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Thursday, March 2, 2023

बतकाव बिन्ना की | भैयाजी खांसी मनो ईडी की फांसी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"भैयाजी खांसी मनो ईडी की फांसी"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
भैयाजी खांसी मनो ईडी की फांसी                                                     
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘का हो रओ भैयाजी?’’ भरी दुफैरी में भैयाजी अपने पलका पे गुड़ीमुड़ी हो के बैठे हते।
‘‘का होने? खांस-खांस के दम निकरो जा रओ!’’ भैयाजी बोले। बोलतई संगे भैयाजी खों खांसी को दौरा सो पर गओ।
‘‘हऔ! आपको सो भारी खांसी हो गई कहानी।’’ मैंने कई।
‘‘नईं, मोय खांसी नईं भई, जे तो पड़ोसी खों भई आए औ हम ऊके बदले खांस रए।’’ भैयाजी चिढ़त भए बोले।
मैंने उनकी बात को बुरौ नईं मानों। काय से जोन को खांसी हो जात आए, बा खांस-खांस के चिड़चिड़ो हो जात आए। मोय पतो आए। काय से के जबलौं मौसम बदलत आए मोय सोई खांसी, सर्दी टाईप कछू ने कछू हो जात आए।
‘‘कोनऊं दवा लई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ घरेलू ईलाज कर रए। अब तनक-मनक खांसी में डाॅक्टर लौं को भगत फिरै। औ उत्तई नईं, उते जाओ सो तीन-चार सौ पेलऊं फीस के घल जाने, फेर मैंगी दवाई के।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो तो ठीक कई आपने। बाकी मोय नईं लगत के आपकी खांसी बिना दवा के ठीक ने हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, तुम ठीक कै रईं! मोय सोई जेई लग रओ। दो रातन से सो नईं पा रए। को जाने कां से जे खांसी पांछूं लग गई?’’ भैयाजी बोले।
‘‘मौसम बदल रओ, जेई से सबरे फसाद हो रए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, बे अपने दिल्ली के मंत्री हरों के सोई मौसम बदल गए कहाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन की कै रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे बेई, सिसोदिया औ सत्येन्द्र जैन की कै रए। काय, जे ओरन खांे हेर-फेर करबे में कछू सरम-वरम नईं आत का? इत्ते बड़े मंत्री ठैरे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘काय की सरम भैयाजी? बाकी कोयला की दलाली में सबई के हाथ करिया धरे। बो तो जो पकरो गओ, सो चोर कहानो, बाकी साउकार!’’ मैंने कई।
‘‘ठीक कै रईं! जे ईडी के छापे सोई मौसमी खांसी घांई कोऊं-कोऊं खों अपनी चपेट में ले लेत आएं। मौसम बदलो सो छापो पड़ गओ, मने ईके पैले का उने पतो नईं रओ के जे ओरें धांधली कर रए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘पतो तो रओ हुइए! बाकी सबूत जुटात रए हुंइए।’’ मैंने कई।
‘‘भैया हरें इत्ते बड़े पैमाने में मनी लांड्रिंग करत रैत आएं औ कोनऊं खो पतो नई परो ऊं टेम पे? बड़ी गजब की कहाई जे बात।’’ भैयाजी बोले। फेर कछू सोचत भए बोले, ‘‘बाकी हमने सुनी सो भौत आए के मनी लांड्रिंग करी जात आए। मनो जे असल में आए का?’’
भैयाजी की बात सुन के उतईं बैठीं भौजी बोल उठीं,‘‘जे लो इत्तई नई पतो? कोनऊं लांड्री वारे के इते मनी छिपा दई रई हंुइए। औ पुलिस वारों खांे पता परी सो उन्ने छापा मार दओ।’’
‘‘का बात भौजी! आपने सो बड़ी नोनी ब्याख्या करी मनी लांड्रिंग की।’’ सच्ची मोय मजो आ गओ भौजी की बात सुन के।
‘‘हऔ, कहूं नईं! ऐसो नईं होत। तुम और कहूं की कहूं दे रईं।’’ भैयाजी भौजी पे बिगरत भए बोले।
‘‘सो का हम गल्त कै रए?’’ भौजी तिनकत भईं बोलीं।
‘‘नईं कई सो आपने सोई ठीक, काय से पईसा बदरबे वारन खों लांड्री वारे ई कओ जाने चाइए। बे करिया खों सुफैद करत रैत आएं।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘बड़ी सयानी बन रईं! तुमे पतो होय सो तुमई बता देओ।’’ भैयाजी चिड़कत भए बोले।
‘मोय सोई ज्यादा सो नई पतो, बाकी इत्तो पतो आए के काले धन को गोरो बनाबे के काम खों मनी लांड्रिंग कओ जात आए। बाकी मैंने कऊं पढ़ो रओ के जे काम तीन तरीका से होत आएं। पैलऊं होत आए प्लेसमेंट। जीमें अवैध रुपइयन खों वैध खातन में डरवा दओ जात आए। दूसरो होत आए लेयरिंग जोन में अवैध रुपइयन खों कई तरीकां से लेन-देन कर के खपा दओ जात आए। औ तीसरो होत आए इंटीग्रेशन, जीके जरिए जे छुपाओ जात आए के जे अवैध रुपया आए कां से।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘तुमें तो भौत पतो आए। काय तुमने अर्थशास्त्र पढ़ी रई का?’’ भैयाजी मोरे ज्ञान पे खुस होत भए पूछन लगे।
‘‘हऔ, बीए में पढ़ी सो रई। मनो ऊं टेम पे मनी लांड्रिंग इत्तो ने होत रई हुइए जभईं हम ओरन के सिलेबस में जो नईं हतो। जे सो मैंने तब पढ़ो रओ जब मनी लांड्रिंग के बड़े-बड़े केस पकरे जान लगे। आप घांई मोय सोई लगो के ससुरो जो आए का? सो ढूंढ-ढांढ के पढ़ डारी।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘अच्छो करो! अब अपन ओरन के लिंगे ऊंसईं सफेद मनी के लाले परे रैत आंए, सो अपन ओरें काली मनी के बारे में कां से जान पैहें?’’ भैयाजी बोले।
‘‘रैन तो देओ! हमें ऊंसई नई चाउने कोनऊं काली-पीली मनी। अपनी जो मेनत की आए, बोई साजी आए।’’ भौजी बोल परीं।
‘‘ठीक गई भौजी! जे सब बड़े-बड़े लोगई कर सकत आएं। उनके सो सोर्स रैत आएं औ उनपे जल्दी कोनऊं हाथ नईं डारत आए। इते तो टैक्स भरबे में तनक देर हो जाए, चाय लोन चुकाबे में तनक देर हो जाए सो नोटिस आ जात आए। तनक औ देर होय सो कुर्की वारे पौंच जात आएं। उते तो मनो ईडी के पैलऊं पौंचबे की कोनऊं की दमई नईं होत।’’ मोय सोई गुस्सा सी आन लगी। काय से के मार्च को मईना आ गओ, औ अब बिगैर इनकम के मोय इनकमटैक्स भरबे खों चक्कर लगाने परहे। कोनऊं सीए के लिंगा पौंच के पतो परहे के मोय कछू छूट मिल रई के नईं। सच्ची, इते तो तनक देर भई सो तुरतईं ईमेल औ एसएमएस आन लगत आए। औ उते? उते तो मनो जेई खों छूट देत रैत आएं के जित्ती जोड़ सके सो जोड़ लेओ, कारो को सुफैद कर लेओ, जां-जां ठिकाने लगानी होय सो लगा लेओ। बाकी जो दिना हमाई-तुमाई ठनकहे बोई दिनां तुमे नाप देबी। तबलौं मजे करो। अब जो कोन सो तरीका आए?
‘‘का सोच लगीं बिन्ना?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मैं जे सोच रई के आपने जबलों ईडी औ छापे की बतकाव छेड़ी तभई से आप के लाने एकऊं ठसकां लौं नई लगो। आपकी खांसी सोई ईडी घांईं लग रई। कभऊं उठत आए कभऊं चुप्प बैठ जात आए।’’ मैंने हंसत भए कई।
‘‘जे तुम ओरें कुल्ल देर से ईडी-ईडी कर रए। जो ईडी का आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘अपनी बिन्ना से पूछो! जे पढ़ी-पढ़ाई बैठीं।’’ भैयाजी अपनी छुपात भैया मोपे तीर चलान लगे।
‘‘हऔ सो मैंने पढ़ी आए! आपके जैसे नोईं। बाकी भौजी, ईडी को फुल फार्म आए डायरेक्ट्रेट आॅफ इनफोर्समेंट। जोन को हिन्दी में कओ जात आए प्रवर्तन निदेशालय।’’ मैंने शान से भौजी खों बताई।
‘‘हमें जे न तुमाई अंग्रेजी में समझ परी औ न हिन्दी में। तुम तो हमें बुंदेली में बताओ’’ भौजी बोल उठीं।
‘‘ईडी औ बुंदेली में? मोय नईं पतो। बाकी इत्तो बता सकत हों के जे एक जांच ऐजेंसी ठैरी। जो जे देखत आए के कोन ने अपने देस से बिदेस में औ बिदेस से अपने देस में करिया पैइसा लाओ लेजाओ आए। ईके संगे उन ओरन पे सोई नजर रखत आए जोन के पास आय से अधिक संपत्ति होत आए। बस, आप सो इत्तई जान लो, काम बन जेहे।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘हमाओ का काम बन जेहे? ने तो हमें बिदेस से करिया धन लाने और ने ले जाने। हम सो ऊंसई पूछ रए हते।’’ भौजी मुस्कात भई बोलीं।
‘‘सो भौजी जे मुफत के ज्ञान ने लेओ! कछू चाय-माय पिला देओ!’’ मैंने सोई भौजी खों छेड़ो।
‘‘हऔ! अभई लेओ!’’ कहत भईं भौजी उठ परीं।
इत्ते में भैयाजी की खांसी को मनो याद आ गई के ऊने भैयाजी खों कुल्ल देर से ठेन नई करो, सो उनको खांसी को दौरा परन लगो। भैयाजी की खांसी मनो ईडी की फांसी को फंदा, जोन के गलो परो, बोई रोत फिरत दिखात आए। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Sunday, February 27, 2022

मौसम ईडी और सीडी का | व्यंग्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


मित्रो, प्रस्तुत है आज "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट "सृजन" में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख "मौसम ईडी और सीडी का" ...😀😊😛
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व्यंग्य | मौसम ईडी और सीडी का
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

देश में चार मौसम पाए जाते हैं। लेकिन एक मौसम ऐसा है जो अकसर चुनाव के मौसम के साथ नत्थी हो कर आ जाता है। ऐसा लोग कहते हैं, मैं नहीं। लेकिन लोगों का कहना बहुत महत्व रखता है। यह हमारे जातीय संस्कार हैं कि हम जनचर्चा में अगाध रुचि रखते हैं। इतनी रुचि कि मोहल्ले की जनचर्चा में भागीदारी आरम्भ करते समय हमारा यही उवाच होता है कि -‘‘मेरे पास बिलकुल टाईम नहीं है, फिर भी पांच मिनट रुक सकती हूं। जो बताना हो जल्दी बताओ।’’ यह जल्दी वाकई जल्दी ही होती है क्योंकि पांच मिनट का कहने के बाद यही कोई पचास मिनट तो जनचर्चा में रुकना हो ही जाता है। अब चूंकि यह पचास घंटे तक भी संभव है इसीलिए पचास मिनट को मैंने जल्दी चर्चा सम्पन्न होना कहा।
इसी तरह की एक जनचर्चा में कल मेरा रुकना हुआ। पांच-छः लोगों को जोड़ कर खड़े हुए भैैयाजी जोर-शोर से बतिया रहे थे। उनकी कृपादृष्टि मुझ पर पड़ी तो दूर से ही चिल्ला कर बुलाने लगे-‘‘अरे लेखिका जी, कहां जा रही हैं? यहां बहुत गंभीर मुद्दे पर चर्चा चल रही है और आप इसमें शामिल नहीं होंगी तो यह चर्चा अधूरी रह जाएगी।’’
स्पष्ट था कि यह मक्खनबाज़ी मुझे रोक कर अपना ज्ञान बखानने के लिए की जा रही थी। यह भी तय था कि अगर मैं नहीं रुकती तो भैया जी बुरा मान जाते। अतः मुझे उनकी टीवी ब्रांड इस जनचर्चा में रुकना पड़ा। टीवी ब्रांड इस लिए कहा मैंने क्योंकि उनकी चर्चाओं में कुल जमा चार-छः लोग ही शामिल रहते हैं लेकिन उनमें कुछ लोग एक साथ इतनी जोरदार आवाज़ में बोलते हैं मानो कोई अच्छा-खासा झगड़ा हो रहा हो। इससे लाभ यह होता है कि बीच-बीच में दो-चार मिनट की भीड़ भी जुड़ती रहती है। लोग झगड़ा देखने का आनंद उठाने के लिए रुकते हैं और जैसे ही उन्हें समझ में आता है कि ये तो टीवी ब्रांड बहस है तो मायूस हो कर आगे बढ़ लेते हैं। जो चीज़ घर में सोफे पर पसर कर या बिस्तर पर औंधे लेट कर देखा जा सकता है उसे देखने के लिए सड़क पर खड़े रह कर क्यों टांगे दुखाई जाएं। फिर टीवी की बहसें देखते समय बारमूडा या मैक्सी में भी नेशनल डिबेट में शामिल होने का अनुभव होता है, वह सड़क की जनचर्चा में कहां? बाकी महिलाओं का मामला अलग है क्योंकि उनकी जनचर्चा के विषय टीवी पर कभी आ ही नहीं सकते हैं, वे तो मोहल्ले में ही संभव हैं कि किसने नई-नई साड़ियां खरीदी, किसके घर नया फ्रिज आ गया या फिर किसके घर में मियां-बीवी के बीच घमासान युद्ध हुआ, आदि-आदि।
हां, तो भैयाजी ने अपनी उस जनचर्चा में मुद्दा उठा रखा था ईडी का। उसका कहना था कि जब भी किसी राज्य में चुनाव के दिन निकट आते हैं तो किसी न किसी बाहुबली के ठिकानों पर ईडी के छापे पड़ जाते हैं। इस मुद्दे पर उन्होंने मेरी राय जाननी चाही,‘‘आप ही बताइए बहनजी, मैं सही कह रहा हूं कि नहीं?’’
‘‘ये तो सरासर तीर-तुक्का है भैयाजी! अरे, चुनाव से ईडी का क्या ताल्लुक? ईडी तो अपनी जानकारी जुटाती रहती है। अब जानकारी जुटाते-जुटाते चुनावों का समय आ जाता है तो इसमें भला ईडी का क्या दोष?’’ मैंने भैयाजी की बात का खंडन करते हुए कहा।
‘‘अरे वाह! आपतो ईडी का पक्ष ले रही हैं। आप क्यों डर रही हैं? आपने कौन-सी मनीलांड्रिंग कर ली है जो आपको ईडी का डर हो?’’ भैयाजी भड़क गए।
‘‘मैं क्यों डरूंगी? मनी लांड्रिंग तो दूर दो साल से तो मैंने कपड़े भी लांड्री में नहीं धुलवाए हैं। मुझे लांड्रिंग-वांड्रिंग से क्या लेना-देना? रहा सवाल चुनाव का तो मुझे कभी चुनाव में खड़े नहीं होना है इसलिए डरने का कोई सवाल ही नहीं है।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, देखिए आपने भी यह बात कह ही दी न कि जो चुनाव में खड़ा होता है उसकी मनी लांड्रिंग पकड़े जाने का ख़तरा होता है।’’ भैया जी खुश हो कह उछल पड़े। उन्होंने मेरे शब्दों को पकड़ जो लिया था।
‘‘देखिए आप मेरी बात को तोड़-मरोड़ रहे हैं, मैंने ऐसा बिलकुल नहीं कहा।’’ मैंने प्रतिवाद किया।
‘‘ठीक है, आपने सीधे-सीधे नहीं कहा लेकिन आड़े-टेढ़े तो कहा।’’ भैयाजी मेरे कथन को अपने समर्थन में साबित करने के लिए कटिबद्ध थे।
‘‘चलिए ठीक है, मैंने कहा तो कहा, लेकिन ये बताइए कि राजनीति में दखल रखने वाले लोग मनी लांड्रिंग जैसा काम करते ही क्यों हैं? अगर ऐसा काम न करें तो चाहे चुनाव का मौसम हो या पतझर का, उन पर ईडी का छापा पड़ेगा ही क्यों? बताइए, आप ही बताइए? चोर चोरी करेगा तो कभी तो पकड़ा ही जाएगा। अब अगर चुनाव के मौसम में पकड़ा जाए तो सब उसे चुनाव से जोड़ कर देखने लगते हैं।’’ मैंने भी अपना पक्ष रखा।
‘‘तो बहन जी, आप क्या सोचती हैं कि ये बाहुबली क्या ऐसे फोकट में बन जाते हैं? उसके लिए मनी की ज़रूरत होती है मनी की। अगर आप बाहुबली हैं तो आपके चुनावी टिकट पाने के आसार मजबूत होते हैं वरना हम-आप जैसों को टिकट न बांट दी जाती?’’ भैयाजी जो खुद भी एकाध बार टिकट पाने का सपना देख चुके हैं, दुखी हो कर बोले।
‘‘भैयाजी, दिल छोटा मत करिए। अच्छे लोगों को भी टिकट मिलती है। रहा सवाल ईडी के छापे का तो क्षेत्रीय चुनावों में तो उम्मींदवारों की आपत्तिजनक फ़र्ज़ी सीडी भी चला दी जाती है। चुनावी मौसम में बहुत कुछ होता है, कुछ संयोग से कुछ दुर्याेग से। आप क्यों इस बहस में पड़ रहे हैं?’’ मैंने भैयाजी को समझाया।
‘‘यही तो चक्कर है बहनजी, चुनाव के दौरान चली आपत्तिजनक सीडी फ़र्जी होती हैं लेकिन ईडी तो सौ बिटकाईन सच होती है।’’ भैया जी बोले। वे सौ टका के बदले सौ बिटकाइन बोलना पसंद करते हैं क्यों कि उनकी पोती टका नहीं जानती है लेकिन बिटकाइन जानती है।
खैर, बहस तो हज़ार पैर वाली सेंटीपीड होती है जो रेंगती-रेंगती किसी भी दिशा में मुड़ सकती है। इसलिए मैंने वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी,‘‘मैं जा रही हूं। वैसे आप चाहे तो ईडी और सीडी के मौसम का आनंद लीजिए। क्योंकि मुझे पता था कि अब चर्चा की दिशा सीडी की ओर मुड़ जाएगी और पिछले चुनावों के किस्से चटखारे ले-लेकर कहे-सुने जाएंगे। बेशक़, चुनावों काल की यही तो खूबी है कि हज़ार संयोग, हज़ार दुर्योग और हज़ार किस्से ईडी और सीडी की तरह मौसम बन कर साथ चले आते हैं।
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(नवभारत, 27.02.2022)
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