मित्रो, प्रस्तुत है आज "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट "सृजन" में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख "मौसम ईडी और सीडी का" ...😀😊😛
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व्यंग्य | मौसम ईडी और सीडी का
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
देश में चार मौसम पाए जाते हैं। लेकिन एक मौसम ऐसा है जो अकसर चुनाव के मौसम के साथ नत्थी हो कर आ जाता है। ऐसा लोग कहते हैं, मैं नहीं। लेकिन लोगों का कहना बहुत महत्व रखता है। यह हमारे जातीय संस्कार हैं कि हम जनचर्चा में अगाध रुचि रखते हैं। इतनी रुचि कि मोहल्ले की जनचर्चा में भागीदारी आरम्भ करते समय हमारा यही उवाच होता है कि -‘‘मेरे पास बिलकुल टाईम नहीं है, फिर भी पांच मिनट रुक सकती हूं। जो बताना हो जल्दी बताओ।’’ यह जल्दी वाकई जल्दी ही होती है क्योंकि पांच मिनट का कहने के बाद यही कोई पचास मिनट तो जनचर्चा में रुकना हो ही जाता है। अब चूंकि यह पचास घंटे तक भी संभव है इसीलिए पचास मिनट को मैंने जल्दी चर्चा सम्पन्न होना कहा।
इसी तरह की एक जनचर्चा में कल मेरा रुकना हुआ। पांच-छः लोगों को जोड़ कर खड़े हुए भैैयाजी जोर-शोर से बतिया रहे थे। उनकी कृपादृष्टि मुझ पर पड़ी तो दूर से ही चिल्ला कर बुलाने लगे-‘‘अरे लेखिका जी, कहां जा रही हैं? यहां बहुत गंभीर मुद्दे पर चर्चा चल रही है और आप इसमें शामिल नहीं होंगी तो यह चर्चा अधूरी रह जाएगी।’’
स्पष्ट था कि यह मक्खनबाज़ी मुझे रोक कर अपना ज्ञान बखानने के लिए की जा रही थी। यह भी तय था कि अगर मैं नहीं रुकती तो भैया जी बुरा मान जाते। अतः मुझे उनकी टीवी ब्रांड इस जनचर्चा में रुकना पड़ा। टीवी ब्रांड इस लिए कहा मैंने क्योंकि उनकी चर्चाओं में कुल जमा चार-छः लोग ही शामिल रहते हैं लेकिन उनमें कुछ लोग एक साथ इतनी जोरदार आवाज़ में बोलते हैं मानो कोई अच्छा-खासा झगड़ा हो रहा हो। इससे लाभ यह होता है कि बीच-बीच में दो-चार मिनट की भीड़ भी जुड़ती रहती है। लोग झगड़ा देखने का आनंद उठाने के लिए रुकते हैं और जैसे ही उन्हें समझ में आता है कि ये तो टीवी ब्रांड बहस है तो मायूस हो कर आगे बढ़ लेते हैं। जो चीज़ घर में सोफे पर पसर कर या बिस्तर पर औंधे लेट कर देखा जा सकता है उसे देखने के लिए सड़क पर खड़े रह कर क्यों टांगे दुखाई जाएं। फिर टीवी की बहसें देखते समय बारमूडा या मैक्सी में भी नेशनल डिबेट में शामिल होने का अनुभव होता है, वह सड़क की जनचर्चा में कहां? बाकी महिलाओं का मामला अलग है क्योंकि उनकी जनचर्चा के विषय टीवी पर कभी आ ही नहीं सकते हैं, वे तो मोहल्ले में ही संभव हैं कि किसने नई-नई साड़ियां खरीदी, किसके घर नया फ्रिज आ गया या फिर किसके घर में मियां-बीवी के बीच घमासान युद्ध हुआ, आदि-आदि।
हां, तो भैयाजी ने अपनी उस जनचर्चा में मुद्दा उठा रखा था ईडी का। उसका कहना था कि जब भी किसी राज्य में चुनाव के दिन निकट आते हैं तो किसी न किसी बाहुबली के ठिकानों पर ईडी के छापे पड़ जाते हैं। इस मुद्दे पर उन्होंने मेरी राय जाननी चाही,‘‘आप ही बताइए बहनजी, मैं सही कह रहा हूं कि नहीं?’’
‘‘ये तो सरासर तीर-तुक्का है भैयाजी! अरे, चुनाव से ईडी का क्या ताल्लुक? ईडी तो अपनी जानकारी जुटाती रहती है। अब जानकारी जुटाते-जुटाते चुनावों का समय आ जाता है तो इसमें भला ईडी का क्या दोष?’’ मैंने भैयाजी की बात का खंडन करते हुए कहा।
‘‘अरे वाह! आपतो ईडी का पक्ष ले रही हैं। आप क्यों डर रही हैं? आपने कौन-सी मनीलांड्रिंग कर ली है जो आपको ईडी का डर हो?’’ भैयाजी भड़क गए।
‘‘मैं क्यों डरूंगी? मनी लांड्रिंग तो दूर दो साल से तो मैंने कपड़े भी लांड्री में नहीं धुलवाए हैं। मुझे लांड्रिंग-वांड्रिंग से क्या लेना-देना? रहा सवाल चुनाव का तो मुझे कभी चुनाव में खड़े नहीं होना है इसलिए डरने का कोई सवाल ही नहीं है।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, देखिए आपने भी यह बात कह ही दी न कि जो चुनाव में खड़ा होता है उसकी मनी लांड्रिंग पकड़े जाने का ख़तरा होता है।’’ भैया जी खुश हो कह उछल पड़े। उन्होंने मेरे शब्दों को पकड़ जो लिया था।
‘‘देखिए आप मेरी बात को तोड़-मरोड़ रहे हैं, मैंने ऐसा बिलकुल नहीं कहा।’’ मैंने प्रतिवाद किया।
‘‘ठीक है, आपने सीधे-सीधे नहीं कहा लेकिन आड़े-टेढ़े तो कहा।’’ भैयाजी मेरे कथन को अपने समर्थन में साबित करने के लिए कटिबद्ध थे।
‘‘चलिए ठीक है, मैंने कहा तो कहा, लेकिन ये बताइए कि राजनीति में दखल रखने वाले लोग मनी लांड्रिंग जैसा काम करते ही क्यों हैं? अगर ऐसा काम न करें तो चाहे चुनाव का मौसम हो या पतझर का, उन पर ईडी का छापा पड़ेगा ही क्यों? बताइए, आप ही बताइए? चोर चोरी करेगा तो कभी तो पकड़ा ही जाएगा। अब अगर चुनाव के मौसम में पकड़ा जाए तो सब उसे चुनाव से जोड़ कर देखने लगते हैं।’’ मैंने भी अपना पक्ष रखा।
‘‘तो बहन जी, आप क्या सोचती हैं कि ये बाहुबली क्या ऐसे फोकट में बन जाते हैं? उसके लिए मनी की ज़रूरत होती है मनी की। अगर आप बाहुबली हैं तो आपके चुनावी टिकट पाने के आसार मजबूत होते हैं वरना हम-आप जैसों को टिकट न बांट दी जाती?’’ भैयाजी जो खुद भी एकाध बार टिकट पाने का सपना देख चुके हैं, दुखी हो कर बोले।
‘‘भैयाजी, दिल छोटा मत करिए। अच्छे लोगों को भी टिकट मिलती है। रहा सवाल ईडी के छापे का तो क्षेत्रीय चुनावों में तो उम्मींदवारों की आपत्तिजनक फ़र्ज़ी सीडी भी चला दी जाती है। चुनावी मौसम में बहुत कुछ होता है, कुछ संयोग से कुछ दुर्याेग से। आप क्यों इस बहस में पड़ रहे हैं?’’ मैंने भैयाजी को समझाया।
‘‘यही तो चक्कर है बहनजी, चुनाव के दौरान चली आपत्तिजनक सीडी फ़र्जी होती हैं लेकिन ईडी तो सौ बिटकाईन सच होती है।’’ भैया जी बोले। वे सौ टका के बदले सौ बिटकाइन बोलना पसंद करते हैं क्यों कि उनकी पोती टका नहीं जानती है लेकिन बिटकाइन जानती है।
खैर, बहस तो हज़ार पैर वाली सेंटीपीड होती है जो रेंगती-रेंगती किसी भी दिशा में मुड़ सकती है। इसलिए मैंने वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी,‘‘मैं जा रही हूं। वैसे आप चाहे तो ईडी और सीडी के मौसम का आनंद लीजिए। क्योंकि मुझे पता था कि अब चर्चा की दिशा सीडी की ओर मुड़ जाएगी और पिछले चुनावों के किस्से चटखारे ले-लेकर कहे-सुने जाएंगे। बेशक़, चुनावों काल की यही तो खूबी है कि हज़ार संयोग, हज़ार दुर्योग और हज़ार किस्से ईडी और सीडी की तरह मौसम बन कर साथ चले आते हैं।
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(नवभारत, 27.02.2022)
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