Thursday, May 11, 2023

लेख | नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

🚩बुंदेली संस्कृति एवं साहित्य के संरक्षक बाबूजी स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त जी की पुण्यतिथि पर विशेष लेख "प्रवीण प्रभात" में आज... जानिए उनके कथाकार पक्ष को...
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लेख
नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
 उपन्यासकार एवं वरिष्ठ साहित्यकार
       सागर (म.प्र.)-470004    

       बुंदेली संस्कृति को लेखबद्ध कर संजोने में जो नाम सबसे पहले लिया जाता है, वह स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्त जी का नाम है। 01 जनवरी, 1931 को जन्मे नर्मदा प्रसाद गुप्त ने हिंदी और अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद ‘‘बुदेलखंड का मध्ययुगीन काव्य: एक ऐतिहासिक अनुशीलन’’ विषय में पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने लगभग 10 वर्ष अंग्रेजी और 25 वर्ष तक हिंदी के अध्यापन का दायित्व निभाया। सन् 1958 ई. से वे साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करते चले गए। उन्होंने अपना सृजन कार्य कविता और कहानी से प्रारम्भ किया। उनकी लगभग 35 कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। सन् 1962 में ‘‘आल्हा’’ नामक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा। डाॅ. गुप्त ने हिन्दी साहित्य, लोकसाहित्य तथा लोककला पर अनेक शोधात्मक लेख लिखे। उन्होंने प्रथम बार लोकगीतों और लोकगाथाओं के पाठ का सम्पादन कर उन्हें संरक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके द्वारा संपादित सबसे चर्चित पुस्तक रही ‘‘बुन्देलखंड का साहित्यिक इतिहास’’। उन्होंने ‘‘मामुलिया’’ त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन किया तथा बुन्देलखंड साहित्य अकादमी की स्थापना की। उन्हें अनेक सम्मानों से समय-समय पर सम्मानित किया गया।

डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त की कहानियों में भी बुंदेलखंड की गरिमा और नारी अस्मिता के प्रति उनका सकारात्मक आह्वान स्पष्ट दिखाई देता है। इस लेख में मैं उनकी कुछ कहानियों पर संक्षिप्त चर्चा करने जा रही हूं जिनसे सभी को उनकी कहानियों के मूल स्वर से परिचित होने का अवसर मिलेगा। कहानियों की चर्चा आरम्भ करने से पूर्व यह बात मैं करना आवश्यक समझती हूं कि इन कहानियों में बुंदेलखंड का इतिहास, वर्तमान तथा स्त्री के प्रति सामाजिक वैचारिकी को दृढ़तापूर्वक रेखांकित किया गया है। इससे सुगमता से समझा जा सकता है कि डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त बुंदेली संस्कृति के मात्र गौरव-गायक नहीं थे, वरन वे बुंदेली समाज में आए उसे कलुष को भी मिटना चाहते थे जिनके कारण लगभग हर काल में स्त्रियों को अवहेलना और प्रताड़ना सहनी पड़ी। इसीलिए मैं सबसे पहले उस कहानी की चर्चा करने जा रही हूं जिसका नाम है ‘‘लाखा पातुर’’।  
बुंदेलखंड में ‘‘पातुर’’ नृत्यांगनाओं अर्थात नाचनेवालियों को कहा जाता है। इन स्त्रियों के प्रति पुरुषप्रधान सामाजिक दृष्टिकोण संतुलित नहीं रहता है। ये स्त्रि़यां कलानिपुण होते हुए भी समाज के लांछन का निशाना बनी रहती हैं। ‘‘लाखा पातुर’’ कहानी में कथाकार नर्मदा प्रसाद गुप्त ने राजाशाही के समय की एक ऐसी नृत्यांगना की कथा बुनी है जिसे एक प्रस्तर मूर्तिकार से प्रेम हो जाता है। इसी के समानांतर वर्तमान परिवेश का कथाप्रसंग भी चलता है जिसमें कथानायक एक चित्रकार है और उसे चित्रकला के लिए सम्मानस्वरूप मुख्यमंत्री से बीस हज़ार रुपए मिलते हैं। अर्थात् समानान्तर दो कालखंड किन्तु स्त्री के प्रति सोच लगभग एक जैसी, भले ही वह व्यक्ति कलानिष्णात है। पुराने कालखंड के प्रसंग के कुछ संवाद देखिए-
‘‘देवराज तुम जानते हो कि राजनर्तकी के चारों ओर पत्थर की मोटी-मोटी प्राचीरें हैं जिनमें वह बंदी बनाकर रखी जाती है। उसका भी मन होता है कि वह खुले में नाचे, पर उसके पांव मर्यादा की रस्सियों से जकड़ी रहते हैं .... वे तभी खुलते हैं जब कोई राजा या सामंत बोली लगाए। जब बोली ही लगना है तो लाखों की लगे। न कोई लाख देगा न लाखा नाचेगी।’’
‘‘तो क्या नाचना छोड़ देगी? फिर राजनर्तकी की देह का बोझ होती रहेगी। आत्मा तो मर ही जाएगी। लोक से दूर रहकर कलाकार जीवित नहीं रह सकता इस विवाद को छोड़ो मुझे जाने दो।’’
‘‘पत्थरों में प्राण डालने वाले शिल्पी क्या तुम मुझे जीवन नहीं दे सकते?’’ लाखा फफक-फफक कर रो उठी थी।
देवराज ने जाते-जाते चेतावनी-सी दी थी, ‘‘लाखा पत्थर तो निर्दोष होते हैं उन्हें चाहे जैसा गढ़ लो।’’
‘‘तो क्या मैं पापिन हूं?’’ लाखा ने चींखकर सिर पकड़ लिया था। राजा और महात्मात्य ने तेजी से आकर स्थिति संभाल ली थी, लेकिन देवराज पहले ही जा चुका था।
जिस कलाकार से संवेदना की अपेक्षा की जाती है वह एक स्त्री की अपेक्षा पत्थर को निर्दोष मान रहा है। यह कथाकार की स्त्री-अस्मिता के प्रति संवेदना का सशक्त आह्वान है जो वस्तुस्थिति जता कर समाज को लज्जित कर, परमार्जित करना चाहता है।

दूसरी कहानी है- ‘‘एक और दुर्गावती’’। यह सती प्रथा की दूषित परंपरा का स्मरण कराते हुए पुरुषों द्वारा स्त्री की अनचाही उपेक्षा की कथा प्रस्तुत करती है। एक प्रोफेसर जो अतीत को खंगालने में इतना अधिक व्यस्त हो गया कि अपने वर्तमान में मौजूद अपनी पत्नी की आशाओं एवं आकांक्षाओं को ही भुला बैठा। ठीक वैसे ही जैसे पुराने समय में युद्धोन्मादी राजा अपनी रानियों के जीवन तक को भुला कर उनसे जौहर की आशा रखते थे। इस जौहर प्रथा को इतने महिमा मंडित रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा कि यह दूषित परंपरा सदियों तक चलती रही। इस कथा में प्रोफेसर अपने असिस्टेंट बलराम और प्रहलाद के साथ एक किले की छानबीन करते समय जौहर की घटना के साक्ष्य ढूंढने लगता है। उस समय कुछ संवाद उभर कर एक दृश्य रचते हैं। यह एक छोटा-सा दृश्य कथानक के समूचे स्वरूप की महत्वपूर्ण कड़ी के समान है-
बलराम ने अफसोस-सा जाहिर करते हुए कहा- ‘‘सर, जौहर के बाद कोई नहीं बचा और किला उजड़ गया। आज तक न जाने कितने राजा आए, पर कोई भी आबाद नहीं रह सका। लोग कहते हैं कि सती का शाप लगा है इस किले को।’’
      प्रहलाद बारूदखाने की गहराई का अंदाजा लगा रहे थे और प्रोफेसर उसमें डूबने लगे थे। शाप...आखिर शाप तो उनके घर को भी लगा है। सविता उनसे ऊबकर हृदयेश का आसरा चाहती है। उसने तलाक की अरजी दे दी है। कारण कुछ नहीं, केवल इतना कि उसके पति किताबों, गुफाओं, लेखों सबके चक्कर में उसकी देखभाल नहीं कर पाते। पति का प्यार नहीं दे पाते। वह अपने ही घर में ऐसे रहती रही है, जैसे उसकी शादी न हुई हो। आज तक पत्नी की जिंदगी को तरसती रही। पत्नी की जिन्दगी....। सविता की धुंधली-सी छाया उस बारूदखाने में डोलने लगी और प्राफेसर अचानक फुसफुसा पडे-सविता...!
प्रोफेसर की आवाज सुनकर प्रहलाद ने कहा था- सर, चलें। सविता जी इंतजार कर रही होगी।
कहानी के इस अंश से स्पष्ट हो जाता है कि कथाकार ने अतीत की स्त्री के अस्तित्व के समापन और वर्तमान की स्त्री के अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष को दर्शाने के लिए जौहर की प्रथा को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया है। यहां सहसा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की ‘‘रोज’’ कहानी याद आ जाती है जिसमें कथानायिका अपने अत्यंत व्यस्त रहने वाले चिकित्सक पति के साथ एक नीरस जीवन व्यतीत करने को विवश है, किन्तु उसमें साहस नहीं है कि वह अपने पति को इस बात से आगाह कर सके अथवा उससे मुक्ति ले सके। किन्तु ‘‘एक और दुर्गावती’’ में प्रोफेसर की पत्नी तलाक की अर्जी दे कर अपने महत्व की घोषणा कर देती है और इस पर प्रोफेसर को भी अपनी भूल का अहसास हो पाता है।

तीसरी कहानी है-‘‘ठांड़ी जरै मथुरावाली’’। इस कहानी में सामाजिक परिवेश है, स्त्री है, पारिवारिक संबंध हैं, प्रेम संबंध हैं और लोकगीत के रूप में लोक संस्कृति भी है। जब संबंधों में उलझने पैदा होने लगें तो बुद्धि भी छटपटा कर रह जाती है। यह समझना कठिन हो जाता है कि जो कदम उठाया जा रहा है, वह सही है या नहीं? कथा का यह छोटा-सा यह अंश देखिए-
‘‘नहीं, मुझे आज ही पहुंचना है। प्रेमा आंखों में गीलापन लिए फर्श की तरफ देखती रही। वह भी पैर के नाखून से लिखने लगा था। गोविन्द कुछ रोष में जाने लगे कि उसने द्वार तक उनको भेज दिया और नमस्कार कहकर अपने कमरे में आ बैठा। सोचने लगा कि विष-लता अब खूब लहलहा उठी है, आगे क्या होगा। मां पीछे लौटना नहीं चाहती और बाबूजी को मालूम नहीं कि कथा अपने आप बढ़ती जा रही है। गोविन्द जाने क्या-क्या कह गए, लेकिन मां बड़े संयम से सुनती रही प्रेमा ने बहुत साहस दिखाया। मुमकिन है कि उसके शब्द मां के लिए मरहम का काम करे और समस्या हल हो जाए।’’
‘‘ठांड़ी जरै मथुरावाली’’ की कथानायिका की स्थिति को व्यक्त करने के लिए कथाकार ने बड़ी सुंदरता से लोकगीत का प्रयोग किया है-
जा रे मुगल पानी भर के ल्याव,
प्यासी भरै मथुरावली  
गेलों मुगल पानी गओ घर में है लई आग  
ठांडी जरे मथुरावली
नाक की बेरार तोये दऊं ढोलिया,
ऊंचे चढ़ ढोल बजाव, ठांडी जरै मथुरावली  
अंगजरे जैसे लाकडी, केस जरें जैसे घास
ठांडी जरै मथुरावली  
रोय चले बांके बालमा, बिहेंस चले राजा बीर  
ठांडी जरै मथुरावली
राखी बहना पगड़ी की लाज...ठांडी जरे मथुरावली ।

डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त ने ओरछा की सुप्रसिद्ध नर्तकी पर कहानी लिखी है-‘‘प्रवीणराय’’। एक ऐसी नृत्यांगना जो इतिहास में स्त्री के साहस और बुद्धिकौशल की प्रतीक के रूप में दर्ज़ है। प्रवीणराय को राजनीति की शतरंज की बिसात पर एक प्यादे की भांति चलाने का प्रयास किया गया किन्तु वह एक विजयी रानी की तरह अकबर के दरबार से ओरछा लौटी, वह भी अकबर को मुंहतोड़ जवाब दे कर। लेकिन अकबर के दरबार तक पहुंचने के पहले उसे अपनी क्रोध पर किस तरह काबू में करना पड़ा इसका विवरण भी कथाकार डाॅ. गुप्त ने इस कहानी में दिया है। यह एक झलक देखिए-  
‘‘प्रवीण, युद्ध केवल तलवार से नहीं लड़ा जाता, कलम भी पैनी होती है। अपनी कलम और कला से सैकडों को जीत सकती हो। फिर एक बादशाह को नहीं? और उस बादशाह को, जो कलम और कला का सम्मान करता है। उठो तैयार हो जाओ।’’
प्रवीण ने साहस बटोर कर कहा था- ‘‘आचार्य में सबके लिए तैयार हूं पर अपनी प्रतिष्ठा और सतीत्व के मूल्य पर नहीं।’’  
‘‘किन्तु आंच आने पर तुम वहां भी कटार का सहारा ले सकती हो। अकेले सूने में मरने से क्या बनता है? ऐसे मरो कि दो-चार याद रखें।’’ इतना ही कहा था कि वह तैयारी करने लगी।
कितना विश्वास करती है प्रवीण। इंद्रजीत से भी नहीं पूछा और घोड़े पर बैठकर चल दी। पतिराम साथ था, नहीं तो और भी मुसीबत होती। किसी तरह आ ही गए, लेकिन बात रह जाए तब तो। प्रवीण का भरोसा है, वह बादशाह को कैसे जीतती कौन से दांव से नृत्य, वीणा या कविता से? अगर कविता से जीतती तो भाषा की जीत सारे देश पर छा जाएगी। कविराज ने मन ही मन एक गौरव का एहसास किया और दर्द से चारों तरफ देखकर अपनी नजरें रहीम पर गड़ा दीं।

डाॅ नर्मदा प्रसाद गुप्त द्वारा लिखी गई अन्य कहानियों में जैसे ‘‘चैपड़’’, ‘‘पैजना के कंकरा’’ आदि में बुंदेली जीवन के अतीत और वर्तमान का तुलनात्मक दृश्य इतने मंजे हुए ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि कथाकार की कथालेखन की सिद्धहस्तता में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है। डाॅ. गुप्त की कहानियां जिस प्रकार बुंदेली संस्कृति, समाज, राजनीति आदि के परिवेश को धरोहर के रूप में संजोती हैं, ठीक उसी प्रकार से डाॅ. गुप्त की कहानियों को संजोए रखने की महती आवश्यकता है। क्योंकि ये कहानियां महज कथारस की कहानियां नहीं है वरन नारी स्वाभिमान एवं बुंदेली संस्कृति के चितेरे कथाकार द्वारा लिखी गईं ऐतिहासिक एवं सामाजिक मूल्यों की कहानियां हैं।
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