Dr (Miss) Sharad Singh |
Happy #RamNavmi !
#रामनवमी पर विशेष लेख "सदा प्रासंगिक हैं श्रीराम' मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 05.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
चर्चा प्लस
रामनवमी पर विशेष:
सदा प्रासंगिक हैं श्रीराम
- डाॅ. शरद सिंह
श्रीराम सर्वशक्तिमान राजा दशरथ के घर भले ही जन्में थे किन्तु उन्होंने एक सामान्य व्यक्ति से भी कठिनतम जीवन जिया। वनवास काल में अपने अनुज लक्ष्मण और अपनी अद्र्धांगिनी सीता के कष्टों को देखना और उन्हें सहन करना आसान कार्य नहीं कहा जा सकता। अपनों को होने वाला कष्ट जो पीड़ा देता है, उससे बढ़ कर और कोई पीड़ा नहीं होती है। श्रीराम मानवीय चरित्र का एक ऐसा समुच्चय हैं जो आचार, व्यवहार और कत्र्तव्यों के प्रति जागरूकता का सीमाबोध कराता है। आवश्यकता है श्रीराम के चरित्र को जानने और समझने की, वह भी बिना कोई धार्मिक चश्मा लगाए। श्रीराम के चरित्र को समझने के बाद ही उनकी प्रसंगिकता को भली-भांति समझा जा सकता है।
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।
जब कोई कथा सदियों से मान्यरूप में चली आ रही हो और उसके प्रभाव को अकाट्य रूप् से स्वीकार किया जाता हो तो यह मानना ही होगा कि उस कथा में ऐसे चरित्र विद्यमान हैं जो स्थान और काल की बाधा को पार करते हुए सम्पूर्ण विश्व और प्रत्येक युग को प्रभावित करने में सक्षम हैं। रामकथा ऐसी ही एक कथा है जो प्रत्येक मनुष्य को प्रभावित करने में सक्षम है। श्रीराम इस कथा के आधार चरित्र हैं। एक ऐसा चरित्र जो इस बात का संदेश देता है कि किसी भी संकट से जूझने का साहस प्रत्येक व्यक्ति के भीतर होता है बस, आवश्यकता होती है उस साहस को पहचानने और स्वीकार करने की। श्रीराम का चरित्र अलौकिक होते हुए भी पूर्णतया लौकिक था। उन्होंने जन्म लिया, जीवन के समस्त बंधनों को स्वीकार किया, समस्त कत्र्तव्यों का निर्वहन किया और एक मनुष्य की भांति दुख-सुख से प्रभावित होते हुए मृत्यु को वरण किया। श्रीराम सर्वशक्तिमान राजा दशरथ के घर भले ही जन्में थे किन्तु उन्होंने एक सामान्य व्यक्ति से भी कठिनतम जीवन जिया। वनवास काल में अपने अनुज लक्ष्मण और अपनी अद्र्धांगिनी सीता के कष्टों को देखना और उन्हें सहन करना आसान कार्य नहीं कहा जा सकता। अपनों को होने वाला कष्ट जो पीड़ा देता है, उससे बढ़ कर और कोई पीड़ा नहीं होती है। श्रीराम मानवीय चरित्र का एक ऐसा समुच्चय हैं जो आचार, व्यवहार और कत्र्तव्यों के प्रति जागरूकता का सीमाबोध कराता है। आवश्यकता है श्रीराम के चरित्र को जानने और समझने की, वह भी बिना कोई धार्मिक चश्मा लगाए। श्रीराम के चरित्र को समझने के बाद ही उनकी प्रसंगिकता को भली-भांति समझा जा सकता है।
भगवान विष्णु ने असुरों का संहार करने के लिए राम रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। तभी से लेकर आज तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है, परंतु उनके आदर्शों को अकसर ठीक से समझा ही नहीं जाता है। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी भगवान राम अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग कर चौदह वर्षों के लिए वन चले गए। उन्होंने अपने जीवन में धर्म की रक्षा करते हुए अपने हर वचन को पूर्ण किया। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका पुत्र राम के समान चरित्रवान हो क्योंकि माता-पिता के प्रति श्रीराम की आज्ञाकारिता अनुपम है। लेकिन रामकथा के इस प्रसंग को दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। वह दूसरी दृष्टि है कि गोया श्रीराम इस तथ्य को सामने लाना चाला चाहते हैं कि आज्ञाकारिता की भी सीमा होनी चाहिए। अनुचित आज्ञा को शिरोधार्य करने से न केवल परिवार बल्कि प्रजा (या परिचित, संबंधी) को भी कष्ट होता है। यदि श्रीराम ने माता कैकयी की अनुचित आज्ञा नहीं मानी होती तो उन पर कोई दोष नहीं आता क्योंकि आज्ञा ही दोषपूर्ण एवं कपटपूर्ण थी। यदि उन्होंने वनवास का आदेश नहीं माना होता तो न तो पिता दशरथ की मृत्यु होती और न ही उनके साथ सीता और लक्ष्मण को वनगमन करना पड़ता। इससे भी बढ़ कर श्रीराम के सुशासन का आनंद अयोध्या की जनता चैदह वर्ष तक नहीं उठा सकी। भरत ने श्रीराम का स्मरण कर के शासन अवश्य चलाया किन्तु श्रीराम का शासन भरत के शासन से कहीं अधिक उत्तम था, तभी तो राम का शासन काल ‘‘राम राज’’ के नाम से सदियों से ख्यातिनाम रहा।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
श्रीराम के चरित्र ने दूसरा उहारण यह प्रस्तुत किया कि निर्बल कोई नहीं होता हैं, छोटा कोई नहीं होता है। हर व्यक्ति किसी न किसी विशेषता से परिपूर्ण होता है। जैसे जो पढ़ा-लिखा नहीं है और मेहनत-मलदूरी करता है वह पढ़े-लिखे तबके से किसी मायने में कमतर नहीं कहा जा सकता है। जिस बल के साथ वह फावड़ा या कुदाल चला सकता है अथवा बोझा ढो सकता है वह बल पढ़ेलिखे तबके के पास होता ही नहीं है। इसके विपरीत पढ़ालिखा व्यक्ति वह ज्ञान भी रखता है जो अनपढ़ मजदूर के पास नहीं होता है। यानी दोनों तबका अपने-अपने क्षेत्र में योग्य होता है। श्रीराम ने वानरों और भाल्लुकों से सहायता ले कर इस बात को सिद्ध कर दिया कि जीवन में हर व्यक्ति का महत्व होता है। किसी भी व्यक्ति को देश, काल अथवा उसकी सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण कम कर के नहीं आंका जा सकता है।
श्रीराम का चरित्र यह भी संदेश देता है कि अनाचारी के विरुद्ध शस्त्र उठाना, उसे दण्डित करना जरूरी होता है अन्यथा वह अपने छल-कपट से नारीजाति सहित उन सभी को कष्ट देता रहेगा जो भोले हैं, निष्कपट हैं और परोपकारी हैं। अनाचारी चाहे कितनी भी विद्वान क्यों न हो, वह दण्ड का भागी होना ही चाहिए। रावण में पांडत्यि की कमी नहीं थी। वह इतना ज्ञानी था कि स्वयं श्रीराम ने भी उसके ज्ञान को पूरा सम्मान दिया किन्तु उसके अनाचारी आचरण ने उसे खलपात्र बना दिया। यही तो कहती है रातकथा कि ज्ञान के साथ संयम और सदाचार भी जरूरी होता है।
जब राम के चरित्र का विश्लेषण किया जाता है तो प्रायः यह बात भी उठती है कि मर्यादापुरुषोत्तम होते हुए भी श्रीराम ने एक आदमी के लांछन लगाने पर गर्भवती सीता का त्याग कर दिया और उन्हें वनवास भेज दिया। प्रथदृष्ट्या यह रामचरित्र में बहुत बड़ी कमी दिखाई देती है किन्तु कोई भी आकलन तभी सही अर्थ में पूरा होता है जब उसके सभी पक्षों पर दृष्टि डाली जाए। इस प्रसंग में श्रीराम का चरित्र यही तो कहना चाहता है कि मात्र आदर्श स्थापना के लिए उस बात को आंखमूंद कर नहीं मानो जो मानने योग्य न हो। सीता के चरित्र पर उंगली उठाने वाले व्यक्ति का अपना अनुभव अथवा उसका अपना पूर्वाग्रह रावण के पास सीता के बंदी रहने और फिर अग्निपरीक्षा दे कर तत्कालीन सामाजिक आदर्श को पूरा करने से अलग था। फिर भी श्रीराम ने मात्र इसलिए उसके उलाहने को गंभीरता से लिया क्योंकि वे आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे अथवा तत्कालीन आदर्श का पोषण करना चाहते थे। लेकिन इसी का दूसरा पहलू यह भी है कि आदर्श का अतिवाद सबके लिए दुखदायी होता है। श्रीराम और सीता ने तो दुख झेला ही, साथ में लव और कुश ने भी पिता का अभाव झेला। श्रीराम के इस कदम से प्रजा की वैचारिकता भी अराजक हुई। जब एक व्यक्ति की अनुचित बातें मान ली जाएं तो दूसरा व्यक्ति मुंह चलाने में देर नहीं करेगा। फिर भी श्रीराम ने सफलतापूर्वक शासन किया। लेकिन वे स्वयं इतने अधिक दुख और क्लेश का अनुभव करते रहे कि अंततः उन्होंने सरयू के जल में चिरविश्राम का मार्ग चुना। संभवतः यह अतिवादी आदर्श की स्थापना के प्रयास का दुखद अंत था। लेकिन इस विश्लेषण का अर्थ यह नहीं है श्रीराम का चरित्र दोषपूर्ण था। वस्तुतः श्रीराम का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो आदर्श की समुचित व्यख्या करता है। साथ ही आदर्श की सीमाओं एवं उसके अच्छे-बुरे पक्षों को खोल कर सामने रखता है। दिक्कत तब आती है जब रामकथा को पढ़ने वाला व्यक्ति अपने पूर्वाग्रह का चश्मा लगा लेता है और अपने पसंद के अनुरुप रामकथा को गढ़ने लगता है अथवा उसमें मीनमेख निकालने लगता है।
सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों की तुलना में दीर्घकालीन रूप से अपरिवर्तित रहते हैं. आज भी राम-कथा विश्व के अनेक लोगों को प्रभावित करती है क्यों कि इस कथा में चारित्रिक विविधता के साथ ही आचरण और संवेगों का यथार्थ प्रस्तुतिकरण है। यह सत्य और असत्य की, अच्छाई और बुराई, धर्म और अधर्म के बीच चलने वाले संषर्घ की कथा है। यह संघर्ष आज भी है, मात्र उसका रूप बदला है। इसीलिए रामायण के विभिन्न प्रसंग, पात्र हमारे लोक जीवन में आज भी प्रासंगिक होते रहते रहते हैं। क्रोध, मोह, लोभ, क्षोभ, शोक, वचन-पालन आदि के प्रसंग तथा भरत, मंथरा, हनुमान, सुग्रीव, रावण, विभीषण आदि कुछ पात्र उदाहरण हैं। स्मरण रहे कि वाल्मीकि रामायण का आरंभ ही एक शाप-प्रसंग से होता है। जिस रचना का उद्देश्य मर्यादा-पुरुषोत्तम का चरित्र प्रस्तुत करना हो, उसका ऐसा आरंभ किस उद्देश्य से किया गया यह ध्यान देने योग्य है। मर्यादा को भंग करनेवाला सदैव दंड का अधिकारी होता है। निषाद को आखेट के लिए नहीं, वरन काम-मोहित अवस्था में क्रौंच पक्षी के आखेट के लिए शाप मिला। स्वयं वाल्मीकि भी क्रोधावेश में शाप देकर मर्यादा भंग करते हैं, तो उसका मार्जन भी हुआ। इसी तरह, पूरी रामायण के विविध प्रसंग मर्यादा-भंग के कुपरिणाम और उसकी पुनप्र्रतिष्ठा का प्रयत्न है। यह एक संपूर्ण सांस्कृतिक दृष्टि प्रस्तुत करती है, धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित करने में सक्षम है।
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज लोचन, कंजमुख कर, कंज पद कंजारुणं।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरं।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं।।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंष निकन्दनं।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम।।
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