Friday, January 31, 2020

शून्यकाल ... असंवेदना का वायरस और युवाओं में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
असंवेदना का वायरस और युवाओं में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति                                                 
  - डाॅ. शरद सिंह                                                                                            
       राष्ट्रवाद, बौद्धिकवाद, स्त्रीविमर्श जैसे बड़े-बड़े भारी-भरकम से लगने वाले शब्द कभी-कभी बहुत छोटे और हल्के लगने लगते हैं। जब एक युवती सामूहिक दुष्कर्म के बाद गला घोंट कर मार दी जाती है, वह भी एक तरफा प्रेम के चलते। दो विविध आपराधिक घटनाएं। फिर भी दोनों में एक समानता कि इनमें अपराधी युवा थे। वे युवा जिनके खेलने, खाने और पढ़ाई-लिखाई कर कैरियर बनाने के दिन थे। बुंदेलखंड हमेशा शांत क्षेत्र रहा है। यहां सौहार्द्र् का वातावरण रहा है। बेशक यहां दशकों तक दस्यु-समस्या अवश्य रही किन्तु वह भूख, ग़रीबी और आपसी दुश्मनी से उपजी हुई समस्या थी जिस पर लगभग काबू पाया जा चुका है। लेकिन आज अपराध उन हाथों से किए जा रहे हैं जिनके द्वारा कभी किसी तरह के हिंसा किए जाने की उम्मींद सपने में भी नहीं रहती है। ऐसा क्या बदल रहा है कि मासूम से लगने वाले युवा पेशेवर अपराधियों जैसे नृशंस अपराध करने लगे हैं? 
अभी हाल ही में सागर संभाग मुख्यालय के आनंद नगर क्षेत्र में एक ऐसी लोमहर्षक वारदात हुई जिनसे सभी को सकते में डाल दिया। मकान के बाहर वाले गेट पर ताला लटक रहा था। मकान के अंदर से दुर्गंध आ रही थी। पुलिस ने जाकर दरवाजे में लगा ताला तोड़ अंदर जाकर देखा तो हॉल से लगे कमरे में तीन शव बिस्तर पर पड़े थे। तीनों मृतकों की पहचान रिटायर्ड आर्मीमैन रामगोपाल पटेल 40 वर्ष, उसकी पत्नी भारती 35 वर्ष और पुत्र छोटू पटेल 16 वर्ष के रूप में की गई जबकि मृतक रामगोपाल का बड़ा बेटा विकास 18 वर्ष लापता था। पुलिस को मौके से 7 सात लाइनों का एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि इसका जिम्मेदार मैं खुद हूं। मैं मरने जा रहा हूं, मुझे मत ढूंढ़ना। यद्यपि इसमें किसी का नाम नहीं लिखा था। विशेष बात यह है कि विकास और उसका छोटा भाई आदर्श आर्मी स्कूल में कक्षा 12 वीं और 7 वीं के  छात्र थे। विकास के बारे में पुलिस को पता चला कि वह बिगड़ी हुई प्रवृत्ति का था। उसके नाना ने बताया कि एक बार उसने पिता का एटीएम कार्ड चोरी कर 40 हजार रुपए निकाल लिए थे। पहले यह माना जा रहा था कि विकास ने अपने माता-पिता और छोटे भाई को ज़हर दे कर मार डाला किन्तु पीएम रिपोर्ट तथा और जांच-पड़ताल के बाद पता चला कि उसने अपने माता-पिता को गोली भी मारी थी। बात इतनी ही नहीं रही, हैवानीयत की हद तो यह कि वह तीन दिन तक यावों के पास खना पकाता खाता रहा और अपने स्कूल में गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में भी सामान्य भाव से शामिल हुआ। ऐसा कृत्य वह भी मात्र 18 वर्ष की आयु के युवक द्वारा किया जाना स्तब्ध कर देने वाला है। आखिर उस युवक में इतनी हैवानीयत कहां से आई? अपने माता-पिता और छोटे भाई को जान से मारना, फिर उनके शव के साथ तीन दिन घर में न केवल रहना बल्कि खाना पका कर खाना, यह सुनने में इंसानी कृत्य नहीं लगता है। लिहाजा प्रश्न वही उठता है कि वह युवक इंसान से ऐसा हैवान कैसे बन गया? जब वह बिगड़ने की राह पर चल पड़ा था तब क्या उस पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं था?
Dainik Bundeli Manch -  Shoonyakaal, असंवेदना का वायरस और युवाओं में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति - Dr Sharad Singh, 31-01-2020
       एक और घटना, ठीक उसके बाद। इलाका वही सागर संभागीय मुख्यालय से लगा हुआ मेनपानी ग्रामीण क्षेत्र। अब मेनपानी पहले जैसा ग्रामीण क्षेत्र भी नहीं रह गया है। लेकिन यहां आज भी खुले में शौचमुक्त अभियान को मुंह चिढ़ाती और झूठे आंकड़ों की पोल खोलती स्थितियां जघन्य अपराध को जाने-अनजाने अवसर दे रही हैं। एक युवती जिसकी सप्ताह भर बाद शादी होनी थी, सुबह खुले में शौच के लिए निकली। एक तरफा प्रेम में अंधा हो चला युवक उसकी ताक में घात लगाए बैठा था। उसने युवती के साथ न केवल बलात्कार किया बल्कि उसका गला दबा कर उसे मौत के घाट उतार दिया। इस घटना में भी एक और युवा अपने अपराध से मानवता को शर्मसार कर गया। इस प्रकार की प्रवृत्ति युवाओं में तेजी से बढ़ती जा रही है। न तो सागर संभाग के लिए इस प्रकार की घटना पहली घटना है और न ही युवाओं द्वारा किए जाने वाले अपराधों के आंकड़ों में यह पहली घटना है। एक तरफा प्रेम का हिंसक अंत एक पीढ़ी पहले तक नहीं था किन्तु अब यह अपराध आए दिन कहीं न कहीं घटित होता रहता है। यह आपराधिक ढिठाई इन युवाओं में कहां से आ रही है? क्या माता-पिता अपने बच्चों की हरकतों से बिलकुल बेख़बर हो चले हैं? पुलिस के दायित्व से भी कहीं पहले माता-पिता और परिवार का दायित्व होता है बच्चों और युवाओं की हरकतों पर ध्यान रखने का।
इसका एक उत्तर छतरपुर की उस घटना में भी मौजूद है जो प्रत्यक्षतः आपराधिक तो नहीं है किन्तु मानवता को शर्मसार करने वाली अवश्य है। समाज में बेटियों का प्रतिशत घटने का कारण यही है कि परिवार बेटों की चाह में बेटियों को दुनिया में ही नहीं आने देना चाहते हैं। यदि बेटियां दुनिया में आ भी जाएं तो उनकी उपेक्षा की जाती है। बुंदेलखंड भी इस मानसिक कुरीति से अछूता नहीं है। लेकिन उस मां के बारे में सोचिए जिसने तीन बेटों को जन्म देते हुए सोचा होगा कि ये तीनों नहीं तो कम से कम एक तो बुढ़ापे का सहारा बनेगा और मृत्यु होने पर मुखाग्नि देगा। उस मां ने अपने तीनों बेटों के लिए रात-रात भर जागते समय कभी नहीं सोचा होगा कि उसके मरने पर उसका एक भी बेटा उसके अंतिम संस्कार के लिए नहीं आएगा। वह अभागी मां अपनी मृत्यु के पूर्व एक वुद्धाश्रम में रह रही थी। उसकी मृत्यु पर जब उसके छोटे बेटे को सूचना दी गई तो उसने यह कह कर मां का अंतिमसंस्कार करने से मना कर दिया यदि वह आएगा तो उसकी पत्नी उसे छोड़ देगी। यह घटना किसी मेट्रो महानगर में घटी होती तो शायद आश्चर्य नहीं होता किन्तु घनी सामाजिकता वाले बुंदेलखंड के छतरपुर में ऐसी घटना चौंकाने वाली थी। सोचने की बात है कि जब पारिवारिक वातावरण इतना दूषित होने लगेगा तो युवाओं पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा? सच तो यह है कि असंवेदना का वायरस बीमार कर रहा है मानसिकता को जिससे माता-पिता में असंवेदनशीलता बढ़ रही है और युवाओं में अपराध में प्रवृत्ति होते जा रहे हैं। असंवेदना के इस वायरस को फैलाने में इंटरनेट और सेाशल मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।     
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 31.01.2020)
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Thursday, January 30, 2020

शून्यकाल ... संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

बुंदेलखंड के आभूषणों की एक लंबी परम्परा रही है, जो प्रागौतिहासिक युग से लेकर वर्तमान काल तक जीवित रहकर सौंदर्य-बोध का इतिहास लिखती आ रही है। यहां का पुरातत्त्व, मूर्तिशिल्प, चित्रकला और साहित्य इसके साक्ष्य देते हैं। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कवि बोधा के इस छंद में बुंदेलखंड में पहने जाने वाले आभूषणों का विवरण मिलता है-

बेनी सीसफूल बिजबेनिया में सिरमौर,
बेसर तरौना केसपास अँधियारी-सी।
कंठी कंठमाला भुजबंद बरा बाजूबंद,
ककना पटेला चूरी रत्नचौक जारी-सी।
चोटीबंद डोरी क्षुद्रघंटिका नयी निहार,
बिछिया अनौटा बांक सुखमा की बारी-सी।
राजा कामसैन के अखाड़े कंदला कों पाय,
माधो चकचैंध रहो चाहिकै दिवारी-सी।

इस छंद में बिजबेनिया, बरा, पटेला, पछेला और बेनीपान जैसे आभूषणों का जिक्र किया है। बार बाजू में, पटेला चूड़ियों के बीच कौंचा में और पछेला कौंचा में ही सबसे पीछे पहने जाते थे। वेणीपान वेणी को बांधने वाला पान केर आकार का आभूषण तथा कण्ठिका एक लड़ी का हार होता था। कवि पद्माकर ने भी अपने दंदों में कलंगी, गोपेंच और सिरपेंच का उल्लेख किया है। उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण से लेकर बीसवीं शती के प्रथम चरण तक के आभूषणों का विवरण कवि ईसुरी की फागों में मिलता है। जैसे -

चलतन परत पैजना छनके, पांवन गोरी धन के
सुनतन रोम-रोम उठ आउत, धीरज रहत न तन के ।
Dainik Bundeli Manch - शून्यकाल ... संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण - Dr Sharad Singh, 30.01.2020
        ईसुरी का फागों में पैर में पैजना, पैजनियांय कटि में करघौनी, हाथ में ककना, गजरा, चुरीयाँ, बाजूबंद, बजुल्ला, छापें, छला, गुलूबंद, कंठा, कठलाय कान में कर्णफूल, लोलकय नाक में पुंगरिया, दुरय माथे में बेंदा, बेंदी, बूंदा, दावनी टिकुली आदि का अनेक बार उल्लेख है। वैसे समूचे बुंदेलखंड में जो आभूषण प्रचलन में रहे, वे थे- सिर में सीसफूल, बीजय वेणी में झाबिया, माथे में बेंदी, दावनी, टीकाय कानों में कर्णफूल, सांकर, लोलक, ढारें, बारी, खुटियाय नाक में बेसर, पुंगरियाय गले में सरमाला, चंद्रहार, सुतिया, पँचलड़ीं, बिचैली, चैकी, लल्लरीय हाथ की अंगुलियों में मुंदरी, छल्ला, छापेंय बाजू में बरा, बजुल्ला, बगवांय कौंचा में ककना, दौरी, चूरा हरैयां बंगलियां चूड़ी, नौघरई, चुल्ला, बाकें, घुमरी, पायजेब, पैजनियां, पैजनाय पैर की अंगुलियों में बिछिया, गेंदें, चुटकी, गुटिया और अनवट आदि।

आभूषण लोकसंस्कृति के लोकमान्य अंग हैं। देह को भांति-भांति के आभूषणों से सजाना मानवीय प्रकृति का एक अभिन्न अंग है। आभूषण उपलब्ध न हों तो उनकी पूर्ति के लिए गोदना (टैटू) बनवाने का चलन आज भी है। बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति में भी आभूषणों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चूंकि लगभग मध्यकाल से ही राजनीतिक अस्थिरिता के कारण बुंदेलखंड में आर्थिक विपन्नता का प्रतिशत अधिक रहा लेकिन सोने-चांदी के मंहगें आभूषणों की जगह गिलट के आभूषणों ने ले ली। यद्यपि यह बात भी महत्वपूर्ण है कि बुंदेलखंड के सागर सराफा में निर्मित होने वाले चांदी के गहनों की मांग आज भी दूर-दूर तक है। किंतु ग्रामीण अंचलों में चांदी के आभूषण खरीदने की क्षमता न रखने वाले लोगों में चांदी जैसे सुंदर गिलट के जेवर बहुत लोकप्रिय रहे हैं।

आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में भी आभूषण पहनने का चलन रहा है जिनमें टोड़र, पैजना, करधौनी, बहुंटा, चंदौली, कंटीला गजरा, मुंदरी, छला, कन्नफूल, पुंगारिया, खंगौंरिया और टकार प्रमुख आभूषण थे। आज ये आभूषण धीरे-धीरे चलन से बाहर होते जा रहे हैं। इसके प्रत्यक्षतः तीन कारण दिखाई देते हैं- एक तो बुंदेलखंड प्राकृतिक आपदाओं के चलते कृषि को हानि होने से गिरती आर्थिक स्थिति, दूसरा कारण बुंदेलखंड में महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध जिसके कारण सोने या चांदी जैसे दिखने वाले नकली आभूषणों को भी पहन कर निकलने में महिलाएं डरती हैं और तीसरा कारण हैं वे चाईनीज़ आभूषण जो भारतीय आभूषणों की अपेक्षा अधिक सस्ते और अधिक आकर्षक दिखते हैं। भेल ही इन चाईनीज आभूषणों को ‘मेड इन चाइना’ के रूप में नहीं बेंचा जाता है किन्तु आम बोलचाल में यह चाईनीज़ आभूषण ही कहलाते हैं। इन तीनों कारणों ने बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों को बहुत क्षति पहुंचाई है। बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों की कला को बचाने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना जरूरी है।
पिछले दिनों पन्ना जिले के ग्राम नचना जाने का अवसर मिला। वहां साप्ताहिक हाट में में आई वे महिलाएं दिखीं जो बुंदेलखंड के और अधिकर भीतरी अंचल से आई थीं। उनके पैरों में डेढ़-डेढ़ किलो वज़नी चांदी के गेंदाफूल वाले तोड़े देख कर ऐसा लगा मानों बचपन का वह समय लौट आया हो जब नानी और दादी इस प्रकार के तोड़े अपने पैरों में पहना करती थीं। मैंने उन महिलाओं से उनके तोड़ों के बारे में पूछा कि क्या ये उन्हें भारी नहीं लगते है? तो उनमें से एक ने हंस कर बताया कि ये चांदी के नहीं हैं, गिलट के हैं जो उसकी सास उसे शादी में दिए थे। साथ ही उसने दुखी होते हुए यह भी कहा कि अब गिलट के तोड़े नहीं मिलते हैं। मुझे लगा कि यह ठीक कह रही है, मैंने भी बरसों से गिलट के जेवर नहीं देखे हैं। मिश्रधातु वाला गिलट चांदी के सामान दिखता है और इसके गहने कभी काले नहीं पड़ते हैं। वज़न में हल्का और टिकाऊ। बहरहाल, फिर मेरा ध्यान गया नचना और उसके आस-पास की ग्रामीण महिलाओं के गहनों की ओर। उन पर शहरी छाप स्पष्ट देखी जा सकती थी। वैसे यह स्वाभाविक है। टेलीविजन के युग में फैशन तेजी से गांव-गांव तक पहुंच रहे हैं और परम्पराओं पर कब्जा करते जा रहे हैं। फिर परिवर्तन भी एक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया है। लेकिन जब कलात्मक परंपराओं का क्षरण होने लगता है तो दुख अवश्य होता है।
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 30.01.2020)
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चर्चा प्लस ... वसंत पंचमी (निराला जयंती) पर विशेष ... पुनर्पाठ जरूरी है कवि 'निराला’ के मानवतावादी कथा साहित्य का - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 
वसंत पंचमी (निराला जयंती) पर विशेष 
पुनर्पाठ जरूरी है कवि  'निराला’ के मानवतावादी कथा साहित्य का
- डॉ. शरद सिंह

आज मानवतावाद ज्वलंत विषय है। इस विषय पर बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं, चर्चाएं होती हैं एवं गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। इन सबके द्वारा इस बात को परखने का प्रयास किया जाता है कि मानवदावाद आखिर है क्या? इसे समाज में कैसे स्थापित किया जाए? जबकि हिन्दी साहित्य की मूल चेतना ही मानवतावादी है। इसमें मानवजीवन के प्रत्येक मूल्यों को बारीकी से जांचा-परखा गया है। मानवतावाद के प्रति सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला का अपना एक अलग दृष्टिकोण रहा। वे जब मानव की बात करते थे तो सबसे पहले दुखी-पीड़ित मानवता के प्रति उनकी संवेदनाएं मुखर होती थीं। 

‘निराला’ का मानवतावाद सदा प्रासंगिक है। ‘निराला’ ने सन् 1915 से कविता लिखना आरंभ किया था। सतत् मंथन के बाद उनका पहला काव्य ‘परिमल’ सन् 1929 में प्रकाशित हुआ। ‘निराला’ ने काव्य के छायावादी दृष्टिकोण को अपनाया वहीं प्रयोगवादी मानकों को भी आत्मसात किया। उनके अन्य काव्य हैं- अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना एवं आराधना। अनामिका में संग्रहीत ‘तोड़ती पत्थर’ कविता मानवीय मूल्यों की उत्कृष्ट धरोहर है। आचार्य नरेन्द्र शर्मा ने ‘निराला’ एवं ‘तोड़ती पत्थर’ के बारे में लिखा है-‘‘वह आधुनिक कवियों में शैलीगत अपनी आधुनिकता के कारण आधुनिकतम, किन्तु वेदान्त, दर्शन और वीरपूजा संबंधी भावना के कारण पुरातन बने रहे। एक ओर वह घोर अहंवादी है तो दूसरी ओर अपनी उदार मनःसंवेदना के कारण वह पददलितों के हिमायती है। ‘तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर’ ऐसी भी है उनकी कविता। वह कविता एक ओर तो मार्गी है और दूसरी ओर वह पत्थर तोड़-तोड़ कर नए युग का मार्ग बनाती है।’’


‘निराला’ सम्पूर्ण गद्य के विविध रूपों और विशेषकर कथा साहित्य में आस्थावान रहे। ‘निराला’ का आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी मानवतावादी था। इसीलिए मानव मन-मस्तिष्क में संचार करने वाले सुख-दुख, राग-द्वेष ‘निराला’ के गद्य साहित्य में मुखर रूप में विद्यमान हैं। 
Charcha Plus - वसंत पंचमी-निराला जयंती पर विशेष-पुनर्पाठ जरूरी है कवि निराला के मानवतावादी कथा साहित्य का  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
    आज मानवतावाद ज्वलंत विषय है। इस विषय पर बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं, चर्चाएं होती हैं एवं गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। इन सबके द्वारा इस बात को परखने का प्रयास किया जाता है कि मानवदावाद आखिर है क्या? इसे समाज में कैसे स्थापित किया जाए? जबकि हिन्दी साहित्य की मूल चेतना ही मानवतावादी है। इसमें मानवजीवन के प्रत्येक मूल्यों को बारीकी से जांचा-परखा गया है। मानवतावाद के प्रति सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला का अपना एक अलग दृष्टिकोण रहा। वे जब मानव की बात करते थे तो सबसे पहले दुखी-पीड़ित मानवता के प्रति उनकी संवेदनाएं मुखर होती थीं।‘निराला’  का मानव देवत्व की तलाश में नहीं, उसकी ऊर्जा देवत्व को गंतव्य मान कर गतिमान नहीं होती किन्तु देवत्व का पर्याय बन कर सामने आती है। ‘निराला’ के गद्य में वेदान्त की अनुप्रेरणा और विवेकानंद की वाणी का प्रभाव ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व की विराटता भी विद्यमान है। जब हम ‘निराला’ के काव्य और उनके गद्य में मौजूद मानवचेतना से साक्षात्कार करते हैं तो इस सत्य का अहसास होने लगता है कि पद्य जल नहीं है और गद्य पाषाण नहीं है। वस्तुतः काव्य और गद्य के बीच स्पष्ट धारणात्मक रेखा खींचना कठिन है। हर गद्य में कविता संभव है और हर कविता में गद्य। ‘निराला’ के काव्य और गद्य को एक-दूसरे के समान्तर रख कर देखा जाए तो दोनों ही विधाएं समान रूप से मूल्य-निर्णायक साबित होती हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वे कौन से कारण रहे होंगे जिन्होने ‘निराला’ को काव्य के साथ-साथ गद्य सृजन से भी जोड़ा, वह भी समउत्कृष्टता और समर्पण के साथ। इस प्रश्न का उत्तर इस एक तथ्य में निहित है कि ‘निराला’ के भीतर एक संवेगतत्व निरंतर प्रवाहित रहा। जीवन के विविध पक्षों में विचरण के कारण ही ज़मीन से जुड़े ‘निराला’ के भीतर हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व चलता रहा। वे उद्वेलित होते रहे। जीवन की विषमताओं को ले कर उनके मन में सदा पीड़ा रही कि एक मानव दूसरे मानव का शोषण क्यों करता है? यह सहज प्रश्न और जिज्ञासा उन्हें आकुल करती रही और अंतर्मन में अनजाने में ही एक चिंतन प्रक्रिया बराबर चलती रही। यह उनके भीतर क्रांतिचेतना की पीठिका एवं प्रेरक बनी। यही क्रांतिचेतना अथवा मानववाद ‘निराला’ से काव्य के साथ-साथ गद्य सृजन भी कराती रही।

‘निराला’ के गद्य में विद्यमान मानववाद का तीन बिन्दुओं में आकलन किया जा सकता है- ‘निराला’ के उपन्यासों में मानववाद, कथासाहित्य में मानववाद और रेखाचित्रों-संस्मरणों में मानववाद। इन तीन बिन्दुओं के अध्ययन के उपरांत ‘निराला’ के मानवतावादी दृष्टिकोण की विराटता, गहनता और विस्तार को समझना आसान हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये तीनों बिन्दु ‘निराला’ के मानस के मानवीय पूर्णत्व से परिचित कराते हैं।


‘निराला’ का प्रथम उपन्यास ‘अप्सरा’ सन् 1931 में प्रकाशित हुआ। सन् 1933 में ‘अलका’, 1936 में प्रभावती एवं ‘निरुपमा’, 1946 में ‘चोटी की पकड़’ तथा 1950 में ‘कालेकारनामे’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। ‘निराला’ की विचार प्रक्रिया को आधार बना कर यह कहा जा सकता है कि लगभग 25 वर्ष तक ‘निराला’ गद्य साहित्य के माध्यम से मानवमूल्यों एवं संवेदनाओं के आकलन और उद्घाटन में संलग्न रहे। इस सतत् प्रवाहित प्रक्रिया के चलते उन्होंने ‘अप्सरा’ में समर्पण, त्याग और बलिदान की प्रेरणा का आधार बनाया। जीवन को आस्वाद की आश्वस्ति दी, कर्म की मानववादी मनोभूमि पर निर्भीकता और स्वावलम्बन को स्थापित किया। ‘अलका’ में नारी के स्वाभिमान, मानव का अधूरापन, मानवीय विवशता, विडम्बना, अत्याचार, उत्पीड़णन और शोषण के विविध रूपों को प्रस्तुत किया। ‘प्रभावती’ में नारी गौरव के साथ प्रेम की उन्मुक्त चेतना को रेखांकित किया। ‘निरुपमा’ में उन्होंने सामाजिक वैषम्य, नारी गरिमा के साथ मानसिक वृत्तियों का विश्लेषण एवं कर्मचेतना को प्रकट किया। ‘चोटी की पकड़’ और ‘कालेकारनामे’ उपन्यास स्वदेशी आंदोलन और आंदोलन की सामाजिक भूमिका पर आधारित है, जिन्हें मानवीय गरिमा, मानवीय औदात्य के साथ-साथ मानवीय बोध और मनुष्य की साधना को मुखर किया है।

‘निराला’ की कहानियां हैं -चतुरी चमार, देवी, राजा साहिब ने ठेंगा दिखाया, हिरनी, अर्थ, सफलता, क्या देखा, सुकुल की बीवी, श्रीमती गजानन और कला की रूपरेखा। ‘चतुरी चमार’ और ‘सुकुल की बीवी’ दो समांतर धरातल की कहानियां हैं। एक में मानवीय विडम्बना और जीवन का आक्रोश उद्घाटित हुआ है तो दूसरी में नारीजीवन की विडम्बना के प्रति रूढ़ि से मुक्ति का आह्वान किया गया है। ‘निराला’ ने ‘देवी’ में मानवीय पर्तां की अंदरूनी बखिया को सामने रखा है तो ‘राजा साहिब ने ठेंगा दिखाया’ में अभिजात्यवर्ग के बौद्धिक दिवालियापन पर कटाक्ष किया है। ‘हिरनी’ मानवीयबोध का प्रश्न उठाती है और ‘श्रीमती गजानन’ नारी के स्वाभिमान से ओतप्रोत है। ‘क्या देखा’ स्वच्छंद प्रेम की मानववादी अभिव्यक्ति है तो ‘कला की रूपरेखा’ मानवीय दुष्प्रवृत्तियों पर चोट करती है।

‘निराला’ के रेखाचित्र एवं संस्मरणों में ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ का सृजन निराला-साहित्य की अनन्यतम घटना मानी जा सकती है। वस्तुतः ‘कुल्लीभाट’ में कुल्ली का स्वरूप विद्रोही चेतना के उद्वेलन से आंदोलित हुआ है वहीं ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ को मनुष्य की महत्वाकांक्षा का प्रस्तुतिकरण कहा जा सकता है। ‘निराला’ ने जीवन को समझा, जिया और इसी जीवन को अपने गद्य साहित्य में सम्पूर्णता के साथ उतारा। ‘परिमल’ के छायावादी ‘निराला’, ‘कुकुरमुत्ता’ के प्रयोगवादी ‘निराला’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के चरित्र-अन्वेषी ‘निराला’ -इन तीनों में एक तत्व समान रूप से मौजूद है, वह है मानवतावादी दृष्टिकोण।    
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का कथा साहित्य, कोलाॅज़- डाॅ. शरद सिंह

       इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ‘निराला’ के कथा साहित्य को या तो केवल खानापूरी के लिए मूल्यांकित कर दिया जाता है अथवा बंधे-बंधाए नियमों और कसौटियों पर उसका परीक्षा कर के अपनी अध्ययन-मूल्यांकन की औपचारिकता की पूर्ति कर दी जाती है। यही कारण है कि ‘निराला’ का कथा साहित्य एक अप्रत्यक्ष उपेक्षा का शिकार रहा और वह प्रेमचंद के कथा साहित्य के प्रभामंडल के पीछे छिपा रह गया। ‘निराला’ के मानवतावाद को भली-भांति समझने के लिए उनके कथा साहित्य सहित समग्र साहित्य का पुनर्पाठ किया जाना जरूरी है।                    ---------------------- 

शून्यकाल ... गणतंत्र को ज़रूरत है सकारात्मक युवा शक्ति की - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल ... 
गणतंत्र को ज़रूरत है सकारात्मक युवा शक्ति की 
- डॉ. शरद सिंह
युवा देश का भविष्य होते हैं और युवाओं का भविष्य डिजिटल ज्ञान पर आधारित हो चला है। डिजिटल ज्ञान के लिए लिए जरुरी है कि युवा अपने बौद्धिक विकास पर ध्यान दें तथा संवैधानिक महत्ता को समझें और देश को अपराध मुक्त, आर्थिक सम्पन्न और वैज्ञानिक प्रगति का प्रतीक बना सकें। भारतीय गणतंत्र में युवाओं को अनेक अधिकार दिए गए। युवाओं की बौद्धिकता एवं समझबूझ को देखते हुए मतदान की आयु में संशोधन किया गया। यह माना गया कि आज का युवा अधिक विवेकशील और विचारवान है। वह तटस्थतापूर्वक राजनीतिक निर्णय ले सकता है। लेकिन विगत कुछ समय से युवाओं और विशेष रूप से अवयस्क युवाओं ने जिस प्रकार आपराधिक तेवर दिखाए हैं वह चौंकाने वाले हैं। आज वह समय है जब भारत समूचे विश्व की अगुवाई करने की स्थिति में आता जा रहा है। ऐसी स्थिति में युवाओं का भी दायित्व बनता है कि वे अपने देश की छवि और विकास के प्रति स्वयं को पूरी लगन और निष्ठा से प्रस्तुत करें।
गणतंत्र का आशय है वह तंत्र जनता द्वारा निर्धारित एवं शासित हो। बहुत ही सुंदर संकल्पना। यह हम भारतीयों का सौभाग्य है कि हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक हैं। इस गणतांत्रिक व्यवस्था को आकार में आए अब छः दशक से अधिक का समय हो चुका है। सन् 1950 में गणतंत्र की स्थापना के बाद हमने गणतांत्रिक मूल्यों में विश्वास किया है और उसी में जीवनयापन किया है। 69 वां गणतंत्र दिवस ... लगभग 68-69 वर्ष का समय कोई संक्षिप्त समय नहीं होता। इस बीच वैश्विक पटल पर पूंजीवाद ने पांव पसारे और साम्यवाद सिमटता चला गया। चीन एक विशेष शक्ति बन कर उभरा और कई अरब देश आतंकी संगठनों के निशाना बने। किन्तु भारतीय गणतंत्र अडिग बना रहा। इसका सबसे बड़ा कारण इसका संवैधानिक लचीलापन है। गणतंत्र का यह भी अर्थ है कि देश के नागरिकों के पास वह सर्वोच्च शक्ति होती है जिसके द्वारा वे देश के नेतृत्व के लिये राजनीतिक नेता के रुप में अपने प्रतिनिधि चुन सकते हैं। ये चुने हुए मुखिया वंशानुगत आधार पर नहीं होते हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता है। वहीं चुने हुए मुखिया का दायित्व होता है कि वह जनता के दुख-सुख का ध्यान रखते हुए देश के विकास के लिए काम करे। दुख है कि कुछ ऐसे अवसर भी आए हैं जब नागरिकों को चाहे स्थानीय स्तर पर, राज्य स्तर पर या फिर राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व चुनने के बाद ठगा-सा महसूस करना पड़ा। लेकिन जल्दी ही जनता ने अपनी भूल को सुधारते हुए सत्ता परिवर्तन का शंखनाद कर के जता दिया कि भारतीय गणतंत्र को किसी भी प्रकार की तानाशाही में नहीं बदला जा सकता है। और यह संभव हो सका तत्कालीन बुजुर्ग नेतृत्वकर्ताओं के साथ खड़ी होने वाली युवाशक्ति के कारण। जब कभी ऐसा लगने लगता है कि फलां धारा समसामयिक मूल्यों पर खरी नहीं उतर रही है तो उसमें बेझिझक आवश्यक संशोधन कर लिए जाते हैं। भारतीय गणतंत्र में युवाओं को भी अनेक अधिकार दिए गए। युवाओं की बौद्धिकता एवं समझबूझ को देखते हुए मतदान की आयु में संशोधन किया गया। यह माना गया कि आज का युवा अधिक विवेकशील और विचारवान है। वह तटस्थतापूर्वक राजनीतिक निर्णय ले सकता है। लेकिन विगत कुछ समय से युवाओं और विशेष रूप से अवयस्क युवाओं ने जिस प्रकार आपराधिक तेवर दिखाए हैं वह चौंकाने वाले हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा दिए गए आंकाड़ें विगत कुछ वर्षों से निरंतर चकित रहे हैं। यदि वर्ष 2013 के आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो वर्ष 2013 में गिरफ्तार किए गए अवयस्क अपराधियों में कुल 35244 अवयस्क अपराधी ऐसे थे जो अपने अभिभावकों के साथ ही रहते हुए अपराध में लिप्त थे। प्राप्त आकड़ों के अनुसार, गिरफ्तार किए गए 16-18 आयु वर्ग के नाबालिगों की संख्या साल 2003 से 2013 तक बीच बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई थी। अवयस्कों द्वारा किए जा रहे संगीन अपराधों में निरंतर वृद्धि को देखते हुए जनवरी 2018 में हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को आदेश दिया था दिल्ली पुलिस नाबालिगों के किए गए अपराध का भी डोजियर बनाए। ये डोजियर 16 से 18 साल के उन नाबालिगों का बनेगा जो संगीन अपराध करते हैं। माह जनवरी 2018 में दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें खुलासा किया गया था कि दिल्ली में हुए अपराधों में वर्ष 2016 में नाबालिगों द्वारा 18 फीसदी अपराध किए गए, इनमें हत्या और रेप जैसी संगीन वारदातें भी शामिल हैं। इसके अलावा 27 प्रतिशत चोरी और लूट के मामलों में भी नाबालिगों की भूमिका पाई गई। पुलिस के मुताबिक अपराध करने वालों में 16 से 18 वर्ष की आयु के नाबालिग ज्यादा हैं। ये रिपोर्ट हाईकोर्ट में दिल्ली पुलिस ने पश्चिमी दिल्ली में हुए मर्डर के साथ पेश की। इस मर्डर में तीन नाबालिगों ने एक राहगीर से 600 रुपए लूटे थे और जब उसने इसका विरोध किया था तो उन लोगों ने उसकी निर्ममता से हत्या कर दी थी। इस मामले में तीनों नाबालिगों को बाल सुधार गृह भेजा गया था। पुलिस ने दलील दी थी कि तीनों नाबालिग की उम्र 18 साल में महज तीन से पांच महीने का अंतर था। इस पर हाईकोर्ट ने कहा कि कानून को नहीं बदला जा सकता, लेकिन ये जरूर किया जा सकता है कि इनके डोजियर को बनाया जाए, ताकि भविष्य में जब ये लोग इस तरह के अपराधों को करें तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सके। इससे पूर्व सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय की रिपोर्ट पर गृह मंत्रालय केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट पेश कर चुका है, जिसके तहत 17 साल से अधिक के नाबालिग जो संगीन अपराध करते हैं उन्हें भी आम बदमाशों की श्रेणी में रखा जाए। इस पर जुलाई, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि जब नाबालिग अपराध करने में नहीं कतराते और उनके उम्र को हथियार बनाकर क्राइम को पेशा बना लिया है तो ऐसे में इन लोगों के खिलाफ सख़्त कानून बनाना चाहिए।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 29.01.2020
      राजधानी दिल्ली में 16 दिसम्बर, 2012 को निर्भया के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना में एक नाबालिग भी लिप्त था। उस समय नाबालिगों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की देश भर में पुरजोर मांग की गई थी। इस घटना को दो साल पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2013 में नाबालिगों द्वारा छेड़छाड़ और बलात्कार के मामलों में 132 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। विगत एक-दो माह में जो घटनाएं सामने आई हैं वह और अधिक चिन्ता में डालने वाली हैं। गुरुग्राम के एक नामी स्कूल के एक लड़के ने स्कूल के एक बच्चे की हत्या केवल इसलिए कर दी, ताकि कुछ दिनों के लिए परीक्षा टल जाए, नोएडा में तो एक लड़के ने अपनी मां और बहन को इसलिए मार डाला, क्योंकि वे उसे डांटते थे तथा एक नाबालिग छात्र ने गुस्से में आ कर अपनी स्कूल शिक्षिका पर गोलियां बरसा दीं। ये घटनाएं भारतीय गणतंत्र के लिए चुनौती के समान हैं। यह भारतीय संस्कृति का भी चेहरा नहीं है। नवीन कुमार जग्गी, वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष, बालकन का मानना है कि ‘‘गंभीर अपराध करने पर नाबालिग को छोड़ा नहीं जाना चाहिए क्योंकि बार-बार अपराध करने वालों के सुधरने की संभावना नहीं रहती है। आयुसीमा का लाभ उठाकर नाबालिग अपराध करते हैं जिसका नुकसान समाज को उठाना पड़ता है। मेरा मानना है कि नाबालिग को अपराध के अनुपात में दंड मिलना चाहिए।’’
जिस तरह युवाओं में बढ़ती अपराध की प्रवृत्ति एक सच है, उसी तरह यह भी सच है कि कोई भी युवा जन्म ये अपराधी नहीं होता है। वातावरण उसे अपराध की ओर धकेल देता है। यदि आज युवा गंभीर अपराध में लिप्त दिखाई दे रहे हैं तो कहीं न कहीं दोष उस वातावरण का है जो ग्लोबलाईजेशन और इन्टरनेट के माध्यम से भ्रमित कर रहा है। वैसे इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता है कि जिस तरह युवाओं में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती दिखाई दे रही है वहीं दूसरी ओर आत्मविश्वास से भरी-पूरी युवा खेप भी नज़र आती है। आत्मविश्वास से भरा युवा वर्ग अपने कैरियर के प्रति जागरूक रहता है। वह अपने भविष्य का फैसला खुद करके स्वयं को सक्षम साबित करने के लिए तत्पर रहता है। आज का युवा मेहनत से नहीं घबराता है। वह सरकारी नौकरियों के बंधे-बंधाएं वेतन की बजाय पे पैकेज को बेहतर मानता है। लेकिन यहां चिन्ता का विषय यह है कि पैकेज़ब्रांड युवा वर्ग ‘‘हाई लाईफ-हाई लिविंग’’ के उसूलों पर चलते हुए विदेशों की ओर मुंह कर के खड़ा रहता है। उनके माता-पिता भी गर्व करते हैं यदि उनकी आंखों का तारा अपना देश छोड़ कर उनसे सात समुन्दर पार चला जाता है। जिस आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और दृढ़निश्चयी युवा शक्ति की देश के गणतंत्र को आवश्यकता है वे देश से पलायन के सपने बुनते रहते हैं।

आज वह समय है जब भारत समूचे विश्व की अगुवाई करने की स्थिति में आता जा रहा है। ऐसी स्थिति में युवाओं का भी दायित्व बनता है कि वे अपने देश की छवि और विकास के प्रति स्वयं को पूरी लगन और निष्ठा से प्रस्तुत करें। इसके लिए युवाओं के माता-पिता को भी अपने दिवास्वप्नों से बाहर निकलना होगा, इससे उनकी संतानें उनके पास रहते हुए देश के विकास में भागीदार बन सकेंगी और उनका वृद्धावस्था का अकेलापन भी दूर कर सकेंगी। उन युवाओं को भी समझना होगा जो अपराध के प्रति आकर्षित होते हैं कि वे अपराध कर के बच तो पाएंगे नहीं, वरन् अपना और अपने परिवार का जीवन भी बरबाद कर बैठेंगे। वस्तुतः प्रत्येक युवा को यह समझना चाहिए कि गणतंत्र वह संवैधानिक वातावरण है जो उन्हें अवांछित अथवा अवैधानिक बिना दबाव के जीने और बहुमुखी विकास करने के अवसर देता है।
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 29.01.2020)

Sunday, January 26, 2020

ध्वजारोहण, गणतंत्र दिवस, 26जनवरी 2020

Flag Hosting, Republic Day, 26 January 2020 - Dr (Miss) Sharad Singh
तिरंगा  सदा फहराता रहे
गगन चूमता, लहराता रहे
- डॉ शरद सिंह
Flag Hosting, Republic Day, 26 January 2020 - Dr (Miss) Sharad Singh
Flag Hosting, Republic Day, 26 January 2020 - Dr (Miss) Sharad Singh
Flag Hosting, Republic Day, 26 January 2020 - Dr Varsha Singh
Flag Hosting, Republic Day, 26 January 2020 - Dr (Miss) Sharad Singh

Saturday, January 25, 2020

गणतंत्र हमारा - डॉ शरद सिंह

Happy Republic Day by Dr (Miss) Sharad Singh

आजादी का भान कराता है गणतंत्र हमारा।
दुनिया भर में मान बढ़ाता है गणतंत्र हमारा।
- डॉ शरद सिंह
🇮🇳 गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🇮🇳

#HappyRepublicDay

शून्यकाल ... बच्चों को स्कॉलर बना रहे हैं या हम्माल ? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
बच्चों को स्कॉलर बना रहे हैं या हम्माल ?
  - डॉ. शरद सिंह
      स्कूलों में बच्चों की भर्ती का समय सिर पर आते ही उसका दबाव हर माता-पिता के चेहरे पर देखा जा सकता हैं। भर्ती के बाद बच्चों के पीठ पर लदने वाले बस्ते के वज़न को देख कर घबराहट होती हैं। नन्हें बच्चों के नाज़ुक कंधों पर बस्ते का भारी बोझ देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। आखिर हमारे शिक्षानीति निर्माता कब उतारेंगे इस बोझ को बच्चों के कोमल कंधों से?                                                     
एक चौंकाने वाली किन्तु ऐतिहासिक घटना, अगस्त 2016, महाराष्ट्र के चंद्रपुर कस्बे के कक्षा 7 वीं में पढ़नेवाले दो बच्चे, उम्र लगभग 12 साल, प्रेस क्लब पहुंचे और उन्होंने कहा कि वे अख़बारवालों से बात करना चाहते है। उनका आशय बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से था। उनकी यह मांग सुन कर प्रेसक्लब में बैठे पत्रकार चकित रह गए। उन्होंने दोनों बच्चों के लिए आनन-फानन में प्रेस कॉन्फ्रेंस की व्यवस्था करा दी। दोनों बच्चों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारी बस्तों की समस्या पर चर्चा की। बच्चों ने कहा कि हर रोज उन्हें अपने बैग में रख कर 18-20 किताबें स्कूल ले जानी पड़ती हैं। जिससे बस्ते का वजन लगभग 7-8 किलो हो जाता है। वे थक जाते हैं और ढंग से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं। उनके कंधे और कमर में दर्द रहने लगा है।  अपनी पीड़ा बयान करते हुए उन बच्चों ने चेतावनी भी दी कि यदि बस्ते हल्के नहीं किए जाते तो बच्चे अनशन करेंगे। दो बच्चों की इस बच्चों की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने हंगामा मचा दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता को अपने संज्ञान में लेते हुए महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि बच्चों के बैग के वजन को हल्का किया जाए। महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को स्वीकार तो किया किन्तु इसका समुचित पालन नहीं करा पाई। गैरजरूरी मामले की भांति बच्चों के बस्ते के वजन का मामला प्रत्येक राज्य सरकारों द्वारा बहुत जल्दी ठंडे बस्ते में सरका दिया जाता है। 

एक ऑटोवाला या मज़दूर भी यह सपना देखने का अधिकार रखता है कि उसके बच्चे किसी अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ें और बड़े हो कर किसी अच्छे पद पर काम करें। वह अपनी पूरी जान लड़ा देता है बच्चों की फीस भरने और उनकी कापी-किताब, यूनीफॉर्म सहित उन तमाम खर्चों को पूरा करने के लिए जो अच्छे प्राईवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जरूरी होते हैं। बस, नहीं संवार पाता है तो अपने बच्चे की सेहत। वह उसे उतना पौष्टिक भोजन नहीं दे पाता है जितना कि उसके दो से ले कर आठ-दस किलो तक के बस्ते को ढोन के लिए जरूरी है। इकहरे बदन का सींकिया-सा बच्चा और उसके कंधों पर दस किलो का वज़न जिसमें पानी की बोतल भी शामिल है। उस बच्चे को देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। हिन्दी माध्यम या सरकारी स्कूलों की दशा तो और भी बदतर रहती है। वहां बच्चों के कोमल कंधों पर लदे हुए बस्ते के इस बोझ को देखने वाला और भी कोई नहीं होता है। उस पर ऐसे स्कूलों में प्रायः कमज़ोर तबके के बच्चे पढ़ने जाते हैं जिन्हें पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। शारीरिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को भी तन्दुरुस्त बच्चों जितना बस्ते करा वज़न ढोना पड़ता है। जो उनकी सेहत को और अधिक नुकसान पहुंचाता है। पौष्टिक भोजन के नाम पर कई स्कूलों में मिड-डे मील की दुहाई दी जाती है। तो क्या बच्चों को इसीलिए मिड-डे मील दिया जाता है ताकि वे बसते का बोझा ढो सकें।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 24.01.2020

          चिकित्सकों के अनुसार कक्षा 1 से 2 के बच्चों को महज 1 किलो, कक्षा 3 से 4 में पढ़नेवाले बच्चों को 2 किलो, कक्षा 5 से 7 में पढ़नेवाले बच्चों को 4 किलो और कक्षा 8 से ऊपर कक्षा में पढ़नेवाले बच्चों को 5 किलो तक का ही बैग का वज़न होना चाहिए। भारी बैग के चलते बच्चों की रीढ़ की हड्डी को नुकसान, फेफड़ों की समस्या होने की संभावनाएं होती है। और सांस लेने में  दिक्कत जैसे कई समस्याओँ उठानी पड़ सकती है। मगर सवाल वहीं है कि यह वज़न भी शारीरिक रूप से मजबूत बच्चे के लिए सही हो सकता है, कमजोर बच्चे के लिए नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिमाग़ से तेज लेकिन शरीर से कमजोर बच्चे सिर्फ़ बस्ते के बोझ के दबाव से पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं। 
आज से लगभग 27 साल पहले वर्ष 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ और उनके कमजोर कंधों का गंभीरता से अध्ययन किया। इसके बाद यशपाल कमेटी ने जुलाई 1993 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए थे। जिनका भरपूर स्वागत भी हुआ लेकिन अफ़सोस कि सुधार ईमानदारी से अमल में नहीं लाया गया। उस समय यह राय भी दी गई थी कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठय़ पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठय़ पुस्तक के सवाल-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेष रूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है।
यशपाल कमेटी के लगभग 14 साल बाद वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून भी लागू नहीं हो सका।  भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पोश्चर पर असर पड़ता है। क्षमता से अधिक वज़न उठाने से बच्चों में कमज़ोरी और थकान रहने लगती है।’’

इसके बाद स्कूली बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने निर्देश जारी किया। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि किस कक्षा के बच्चों के बैग का वजन कितना होना चाहिए। वैसे स्कूलों में बच्चों के पीठ पर बस्ते का बोझ हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है। अभिभावकों ने जहां इसे लेकर चिंता जताई, वहीं डॉक्टरों ने भी बच्चों की सेहत की दृष्टि से इसे सही नहीं बताया। बस्ते के बोझ को कम करने को लेकर समय-समय पर संबंधित विभागों की ओर से निर्देश भी जारी होते रहे हैं। कुछ महीने पहले मद्रास हाई कोर्ट ने बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने और पहली तथा दूसरी कक्षा तक के बच्चों को होमवर्क नहीं देने के निर्देश दिए थे, जो देशभर में चर्चा का विषय बन गई थी। अब केंद्र सरकार ने इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी किए। इसी आधार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए। इसमें राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से कहा गया कि वे स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूल बैग के वजन को लेकर भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार नियम बनाएं। इसमें कहा गया कि पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन डेढ़ किग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी तरह तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बैग का वजन 2-3 किग्रा, छठी से 7वीं के बच्चों के बैग का वजन 4 किग्रा, 8वीं तथा 9वीं के छात्रों के बस्ते का वजन साढ़े चार किग्रा और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन 5 किलोग्राम होना चाहिए।

 उल्लेखनीय है कि चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि बच्चे के वजन के दस प्रतिशत का निर्धारण हर बच्चे के लिए अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर एक औसत मानक हर बच्चे के लिए उपयुक्त भी नहीं हो सकता है। इस समस्या का एक पक्ष और भी है। मंहगें प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को डिज़िटल पुस्तकें और स्कूल में लॉकर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे वे बोझमुक्त रह सकें। लेकिन सामान्य स्कूलों में यह सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाती है। ग्रामीण बच्चे जो बिजली की लुकाछिपी से जूझते रहते हैं वे डिज़िटल किताबों की सुविधा का लाभ ठीक से उठा भी नहीं सकते हैं। जिन बच्चों को स्कूलबस नसीब हो जाती है वे तो फिर भी खुशनसीब हैं लेकिन जिन बच्चों को पीठ पर बस्ते का भारी बोझ लाद कर चार-पांच कि.मी. या उससे भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है या फिर रस्सी बांध कर बनाए गए पुलों से हो कर गुज़रना पड़ता है, उन पर उनके वज़न के दस प्रतिशत बोझ को लागू करना भला कैसे न्यायसंगत हो सकता है?

कुलमिला कर यही तस्वीर बनती है कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता का अभाव है और अभाव है बच्चों की सेहत की सुरक्षा का। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के बावजूद आज भी करोड़ों बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाने को विवश है। शिक्षा नीति और शिक्षा योजनाओं के व्यवहारिक निर्माण और उसके अनुपालन की अभी भी कमी है। देश के हर बच्चे तक डिज़िटल पढ़ाई की सुविधा पहुंचाने से ही इस समस्या का हल निकल सकता है जिसके लिए सरकार द्वारा ईमानदार पहल और कड़ाई से पालन कराने की दृढ़इच्छाशक्ति की दरकार है।        
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 24.01.2020)
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Friday, January 24, 2020

शून्यकाल ... हमने ब्रांड बना दिया भावनाओं और कर्त्तव्यों को भी - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल 

हमने ब्रांड बना दिया भावनाओं और कर्त्तव्यों को भी  
-  डॉ. शरद सिंह         
           
    यदि राज्य एक ब्रांड है, बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है तो हम अपने युवाओं से राष्ट्रप्रेम की आशा रखें अथवा बाज़ारवाद की? हमने अपने सुरक्षा बलों को भी ब्रांड बना दिया और उनके लिए ब्रांड एम्बेसडर भी अनुबंधित कर लिए गए। जैसे- सीआरपीएफ की ब्रांड एम्बेसडर है पी. वी. सिन्धु तो बीएसएफ के ब्रांड एम्बेसडर है विराट कोहली। यदि राष्ट्र और मानवता के प्रति भावनाएं एवं कर्त्तव्य भी ब्रांड बन कर प्रचारित होने का समय हमने ओढ़ लिया है जो भारतीय विचार संस्कृति के मानक पर यह ब्रांडिंग कहां सही बैठती है, यह विचारणीय है।                                          
हम आज ब्रांडिग के समय में जी रहे हैं। हमारे शौच की व्यवस्था से ले कर राज्य, कर्त्तव्य और संवेदनाओं की भी ब्रांंडग होने लगी है। ब्रांड क्या है? ब्रांड उत्पाद वस्तु की बाजार में एक विशेष पहचान होती है जो उत्पाद की क्वालिटी को सुनिश्चित करती है, उसके प्रति उपभोक्ताओं में विश्वास पैदा करती है। क्यों कि उत्पाद की बिक्री की दशा ही उत्पादक कंपनी के नफ़ा-नुकसान की निर्णायक बनती है। कंपनियां अपने ब्रांड को बेचने के लिए और अपने ब्रांड के प्रति ध्यान आकर्षित करने के लिए ‘ब्रांड एम्बेसडर’ अनुबंधित करती हैं। यह एक पूर्णरुपेण बाज़ारवादी आर्थिक प्रक्रिया है। कमाल की बात यह है कि ब्रांडिग हमारे जीवन में गहराई तक जड़ें जमाता जा रहा है। इसी लिए नागरिक कर्त्तव्यों, संवेदनाओं एवं दायित्वों की भी ब्रांडिंग की जाने लगी है, गोया ये सब भी उत्पाद वस्तु हों।

आजकल राज्यों के भी ब्रांड एम्बेसडर होते हैं। जबकि राज्य एक ऐसा भू भाग होता है जहां भाषा एवं संस्कृति के आधार पर नागरिकों का समूह निवास करता है। - यह एक अत्यंत सीधी-सादी  परिभाषा है। यूं तो राजनीतिशास्त्रियों ने एवं समाजवेत्ताओं ने राज्य की अपने-अपने ढंग से अलग-अलग परिभाषाएं दी है। ये परिभाषाएं विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित हैं। राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन के अधीन हो। राज्य संप्रभुतासम्पन्न हो सकते हैं। जैसे भारत के प्रदेशों को ’राज्य’ कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। इसके अलावा युद्ध को राज्य की उत्पत्ति का कारण यह सिद्धांत मानता है जैसा कि वाल्टेयर ने कहा है प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था। इस सिद्धांत के अनुसार शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र आधार है शक्ति का आशय भौतिक और सैनिक शक्ति से है। प्रभुत्व की लालसा और आक्रमकता मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है। प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्तिशाली शासन करते हैं और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते हैं। वर्तमान राज्यों का अस्तित्व शक्ति पर ही केंद्रित है। ऐसा राज्य क्या कोई उत्पाद वस्तु हो सकता है? जिसके विकास के लिए ब्रांडिंग की जाए?

शौचालय, और स्वच्छता की ब्राडिंग किया जाना और इसके लिए ब्रांड एम्बेसडर्स को अनुबंधित किया जाना बाजारवाद का ही एक नया रूप है। बाज़ारवाद वह मत या विचारधारा है जिसमें जीवन से संबंधित हर वस्तु का मूल्यांकन केवल व्यक्तिगत लाभ या मुनाफ़े की दृष्टि से ही  किया जाता है, मुनाफ़ा केंद्रित तंत्र को स्थापित करने वाली विचारधारा, हर वस्तु या विचार को उत्पाद समझकर बिकाऊ बना देने की विचारधारा। बाजारवाद में व्यक्ति उपभोक्ता बनकर रह जाता है, पैसे के लिए पागल बन बैठता है, बाजारवाद समाज को भी नियंत्रण में कर लेता है, सामाजिक मूल्य टूट जाते हैं। बाजारवाद एक सांस्कृतिक पैकेज होता है। जो उपभोक्ता टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करता है, वह एयर कंडीशनर में ही सोना पसन्द करता है, एसी कोच में यात्रा करता है और बोतलबंद पानी साथ लेकर चलता है। इस संस्कृति के चलते लौह उत्खनन से लेकर बिजली, कांच और ट्रांसपोर्ट की जरूरत पड़ती है। यूरोप और अमेरिका में लाखों लोग केवल टॉयलेट पेपर के उद्योग में रोजगार पाते हैं। यह सच है कि बाजारवाद परंपरागत सामाजिक मूल्यों को भी तोड़ता है।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 24.01.2020

जीवनस्तर में परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे भागता है। उसकी इसी प्रवृत्ति को बाज़ार अपना हथियार बनाता है। यदि बाजार का स्वच्छता से नुकसान हो रहा है तो वह स्वच्छता को क्यों बढ़ने देगा? पीने का पानी गंदा मिलेगा तो इंसान वाटर प्यूरी फायर लेगा, हवा प्रदूषित मिलेगी तो वह एयर प्यूरी फायर लेगा। इस तरह प्यूरी फायर्स का बाज़ार फलेगा-फूलेगा। इस बाजार में बेशक नौकरियां भी मिलेंगी लेकिन बदले में प्रदूषित वातावरण बना रहेगा और सेहत पर निरंतर चोट करता रहेगा तो इसका खामियाजा भी तो हमें ही भुगतना होगा। 

स्वच्छता बनाए रखना एक नागरिक कर्त्तव्य है और एक इंसानी पहचान है। यदि इसके लिए भी ब्रांडिंग की जरूरत पड़े तो वह कर्त्तव्य या पहचान कहां रह जाता है? वह तो एक उत्पाद वस्तु है और जिसके पास धन है वह उसे प्राप्त कर सकता है, जिसके पास धन की कमी है वह स्वच्छता मिशन के बड़े-बड़े होर्डिंग्स के नीचे भी सोने-बैठने की जगह हासिल नहीं कर पाता है। 

भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ का सीधा संबंध हमारी मानवीयता एवं संवेदनशीलता से है। यह भावना हमारे भीतर स्वतः जागनी चाहिए अथवा सरकार जो इन अभियानों की दिशा में प्रोत्साहनकारी कार्य करती है उन्हें संचालित होते रहना चाहिए। जब बात आती है इन विषयों के ब्रांड एम्बेसडर्स की तो फिर प्रश्न उठता है कि क्या बेटियां उपभोक्ता उत्पाद वस्तु हैं या फिर भ्रूण की सुरक्षा के प्रति हमारी संवेदनाएं महज विज्ञापन हैं। आज जो देश में आए दिन आपराधिक घटनाएं बढ़ रही हैं तथा संवेदना का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि जाने-अनजाने हमारी तमाम कोमल संवेदनाएं बाजार के हाथों गिरवी होती जा रही हैं।
बात उत्पादन की बिक्री की हो तो उचित है किन्तु बाजार से हो कर गुजरने वाले कर्त्तव्यों में दिखावा अधिक होगा और सच्चाई कम। ब्रांड एम्बेसडर अनुबंधित करने के पीछे यही धारणा काम करती है कि जितना बड़ा अभिनेता या लोकप्रिय ब्रांड एम्बेसडर होगा उतना ही कम्पनी को आय कमाने में मदद मिलती है क्योंकि लोग वो सामान खरीदते है। अमूमन जितना बड़ा ब्रांड होता है उतना ही महंगा या उतना ही लोकप्रिय व्यक्ति ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाता है क्योंकि बड़ा ब्रांड अधिक पैसे दे सकता है जबकि छोटा ब्रांड कम और ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो ब्रांड का प्रतिनिधित्व करता है, उसकी फीस करोड़ों में होती है। एक तो अगर जनता उस व्यक्ति को अगर रोल मॉडल मानती है तो ऐसे में लोगो के दिलों में जगह बनाना आसान हो जाता है। 

सड़क सुरक्षा अभियान के ब्रांड एम्बेसडर है अक्षय कुमार, फिट इंडिया अभियान के ब्रांड एम्बेसडर है सोनू सूद, पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास के ब्रांड एम्बेसडर है एम, सी, मैरीकॉम, असम राज्य के ब्रांड एम्बेसडर है हिमा दास, अरुणाचल प्रदेश राज्य के ब्रांड एम्बेसडर है जॉन अब्राहम, हरियाणा (योग और आयुर्वेद) के ब्रांड एम्बेसडर है, बाबा रामदेव, तेलंगाना राज्य के ब्रांड एम्बेसडर है सानिया मिर्जा और महेश बाबू। इसी प्रकार सिक्किम राज्य के ब्रांड एम्बेसडर है ए. आर. रहमान, गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स (जीएसटी) के ब्रांड एम्बेसडर है अमिताभ बच्चन, हरियाणा के स्वास्थ्य कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर है गौरी शोरान, स्वच्छ आदत, स्वच्छ भारत के ब्रांड एम्बेसडर है काजोल, स्वच्छ आंध्र मिशन के ब्रांड एम्बेसडर है पी. वी. सिंधु, स्वच्छ भारत मिशन की ब्रांड एम्बेसडर है शिल्पा शेट्टी, स्वच्छ भारत मिशन उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड के ब्रांड एम्बेसडर है अक्षय कुमार, भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट) की ब्रांड एम्बेसडर है दीया मिर्जा, असम राज्य पर्यटन की ब्रांड एम्बेसडर है प्रियंका चोपड़ा, स्किल इंडिया अभियान की भी ब्रांड एम्बेसडर है प्रियंका चोपड़ा, ‘माँ’ अभियान की ब्रांड एम्बेसडर है माधुरी दीक्षित, हेपेटाइटिस-बी उन्मूलन के ब्रांड एम्बेसडर है अमिताभ बच्चन, अतुल्य भारत अभियान के ब्रांड एम्बेसडर है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारत के पशुपालन बोर्ड के ब्रांड एम्बेसडर है अभिनेता रजनीकांत, किसान चैनल के ब्रांड एम्बेसडर है अमिताभ बच्चन, स्वच्छ साथी कार्यक्रम की ब्रांड एम्बेसडर है दीया मिर्जा, निर्मल भारत अभियान की ब्रांड एम्बेसडर है विद्या बालन, डिजिटल भारत की ब्रांड एम्बेसडर है कृति तिवारी, उत्तर प्रदेश के समाजवादी किसान बीमा योजना के ब्रांड एम्बेसडर है अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दकी।

ब्रांडिग का क्रम यही थम जाता तो भी गनीमत था। गोया हमने अपने सुरक्षा बलों को भी ब्रांड बना दिया और उनके लिए ब्रांड एम्बेसडर भी अनुबंधित कर लिए गए। जैसे- सीआरपीएफ की ब्रांड एम्बेसडर है पी. वी. सिन्धु और बीएसएफ के ब्रांड एम्बेसडर है विराट कोहली। यदि हमने सुरक्षा बलों के लिए सिर्फ एम्बेसडर यानी राजदूत रखा होता तो बात थी लेकिन हमने तो ब्रांड एम्बेसडर रखा।

यदि राज्य एक ब्रांड है, बेटी बचाओ एक ब्रांड है, स्वच्छता मिशन एक ब्रांड है, शौचालय का उपयोग एक ब्रांड है, निर्मलजल एक ब्रांड है और अतुल्य भारत अभियान एक ब्रांड है तो हम अपने युवाओं से राष्ट्रप्रेम की आशा रखें अथवा बाज़ारवाद की? यदि राष्ट्र और मानवता के प्रति भावनाएं एवं कर्त्तव्य भी ब्रांड बन कर प्रचारित होने का समय हमने ओढ़ लिया है जो भारतीय विचार संस्कृति के मानक पर यह ब्रांडिंग कहां सही बैठती है, यह विचारणीय है।    
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 24.01.2020)
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Wednesday, January 22, 2020

चर्चा प्लस... दया मांगने वालो! तुमसे भी तो मांगी थी निर्भया ने दया की भीख- डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 
दया मांगने वालो! तुमसे भी तो मांगी थी निर्भया ने दया की भीख
- डॉ. शरद सिंह
      अपराधी और अपराधियों का साथ देने वाले किस तरह कानून से खेलते हैं इसका ताज़ा उदाहरण निर्भया के गुनाहगारों के मामले में साफ़ देखा जा सकता है। आज जो महामहिम राष्ट्रपति के समक्ष दया की याचिका प्रस्तुत कर रहे हैं, उन्हें वो पल याद करने चाहिए जब निर्भया ने गिड़गिड़ाते हुए उनसे रहम की भीख मांगी होगी। उसने तो कोई गुनाह भी नहीं किया था फिर भी इन दरिंदों ने उसे नृशंता की हदें पार करते हुए मौत के मुंह में धकेल दिया। उस पर शर्मनाक बात यह कि आज इस अतिसंवेदनशील मुद्दे को राजनीति का मोहरा बना कर खेला जा रहा है।      

एक ओर जहां निर्भया के माता-पिता और पूरा देश सात साल से उसके गुनहगारों को फांसी पर लटकता देखने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वहीं सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह के एक बयान ने विवाद खड़ा कर दिया। इंदिरा जयसिंह ने निर्भया की मां से अपील कर डाली कि वह दोषियों को माफ कर दें। इंदिरा के इसी बयान से निर्भया की मां आशादेवी के मन को चोट पहुंची और उन्होंने नाराज होते हुए पूछा कि ‘‘क्या आपकी बेटी या आपके साथ ऐसा होता तब भी आप यहीं कहतीं?’’ दरअसल, इंदिरा जयसिंह ने ट्वीट किया था, ‘मैं आशा देवी के दर्द से पूरी तरह से वाकिफ हूं। मैं उनसे अनुरोध करती हूं कि वह सोनिया गांधी के उदाहरण का अनुसरण करें जिन्होंने नलिनी को माफ कर दिया और कहा कि वह उसके लिए मौत की सजा नहीं चाहती हैं। हम आपके साथ हैं लेकिन मौत की सजा के खिलाफ हैं।’ हर व्यक्ति इस ट्वीट पर अचंभित रह गया। दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं, फिर यह आग्रह क्यों? वह भी एक वरिष्ठ वकील, उस पर एक महिला द्वारा? उनका यह ट्वीट ट्रोल किया गया। जहां तक संवेदनाओं की गिरावट का प्रश्न है तो राजनीतिक स्तर पर निर्भया केस को जिस तरह बिसात बना दिया गया है और उस पर गुनहगारों की सज़ा के मुद्दे को मोहरा बना कर चालें चली जा रही हैं, वह अत्यंत शर्मनाक है। दिल्ली के आगामी चुनावों के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से राजनीतिक दल एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, उससे उनकी अमानवीयता ही उजागर हो रही है। निर्भया जो आज रेप-पीड़िताओं को न्याय दिलाने की प्रक्रिया की प्रतीक बन चुकी है, उसके प्रति असंवेदना भर्त्सना योग्य है।

निर्भया केस को 7 साल बीत चुके हैं। अभी भी पूरे देश को गुनहगार मुकेश, विनय और अक्षय और पवन की फांसी की प्रतीक्षा है। 16 दिसंबर की वो काली रात कोई भुला नहीं सकता है, जब दिल्ली के मुनिरका क्षेत्र में निर्भया के साथ नृशंसता बरती गई थी। उस दिन पैरामेडिकल की छात्रा निर्भया अपने एक दोस्त के साथ साकेत स्थित सेलेक्ट सिटी मॉल में ‘‘लाइफ ऑफ पाई’’ फिल्म देख कर लौट रही थी। लौटने के लिए दोनों ऑटो पर सवार हुए। ऑटोवाले ने मुनीरका बसस्टैंड तक उन्हें छोड़ा। उस समय रात्रि के मात्र साढ़े आठ बजे थे। वहां से उन्हें घर हुंचने का दूसरा साधन पकड़ना था। एक सफेद रंग की बस पहले से वहां खड़ी थी। जिसमें एक लड़का  बार-बार कह रहा था चलो कहां जाना है। बस में 6 लोग मौजूद थे और ऐसे दिखावा कर रहे थे जैसे काफी सवारी आने वाली हैं। निर्भया और उसके दोस्त उसे सामान्य बस समझ कर सवार हो गए। तब निर्भया को क्या पता था कि वह मौत की सवारी करने जा रही है।
चर्चा प्लस, डाॅ. शरद सिंह, दैनिक  सागर दिनकर, 

                बस चल पड़ी। फिर कुछ ही देर में उन लड़कों के असली चेहरे सामने आ गए। बस के दरवाज़े बंद कर दिए गए। निर्भया का मोबाईल फोन छीन लिया गया। निर्भया के दोस्त को बुरी तरह पीटा गया और निर्भया के साथ नृशंसता की हदें पार की जाने लगीं। वह रोती, गिड़गिड़ाती, चींखती रही मगर दरिंदों को उसकी दया की गुहार सुनाई नहीं दी। जब उन लड़कों को लगा कि निर्भया और उसके दोस्त मरणासन्न हो चुके हैं तो उन्हें मरने के लिए बस के बाहर फेंक कर रवाना हो गए। दिसंबर की कड़ाके ठंड वाली रात और मरणासन्न निर्भया। निर्भया का दोस्त होश में था। उसने वहां से गुज़रने वालों से मदद मांगी। कई लोगों ने अनदेखा किया किन्तु अंततः एक बाईक सवार ने पुलिस तक सूचना भिजवाई। तब कहीं जा कर निर्भया को अस्पताल पहुंचाया जा सका।
निर्भया की दशा देख कर चिकित्सकों तक की आत्मा कांप उठी। दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा था कि उनमें इतनी हिम्मत नहीं कि वो पीड़ित लड़की को देखने जा सकें। यद्यपि कांग्रेस की पूर्वअध्यक्ष सोनिया गांधी ने सफदरजंग अस्पताल जाकर पीड़िता का हालचाल जाना था। निर्भया की बिगड़ती दशा देखकर सरकार ने उसे सिंगापुर के माउन्ट एलिजाबेथ अस्पताल भेजा। किन्तु 29 दिसंबर को निर्भया ने रात के करीब सवा दो बजे वहां दम तोड़ दिया।
इस घटना के बाद देश भर में आंदोलन की आग फैल गई। पूरा देश बलात्कारियों के लिए मृत्युदंड की मांग करने लगा। संसद में इसे लेकर जमकर हंगाम हुआ। सड़कों और सोशल मीडिया पर बार-बार आवाज़ें उठाई जा रही थीं। दिल्ली के साथ-साथ देश में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे थे। मामला कोर्ट में चल रहा था। घटना के दो दिन बाद 18 दिसंबर 2012 को दिल्ली पुलिस ने छह में से चार आरोपियों राम सिंह, मुकेश, विनय शर्मा और पवन गुप्ता को गिरफ्तार किया। वहीं 21 दिसंबर 2012 दिल्ली पुलिस ने पांचवां नाबालिग आरोपी को दिल्ली से और छठे आरोपी अक्षय ठाकुर को बिहार से गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने मामले में 80 लोगों को गवाह बनाया था। सुनवाई शुरू हो गई। इसी बीच आरोपी बस चालक राम सिंह ने तिहाड़ जेल में 11 मार्च, 2013 को आत्महत्या कर ली।
इसके बाद सात साल का लम्बा समय जिसमें निर्भया की मां और पिता ने अपनी मृत बेटी को न्याय दिलाने यानी गुनहगारों को सज़ा दिलाने के लिए दिन-रात एक कर दिया। न्यायालय में विधिवत् गुनाह सिद्ध हुए और अपराधियों को फांसी का मृत्युदण्ड सुनाया गया। इसके बाद गुनहगारों को याद आया ‘‘दया’’ शब्द। निर्भया सामूहिक दुष्कर्म केस में दोषी मुकेश की ओर से राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत की गई। किन्तु राष्ट्रपति ने मुकेया की दया याचिका खारिज कर दी। इसके साथ ही दोषी मुकेश के सभी कानूनी विकल्प प्रत्यक्षतः खत्म हो गए हैं। लेकिन दया याचिका के इस अधिकार को दांव की तरह चलते हुए अपराधियों ने फांसी की तिथि आगे खिसकवा ली और अभी विधि विशेषज्ञों की मानें तो फांसी तारीख और आगे बढ़ सकती है। जबकि आज देश का हर नागरिक निर्भया के अपराधियों से पूछ रहा है कि खुद के लिए दया याचिका पेश करने वालो, क्या तुम भूल गए कि निर्भया ने भी तुमसे दया की भीख मांगी थी। अतः इस अतिसंवेदनशील मामले पर सजा की कार्यवाही में अब और अधिक विलम्ब कहीं आमजनता के धैर्य का बांध न तोड़ने लगे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 22.01.2020)
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शून्यकाल ... बुंदेलखंड में आज भी कमी है महिला उद्योगों की - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
बुंदेलखंड में आज भी कमी है महिला उद्योगों की  
  - डॉ. शरद सिंह
      आर्थिक पिछड़ेपन का दृष्टि से जो स्थान भारत के मानचित्र में उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश का है, वही स्थिति झांसी तथा सागर सम्भाग के जनपदों के दतिया-ग्वालियर सहित है। यहां पर विकास की एक सीढ़ी चढ़ना दूभर है। बुंदेलखंड का प्रत्येक ग्राम भूख और आत्महत्याओं की करुण कहानियों से भरा है। बुंदेलखंड में महिलाओं की शिक्षा एवं आर्थिक विकास की क्रियाओं में भागेदारी भी अपेक्षाकृत न्यून है। 
        वे सिर पर दो-दो, तीन- तीन घड़े उठाए चार - पांच किलोमीटर जाती हैं और अपने परिवार की प्यास बुझाने के लिए सिर पर पानी ढो कर लाती हैं। पहाड़ी या घाटी भी इनका रास्ता रोक नहीं पाती है। बढ़ते अपराध और सूखे की मार भी इन्हें डिगा नहीं पाती है क्योंकि ये हैं बुंदेलखंड की जीवट महिलाएं। बुंदेलखंड में महिलाएं घर-परिवार की अपनी समस्त जिम्मेदारियां निभाती हुई अपने परिवार के पुरुष सदस्यों का हाथ खेतीबारी में बंटाती आ रही हैं। दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी के तले दब कर भी उफ न करने वाली बुंदेली महिलाओं के लिए मुसीबतों की कमी कभी नहीं रही। देश की आजादी के अनेक दशक बाद भी बुंदेली महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत कम है। उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की गाथाएं तो हमेशा सुनाई और रटाई गईं किन्तु लक्ष्मीबाई जैसी शिक्षा, आत्मरक्षा कौशल अथवा आर्थिक संबल उन्हें प्रदान नहीं किया गया। फिर भी यह बुंदेली महिलाओं की जीवटता थी कि वे बीड़ी निर्माण, वनोपज संग्रहण आदि के द्वारा अपने परिवार की हरसंभव आर्थिक मदद करती रही हैं। लेकिन अब बीड़ी उद्योग और वनोपज संग्रहण के क्षेत्र में आमदनी के अवसर कम हो चले हैं। बीड़ी उद्योग तो स्वयं ही घाटे में चल रहा है। विगत दो-तीन वर्ष में सात से अधिक बीड़ी कारखाने बंद हो गए। इस स्थिति में यदि गांवों का औद्योगीकरण करना है तो पहले महिलाप्रधान ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। इसके लिए बाहर से उद्योगपति को गांव में आमंत्रित करने की आवश्यकता ही नहीं है। इस काम के लिए महिलाओं को ही सक्षम बनाना पर्याप्त होगा। समूह आधारित सहकारिता के माध्यम से यह काम बखूबी किया जा सकता है। बुंदेलखंड के बाहर के क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा खड़े किए सेवा बैंक और लिज्जत पापड़ तो इसके अनुकरणीय उदाहरण हैं। 
      महिला सशक्तीकरण की दिशा में अभी और प्रयास किये जाने की जरूरत है, ताकि महिलाओं को रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो और ज्यादा संख्या में महिला उद्यमी तैयार करने लायक माहौल बन सके। सरकारों को समझना होगा कि देश में महिला श्रमशक्ति की भागदारी बढ़ाने के लिये महिलाओं को क्षमता विकास प्रशिक्षण उपलब्ध कराने को बढ़ावा देने, देश भर में रोजगार के अवसर उत्पन्न करने, बड़ी संख्या में चाइल्ड केयर केन्द्र स्थापित करने तथा केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा हर क्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने सम्बन्धी प्रयास किया जाना बेहद जरूरी है।
        बुंदेलखंड में महिलाओं को उद्योग से जोड़ने का प्रयास केंद्र सरकार द्वारा आरम्भ किया जा चुका है जिसके अंतर्गत जैव प्राद्योगिकी आधारित ग्रामीण महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण कार्यक्रम तैयार किया गया है। जो उन्हें खेती, बागवानी व सब्जी की नई तकनीक के साथ पशुपालन और ग्रामीण कुटीर उद्योग से भी जोड़ रहा है। बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश के जनपद के रानीपुर खाकी, बैहार, बनाड़ी, गनीवां और कुंई गांव में करीब एक हजार महिला खेतीबारी सहित कुटीर उद्योग के गुर तुलसी कृषि विज्ञान केंद्र गनीवां के सहयोग से सीख चुकी हैं। किसानों को हमेशा नए-नए प्रशिक्षण देकर उन्नत खेती कराने का प्रयास किया गया है और अब उसे मजबूती देने के लिए महिला किसानों को आगे लाया जा रहा है। जैव प्राद्योगिकी आधारित ग्रामीण महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण’ नाम के कार्यक्रम से जनपद के पांच गांव में समूह बनाकर महिलाओं को गांव में उपलब्ध संसाधन और प्रदर्शन के माध्यम से जाग्रत किया जा रहा है।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 22.01.2020
             मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड में भी महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने व प्रदेश के क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने के लिए शासन ने महिलाओं को उद्योगों में बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर कई कदम उठाए गए। महिला उद्यमी प्रोत्साहन योजना- 2013 के तहत औद्योगिक इकाई लगाने वाली महिलाओं को ऋण पर छूट प्रदान की जाने लगी। लेकिन बुंदेलखंड में उद्योगों में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। इसे तथ्य को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश शासन ने उद्योगों में महिलाओं को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। महिलाओं को गुह एवं लघु उद्योग के लिए ऋण दिए जाने का प्रावधान रखा गया। बुंदेलखंड में लागू इस योजना में ऋण लेकर उद्यम लगाने वाली महिलाओं को पांच प्रतिशत की दर से एक साल में अधिकतम पचास हजार और पांच साल में ढाई लाख रुपये ब्याज में छूट देने का प्रावधान किया गया। लेकिन यहां भी आड़े आ गई साक्षरता की कमी। उद्योग के लिए ऋण लेने वाली महिला उद्यमी का इंटरमीडिएट पास होना आवश्यक योग्यता तय की गई। ऋण का सदुपयोग एवं अपेन उद्योग के संचालन की दृष्टि से यह सर्वथा उचित है किंतु इंटरमीडिएट से कम पढ़ी महिलाओं को इस लाभ से वंचित रहन पड़ा। 
       एक सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि पुरुषसत्तात्मक बुंदेलखंड में आज भी महिलाओं को स्वनिर्णय का अधिकार पूरी तरह नहीं मिल सका है, विशेषरूप से आर्थिक मामलों में। जिस प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में पंच, सरपंच, पार्षद आदि स्तर पर महिलाएं रबर स्टैम्प की भांति पदासीन रहती हैं और उनके सारे राज-काज उनके पति यानी पंचपति, सरपंचपति, पार्षदपति सम्हालते हैं उसी प्रकार आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को सरकार द्वारा अनेक योजनाओं के अंतर्गत दिए जाने वाले ऋण एवं लघु उद्योग का वास्तविक संचालन महिलाओं के हाथों में न हो कर उनके परिवार के पुरुषों अथवा उनके पति के हाथ में होता है। इसीलिए बुंदेलखंड में महिलाओं के लिए उस प्रकार के उद्योगों की विशेष आवश्यकता है जो पूर्णरूप से महिलाओं द्वारा संचालित हों और जिनमें महिलाओं को निर्णय लेने का पूरा अधिकार हो। इस प्रकार के उद्योगों की स्थापना से ही बुंदेली महिलाओं में आर्थिक आत्मनिर्भता को बढ़ावा मिल सकेगा और वे बुंदेलखंड के आर्थिक विकास में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगी।  
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 22.01.2020)
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