चर्चा प्लस
महात्मा गांधी के सतर्क अनुयायी थे वल्लभ भाई पटेल
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
राजनीति में यदि अंधभक्ति हो तो वह विशुद्ध राजनीति नहीं रह जाती है। फिर उसे पंथवाद ही कहा जा सकता है। किन्तु राजनीति में अनुगमन और विरोध दोनों को साधना सबके बस की बात भी नहीं है। सरदार वल्लभ भाई पटेल भारतीय राजनीति के एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अनुगमन और विरोध दोनों को एक साथ साधा। वे महात्मा गंाधी के एक ऐसे अनुयायी थे जो उनका आदर करते थे, उनकी सलाह एवं उनके आदेश मानते थे किन्तु वे अंधभक्त नहीं थे। आवश्यकता पड़ने पर वे तर्क एवं विरोध करने से नहीं हिचकते थे। यही कारण था कि महात्मा गांधी और वल्लभ भाई पटेल के बीच जीवनपर्यंत अटूट संबंध रहे।
महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल के सदा परस्पर अटूट संबंध रहे। महात्मा गांधी जितना विश्वास वल्लभ भाई पर करते थे, वल्लभ भाई भी उतना ही स्नेह और आदर महात्मा गांधी के प्रति रखते थे। यद्यपि वल्लभ भाई गांधी जी के अंधानुयायी नहीं थे। जब कभी गांधी जी के विचारों से सहमत नहीं हुए तो उन्होंने खुलकर अपनी भावना को व्यक्त भी किया।
पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा था कि -‘‘जिस दिन से वल्लभ भाई ने गांधीवादी उपासना पद्धति, गांधीवादी जीवनशैली और गांधी जी के सिद्धांत अपनाए तब से वे एक भक्त की तरह कार्य करते रहे।’’
वल्लभ भाई स्वयं भी मानते थे कि-‘‘गांधी जी से मिलने से बहुत पूर्व मेरी राजनीति के प्रति रुचि थी। पर उस समय भारत का कोई राजनीतिक दल मुझे आकर्षित नहीं कर सका। हंा, आरामकुर्सी पर राजनीति बघारने वाले कई नेता मौजूद थे और बंगाल तथा महाराष्ट्र में अराजकता फैलाने वाले भी काफी क्रियाशील थे। तब गांधी का मंच पर आगमन हुआ और उनमें मुझे वह नेता दिखाई पड़ा जिसका अनुयायी बना जा सकता था।’’
एस. के. पाटील ने गांधी जी और वल्लभ भाई के पारस्परिक संबंधों के बारे में लिखा है कि -‘‘जब से सरदार ने गांधी जी का नेतृत्व स्वीकार किया, तब से वे हमेशा गांधी जी की इच्छा के प्रमुख प्रवर्तक रहे। यह दोनों महान व्यक्ति एक विचित्र युग्म हैं-गांधी जी और सरदार जितने एक-दूसरे से अभिन्न हैं, उतने ही परस्पर एक-दूसरे के भक्त। साधारणतया पहला व्यक्ति सोचता है और दूसरा अपनी अपूर्व प्रयोजनात्मक एकता के साथ उसे कार्यान्वित करता है।’’
गांधी जी ने जिस सत्य और अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त किया उसे व्यवहार में लाने और उसके आधार पर देश की जनता को जाग्रत करने का श्रेय वल्लभ भाई को था। वल्लभ भाई ने व्यक्तिगत जीवन में गांधी जी की सलाहों को अपनाया। गांधी जी प्राकृतिक चिकित्सा पर विश्वास करते थे तथा अस्वस्थ होने पर प्राकृतिक चिकित्सा ही अपनाते थे। जब वल्लभ भाई जब जेल में थे तब उन्हें घातक उदररोग हुआ और चिकित्सक ने स्पष्ट कह दिया कि बिना आॅपरेशन के ईलाज नहीं हो सकता है। वल्लभ भाई आॅपरेशन कराने को राजी हो गए। किन्तु चिकित्सक ने इस बात की चेतावनी दी कि आॅपरेशन का परिणाम कुछ भी हो सकता है, अर्थात् उसमें वल्लभ भाई के प्राण भी जा सकते हैं। इस बात से वल्लभ भाई तो नहीं डरे किन्तु जेल प्रशासन घबरा गया। उसे लगा कि यदि वल्लभ भाई को जेल-अवधि में कुछ हो गया तो जेल के बाहर आंदोलनकारी जनता क्रोध से उबल पड़ेगी और कोई भी कठोर कदम उठाने को आतुर हो उठेगी। अतः जेल प्रशासन ने गहन बीमारी की अवस्था में ही वल्लभ भाई को जेल से रिहा कर दिया।
जेल से बाहर आने पर उनकी विभिन्न प्रकार के चिकित्सकों ने जांच की। उन्होंने ऐलोपैथिक, आयुर्वेदिक तथा होम्योपैथिक इलाज भी कराया किन्तु विशेष लाभ नहीं हुआ। वल्लभ भाई की इस बीमार अवस्था से सभी चिन्तित थे। तब गांधी जी ने वल्लभ भाई को प्राकृतिक चिकित्सा कराने की राय दी। कुछ लोगों ने वल्लभ भाई से कहा कि जब इन बड़ी-बड़ी और मानी हुई चिकित्सा पद्धतियों से कुछ नहीं हुआ तो प्राकृतिक चिकित्सा से क्या लाभ होगा? यह तो समय बरबाद करने जैसा होगा। किन्तु वल्लभ भाई ने निःसंकोच उनकी राय स्वीकार कर ली और प्राकृतिक चिकित्सा आरम्भ कर दी। कुछ ही सप्ताह में उनका स्वास्थ सुधर गया।
वल्लभ भाई पटेल ने गांधी जी से प्रभावित हो कर पाश्चात्य वेशभूषा त्याग कर धोती-कुर्ता वाली विशुद्ध भारतीय वेश-भूषा अपना ली थी। वल्लभ भाई ने गांधी जी की जीवनशैली एवं चिकित्सापद्धति को अपनाया किन्तु जहां तक वैचारिक एवं नीतिगत स्तर का प्रश्न था तो उन्होंने समय पड़ने पर गांधी जी के विचारों को मौन सहमति देते हुए तटस्थता भी दर्शाई।
सन् 1932 में अंग्रेज सरकार द्वारा घोषित साम्प्रदायिक पंचाट का विरोध करते हुए गांधी जी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनके इस अनशन का साथ कई नेताओं ने दिया। किन्तु बाद में सरकार के साथ ‘पूना समझौता’ कर लिया। अंग्रेज सरकार ने श्वेत-पत्र के माध्यम से भारत के भावी संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत की। उस समय परिवर्तनवादी गुट के लोग गांधी जी का खुला विरोध कर रहे थे। गांधी जी की सत्य और अहिंसा पर चलने की नीति उन्हें पसन्द नहीं आई थी। इन्हीं कारणों से दल में वैचारिक मतभेद उत्पन्न होने लगे थे। कांग्रेस के कुछ नेता सरकार के पंचाट को अस्वीकृत करना चाहते थे। यही समय था कि जब मदनमोहन मालवीय और एम.एस.अणे ने कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी की स्थापना कर ली। इससे व्यथित हो कर गांधी जी ने वर्धा में अपना एक वक्तव्य जारी किया कि-‘‘पार्टी के कुछ लोग उनके विचारों से सहमत नहीं हैं इसलिए वे कांग्रेस पार्टी छोड़ना चाहते हैं।’’
गंाधी जी का वक्तव्य पढ़ कर सभी नेतागण चकित रह गए। वल्लभ भाई ने भी इस वक्तव्य को पढ़ा किन्तु वे मौन रहे। उन्हें मौन देख कर वहां मौजूद कांग्रेस के नेताओं ने उनसे प्रश्न किया कि-‘‘ आप गांधी जी के इस वक्तव्य पर जिसमें उन्होंने पार्टी छोड़ने की बात कही है, मौन क्यों हैं? कोई टिप्पणी क्यों नहीं कर रहे हैं?’’
तब वल्लभ भाई ने कहा-‘‘इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। यह गांधी जी की अपनी इच्छा है, वे पार्टी में रहें अथवा उसे छोड़ दें।’’
‘‘किन्तु गांधी जी द्वारा पार्टी छोड़ने का भला क्या उद्देश्य हो सकता है?’’ कांग्रेसी नेताओं ने पूछा।
‘‘उद्देश्य जो भी हो किन्तु गांधी जी जो भी करेंगे, वह देश और पार्टी के हित में ही होगा।’’
‘‘पार्टी छोड़ना पार्टी के हित में किस तरह है, यह समझ से परे है।’’ नेताओं ने पूछा। फिर आग्रह किया कि -‘‘आप उन्हें क्यों नहीं समझाते?’’
‘‘गांधी जी को भला मैं कैसे समझा सकता हूं? वे स्वयं समझदार हैं। वे अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं।’’ वल्लभ भाई ने उत्तर दिया।
इस पर नेताओं ने फिर आग्रह किया कि-‘‘फिर भी आप एक बार गांधी जी से इस विषय पर चर्चा तो करिए, शायद वे मान जाएं और पार्टी छोड़ने की बात अपने मन से निकाल दें।’’
‘‘मैं और हम सब गांधी जी पर किसी तरह का कोई नैतिक दबाव नहीं डाल सकते।’’ वल्लभ भाई ने स्पष्ट स्वर उत्तर दिया।
कांग्रेसी नेताओं ने गांधी जी के इस फैसले के कई अर्थ निकाले किन्तु वल्लभ भाई मौन रहे। उन्होंने गंाधी जी पर कोई नैतिक दबाव नहीं डाला। इसी दौरान वर्धा में कांग्रेस पार्लियामेंट बोर्ड का गठन किया गया। वल्लभ भाई को उस बोर्ड का अध्यक्ष चुना गया। इसमें सभी नेताओं की सहमति थी।
लखनऊ में हुए कांग्रेस के 49 वें अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी। कांग्रेस का 50 वां अधिवेशन फैजपुर में होने वाला था। जिसकी अध्यक्षता वल्लभ भाई पटेल करने वाले थे। अध्यक्षता के लिए उनका नाम भी तय किया जा चुका था। इन्हीं दिनों नेहरू साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित हो गए थे किन्तु वल्लभ भाई पटेल साम्यवाद के विरोधी थे। नेहरू कांग्रेस के सदस्यों के चुनाव और प्रांतीय सरकारों के संचालन में साम्यवादी नीतियों को प्राथमिकता देना चाहते थे। गांधी जी की सहमति उनकी ओर बन रही थी।
फैजपुर में होने वाले 50 वें अधिवेशन के ठीक पहले गंाधी जी ने विचार-विमर्श के लिए बुलाया और उनसे कहा कि फैजपुर अधिवेशन की अध्यक्षता से अपना नाम वापस ले कर नेहरू को अध्यक्षता करने दें। वल्लभ भाई पटेल ने गांधी जी के कहने पर फैजपुर अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए जवाहरलाल नेहरू के नाम की सिफारिश करते हुए अपना नाम वापस ले लिया। इस अवसर पर वल्लभ भाई पटेल ने अपने एक वक्तव्य में कहा था-‘‘अधिवेशन में अध्यक्षता के लिए मेरे द्वारा अपना नाम वापस लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं जवाहरलाल नेहरू के विचारों से सहमत हूं। कांग्रेस के सदस्य भली भांति जानते हैं कि मेरे और नेहरू के बीच कुछ बातों को ले कर मतभेद है।’’
कुछ अवसर ऐसे भी आए जब वल्लभ भाई और गांधी जी के मध्य मतभेद भी रहा। सन् 1940 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गांधी जी से उनके मतभेद स्पष्ट दिखाई दिएं। 19 जुलाई 1940 को गुजरात प्रांतीय समिति के समक्ष भाषण देते हुए अहिंसा के प्रश्न पर वल्लभ भाई पटेल ने अपनी मनःस्थिति का वर्णन करते हुए कहा था-‘‘मौजूदा परिस्थिति में अहिंसा का सम्पूर्ण प्रयोग करना कांग्रेस के लिए संभव नहीं। हमारी शक्ति की एक मर्यादा है और देश की शक्ति के अंदाज के बारे में गांधी जी और हमारे बीच मतभेद है। यह एक अकेले व्यक्ति की बात नहीं है। व्यक्ति कितना ही ऊंचा उठ सकता है परन्तु यह सारी संस्था को साथ ले कर चलने की बात है। समाज पर अत्याचार करने वालों के साथ आवश्यक हिंसा का इस्तेमाल किए बिना काम चला सकना मेरी बुद्धि के बाहर है। यह समय सिद्धांतों की चर्चा का नहीं है। आप सबको सोचना चाहिए कि भीतरी अव्यवस्था और बाहरी आक्रमण के विरुद्ध लोग हिंसा का उपयोग चाहते हैं या नहीं? बाहर के लोग अब तक मुझे गांधी जी का अंधभक्त कहते थे। यदि मैं ऐसा बन सकूं तो मुझे गर्व होगा किन्तु मैं देख रहा हूं कि ऐसा नहीं है।’’
वल्लभ भाई पटेल गांधी जी के अनुयायी थे किन्तु यह कहा जा सकता है कि वे एक सतर्क अनुयायी थे। उनके मन में गांधी जी के प्रति वास्तविक श्रद्धा थी लेकिन यह उसी प्रकार थी जिस प्रकार एक व्यवहारिक और यथार्थवादी मनुष्य की एक आदर्शवादी के प्रति होती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ढाले गए इस्पात की तरह गांधी जी में झुकने और मुड़ने की शक्ति थी किन्तु वल्लभ भाई पटेल शुद्ध लौह की भांति नहीं झुकने वाले गुण रखते थे।
(विशेषः यह लेख सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल’’ के एक अध्याय का संपादित अंश है। सरदार वल्लभ भाई पटेल को जानने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जा सकती है।)
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