Wednesday, May 24, 2023

चर्चा प्लस | नोट, नोटा, नौटंकी के अब आगे क्या ? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
नोट, नोटा, नौटंकी के अब आगे क्या ?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         नोट, नोटा, नौटंकी... ये तीनों हमारे प्रजातंत्र को अपनी नोंक पर उठाए हुए हैं। नोट यानी नोटबंदी। नोटा यानी अनिर्णय की स्थिति पर परिणाम का बोझा और रहा नौटंकी का सवाल तो उसे मीडिया के शब्दों में राजनीतिक ड्रामा कहा जाता है। यह राजनीतिक ड्रामा या राजनीतिक नौटंकी अब हमें हर चुनाव के पहले और बाद में देखने को मिलने लगी है। 21 वीं सदी में प्रजातंत्र को मिले ये तीनों उपहार आमजन अथवा आम मतदाता के लिए मनोरंजन पैदा करते हैं अथवा मन को रंज से भर देते हैं, यह अपने-अपने दृष्टिकोण का मामला है। फ़िलहाल तीनों की झलकियां हमें ताज़ा-ताज़ा देखने को मिल चुकी हैं। चलिए, फिर से इन पर नज़र डालें।    
   एक ताज़ा नोटबंदी। कोई हंगामा नहीं। कोई सनसनी नहीं। कोई घबराहट नहीं। इस बार आमजनता में इस नोटबंदी को ले कर हंसी-मज़ाक का दौर चला। कारण कि अब लोगों को पता है कि नोटबंदी क्या है? और उन्हें रुपये बदलने, लौटाने, जमा करने के लिए भरपूर समय दिया गया है। जी हां, ताज़ा नोटबंदी में रुपये 2000 के नोट बंद किए जाने की घोषणा की गई है। साथ ही, सितम्बर 2023 तक उन्हें बैंकों में लौटाने का अवसर दिया गया है। इसीलिए किसी को भी उस तरह की घबराहट का सामना नहीं करना पड़ा जिस तरह पिछली नोटबंदी में झेलना पड़ा था। शायद आरबीआई ने सबक लिया अपने पिछले अनुभवों से। सन् 2016 में हुई नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नए नोट जारी किए थे। तब 500 और 1000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर किया गया था। रिजर्व बैंक ने अब 2000 रुपये के नोटों को वापस मंगाया है। लोगों से कहा गया है कि जिनके पास भी 2000 रुपये के नोट हैं, वे उसे 23 मई से लेकर 30 सितंबर के बीच बदलवा सकते हैं। सन 2023 की 2000 के नोटों की इस नोटबंदी और 2016 की नोटबंदी में पर्याप्त अंतर है। जैसे- 2016 में 500 और 1000 के नोट 86 प्रतिशत चलन में थे। जबकि 2000 के नोट प्रत्यक्ष चलन में न्यूनतम हैं। 2016 में सरकार ने रातों-रात 500 और 1000 के नोट चलन से बाहर करने का फैसला किया था। लेकिन इस बार 2000 के नोटों को तुरंत चलन से बाहर नहीं किया गया है। 2016 में 500 रुपये, 1000 रुपये के नोट रातों-रात अमान्य हो गए थे। इस बार नोट बदलने के लिए पर्याप्त समय दिया गया है। दरअसल, नोटबंदी एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें देश की वर्तमान मुद्रा में से कुछ का कानूनी दर्जा निकाल दिया जाता है और यह सिक्कों पर भी लागू होता है। पुराने नोटों और सिक्कों को बदलकर उनकी जगह नए नोटों और सिक्कों को लागू कर दिया जाता है। जब नोटबंदी के बाद पुराने नोटों की कोई कीमत नहीं रहती है।
देश में पहली नोटबंदी ब्रिटिश साम्राज्य के समय सन् 1946 में हुई थी। भारत के तत्कालीन वायसराय और गर्वनर जनरल सर आर्चीबाल्ड वेवेल ने 12 जनवरी 1946 में हाई करेंसी वाले बैंक नोटबंदी (डिमोनेटाइज) करने को लेकर अध्यादेश प्रस्तावित किया था। इसके 13 दिन बाद यानी 26 जनवरी रात 12 बजे के बाद से ब्रिटिश काल में जारी 500 रुपये, 1000 रुपये और 10000 रुपये के हाई करेंसी के नोट प्रचलन से बाहर हो गए थे। आजादी से पहले 100 रुपये से ऊपर के नोटों पर प्रतिबंध लगाया गया था। सरकार ने उस समय भी यह फैसला लोगों के पास जमा कालाधन वापस लाने के लिए किया था।
दूसरी नोटबंदी सन् 1978 में जनता पार्टी के शासनकाल में की गई थी। सन् 1978 में मोरारजी देसाई सरकार ने बड़े नोटों को डिमोनेटाइज किया था। तब 16 जनवरी 1978 को 1000 रुपये, 5000 रुपये और 10 हजार रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा की थी। सरकार ने इस नोटबंदी की घोषणा के अगले दिन यानी 17 जनवरी को लेनदेन के लिए सभी बैंकों और उनकी ब्रांचों के अलावा सरकारों के खजाने को बंद रखने का फैसला किया था। उस समय भी नोटबंदी का उद्देश्य कालेधन को बाहर लाना बताया गया था। तत्कालीन समाचारों के अनुसार उस समय भी इससे आमजन को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा था।
 सन 2023 की इस बार की नोटबंदी में स्थिति पहले से ही लगभग नोटबंदी जैसी हो चली थी। रुपये 2000 के नोट धीरे-धीरे बाज़ार से गायब हो रहे थे। लंबे समय से ये एटीएम से भी नहीं निकल रहे थे। रिजर्व बैंक धीरे-धीरे 2000 रुपये के नोटों को वापस ले रहा था। इसलिए यह शंका जागने लगी थी कि 200 के नोट चलन से बाहर होने वाले हैं। यहां तक की ये सवाल संसद में भी उठा था। तब इस बात की जानकारी दी गई थी कि रिजर्व बैंक ने साल 2018-19 के बाद से 2000 रुपये के नए नोटों की छपाई नहीं की है। अतः 2016 में चोट खाई आमजनता अब की बार सतर्क थी।
वैसे यह पहली बार नहीं है जब आरबीआई ने नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला किया है। साल 2013-14 में आरबीआई ने कहा था कि वह मार्च, 2014 के बाद 2005 से पहले जारी किए गए सभी बैंकनोटों को पूरी तरह से वापस लेगा। बैंक ने एक जुलाई 2014 तक का समय दिया था। ‘‘क्लीन नोट पॉलिसी’’ तहत बैंक समय-समय पर ऐसे कदम उठाता रहा है। यदि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह उचित है तो रिर्जवबैंक को इस प्रकार के कदम उठाने चाहिए लेकिन इसी तरह पहले से माहौल तैयार कर के, पर्याप्त समय देते हुए। सन् 2016 की भांति नहीं कि नोट बदलने के लिए प्राथमिक रूप से चंद घंटे दिए गए और वह भी रात के समय। बाद में बढ़ाए गए समय में इतनी अधिक भीड़ और घबराहट रही कि नोट बदलने की लाईन में खड़े-खड़े कई लोगों अपने प्राण गंवा दिए। इसीलिए उसे एक अदूरदर्शी निर्णय कहा गया था।
जहां तक प्रजातंत्र का सवाल है तो इसमें जनता और अर्थतंत्र के बीच पारदर्शिता होनी चाहिए। आमजन इस बात को ले कर आश्वस्त रह सके के उसकी खून-पसीने की कमाई के रुपयों को अचानक रद्दी काग़ज़ के टुकड़ों में नहीं बदला जाएगा।
प्रजातंत्र में 21 वीं सदी में चुनाव प्रणाली में एक नया तरीका चुनाव आयोग द्वारा मतदाताओं को सौंपा गया है, वह है- नोटा। इस ‘नोटा’ शब्द का अर्थ है, उपरोक्त में से कोई नहीं (नन ऑफ द एबोव)। मतलब अब चुनाव में आपके पास एक विकल्प होता है कि आप ‘‘इनमें से कोई नहीं’’ का बटन दबा सकते हैं। इसे दबाने का मतलब यह है कि आप यह बता सकते हैं कि आपको चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप फिर से चुनाव की मांग कर सकें। अगर आपको कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आ रहा है तो यह आपका सिरदर्द है। क्योकि अंततः जो भी विजयी उम्मीदवार रहेगा उसी को आपको  स्वीकार करना पड़ेगा। ‘‘द इलेक्शन हब डॉट कॉम’’ में नोटा के बारे में स्पष्ट शब्दों में जानकारी दी गई है- ‘‘भारत में नोटा, जीतने वाले उम्मीदवार को बर्खास्त करने की गारंटी नहीं देता है। इसलिए, यह केवल एक नकारात्मक प्रतिक्रिया देने की विधि है। नोटा का कोई चुनावी मूल्य नहीं होता है, भले ही नोटा के लिए अधिकतम वोट हों, लेकिन अधिकतम वोट शेयर वाला उम्मीदवार अब भी विजेता होगा।’’
सन 2014 में नोटा को लागू करते समय इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया ने भी साफ शब्दों में कहा था कि-‘‘भले ही, किसी भी चरम मामले में, नोटा के खिलाफ वोटों की संख्या उम्मीदवारों द्वारा सुरक्षित वोटों की संख्या से अधिक हो, जो उम्मीदवार चुनाव लड़ने वालों में सबसे बड़ी संख्या में वोट हासिल करते हैं, उन्हें ही निर्वाचित होना घोषित किया जाएगा।’’
यद्यपि नोटा को लेकर कुछ विवाद भी हुए जब प्रथम और द्वितीय स्थान के उम्मीदवारों के मुकाबले नोटा की संख्या अधिक रही अथवा प्रथम और द्वितीय स्थान पर आने वाले उम्मीदवारों के बीच का अंतर नोटा के कारण स्पष्ट करना कठिन हो गया। सन 2014 के लोकसभा चुनावों में, 2 जी घोटाले के आरोपी सांसद ए. राजा (डीएमके उम्मीदवार) एआईडीएमके उम्मीदवार से हार गए, जबकि नोटा तीसरे सबसे बड़े वोट संख्या के साथ उभरा।  सन 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों में, नोटा का कुल वोट शेयर केवल भाजपा, कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवारों से कम था। 118 निर्वाचन क्षेत्रों में, नोटा ने भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरा सबसे बड़ा वोट पाया। वहीं, 2018 में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में, (जीतने वाले) भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर के बीच का अंतर केवल 0.1 था, जबकि नोटा ने 1.4 के वोट संख्या पर मतदान किया। नोटा के कारण जीतने और हारने दोनों पक्ष के उम्मीदवारों को मलाल रहता है। जीतने वाला सोचता है कि यदि नोटा के सारे वोट उसे मिल जाते तो वह बड़ी संख्या से जीत जाता। वही हारने वाले उम्मीदवार को यह दुख रहता है कि यदि नोटा के वोट उसकी झोली में गिरते तो उसे या तो हार का मुंह नहीं देखना पड़ता या फिर कम अंतर से उसकी पराजय होती।
दरअसल, हमारी प्रजातांत्रिक चुनाव प्रणाली में नोटा हमारी 21वीं सदी की एक ऐसी उपलब्धि है जो हमें इनकार करने का अधिकार तो देती है लेकिन साथ में परिणाम भी स्वीकार करने को विवश करती है। यानी ‘‘न-न’’ करके प्यार करवा ही देती है।
अब बात आती है नौटंकी की। जी हां, राजनीति में बढ़ती नौटंकी। आप कह सकते हैं कि ‘नौटंकी’ शब्द कुछ अधिक कठोर है। लेकिन इसी 21 वीं सदी में इतनी राजनीतिक नौटंकियां आंखों के सामने से गुज़र चुकी हैं कि यह शब्द कम से कम मुझे कठोर नहीं लगता है। जब राजनीतिक दल के सदस्य राजनीति और दल को एक किनारे सरका कर स्वार्थ का झंडा उठा कर नारे लगाने लगें तो इसे नौटंकी नहीं तो और क्या कहा जाए? क्योंकि उनकी मांगे मान लिए जाते ही झंडा लपेट कर रख दिया जाता है और मंच पर सभी मुस्कुरा कर गले मिलते हुए दिखाई देते हैं। हाल ही में कर्नाटक में इसी तरह का दृश्य देखने को मिला जब 100 घंटे से अधिक समय तक कुर्सी के लिए नौटंकी चलती रही और फिर सब कुछ शांत हो गया। उतने घंटे मतदाता मुंहबाए देखते रहे कि उन्हें कुर्सी पर किसका चेहरा देखने को मिलने वाला है? यह कोई पहली बार नहीं हुआ है।
मध्यप्रदेश में तो इससे भी लंबी नौटंकी (ड्रामा) मतदाताओं ने देखी है। कांग्रेस की 15 साल बाद सत्ता-वापसी हुई और 15 महीने में हो गया था सत्ता से बाहरनिकाला। कुल 17 दिन चला था मध्यप्रदेश का सियासी ड्रामा। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही सिंधिया और कमलनाथ के बीच कई मुद्दों पर शायद सहमति नहीं बन रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरने की बात कही। फिर 5 मार्च 2020 को मध्य प्रदेश के निर्दलीय, बसपा, सपा और कांग्रेस के करीब 11 विधायकों के गायब होने की खबर आई। बताया गया ये विधायक मानेसर और बेंगलुरू की होटल में रुके हुए हैं। इसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 11 मार्च को बीजेपी ज्वाइन कर ली। इस ड्रामे का अंत हुआ कमलनाथ के इस्तीफे से। फिर 23 मार्च 2020 को शिवराज सिंह चौहान चैथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। भारतीय प्रजातंत्र में यह सब कोई पहली बार नहीं हुआ। लेकिन यह कहा जा सकता है कि इधर इस प्रवृत्ति उन राज्यों में भी बढ़ गई है जहां पहले ऐसा माहौल नहीं था।
भारतीय प्रजातंत्र फिलहाल नोट, नोटा और नौटंकी में के रंगों को देख रहा है, अब आगे क्या देखने को मिलेगा, यह कहना अभी कठिन है। यूं भी राजनीति का हर खिलाड़ी एक ऊंट के समान होता है जो कब किस करवट बैठेगा, यह नहीं कहा जा सकता है। बकौल इस नाचीज़ (यानी बकौल मेरे) -
सियासत, हुकूमत का  किस्सा अज़ब है
जो इसका हुआ, वो किसी का न होगा।
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