वरूप बने छायावाद, प्रगतिवाद एवं उत्तर आधुनिकता काल। इस दौरान विशेष बात यह रही कि काव्य में छांदासिक परिवर्तन तो हुए किन्तु नूतन शिल्प प्रविधियों के साथ ही परम्परागत शिल्प भी गतिमान रहे। आज अतुकांत, छंदविहीन कविताएं लिखी जा रही हैं तो साथ ही दोहे, घनाक्षरी, कुंडलिया आदि छंद भी बहुतायत लिखे जा रहे हैं। यदि आकलन की दृष्टि से देखा जाए तो विधाओं की इस विविधता के एक साथ चलन में होने से हिन्दी साहित्य की समृद्धि को सौगुना कर रखा है। प्रायः एक काव्य विधा का एक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया जाता है किन्तु कभी-कभी कवि अपनी विविध काव्य विधाओं को एक ही काव्य संग्रह में प्रस्तुत कर के अपने भावों एवं कथ्य की समग्रता से पाठकों को परिचित कराता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय का प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ में उनकी विविध काव्य विधाओं की कविताएं एक साथ एक गुलदस्ते के रूप में प्रकाशित हुई हैं। जिस प्रकार गुलदस्ते में विविध रंग, रूप, प्रकार के फूलों से गुलदस्ते का सौंदर्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार इस संग्रह में विविध काव्य विधाओं के होने से पाठकों को एक अलग ही अनुभूति होगी।

यद्यपि एक ही संग्रह में काव्य की विभिन्न विधाओं की रचनाओं के होने के अपने अलग ही जोखिम होते हैं। इससे पाठकों को भी पता चल जाता है कि कवि काव्य की किस विधा में अधिक रम्य अर्थात् कम्फर्टेबल है। सभी विधाओं को एक साथ समान रूप से साधना प्रायः कठिन होता है। किन्तु यदि कवि की अंतःदृष्टि गहन है तथा उसे विधाओं के विधान का भरपूर ज्ञान है तो वह एकाधिक विधाओं को एक साथ भी साध सकता है। कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कविताएं गोष्ठियों में मैंने सुनी हैं। किन्तु कई बार सुनने और पढ़ने के बीच स्पष्ट अंतर होता है। सुनते समय जिन बारीकियों की ओर सुनने वाले का ध्यान नहीं जाता है, पढ़ते समय ध्यान भी जाता है तथा बार-बार उसे पढ़ कर उसकी तह तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के इस प्रथम काव्य संग्रह को पढ़ते समय मेरे मन में भी जिज्ञासा थी कि एक साथ विविध विधाओं के अपने काव्य को कवि ने प्रस्तुत तो किया है किन्तु वह सभी विधाओं के साथ न्याय कर सका है अथवा नहीं? पूरे संग्रह से गुज़रने के दौरान जो बात उभर कर सामने आई, वह थी कि कवि को अपनी कहन के प्रति विश्वास है, वह कहीं भी अनिश्चय की स्थिति में नहीं है। वर्तमान हालात पर कवि की पकड़ भी उम्दा है और शाब्दिक संतुलन में भी सटीकता है।

संग्रह की पहली कविता ‘‘नहीं चाहिए ऐसी बरसात’’ छंदविहीन रचना है जिसमें कवि ने बारिश से प्रभावित होने वाले पीड़ित वर्ग के दुखों को रेखांकित किया है-
नहीं चाहिए ऐसे बादल,
पूंजीवाद के पक्षधर
समाजवाद के विरोधी
दुर्घटनाओं के संवाहक
आफत, गरीबी के वाहक
नहीं चाहिये ऐसे बादल

कवि ने उन सभी लोगों को जो समाज की समस्याओं एवं मानव के हितों के प्रति उदासीन रहते हैं तथा अपनी शक्तियों को भुला कर अकर्मण्य बने रहते हैं, उन सभी को लक्षित कर के एक छोटी कविता लिखी है-‘‘बिजूके’’। इस कविता में तीखा कटाक्ष है, कुछ पंक्तियां देखिए-
खेत में खड़े बिजूकों से कोई नहीं डरता,,
पशु पक्षी मन ही मन हंसी उड़ाते हैं
परिंदे तो उनके सिर पर बैठकर
बीट करते हैं और व्यंग करते हुए
उड़ जाते हैं,
जानवर बगल से मुंह चिढ़ा कर
निकल जाते हैं

कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय चिन्ता व्यक्त करते हैं आज के उस वातावरण पर जिसमें पारस्परिक संवादों का टोटा होता जा रहा है। वस्तुतः यह सच है कि संवादहीनता वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या है। लोग आभासीय दुनिया के इंद्रजाल में इस कदर जकड़ गए हैं कि वास्तविकता से दूर होते जा रहे हैं। यदि विकास संवादहीन बना रहा हो तो ऐसे विकास पर पुनःविचार करना अतिआवश्यक है। यही आग्रह कवि की इस कविता ‘‘संवादहीनता’’ में स्पष्ट ध्वनित हो रही है-
आखिर हो क्या रहा है
संवाद शून्य होते जा रहें हैं
आदमी चांद पर, मंगल पर
हर ग्रह पर
पर खुद के ग्रह घर से बाहर
प्रगति कर शून्य पर
प्रगति का अर्थ सिफर,
समय की कमी,
भावों का टोटा,
संवेदनहीनता,
आंसू के अक्षर
बोने पर प्रतिबन्ध
धुंए में नहाते हुए शब्द,
बौनी विचारों की फसल

कवि के विचार प्रगतिशील हैं किन्तु वह नास्तिक नहीं है। यूं भी आस्था और अनास्था नितांत निजी स्थिति है। आस्था यदि विप्लवकारी नहीं है और अनास्था विध्वंसकारी नहीं है तो ये दोनों मानवता के हित में लाभप्रद हो सकती हैं। कवि पाण्डेय को ईश्वर की उपस्थिति एवं उसकी कृपा के प्रति आस्था है, विश्वास है। शिव स्तुति में लिखे गए ये दोहे देखिए-
छोड़ सकल जंजाल सब, कर शिव का गुणगान।
ब्रम्हा विष्णु आदि सब, करते रहते ध्यान।।
करते रहते ध्यान, देव शरणागत रहते।
महिमा अमित अपार शंभु को भजते रहते।
दीनन की सुध लेत, हरें सब विपदा भारी।
पार्वती पति भजो, भजो शंकर त्रिपुरारी।।

कवि ने दोहों में मात्र भक्ति भावना को ही नहीं वरन वर्तमान परिवेश को भी व्यक्त किया है। सतीश चन्द्र पाण्डेय के दोहों की धार तीक्ष्ण है तथा वे सटीक प्रहार करने में सक्षम हैं। ‘‘आज के दोहे’’ शीर्षक से उनके दोहों में से कुछ दोहे देखिए-
जाने कैसी सभ्यता, कैसा है परिवेश।
अहंकार नित दे रहा, ज्ञानी को उपदेश।।
अहंकार है इक तरफ, एक तरफ अवसाद।
सत्ता और विपक्ष में शून्य रहा संवाद ।।
जुमले फिर वाचाल के, लोकलुभावन बोल।
झोपड़ियों के मौन व्रत, आत्ममुग्धता ढोल ।।

जहां तक काव्य विधाओं की विविधता का प्रश्न है तो कवि सतीश चन्द्र पाण्डेय की कुंडलियां भी प्रभावी हैं। देश में स्त्रियों की स्थिति को स्पष्ट करने वाली यह कुंडलिया विचारणीय है- 
नारी को विधि ने दिया, हर युग में बस मौन।
सहती उत्पीडन मगर, सुनने वाला कौन।।
सुनने वाला कौन, भोग का विषय बनाया।
नफरत, हिंसा द्वेष, कपट, छल, आड़े आया।
नारी पूजक देश, कष्ट फिर भी है भारी।
हर युग में बस कष्ट, भोगती आयी नारी।।

यह कवि पर निर्भर करता है कि वह अपने किन भावों को किस शिल्प में प्रस्तुत करना चाहता है। वैसे मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि विचार स्वयं अपनी विधा एवं अपना शिल्प चुनते हैं। कवि ने मुक्तक पर भी अपनी कलम आजमाई है-
दरिंदे इस कदर हावी, अंधेरे ही अंधेरे है।
उजालों ने अमीरों के यहां डाले बसेरे हैं।।
भले कोई कहे कुछ भी हकीकत है यही पांडे
जहां देखो वहीं दिखता लुटेरे ही लुटेरे है।

सतीश चन्द्र पाण्डेय का यह प्रथम काव्य संग्रह ‘‘गुलदस्ता’’ विविध भावों एवं विविध शिल्पों का एक सुंदर गुलदस्ता है जिसमें दोहे से ले कर अतुकांत कविता तक संग्रहीत है। जहां तक कवि की अतुकांत कविताओं का प्रश्न है तो अभी उन्हें अतुकांत विधा को और अधिक साधने की आवश्यकता है। कवि की छांदासिक कविताओं में जो प्रवाह है, उनकी कुछ अतुकांत कविताओं में उसकी कमी का अनुभव होता है। अतुकांत कविताएं भी एक सरस प्रवाह लिए होती हैं। कई कवियों की कविताएं ऐसी प्रतीत होती हैं गोया उन्होंने गद्य को कई पंक्तियों में तोड़ कर कविता का रूप दे दिया हो। जबकि अतुकांत कविता का अपना वलय होता है जो जल में बनने वाले वलय की भांति एक सुंदर क्रम में विस्तार लेता जाता है। सतीश चन्द्र पाण्डेय की अतुकांत कविताओं में प्रवाह की कमी भले ही हो किन्तु वे नीरस नहीं हैं। वे अपने कथ्य के साथ पूरी तरह से मुखर हैं। उनका यह काव्य संग्रह वैचारिक दृष्टि से सुसम्पन्न है। वर्तमान स्थितियों पर खुल कर कटाक्ष करके सुधार का आग्रह करता है। इसमें संग्रहीत सभी रचनाएं पठनीय और विचारणीय हैं। 
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Friday, June 23, 2023

सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा - घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर - वीरेंद्र प्रधान

मित्रो, मैं अभीभूत हूं संवेदनशील वरिष्ठ कवि श्री वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा मेरे काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की बेहतरीन समीक्षा "आचरण" में पढ़कर... आप भी पढ़िए... पठन सुविधा के लिए आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा प्रेषित टेक्स्ट यहां दे रही हूं.....
    मैं अत्यंत आभारी हूं आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी की इस महत्वपूर्ण समीक्षा के लिए 🙏
   बुक्स क्लीनिक से प्रकाशित मेरा यह का संग्रह अमेजॉन तथा किंडल पर उपलब्ध है...
Teen Parton Me Devta https://amzn.eu/d/biUeNKD

मूल्य (प्रिंट एडीशन) रु.200/-
किंडल एडीशन रु.50/-
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समीक्षा
कवयित्री सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा
घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर
        -वीरेंद्र प्रधान (कवि,लघुकथाकार)
                                            
       एक के बाद एक चार उपन्यासों के माध्यम से बहुचर्चित रही सुश्री शरद सिंह देश भर में एक जाना-पहचाना नाम हैं। विभिन्न विधाओं में विभिन्न विषयों पर लेखन कर उन्होंने साहित्य में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है। स्त्री-विमर्श,थर्ड-जेंडर विमर्श , पर्यावरण- संरक्षण जैसे ज्वलंत विषयों पर उन्होंने चिंतन परक पुस्तकों की रचना की है।अपनी विदुषी मां श्रीमती विद्यावती मालविका एवं गजलकारा अग्रजा वर्षा सिंह से मिले साहित्यिक संस्कार उनमें भरपूर समाहित हैं। स्थानीय जनपदीय बोली बुंदेली, हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न अखबारों में  लिखे जा रहे उनके स्तम्भों की लोगों को सदैव तीव्र प्रतीक्षा रहती है।किसी एक पुस्तक पर प्रति मंगलवार उनकी लिखी समीक्षा लोकप्रिय हिंदी दैनिक आचरण में प्रकाशित होती है। इतिहास,विज्ञान और साहित्य की गहरी समझ के कारण उनका लेखन पठनीय और प्रभावी बन जाता है।
            बचपन से ही अध्ययनशील सुश्री शरद सिंह एक मेधावी व प्रतिभावान विद्यार्थी रही हैं। पढ़ाई-लिखाई में सदैव अव्वल रहने वाली शरद सिंह जी ने शोध कार्य को भी बड़ी गंभीरता से लेते हुए खजुराहो की मूर्ति कला पर एक उत्कृष्ट शोध‌ प्रबंध प्रस्तुत किया है।उनके स्वयं के लिखे उपन्यासों और कहानियों पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध कर रहे हैं। मूलतः इतिहास व साहित्य की विद्यार्थी रही सुश्री शरद सिंह की ख्याति एक उपन्यासकार, कथाकार,समीक्षक और स्तम्भकार के रूप में अधिक है।मगर एक अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार होने के नाते वे स्वभाव से ही कवि हैं। अपने प्रथम काव्य-संकलन "आंसू बूंद चुए" (नवगीत संग्रह) के प्रकाशन के साथ उनका कवि रूप सार्वजनिक हुआ। फिर एक खंड काव्य और एक ग़ज़ल संकलन के प्रकाशन के साथ उनका कविता के क्षेत्र में प्रवेश गहराता गया जिसे हिंदी जगत में सहर्ष और सादर स्वीकार किया गया। "तीन पर्तों में देवता" उनका बुक्स क्लीनिक पब्लिशिंग प्रकाशन से प्रकाशित नवीनतम काव्य संकलन है जिसमें तिरेपन छंदमुक्त कविताएं हैं।इस संग्रह की भूमिका कवि प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखी है।अपनी भूमिका में प्रोफेसर त्रिपाठी ने उनसे बेहतर दुनिया के लिए और भी महत्वपूर्ण लिखते ‌रहने की उम्मीद की है।
        रचनाकार का अपना एक खुशहाल परिवार था जिसमें उनकी मां और वे दो‌ बहनें थीं ।काल के क्रूर हाथों ने दो साल पूर्व तेरह दिन के अंदर उनकी मां और बड़ी बहिन दोनों को उनसे छीन लिया।इस प्रकार कोई भी निकटस्थ रक्त संबंधी के अभाव में वे निपट अकेली रह गई।इस अप्रत्याशित एकांत की पीड़ा उनके मन में इतनी घर कर गई कि उससे उबरने में उन्हें महीनों लगे। उन्होंने परिवार की तुलना उस छायादार पेड़ से की है जिसके सभी पत्ते झड़ गये हैं और उसकी छाया से सभी लाभार्थी वंचित हो गये हैं।गौर करें इन पंक्तियों पर-
   "पथरा रही हैं आंखें मोची की
    सूख चली हैं नसें पत्ते की
    दोनों टूटकर भी 
    नहीं टूटे हैं
    पर क्यों?
   वे भी नहीं जानते उत्तर
   सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।"
   ( कविता' बचे रह जाना ' से)

हर कवि प्रेम करता है मानवीय मूल्यों से, प्रकृति से और हर हसीं चीज से ।हर कविता प्रेम कविता ही तो है जो वैयक्तिक अनुभूतियों का व्यापकीकरण कर सर्वजन हिताय लिखी जाती है। कवि के किसी अक्षर,पद या मात्रा में नफ़रत या द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। कवयित्री ने प्रेम को एक सड़क के किनारे-किनारे चल रहे दो प्रेमियों के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है-
 "चाहती हूं तुम्हारी यात्रा
  हर दफा सड़क की लम्बाई को
  जरा और बढ़ाती जाए
  और हम अपनी धुरी में घूमते हुए
   एक दूसरे के अस्तित्व को महसूस कर
   होते रहें ऊर्जावान
   अपने अलौकिक अहसास के साथ
   बहुत छोटा है प्रेम शब्द
   जिसके आगे।"

हमारी संस्कृति में आशीषों में लम्बी उम्र की दुआ की जाती है।यह जानते हुए भी कि परलोकवासी होने पर सब लौकिक इसी लोक में छूट जाता है तमाम लौकिक सुख-समृद्धि से सम्पन्न होने की कामना की जाती है। किसी त्रासदी के बाद बचे हुए लोग लम्बी उम्र के बारे में सोचकर भी सिहर उठते हैं।यह भयभीत हो जाना बड़े ही मार्मिक ढंग  से प्रस्तुत किया गया है एक कविता के इस अंश में-
    "अब कहो
     लहुलुहान आत्मा के साथ
     क्या करूंगी
     लम्बी उम्र का
     अपनी लाचारी के बीच
     यूं भी चुभती है तन्हाई
     हीरोशिमा विध्वंस के बाद के
     सन्नाटे-सी ।"

सभ्यता के विकास में स्त्री की भूमिका सदैव बराबर की रही है मगर इक्कीसवीं सदी में भी उसको समुचित स्थान नहीं मिल पाया है।विमर्श में स्त्री को शामिल तो किया जाता है मगर उसकी दशा में लगातार सुधार की आवश्यकता है। भारतीय सन्दर्भों में समाजवाद के प्रतिपादक डॉ राम मनोहर लोहिया के नर-नारी समता के सूत्र से सहमत शरद जी स्त्री के अस्तित्व व सम्मान के प्रति लगातार चिंतित रहती हैं अपने रचना कर्म में।उनकी चिंता स्पष्ट देखी जा सकती है उन्हीं की कविता के इस अंश में-
   "कवि की कविता में मौजूद
    स्त्रियों-सी
    क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती ?"

पिछले वर्षों कोरोना काल बहुत विकराल रहा जिसमें लाखों लोग असमय काल-कवलित हो गये। शुरूआत में संक्रमण जनित इस बीमारी का न तो कोई इलाज था और न ही कोई टीका-वेक्सीन। संक्रमितों को अस्पताल में दाखिल कर सिर्फ उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास ही चिकित्सकों के हाथों में थे।सौ साल पहिले फैली एक महामारी की तरह ही इस बीमारी ने भी बहुत कहर बरपाया। परिजनों के वश में पीड़ित के उत्तम स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रार्थनाओं के अलावा कुछ न था। ऐसी अनगिनत प्रार्थनाओं के बावजूद अनेकों कोरोना प्रभावितों के देहांत से लोग बहुत आहत हुए।उनका प्रार्थनाओं और पूजा-पाठ से विश्वास डिग गया।ईश्वर की सत्ता से उनका मोहभंग हो गया।सत्ता से मोहभंग का समय रहा है कोरोना-काल।मैंने भी इस बीमारी से हुई क्षति से दुखी होकर "तुम तो निष्ठुर हो नारायण "शीर्षक कविता लिखी थी।शरद सिंह जी ने ईश्वरीय अस्तित्व के प्रति अपने असंतोष का प्रकटीकरण अपनी" तीन‌ पर्तों में देवता" कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार किया है-
     "आस्था की टूटी                                                              
      किरचों से
      लहुलुहान मन 
      अब नहीं बनेगा 
      याचक
      जो स्वयं भी 
      कैद हो गया था 
      मन्दिरों में
      मोटे-मोटे कपाटों के भीतर
      अब नहीं देखना है मुझे
      उसकी ओर
      हां, मैंने लपेट दिया है
      तीन पर्त्तों में
      देवता को भी।"

कल,आज और कल में समुचित समन्वय बनाकर सफर तय करना अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में बहुत सहायक होता है ।अतीत की सुखद स्मृतियां जहां किताबों में रखे सूखे फूलों की भांति सुकून देती हैं वहीं दुखद स्मृतियां हृदय में शूल की तरह चुभ और आपकर पीड़ा पहुंचाती हैं। कवयित्री अपने भाव कविता "सूखे हुए फूल के साथ" के माध्यम से कुछ इस प्रकार  प्रकट करती है-
   "कितना  मुश्किल है 
    अतीत से बचाना
    वर्तमान को
    और तय करना 
    भविष्य की यात्रा
    किसी सूखे हुए फूल के साथ।"
"कलम की नोंक पर ठहरी कविता " के माध्यम से उन्होंने कविता के समस्त गुण धर्मों की सुंदर व्याख्या की है।अवलोकन करें इस कविता के साथ तत्व को इन पंक्तियों के माध्यम से-
    "यह कविता जाति,धर्म,रंग से परे
     संवाद है 
     मनुष्य से मनुष्य का
     यह कविता दिखा सकती है 
     व्यवस्था की खामियां
     शासन-प्रशासन की लापरवाहियां।"

युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं वरन अपने आप में बहुत सी समस्याओं का जनक होता है।युद्ध की विभीषिका को बड़े सरल शब्दों में व्याख्यायित किया है कवयित्री ने अपनी एक कविता के माध्यम से।' टोहता है गिद्ध 'शीर्षक कविता में वे कहती हैं-
   "युद्ध एक आकांक्षा है
     कपट राजनीतिज्ञों के लिए
     युद्ध एक उन्माद है
     शक्ति सम्पन्नता के लिए।'

षटरस व्यंजनों से भरपूर भोजन की थाली की तरह है सुश्री शरद सिंह जी  का यह काव्य संकलन जिसमेें कुछ भी छोड़े जाने की गुंजाइश नहीं है।इस संकलन की हर कविता महत्वपूर्ण और पठनीय है। सुश्री शरद सिंह एक पूर्णकालिक रचनाकार हैं । साहित्य-जगत को उनसे अपेक्षाएं हरदम बनी रहेंगी ।वे इसी प्रकार नये-नये काव्य संकलन पाठकों को देती रहें।उन पर सिर्फ अपने सपनों को मूर्तरूप करने की जबाबदारी नहीं है वरन‌ अपनी कवि अग्रजा डॉ वर्षा सिंह के अधूरे सपने भी पूरे करना है।अशेष शुभकामनाएं।
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आचरण, 23.06.2023
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Tuesday, May 23, 2023

पुस्तक समीक्षा | सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 23.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई   कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के काव्य संग्रह "फूलों के अधरों पर कीलें" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - फूलों के अधरों पर कीलें
कवि        - ज. ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’
प्रकाशक     - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा वार्ड, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य        - 250/-
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विधाएं साहित्य को समृद्ध करती हैं। किसी भी साहित्य में गद्य और पद्य की जितनी अधिक विधाएं रहती हैं वह उतना ही अधिक विस्तार पाता है। हिंदी साहित्य में गद्य विधा में अनेक विधाएं समानांतर क्रियाशील है जिनमें छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों तरह की विधाएं हैं। यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में किस विधा को चुनता है। स्पष्ट है कि रचनाकार जिस विधा में स्वयं की आश्वस्ति और सहजता अनुभव करता है वही विधा उसे रुचिकर लगती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो एक रचनाकार किस विधा के साथ स्वयं को ‘‘कंफर्टेबल’’ महसूस करता है उसे ही अपनाता है। किसी भी रचनाकार को किसी विशेष विधा को चुनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि नई-नई विधाएं जन्म लेती हैं और अपना मार्ग प्रशस्त करती हैं। सागर के कवि ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के लिए नवोदित विधा सजल को चुना। उनका काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ नवोदित सजल विधा में निबद्ध कविताओं का संग्रह है। संग्रह के संबंध में चर्चा करने से पूर्व सजल विधा के बारे में चर्चा कर लेना उचित होगा।
सजल विधा को उत्तर प्रदेश के मथुरा में सन् 2017 को स्थापना मिली, जब मथुरा में हिन्दी सजल सर्जना समिति के तत्वावधान में प्रथम हिन्दी सजल महोत्सव-2017 का आयोजन किया गया। हिन्दी काव्य की नई विधा इसी समारोह में ‘सजल’ को अपने व्याकरण और मानकों के साथ हिन्दी के उपस्थित विद्वानों ने मान्यता प्रदान की थी। इस अवसर पर पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कहा था कि, ‘‘हिन्दी में बहुत ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। मैंने भी लिखीं थीं। परन्तु मुझे लगा कि यह हिन्दी के साथ न्याय नहीं है। अतः मैंने इसे एक नाम ‘गीतिका’ दिया। इसका कोई मानक निर्धारित न होने कारण सर्वमान्य न हो सकी। आज मथुरा से डॉ. अनिल गहलौत ने ‘हिन्दी सजल’ का शुभारम्भ किया है। इसका मानक और व्याकरण भी तय किया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह विधा सर्वमान्य होगी और काव्य जगत में अपना ऊंचा स्थान बनाएगी।’’
इसी आयोजन में सजल विधा के प्रवर्तक माने जाने वाले डॉ. अनिल गहलौत ने ‘सजल’ की अवधारणा और उसके मानकों पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि ‘‘हिन्दी में ग़ज़ल के कारण हिन्दी वाले उर्दू भाषी होते चले गए। अनेक कवियों ने उर्दू के उपनाम धारण कर लिए। अनेक हिन्दी ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए परन्तु उर्दू शाइरों ने उन्हें ग़ज़ल नहीं माना। यह ठीक भी है। जब ग़ज़ल के व्याकरण को आप जानते ही नहीं तो आपकी ग़ज़ल कैसे सही हो सकती है। अतः हिन्दी कवि ग़ज़लकार या शाइर नहीं बन सके। ‘सजल’ विधा इस मानसिकता से हमें उबारेगी और इसके माध्यम से हम हिन्दी की सच्ची सेवा भी कर सकेंगे।’’
पद्मश्री ‘‘नीरज’’ तथा डॉ. गहलौत के वक्तव्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो सजल विधा को ग़ज़ल के समकक्ष खड़ी की गई विधा माना जा सकता है। निश्चित रूप से अनेक कवियों को सजल विधा ने आकर्षित किया है और अब तक कई संग्रह इस विधा में प्रकाशित हो चुके हैं। कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ के आरंभिक पृष्ठों पर भूमिका एवं शुभकामनाओं के रूप में डॉ. अनिल गहलौत, विजय राठौर, डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया, ईश्वरीप्रसाद यादव तथा विजय बागरी विजय ने सजल विधा और उसके व्याकरण पर समुचित प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने कवि प्रभाकर के सजलों के तारतम्य में सजल विधा के संबंध में लिखा है- ‘‘सजल विधा में छंदों की तरह मात्राभार का कोई स्थाई विधान नहीं है। लेकिन इसमें आदिक से लेकर अंतिम तक मात्रा भार की समानता और लय की समरूपता की अनिवार्यता है। इसीलिए सजल का मीटर छोटा या बड़ा कैसा भी हो सकता है। इसमें समांत एवं पदांत में तुक की अनिवार्यता भी रखी गई है। सजलकार ने इस सजल संग्रह में छोटे मीटर से लेकर बड़े मीटर तक की सजलें सम्मिलित की हैं।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘यद्यपि अभी हिंदी जगत सजल की विशिष्टताओं से भली भांति परिचित नहीं हो पाया है एवं सजल अपने स्वाभिमान के साथ स्थापित होने के लिए संघर्षरत है, लेकिन अल्प समय में ही उसने जो सर्वस्वीकार्यता एवं लोकप्रियता प्राप्त की है, उससे उसके उज्जवल भविष्य की सम्भावनाएं प्रबल होती जा रही हैं।’’
विधा चाहे कोई भी हो उसे विस्तार पाने तथा लोकप्रिय होने में समय लगता है। हिंदी में ग़ज़ल विधा अल्पावधि में लोकप्रिय नहीं हुई उसका इतिहास अमीर खुसरो की ग़ज़लों से शुरू होता है। सजल विधा के साथ एक धनात्मक स्थिति यह है कि आज उसे सोशल मीडिया का प्लेटफार्म मिला हुआ है जिससे वह शीघ्र ही अधिक से अधिक रचनाकारों तक अपनी पहुंच बना पा रही है। ज़ाहिर है कि जिसे यह विधा रुचिकर लगेगी वह सहज भाव से इसे अपनाता जाएगा। सन् 1956 में सागर संभाग के ही दमोह जिले के बांसातारखेडा जन्मे कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त की तथा शिक्षण कार्य से जुड़कर, प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। आरंभ से ही साहित्यिक लगाव होने के कारण वे कविताएं लिखने लगे थे। सन 1972 में ‘‘जय बंग’’ शीर्षक उनकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी। इसके बाद वे मुक्त रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे किंतु एक लंबे अंतराल के बाद उनका दूसरा काव्य संग्रह सजल संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ है।
   कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने दोहा, कुंडलिया, मुक्तक तथा गीत भी लिखे हैं किंतु सजल के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वर्तमान में वे सजल विधा में ही सृजनकार्य कर रहे हैं। काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ में यूं तो हर शेड्स की कविताएं मौजूद हैं, लेकिन विसंगतियों के विरुद्ध कटाक्ष भरा स्वर मुखरता से उभरा है। संग्रह के नाम ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह की रचनाएं व्यंजनात्मक हैं। यह रचनाएं स्थितियों की ओर संकेत करती है जहां फूल जैसे नाजुक तत्व के अत्यंत नाजुक अधरों पर किलें ठोंक दी गई हों। अव्यवस्थाओं को देखकर कभी हृदय का द्रवित हो उठना स्वाभाविक है कवि ‘‘प्रभाकर’’ प्रश्न करते हैं कि वे लोग कहां हैं जो सुव्यवस्था स्थापित कर सकते हैं-
नीतिवान गुणवंत कहां हैं?
सच्चरित्र अब संत कहां हैं?
भूले हम कबिरा, तुलसी को।
गुप्त, निराला, पंत कहां हैं ?
कौन करे चिंता दीनों की ?
दयावंत, श्रीमंत कहां हैं ?

कवि ने इस बात का भी आग्रह किया है कि यदि मूल्यों का पतन हो रहा है तो उसका कारण क्या है, इस पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं तटस्थता या निर्लिप्तता ही इन सब के लिए जिम्मेदार होती है। कवि की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए जोकि कोविड-19 की वैश्विक आपदा के दौरान लिखी गईं-
क्यों हो रहे सुमूल्य पतित आप सोचिए ।
आदर्श आज लुप्त व्यथित आप सोचिए।।
निज स्वार्थ सिद्धि हेतु अहो!आत्मा बिकी
वे बेच दें न देश त्वरित आप सोचिए।।

कवि ‘‘प्रभाकर’’ का विचार संसार सुदीर्घ है। वे राजनीति में आती जा रही संवेदनहीनता, चारित्रिक पतन और दोहरेपन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -
उभय तरफ वह मिला हुआ है।
अतः सर्वदा खिला हुआ है।।
करता है वह काला-पीला ।
भवन कई मंजिला हुआ है।।
चांदी के टुकड़े क्या पाए!
उसका मुख अब सिला हुआ है।।

जीवन में प्रत्येक मूल्यों के साथ आपसी सद्भाव का भी क्षरण हुआ है। जहां एकता और भाईचारा पाया जाता था, वहां अब आपसी विवाद और वैमनस्य की बातें होती है। घर के आंगन के बीच दीवार खड़ी करना आम बात हो गई है। इस विषम वातावरण को लक्ष्य करते हुए कवि ने लिखा है कि -
अमराई में गूंजते, कांव-कांव के बोल ।
लुप्तप्राय हैं हो गए, पिक-स्वर मधुर अमोल।।
करुणा और मनुष्यता,हुए उभय क्षतिग्रस्त।
शांति-द्वीप में आ गया, आतंकी भूडोल।।

कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी वेदना को व्यक्त करते हुए देशज शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग किया है। जैसे इस सजल में आप ‘‘कजलियां’’ शब्द का प्रयोग देख सकते हैं। कजलियां गेहूं की वे कोमल नवांकुरित पत्तियां होती है जिन्हें सावन में परस्पर एक दूसरे को दे कर अपनत्व प्रकट किया जाता है। ज़ाहिर है कि जब अपनत्व समाप्त होने लगे तो कजलियों की आंखों में आंसू आएंगे ही। यह पंक्तियां देखिए-
प्रेम-अपनत्व की कजलियां रो पड़ीं।
इसलिए शांति की मुरलियां रो पड़ीं।।
संतुलन हीन पावन प्रकृति हो चली।
अब बिना नीर के बदलियां रो पड़ीं।।

ऐसा नहीं है की कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने सिर्फ आक्रोश और वेदना की ही रचनाएं लिखी हो, उन्होंने अपने सजल के द्वारा प्रसन्न रहने और वातावरण सुधारने का रास्ता भी सुझाया है-
बीन वेदना खुशियां बोना ।
महकेगा तब कोना-कोना।।
प्रगति- पतंग उड़ाना ऊंची।
पड़े पतन का भार न ढोना।।
सोने वाला बस खोता है।
जगने वाला पाता सोना।।

किसी भी रचना के लिए महत्वपूर्ण होती है उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता। विधा चाहे कोई भी हो किंतु यदि रचना में वैचारिक आंदोलन एवं आग्रह का स्वर है तो उसे एक समृद्ध रचना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ का काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ एक समृद्ध काव्य संग्रह कहा जा सकता है। सजल विधा को समझने की दृष्टि से भी यह संग्रह महत्वपूर्ण है।    
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Tuesday, May 16, 2023

पुस्तक समीक्षा | जीवन के सन्नाटे को स्वर देता काव्य संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 16.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई नर्मदांचल के वरिष्ठ कवि विनोद निगम के काव्य संग्रह "जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
जीवन के सन्नाटे को स्वर देता काव्य संग्रह
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - जो कुछ हूं,बस गीत गीत हूं
कवि        - विनोद निगम 
प्रकाशक    - पहले पहल प्रकाशन, भोपाल 25-ए, प्रेस कॉम्पलेक्स, एमपी नगर,भोपाल  
मूल्य       - 400/-
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     काव्य को अनुभव करना, उसे जीना और उसे अपनी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बनाना, एक समर्थ कवि के रचनाकर्म को निर्धारित करता है। पं. भवानी प्रसाद मिश्र के नर्मदांचल के वरिष्ठ कवि विनोद निगम ने काव्य को अपने ही ढंग से जिया है। वे काव्य को उस कैनवास की भांति अपनाते दिखाई देते हैं जिसमें वे अपनी इच्छानुरूप रंग भरते हैं और भावनाओं को शाब्दिक आकार देते हैं। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि विनोद निगम फ़क़त कल्पनाओं में जीते हैं, वे जीवन के खुरदरे यथार्थ और जनहित नामक भोथरे प्रयासों को अपने गीतों में पिरोते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विनोद निगम एक ऐसे कवि हैं जो गीत की संरचना में भी अपने मानक रचते हैं। वे नवगीतयुग के स्वर्णिमकाल में सक्रियता से नवगीत रचते रहे तथा नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि शंभुनाथ सिंह ने उन्हें अपने द्वारा संपादित ‘‘नवगीत दशक’’ के तीन खंडों में से तृतीय खंड में स्थान दिया था। 

‘‘जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं’’ विनोद निगम का एक वृहद काव्य संग्रह है जिसमें उन्होंने अपने काव्य को पांच अध्यायों में विभक्त किया है- जारी हैं लेकिन यात्राएं, मौसम के गीत, समवेत गायन के लिए गीत, उम्र के चढ़ाव पर और शुरू यहीं से हुआ था। इन पांचों अध्यायों पर गीतकार माहेश्वर तिवारी की यह टिप्पणी बड़े मायने रखती है कि -‘‘विनोद निगम, समकालीन गीत को समझने के लिए, पढ़े जाने वाले एक जरूरी कवि हैं उनके गीतों को पढ़ते हुए अपना अनुभव यदि कहूं तो उनके पास गीतों की आमद होती है, उतरते हैं, लिखे नहीं जाते। भाषा का वह तेवर और कहन का ऐसा सलीका कितनों के पास है, विनोद निगम के प्रतिनिधि गीतों से गुजरना, आत्मीय जीवन प्रसंगों से जुड़ा एक सुखद अनुभव तो होगा ही, विगत पांच दशकों का देश और समाज भी हमारे सामने होगा।’’ 
हिन्दी के प्रतिष्ठिक समालोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने विनोद निगम के काव्य पर सटीक विचरा व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘‘उनकी कल्पनाएं बेहद जमीनी हैं इसीलिए वे ऊंचे ख्यालों के पुलाव नहीं बनातीं किन्तु इतनी सगी और आत्मीय हैं कि हमारी अपनी ही सोच के बेहद करीब लगती हैं। यही कारण है कि कविता का हिस्सा होकर भी वे जीवन की सच्चाईयों का प्रतिरूप जान पड़ती हैं। विनोद के कवि की यह सादगी ही उनकी कविता की सुन्दरता भी है। उनकी अनुभूतियां अपनी सादगी में बेमिसाल हैं और अभिव्यक्तियां भी अकृत्रिम और आमफहम। यही तो विनोद निगम हैं।’’ 

देखा जाए तो माहेश्वर तिवारी और डाॅ. विजय बहादुर सिंह की इन दो टिप्पणियों के बाद विनोद निगम के गीतों से जुड़ने के लिए किसी और मानसिक तैयारी (माइंड मेकअप) की आवश्यकता नहीं रह जाती है। फिर भी यह जानने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है कि स्वयं रचनाकार अपने सृजन को ले कर क्या विचार रखता है? वह अपने सृजन के प्रति आश्वस्त है या नहीं? और है तो कितना? लेकिन इससे भी पहले कवि का आत्मकथन परिचित कराता है उसके उस परिवेश से जहां उसने इस दुनिया में आंखें खोलीं और फिर धीरे-धीरे किस तरह दुनिया और फिर साहित्यिक दुनिया से सरोकारित हुआ। विनोद निगम लिखते हैं-‘‘बाराबंकी (उ.प्र.) के सरावगी मोहल्ले में बचपन बीता, पास ही 8-10 कि.मी. दूर एक छोटा सा गांव मुजीमपुर है, जहां कुछ थोड़ी-सी जमीन और एक पुश्तैनी घर भी था। बाराबंकी में घंटाघर से लगी राजाराम हलवाई वाली गली के एक मकान में जन्म हुआ था, गोविन्ददास जैन के इस मकान में मेरे पिताजी, नौ रुपये में किराये से रहते थे।’’ फिर वे अपने आगे के जीवन के बारे में लिखते हैं कि ‘‘जब मेरा जन्म हुआ था तब घरों में, अम्मा-बाबू, चाचा-चाची, बाबा-दादी ये सब रहा करते थे, आज तो मॉम-डेड ही रह गए हैं, अंकल-आंटी और ग्रेन्ड पॉ तो अलग ही रहते हैं। मेरे घर में कविता लिखने-पढ़ने का कोई रिवाज या परम्परा नहीं थी, सब लोग प्रायः नार्मल थे, कोई कवि या साहित्यकार नहीं था, साहित्य विरासत में मुझे नहीं मिला था। मुझे पढ़ना-लिखना अच्छा लगता था सो स्कूल के दिनों से ही नगर के सबसे पुराने हिन्दी पुस्तकालय में नियमित रूप से जाया करता था। जहां ‘धर्मयुग’, ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कादम्बिनी’, ‘दिनमान’ और ‘ज्ञानोदय’ जैसी पत्रिकाएं और कर्नल विनोद तथा कैप्टन हमीद की ‘जासूसी दुनिया’ भी पढ़ने को मिलती थी, मेरे मोहल्ले में वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री कल्पनाथ सिंह भी रहते थे, उस समय उनके गीत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपते थे, इन्हीं सब से कविता लिखने की प्रेरणा मिली। गीत लिखना मुझे बहुत अच्छा लगता था, गीतों को गुनगुनाते-गुनगुनाते ही पूरा करता था, शुरू के गीत तो कोमल और भावप्रवण थे किंतु धीरे-धीरे जैसे जैसे जीवन, समाज और परिवेश से साक्षात्कार होता गया गीतों में विविधता आई।’’

जी हां, विनोद निगम का लेखन उस दौर में मंजा जब प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के नामचीन संपादक ‘‘सखेद रचना वापसी’’ के लिए रचना के साथ पता लिखा, पर्याप्त टिकट लगा लिफाफा मंगाते थे। पसंद न आने पर वे रचना वापस करके अपने दायित्व से स्वयं को मुक्त नहीं मानते थे अपितु सलाह का रुक्का भी वापसी के लिफाफे में सरका दिया करते थे। यह परम्परा ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव तक चली। बहरहाल, विनोद निगम के लिए गीत का आकाश ऐसे कई गीतकारों, नवगीतकारों के साथ साझा था जो सभी एक से बढ़ कर एक थे। इन चुनौतियों के बीच उन्होंने काव्य की महत्ता को बखूबी समझा। गीत के साथ वे स्वयं को कितना ‘कम्फर्टेबल’ अनुभव करते हैं, इस बात को सामने रखने के लिए उन्होंने यह कविता ही रच डाली कि ‘‘गीत, मेरे लिए यात्रा होते हैं’’। कविता का एक अंश देखिए-
जो कुछ भी मेरे आसपास होता रहता है
मित्र होते हैं या घटनाएं 
या फिर भूख को केन्द्र में रखते हुए 
अनेक जारी संघर्ष, 
और इनके ऊपर पर्तों की तरह, 
इन सबकी अपनी अपनी अनुभूतियां हैं,
जिन्होंने शब्दों को तलाशा है, 
और उन्हें लेकर निकल आई हैं। 
गीतों की इस यात्रा में...।

इसके साथ ही विनोद निगम एक ग़ज़ल लिखते हुए गीत की दुनिया में अपने रमे रहने का कारण भी बड़ी सादगी से बता देते हैं-
सब गम के आसपास हैं, हम क्या गजल कहें।
फिर आप भी  उदास हैं, हम क्या गजल कहें।
कहते हैं सियासत में, जिन्हें मुल्क की दौलत 
बेघर वो  बे-लिबास हैं, हम क्या गजल कहें।

अर्थात् विनोद निगम के भीतर का कवि अपनी मनोदशानुरूप काव्य-शैली चुनने का हिमायती है। यह उचित भी है क्योंकि जहां सहजता है, वहीं अभिव्यक्ति की स्पष्टता और सघन आग्रह बन पाता है। इस संग्रह में एक नवगीत है ‘‘टंगे हुए सम्बोधन’’। इसका एक बंद देखिए जो भावों की कोमलता, परिस्थितियों की अवशता और एक सन्नाटे को मुखर करने की पूरी ताकत रखता है-
अब तक एहसास के निकट है,
कन्धों पर झुका हुआ, भारीपन।
एक गन्ध का,
खुली हुई खिड़की के आसपास बहना, 
और किसी आहट का, 
गिरे हुए पर्दों के पास खड़े रहना, 
और तपे अधरों का, 
पंखुरियां छूना भर, 
मौन की लकीरों में कहना.
अब तक विश्वास के निकट हैं,
पलकों पर टंगे हुए, सम्बोधन।

  इस संग्रह के सभी गीत एक  बढ़ कर एक हैं और नवगीत की एक विशेष परंपरा से जोड़ने के साथ ही कहन की स्वतंत्रता को भी स्थापित करते हैं। अंत में, मैं उनकी उस कविता की कुछ पंक्तियां यहां रखना जरूरी समझती हूं जो एक मध्यम तथा निम्नमध्यम वर्गीय पिता की पीढ़ियों के संघर्ष को बखूबी रेखांकित करती है और आर्थिक विषमता की विरूपता के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है-  
जीवन जिया बड़े दमखम से, 
या फिर चुनी चिता 
लड़े निरन्तर, संघर्षों से हारे नहीं, पिता ।
अस्सी रुपये का वेतन था 
और चार सन्तानें 
कैसे पाला-पोसा हमको, 
ईश्वर या वे जानें 
कटि तक धोती और उसी से 
पेट-पीठ ढंक लेना 
बच्चों को भी दूध-जलेबी, 
खुद को चना-चबेना 
गहन अभावों में भी, 
ऊंचा हाथ, उठा ही माथा 
अर्थ, त्याग, तप, स्वाभिमान का, 
सबको दिया बता। 

बाराबंकी में सन् 1944 में जन्में और नर्मदांचल के होशंगाबाद में रह कर सर्जना करने वाले विनोद निगम का यह काव्य संग्रह ‘‘जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं’’ काव्यप्रेमियों के लिए एक बेहतरीन पुस्तक है। इसमें उन्हें काव्य के रूप में जीवन का सांगोपांग चित्रण मिलेगा, ठीक एक कलात्मक म्यूरल पेंटिंग की तरह।       
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Tuesday, March 28, 2023

पुस्तक समीक्षा | सच बयानी का सफ़र | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 28.03.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के काव्य संग्रह "सच बयानी का सफ़र" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
सच की विविधता को मुखर करती कविताएं
समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - सच बयानी का सफ़र
कवि       - ऋषभ समैया ‘‘जलज’’
प्रकाशक    - प्रिज़्म बुक्स (इंडिया), 58, मुरली लेक सिटी, ओल्पाड, सूरत-394540 (गुजरात)
मूल्य        - 795/-
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ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ सागर नगर के वरिष्ठ कवियों में से एक हैं। 07 सितम्बर 1947 को जन्मे कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ दीर्घ जीवनानुभवों के साथ काव्य सृजन का भी दीर्घकालिक अनुभव रखते हैं। यद्यपि पुस्तक प्रकाशन की दिशा में उनका काव्य संग्रह ‘‘सच बयानी का सफ़र’’ एक लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ है। इस संबंध में कवि ने ‘‘आत्मकथ्य’’ में स्वयं लिखा है कि -‘‘हर एक जीवन यात्रा एक कविता गजलगो अपने काव्य चक्षु से बांचता रहता है और भाषा भेद किए बिना शब्दों में पिरोकर रचना धर्म निबाहता हुआ यात्रा करता रहा है। ‘सच बयानी का सफर’ भी लगभग पचपन वर्षों का काव्य सफर है। कविता, कहानी, गजल कोशिश से नहीं लिखी जाती, वह तो जब निकलती है तो अविरल भाव धारा की तरह। मुझे काव्य संग्रह प्रकाशन का बहुत शौक नहीं रहा।’’

जहां तक सच का प्रश्न है तो सच हमेशा आंदोलित करता है। सच चाहे कितना भी चुभने वाला क्यों न हो, जीवन की सच्चाइयों से चाह कर भी नज़रें नहीं चुराई जा सकती हैं। सच के अनेक प्रकार होते हैं-कड़वा, मीठा, चुलबुला, गुदगुदाता, सुइयां चुभोता और कभी आईना दिखाता। लगभग ये सारे सच इस काव्य संग्रह में अपने अनूठे काव्यात्मक रूप में मिलेंगे। परिवार इस सामाजिक जीवन का सबसे बड़ा सच है। परिवार उसी समय तक एक उम्दा परिवार रहता है जब तक उसके सारे सदस्य परिवार के महत्व को समझते हैं और उसका आदर करते हैं। जिस दिन परिवार के प्रति आदर भावना कम होने लगती है, उसी दिन से परिवार टूटने लगता है। इसलिए कवि ने अपनी रचना के द्वारा परिवार की महत्ता को समझने का आह्वान किया है-
घर को केवल गुज़र-बसर माने हैं जो।
कोहनूर !  कंकर  पत्थर माने हैं जो।
बहुत तरस आता है उनकी बुद्धि पर
अमृत-प्याला बुझा जहर माने हैं जो।
चैन चहक की मस्ती मौज झूमते हैं
अर्पण, अपनापन आदर माने हैं जो।
एक परिवार सदस्यों के पारस्परिक संबंधों से ही तो मिल कर बनता है अतः परिवार की ही भांति संबंधों का सच भी जीवन का महत्वपूर्ण सच होता है। ये संबंध माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री या मित्र-रिश्तेदारों के होते हैं। कवि ‘जलज’ ने अपने इस संग्रह में पिता को समर्पित कुछ रचनाएं संजोई हैं। जिनमें से एक रचना की ये पंक्तियां देखिए। इनमें पिता के अस्तित्व एवं दायित्वों को सामने रखते हुए पिता के लिए एक नूतन उपमा दी गई है कि वे परिवार में सुख-सुविधा की गर्माहट बनाए रखने के लिए उसी तरह लगे रहते हैं जैसे किसी रजाई में धागा तगा हुआ होता है-  
स्मृतियों से बंधे  पिताजी।
दायित्वों से लदे पिताजी।
जीवन की पथरीली राहें
ठिठके फिसले सधे पिताजी। ’
घर-भर की नींदें मीठी हों
रात-रात भर जगे पिताजी।
सुविधाओं की गर्माहट को
खुद रजाई से तगे पिताजी।

जीवन में जितना पिता का महत्व है उतना ही जन्मदात्री मां का भी है। अकसर एक निपट गृहणी मां को लोग ‘‘फालतू की वस्तु’’ मान लेते हैं। जबकि गृहणी मां के दायित्व भी कम नहीं होते हैं। मां के लिए भी ‘‘सांकल कुंडी’’ की एक नई उपमा देते हुए मां की महत्ता को कवि ने बखूबी रेखांकित किया है-
जीवन देने  वाली  है मां।
पालन पोषण वाली है मां।
मन भर नेह परोसा करती
प्रिय भोजन की थाली है मां।
हरी भरी बगिया सबकी है
फ़क़त सींचती माली है मां।
घर द्वारे की सांकल कुंडी
मन चैकस रखवाली है मां।

मां के बाद घर में पत्नी का विशेष स्थान रहता है। चूंकि वह दूसरे परिवार से आई हुई स्त्री होती है अतः उसका दायित्व और विशिष्ट रहता है। वह चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे, वह चाहे तो घर को नर्क बना दे। लेकिन वास्तव में यही पत्नी एक ‘‘डिठौने’’ की भांति अपने परिवार से सभी विपत्तियों को दूर रखती है। कवि ‘‘जलज’’ की इस भावना को ‘‘बीबी’’ शीर्षक इस उनकी ग़ज़ल में देखा जा सकता है-
तन मन शादी-गोना बीबी।
सपना सुखद सलोना बीबी।
धुरी कहें या बाहर घेरा
घर का कोना कोना बीबी।
सीरत से घर स्वर्ग बना दे
नफरत-रोना धोना बीबी।
गिरे नो मुंह पर कालिख पोते
रक्षक बने, डिठौना बीबी।

घर-परिवार से बाहर निकलने पर कवि जब आमजन जीवन पर दृष्टिपात करता है तो उसे यह देख कर ठेस पहुंचती है कि चारो ओर पराएपन का सन्नाटा है। लोग अलगाववादी होते जा रहे हैं। एकता खोखली होती जा रही है और जिससे समूची सभ्यता पर असंवेदनशीलता का ख़तरा मंडराने लगा है। ग़ज़ल की ये पंक्तियां देखिए-
घोर सन्नाटा घिरा है, नेह के हर नीड़ में।
खो गया है आदमी, अलगाववादी भीड़ में।
झुक गई है शर्म से, या बोझ से दोहरी हुई
हो गए नासूर गहरे, सभ्यता की रीढ़ में।
नफरतों की दीमकें, चट कर गईं हैं एकता
घुप्प अंधियारा समेटे, सरपरस्ती सीड़ में।

जीवन का एक सच यह भी है कि लोग हानि के बारे में जानते-बूझते भी धूम्रपान करते रहते हैं। धूम्रपान पर केन्द्रित यह रचना इस संग्रह की महत्वपूर्ण रचना है क्यों कि इसमें उपदेशात्मक ढंग से नहीं वरन अगरबत्ती के धुंए से तुलना करते हुए धूम्रपान के बारे में लिखा गया है-
सिगरेट और अगरबत्ती
दोनों के धुएं में फर्क है
पहला अय्याशी का नमूना है
दूसरा ख़ुशबू का अर्क़ है।
सिगरेट कैन्सर को जन्म देती है
अगरबत्ती महक लुटाती है
सिगरेट मर्सिया पढ़ती है
अगरबत्ती गुनगुनाती है।

कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के इस काव्य संग्रह में दोहे और बुंदेली ग़ज़लें भी हैं। वे उन्मुक्तभाव से काव्य रचते हैं तथा नवीन उपमाएं देते हुए अपनी बात कहते हैं। किन्तु एक सच यह भी है कि इस संग्रह की रचनाएं निश्चत रूप से पठनीय हैं किन्तु आमपाठक के लिए इसे खरीद के पढ़ पाना कठिन है। कुल 86 काव्य रचनाओं के इस हार्डबाउंड संग्रह का मूल्य 795 रुपये है। बड़ी डायरी के आकार में प्रकाशित इस पुस्तक का प्रकाशकीय स्वरूप बेशक़ आकर्षक है लेकिन रचनाओं की सार्थकता तभी है जब वे सभी पाठकों तक सुगमता से पहुंचें। यह पुस्तक यदि पेपरबैक में, कम मूल्य पर होती तो इसकी रचनाओं की पहुंच पाठकों तक बढ़ जाती।
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Tuesday, August 23, 2022

पुस्तक समीक्षा | इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 23.08.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, गांधीवादी समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर के काव्य संग्रह  "ईश्वर तुम कहां हो?" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - ईश्वर तुम कहां हो?
कवि    - रघु ठाकुर
प्रकाशक - राजेंद्र प्रसाद राजन, प्रज्ञान शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थान, नई दिल्ली
मूल्य - 100/-
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    कोरोना काल में जिस दौर से मानव जाति गुजरी है और जिस तरह के हालात से वर्तमान व्यवस्थाएं गुजर रही है उसमें अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से जाग उठता है की ईश्वर है भी या नहीं? और यदि है तो वह कहां है क्या उसे ये विभीषिकाएं, ये आपदाएं, ये अव्यवस्थाएं दिखाई नहीं दे रही हैं? क्योंकि जिस समय आम जनता आपदा से जूझ रही थी, उसकी रोजी-रोटी उससे छिन रही थी और उसके अपने परिजन उसकी आंखों के सामने असमय काल का ग्रास बन रहे थे, ठीक उसी समय चंद पूंजीपतियों की संपत्ति और बैंक बैलेंस में तेजी से इजाफा हो रहा था। क्या यह असंतुलन ईश्वर को दिखाई नहीं दे रहा था? क्या यह अन्याय ईश्वर नहीं देख पा रहा था? जब यह सब कुछ घटित हो रहा था तब ईश्वर कहां था? यदि माइथोलॉजी को माने तो मनुष्यों का कष्ट दूर करने के लिए ईश्वर स्वयं धरती पर नहीं आता है वरन वह धरती पर अपना दूत भेजता है अथवा स्वयं मानव रूप में अवतार लेता है। रोचक बात यह है कि चाहे ईश्वर का दूत हो अथवा स्वयं ईश्वर मानव अवतार के रूप में धरती पर प्रकट हो, दोनों को ही मानवी जीवन के कष्ट झेलने पड़ते हैं। तो फिर ईश्वर अपने ईश्वरीय रूप में ही मनुष्य की सहायता क्यों नहीं करता है? समाज की दशा और दिशा पर चिंतन करते हुए सुपरिचित विचारक एवं कवि रघु ठाकुर ने कविताएं लिखी हैं तथा उनके नवीनतम काव्य संग्रह का नाम है- ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?‘‘

  रघु ठाकुर सुप्रसिद्ध गांधीवादी समाजवादी चिंतक हैं, जिन्होंने अपना समूचा जीवन समतामूलक समाज संरचना के लिए समर्पित कर दिया है। वे मात्र साहित्य सृजन नहीं करते हैं बल्कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के बारे में भी सोचते हैं और उसके हित में हर संभव प्रयास करते हैं। इसीलिए रघु ठाकुर की कविताएं आम आदमी की आवाज बनकर हमारे कानों में ध्वनित होती है और हमारे विचारों को निरंतर झकझोरती है। जैसा कि पुस्तक के पृष्ठ भाग में भी उनका परिचय दिया गया है कि -‘‘बचपन से युवावस्था तक और युवावस्था से लेकर अब तक उनका जीवन विचारों की क्रांति मशाल लेकर समूचे देश में अलख जगा रहे हैं और दमित-दलित तथा वंचित, पिछड़े वर्गों के अधिकारों की लड़ाई अनवरत लड़ रहे हैं। डॉ. लोहिया द्वारा प्रकाशित ‘‘जन‘‘ एवं ‘‘मैनकाइंड‘‘ में लेखन तथा श्री जॉर्ज फर्नांडिस के द्वारा प्रकाशित श्प्रतिपक्षश् एवं ‘‘द अदर साइड‘‘ के संपादन से जुड़े रहे। वर्तमान में दक्षेस महासंघ के अध्यक्ष तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संरक्षक भी हैं सुल्तानपुर से प्रकाशित ‘‘लोकतांत्रिक समाजवाद’’ मासिक समाचार पत्र के संस्थापक सदस्य रहे और संप्रति ’’दुखियावाणी’’ भोपाल के संपादक भी हैं।’’
     ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ कविता संग्रह में कुल 47 कविताएं हैं। जो कि जन चेतना को जगाने की दिशा में प्रखर आह्वान के समान हैं। संग्रह की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रह चुके श्री रामचरण जोशी ने तथा वरिष्ठ कवि ध्रुव शुक्ल ने लिखी है। रामशरण जोशी ने रघु ठाकुर के चिंतन एवं इन कविताओं की आत्मा की पड़ताल करते हुए लिखा है- ‘‘रघु जी की कविताएं बहुरंगी सामाजिक सरोकार से ओतप्रोत हैं। संयोगों की पृष्ठभूमि कवि एक्टिविस्ट को एक मौका देती है कि भारतीय गणतंत्र ने अपनी पौन सदी की यात्रा कैसे तय की है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सलूक किया है? देश के शासक वर्ग में विभिन्न स्तर के नागरिकों के साथ कैसा सुलूक किया है? गांधी के अंतिम व्यक्ति के जीवन में कितना गुणात्मक परिवर्तन आया है? क्या वह अपनी किस्मत बदल सकता है? क्या समतावादी भारत का निर्माण हो सकता है? क्या धन, धरती और सत्ता का न्याय संगत बंटवारा किया जा सकता है? इस तरह के तमाम सवाल रघु जी की कविताओं में गुंजित होते हैं।’’
इस प्रकार ध्रुव शुक्ल ने ‘‘समाजवाद की रघुकुल रीत’’ शीर्षक से भूमिका लिखते हुए रघु ठाकुर की कविताओं पर समुचित प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- ‘‘रघु ठाकुर अपने छात्र जीवन से ही कविता को एक आयुध की तरह बरतते रहे हैं। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा की अमिधा शक्ति को ही अपनाया है। कोई राजनेता अगर अमिधा की शक्ति को साध ले तो समाज में घर कर गए रोगों के लक्षणों को सहजता से ढंग से प्रकट कर सकता है।’’
रघु ठाकुर के काव्य संग्रह ‘‘ईश्वर तुम कहां हो?’’ में संग्रहीत कविताएं विलक्षण भाव बोध उत्पन्न करती हैं। इसी शीर्षक की कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
कहते हैं ईश्वर सर्वशक्तिमान है
उन्हें तो सब कुछ करना आसान है
पर ईश्वर तब तुम कहां थे,
जब भेड़िए, दरिंदे उस अबला नारी का तन लूट रहे थे।
वे हजारों लाखों मजदूर कर्मचारी,
खदानों में खून पसीना बहाकर
पसीने से लथपथ और धुंए को नाकों में भरकर
धूल कणों को सांसो में खींच रहे थे
ईश्वर तुम तब कहां थे,
जब वे खांसते, खखारते, कफ उगलते, टीबी के बीमार बन रहे थे
परंतु इन्हीं मजबूरों के श्रम का शोषण कर
मोदी और मित्तल खरबपति बन गए
इन्हीं के पसीने से
जिंदल और अंबानी नए बादशाह  गए, ईश्वर तब तुम कहां थे?

संग्रह में एक कविता है ‘‘गरीब की आत्महत्या‘‘। इस कविता में वर्तमान में प्रचलित चुनावी परिदृश्य पर तीखा कटाक्ष किया गया है। कवि यह स्मरण कराना चाहते हैं कि नेता तो अपनी स्वार्थपरता में डूबे हुए हैं ही वही आम जनता भी अपने गढ़े हुए भ्रम में जी रही है। कविता की यह पंक्तियां विचारणीय हैं -
चुनाव की जीत हार के सट्टे पर
अरबों के दांव लगते हैं।
  गरीबों के विकास के लिए
घोषणा पत्र, दृष्टि पत्र
करोड़ों में छपते हैं
और गरीब, इलाज के अभाव में
कर्ज से भयभीत होकर
आत्महत्या करते हैं।

समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने एक कवि के रूप में अपने समाजवादी विचारों को बड़े ही सुंदर और सात्विक शब्दों में अपनी कविता ‘‘समाजवादी‘‘ में पिरोया है जिसके एक एक शब्द कवि के व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय देते हैं। कवितांश-
हम जो समाजवादी हुए
न हिंदू के रहे - न मुसलमान के रहे
न अगड़े के रहे - न पिछड़ों के रहे
न दोस्त के रहे - न दुश्मन के रहे
न अपनों के रहे - न परायों के रहे
हम जो समाजवादी हुए
बेकसी व मुफलिसी की जिंदगी जिए,
न गरीब के रहे - न अमीर के रहे
हम तो ताउम्र
सफर करते रहे।

रघु ठाकुर की यह विशेषता है कि वे सत्य कहने से कभी नहीं हिचकते हैं। उनके यही वैचारिक तेवर उनकी कविताओं में भी उभर कर सामने आते हैं, जब वे खरे
-खरे शब्दों में अव्यवस्था और राजनीतिक स्वार्थपरता को लानत भेजते हैं। इसी तारतम्य में उनकी एक छोटी कविता है ‘‘राष्ट्रवाद‘‘, कम शब्दों की किंतु व्यापक अर्थ और भावार्थ सहेजे हुए-
हवाई अड्डों को बेचा है
रेल को भी बेचेंगे
बी. एस. एन. एल. को बंद करेंगे
जीवन बीमा को बेचेंगे
खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई. लाकर वॉलमार्ट को दे देंगे,
सारे देश को बेच-बेचकर,
जय राष्ट्रवाद फिर बोलेंगे।

यूं तो संग्रह की सभी कविताएं वैचारिकता सुसंपन्न हैं और यह आशा करती हैं कि जो भी इन्हें पढ़ेगा वह कुछ पल ठिठक कर परिस्थितियों पर विचार अवश्य करेगा। ‘‘नहीं चाहिए ये अच्छे दिन‘‘ एक ऐसी ही कविता है, जो दो पल ठहर कर सोचने के लिए विवश करती है-
नहीं चाहिए ये अच्छे दिन
हमें लौटा दो बीते हुए दिन
गैस सिलेंडर छः सौ का था,
रेल का भाड़ा आधा था
इंटरनेट भी सस्ता था
देश पर कर्ज आधा था।
पहले बिजली जलती थी
अब तो बिजली जलाती है
जिस दिन बिल घर आता है
झटका तेज लगाती है......

इस संग्रह को मिलाकर 15 पुस्तकों के रचनाकार रघु ठाकुर का काव्य संसार सर्वाधिक समर्थ और अव्यक्त को व्यक्त करने वाला है। वस्तुतः रघु ठाकुर हमारे समय के उन जुझारू कवियों में से एक हैं, जिनकी कविताओं का सादा और सरल चेहरा मुखौटाहीन है। वे चटकदार रंगों में डूबे शब्दों के बजाय, आम आदमी के जीवन के धूसर शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं, इसीलिए उनकी कविताएं शब्द जाल फेंकने के बजाय सीधा संवाद करती हैं। रघु ठाकुर के इस काव्य संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए, पिकासो की विश्वविख्यात क्रांतिकारी पेंटिंग ‘‘गुएर्निका‘‘ पर कविता लिखने वाले फ्रांसीसी कवि पॉल एलुआर का यह कथन याद आता है कि ‘‘जब तक कविता जनचेतना को जगाने का काम करती रहेगी तब तक वह अपने मौलिक स्वरूप में रहेगी।‘‘ इस दृष्टि से इस संग्रह को पढ़ा जाना आईने के सामने खड़े होने के समान है।                               
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Tuesday, December 28, 2021

पुस्तक समीक्षा | बाल कविताओं का बालोपयोगी संग्रह | समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 28.12. 2021 को आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि वृंदावन राय 'सरल' के काव्य संग्रह "मैं भी कभी बच्चा था" की समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
बाल कविताओं का बालोपयोगी संग्रह
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - मैं भी कभी बच्चा था
कवि         - वृंदावन राय ‘सरल’
प्रकाशक      - मध्यप्रदेश लेखक संघ, इकाई सागर म.प्र.
मूल्य         - 60/-
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बाल साहित्य का अपना एक अलग महत्व है। बड़ों का साहित्य शिक्षाप्रद होने का स्पष्ट आग्रह नहीं रखता है किन्तु बाल साहित्य का मूल आधार ही शिक्षाप्रद होना है। ऐसा साहित्य जो रोचकता के साथ खेल-खेल में बच्चों को जीवन से जुड़ी शिक्षा दे डाले, वही सार्थक बालसाहित्य है। बाल साहित्य की भाषा ऐसी हो जो बच्चों को सुगमता से समझ में आ जाए। दृश्यात्मकता इतनी हो कि बच्चे कल्पनालोक में विचरण करने लगें। जैसे वह कविता है जिसे हम सभी ने अपने बचपन में सुनी है, पढ़ी है और अनेक बार सुनाई है-‘‘मछली जल की रानी है/जीवन उसका पानी है/हाथ लगाओ डर जाएगी/बाहर निकालो मर जाएगी।’’
यह छोटी-सी कविता मछली के अस्तित्व को बालमन में इस तरह बिठा देती है कि व्यक्ति जीवनपर्यंत उसे भूल नहीं पाता है। कुछ समय पहले कोल्डड्रिंक का एक जिंगल चला था जिसमें ‘‘ठंडा’’ शब्द आते ही पूरा जिंगल मस्तिष्क में ताज़ा हो उठता था। कहीं भी ‘‘ठंडा’’ शब्द चर्चा में आता तो आगे के शब्द स्वतः ज़बान पर आ जाते। यह जिंगल था- ‘‘ठंडा यानी कोेकाकोला’’। इस कामर्शियल जिंगल की तरह मछली शब्द बोलते ही ‘‘जल की रानी... जीवन जिसका पानी...’’ शब्द समूह मस्तिष्क में जाग उठते हैं। यही विशेषता होती है एक अच्छे, सटीक बाल साहित्य की। वह किसी कामर्शियल जिंगल की तरह उसे बालमन पर दस्तक देने और पैंठ जाने की क्षमता रखता हो। एक और कविता थी जो बचपन में कोर्स की किताब ‘‘बालभारती’’ में पढ़ी थी, जिसका शीर्षक था ‘‘नागपंचमी’’- 
इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी अजब ही शान है, अरे ये पहलवान है।
- इस कविता को पढ़ने के बाद पहलवानों की छाप दिमाग में ऐसी बैठी कि आज भी नागपंचमी आने पर अथवा पहलवानों की चर्चा होने पर इस कविता की प्रथम दो पंक्तियां स्वतः कौंध जाती हैं।
हिन्दी साहित्य में बाल कविताओं की दीर्घ परंपरा नहीं मिलती है। आधुनिककाल में अवश्य भरपूर बाल कविताएं लिखी गईं। नंदन, पराग, चंपक आदि बाल पत्रिकाओं के प्रकाशन ने भी इसे बढ़ावा दिया। साथ ही प्रत्येक पारिवारिक पत्रिका तथा समाचारपत्र में बच्चों के लिए पन्ना तथा कोना निर्धारित हो गया जिसने बाल साहित्य को बच्चों तक पहुंचाने की दिशा में सरल मार्ग बना दिया। बालमुकुन्द गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चैहान आदि सभी ने बड़ों के लिए साहित्य सृजन करने के साथ ही बच्चों के लिए भी कलम चलाई। ये बाल कविताएं बच्चों के भीतर कोमल भावनाओं का विकास करने में सक्षम थीं। इनका उद्देश्य देश के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक गौरव से परिचित कराने के साथ ही देश प्रेम की भावना जगाने तथा नैतिक शिक्षा देने का था। फिर भी ये कविताएं बोझिल नहीं थी वरन रोचक थीं। कवि प्रदीप का वह गीत जो फिल्म के लिए रिकाॅर्ड होने के बाद बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया-‘‘आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की/ इस मिट्टी से तिलक करो, ये मिट्टी है बलिदान की।’’ यह कविता बच्चों को संबोधित कर के लिखी गई लेकिन यह थी बच्चों के लिए ही। कहने का आशय यह है कि इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है कि कविता बच्चों के लिए लिखी गई अथवा बच्चों को आधार बना कर लिखी गई। ‘‘मैंया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ कवि सूरदास ने बच्चों के लिए नहीं लिखा किन्तु बच्चों में इसकी सदा भरपूर लोकप्रियता रही है। क्योंकि यह कविता बालमन का एक ऐसा दर्पण प्रस्तुत करता है, जिसमें हर बच्चा अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। पुस्तक समीक्षा के अंतर्गत इस लम्बी भूमिका का औचित्य यह है कि इस बार जो पुस्तक समीक्ष्य है वह बालकविताओं का संग्रह है। इस पुस्तक का नाम है-‘‘मैं भी कभी बच्चा था’’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि इस संग्रह की कविताएं अपने बालपन के अनुभवों एवं संस्मरण के बहाने बच्चों से सीधा काव्यात्मक संवाद करने का प्रयास है। यह संग्रह है कवि वृंदावन राय ‘‘सरल’’ का जिन्होंने आरंभ में ही अपने विचार रखते हुए बताया है कि उन्होंने कवि दीनदयाल बालार्क जी से प्रेरणा ले कर बाल कविताएं लिखना शुरू कीं। कवि दीनदयाल बालार्क सागर नगर के वरिष्ठ कवियों में रहे हैं तथा उनके बालगीत बहुत चर्चित रहे हैं। 
‘‘मैं भी कभी बच्चा था’’ काव्य संग्रह में दो परिचयात्मक भूमिकाएं हैं। प्रथम भूमिका प्रो. सुरेश आचार्य की है जिन्होंने वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की सृजनात्मकता पर टिप्पणी करने हुए लिखा है कि ‘‘यदि बालगीतकार के रूप में इनकी अद्भुत प्रतिष्ठा है और देशव्यापी ख्याति है तो इसका मूल कारण उनकी रचनात्मकता है जो बाल जिज्ञासा को समझने के साथ-साथ उसे नए रास्ते सुझाने, नीति युक्त जीवन हेतु तैयार करने और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रेरित करते हुए एक अच्छे मनुष्य के रूप में एक श्रेष्ठ जीवन बिताने की शिक्षा देती है।’’
  दूसरी भूमिका कवि स्व. निर्मल चंद निर्मल की हैं। वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की कविताओं की विशेषता को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है कि -‘‘ ‘‘आज का बालक प्रगतिशील हैं जो आठ पंक्तियों को कंठस्थ कर सकते हैं। मैं सरल जी के इन बाल गीतों की सराहना करता हूं। बाल रुचि को यह रचनाएं भाएंगी और विश्वास करता हूं कि इस ओर अन्य कवि भी अपने कदम बढ़ाएंगे। बाल बुद्धि के लिए बाल गीतों की आवश्यकता है।’’
वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की कविताओं में दृश्यात्मकता भी है, ज्ञान भी है और रोचकता भी है। उनकी यह कविता देखिए-
बारहसिंगा, तेंदुआ, 
है जंगल की जान।
दोनों की अद्भुत गति
जैसे हवा समान।
ख़तरनाक़ है भेड़िया
उस पर है चालाक।
खा जाए ख़रगोश को 
तोड़े उसकी नाक।

जहां कवि ‘‘सरल’’ अपनी कविता के माध्यम से वन्य पशुओं से परिचित कराते हैं, वहीं वृक्षों के महत्व को भी बालमन में स्थापित करने का सुंदर प्रयास करते हैं। यह बालगीत देखिए - 
वृक्ष हमारे देवता
नदियां देवी रूप
आओ इनको रोक लें
हम होने से कुरुप
वृक्षों को हम मान लें 
माता-पिता समान
इनके ही आशीष से 
मिलता जीवनदान।

वृक्ष पर्यावरण चक्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। उनसे हमें आॅक्सीजन मिलती है तथा छाया, फल, फूल, रुई, लकड़ी, औषधि आदि अनेक चीज मिलती हैं। ऐसे महत्वपूर्ण तत्व के प्रति बच्चों को जागरुक करने की दिशा में यह कविता विशेष महत्व रखती है। इसी तारतम्य में एक और छोटी-सी कविता है-
जंगल जीवन का आधार
करना होगा इससे प्यार
इसकी रक्षा बहुत ज़रूरी
खुशियां इससे मिलें अपार
जंगल जीवन का आधार।

वन और वन्य पशु-पक्षियों के प्रति जागरूकता जगाता एक छोटा-सा बालगीत है जिसमें वन्य पक्षियों तथा उनके साथ ग्रामीणजन का व्यवहार का वर्णन किया गया है। चूंकि आज मनुष्यों की रिहायशी बस्तियां फैल रही हैं और जंगल में मनुष्यों कर घुसपैंठ बढ़ गई है अतः वन्यजीवन और मनुष्यों के बीच मुटभेड़ होना तय है। इस प्रकार के टकराव में मनुष्य को ही धैर्य और मनुष्यता का परिचय देना होगा। यह बात इस गीत में स्पष्टरूप से देखा जा सकता है -
जंगल में देखे बहुत
तोता, मैंना  मोर
कानों को भाता बहुत
जिनका अद्भुत शोर
इनका भी अब गांव में
करते लोग शिकार
इनको मिलना चाहिए
जीने का अधिकार

कवि ‘‘सरल’’ ने भालू पर एक बहुत सुंदर कविता लिखी है जो इस संग्रह में मौज़ूद है। इस कविता में उन्होंने भालू की दिनचर्या और बंदर से उसकी दोस्ती का वर्णन किया है। इस कविता का महत्व यह है कि यदि बच्चे अपनी बालावस्था से ही वन्यप्राणियों स्नेह और अपनत्व रखेंगे तो बड़े होने पर वन्य पशुओं के संरक्षण पर पूरा ध्यान दे सकेंगे। कविता इस प्रकार है-
शहद ढूंढता वन में भालू
मगर नाम है उसका कालू
जंगल में बंदर भी लालू
दोनों अक्सर खाएं आलू
शहद ढूंढता वन में भालू
मगर नाम है उसका कालू

इस संग्रह में आपसी भाईचारे और कौमी एकता पर भी कविता है जिसमें बच्चों को सभी प्रकार के भेद-भाव से ऊपर उठ कर, मिलजुल कर रहने का संदेश दिया गया है-
प्रेम भाव से मिल कर रहना
लेकिन कोई जुल्म न सहना
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई
सबको अपना भाई कहना
सत्य और ईमान की दौलत
यही हमारा असली गहना
अपने घर को महल बनाने
निर्धन के घर कभी न ढहना
भारत के कल्याण की ख़ातिर
हिन्दू मुस्लिम मिल कर रहना

कवि वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की बाल कविताओं का यह संग्रह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि आज बच्चों के लिए साहित्य कम रचा जा रहा है। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह कथन आज एक कसौटी की तरह है कि -‘‘बच्चों के कोमल, निर्मल और साफ मस्तिष्क को वैसे ही सहज तथा स्वाभाविक बाल साहित्य की आवश्यकता होती है।’’ कवि टैगोर द्वारा दी गई इस कसौटी पर वृंदावन राय ‘‘सरल’’ बालकविताएं एवं गीत खरे उतरते हैं।
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Tuesday, December 21, 2021

पुस्तक समीक्षा | स्त्री स्वर को मुखर करता एक उम्दा काव्य संग्रह | समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 21.12. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई संपादक अनुभूति गुप्ता द्वारा संपादित काव्य संग्रह "स्त्री स्वर" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्री स्वर को मुखर करता एक उम्दा काव्य संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - स्त्री स्वर
संपादक      - अनुभूति गुप्ता
प्रकाशक     - उदीप्त प्रकाशन, लखीमपुर खीरी, (उ.प्र.)
मूल्य        - 100/-
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‘‘स्त्री स्वर’’ यह एक साझा काव्य संकलन है। इसका संपादन अनुभूति गुप्ता ने किया है। इस संकलन में पंद्रह कवि एवं कवयित्रियों की वे काव्य रचनाएं सम्मिलित की गई हैं जिनमें स्त्री स्वर मुखर हुआ है। इस सम्वेत संकलन में डॉ भारती वर्मा बौड़ाई, अजय कुमार मिश्र ‘‘अजयश्री’’ वीणा मावर, डॉ सुरेंद्र निशब्द, आनंद वर्धन शर्मा, डॉ शम्मी श्रीवास्तव, रामेश्वर प्रसाद गुप्त, शिवमंगल सिंह, त्रिवेणी मिश्रा, वीरेंद्र प्रधान, प्रभु दयाल खट्टर, गिरीश चावला, संजय सनातन, जितेंद्र कुमार वैष्णव और विनोद कुमार की कविताएं संग्रहित की गई है। इन सभी कविताओं में स्त्री जीवन के संघर्ष दशाओं और क्षमताओं की चर्चा की गई है।
वर्तमान समाज में भी स्त्री पूर्णतया सुरक्षित नहीं है, न तो घर में और न ही बाहर। वह अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए निरंतर संघर्ष करती रहती है। इसके बावजूद उसे प्रताड़ना भी सहना पड़ता है लेकिन उसके भीतर की शक्ति उसे सशक्त बनाए रखती है और वह बिना डरे बिना थके जूती रहती है। कवयित्री डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ने अपनी कविता ‘‘मैं नव विहान हूं’’ में स्त्री के सशक्त पक्ष को सामने रखा है। पंक्तियां देखिए-
मेरी ओर /बढ़ते हुए ये
असंख्य राक्षसी हाथ
पर नहीं कोई /हाथ ऐसा
जो रक्षा के लिए /उठता दिखे
पर नहीं /किंचित भी
भयभीत मैं /मेरे दोनों हाथ
समर्थ है पूर्णतया /मेरे लिए,
अब कितने भी /उठें वहशी हाथ मेरी ओर
तोड़ डालूंगी उन्हें स्वयं
करूंगी अब न्याय स्वयं
क्योंकि मैं समर्थ और शक्तिवान हूं
मैं नव विहान हूं।

कवि अजय श्री ने अपनी कविता में साहित्य के उस पक्ष को सामने रखा है जिसमें एक विज्ञापन के समान स्त्री का वर्णन करके वाहवाही लूटने का प्रयास किया जाता है। कतिपय साहित्यकारों का प्रिय विषय गांव का वर्णन और स्त्री की देह मात्र इसलिए होता हैकि उसके द्वारा उन्हें पाठकवर्ग अथवा श्रोताओं की प्रशंसा मिल जाती है। ऐसे कवियों पर कटाक्ष करते हुए अजयश्री ने अपनी कविता ‘‘लेखन का प्रिय विषय’’ के अंतर्गत लिखा है-
गांव की माटी/और औरत की देह !
खूब दोहन करते हैं
जिनका नहीं है सरोकार ।
शहर के किचन में
पकती है गांव की रसोई
गर्भाधान से लेकर श्मशान तक
अनुसंधान करते हैं/परत दर परत।
शहर की रौनक/जब उतरती है
खेतों में बुवाई के लिए
जोड़ती है कछोटामार/खेतीहरनों से,
एक एक शब्द उगता है/किसी आलीशान बंगले में
करीने से सजाएं स्टडी टेबल पर
रखे लैपटॉप पर।

भारतीय संस्कृति यूं तो दुनिया में सदा गौरव का विषय रही है किंतु कुछ ऐसे हादसे हुए हैं जिन्होंने संस्कृति और समाज दोनों को लज्जित किया है। ऐसी ही एक घटना रही है निर्भया कांड। जब भी उस नृशंस घटना की स्मृति जागती है तो समाज में बेटियां असुरक्षित दिखाई देने लगती हैं और समाज को उसकी भीरुता के लिए ललकारने का मन करने लगता है। इसी भावभूमि पर है कवयित्री वीणा मावर की कविता ‘‘निर्भया’’। अंश देखिए-
कहां गए वो समाज सुधारक
गए कहां राममोहन और विद्यासागर जुल्मों के खिलाफ
भुजा जिनकी थी फड़की
करी खिलाफत फिर पूरे समाज की
हुई सुरक्षित जिससे फिर हर अबला
तुमसे तो अच्छा बैटिंग ही निकला
था फिरंगी पर अपना निकला
सती प्रथा को खत्म जो कर गया
था हुमायूं भी एक विदेशी
लगी देर पर पहुंचा वह भी
रखी लाज उसने भी राखी की
राह तक रहे तुम किस पल की?

नारी शक्ति की ही बात करती कविता है डॉ शम्मी श्रीवास्तव की, जिसका शीर्षक ही है ‘‘नारी शक्ति’’। अपनी इस कविता में कवयित्री ने स्त्री की उस क्षमता का स्मरण कराया है जब वह अन्याय के विरुद्ध हथियार उठा लेती है और प्रताड़ना का प्रतिरोध करती है। कवयित्री ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के योगदान का भी स्मरण कराया है -
जब-जब अधर्म पड़ा है अन्याय ने मचाई तबाही है
नारी शक्ति ने आगे बढ सदैव धूम मचाई है
उठो ! आज फिर जगाओ अपनी शक्ति का एहसास
भूल गई? तुमने ही बदला भारत का इतिहास
अगर न तुमने चिंगारी भड़काई होतीं
देश ने कैसे इस साल 73 वीं वर्षगांठ मनाई होती
मत भूलो नारी ने किया है बार-बार चमत्कार
शक्ति शौर्य की है यह देवी जाने कुल संसार।

कवि शिवमंगल सिंह ने अपनी कविता ‘‘पेड़ जैसी होती है स्त्रियां’’ में स्त्री जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता में निबद्ध किया है। जिस प्रकार एक पेड़ सभी तरह के झंझावात  सहन करके भी अपने फल, फूल, पत्तों की रक्षा करता है, उसी प्रकार एक स्त्री सारे दुख कष्ट सहती हुई अपने परिवार के प्रति समर्पित रहती है। स्त्री जीवन की पेड़ से तुलना करती हुए यह कविता उल्लेखनीय है-
पेड़ जो /तेज आंधियों में भी
झुक झुक कर /चुपचाप
उसके थपेड़ों को सह लेता है
ग्रीष्म के तपन में भी
धरती पर शीतल छांव देता है
बरसात में भीग कर/मुस्कुराहट बिखेर देता है
शरद ऋतु में रात रात भर ठिठुर कर
शांत रहता है /मौसम के तमाम
झंझावात को चुपचाप सहन कर लेता
स्त्रियों भी /पेड़ की तरह
अपने जीवन की तमाम वेदना को /सह लेती हैं
विपरीत परिस्थितियों में भी /मुस्कुराती हैं
खिलखिलाती हैं /धरती पर स्वर्ग बिखेर देती हैं ।

कवि वीरेंद्र प्रधान मैं समाज में नारी के महत्व को स्थापित करते हुए उसकी उपस्थिति की महत्ता को रेखांकित किया है। उनकी कविता ‘‘नारी’’ स्त्री शक्ति का आह्वान करने में सक्षम है। कविता देखिए-
पुत्री भगिनी जननी तो पत्नी किसी की
तू नारी तू ही तो है संचालक परिवार की
तेरे बिना घर सूना, जग सूना, सब सूना
फिर भी तुझे समस्या है अपने अधिकार की
इनके भी दिल है, दिमाग है, दो हाथ हैं
नहीं किसी मायने में नर से कम नारियां
नारी की कीमत को कमतर आंकता है नर
उस पे थोपता अपने ऐब और मक्कारियां
अपना अधिकार तुझे लेकर ही रहना है
‘‘मेरी आवाज सुनो’’ नर से यह कहना है
पथ से विचलित न हो जाये कभी तेरा नर
उसको मर्यादित कर सीता स्वयं बनना है

यूं तो इस संग्रह की प्रत्येक कविता में स्त्री स्वर मुखरित हुआ है किंतु एक और कविता है इस संग्रह में जिसका उल्लेख किया जाना जरूरी है। कविता का शीर्षक है ‘‘बस स्टॉप पर खड़ी अकेली लड़की’’। यह कविता कवि संजय सनातन की है जिसमें उन्होंने दैनिक जीवन में एक लड़की के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने वाली कुचेष्टाओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है। कविता देखिए -
वह तन्हा लड़की और सिमटती जाती है
उसे पीठ पीछे भी /निगाहों की कटारें चुभने लगती हैं
तभी अचानक उसकी बस आ जाती है
और वह अपने गंतव्य की ओर चली जाती है
लेकिन हवा में टंगी रह जाती है
अश्लील हंसी की ध्वनियां /और वो असभ्य इशारे
बस स्टॉप पर /आने वाली किसी दूसरी लड़की के लिए।

अनुभूति गुप्ता ने स्त्री के पक्ष में लिखी गई कविताओं को एक संग्रह के रूप में प्रकाशित कर प्रशंसनीय कार्य किया है। यह पुस्तक पठनीय है तथा एक सार्थक स्त्री विमर्श रचती है।
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