Wednesday, April 26, 2017

कब तक खून से लाल होते रहेंगे #आदिवासी क्षेत्र... - डॉ. शरद सिंह -

Dr (Miss) Sharad Singh
" कब तक खून से लाल होते रहेंगे #आदिवासी क्षेत्र "....."मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 26.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper..


चर्चा प्लस
 कब तक खून से लाल होते रहेंगे आदिवासी क्षेत्र
  - डॉ. शरद सिंह                                                                                                                               
#छत्तीसगढ़ के #नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। #सुकमा और उसके जैसे अन्य क्षेत्र आए दिन खून से लाल हो रहे हैं। निर्दोष मासूम #आदिवासी जनता और अपनी ड्यूटी पर डटे रहने वाले बहादुर जवान दोनों के ही खून की नदियां बह रही हैं। आजकल के अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों जैसे ड्रोन तथा ट्रेक मशीनों के होते हुए भी नक्सली हिंसा पर लगाम नहीं लग पा रही है। स्थानीय पुलिस बल से कंधे से कंधा मिला कर सीआरपीएफ के जवान अपने प्राणों को दांव पर लगा रहे हैं लेकिन दशकों से चली आ रही समस्या ख़त्म होने के बजाए विकराल रूप धारण करती जा रही है। इस तथ्य की पड़ताल जरूरी है कि आखिर चूक कहां हो रही है? अब यह लक्ष्य निर्धारित करना ही होगा कि अब यह खूनी खेल बंद हो।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
 
24 अप्रैल को #छत्तीसगढ़ के #सुकमा में #सीआरपीएफ के जवानों पर #नक्सलियों द्वारा किए गए हमले से पूरा देश बौखला उठा है। इस हमले में कुल 25 जवान शहीद हुए हैं, तो वहीं 7 जवान घायल हुए। #नक्सली भी और सीआरपीएफ के जवान भी दोनों ही भारतीय नागरिक हैं। एक ही ज़मीन के बाशिंदे और एक ही जैसी समस्याओं से जूझने वाले। यदि भुखमरी और ग़रीबी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में है तो उन क्षेत्रों में भी हैं जहां से ये जवान भर्ती हो कर आते हैं। बहादुर दोनों हैं नक्सल ब्रिगेड में शामिल जवान भी और सीआरपीएफ के जवान भी। दोनों अपने प्राण देना जानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा अन्ता यही है कि नक्सली ब्रिगेड के जवान अपनी ऊर्जा गलत दिशा में लगा रहे हैं। हिंसा से कभी कोई समस्या हल नहीं होती है। यदि हिंसा ही एकमात्र रास्ता होता तो महात्मा गांधी अहिंसा का मार्ग चुन कर देश की आज़ादी की बात अंग्रेजों को नहीं समझा पाते। हाल ही हुए इस हमले में जो 25 सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए उनके बारे में क्या नक्सलियों ने कभी सोचा कि उन जवानों के भी घर-परिवार हैं। किसी के घर में बूढ़े माता-पिता तो किसी के घर में नन्हें बच्चे। स्वयं नक्सल ब्रिगेड के जवानों की हालत इससे अलग नहीं है। वे भी अनाथालय में बड़े नहीं हुए हैं, उनके भी परिवार हैं किन्तु उन्हें अपने परिवार को हिंसा की आग में झोंकते हुए हिचक नहीं होती है अथवा वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके लिए सही रास्ता कौन-सा है। कई बार राजनीतिक स्वार्थ जाने-अनजाने हिंसा को बढ़ावा देते चले जाते हैं। नक्सली हिंसा के पीछे भी ऐसा कोई सच मौजूद हो तो कोई आश्चर्य नहीं।  
आज नक्सलियों के इतिहास पर एक नज़र डालना जरूरी है। ‘‘नक्सल’’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव #नक्सलबाड़ी से हुई है जहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता #चारू_मजूमदार और #कानू_सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की भी। जी हां, आज देश जिस नक्सलवाद से जूझ रहा है उसकी शुरुआत प. बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चारू मुजुमदार और कानू सान्याल ने 1967 में एक सशस्त्र आंदोलन को नक्सलबाड़ी से शुरू किया इसलिए इसका नाम नक्सलवाद हो गया। उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है। सिलिगुड़ी में पैदा हुए चारू मजूमदार आंध्र प्रदेश के तेलंगाना आंदोलन से व्यवस्था से बागी हुए। इसी के चलते 1962 में उन्हें जेल में रहना पड़ा, जहां उनकी मुलाकात कानू सान्याल से हुई। वैसे नक्सलवाद के असली जनक कानू ही माने जाते हैं। कानू का जन्म दार्जिंलिग में हुआ था। वे पश्चिम बंगाल के सीएम विधानचंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में जेल में गए थे। कानू और चारू मुजुमदार जब बाहर आए तो उन्होंने सरकार और व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का रास्ता चुना। कानू ने 1967 में नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। आगे चलकर कानू और चारू के बीच वैचारिक मतभेद बढ़ गए और दोनों ने अपनी अलग राहें, अलग पार्टियों के साथ बना लीं।
उल्लेखनीय है कि मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं जिसके कारण न केवल उच्च वर्गों का शासन तंत्र स्थापित हो गया है बल्कि कृषितंत्र पर भी उन्हीं की पकड़ बन गई है। दोनों नक्सली नेताओं का मानना था कि ऐसे न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। सन् 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। सन् 1971 में सत्यनारायण सिंह के नेतृत्व में आंतरिक विद्रोह हुआ और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त हो गया। चारू मुजुमदार की मृत्यु 1972 में हुई, जबकि कानू सान्याल ने 23 मार्च 2010 को फांसी लगा ली। यद्यपि, दोनों की मृत्यु के बाद नक्सलवादी आंदोलन भटक गया। लेकिन यह भारत के कई राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार तक फैलता गया, पर जिन वंचितों, दमितों, शोषितों के अधिकारों की लड़ाई के लिए शुरू हुआ, ना तो उनके कुछ हाथ आया, न नक्सलवादियों के। हिंसा की बुनियाद पर रखी। यह माना जाता है कि चारू मुजुमदार और कानू सान्याल की मृत्यु के बाद नक्सली मुहिम अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई।
भारत जैसे शांतिप्रिय देश में ऐसे हिंसात्मक रास्ते को ज़मीन कैसे मिली यह एक शोध का विषय है। बहरहाल, स्थितियों एवं परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाए तो कई प्रश्नों के उत्तर मिलने लगते हैं। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के कई वर्ष बाद भी देश के वनांचलों एवं दूरस्थ इलाकों में रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव बना रहेगा तो जनता में असंतोष होना स्वाभावित है। शिक्षा की कमी और पेट की आग जब आपस में मिल जाती है तो बुद्धि अच्छे या बुरे में भेद करना छोड़ देती है। संसाधनों के अभाव और लालफीता शाही में फंसी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर लोगों का शोषण, अधिकारों का हनन हुआ, जिसका नतीजा व्यवस्था से नाराजगी के रूप में सामने आया और आगे चलकर इसने विद्रोह का रूप ले लिया, जिसकी परिणित हिंसा के रूप में हुई। नक्सलवादी हिंसा में सैंकड़ो निर्दोषों की मौत हो चुकी है जबकि देश का आदिवासी समुदाय भी अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से इस हिंसा का शिकार है।
यदि नक्सली प्रभावित क्षेत्रों के संदर्भ में राजनीति की बात की जाए तो आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के हिंसात्मक कार्यवाहियों की आंच से आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार झुलस रहे हैं।

प्रत्येक नक्सली हमले के बाद कई सवाल उठ खड़े होते हैं। ये सवाल राजनीति, सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था से जुड़े हुए है। इनमें आरोप हैं, प्रत्यारोप है और नाराज़गी भी शामिल रहती है। नक्सली ख़ुद स्वीकार कर चुके हैं कि नक्सलियों के विरुद्ध कथित स्वतःस्फ़ूर्त जनआंदोलन ’सलवा जुड़ूम’ से सबसे ज़्यादा लाभ ंनक्सलियों को ही हुआ। फिर आखिर ऐसे कौन-से कारण हैं कि यह समस्या दशक दर दशक हल होने की बजाय और विकट होती जाती है?
#नक्सल_समस्या का हल नहीं निकलने के दो कारण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। एक तो ये कि राजनीतिक दलों में इस बता पर सहमति ही नहीं है कि ये समस्या सामाजिक आर्थिक समस्या है या क़ानून व्यवस्था की। इस सवाल पर विभिन्न दलों के बीच विवाद चलता रहता है जबकि यह समस्या विवाद को परे रख कर सुलझाए जाने योग्य है। जरूरी है कि इस पर सभी दलों में एक सहमति बने। ऐसा होने से कम से कम उन आदिवासी नागरिकों को राहत मिलेगी जो हिंसा के पाट में पिसे जा रहे हैं। दूसरा मुद्दा है अर्थशास्त्र का। नक्सल प्रभावित हर ज़िले को केंद्र और राज्य सरकार इतना पैसा देती है कि अगर उसे पूरी तरह खर्च किया जाए तो ज़िलों की तस्वीर बदल जाए। लेकिन यह कटु सत्य है कि अपार पैसों के बावजूद बस्तर की बहुसंख्यक आबादी बिजली, पानी और शौचालय के अभाव में जीने को विवश है। दरअसल, ऐसी मॉनीटरिंग की जरूरत है जो सरकारी पैसे पर पूरी नज़र रखे कि वह जिस मद के लिए दिया जा रहा है, उस मद में पूरा का पूरा पहुंच रहा है या नहीं तथा जिस तरह उसका उपयोग किया जाना चाहिए, उस तरह उसका समुचित उपयोग हो रहा है या नहीं।
यदि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। सुकमा और उसके जैसे अन्य क्षेत्र आए दिन खून से लाल हो रहे हैं। निर्दोष मासूम आदिवासी जनता और अपनी ड्यूटी पर डटे रहने वाले बहादुर जवान दोनों के ही खून की नदियां बह रही हैं। आजकल के अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों जैसे ड्रोन तथा ट्रेक मशीनों के होते हुए भी नक्सली हिंसा पर लगाम नहीं लग पा रही है। स्थानीय पुलिस बल से कंधे से कंधा मिला कर सीआरपीएफ के जवान अपने प्राणों को दांव पर लगा रहे हैं लेकिन दशकों से चली आ रही समस्या ख़त्म होने के बजाए विकराल रूप धारण करती जा रही है। इस तथ्य की पड़ताल जरूरी है कि आखिर चूक कहां हो रही है? अब यह लक्ष्य निर्धारित करना ही होगा कि अब यह खूनी खेल बंद हो।
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#छत्तीसगढ़ #सुकमा #सीआरपीएफ #नक्सली #नक्सलबाड़ी #चारू_मजूमदार #कानू_सान्याल #विधानचंद्र_राय #सशस्त्र_विद्रोह 

Saturday, April 22, 2017

Thursday, April 20, 2017

भारत भवन में डॉ शरद सिंह का कहानी पाठ ... in News Papers

My Storytelling at Bharat Bhavan's News in Sagar News Papers ... 
Thank You Dainik Bhaskar, Patrika and Sagar Dinkar ... 
Your affinity always encourage me !!!
Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 19.04.2017,
Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Patrika, Sagar Edition,  19.04.2017, Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Sagar Dinkar, Sagar Edition,  19.04.2017, Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

भारत भवन में डॉ शरद सिंह का कहानी पाठ ...

Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Storytelling by Dr (Miss) Sharad Singh at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

Before Storytelling I am with authors, writers and poets at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017
Before Storytelling Dr (Miss) Sharad Singh with authors, writers and poets at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017
For Story Telling in 'Aadya ' function at Bharat Bhavan, Bhopal (15.04.2017) - Dr Sharad Singh.
With beautiful sculpture at Bharat Bhavan, Bhopal, 15.04.2017

उत्साही युवा लेखिका डॉ. लता अग्रवाल की Facebook Wall से उनके आत्मीय उद्गार ..... ‘‘आज वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री शरद जी से भेंट हुई। साहित्य के विविध विषयों एवं वर्तमान लेखन को लेकर उनसे लम्बी चर्चा हुई। साथ में हैं सतना से श्रीमती सुषमा मुनीन्द्र जी। दो - दो वरिष्ठ अनुभवी साहित्यक मित्रों के साथ अविस्मरणीय पल।’’
धन्यवाद डॉ. लता...   

With Dr Lata Agrawal in my room at Hotel Palash Residency, Bhopal

With Dr Lata Agrawal in my room at Hotel Palash Residency, Bhopal

With Dr Lata Agrawal in my room at Hotel Palash Residency, Bhopal
With Dr Lata Agrawal in my room at Hotel Palash Residency, Bhopal

With poetess Poonam Aurora at Hotel Palash, Bhopal ... Occasion Aadya Samaroh, Bharat Bhavan, Bhopal, 16.04 2017

With writer Savita Singh & Sushma Munindra at Hotel Palash, Bhopal ... Occasion Aadya Samaroh, Bharat Bhavan, Bhopal MP, 16.04.2017


पिंक, मातृ और मॉम .... सोचने को विवश करती फिल्में - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
"#पिंक, #मातृ और #मॉम .... सोचने को विवश करती #फिल्में "मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 19.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 
चर्चा प्लस
पिंक, मातृ और मॉम .... सोचने को विवश करती फिल्में
- डॉ. शरद सिंह
नायिका के बिना भारतीय सिनेमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कई फिल्में नायिका प्रधान ही बनाई जाती रही हैं। लेकिन ऐसी फिल्मों में महत्व रहता है स्त्रीपक्ष के प्रति गंभीरता और उसके प्रस्तुतिकरण का। साथ ही इसका भी कि वे स्त्री की दशा के किस पक्ष की ओर संकेत कर रही हैं। इस लेख में ‘इंसाफ का तराजू’ के आधार पर ‘पिंक’, ‘मातृ’ और ‘मॉम’ के बहाने भारतीय सिनेमा और स्त्री की दशा को संक्षेप में खंगाला गया है, जिसका निष्कर्ष अत्यंत चौंकाने और चिन्तित करने वाला है।

भारतीय सिनेमा में अकसर भड़कीले आईटम चरित्रवाली या फिर निरा परम्परावादी चरित्र की कहानियां परोसी गई हैं। ऐसी कम फिल्में आई हैं जिनमें औरतों के पक्ष को, उनकी समस्याओं को, उनकी पीड़ा को बखूबी और बारीकी से रखा गया हो। ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो औरतों को अधिकतर पुरुषाश्रित ही फिल्माया जाता रहा है। यदि उन्हें शक्तिशाली दिखाया भी गया तो या तो ‘हंटरवाली’ के रूप में या फिर ‘डाकूरानी’ के रूप में। समाज में औरतों की स्थिति का इसे सही चित्रण नहीं कहा जा सकता। किन्तु ऐसा भी नहीं है कि भारतीय सिनेमा ने स्त्रीजीवन की सच्चाइयों से हमेशा नज़रें चुराई हों। कई निर्माता निर्देशक ऐसे भी है जिन्होंने निर्माण और हानि के तमाम जोखिम उठाते हुए स्त्रीजीवन को उसकी पूरी कड़वाहट भरी सच्चाई के साथ फिल्माया। बहुत पुरानी बात न करते हुए यदि सन् 1980 की बात की जाए तो उस वर्ष एक फिल्म रिलीज़ हुई थी-‘इंसाफ का तराजू’। बी. आर. चोपड़ा के द्वारा निर्देशित इस फिल्म की भारतीय स्क्रिटिंग की थी शब्द कुमार ने। वस्तुतः यह फिल्म हॉलीवुड की एक प्रसिद्ध मूवी ‘लिपिस्टिक’ पर आधारित थी। कहानी नायिका प्रधान थी और बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर आधारित थी। सौंदर्य प्रतियोगिता में सफल रहने वाली एक सुंदर युवती पर एक अय्याश पूंजहपति का दिल आ जाता है और वह यह जानते हुए भी कि युवती किसी और की मंगेतर है, उसके साथ बलात्कार करता है। वह युवती पुलिस में रिपोर्ट लिखाती है। मुक़द्दमा चलता है और भरी अदालत में प्रतिवादी का वकील अमानवीयता की सीमाएं तोड़ते हुए युवती से अश्लील प्रश्न पूछता है और अंततः युवती को बदचलन ठहराने में सफल हो जाता है। पीड़ित युवती उस शहर को छोड़ कर दूसरे शहर में जा बसती है। उसका जीवन ग्लैमर से दूर एकदम रंगहीन हो जाता है। फिर भी वह अपनी छोटी बहन के लिए जीवन जीती रहती है। दुर्भाग्यवश कुछ अरसे बाद उसकी छोटी बहन भी नौकरी के सिलसिले में उसी अय्याश पूंजीपति के चंगुल में फंस जाती है और बलात्कार का शिकार हो जाती है। एक बार फिर वहीं अदालती रवैया झेलने और अपनी छोटी बहन को अपमानित होते देखने के बाद वह युवती तय करती है कि अब वह स्वयं उस बलात्कारी को दण्ड देगी। 
 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

‘इंसाफ का तराजू’ पर यह आरोप हमेशा लगता रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे को व्यावयासिक ढंग से फिल्माया गया। दूसरी ओर ‘चक्र’, ‘दमन’, ‘बाज़ार’ जैसी फिल्में पूरी सादगी से और अव्यवसायिक ढंग से स्त्री-मुद्दों को उठा रही थीं। लेकिन ‘इंसाफ का तराजू’ की अपेक्षा इनकी दर्शक संख्या न्यूनतम थी। ये फिल्में बुद्धिजीवियों और अतिसंवेदनशील दर्शकों की पहली पसंद बन पाई जबकि ‘इंसाफ का तराजू’ ने बॉक्स आफिस पर रिर्कार्ड तोड़ दिया।
कुछ महिला फिल्म निर्देशकों ने समय-समय पर स्त्रीजगत के पक्षों को बारीकी के साथ सेल्यूलाईड पर उतारा जिनमें प्रमुख नाम हैं- मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी। इन्होंने अपनी फिल्मों के द्वारा कथानकों की विविधता को प्रस्तुत किया किन्तु उन सबके मूल था स्त्री चरित्रों एवं सामाजिक सरोकार का गहन दायित्वबोध। क्या कोई पुरुष निर्देषक ‘फायर’ को इतनी संवेदनषील तटस्थता के साथ फिल्मा पाता? शायद नहीं। क्या मीरा नायर का ‘चंगेज खान’ पात्र इतने आत्ममंथन के साथ रूपहले पर्दे पर आ पाता? शायद नहीं। लेकिन इन फिल्मों की संख्या न्यून है।
पिछले दशकों में बीच-बीच में कुछ फिल्में आईं जिन्होंने स्त्री-अस्मिता के सामाजिक परिवेश को यथार्थवादी तरीके से सामने रखा। जेसिका लाल एवं आरुषी मर्डर केस पर बनी फिल्मों ने भी अपनी ओर ध्यान खींचा। लेकिन अनिरुद्ध रॉय चौधरी की ‘पिंक’ ने जिस जोरदार ढंग से स्त्री-अस्मिता और बलात्कार के मुद्दे को उठाया, उसने दर्शकों के मन को झकझोर दिया। ’अनुरानन’ और ’अंतहीन’ जैसी एक से बढ़कर एक बंगाली फिल्में डायरेक्ट करने के बाद पहली बार डायरेक्टर अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने हिंदी फिल्म ’पिंक’ का डायरेक्शन किया। फिल्म की स्क्रिप्ट रितेश शाह ने बहुत ही सरल लेकिन सोचने पर विवश करने वाली लिखी। स्क्रिप्ट लिखने से पहले र्प्याप्त रिसर्च वर्क किया गया। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, दर्शकों और पात्रों के बीच रिश्ता बनने लगता है। पात्रों का चित्रण भी बखूबी किया गया। अमिताभ बच्चन की अदाकारी ने फिल्म को उसकी समूची आत्मा के साथ उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया जो ऊंचाई उस कथानक को मिलनी चाहिए थी। ‘पिंक’ दिल्ली में किराए पर रहने वाली तीन वर्किंग लड़कियों मीनल अरोड़ा, फलक अली एंड्रिया तेरियांग की कहानी है। एक रात एक रॉक कॉन्सर्ट के बाद पार्टी के दौरान जब उनकी मुलाकात राजवीर और उसके दोस्तों से होती है तो रातों-रात कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी वजह से मीनल, फलक और एंड्रिया डर-सी जाती हैं, और भागकर अपने किराए के मकान पर पहुंचती हैं, वहीं से बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न्स शुरू हो जाते हैं, कहानी और दिलचस्प तब बनती है जब इसमें वकील दीपक सहगल के रूप में अमिताभ बच्चन की एंट्री होती है। तीनों लड़कियों को कोर्ट जाना पड़ता है और उनके वकील के रूप में दीपक उनका केस लड़ते हैं। कोर्ट रूम में वाद विवाद के बीच कई सारे खुलासे होते हैं। ‘पिंक’ उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ एक कड़ा संदेश देती है, जिसमें महिला और पुरुष को अलग-अलग पैमानों पर रखा जाता है। इस फिल्म की कहानी बताती है कि यदि कोई पुरुष ताकतवर परिवार से होता है तो किस तरह से पीड़ित महिला के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कठिन हो जाता है। मूवी समाज की उस सोच पर सवाल खड़े करती है, जो लड़कियों की छोटी स्कर्ट और पुरुषों के साथ ड्रिंक करने पर उनके चरित्र को खराब बताती है। फिल्म यह भी बताती है कि भले ही कोई महिला सेक्स वर्कर हो या फिर पत्नी हो, लेकिन यदि वह ’न’ कहती हो तो किसी भी पुरुष को उसे छूने और उसके साथ जबरदस्ती करने का अधिकार नहीं है।
अभिनेत्री रवीना टंडन की फिल्म ‘मातृ’ भी स्त्रीअस्मिता के मुद्दे को उठाती है। इस फिल्म में रवीना एक ऐसी मां की भूमिका में हैं जिन्हें उनकी बेटी के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद इंसाफ नहीं मिलता। पुलिस यहां तक कि उसका पति भी साथ छोड़ देता है, ऐसे में वह मां गुनहगारों को अपने तरीके से सबक सिखाती है और अपनी बेटी के कातिलों को सज़ा दिलाती है। अश्तर सैयद के निर्देशन में बनी यह फिल्म व्यवस्था के प्रति एक बार फिर कई प्रश्न खड़े करती है। ‘मातृ’ के ट्रेलर के अनुसार फिल्म की नायिका विद्या (रवीना टंडन) दिल्ली में रहती है। वह अपनी बेटी के साथ कहीं जा रही होती है तभी कुछ गुंडे उन्हें पकड़ लेते हैं। इसके बाद गुंडे विद्या की बेटी के साथ बलात्कार करते हैं जिससे उसकी मौत हो जाती है। जब विद्या कानून का दरवाजा खटखटाती है तो उसे पुलिस से मदद नहीं मिलती और फिर अपनी बेटी के कातिलों से बदला लेने का फैसला करती है। ट्रेलर में रवीना एक्शन करती हुई भी दिखाया गया है। इस फिल्म के निर्देशक हैं अश्तर सैयद। लेकिन इस फिल्म को दर्शकों तक पहुंचने से पहले सेंसरबोर्ड की कैंची से हो कर गुज़रना पड़ा है। कुछ दिन पहले ’लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ को सेंसर बोर्ड ने ’असंस्कारी’ बताते हुए सर्टिफिकेट नहीं दिया था और अब रवीना टंडन की ’मातृ’ भी सेंसर ने आपत्ति जताई। बेशक़ यह फिल्म देश में बढ़ते हुए बलात्कार को लेकर है किन्तु सेंसरबोर्ड ने इसके हिंसक रेप सीन पर ऐतराज किया।
फिल्म ’इंग्लिश-विंग्लिश’ में अपनी बेहतरीन अदाकारी से दर्शकों का दिल जीतने वाली श्रीदेवी की फिल्म ’मॉम’ का टीजर लॉन्च किया गया है। श्रीदेवी अपनी फिल्म ’मॉम’ के साथ फिर पर्दे आने को तैयार हैं। ’मॉम’ की स्टोरी एक मां के कॉन्फिलिक्ट की कहानी है। जी स्टूडियो की इस फिल्म के डायरेक्टर हैं रवि उद्यावर, मॉम इनकी पहली फिल्म है। अपराध आधारित कहानी ’मॉम’ में सौतेली मां का अपनी बेटी के साथ संघर्ष की कहानी है। अक्षय खन्ना भी इस फिल्म में निगेटिव किरदार में नजर आ रहे हैं। इस फिल्म में श्रीदेवी के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी महत्वपूर्ण किरदार में नजर आएंगे. रवि उदयवार के डायरेक्शन में बनी ’मॉम’ को श्रीदेवी के पति बोनी कपूर प्रोड्यूस किया हैं। इस फिल्म की शूटिंग दिल्ली और जॉर्जिया की लोकेशन पर की गई है।
इन फिल्मों के कथानकों का यदि निष्कर्ष देखा जाए तो जो सच्चाई सामने आती है वह चिन्ता में डालने को र्प्याप्त है कि ‘इंसाफ का तराजू’ से ‘पिंक’, ‘मातृ’ और ‘मॉम’ तक देश के हालात में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है, देश तेजी से प्रगतिपथ पर बढ़ रहा है लेकिन बलात्कार जैसे गंभीर अपराध के विरुद्ध न्याय मिलने के बदले स्त्री को स्वयं जूझना पड़ता है और अपने ढंग से दण्डित करने को विवश होना पड़ता है, बशर्ते उसमें इसका साहस हो। यानी सामाजिक दबाव और दोहरेपन के चलते स्त्री को अभी भी न्याय नहीं मिल पा रहा है।
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#Pink #Matr #Mom #Films #SharadSingh #CharchaPlus

Thursday, April 13, 2017

Wednesday, April 12, 2017

स्त्री अधिकारों के प्रबल समर्थक डॉ. अम्बेडकर - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
"स्त्री अधिकारों के प्रबल समर्थक डॉ. अम्बेडकर ' मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 12.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 




चर्चा प्लस
स्त्री अधिकारों के प्रबल समर्थक डॉ. अम्बेडकर
- डॉ. शरद सिंह 


डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल विधेयक को विखंडित करके लागू किए जाने के विरोध में नेहरू मंत्रिमण्डल से अपना त्यागपत्र दे दिया था। अंततः सरकार को हिन्दू कोड बिल विधेयक पास करना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के रूप में महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। डॉ. अंबेडकर मुस्लिम स्त्रियों को भी गुलामों जैसी दशा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमानों को भी अपनी स्त्रियों की दशा सुधारने के बारे में विचार करना चाहिए। यहां मैं अपनी पुस्तक ‘‘डॉ. अम्बेडकर का स्त्रीविमर्श’’ के एक अंश साझा कर रही हूं ......

आमतौर पर यही मान लिया जाता है कि बाबासाहेब अंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे। अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिन्तन किया होगा। किन्तु अंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं जो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर यह भली-भांति समझ गए थे कि जब तक स्त्रियों का ध्यान शिक्षा की ओर नहीं जाएगा तथा वे आत्मसम्मान को नहीं जानेंगी तब तक स्त्रियों का उद्धार संभव नहीं है। वे स्त्रियों को शिक्षा के महत्व से परिचित कराते थे। उन्होंने शिक्षा के साथ ही जीवन की उन बुनियादी बातों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया जिन पर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। वे जहां भी, जो भी समझाते, एकदम स्पष्ट शब्दों में, जिससे उनकी कही हुई बातों का स्त्रियां सुगमता से समझ जातीं और आत्मसात करतीं। डॉ. अंबेडकर ने महाड में चर्मकार समुदाय की स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘‘साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करो। इसकी कभी चिंता न करो कि तुम्हारे वस्त्र फटे-पुराने हैं। यह ध्यान रखो कि वे साफ हैं। आपके वस्त्र की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता और न ही कोई तुम्हें जेवरात के चुनाव से रोक सकता है। अपने मन को स्वच्छ बनाने का ध्यान रखो और आत्म सहायता की भावना अपने में पैदा करो।’’
इसी सभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि ‘‘तुम्हारे पति और पुत्र शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। स्त्री-शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि पुरुष शिक्षा।’’
डॉ. अंबेडकर जिन दिनों जनजागरण अभियान के अंतर्गत मध्यप्रदेश, मुंबई और मद्रास (अब चेन्नई) का तूफानी दौरा कर रहे थे, उन दिनों उन्होंने मालाबार में दलित समुदाय के स्त्रियों को अपने भाषण के द्वारा समझाया कि ‘‘तुम्हारे गांव में ब्राह्मण चाहे कितना भी निर्धन क्यों न हो अपने बच्चों को पढ़ाता है। उसका लड़का पढ़ते-पढ़ते डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं? तुम अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजतीं? क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे बच्चे सदैव मृत पशुओं का मांस खाते रहें? दूसरों का जूठन बटोर कर चाटते रहे?’’
19 जुलाई 1942 को नागपुर में सम्पन्न हुई ‘दलित वर्ग परिषद्’ की सभा में उपस्थित हजारों स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था,‘नारी जगत् की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदण्ड से मैं उस समाज की प्रगति को अांकता हूं।’
नागपुर सभा में ही डॉ. अंबेडकर ने ग़रीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि ‘आप सफ़ाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संताने पैदा मत करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’
डॉ. अंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके अांकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज़ अांकड़ें ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज़ नहीं होते हैं ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. अंबेडकर के विचारों को हमने भली-भांति समझा ही नहीं। उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं। जिन चौराहों पर डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा पूरे सम्मान के साथ लगाई गई उनके आस-पास बसी बस्तियों में गंदगी के अंबार को वहां के निवासी ही दूर नहीं कर पाते हैं। गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या के विषय में कोई रोक-टोक नहीं है। अधिक हुआ तो ‘जितने हाथ-उतना काम’ वाला मुहावरा ओढ़ लेते हैं। स्त्री-पुरुष की जिस समानता की कल्पना डॉ. अंबेडकर ने की थी वह भी बहुसंख्यक परिवारों में आज भी नहीं है। पुरुष घर का मुखिया है, स्त्री को बराबरी का आर्थिक अधिकार भी नहीं है, भले ही वह कमाऊ स्त्री हो। वे रुढ़िवादियों से इन प्रश्नों के तार्किक उत्तर पूछते थे कि क्यों स्त्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाए? इस प्रश्न का सटीक एवं तार्किक उत्तर किसी के पास नहीं था।
हिन्दू समाज में ही नहीं अपितु भारतीय समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में डॉ. अंबेडकर ने ध्यान दिया। वे मुस्लिम समाज में स्त्रियों की पिछड़ी दशा के प्रति भी चिन्तित थे। अंबेडकर ने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, ‘‘बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालांकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रषंसा योग्य हैं लेकिन, इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। यदि गुलामी खत्म भी हो जाए पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी।’’
डॉ. अंबेडकर मुस्लिम स्त्रियों को गुलामों जैसी दशा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने अपने लेखों में मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है। अतः भारतीय मुसलमानों को भी अपनी स्त्रियों की दशा सुधारने के बारे में विचार करना चाहिए। आगे चल कर डॉ. अंबेडकर के इन सकारात्मक विचारों का मुस्लिम समाज सुधारकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की गई। डॉ. अंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के अग्रदूत थे। वे स्त्रियों विकास में बाधा के लिए धर्म व जाति प्रथा को दोषी मानते थे। वे जानते थे इन बाधाओं को संवैधानिक ढंक से ही दूर किया जा सकता है। उन्होंने जाति-धर्म व लिंग निरपेक्ष संविधान में उन्होंने सामाजिक न्याय की पकिल्पना की। हिन्दू कोड बिल के जरिए उन्होंने संवैधानिक स्तर से महिला हितों की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किया। डा. अंबेडकर ने महिलाओं को मतदान करने का अधिकार प्रदान कर उनकी राजनैतिक अधिकारों की। हिन्दू समाज के लिए कोई पर्सनल लॉ नहीं था। भारतीय हिन्दू समाज में विवाह, उतराधिकार, दत्तक, निर्भरता या गुजारा भत्ता आदि का नियम-कानून एक समान नहीं था। इसाई तथा पारसियों में एक समय में एक स्त्री से शादी का प्रावधान था। वहीं मुस्लिम समुदाय में चार शादियों को मान्यता प्राप्त है। लेकिन हिन्दू समाज में कोई पुरूष पर कोई सीमा नहीं थी। विधवा को मृत पति के संपत्ति पर अधिकार नहीं था। सवर्ण समाज में विधवा विवाह की परंपरा नहीं थी। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रख कर हिन्दू कोड बिल तैयार किया गया जिसमें में हिन्दू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, गोद लेना (दत्तक ग्रहण) अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, निर्बल तथा साधनहीन पारिवारिक सदस्यों का भरण पोषणउतराधिकारी अधिनियम, हिन्दू विधवा को पुनर्विवाह अधिनियम आदि का प्रवधान था। डॉ. अंबेडकर ने जैसे ही हिन्दू कोड बिल को संसद में पेश किया। संसद के अंदर और बाहर विरोध की लहर दौड़ गई। धार्मिक कट्टरपंथियों से लेकर आर्य समाजी तक डॉ. अंबेडकर के विरोधी हो गए। संसद में भी इस बिल का विरोध किया गया और सदन में इस बिल को सदस्यों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। किन्तु डॉ. अंबेडकर अडिग रहे। उनका कहना था कि-‘‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड बिल पास कराने में है।’’
डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल विधेयक को विखंडित करके लागू किए जाने के विरोध में नेहरू मंत्रिमण्डल से अपना त्यागपत्र भी दे दिया था। अंततः सरकार को हिन्दू कोड बिल विधेयक पास करना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के के रूप में महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। न्यायशास्त्र की दृष्टि से ‘‘रामायण’’ का विश्लेषण करते हुए किन्तु डॉ. अंबेडकर ने कहा कि ‘अगर राम और सीता का मामला मेरे कोर्ट में होता तो मैं राम को आजीवन कारावास की सजा देता।’ उनके ऐसे शब्द स्त्रियों के प्रति उनकी तीव्र मानवीयता की ओर संकेत करते हैं।
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Thursday, April 6, 2017

शरद सिंह भारत भवन में कहानीपाठ हेतु आमंत्रित

Bharat Bhavan calling me and my story ....
... In the glance of my Sagar city news papers
Affinity of My Sagar City News Papers ...


Thanks to all Media Friends & News Papers !!!

Aacharan, Sagar Edition, 06.04.2017 Sharad Singh ka kahani paath Bharat Bhavan me
Patrika, Sagar Edition, 06.04.2017 Sharad Singh ka kahani paath Bharat Bhavan me
Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 06.04.2017 Sharad Singh ka kahani paath Bharat Bhavan me

Nav Dunia, Sagar Edition, 06.04.2017 Sharad Singh ka kahani paath Bharat Bhavan me

Wednesday, April 5, 2017

सदा प्रासंगिक हैं श्रीराम ....   

Dr (Miss) Sharad Singh
Happy #RamNavmi  !
#रामनवमी पर विशेष लेख "सदा प्रासंगिक हैं श्रीराम' मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 05.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
चर्चा प्लस
 रामनवमी पर विशेष:
 सदा प्रासंगिक हैं श्रीराम    
   - डाॅ. शरद सिंह                                                                                      
                                                           
श्रीराम सर्वशक्तिमान राजा दशरथ के घर भले ही जन्में थे किन्तु उन्होंने एक सामान्य व्यक्ति से भी कठिनतम जीवन जिया। वनवास काल में अपने अनुज लक्ष्मण और अपनी अद्र्धांगिनी सीता के कष्टों को देखना और उन्हें सहन करना आसान कार्य नहीं कहा जा सकता। अपनों को होने वाला कष्ट जो पीड़ा देता है, उससे बढ़ कर और कोई पीड़ा नहीं होती है। श्रीराम मानवीय चरित्र का एक ऐसा समुच्चय हैं जो आचार, व्यवहार और कत्र्तव्यों के प्रति जागरूकता का सीमाबोध कराता है। आवश्यकता है श्रीराम के चरित्र को जानने और समझने की, वह भी बिना कोई धार्मिक चश्मा लगाए। श्रीराम के चरित्र को समझने के बाद ही उनकी प्रसंगिकता को भली-भांति समझा जा सकता है।

    आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
   लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।

जब कोई कथा सदियों से मान्यरूप में चली आ रही हो और उसके प्रभाव को अकाट्य रूप् से स्वीकार किया जाता हो तो यह मानना ही होगा कि उस कथा में ऐसे चरित्र विद्यमान हैं जो स्थान और काल की बाधा को पार करते हुए सम्पूर्ण विश्व और प्रत्येक युग को प्रभावित करने में सक्षम हैं। रामकथा ऐसी ही एक कथा है जो प्रत्येक मनुष्य को प्रभावित करने में सक्षम है। श्रीराम इस कथा के आधार चरित्र हैं। एक ऐसा चरित्र जो इस बात का संदेश देता है कि किसी भी संकट से जूझने का साहस प्रत्येक व्यक्ति के भीतर होता है बस, आवश्यकता होती है उस साहस को पहचानने और स्वीकार करने की। श्रीराम का चरित्र अलौकिक होते हुए भी पूर्णतया लौकिक था। उन्होंने जन्म लिया, जीवन के समस्त बंधनों को स्वीकार किया, समस्त कत्र्तव्यों का निर्वहन किया और एक मनुष्य की भांति दुख-सुख से प्रभावित होते हुए मृत्यु को वरण किया। श्रीराम सर्वशक्तिमान राजा दशरथ के घर भले ही जन्में थे किन्तु उन्होंने एक सामान्य व्यक्ति से भी कठिनतम जीवन जिया। वनवास काल में अपने अनुज लक्ष्मण और अपनी अद्र्धांगिनी सीता के कष्टों को देखना और उन्हें सहन करना आसान कार्य नहीं कहा जा सकता। अपनों को होने वाला कष्ट जो पीड़ा देता है, उससे बढ़ कर और कोई पीड़ा नहीं होती है। श्रीराम मानवीय चरित्र का एक ऐसा समुच्चय हैं जो आचार, व्यवहार और कत्र्तव्यों के प्रति जागरूकता का सीमाबोध कराता है। आवश्यकता है श्रीराम के चरित्र को जानने और समझने की, वह भी बिना कोई धार्मिक चश्मा लगाए। श्रीराम के चरित्र को समझने के बाद ही उनकी प्रसंगिकता को भली-भांति समझा जा सकता है।
भगवान विष्णु ने असुरों का संहार करने के लिए राम रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। ‍तभी से लेकर आज तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है, परंतु उनके आदर्शों को अकसर ठीक से समझा ही नहीं जाता है। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी भगवान राम अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग कर चौदह वर्षों के लिए वन चले गए। उन्होंने अपने जीवन में धर्म की रक्षा करते हुए अपने हर वचन को पूर्ण किया। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका पुत्र राम के समान चरित्रवान हो क्योंकि माता-पिता के प्रति श्रीराम की आज्ञाकारिता अनुपम है। लेकिन रामकथा के इस प्रसंग को दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। वह दूसरी दृष्टि है कि गोया श्रीराम इस तथ्य को सामने लाना चाला चाहते हैं कि आज्ञाकारिता की भी सीमा होनी चाहिए। अनुचित आज्ञा को शिरोधार्य करने से न केवल परिवार बल्कि प्रजा (या परिचित, संबंधी) को भी कष्ट होता है। यदि श्रीराम ने माता कैकयी की अनुचित आज्ञा नहीं मानी होती तो उन पर कोई दोष नहीं आता क्योंकि आज्ञा ही दोषपूर्ण एवं कपटपूर्ण थी। यदि उन्होंने वनवास का आदेश नहीं माना होता तो न तो पिता दशरथ की मृत्यु होती और न ही उनके साथ सीता और लक्ष्मण को वनगमन करना पड़ता। इससे भी बढ़ कर श्रीराम के सुशासन का आनंद अयोध्या की जनता चैदह वर्ष तक नहीं उठा सकी। भरत ने श्रीराम का स्मरण कर के शासन अवश्य चलाया किन्तु श्रीराम का शासन भरत के शासन से कहीं अधिक उत्तम था, तभी तो राम का शासन काल ‘‘राम राज’’ के नाम से सदियों से ख्यातिनाम रहा।
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श्रीराम के चरित्र ने दूसरा उहारण यह प्रस्तुत किया कि निर्बल कोई नहीं होता हैं, छोटा कोई नहीं होता है। हर व्यक्ति किसी न किसी विशेषता से परिपूर्ण होता है। जैसे जो पढ़ा-लिखा नहीं है और मेहनत-मलदूरी करता है वह पढ़े-लिखे तबके से किसी मायने में कमतर नहीं कहा जा सकता है। जिस बल के साथ वह फावड़ा या कुदाल चला सकता है अथवा बोझा ढो सकता है वह बल पढ़ेलिखे तबके के पास होता ही नहीं है। इसके विपरीत पढ़ालिखा व्यक्ति वह ज्ञान भी रखता है जो अनपढ़ मजदूर के पास नहीं होता है। यानी दोनों तबका अपने-अपने क्षेत्र में योग्य होता है। श्रीराम ने वानरों और भाल्लुकों से सहायता ले कर इस बात को सिद्ध कर दिया कि जीवन में हर व्यक्ति का महत्व होता है। किसी भी व्यक्ति को देश, काल अथवा उसकी सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण कम कर के नहीं आंका जा सकता है।
श्रीराम का चरित्र यह भी संदेश देता है कि अनाचारी के विरुद्ध शस्त्र उठाना, उसे दण्डित करना जरूरी होता है अन्यथा वह अपने छल-कपट से नारीजाति सहित उन सभी को कष्ट देता रहेगा जो भोले हैं, निष्कपट हैं और परोपकारी हैं। अनाचारी चाहे कितनी भी विद्वान क्यों न हो, वह दण्ड का भागी होना ही चाहिए। रावण में पांडत्यि की कमी नहीं थी। वह इतना ज्ञानी था कि स्वयं श्रीराम ने भी उसके ज्ञान को पूरा सम्मान दिया किन्तु उसके अनाचारी आचरण ने उसे खलपात्र बना दिया। यही तो कहती है रातकथा कि ज्ञान के साथ संयम और सदाचार भी जरूरी होता है।
जब राम के चरित्र का विश्लेषण किया जाता है तो प्रायः यह बात भी उठती है कि मर्यादापुरुषोत्तम होते हुए भी श्रीराम ने एक आदमी के लांछन लगाने पर गर्भवती सीता का त्याग कर दिया और उन्हें वनवास भेज दिया। प्रथदृष्ट्या यह रामचरित्र में बहुत बड़ी कमी दिखाई देती है किन्तु कोई भी आकलन तभी सही अर्थ में पूरा होता है जब उसके सभी पक्षों पर दृष्टि डाली जाए। इस प्रसंग में श्रीराम का चरित्र यही तो कहना चाहता है कि मात्र आदर्श स्थापना के लिए उस बात को आंखमूंद कर नहीं मानो जो मानने योग्य न हो। सीता के चरित्र पर उंगली उठाने वाले व्यक्ति का अपना अनुभव अथवा उसका अपना पूर्वाग्रह रावण के पास सीता के बंदी रहने और फिर अग्निपरीक्षा दे कर तत्कालीन सामाजिक आदर्श को पूरा करने से अलग था। फिर भी श्रीराम ने मात्र इसलिए उसके उलाहने को गंभीरता से लिया क्योंकि वे आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे अथवा तत्कालीन आदर्श का पोषण करना चाहते थे। लेकिन इसी का दूसरा पहलू यह भी है कि आदर्श का अतिवाद सबके लिए दुखदायी होता है। श्रीराम और सीता ने तो दुख झेला ही, साथ में लव और कुश ने भी पिता का अभाव झेला। श्रीराम के इस कदम से प्रजा की वैचारिकता भी अराजक हुई। जब एक व्यक्ति की अनुचित बातें मान ली जाएं तो दूसरा व्यक्ति मुंह चलाने में देर नहीं करेगा। फिर भी श्रीराम ने सफलतापूर्वक शासन किया। लेकिन वे स्वयं इतने अधिक दुख और क्लेश का अनुभव करते रहे कि अंततः उन्होंने सरयू के जल में चिरविश्राम का मार्ग चुना। संभवतः यह अतिवादी आदर्श की स्थापना के प्रयास का दुखद अंत था। लेकिन इस विश्लेषण का अर्थ यह नहीं है श्रीराम का चरित्र दोषपूर्ण था। वस्तुतः श्रीराम का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो आदर्श की समुचित व्यख्या करता है। साथ ही आदर्श की सीमाओं एवं उसके अच्छे-बुरे पक्षों को खोल कर सामने रखता है। दिक्कत तब आती है जब रामकथा को पढ़ने वाला व्यक्ति अपने पूर्वाग्रह का चश्मा लगा लेता है और अपने पसंद के अनुरुप रामकथा को गढ़ने लगता है अथवा उसमें मीनमेख निकालने लगता है।
सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों की तुलना में दीर्घकालीन रूप से अपरिवर्तित रहते हैं. आज भी राम-कथा विश्व के अनेक लोगों को प्रभावित करती है क्यों कि इस कथा में चारित्रिक विविधता के साथ ही आचरण और संवेगों का यथार्थ प्रस्तुतिकरण है। यह सत्य और असत्य की, अच्छाई और बुराई, धर्म और अधर्म के बीच चलने वाले संषर्घ की कथा है। यह संघर्ष आज भी है, मात्र उसका रूप बदला है। इसीलिए रामायण के विभिन्न प्रसंग, पात्र हमारे लोक जीवन  में आज भी प्रासंगिक होते रहते रहते हैं। क्रोध, मोह, लोभ, क्षोभ, शोक, वचन-पालन आदि के प्रसंग तथा भरत, मंथरा, हनुमान, सुग्रीव, रावण, विभीषण आदि कुछ पात्र उदाहरण हैं। स्मरण रहे कि वाल्मीकि रामायण का आरंभ ही एक शाप-प्रसंग से होता है। जिस रचना का उद्देश्य मर्यादा-पुरुषोत्तम का चरित्र प्रस्तुत करना हो, उसका ऐसा आरंभ किस उद्देश्य से किया गया यह ध्यान देने योग्य है। मर्यादा को भंग करनेवाला सदैव दंड का अधिकारी होता है। निषाद को आखेट के लिए नहीं, वरन काम-मोहित अवस्था में क्रौंच पक्षी के आखेट के लिए शाप मिला। स्वयं वाल्मीकि भी क्रोधावेश में शाप देकर मर्यादा भंग करते हैं, तो उसका मार्जन भी हुआ। इसी तरह, पूरी रामायण के विविध प्रसंग मर्यादा-भंग के कुपरिणाम और उसकी पुनप्र्रतिष्ठा का प्रयत्न है। यह एक संपूर्ण सांस्कृतिक दृष्टि प्रस्तुत करती है, धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित करने में सक्षम है।
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज लोचन, कंजमुख कर, कंज पद कंजारुणं।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरं।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं।।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंष निकन्दनं।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम।।

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