प्रस्तुत है आज 15.02.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि एवं समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर के काव्य संग्रह "स्याह उजाले" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मुखर प्रतिरोध की लोकधर्मी कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - स्याह उजाले
कवि - रघु ठाकुर
प्रकाशक - देशभारती प्रकाशन, सी-585, गली नं.7, अशोक नगर, निकट रेल्वे फाटक, दिल्ली- 110093
मूल्य - 150 रुपए
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लोगों को चाहिए
हर रोज पूरी तरह,
पौष्टिक, न्याय की रोटी
न्याय की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भर पेट, पौष्टिक प्रति दिन
- जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता की ये पंक्तियां आमजन की पैरवी करती हुई राजनीतिक संवाद करती हैं। ठीक इसी तरह कवि, लेखक एवं समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर की कविताएं समाज के पक्ष में अपना स्वर मुखर करती हैं। वे असंदिग्ध तौर पर राजनीतिक कवि हैं। वे बाजार, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध हैं। उनकी कविताओं में एक विशिष्ट मानवीय ऊष्मा है जिसे अंग्रेजी में ‘‘ग्रैंड ह्यूमैनिटी’’ कहते है। यह उष्मा रघु ठाकुर की कविताओं को जनविमर्श का माध्यम बना देती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि रघु ठाकुर राजसत्ता से तो दूर रहे हैंे किन्तु शब्द की सत्ता पर उनकी जबस्र्दस्त पकड़ है। जीवन के सामयिक संकटापन्न संदर्भों को वे अपनी कविताओं में ढाल कर जीवन के प्रामाणिक पाठ की तरह प्रस्तुत करते हैं। दरअसल रघु ठाकुर स्पष्टवादी हैं। वे अपनी बात कहने में किसी प्रकार की लाग-लपेट का सहारा नहीं लेते हैं। यूं तो रघु ठाकुर की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु ‘‘स्याह उजाले’’ उनका तीसरा काव्य संग्रह है। गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में आयोजित अपने कविता संग्रह ‘स्याह उजाले’ के विमोचन के अवसर पर रघु ठाकुर ने स्पष्टवादिता के साथ मुखर होते हुए कहा था कि ‘‘आज सांसदों की स्थिति अपने दलों में बंधुआ मजदूर जैसी ही है। आज सांसद दूसरों के बारे में तो मुखर हैं, लेकिन अपने बारे में नहीं। सांसदों में अपने दलों के खिलाफ बोलने का साहस नहीं है। इस कविता संग्रह में समाज की पीड़ा का जिक्र करने का प्रयास किया गया है।’’ जो उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा वही सच की आंच उनकी कविताओं में भी देखी जा सकती है।
‘‘स्याह उजाले’’ कविता संग्रह में कुल 49 कविताएं हैं। इनमें एक कविता है ‘‘सुनो लोहिया’’। इस कविता में रघु ठाकुर राजनीति में मौजूद वैचारिक छद्मवाद पर तीखा प्रहार करते हुए कहते हैं कि -
पर, इन चेलों सेध् कैसे बचोगे?
जो पीछे से नारा लगाकर
पीठ में छुरा भोंक रहे हैं
इन गद्दारों से कैसे बचोगे
लोहिया, तुम विरोधियों से जीत गए
पर यह कैसी नियति
कि तुम अपने ही सिपहसालारों
और अपने ही समर्थकों की
फौज से हार गए।
शहरों के विकास के नाम पर हरियाली का जो विनाश हो रहा है उसे देख कर कवि का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। शहरों में लागू की जा रही स्मार्टसिटी संकल्पना के तहत सड़कों का चैड़ीकरण करने के चक्कर में दशकों पुराने पेड़ों को बेरहमी से काटा जा रहा है। यह देख कर कवि शहर को संबोधित करते हुए ‘‘ओ शहर’’ शीर्षक कविता में अपनी पीड़ा व्यक्त करता है तथा व्यवस्था पर कटाक्ष करता है कि -
शहर तुम्हें अब प्रगति के पथ पर चलना है
अब तुम पिछड़े मत रहो
अब तुम्हें स्मार्ट बनना है
यह हरियाली के पल्लव वस्त्र उतार दो
यह तो आदिम मानव के हैं
यह लताओं के वल्कल फेंक दो
यह तो ऋषि-मुनियों के जमाने के हैं
अब तो जींस, पैंट का जमाना है
तुम्हें भी अब कंक्रीट के
वस्त्रों से सजना है।
वैश्वीकरण के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैंठ और श्रम का शोषण देख कर कवि रधु ठाकुर को श्रमिको के भविष्य की चिंता सताने लगती है। वे इस आर्थिक षडयंत्र को भली-भांति समझते हुए अपनी कविता ‘‘भयावह भविष्य’’ में आगाह करते हैं कि-
अब फिरंगी आएंगेध्विदेशी पूंजी लाएंगे
कारखाने बिठाएंगे ध्मुनाफा ले जाएंगे
तुम्हारा सोना भी लूट कर ले जाएंगे
तुम्हारे ही घर में घुसकर
तुम्हें लूट कर ले जाएंगे
तुम्हारे श्रम को ध्सस्ता खरीद कर
तुम्हें वैश्वीकरण पढ़ाएंगे।
सरकारी टैक्स और मंहगाई के समीकरण को आड़े हाथों लेते हुए कवि ने अपने उद्गार प्रकट किए हैं। चुटीलापन लिए हुए एक रोचक कविता है ‘‘बसंतागमन’’। कविता की कुछ पंक्तियां देखिए -
सखी यह कैसो बसंत आयो
कैसे हो उत्साह
जब अपनी ही सरकार ने
बात-बात पर टैक्स लगायो
सखी यह कैसो बसंत आयो?
एक संवेदनशील कवि जिसका सरोकार राजनीति और समाज से समान रूप से हो वह स्त्री की दलित अवस्था को सहन नहीं कर सकता है। कवि इस बात से व्यथित है कि समाज के सारे बंधन स्त्री पर ही थोप दिए जाते हैं गोया स्त्री होना ही उसका सबसे बड़ा अपराध हो। इस संबंध में एक कविता है-‘‘नारी का अपराध’’-
उनका अकेले निकलना गुनाह है
उन्हें घर की चारदीवारी के अलावा
बंद सभी राह है
उनके ऊपर पुरुष का साया जरूरी है
उन्हें एक मर्द की छाया जरूरी है
पर पुरुष माने ऐरा गैरा मर्द नहीं
मित्र नहीं, दोस्त नहीं
केवल खाबिंद की ही हाजरी जरूरी है ...
रघु ठाकुर समय की नब्ज पर उंगली रख कर कविता रचने वाले कवि हैं। वे अपनी कविता के द्वारा न केवल अपने समय का सीधा, तीक्ष्ण और अन्दर तक तिलमिला देने वाला भयावह साक्षात्कार कराते हैं अपितु हर थके-हारे व्यक्ति का साहस जगाते, उसके पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। इसीलिए उनकी कविता में प्रतिरोध, असहमति और कटाक्ष के स्वर मुखर हैं। ‘‘स्याह उजाले’’ की कविताएं समाज और राजनीति में व्याप्त विद्रूपता को दिखाने वाले आईने की भांति हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। यह काव्य संग्रह हर मनोभाव के पाठक के लिए पठनीय और विचारणीय है।
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