Dr (Miss) Sharad Singh |
बदलते माहौल में मकर संक्रांति पर्व की परंपरा
- डाॅ. शरद सिंह
पारिवारिक विखण्डन और न्यूक्लियर परिवारों के चलन ने अन्य परंपराओं की भांति इस त्यौहारी परंपरा को भी क्षति पहुंचाई है। मकर संक्रांति (बुड़की) के पर्व का बड़ा ही महत्व रहा है। एक समय था जब ‘सकरायत स्नान’ करने वाली महिलाएं ‘बुड़की’ लगाने के लिए सुमधुर लोकगीत गाती हुई झुंड के झुंड जलाशयों पर पहुंचती थीं जहां मर्दाना घाट अलग होता था और जनाना घाट अलग। जलाशयों के रास्ते मेले से सजे होते थे।
बुंदेलखंड में आज भी मकर संक्रांति के त्यौहार का बहुत महत्व है किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में में वह जहां अपने मौलिक रूप में बचा है वहीं शहरी क्षेत्रों में उसमें औपचारिकता का समावेश हो गया है। लोग सुबह से तिल से स्नान कर मंदिरों में दर्शन करने जाते और उसके बाद मेले में जाकर पूरा दिन व्यतीत करते हैं। मुझे याद है पन्ना नगर में संक्रंाति का वह उत्साह जो मेरे बचपन की यादों के साथ भली-भांति रचा-बसा है। मेरा घर वहां हिरणबाग नामक काॅलोनी में था जो धरम सागर तालाब के निकट था। धरम सागर अपने नाम के अनुरूप धार्मिक महत्व के क्रियाकलापों से सम्बद्ध रहा। मकर संक्रांति पर धरम सागर के रास्ते में मेला लगता था और ‘‘सकरायत’’ या ’’बुड़की’’ नहाने वाले अर्थात् संक्रांति-स्नान करने वाले स्त्री-पुरुष, बच्चे गाना गाते हुए धरम सागर जाते थे। मैंने भी एक बार धरम सागर में संक्रति स्नान किया था। मुझे सबसे आकर्षित करता था वहां का मेला जिसमें मिट्टी से बने तरह-तरह के खिलौने बिकने आते थे। मिट्टी के घोड़े और हाथी बनाए जाते थे जिनमें पाहिए लगे होते थे। इनकी सुंदरता देखते ही बनती थी। इनमें लगाम और महावत सहित सुंदर चित्रकारी भी होती थी। ये हाथी, घोड़े इस प्रकार के होते थे कि जिनमें सुतली बांधकर हम बच्चे आसानी से दौड़ा सकते थे। खिलौने के रूप में बैलगाड़ी की बनाई जाती थी। घरेलू कामकाज से जुड़े खिलौने जैसे गेहूं पीसने की चक्की भी मिलती थी। इसमें बाक़ायदे दो पाट होते थे। गेहूं अथवा अनाज डालने के लिए छेद भी बना होता था। साथ ही चक्की में मूठ फंसाने के लिए भी छेद होता था। आज भी ये खिलौने बनते हैं किन्तु इन्हें खरीदने वालों और इनसे खेलने वालों की कमी हो गई है। आज नन्हें बच्चों के नन्हें हाथों में मोबाईल गेम खेलने के लिए मोबाईल पकड़ा दिया जाता है।
Shoonyakaal Column of Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 15.01.2020 |
बुंदेलखंड के अनेक स्थानों पर आज भी मकर संक्रांति और संक्रांति के मेले जनरूचि के केन्द्र रहते हैं। जैसे पन्ना जिले में मुख्य रूप से अजयगढ़ के अजयपाल किला में लगने वाला और नीचे मैदान में लगने वाला विशाल मेला। जिले से लगभग 25 किमी दूर सारंग धाम मंदिर में लगने वाला मेला, जहां दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। अमानगंज के निकट पंडवन मेला, पवई के हनुमान भाटे एवं कलेहन का मेलाा। मान्यता है कि मकर संक्रांति के समय देवी देवता भी विभिन्न रूप धारण कर तीर्थ स्थान नदी आदि स्थान पर स्नान करते है। मान्यतानुसार कलेहन नदी में मकर संक्रांति पर स्नान करने तथा दान करने से विशेष महत्व मिलता है।
बांदा में संक्रांति मेले का एक अलग ही रूप दिखाई देता है। वहां का मेला प्रेम और त्याग की स्मृति में सजता है। मकर संक्रांति पर बांदा नगर की सीमा पर यह मेला केन नदी और भूरागढ़ दुर्ग के बीच स्थित युवा नटबली और उसकी प्रेमिका की याद में लगता है। कहा जाता है कि महोबा जनपद के सुंगिरा का रहने वाला नोने अर्जुन सिंह भूरागढ़ दुर्ग का किलेदार था। यहां से कुछ किलोमीटर दूर सरबई (म.प्र.) गांव है। वहां नट जाति के लोग आबाद थे। करतब दिखाने नट भूरागढ़ आते थे। किले में काम करने वाले एक युवा नट और किलेदार की पुत्री के बीच प्रेम हो गया। किलेदार को इसका पता चला तो पहले तो वह बेटी पर नाराज हुआ फिर उसने प्रेमी युवा नट से यह शर्त रखी कि सूत की रस्सी पर चलकर नदी पार करके किले में आए। अगर ऐसा कर लेगा तो वह अपनी पुत्री से उसकी शादी कर देगा। नटबली ने शर्त मान ली। मकर संक्रांति के दिन नटबली ने नदी के इस पार से लेकर किले तक सूत की रस्सी बांधी और रस्सी पर चलता हुआ वह किले की ओर बढ़ने लगा। युवा नट दुर्ग में पहुंचने को ही था कि तभी किलेदार नोने अर्जुन सिंह ने रस्सी काट दी। नट नीचे चट्टानों पर आ गिरा और मारा गया। यह देख किलेदार की पुत्री ने भी दुर्ग से छलांग लगाकर जान दे दी। इन दोनों प्रेमी-प्रेमिकाओं की याद में घटनास्थल पर दो मंदिर बनाए गए। यह आज भी मौजूद हैं। नट बिरादरी के लोग इसे विशेष तौर पर पूजते हैं। हर साल मकर संक्रांति के दिन यहां नटबली मेला लगता है।
सागर नगर की लाखा बंजारा झील के चकराघाट में हाजारों की संख्या में श्रद्धालु स्नान करने पहुंचते हैं और वहां मेले जैसा माहौल दिखाई देता है। सागर जिले के ग्रामीण अंचलों में आज भी संक्रांति पर लमटेरा गीत गाए जाते हैं। वस्तुतः मकर संक्रांति स्नान से जुड़ा त्यौहार है अतः बुंदेलखंड में जलाशयों से इसका सीधा संबंध है। चूकि बुंदेलखंड में जलाशयों की दशा पहले जैसी नहीं रही तथा बड़ी संख्या में लोग भी जलाशयों में पहुंच कर स्नान करने के आदी नहीं रहे अतः जलाशयों और श्रद्धालुओं के पारस्परिक अंतसंबंधों में भी कमी आई है। आज मकर संक्रांति तिल गुड़ के लड्डुओं और चाईनीज़ पतंगों के त्यौहार के रूप में सिमट-सा गया है।
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छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 15.01.2020)
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