Tuesday, May 21, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह का प्रलेस की सागर इकाई की पाक्षिक गोष्ठी में रचनापाठ

विगत रविवार, 19.05.2024 को प्रगतिशील लेखक संघ इकाई सागर की मकरोनिया में गोष्ठी हुई। जिसकी अध्यक्षता श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने की। गोष्ठी के प्रथम चरण में समाज में व्याप्त असंतोष, सामाजिक सरोकार विषय पर विमर्श हुआ। अगले चरण में रचनाकारों ने विभिन्न विषयों गीत, गजल, कविता आदि विधाओं में रचना पाठ किया। गोष्ठी में डॉ शरद सिंह (यानी मैं 😊), पीआर मलैया, आदर्श दुबे, वीरेंद्र प्रधान, पेट्रिस फुसकेले, डा नम्रता फुसकेले, सुमन झुडेले, प्रीति जैन ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं। संचालन डॉ सतीश पाण्डेय ने किया ।
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पुस्तक समीक्षा | ‘प्रतिरोध का महाशंख’ अर्थात् सविनय अवज्ञा आंदोलन का काव्यात्मक स्वर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 21.05.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ शिवनारायण जी के काव्य संग्रह "प्रतिरोध का महाशंख" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
‘प्रतिरोध का महाशंख’ अर्थात् सविनय अवज्ञा आंदोलन का काव्यात्मक स्वर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - प्रतिरोध का महाशंख
कवि        - शिवनारायण
प्रकाशक     - अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मूल्य        - 340/-
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प्रतिरोध जीवन में संतुलन बनाए रखने का एक प्राकृतिक ढंग है। जब कहीं कुछ अनुचित अनुपयुक्त अथवा अनावश्यक होता दिखाई देता है तो न केवल संवेदनशील मन अपितु प्रकृति भी प्रतिरोध करने लगती है। पानी अधिक हो जाने पर पेड़-पौधे भी अपनी पत्तियां गिरने लगते हैं। यह उनका अपना प्रतिरोध का तरीका होता है। वे जताना चाहते हैं कि अब बस! उन्हें और अधिक पानी न दिया जाए! इसी तरह मानव जीवन में यदि अनाचार, अत्याचार और अव्यवस्था बढ़ जाती है तो मनुष्य भी प्रतिरोध करने की स्थिति में आ जाता है। यह बात और है कि कुछ लोग मुखर होकर सामने आते हैं और प्रतिरोध का शंखनाद करते हैं, वहीं कुछ लोग नेपथ्य में रहकर मूकदर्शक बने रहते हैंे, लेकिन उनके मन में भी प्रतिरोध की भावना मौजूद रहती है। वे अपनी भीरुता के चलते न तो सामने आते हैं और न समर्थन करते हैं किंतु प्रतिरोध का विरोध भी न करना उनकी ओर से एक तरह का समर्थन ही होता है। प्रतिरोध में जोखिम होता है इसलिए हर व्यक्ति में मुखर प्रतिरोध का साहस नहीं होता है लेकिन एक साहित्यकार जिसका सरोकार समाज से हो दलित, पीड़ित शोषित आमजन से हो वह हर प्रकार का जोखिम लेने के लिए तैयार रहता है। ऐसा साहित्यकार ही प्रतिरोध का शंखनाद कर सकता है। कवि, संपादक एवं आलोचक शिवनारायण का काव्य संग्रह अपने हाथ में प्रतिरोध का महाशंख थामें प्रकाशित हुआ है। इस काव्य संग्रह का नाम ही है “प्रतिरोध का महाशंख”।

      कवि के रूप में शिवनारायण ने हमेशा निर्भीकता से अपनी भावनाओं को प्रकट किया है। उनकी कविताएं उस औजार को गढ़ती हैं जो मन, मस्तिष्क पर चढ़ चुकी जंग की धूसर परत को छील-छील कर उतार सकता है। शिवनारायण की कविताएं उस कपास को उगाती हैं, जिससे कपड़ा बुनकर आईने पर चढ़ी धूल को पोंछा जा सकता है। शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता एवं समाजसेवा में समान रूप से दखल रखते हुए कवि शिवनारायण ने निरंतर साहित्य सृजन किया है। अब तक उनके पांच काव्य संग्रह सहित कथेतर गद्य, आलोचना, भाषाविज्ञान, पत्रकारिता आदि विधाओं में 46 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। बहुचर्चित साहित्यिक पत्रिका ‘‘नयी धारा’’ का विगत 32 वर्षों से सतत संपादन कार्य कर रहे हैं। हिंदी के प्राध्यापक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने अपने सृजनात्मक कार्यों को भी बनाए रखा है। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित होने के बावजूद वे स्वयं को हमेशा अपनी जमीन से जुड़ा हुआ पाते हैं। इसीलिए कहीं भी अन्याय अथवा असंतुलन दिखाई देने पर उनका मन विचलित हो उठता है और तब उनके कलम से प्रतिरोध की कविताएं फूट पड़ती है। किंतु इन कविताओं की यह विशेषता है कि ये किसी नारे का रूप धारण नहीं करती हैं। इनमें बहिष्कार है, ललकार है किंतु कठोर पथरीले शब्द नहीं हैं। कवि शिवनारायण पूरे धैर्य के साथ अपनी बात कहते हैं। इसीलिए उनकी प्रत्येक कविता में शब्दों का चयन और पंक्तियों का गठन एक अलग ही स्वर उत्पन्न करता है।

    संग्रह ‘‘प्रतिरोध का महाशंख’’ में संग्रहित कविताएं मनोभावों के विविध हा आयामों को प्रकट करती हैं। जैसे संग्रह की पहली कविता है ‘‘भोर’’। यह कविता वर्तमान में संवाद की विकृत होती दशा को बखूबी दर्शाती है। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए -
मध्य रात्रि के बाद 
एकांत नीरवता में 
किसी ने किसी को फोन किया 
जवाब में - भोर का उजास फैलते ही 
अपने निर्मम घृणा के शब्दों से 
उसने उसका अजूबा सत्कार किया! 

संग्रह में एक कविता है ‘‘चिड़िया और जहाज’’। यह कविता साहस उन कथाओं का स्मरण कर देती है जो पूराख्यानों में मौजूद हैं। वह कथाएं जिनमें एक नन्हीं चिड़िया समुद्र से टक्कर लेती है और पर्वत को भी झुकने को विवश कर देती है। शिवनारायण की कविता में मौजूद नन्हीं चिड़िया आसमान में उड़ते जहाज यानी वायुयान को उसकी औकात याद दिलाने की जीवटता दिखाती है। इस कविता में चिड़िया जहाज से कहती है -
तुम मुझसे ही तो जुड़े हो 
मैं न होती, 
तो आज तुम होते भला! 
फिर अपनी विशाल काया 
और बर्बर शोर से मुझे 
क्यों आतंकित करते हो?

कवि शिवनारायण का चिंतन संबंधों का विश्लेषण भी करता है। एक पिता के लिए उसकी बेटी का बड़ा होना बहुत महत्व रखता है। “काँधे का स्पर्श” शीर्षक कविता में कवि ने बेटी के बड़े होने का संकेत करते हुए उसके पिता के कंधे तक आने का उदाहरण लिया है। प्रयास इस तरह के उदाहरण पुत्र के लिए ही प्रयुक्त किए जाते रहे हैं। पुत्री का बड़ा होना और पिता के कंधे तक आना यह उदाहरण मेरे संज्ञान में किसी कविता में प्रथम बार प्रयुक्त हुआ है। पिता के कांधे तक बेटी के आने से बेटी के बड़े होने का संकेत उपयोग में लाते हुए कवि शिवनारायण ने अपनी कविता में एक अनुठापन तो प्रस्तुत किया ही है साथ ही पिता और पुत्री के बीच की संवेदना को बड़े सुंदर ढंग से सामने रखा है -
हथेलियों में उगी बेटियाँ 
जब धरती पर उतर 
पिता के काँधे तक पहुँच जायें 
तो समझो
सृष्टि का एक चक्र पूरा हुआ !!

किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे दुखद स्थिति होती है जब उसे अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपनी मूल जमीन से कट कर कहीं दूर जाना पड़ता है। एक ऐसे बड़े शहर में जो उसके गांव से बिल्कुल अलग है जिसमें परायाापन कूट-कूट कर भरा हुआ है। ऐसे पराए वातावरण में संघर्ष करते हुए अपने जीवन को स्थापित करना ताकि वह अपने लोगों के जीवन को संवार सके, बड़े धैर्य का काम है। शिवनारायण ने भी अपनी कविता “जो छूट नहीं सकता” में ऐसे ही एक विदेशिया का अपने गांव और जमीन से जुड़ाव रेखांकित किया है-
छूटते ही रहे सदैव 
घर-परिवार, शहर 
जाने कहां-कहां से 
पर छूटते हुए भी हम 
किसी न किसी से 
जुड़ते रहे हमेशा ! 
जब भी कहीं से छूटे 
कहीं और जुड़कर कर लिया 
उस नए संसार में विलीन खुद को !

‘‘खिलखिलाती सत्ता’’ संग्रह की वह कविता है जो स्थितियों के दूषित होने तथा व्यवस्था के बिगड़ते जाने पर कटाक्ष करती है और एक विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रस्तुत करती है-
जाने क्या हो गया मुझे 
अक्सर कोहरे में ढूंढ़ने लगता हूँ 
उस उत्फुल्ल चेहरे को 
जो रोशनी में कहीं नजर नहीं आता ! 

संग्रह की कविताओं में बढ़ते क्रम में प्रतिरोध का स्वर गहराता गया है अंतिम पृष्ठों की कुछ कविताएं उसे क्लाइमेक्स पर जा पहुंचती है जहां प्रतिरोध की धार तीक्ष्ण से तीक्ष्ण होती गई है। कविता “ये कैसी सरकार” की कुछ पंक्तियां देखिए-
सत्ता मद में चूर हो, उनका तन विकराल 
मीडिया करे चाकरी, सबका बेड़ा पार
गोली चले किसान पर, गिर जनता पर गाज 
छप्पन इंच का सीना, है योगी का राज
भगवा पताका लिखकर, न कर इसका विश्वास 
हिन्दू-हिन्दू जाप कर, करे दलित का नाश
करे धर्म के नाम पर, अधर्म का व्यापार 
विरोध पर हमला करे, ये कैसी सरकार

संग्रह का ब्लर्ब सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका ने लिखा है। उनका यह कथन सटीक है कि ‘‘इन कविताओं में अभिधा की सादगी तो है ही, लक्षणा- व्यंजना की कौंध भी है। बिजली की कौंध रास्ता प्रकाशित न भी करे, पर इसका अहसास तो दिला ही जाती है, कि अंधेरा कितना घना है।’’ वस्तुत: कवि शिवनारायण की कविताएं एक सविनय अवज्ञा आंदोलन की भांति हैं, जो प्रतिरोध करती है किंतु किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करती बल्कि आईना दिखाने का कार्य करती है। इस संग्रह की सभी कविताएं पढ़े जाने योग्य तथा मनन-चिंतन योग्य हैं।             
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Sunday, May 19, 2024

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ऐसो बहानों कब लौं चलहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली में
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टाॅपिक एक्सपर्ट
ऐसो बहानों कब लौं चलहे
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      ऐसी कोनऊं समस्या नोंईं जीको हल प्रशासन और नेता हरें मिल के निकार ने सकत होंए। मगर को जाने का बात आए के अपने सागर शहर की समस्याएं जे दोई मिल के हल नईं कर पा रए। जेई से पब्लिक खों कभऊं-कभऊं डाउट होन लगत आए के जे ओरें समस्याएं हल करबो चात आएं के ऊंसई पुड़िया देत रैत आएं? इते एक सबसे बड़ी समस्या आए आवारा पशुअन की। शहर को कोनऊं जांगा ऐसी नोंई जां छुट्टा जानवर ने मिलत होंए। कुत्ता हरों की तो बातई छोड़ दई जाए, काय से के ऊंसे बड़े जानवर गाय औ बैल जब उनें नईं दिखात तो कुत्ता हरों की का कई जाए। जब कभऊं आवारा पशुअन की बात उठाई जात आए तो रटो-रटाओ सो एकई जवाब मिलत आए के डेयरी शहर से बाहरे करी जा रई। भैया हरों, काय बिलमा रए? डेयरी के पशुअन के मालिक होत आएं, बे आवारा पशु नोंईं। डेयरी के पशु औ आवारा पशुअन के बारे में अलग-अलग बात करो, मालिक! कैने को तो कई गई रई के साल भरे में सबरी डेयरी शहर से बाहरे कर दईं जाहें। अबे लौं ने भईं। औ अपनों सागर ‘आवारा पशु मुक्त सड़क’ की जांगा, ‘सड़क मुक्त आवारा पशु’ वारो शहर बनो जा रओ।
जो, कछू पूछो सो, नेता प्रशासन खों दोष देत आएं औ प्रशासन नेता हरों खों। मनो, ऐसो बहानों कब तक चलहे? जा तो प्रशासन औ नेता हरें मिलजुल के कछु ठोस काम करें, नें तो मान लें के उनकी बस की कछु नईं। ईसे पब्लिक को कछु तो सहूरी मिलहे। 
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏

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Saturday, May 18, 2024

संग्रहालय विजुअल बुक्स होते हैं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, अतिथि वक्ता विश्व संग्रहालय दिवस

"संग्रहालय विजुअल बुक्स होती हैं जहां पुरा एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों के द्वारा अतीत को पढ़ा जा सकता है। प्राचीन स्मारकों एवं वस्तुओं को बचाने के लिए, उन्हें संरक्षित करने के लिए आम लोगों में जागरूकता जागाई जानी जरूरी है ताकि वे उसके महत्व को समझें और उसे किसी भी तरह की क्षति न पहुंचाएं। लोगों में संग्रहालयों के प्रति भी रुझान बढ़ाए जाने के लिए प्रचार-प्रसार आवश्यक है।" बतौर अतिथि वक्ता मैंने आज दोपहर अपने ये विचार रखे। 
      विश्व संग्रहालय दिवस के अवसर पर पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय भोपाल के तत्वावधान में सागर संग्रहालय द्वारा तीन दिवसीय "भारत के प्राचीन स्मारक" छायाचित्र प्रदर्शनी का शुभारंभ किया गया। इस अवसर पर सकेंगे। इस अवसर पर "पुरातत्व विरासत के संरक्षण की भूमिका" विषय पर एक परिचर्चा भी आयोजित की गई। इस समारोह में अपर कलेक्टर श्री रुपेश उपाध्याय, नगर निगम आयुक्त श्री राजकुमार खत्री, विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ बीके श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष डॉ नागेश दुबे, पत्रकार श्री रजनीश जैन, सत्यम संग्रहालय के संस्थापक के दामोदर अग्निहोत्री, साहित्यकार, छायाकार श्री मुकेश तिवारी, सागर ट्रेकर के श्री जैन आदि बड़ी संख्या में विद्वानों एवं विश्वविद्यालय के शोध छात्रों की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
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Friday, May 17, 2024

शून्यकाल | जीवन से पलायन करना कोई हल नहीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम 
"शून्यकाल"
जीवन से पलायन करना कोई हल नहीं
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       इन दिनों जीवन से पलायन अर्थात् आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। युवाओं द्वारा इस तरह के कदम उठाना और अधिक चिंता की बात है तथा दुर्भाग्यपूर्ण भी है। हर व्यक्ति के जीवन में विपरीत परिस्थितियां आती हैं किन्तु जो हार नहीं मानता, वही जीतता है। जब कभी आत्मघाती विचार मन में उठे तो एक सिम्पल-सा फार्मूला है जिसे याद कर लेना चाहिए कि जब हमने अपने जीवन का आरम्भ नहीं चुना तो उसका अंत चुनने का भी हमें अधिकार नहीं है।
     22 वर्षीया युुवती एक सात मंज़िला बिल्डिंग की छत पर पहुंची और उसने वहां से छलांग लगा कर अपने जीवन का अंत कर लिया। मरने से पहले उसने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर एक पोस्ट डाली जिसमें उसने अपने प्रेमी को संबोधित किया था कि -‘‘तुमने मेरे साथ धोखा किया। तुमने मेरी भावनाओं से खेला। तुमने मुझे कभी प्यार किया ही नहीं। अब मैं तुम्हारा असली चेहरा देख चुकी हूं। इसलिए तुमसे हमेशा के लिए दूर जा रही हूं। अपने जीवन का अंत कर रही हूं।’’
उस युवती ने आत्महत्या का निर्णय लेते समय प्रेम में धोखा पाने और अपने धोखेबाज प्रेमी के बारे में तो सोचा, लेकिन अपने उन परिजन के बारे में नहीं सोचा जो उसके मरने के बाद असीम पीड़ा से गुज़रेंगे। क्या उस युवती की मां कभी एक भी रात चैन से सो सकेगी? क्या उसका पिता कभी सुकून से रह सकेगा? क्या उसके भाई-बहन नहीं रोएंगे? वह जीवित रहती तो न जाने कितने लोगों का सहारा बनती। वह जीवित रहती तो अपने जीवन में बहुत कुछ कर पाती। लेकिन उसके एक भावुक निर्णय ने उसकी हर संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया। जबकि वह जीवित रहती तो संभावना इस बात की भी रहती कि कभी उसके जीवन में वास्तविक प्रेम करने वाला प्रवेश करेगा। एक ऐसे तथाकथित प्रेमी के लिए अपनी जान दे देना कहां की बु़िद्धमानी है, जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं। जो सिर्फ उससे छल करता रहा, उसका फायदा उठाता रहा। वह युवती आत्मघाती कदम उठाने के बजाए यदि अपनी कमजोर भावनाओं का डट कर सामना करती और दिखा देती कि उसे उस धोखेबाज की परवाह नहीं है। वह उसके बिना भी जी सकती है, तो यह बहादुरी की बात होती। 

दरअसल, किसी भी विपरीत परिस्थिति से घबरा कर आत्महत्या कर लेना कोई हल नहीं है। यदि किसी व्यक्ति के पीछे उसके लिए रोने वाला कोई भी नहीं है तो भी कम से कम वह विपरीत परिस्थितियों का सामना कर के दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण तो रख ही सकता है। अकसर यह कहा जाता है कि ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’। लेकिन मैं स्वयं भी इस परिस्थिति से गुज़री हूं। कोरोनाकाल में मैंने अपनी मां और मां समान बड़ी बहन को खोया। उस समय एक पल ऐसा भी आया जब लगा कि अब किसके लिए जिऊं? सबकुछ अंधकारमय लगने लगा। शायद मैं भी कोई आत्मघाती कदम उठा लेती लेकिन मुझे मेरी दीदी की वह बात याद आई जो उन्होंने एक दिन अचानक मुझसे कही थी कि ‘‘जीवन में कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों न आए, कभी कोई गलत कदम मत उठाना।’’ मैंने पल भर को ठहर कर सोचा कि क्या उन्हें कोई पूर्वाभास था, जो उन्होंने मुझसे यह कहा था? क्या उनका संकेत आत्महत्या की ओर था? बस, उसी पल मैंने निर्णय लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन मैं परिस्थिति से हार नहीं मानूंगी। जियूंगी और जितना संभव होगा दूसरों की सहायता करूंगी। उसी पल मेरे मन में यह भी विचार आया कि यदि निःस्वार्थ भाव से सभी को अपना मानो तो सभी अपने हैं, अन्यथा रक्तसंबंधी भी दग़ा दे जाते हैं। इन विचारों से मुझे संबल मिला। मुझे डट कर जीते हुए देख कर मेरे सभी परिचितों ने भी आगे बढ़ कर मुझे और मानसिक संबल दिया। 
विचारणीय है कि मैं घबरा कर आत्मघात कर लेती तो क्या होता? मेरे कुछ घनिष्ठ परिचित चंद आंसू बहाते और यही कहते कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। वे सच कहते। जीवन का अंत कर लेना कोई हल नहीं है। जब हमने अपनी इच्छा से अपना जीवन नहीं चुना है तो हमें अपनी इच्छा से उसका अंत करने का भी कोई अधिकार नहीं है। जीवन है तो वह किसी न किसी काम तो आएगा, उसे समाप्त कर देना तो जीवन के साथ धोखा करने के समान है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को ‘‘पाप’’ कहा गया है। भारतीयदंड संहिता में भी आत्महत्या अपराध की श्रेणी में रखा गया है। तो जब अपराधी की भांति जिया नहीं तो अपराधी की भांति मरना क्यों? यद्यपि ये तर्क युवा मन आसानी से नहीं समझ सकता है। युवा मन कोमल होता है। भावनाओं से भरा हुआ होता है। उसे जब छोटी-छोटी बातें भी बड़ी लगती हैं तो बड़ी बातें तो दुष्कर लगेंगी ही।

कोटा में कोचिंग ले रहे एक युवा छात्र ने आत्महत्या कर लिया। मरने से पहले उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि ‘‘साॅरी पापा, मैं आपकी आशाओं पर खरा नहीं उतर सकता हूं। मैं प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं कर सकूंगा। मैं आपको निराश नहीं करना चाहता हूं इसलिए अपने जीवन का अंत कर रहा हूं।’’ यह कैसा मानसिक दबाव था उस छात्र पर कि उसने सोच लिया कि उसके पिता उसके परीक्षा में असफल होने पर निराश हो जाएंगे और उसके मरने पर निराश नहीं होंगे? 
आजकल काम्पिटीशन का दौर सिर चढ़ कर बोल रहा है। काम्पिटीशन कब नहीं था? हर दौर में काम्पिटीशन था। लेकिन इतना मानसिक दबाव नहीं था। छात्र यदि प्रथम नहीं तो द्वितीय स्थान भी अच्छे अंकों से पास कर लेता था तो उसका पिता उसकी पीठ थपथपा कर कहते थे कि ‘‘शाबाश! अब अगली बार इससे अच्छे अंक लाना।’’ लेकिन वही छात्र जिसकी बचपन में उसके पिता ने पीठ थपथपायी थी, वह अपने बच्चों पर दबाव डालता रहता है कि 99 प्रतिशत से कम नहीं आने चाहिए। पढ़ाई के लिए दबाव बनाना गलत नहीं है लेकिन इतना दबाव भी नहीं बनाना चाहिए कि बच्चे उसे अपने जीवन-मरण का प्रश्न मान बैठें। बच्चों और युवाओं को यही सिखाया जाना चाहिए कि वे हर असफलता को एक चुनौती मानें। मान लीजिए कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में मात्र तीन बार ही शामिल हुआ जा सकता है और तीनों बार असफलता ही हाथ लगती है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह छात्र अयोग्य है, नकारा है। वस्तुतः वह जिस क्षेत्र में प्रयास कर रहा है, वह क्षेत्र उसके लिए नहीं है। शायद वह किसी और क्षेत्र में भरपूर सफल हो सकता है। इसे लक्ष्य परिवर्तन का संकेत मानना चाहिए। 

      जीवन में हार न मानने का हुनर राजनेताओं से भी सीखा जा सकता है। हर चुनाव में एक सीट के लिए कोई एक व्यक्ति ही जीतता है, शेष सभी उम्मींदवारों को असफलता मिलती है। कई बार तो चंद वोट से हार झेलनी पड़ती है। लेकिन राजनीति में चुनाव हारने वाला व्यक्ति कभी इतना कमजोर नहीं पड़ता है कि वह टूट जाए। अगले चुनाव में वह और दमखम से खड़ा होता है और अपने विरोधियों को चुनौती देता है। कुछ लोग दल बदलने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं और कुछ राजनीति से सन्यास भी ले लेते हैं, लेकिन कम से कम वे आत्महत्या करने जैसा कायराना कदम नहीं उठाते हैं। साहस मरने में नहीं जीवन जीने में होता है। राजनीति ऐसे ही साहसी लोगों की दुनिया होती है। क्या आपातकाल के दौरान जेलों में बंदी बना दिए जाने वाले नेताओं जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी आदि ने घबरा कर आत्महत्या की? या फिर आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को जब जेल जाना पड़ा तो उन्होंने आत्मघात के बारे में सोचा? नहीं। ये सभी नेता हर बार दूने जोश के साथ दोबारा उभरे। क्योंकि ये जानते थे कि जीवन रहेगा तभी तो दूसरा मौका मिलेगा। जब जीवन हमें अनेक मौके देता है तो हमें भी जीवन को कम से कम एक मौका जरूर देना चाहिए। 

इंदौर के एक व्यवसायी ने अपने परिवार सहित आत्महत्या कर ली। क्योंकि उसने कर्ज लिया था जो वह चुका नहीं पा रहा था। लेनदार उस पर दबाव बना रहा था। स्वाभाविक है कि जिसने कर्ज में पैसा दिया, वह अपना पैसा वापस पाना चाहेगा। अब कर्ज लेने वाला व्यक्ति यदि सपरिवार आत्महत्या कर लेता है तो वह कर्जदाता भी आर्थिक संकट से घिर जाएगा। उससे भी अधिक बुरी बात है कि व्यवसायी ने अपने उन बीवी-बच्चों के जीवन को भी छीन लिया जिन्हें जीवन जीने का अधिकार था। वैसे इस सीमा तक कर्जदार बनना भी नहीं चाहिए कि वह उतारा न जा सके। फिर भी यदि ऐसी स्थिति बन जाती है तो उसका हल ढूंढना चाहिए। हर समस्या का कोई न कोई हल होता है और वह हल कम से कम आत्महत्या तो नहीं है।   

वैसे अपनी असफलताओं एवं विपरीत परिस्थितियों से जब घबराहट होने लगे तो उससे उबरने का सबसे अच्छा तरीका है कि अपने से अधिक खराब परिस्थिति वालों के बारे में विचार किया जाए। न जाने कितने लोग हैं जो दो रोटी के लिए जूझते रहते हैं। उनके पास सोने का ठिकाना भी नहीं होता है। कल रोटी मिलेगी या नहीं, उन्हें पता नहीं होता है। फिर भी वे साहस के साथ जीते हैं। तो बस, एक और सीधा-सा फार्मूला कि जब आत्महत्या का विचार आए तो उनके बारे में सोचना चाहिए जो आपके पीछे छूट जाएंगे और आपके बिना उनका जीवन दुख से भर जाएगा। उम्र और असफलता चाहे जैसी भी हो, हमेशा याद रहे कि जीवन से पलायन कोई हल नहीं।                 
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Thursday, May 16, 2024

बतकाव बिन्ना की | ट्रेंड कर रओ बेताल-पचीसी को नओ वर्जन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ट्रेंड कर रओ बेताल-पचीसी को नओ वर्जन 
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘जो लौं चुनाव को परिणाम ने आ जाए तब लौं मजो सो नईं आने।’’ भैयाजी तनक अकुलात से बोले।
‘‘अरे, आ जैहे रिजल्ट! ने घबड़ाओ आप!’’ भौजी ने भैयाजी से कई।
‘‘हम घबड़ा नोंई रए। बस, तनक कछू कमी-सी लग रई।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘चलो, मैं आप ओरन खों बेताल-पचीसी की किसां सुना देत हौं। आप ओरन खों मूड ठीक हो जैहे।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी दोई से कई।
‘‘बेताल-पचीसी की किसां? बोई वारी जोन पैले चंदामामा पत्रिका में छपत रई?’’ भैयाजी बोल परे।
‘‘हऔ, बोई वारी। बाकी मैं ऊको नओ वर्जन सुना रई।’’ मैंने कई।
‘‘नओ वर्जन? मने? बा तो बई किसां आए न, के राजा विक्रमादित्य पेड़ से लहास उतारत आएं औ तभई बा लहास को भूत मने बेताल कैन लगत आए के राजा बोलियो ने। जो तुमने बोलो सो हम फेर के पेड़ पे जा के लटक जैहें। फेर बा राजा को किसां सुनाऊत आए औ अखीर में कैत आए के जे किसां के सवाल को जवाब देओ ने तो तुमाए सर के टुकड़ा-टुकड़ा हो जैहें। सो, राजा खों बोलनई परत आए। इते राजा ने उत्तर दओ, औ उते बेताल राजा के कंधा से उड़ के फेर के पेड़ की डगरिया पे टंग जात आए। जेई किसां की बात कर रई ने तुम?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, जेई वारी किसां। जे ठीक ऊंसई आए जैसी बे अरब की किसां आएं ‘‘अरब की हजार रातें’’। अंग्रेजी में बे काउत आएं ‘‘वन थाउजंड एंड वन नाईट्स’’ औ मूल अरेबियन में कई जात आएं ‘‘अल्फ लायलाह-वा लायलाह’’। जोन टाईप से ऊमें रोज रात एक किसां सुनाई जात आए, ऊंसई बेताल-पचीसी में रोज रात को एक किसां बेताल सुनाऊत आए। मनो ईमें हजार किसां नोईं सिरफ पचीस किसां आएं। ईको लिखो रओ राजा के नौ रतन में से एक बेताल भट्टराव ने औ ईको संस्कृत में नांव रओ ‘‘वेतालपंचविंशतिः’’। मनो जे अरब की हजार रातन से कम नोईं।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘हऔ! सो तुमाओ इमें नओ बर्जन का आए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘आज के जमाना में अपन ओरन की समस्याओं से बड़ो कोनऊं बेताल-फेताल नोंई। कओ सई कई के नईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ सई कई!’’ भैयाजी औ भौजी दोई संगे बोल परे।
‘‘औ आजकाल जो कऊं अखबार वारे समस्याओं के बारे में छाप देवें, सो छाप देवें, ने तो बाकी तो मों में दही जमाए बैठे रैत आएं। मनो जे अखबार वारे ठैरे राजा विक्रमादित्य। जे ओरे रोज रात खों कोनऊं ने कोनऊं समस्या को बेताल अपने कंधा पे लादत आएं औ संकारे सबरे ऊको पढ़ के एक कोनिया में ऐसे मेंक देत आएं मनओ उनें ऊ प्राब्लम से कोनऊं लेबो-देबो ई नइयां।’’ मैंने कई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो, चलो एक किसां सुनो आप ओरें! का भओ के एक बड़े शहर में एक बड़ो तला हतो। बा तला के सूकतई दिन बीतत रए। मनओ फेर बी बा बनओ रओ। काय से के ऊको एक बंजारा ने अपने बेटा-बहू को बलिदान दे के बनाओ रओ। सो, बा तला सोई बज्जर करेजा वारो निकरो। ऊ तला खों सबरी तरफी से काट-कूट के छोटो बी कर दओ गओ। फेर बी बा बनओ रओ। ऊके किनारे पे कब्जा बी करो गओ, फेर बी बा बनओ रओ। खैर जे तो बा तला को बज्जरपना हतो। अब रई पब्लिक की बात। बा तो ऐसी, के चिकनो घड़ो लजा जाए। ऊने सूके तला में किरकेट खेली, राई को नाच कराओ औ भरे तला में कवि गोष्ठियां कराईं। मनओ तला के अंसुवा कोनऊं खों ने दिखाने। बात इतई ने थमी। तला को उद्धार करबे के लाने ऊको सुकाओ गओ। ऊके करेजा पे एक कारीडोर बना दओ गओ। उते बा बंजारा की एक स्टेचू सोई ठाढ़ी कर दई गई। मनो जब तला को उद्धार होय तो बा स्टेचू की मों दिखाई होय। खैर, तला हतो तो पूरो पुरो डरो रओ। तीन-चार बरसातें आईं औ कढ़ गईं। मनो तला को गहरो ने करो गओ। ई दफा कछू जनों खों अपने पुराने दिन याद आए औ बे तसला गैंती ले के तला साफ करबे निकर परे। सो, भैयाजी अब आप जे बताओ के जो जे किसां अगर बेताल सुना रओ होतो तो बा राजा विक्रमादित्य से जेई पूछतो के पब्लिक खों तलसा ले के तला साफ करो चाइए के प्रशासन को घेराव करो चाइए कि अब लौं तला गहरो काय नई करो गओ? काय से के, जां आधुनिक मशीनों से सफाई की जरूरत आए उते चार जने मिल के कित्ती सफाई कर लैंहे? औ जो जे सफाई कर के प्रशासन को जगाबो चात आएं तो जो प्रशासन चालीस बरस में ऐसे प्रयासन से ने जागो, बा अब का जागहे? बाकी फोटू छपबे वारी बात जरूर हो जैहे के फलां-फलां ने तला को सफाई को अभियान चलाओ रओ। काम बिगारे प्रशासन औ सुधरवाबे के बजाए सुधारबे को डिरामा करे पब्लिक, का जे सई आए? राजन इस प्रश्न को उत्तर देओ ने तो तुमाए सर के टुकड़ा-टुकड़ा हो जैहें! जेई पूछत ने बेताल?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ, बिलकुल जेई पूछत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ का बिन्ना! बे गपा गए करोड़ों रुपैया औ पब्लिक फिर रई तसला ले के। जे नईं के उनसे जवाब औ हिसाब मांगो जाए।’’ भौजी सोई बोल परीं।
‘‘बरहमेस जेई तो होत आए भौजी! देखो ने जो कोनऊं रोड पे गड्ढा हो जाएं तो प्रशासन उते ढूंकत बी नईयां औ अपन ओरन में से ई चार जने बा गड्ढा भरबे निकर परत आएं। बात तो जे होय के जोन को काम आए, उनई से कराओ जाए। अब बे जिम्मेदार सोई सोचत आएं के थक-थुका के पब्लिक खुदई सब कर लैहे, अपन काय कष्ट करें! है के नईं?’’ मैंने कई।
‘‘बिलकुल!’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो भैयाजी आपने बताई नईं के जो बेताल ने राजा से पूछी होती के पब्लिक खों तला की सफाई खुद करो चाइए के प्रशासन से कराने चाइए? राजा ई प्रश्न को जवाब का देतो?’’मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘राजा जोई कैतो के जोन को जे काम आए ओई से कराओ जाओ चाइए। औ फेर होत का के बा बेताल फेर के जा के पेड़ पे टंग जातो।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! बाकी आजकल तो बेताल हरों के लाने बी पेड़ नईं बच पा रए। अब तो बे कोनऊं ऊची बिल्डिंग के छज्जा पे लटके दिखात हुइएं। जो ऊंचे पुराने पेड़ हते, बे तो सबरे कटत जा रए। बेताल सोई बेघर भए जा रए। राजा हरें तांे मनो चुनाव लड़ के अपने लाने ठौर-ठिकाना ढूंढई लेत आएं, लेकिन बेताल खों तो सवाल पूछबे के संगे जो सोई सोचने परत हुइए के राजा के कंधा से उड़ के कां जा के लटकें? कओ सई बात आए के नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हंड्रेड परसेंट सई कई। हमें तो बा बेताल हरन के लाने दुख होन लगो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, बेताल हरन के लाने दुख करबे से पैले खुद अपन ओरन के लाने दुख कर लेओ। काय से के अपन ओरें सोई बज्जर भए जा रए। चाएं रोडें टेम पे ने बनें, चाएं अस्पतालों में दवा ने मिले, चाएं सबरे नाली-नरदा खुले डरे रएं पर अपन खों चूं नई करने। मनो जे नई बेताल पचीसी में सो अपनई ओरें राजा विक्रमादित्य आएं औ अपनई ओरें बेताल आएं। अपनई प्रश्न करत आएं औ अपनईं उत्तर देत आएं। बाकी जोन खों काम करो चाइए बे अपनई रागें दे रए।’’ भौजी ने मनो किसां पूरी कर दई।          
सो जे हती नओ वर्जन की बेताल-पचीसी। जे हर शहर में चल रई, जो तनक ध्यान से सुनो सो सुनाई पर जैहे। बा सोशल मीडिया की भाषा में का कहाऊत आए के ‘‘हैशटैग पे ट्रेंड कर रई’’। आप ओरें चाओ तो अपने-अपने इते की किसां ‘‘हैशटैग’’ लगा के ईमें जोड़ सकत आओ। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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