Thursday, May 2, 2024

शून्यकाल | बचपन-विहीन इन बच्चों का क्या दोष है? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
बचपन-विहीन इन बच्चों का क्या दोष है?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह                                                                              
        एक बच्चे की पहचान क्या होती है? यही न, कि वह छोटी अवयस्क आयु का होता है और बड़ों के संरक्षण की उसे आवश्यकता होती है। लेकिन उन बच्चों को क्या माना जाए जो माता-पिता के साथ चौराहों पर भीख मांगते हैं, जो चौराहों पर कंघी, बालपेन जैसी छोटी-छोटी वस्तुएं बेचते हैं, जो भिखारी नहीं हैं किन्तु भिखारियों की तरह धार्मिक स्थलों के आस-पास भीख मांगते हैं या फिर वे जो ढाबों और छोटे होटलों में बरतन धोने का काम करते हैं। कई बार उनकी असली उम्र का नकली प्रमाणपत्र उन्हें कानूनी सहायता के दायरे से बाहर कर देता है। क्या वे बच्चे, बच्चे नहीं हैं?* 
       सन् 1993 में ‘‘न्यूयार्क टाईम्स’’ में न्यूज फोटोग्राफर केविन कार्टर द्वारा खींची गई एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जो सूडान की थी। उस तस्वीर में हृदयविदारक दृश्य था। एक गिद्ध एक कुपोषित मरणासन्न बच्ची को टोह रहा था। गिद्ध उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। यह तस्वीर सूडान में भुखमरी की भयावह स्थिति बताने के लिए अपने आप में पर्याप्त सबूत थी। इस तस्वीर के लिए फोटोग्राफर केविन कार्टर को पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन वहीं दूसरी ओर लोगों ने उसकी इस बात के लिए कटु निंदा की कि उसने फोटोग्राफी तो की लेकिन इंसानीयत नहीं निभाई। उसने उस बच्ची को गिद्ध से बचाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि उसे तो जल्दी थी अपना वापसी का हवाईजहाज पकड़ने की। केविन को भी अपनी इस भूल का गहरा अपराधबोध हुआ। लोगों को इस बात का अहसास तब हुआ जब पुरस्कार मिलने के तीन माह बाद केविन ने अपराधबोध न सहन कर पाने की स्थिति में आत्महत्या कर ली। उसे भी लगता रहा कि वह बच्ची को बचाने का प्रयास कर सकता था, जो उसने नहीं किया था और एक निर्मम मौत के हवाले कर दिया था।

इसके बाद दुनिया के सामने एक और तस्वीर आई। यह नाईजीरिया के उस बच्चे की तस्वीर थी जिसे उसके समुदाय ने ‘‘शापित’’ मान कर त्याग दिया था। हड्डी का ढंाचा मात्र रह कर वह नग्नावस्था में भूखा-प्यासा भटकता अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। तब डेनमार्क निवासी महिला अंजा रिंगरेन लोवेन ने उसे अपनी बाॅटल से पानी पिलाया जिससे उसकी थमती सांसों में गति आई। फिर वह उसे गोद में उठा कर ऐसे लोगों के पास ले गई जो उसका लालन-पालन कर सकें। आज वह बच्चा अच्छा स्वस्थ हो चुका और पढ़ने के लिए स्कूल जाता है। देखा जाए तो उस तस्वीर के बाद पूरी दुनिया ने उसे अपने संरक्षण में ले लिया। अंजा रिंगरेन लोवेन ने अपनी नौकरी छोड़ कर उन बच्चों के लिए जीवन समर्पित कर दिया जिन्हें अंधविश्वास के चलते शापित मान कर त्याग दिया जाता था और वे बच्चे भूख-प्यास से दम तोड़ देते थे। अंजा रिंगरेन लोवेन ने ऐसे बच्चों के लिए एक आश्रम खोला। जिस पहले बच्चे को अंजा ने बचाया था उसकी दशा की अपडेट के तौर पर एक वर्ष पहले उसकी हंसती-खेलती तस्वीर जारी की गई थी ताकि पूरी दुनिया जान सके कि मौत के मुंह में खड़ा वह बच्चा अब एक अच्छी जिन्दगी जी रहा है। सचमुच सभी को अच्छा लगा था उसी तन्दुरुस्ती भरी तस्वीर देख कर।

लेकिन कितने बच्चों की ज़िंदगी बदल पाती है? हम भी अकसर कई स्वयंसेवी संस्थाओं के विज्ञापन देखते हैं जिनमें कुपोषित, दयनीय अवस्था के बच्चों की तस्वीरें दिखा कर सहयोगराशि मांगी जाती है। इनमें कई विज्ञापन चार-पांच वर्ष तक एक ही बच्चे की तस्वीर या वीडियो के साथ चलते रहते हैं। हमें विज्ञापन के रूप में उनकी दशा का अपडेट नहीं दिखाया जाता है कि दी गई सहायताराशि से उस बच्चे की जान बची या नहीं अथवा अब वह किस स्थिति में है? ऐसे बच्चों को भला हम किस श्रेणी में रखेंगे? 

फरवरी 2022 में एनसीपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राज्यों से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश में 17,914 बच्चे सड़कों पर हैं। आयोग के उस आंकड़े के अनुसार इनमें से 9,530 बच्चे सड़कों पर अपने परिवारों के साथ रहते हैं और 834 बच्चे सड़कों पर अकेले रहते हैं। इनके अलावा 7,550 ऐसे बच्चे भी हैं जो दिन में सड़कों पर रहते हैं और रात में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले अपने परिवारों के पास लौट जाते हैं। धार्मिक स्थलों से ट्रैफिक सिग्नल तक इन बच्चों में सबसे ज्यादा (7,522) बच्चे 8-13 साल की उम्र के रहते हैं। इसके बाद 4-7 साल की उम्र के 3,954 बच्चे हैं। राज्यवार देखें तो सड़कों पर सबसे ज्यादा बच्चे (4,952) महाराष्ट्र में, इसके बाद गुजरात (1,990) में, तमिलनाडु (1,703), दिल्ली (1,653) और मध्य प्रदेश (1,492) में हैं। यद्यपि अदालत ने इस आंकड़े पर संदेह जताते हुए राज्यों से बेहतर जानकारी देने के लिए कहा था। अदालत ने इन आंकड़ों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि सड़क पर बच्चों की अनुमानित संख्या 15 से 20 लाख है और यह सीमित आंकड़े इसलिए सामने आ रहे हैं क्योंकि राज्य सरकारें राष्ट्रीय बाल आयोग के पोर्टल पर जानकारी डालने का काम ठीक से नहीं कर रही हैं। 

अनेक होटल, ढाबे ऐसे हैं जहां बच्चों से काम कराया जाता है। चूंकि यह कानूनी अपराध है अतः उन बच्चों के नकली आयु-सर्टीफिकेट बनवा लिए जाते हैं। इसमें बच्चों के परिजन भी भागीदार होते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी नहीं बल्कि बच्चों की कमाई से मतलब रहता है। बात कहने में कठोर है मगर यदि अपने बच्चे का पालन नहीं कर सकते हैं तो उन्हें पैदा कर के उनसे उनका बचपन छीनने का भी उन्हें कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। ऐसे बच्चे कभी समझ ही नहीं पाते हैं कि वे कब बच्चे थे और कब बड़े हो गए? इसके साथ ही मुझे याद आया कि यह क्षेत्र तो नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का है जिन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के संरक्षण में लगा दिया। ‘‘बचपन बचाओ आन्दोलन’’ के तहत वे विश्व भर के 144 देशों के हजारों बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य कर चुके हैं। लेकिन यदि माता-पिता और मजदूर मालिक संगठित हो कर छल करें तो इसका हल नहीं निकाला जा सकता है। तमाम सरकारी योजनाओं के बाजजूद यह कड़वा सच आज भी हमारे बीच ऐसे बच्चे बहुसंख्यक मौजूद है।

धार्मिक स्थानों के आस-पास अनेक बच्चे भिखारियों की भांति मंडराते रहते हैं। उन्हें इस तरह ज़िद्दी बना दिया जाता है कि जब तक वे भीख में कुछ पा न जाएं तब तक आपका कपड़ा खींचना या बाजू पर हाथ से टोंहका लगाना बंद नहीं करते हैं। उनके माता-पिता जानते हैं कि छोटे बच्चों को कोई जोर से डांटेगा नहीं, मारेगा नहीं और थक-हार कर कुछ पैसे दे ही देगा। ये ज़िद्दी बच्चे अपनी जिद मनवाने के बाद विजेता की भांति अपने माता-पिता के पास पहुंच कर अपनी आमदनी दिखाते हैं। वे नहीं जानते हैं कि उनकी इस उम्र में उन्हें चौराहों पर जिद भरी विक्रेतागिरी करने के बजाए किसी स्कूल में पढ़ना चाहिए। भले ही सरकारी स्कूल हो। भले ही वहां बहुत अच्छी पढ़ाई न होती हो लेकिन चार अक्षर तो पढ़ ही सकेंगे। मगर उस छोटी-सी उम्र में वे अपने जीवन का अच्छा-बुरा तय नहीं कर सकते हैं और जिन्हें तय करना चाहिए, उन्हें तत्काल के चार पैसे अधिक सुखद लगते हैं। क्योंकि यदि वे कोई और रास्ता जानना चाहते होते तो बच्चों को उनका असली बचपन देने के लिए कुछ तो प्रयास करते। वहीं, उन चौराहों से गुज़रने वाले ‘हम समझदार लोग’ भी यह सब अनदेखा कर देते हैं। हम हमेशा खुद को अपनी ही मुसीबतों से घिरा हुआ पाते हैं। हमें लगता है कि हमारे पास इनके बारे में सोचने का भी समय नहीं है। ऐसे बच्चे इस बात से अनजान रहते हैं कि उनसे उनके बचपन की मासूमीयत छीनी जा रही है। उन्हें हठी बनाया जा रहा है। उन्हें हर तरह के हथकंडे अपना कर कुछ न कुछ हासिल कर लेने की कला में माहिर किया जा रहा है। यह ट्रेनिंग कभी-कभी आगे चल कर उन्हें अपराध जगत में पहुंचा देती है। पकड़े जाने पर मां-बाप भी उनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे बच्चे अपनों के द्वारा की गई भावनात्मक ठगी के शिकार रहते हैं। ऐसे बच्चों को हम भला किस श्रेणी में रखेंगे?

बच्चे समाज की धरोहर और जिम्मेदारी होते हैं। केवल सरकार, आयोग, स्वयंसेवी संगठन आदि ही इनके लिए उत्तरदायी नहीं है, हम भी इन बच्चों के लिए उत्तरदायी हैं और यह हमें समझना चाहिए। दरअसल हम अपने आप में इतने सिमट गए हैं कि हमें न तो केविन कार्टर की तरह अपराधबोध होता है और न अंजा रिंगरेन लोवेन की तरह हम मदद के लिए कटिबद्ध हो पाते हैं। ऐसे बच्चों की ओर देखने से बचने के लिए हम अपने मोबाईल की ओर देखते हुए खुद को आभासीय दुनिया में धकेल देते हैं। जब मैं अपने देश के कुपोषित और सहायता से दूर या अपने ही माता-पिता के हाथों अपना बचपन गंवाते बच्चों को देखती हूं तो मुझे यह समझ में नहीं आता है कि ऐसे बच्चों को किस श्रेणी में रखा जा सकता है- भिखारी, अनाथ, कुपोषित या फिर कोई और श्रेणी? जरूरी है इस पर विचार करना।    
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