🚩 सुखद ! अत्यंत सुखद !!! 🚩
मित्रो, जिस "आचरण" समाचार पत्र में मैं हर सप्ताह किसी न किसी रचनाकार की एक पुस्तक की समीक्षा करती हूं उसी "आचरण" में आज अपने उपन्यास "शिखंडी" की समीक्षा देखकर जो सुखद अनुभूति मुझे हुई है, उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन है... क्योंकि यह समीक्षा श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने की है जो हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर समान अधिकार रखते हैं तथा पौराणिक ग्रंथों का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान है। उनके द्वारा "शिखंडी" का विवेचन किया जाना मेरे लिए किसी सम्मान या पुरस्कार से कम नहीं है🤗
... तो हार्दिक आभार सहित यहां साझा कर रही हूं श्री त्रिपाठी जी द्वारा किया गया मेरे उपन्यास का विस्तृत विवेचन (समीक्षा) 🌹🙏🌹....
पुस्तक समीक्षा
स्त्री पीडा का मार्मिक दस्तावेजः उपन्यास शिखण्डी
- टीकाराम त्रिपाठी, विवेचक
डॉ. सुश्री शरद सिंह द्वारा विरचित शिखण्डी उपन्यास ऐतिहासिक पात्र शिखण्डी पर केन्द्रित है इस उपन्यास में काशीनरेश, राजा प्रतीप के पुत्र शान्तनु और गंगा से जन्में उनके आठवें पुत्र देवव्रत भीष्म, योगिराज, राजपुरोहित, शाल्वराज, चित्रांगद, गंधर्वराज चित्रांगद, विचित्रवीर्य, धूम्रपत्र, होतृवाहन (काशी नरेश के श्वसुर) सन्यासी साधु, परशुराम, भीष्म का गुप्तचर सिद्धकूट, पांचालनरेश द्रुपद, भगवान शिव, महर्षि पराशर के सत्यवती से उत्पन्न पुत्र वेदव्यास, धृतराष्ट्र (अंबिका से उत्पन्न), पाण्डु (अम्बालिका से उत्पन्न) दासी से उत्पन्न विदुर, कुछ व्यापारी, गुप्तचर, गांधारनरेश सुबल, कृपाचार्य, शकुनि, दुर्वासा ऋषि, सूर्यदेव, द्रोणाचार्य, राजकुमार कौरव, पाण्डव, कर्ण, धृष्टद्युम्न, एकलव्य, शल्यचिकित्सक यक्ष स्थूणाकर्ण, राजा इल, बुध और उनका इला से उत्पन्न पुत्र पुरूरवा, श्रीकृष्ण, इन्द्र और चित्रसेन पुरूष पात्र है।
स्त्रीपात्रों में काशी की महारानी, अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, दासी कर्कटी, गुप्तचर स्त्रियों की प्रमुख उदुम्बरा, शांतनु की पत्नी निषाद कन्या सत्यवती, प्रथम पत्नी गंगा, शिविका, शिविका की माँ गांधारी, शूरसेन की पुत्री कुन्ती (कुन्तिभोज द्वारा पालित), परा (कुन्ती की दासी, विदुर की पत्नी) द्रौपदी (कृष्णा), द्रुपद पुत्री शिखण्डिनी, सुमंत्रा दासी, दशार्णराज हिरण्यवर्मा की पुत्री हिरण्मयी, वनप्रान्तर में एकवृद्धा, उर्वशी आदि हैं।
उपन्यास का नायक शिखण्डी (शिखण्डिनी) है और प्रतिनायक भीष्म पितामह हैं। कथा उपजीव्य काव्य महाभारत के आदि पर्व में 26 वें अध्याय से प्रारंभ होती है जहाँ राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु का गंगा से विवाह हुआ और द्यौ नामक आठवें वसु के रूप में भीष्म का जन्म हुआ। वस्तुतः आठों वसुओं को वशिष्ठ ऋषि ने कामधेनु की पुत्री नंदिनी की चोरी के अपराध में द्यौ की पत्नी के कहने पर शाप दिया था कि अन्य सात वसु तो एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्त हो जाएँगे किन्तु द्यौ नामक वसु दीर्घकाल तक पृथ्वी पर रहेगा। पिता की प्रसन्नता और भलाई के लिए स्त्री समागम का त्याग करेगा और संतान उत्पन्न नहीं करेगा।
इस उपन्यास की विषय वस्तु में जो प्रश्न उठाए गए है वे पौराणिक आख्यानों से वरदान और अभिशाप से संबद्ध हैं किन्तु अनेक स्त्रियां की नियोगकृत अथवा अन्य विधि से संतति प्रसव और जन्म जन्मांतरों की घटनाएँ जिनमें मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म होना और पुनर्जन्म होने पर पूर्वजन्म के प्रेम और घृणा के बीज विद्यमान होना भी है। साथ ही एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हमारी समकालीन वैज्ञानिक प्रगति के अंतर्गत व्यक्ति के हार्मोन्स शल्यक्रिया द्वारा परिवर्तित कर लिंग परिवर्तन किया जाना संभव है क्या महाभारत काल जैसे प्रागैतिहासिक युगों में यह संभव था ? विवेचना के विषय हैं दर्शन के तो हैं ही। कथाकार ने प्रागैतिहासिक महाभारत कथा से विचलन या विपर्यय किया है जिसमें कि अम्बा के द्वितीय जन्म में शिविका नामकरण मुख्य है गौण परिवर्तन भी सहकारी कथाओं में हैं जो कथा को रोचक और चिंतन प्रक्रिया को सक्रिय करता है। यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि वियोग से प्रसूत पुत्र क्षेत्रज और वैध पत्नी से उत्पन्न पुत्र औरस कहे जाते थे।
रसों के परिपाक का जहाँ तक प्रश्न है तो यह तथ्य सर्वविदित है कि सम्पूर्ण कथा में करूण रस व्याप्त है। यह तथ्य वाल्मीकि की रामायण कथा की उत्पत्ति के कारण स्वरूप साम्य रखता है। वाल्मीकि के क्रौंच युगल में से एक का बहेलिए (निषाद) द्वारा वध कर देने पर एक श्लोक कहा था और निषाद को मानव समाज में सर्वदा तिरस्कृत होने का अभिशाप दिया था। महाभारत कथा में किन्दम नामक तपस्वी मुनि जो मृग के रूप में अभिशप्त जीवन यापन कर रहे थे और किसी मृगी के साथ मैथुनरत थे और जिसे पाण्डु ने शिकार कर मार डाला था तो उस मृग रूपी मुनि ने पाण्डु को शाप दिया कि वह जब भी सहवास करेगा तो उसकी, मृत्यु हो जाएगी और उसकी पत्नी सती हो जाएगी। फिर दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुन्ती के यहां धर्मराज से युधिष्ठिर, वायु से भीम, इन्द्र से अर्जुन और अश्विनी कुमारों से माद्री के यहाँ नकुल सहदेव क्षेत्रज पुत्रों के जन्म हुए।
महर्षि वेदव्यास के नियोग से अंबिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अंबिका की प्रेरणा से दासी से विदुर का जन्म हुआ। सुबल की पुत्री गांधारी से धृतराष्ट्र के विवाहोपरान्त सौ पुत्र और एक पुत्री दुःशला तथा वैश्य कन्या से विचारशील पुत्र युयुत्सु पैदा हुए। पाण्डु का विवाह यदुवंशी शूरसेन की कन्या पृथा (कुन्ती) से हुआ जिसे शूरसेन की बुआ के लड़के कुंतिभोज ने पालन किया था। दूसरा विवाह मद्र देश के राजा शल्य की पुत्री माद्री से हुआ। विदुर का विवाह राजादेवक की दासी पुत्री से हुआ। आदि पर्व के ही 27 वें अध्याय में शान्तनु को सत्यवती की प्राप्ति हुई। शान्तनु ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो निषादराज ने शर्त रखी कि उसकी पुत्री के गर्भ से जो संतान हो वह राज्य का उत्तराधिकारी हो तदनुकूल भीषण प्रतिज्ञा करने से देवव्रत भीष्म कहलाए। सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म हुआ। 28 वें अध्याय में यह कथा है कि चित्रांगद बड़े होने पर स्वनामधन्य गंधर्व से युद्ध में मारा गया और विचित्र वीर्य राजा बना। वंश वृद्धि हेतु सत्यवती के कहने पर भीष्म ने काशीराज की तीनों कन्याओं का अपहरण किया और काशीराज के सैनिकों और शाल्वराज को युद्ध में परास्त कर लौटे। भीष्म ने काशीराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा की इच्छानुसार उसे शाल्वराज के पास भेजा जिसने अम्बा को अपमानित कर तिरस्कृत कर दिया। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य से हो गया। रूग्ण हो जाने पर विचित्र वीर्य की मृत्यु हो गई। वंशवृद्धि की समस्या पुनः उपस्थित हो गई। निषादराज की कन्या सत्यवती के सौन्दर्य पर मोहित होकर ऋषि पराशर से उत्पन्न पुत्र महर्षि वेदव्यास को नियोग द्वारा संतानोत्पत्ति हेतु सत्यवती ने आमंत्रित किया।
इसी तरह महर्षि गौतम के पुत्र शरद्वान जो बाणों सहित जन्मे थे वीर थे और तपस्वी थे। उनकी तपस्या में विघ्न हेतु इन्द्र ने जानपदी नामक देवकन्या भेजी उसके प्रभाव से मोहित होकर अनजाने में ही शुक्रपतन हो गया जो सरकण्डे पर गिरकर दो भागों में विभाजित हो गया उससे कृप बालक और कृपी कन्या का जन्म हुआ। इसी तरह घृताची अप्सरा को गंगा नदी से सधः स्नाता देखकर महर्षि भारद्वाज का भी वीर्य स्खलित हो गया उसे द्रोण नामक यज्ञ पात्र में रखने से द्रोण नामक बालक का जन्म हुआ। भारद्वाज की मृत्यु के बाद द्रोण ने शरद्वान की पुत्री कृपी से विवाह किया जिससे अश्वत्थामा का जन्म हुआ।
शारीरिक हार्मोन्स परिवर्तित कर पुंल्लिंग से स्त्रीलिंग और विपर्यय करना वर्तमान विज्ञान में तो संभव है ही प्राचीन एतिहासिक कथाओं से भी यह धारणा पुष्ट होती है यद्यपि यहाँ अभिषेक, आशीर्वादादि की ही अधिसूचना है वैज्ञानिक शल्य क्रिया का उल्लेख नहीं है एक उद्धरण गोस्वामी तुलसीदास के विषय में प्रचलित है। गोस्वामी तुलसीदास भी एक सिद्ध पुरूष थे चित्रकूट जाते समय संभवतः काशी या आसपास किसी क्षेत्र के राजा द्वारा प्रार्थना करने पर एक राजकन्या को राजपुत्र के रूप में अंतरित करने का आशीर्वाद गोस्वामी जी ने अभिव्यक्त किया। दोहावली में प्रक्षिप्त दोहे इसके प्रमाणस्वरूप प्रचलित हैं। कबहुँक दर्शन संत के पारसमनी अतीत। नारि पलट सों नर भयो लेत प्रसादी सीत।। तुलसी रघुवर सेवकहिं मिटिगो कालोकाल। नारि पलट सों नर भयो ऐसे दीनदयाल।। अर्थात् जिस प्रकार पारस मणि का स्पर्श पाकर लोहा भी सोना बन जाता है इसी प्रकार संत के दर्शन और प्रसाद अर्थात् कृपा के कण प्राप्त होने पर स्त्री से पुरूष रूप में परिवर्तन संभव है। आशीर्वाद या कृपा के साथ निश्चित ही तत्कालीन विज्ञान ने इस प्रकार की रासायनिक गवेषणा कर अनुसंधान कर लिया होगा कि हार्मोन्स परिवर्तन के द्वारा स्त्री देह को पुरूष देह में रूपान्तरण संभव था। चमत्कार की बात इसलिए कि प्रकृति द्वारा निर्मित देह को विज्ञान अपने अनुकूल रूपान्तरित कर सका। यह गोस्वामी तुलसीदास के समय अर्थात पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी की कथा है किन्तु इसके पूर्व महाभारत काल में काशीनरेश की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा के पुनर्जन्म शिविका के रूप में और फिर शिविका के आत्मदाह के उपरान्त शिखण्डिनी (कन्या) रूप में जन्म लेना और फिर राजकुमार के रूप में पालन-पोषण, राजकुमारी से विवाह और स्त्री होने की पुष्टि होने पर वन-वन भटकते हुए स्थूणाकर्ण नामक यक्ष जाति के शल्यज्ञ वैद्य के द्वारा शल्य क्रिया द्वारा पुंसत्व प्रदान किया जाना यह सिद्ध करता है कि पतंजलि, चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरि आदि के भेषजीय, तंत्र में हार्मोन्स परिवर्तित कर पुल्लिंग से स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग से पुल्लिंग में मानवीय देह का रूपान्तरण संभव था। संभव है कि उनके पूर्व और कोई भी आयुर्वेद शास्त्र के ज्ञाता रहे हां जिनसे हमारा ज्ञान अभी कोसों दूर है। अभी हमारी बीसवीं शताब्दी का एक दृष्टांत संभवतः भारतवर्ष में प्रथम प्रकरण ही होगा ऐसा देखा, सुना और कहा गया है।
भोपाल से जुलाई 2015 में प्रकाशित मासिक पत्र नारी युग के प्रथम वर्ष के प्रथम अंक में देश की पहली ट्रांसजैण्डर प्रिंसिपल मनाबी बन्दोपाध्याय की कहानी छपी है। पश्चिम बंगाल के नैहाटी कस्बे में एक मध्यमवर्गीय परिवार में दो बेटियों के बाद एक बेटे का जन्म सन् 1966 में हुआ। परिजन बेटा पाकर प्रसन्न हुए और उसका नामकरण सोमनाथ किया गया। पाँच वर्ष का होने पर उसको स्कूल में दाखिला मिल गया। अन्य लड़कों की तरह मछली पकड़ना, पेड़ पर चढ़ना, फुटबाल खेलना उसके शौक थे। किन्तु मन ही मन कुछ खटकता रहता। उसे लड़कियों के कपड़े पसंद आते वह बहनों की फ्राक पहन लेता या माँ की साड़ी लपेट लेता। बड़े होने पर उसने डांस सीखने की इच्छा जाहिर की। सबने कहा कि डान्स तो लड़कियों का शौक है तुम कुछ और सीखो परंतु वह नहीं माना। वह लड़कियों की तरह डान्स करता तो घर के लोग उसे डाँट देते। उसे समझ में नहीं आता कि वह लड़का है या लड़की ? माता पिता ने उसे मनोचिकित्सक को दिखाया किंतु कोई हल न निकला। तमाम दुविधा के बावजूद उसकी पढ़ाई जारी रही। जाधवपुर यूनिवर्सिटी से प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद उसने कल्याणी यूनिवर्सिटी से थर्ड जेण्डर विषय पर पी-एच.डी. की। माँ बहनों के सहयोग से उसका जीवन आगे बढ़ता गया। पी-एच.डी. करने के बाद झार ग्राम कॉलेज में उसे प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। इस बीच उसके अंदर महिला बनने की इच्छा तीव्र हो गई। वह साड़ी पहनने लगा। क्लास में साड़ी पहनने से स्टाफ को बुरा लगा। उसे झूठे आरोपों मे फंसाने की कोशिश की गई। स्टाफ क्वार्टर से निकाल दिया गया। किराए के मकान में भी कई हमले हुए। अन्ततोगत्वा उसने न्याय पाने के लिए मानवाधिकार आयोग की शरण ली। उसने अबा मनाब नामक पत्रिका शुरू करके ट्रांसजेण्डर लोगों की व्यथा को सार्वजनिक करने का प्रयास किया। सन् 2003 में उसने तय कर लिया कि वह अपना लिंग परिवर्तन कराएगा। सर्जरी और हारमोन्स परिवर्तन की प्रक्रिया लम्बी चली, उसका जीवन बदल गया और अब वह सोमनाथ से मनाबी अर्थात मानवता बन गई। वह कहती है कि मेरी आत्मा स्त्री की थी और शरीर पुरूष का। सर्जरी के बाद खुद को आइने के सामने देखकर वह बहुत खुश हुई, किन्तु कॉलेज में उसकी मुश्किलें बढ़ गई। मनाबी के अनुसार कॉलेज के छात्रों ने उसे बहुत सम्मान और प्यार दिया लेकिन कुछ अध्यापकों की सोच संकुचित थी जो खुद को शिक्षित मानते हैं।
उपन्यास शिखण्डी की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि महाभारत का सारांश भीष्म पितामह का जन्म, अपने पिता के शारीरिक सुख के लिए ब्रह्मचर्य धारण करने की प्रतिज्ञा और उसके चलते शिखण्डी नामक चरित्र के बहाने स्त्री के करूण दारूण दुःख की कथा है।
यजुर्वेद में एक ऋचा आती है जिससे भगवती गौरी का पूजन किया जाता है तेईसवें अध्याय की 18 वीं ऋचा है। प्राणाय स्वाहापानाय स्वाहा व्यानाय स्वाहा। अम्बेऽम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्। इस ऋचा में अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका देवियों को अग्नि के सुभद्रिकाओं के पास सुरक्षित होने की सूचना है। यहाँ इस ऋचा के अवतरित करने का मेरा उद्देश्य केवल यह है कि महाभारत कथा परवर्ती पौराणिक युग की है और वेद प्रागैतिहासिक संहिताएँ हैं अस्तु काशी नरेश के आचार्य ने तीनों पुत्रियों के नाम वैदिक आधार पर ही निर्धारित कर अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका नामकरण किए होंगे। शास्त्रीय व्याख्या के लिए हम मूल महाभारत कथा से ईषत् प्रयत्न कर लें तो उत्तम होगा।
महाभारत सहित कुल अठारह पुराणों की रचना महर्षि वेदव्यास जी ने की है। यद्यपि वेदव्यास जी के प्रधान शिष्यों में से एक महर्षि जैमिनि ने भी महाभारत ग्रंथ की रचना की थी जो जैमिनीय महाभारत के नाम से प्रसिद्ध था किन्तु कालान्तर में उसका लोप हो गया वर्तमान में मात्र आश्वमेधिकपर्व ही अवशिष्ट है जो व्यासकृत अश्वमेध पर्व से आकार में बृहत् है और लगभग एक हजार श्लोक अधिक हैं। महाभारत में भी कुल अठारह पर्व हैं। इस महाकाव्य का मूल रस करूण ही है इसमें भरतवंशी ही नायक हैं और प्रतिनायक भी। स्त्री की दुर्दशा ही इस महाकाव्य के अंतर्गत करूणा का उद्रेक जागृत करती है। भरतवंशियों की मूल कथा के साथ-साथ सहकारी कथाएँ भी रस-विपर्यय करते हुए एक नई रस-निष्पत्ति और जीवन की नई परिभाषा गढ़ते हुए उसे नए सिरे से परिभाषित करती है।
वन में भ्रमण करते हुए द्रोणाचार्य को एकलव्य नामक एक आदिवासी युवक मिला जो उनके द्वारा शिष्यत्व को नकार देने के बाद उनकी मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या में अम्यासरत रहा। कौरव पाण्डवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी था जिसका भौंकना एकलव्य ने अपने बाणों से बंद कर दिया था। अर्जुन अपने आपको विश्व का एकमात्र धनुर्धर मानता था। द्रोणाचार्य से यह करने पर उन्होंने एकलव्य से गुरू दक्षिणा में दाएँ हाथ का अँगूठा माँगा जो उसने सहर्ष दे दिया। अर्जुन प्रसन्न हुआ और गुरूदक्षिणा देने की बात कही तो द्रोणाचार्य ने राजा दु्रपद से अपने अपमान का प्रतिशोध लेने की बात कही।
अम्बा नदी है। अम्बिका वन है, अम्बालिका के नाम से कोई स्थान नहीं है। अंबिका वन के विषय में कहा गया कि वह पार्वती द्वारा शापित है इसीलिए वैवस्वत वंशी राजा इल आखेट के लिए एक मृग और मृगी को लक्ष्य संधान कर रहे थे वे दोनों अंबिका वन में पहुँचे वे वास्तव में यक्ष और यक्षिणी थे और मृग-मृगी रूप में क्रीड़ारत थे। राजा इल भी उनके पीछे-पीछे अंबिका वन में प्रवेश कर गया और शाप के प्रभाव से सुदर्शना स्त्री बन गया। बुध ने इल को इला मानकर विवाह कर लिया और उससे पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया जो भरतवंशियों का पूर्वज बना। अंबिका वन के ही समीप एक प्रासाद में यक्ष ने शल्यक्रिया द्वारा इला को पुनः राजा इल पुरूष के रूप में परिवर्तित कर दिया।
एक कथा पांचाल नरेश द्रुपद की दासी कर्कटी की भी है जिसे गंगा में एक ग्राह ने शिकार कर मरणासन्न कर दिया किसी हठयोगी ने उसके प्राण एक बालिका के शव में परकाया प्रवेश कराकर उसे नवजीवन प्रदान कर अंबिका वन के समीप स्थूणाकर्ण यक्ष को सौंप दिया।
दो स्थानों पर भीष्म पितामह की अपराधबोध की संस्वीकृति है जो यथार्थ या यथार्थ के निकट है। द्रौपदी द्वारा महाबली कर्ण के अपमान पर कर्ण का वक्तव्य भी नेत्रोन्मीलन करता है। कौमार्य में सन्तानोत्पत्ति के सामाजिक भय थे और तत्कालीन समाज में नियोग प्रथा प्रचलित थी और इस प्रकार से जन साधारण की बात तो संभवतः हमें नहीं मिलती किन्तु राज परिवारों में अवश्य रूपेण उपलब्ध होती है।
(1) निषाद कन्या सत्यवती ने अपनी नाव में महर्षि पराशर को गंगा पार कराया था और उसने महर्षि के सम्मोहक व्यक्तित्व को देखकर सन्तानसुख की कामना की जिससे वेदव्यास का जन्म हुआ किंतु कुँवारे में पुत्र होने के कारण वह सदा ़ऋषि के आश्रम में रहा।
(2) यदुवंश के शूर सेन की पुत्री पृथा को राजा कुन्तिभोज ने पाला था इसीलिए उसका नाम कुन्ती हुआ। राज प्रासाद में ऋषि दुर्वासा के आगमन पर कुन्ती ने उनकी अच्छी सेवा सुश्रूषा की फलस्वरूप दुर्वासा ऋषि ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद में एक ऐसा मंत्र दिया कि वह उस मंत्र के उच्चारण से जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्क्षण प्रकट होकर उसकी मनोकामना पूर्ण करेगा। मंत्र के प्रभाव की सत्यता जाँचने के लिए उसने एक दिन सूर्यदेव का आवाहन कर लिया। तत्क्षण सूर्यदेव प्रकट हो गए। सूर्य के तेजोमय स्वरूप को देखकर वह चकित हो गई और देखती ही रही। तब सूर्य आगे बढ़कर कुंती का आलिगंन कर उसे मातृत्व प्रदान कर चले गए। कालान्तर में कुन्ती ने कवच-कुण्डलधारी सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। दासी परा ने कहा कि कौमार्य में इस बालक को जन्म होने के प्रचार-प्रसार से कुन्तिभोज राजा और यदुवंश तो आजीवन अपमानित होगा ही साथ ही अवैध सन्तान के रूप में यह बालक भी।
(3) पाण्डु शापग्रस्त थे अतः पाण्डु पत्नी कुन्ती ने दुर्वासा द्वारा दिये गये मंत्र के प्रभाव से धर्मराज से युधिष्ठिर, वायु से भीष्म, इन्द्र से अर्जुन नामक पुत्रों को जन्म दिया और पाण्डु के कहने से वही मंत्र माद्री को दिया। जिससे माद्री ने अश्विनी कुमारों से नकुल और सहदेव नामक पुत्र पैदा किए।
(4) शान्तनु के सत्यवती से उत्पन्न पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य में से चित्रांगद अपने अहंकार के चलते चित्रांगद नामक गंधर्व से एक युद्ध में मारा गया। विचित्रवीर्य के लिए भीष्म ने अम्बा अम्बिका और अम्बालिका का अपहरण किया था, अम्बा के चले जाने और विचित्र वीर्य के क्षय रोग से मृत्यु हो जाने के बाद सत्यवती कुरूवंश वृद्धि के लिए िंचतित हुई। भीष्म प्रतिज्ञा के कारण भीष्म ऐसा कर नहीं सकते थे। अकस्मात् स्वप्न में सत्यवती ने एक जटाधारी पुरूष देखा। इसके पश्चात् उन्हें महर्षि पराशर से कौमार्य में उत्पन्न पुत्र व्यास का स्मरण हुआ। महर्षि व्यास को अम्बिका और अम्बालिका से नियोग से संतानोपत्ति का आदेश दिया गया। कुछ शर्तो के साथ महर्षि व्यास संतानोत्पत्ति हेतु तैयार हो गए। अम्बिका ने महर्षि व्यास के स्वरूप को देखते ही नेत्र बंद कर लिए अतः उसका पुत्र अंधा हुआ। छोटी रानी अम्बालिका महर्षि को देखकर भय से पीली पड़ गई अतः उसका पुत्र पाण्डु पीलिया रोग से ग्रस्त हो गया। दोबारा अम्बालिका को व्यास के पास भेजने का आदेश सत्यवती ने दिया तो अम्बालिका ने स्वयं न जाकर अपनी दासी को भेज दिया। दासी के गर्भ से नीतिज्ञ पुत्र विदुर का जन्म हुआ।
(5) पुत्रेष्टि यज्ञ के कुण्ड से धृष्टद्युम्न और यज्ञ वेदी से ही कृष्णा (द्रौपदी) का जन्म हुआ।
इस महाभारत महाकाव्य पर आधृत उपन्यास शिखण्डी में अनेक स्थलों पर सूक्तियाँ और कटूक्तियाँ दृष्टव्य हैं जिन्हें मैंने चयन किया है जो अनुच्छेदों को पठनीय और ग्राह्य बनाते हैं।
बड़प्पन शारीरिक ऊँचाई से नहीं वरन बौद्धिक ऊँचाई से आता है। समय का राजहंस निरन्तर गतिमान रहता है। हम स्त्रियाँ काल और परिस्थिति दोनों का समुचित ध्यान रखती हैं।
वस्तुतः राजकुमारियों के विवाह दो परिवारों अथवा दो कुलों के मध्य संबंध की स्थापना नहीं करते हैं वरन् वे दो राज्यों के मध्य सम्बन्ध निर्मित करते है। जीवन साथी पाने की ललक हो तो मन की चंचलता कुछ भी करा देती है। उन दिनों सौन्दर्य और लालित्य की सरिता मानों काशी से होकर ही बह रही थी।
स्वागत ! कैसा स्वागत ! राजमाता ? अपहृत को तो दंडित किया जाता है या फिर दास बना लिया जाता है। और आप सुविज्ञ हैं कि दण्ड के भागी तथा दासों का कभी स्वागत नहीं किया जाता अपितु उनके प्रारब्ध पर अ्ट्टहास किया जाता है। मुझे ज्ञात नहीं था कि हस्तिनापुर में अतिथियों का आना थम चुका और इसीलिए अपहरण करके अतिथि लाए जाते हैं। यमराज भी पहले मानव के जीवनकाल के बारे में पता लगाते है। उसके बाद ही उसे लेने अपने दूत भेजते है। आपने तो न पता लगाया और न किसी और को भेजा। अपनी शक्ति अपनी क्षमताओं का दुरूपयोग करने जा पहुँचें।
यही तो चिन्ता का विषय है कुरूराज! जिस समाज में इस प्रकार स्त्रियों को उपभोग की वस्तु समझकर अपहरण किया जाता रहेगा उस समाज का भविष्य कितना भयावह होगा।
मैं अपने प्राण दे सकता हूँ किन्तु किसी की जूठन ग्रहण नहीं कर सकता हूँ आज के उपरान्त मैं तुम्हारा स्मरण यदि करूँगी तो एक भीरू और अन्यायी राजा के रूप में यदि स्मरण करूँगी तो एक कापुरूष के रूप में। यदि स्मरण करूँगी तो उस घृणित मनुष्य के रूप में जिसने अपनी प्रेयसी को मात्र देह के रूप में देखा उसके प्रेम और उसकी आत्मा को नहीं देखा। कर्त्तव्य और अभिलाषा पर जब प्रारब्ध प्रभावी हो जाए तो सब कुछ सुचारू नही चलता है मुनिवर।
मुनिवर यह कैसा अन्याय है कि एक कन्या को इच्छानुरूप भविष्य चुनने का अवसर दिया जाता है। फिर उससे उसका वह अवसर ही नहीं अपितु उसकी प्रतिष्ठा भी छीन ली जाती है। अपराध करते हैं पुरूष और दण्ड भोगना पड़ता है स्त्री को।
निःसंदेह पुरूष अत्याचार करते हैं, अन्याय करते हैं किन्तु स्त्री भी तो प्रतिकार नहीं करती है।
माँ जब बन्धन खुलने जा रहे हों तो चिन्ता नही करनी चाहिए निरपराध स्त्री को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुॅचाना कापुरूषां का ही तो काम है। अपराध एक ऐसा कृत्य है जो व्यक्ति को दीमक की भाँति भीतर ही भीतर खोखला करता जाता है।
प्रत्येक प्राचीन ज्ञान को मिथक मानकर उसकी अवहेलना करने लगते हैं और अपने आधे-अधूरे ज्ञान पर इतराते रहते हैं। यह तो मनुष्य की प्रवृत्ति है हम यक्षों को यह प्रवृत्ति कैसे आ गई?
जब धर्म पर अधर्म का ग्रहण लग जाता है तो इसी तरह के दुर्भाग्य पूर्ण परिणाम सामने आते हैं।
अर्जुन ! प्रत्येक मनुष्य के जीवन का एक पक्ष उजला होता है तो दूसरा कालिमा युक्त इन दोनों पक्षों को इच्छा अनिच्छा से मनुष्य को जीना ही पड़ता है।
शरदजी का यह उपन्यास संक्षिप्त महाभारत है और इस दृष्टि से उसकी भाषाशैली व्यास शैली में भी है और यथावश्यक समास शैली में भी। कथाकार द्वारा संवादों के कथोपकथन के माध्यम से जो पात्रों का चरित्र-चित्रण है वह अद्भुत है वहाँ कला और भावपक्ष दोनों समवेत दीर्घा में प्रत्ययान्वित हैं। यह भी पितृऋण से मुक्ति का, त्राण का उद्भट और अनुपम प्रयास है। महाभारत की भाँति इस उपन्यास की जितनी भी विवेचना, टीका की जाए, भाष्य किए जाएँ अपर्याप्त ही रहेंगे ऐसी मेरी मान्यता है।
(08.05.2023)
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एक आयोजन की कुछ तस्वीरें किडनी मेरे साथ उपस्थित है आदरणीय श्री टीकाराम त्रिपाठी जी....
बांए से - श्री टीकाराम त्रिपाठी, डॉ (सुश्री) शरद सिंह, श्री हरगोविंद विश्व एवं श्री वीरेन्द्र प्रधान।
बांए से - डॉ.नलिन 'निर्मल', श्री टीकाराम त्रिपाठी एवं डॉ (सुश्री) शरद सिंह।
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