Tuesday, May 16, 2023

पुस्तक समीक्षा | जीवन के सन्नाटे को स्वर देता काव्य संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 16.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई नर्मदांचल के वरिष्ठ कवि विनोद निगम के काव्य संग्रह "जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
जीवन के सन्नाटे को स्वर देता काव्य संग्रह
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - जो कुछ हूं,बस गीत गीत हूं
कवि        - विनोद निगम 
प्रकाशक    - पहले पहल प्रकाशन, भोपाल 25-ए, प्रेस कॉम्पलेक्स, एमपी नगर,भोपाल  
मूल्य       - 400/-
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     काव्य को अनुभव करना, उसे जीना और उसे अपनी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बनाना, एक समर्थ कवि के रचनाकर्म को निर्धारित करता है। पं. भवानी प्रसाद मिश्र के नर्मदांचल के वरिष्ठ कवि विनोद निगम ने काव्य को अपने ही ढंग से जिया है। वे काव्य को उस कैनवास की भांति अपनाते दिखाई देते हैं जिसमें वे अपनी इच्छानुरूप रंग भरते हैं और भावनाओं को शाब्दिक आकार देते हैं। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि विनोद निगम फ़क़त कल्पनाओं में जीते हैं, वे जीवन के खुरदरे यथार्थ और जनहित नामक भोथरे प्रयासों को अपने गीतों में पिरोते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विनोद निगम एक ऐसे कवि हैं जो गीत की संरचना में भी अपने मानक रचते हैं। वे नवगीतयुग के स्वर्णिमकाल में सक्रियता से नवगीत रचते रहे तथा नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि शंभुनाथ सिंह ने उन्हें अपने द्वारा संपादित ‘‘नवगीत दशक’’ के तीन खंडों में से तृतीय खंड में स्थान दिया था। 

‘‘जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं’’ विनोद निगम का एक वृहद काव्य संग्रह है जिसमें उन्होंने अपने काव्य को पांच अध्यायों में विभक्त किया है- जारी हैं लेकिन यात्राएं, मौसम के गीत, समवेत गायन के लिए गीत, उम्र के चढ़ाव पर और शुरू यहीं से हुआ था। इन पांचों अध्यायों पर गीतकार माहेश्वर तिवारी की यह टिप्पणी बड़े मायने रखती है कि -‘‘विनोद निगम, समकालीन गीत को समझने के लिए, पढ़े जाने वाले एक जरूरी कवि हैं उनके गीतों को पढ़ते हुए अपना अनुभव यदि कहूं तो उनके पास गीतों की आमद होती है, उतरते हैं, लिखे नहीं जाते। भाषा का वह तेवर और कहन का ऐसा सलीका कितनों के पास है, विनोद निगम के प्रतिनिधि गीतों से गुजरना, आत्मीय जीवन प्रसंगों से जुड़ा एक सुखद अनुभव तो होगा ही, विगत पांच दशकों का देश और समाज भी हमारे सामने होगा।’’ 
हिन्दी के प्रतिष्ठिक समालोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने विनोद निगम के काव्य पर सटीक विचरा व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘‘उनकी कल्पनाएं बेहद जमीनी हैं इसीलिए वे ऊंचे ख्यालों के पुलाव नहीं बनातीं किन्तु इतनी सगी और आत्मीय हैं कि हमारी अपनी ही सोच के बेहद करीब लगती हैं। यही कारण है कि कविता का हिस्सा होकर भी वे जीवन की सच्चाईयों का प्रतिरूप जान पड़ती हैं। विनोद के कवि की यह सादगी ही उनकी कविता की सुन्दरता भी है। उनकी अनुभूतियां अपनी सादगी में बेमिसाल हैं और अभिव्यक्तियां भी अकृत्रिम और आमफहम। यही तो विनोद निगम हैं।’’ 

देखा जाए तो माहेश्वर तिवारी और डाॅ. विजय बहादुर सिंह की इन दो टिप्पणियों के बाद विनोद निगम के गीतों से जुड़ने के लिए किसी और मानसिक तैयारी (माइंड मेकअप) की आवश्यकता नहीं रह जाती है। फिर भी यह जानने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है कि स्वयं रचनाकार अपने सृजन को ले कर क्या विचार रखता है? वह अपने सृजन के प्रति आश्वस्त है या नहीं? और है तो कितना? लेकिन इससे भी पहले कवि का आत्मकथन परिचित कराता है उसके उस परिवेश से जहां उसने इस दुनिया में आंखें खोलीं और फिर धीरे-धीरे किस तरह दुनिया और फिर साहित्यिक दुनिया से सरोकारित हुआ। विनोद निगम लिखते हैं-‘‘बाराबंकी (उ.प्र.) के सरावगी मोहल्ले में बचपन बीता, पास ही 8-10 कि.मी. दूर एक छोटा सा गांव मुजीमपुर है, जहां कुछ थोड़ी-सी जमीन और एक पुश्तैनी घर भी था। बाराबंकी में घंटाघर से लगी राजाराम हलवाई वाली गली के एक मकान में जन्म हुआ था, गोविन्ददास जैन के इस मकान में मेरे पिताजी, नौ रुपये में किराये से रहते थे।’’ फिर वे अपने आगे के जीवन के बारे में लिखते हैं कि ‘‘जब मेरा जन्म हुआ था तब घरों में, अम्मा-बाबू, चाचा-चाची, बाबा-दादी ये सब रहा करते थे, आज तो मॉम-डेड ही रह गए हैं, अंकल-आंटी और ग्रेन्ड पॉ तो अलग ही रहते हैं। मेरे घर में कविता लिखने-पढ़ने का कोई रिवाज या परम्परा नहीं थी, सब लोग प्रायः नार्मल थे, कोई कवि या साहित्यकार नहीं था, साहित्य विरासत में मुझे नहीं मिला था। मुझे पढ़ना-लिखना अच्छा लगता था सो स्कूल के दिनों से ही नगर के सबसे पुराने हिन्दी पुस्तकालय में नियमित रूप से जाया करता था। जहां ‘धर्मयुग’, ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘सारिका’, ‘कादम्बिनी’, ‘दिनमान’ और ‘ज्ञानोदय’ जैसी पत्रिकाएं और कर्नल विनोद तथा कैप्टन हमीद की ‘जासूसी दुनिया’ भी पढ़ने को मिलती थी, मेरे मोहल्ले में वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री कल्पनाथ सिंह भी रहते थे, उस समय उनके गीत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपते थे, इन्हीं सब से कविता लिखने की प्रेरणा मिली। गीत लिखना मुझे बहुत अच्छा लगता था, गीतों को गुनगुनाते-गुनगुनाते ही पूरा करता था, शुरू के गीत तो कोमल और भावप्रवण थे किंतु धीरे-धीरे जैसे जैसे जीवन, समाज और परिवेश से साक्षात्कार होता गया गीतों में विविधता आई।’’

जी हां, विनोद निगम का लेखन उस दौर में मंजा जब प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के नामचीन संपादक ‘‘सखेद रचना वापसी’’ के लिए रचना के साथ पता लिखा, पर्याप्त टिकट लगा लिफाफा मंगाते थे। पसंद न आने पर वे रचना वापस करके अपने दायित्व से स्वयं को मुक्त नहीं मानते थे अपितु सलाह का रुक्का भी वापसी के लिफाफे में सरका दिया करते थे। यह परम्परा ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव तक चली। बहरहाल, विनोद निगम के लिए गीत का आकाश ऐसे कई गीतकारों, नवगीतकारों के साथ साझा था जो सभी एक से बढ़ कर एक थे। इन चुनौतियों के बीच उन्होंने काव्य की महत्ता को बखूबी समझा। गीत के साथ वे स्वयं को कितना ‘कम्फर्टेबल’ अनुभव करते हैं, इस बात को सामने रखने के लिए उन्होंने यह कविता ही रच डाली कि ‘‘गीत, मेरे लिए यात्रा होते हैं’’। कविता का एक अंश देखिए-
जो कुछ भी मेरे आसपास होता रहता है
मित्र होते हैं या घटनाएं 
या फिर भूख को केन्द्र में रखते हुए 
अनेक जारी संघर्ष, 
और इनके ऊपर पर्तों की तरह, 
इन सबकी अपनी अपनी अनुभूतियां हैं,
जिन्होंने शब्दों को तलाशा है, 
और उन्हें लेकर निकल आई हैं। 
गीतों की इस यात्रा में...।

इसके साथ ही विनोद निगम एक ग़ज़ल लिखते हुए गीत की दुनिया में अपने रमे रहने का कारण भी बड़ी सादगी से बता देते हैं-
सब गम के आसपास हैं, हम क्या गजल कहें।
फिर आप भी  उदास हैं, हम क्या गजल कहें।
कहते हैं सियासत में, जिन्हें मुल्क की दौलत 
बेघर वो  बे-लिबास हैं, हम क्या गजल कहें।

अर्थात् विनोद निगम के भीतर का कवि अपनी मनोदशानुरूप काव्य-शैली चुनने का हिमायती है। यह उचित भी है क्योंकि जहां सहजता है, वहीं अभिव्यक्ति की स्पष्टता और सघन आग्रह बन पाता है। इस संग्रह में एक नवगीत है ‘‘टंगे हुए सम्बोधन’’। इसका एक बंद देखिए जो भावों की कोमलता, परिस्थितियों की अवशता और एक सन्नाटे को मुखर करने की पूरी ताकत रखता है-
अब तक एहसास के निकट है,
कन्धों पर झुका हुआ, भारीपन।
एक गन्ध का,
खुली हुई खिड़की के आसपास बहना, 
और किसी आहट का, 
गिरे हुए पर्दों के पास खड़े रहना, 
और तपे अधरों का, 
पंखुरियां छूना भर, 
मौन की लकीरों में कहना.
अब तक विश्वास के निकट हैं,
पलकों पर टंगे हुए, सम्बोधन।

  इस संग्रह के सभी गीत एक  बढ़ कर एक हैं और नवगीत की एक विशेष परंपरा से जोड़ने के साथ ही कहन की स्वतंत्रता को भी स्थापित करते हैं। अंत में, मैं उनकी उस कविता की कुछ पंक्तियां यहां रखना जरूरी समझती हूं जो एक मध्यम तथा निम्नमध्यम वर्गीय पिता की पीढ़ियों के संघर्ष को बखूबी रेखांकित करती है और आर्थिक विषमता की विरूपता के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है-  
जीवन जिया बड़े दमखम से, 
या फिर चुनी चिता 
लड़े निरन्तर, संघर्षों से हारे नहीं, पिता ।
अस्सी रुपये का वेतन था 
और चार सन्तानें 
कैसे पाला-पोसा हमको, 
ईश्वर या वे जानें 
कटि तक धोती और उसी से 
पेट-पीठ ढंक लेना 
बच्चों को भी दूध-जलेबी, 
खुद को चना-चबेना 
गहन अभावों में भी, 
ऊंचा हाथ, उठा ही माथा 
अर्थ, त्याग, तप, स्वाभिमान का, 
सबको दिया बता। 

बाराबंकी में सन् 1944 में जन्में और नर्मदांचल के होशंगाबाद में रह कर सर्जना करने वाले विनोद निगम का यह काव्य संग्रह ‘‘जो कुछ हूं, बस गीत गीत हूं’’ काव्यप्रेमियों के लिए एक बेहतरीन पुस्तक है। इसमें उन्हें काव्य के रूप में जीवन का सांगोपांग चित्रण मिलेगा, ठीक एक कलात्मक म्यूरल पेंटिंग की तरह।       
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