Tuesday, February 1, 2022

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली लोक परंपराओं पर महत्वपूर्ण शोधात्मक संग्रह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 01.02.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका श्रीमती जयंती सिंह लोधी की पुस्तक "हमाओ सागर" की समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेली लोक परंपराओं पर महत्वपूर्ण शोधात्मक संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - हमाओ सागर : बुंदेली रीति रिवाज और गायकी
लेखिका - जयंती सिंह लोधी
प्रकाशक- जिज्ञासा प्रकाशन, ई-86, स्वर्ण जयंतीपुरम,  गाजियाबाद,  (उप्र) - 201013
मूल्य   - 100 रुपए 
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लोक संस्कृति हमारी परंपराओं जातीय स्मृतियों तथा रीति-रिवाजों की संवाहक होती है। लोक संस्कृति विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विस्तारित रहती हैं जिस क्षेत्र की जो संस्कृति होती है वह उस क्षेत्र के नाम से ही जानी जाती है। जैसे बुंदेलखंड की संस्कृति बुंदेली संस्कृत कहलाती है। बुंदेली संस्कृति की अपनी एक अलग पहचान, मौलिक अस्मिता और विशेषताएं हैं। संस्कृति का प्रतिबिंब प्रस्तुत करने के लिए किसी एक दर्पण के रूप में एक शहर, एक जिला या एक संभाग की चुना जा सकता है। समीक्ष्य पुस्तक में सागर के रूप में बुंदेली संस्कृति की छवि का आकलन संयोजन एवं प्रस्तुतीकरण देखा जा सकता है। इसीलिए इस पुस्तक का नाम है ‘‘हमाओ सागर: बुंदेली रीत रिवाज और गायकी’’ जिसकी लेखिका है जयंती सिंह लोधी।
सागर जिले के देवरी कला ग्राम में जन्मी जयंती सिंह लोधी सागर शहर की निवासी है तथा वे गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में लिखती हैं। ‘‘हमाओ सागर’’ का सम्पूर्ण कलेवर कुल दस शीर्षकों में विभक्त है- जन्म समय के रीति रिवाज, विवाह के समय के रीति रिवाज, बरात प्रस्थान, चढ़ाव चढ़ाने का गीत, तीज त्योहार और लोकगीत, श्रावण माह का महत्व और गीत, कार्तिक माह का महत्व और गीत, बुंदेली नृत्य और बुंदेली कलाएं, बुंदेली जेवनार और व्यंजन तथा अंतिम अध्याय सारांश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार लेखिका ने पुस्तक में बुंदेली संस्कारों एवं तीज त्योहार से जुड़ी परंपराओं तथा लोकगीतों को सहेजा है। ख्यातिलब्ध समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने पुस्तक की भूमिका लिखते हुए टिप्पणी की है कि ‘‘श्रीमती जयंती सिंह ने बुंदेली यानी बुंदेलखंड की परंपराओं को उनके मौलिक रूप में अपनी पुस्तक में संजोया है तथा उनके साथ ही संदर्भ लोकगीतों को संग्रहित किया है। परंपराएं किसी भी समाज के विकास व स्थिति की प्रमाणिक गवाह होती है। इन परंपराओं में तार्किकता और वैज्ञानिकता और तत्कालीन समाज की चिंताएं भी होती है। साथ ही यह पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति संरक्षण, स्वास्थ्य और समाज के मूल्यों को संरक्षित करने वाली शिक्षिका और मार्गदर्शकाएं भी होती हैं।’’
लेखिका जयंती सिंह लोधी ने ‘‘हमाओ सागर’’ में बुंदेली रीति-रिवाजों और परंपराओं के क्रम को जन्म से जुड़े हुए संस्कारों से आरंभ किया है। जैसा कि पहला अध्याय है ‘‘जन्म समय के रीति रिवाज एवं लोकगीत’’। इस अध्याय में लेखिका ने सोहर गीतों का चयन किया है। जो वस्तुतः गर्भावस्था के दौरान एक स्वस्थ सुंदर संतान के जन्म की सुंदर कल्पना के रूप में गाया जाता है। सोहर लोकगीतों में गर्भवती को बधाइयां दी जाती हैं तथा आने वाली संतान के सुखद भविष्य की कल्पना की जाती है। किंतु  वर्तमान समय में स्थितियां अत्याधुनिक की ओर करवट लेने लगी हैं जिससे इस प्रकार के संस्कार प्रायः पारंपरिक घरों में ही देखने को मिलते हैं। ऐसी स्थिति में लेखिका द्वारा इन सोहर गीतों का संदर्भ सहित संचयन एक महत्वपूर्ण कार्य है। लेखिका द्वारा सहेजे गए सोहर गीत का एक उदाहरण देखें जिसमें सपना देखने के रूप में गर्भावस्था की सूचना दी जा रही है- 
पहले पहर को सपनों सुनो हो
मोरी सास जू महाराज 
चंदा और सूरज मोरे 
अंगना में उग रहे महाराज 
दूजे पहर को सपनों सुनो हो
जिठानी जू महाराज 
गंगा और जमुना दोऊ बहनें
आंगन मोरे बह रही महाराज

इस गीत में चारों पहर के सपने सुनाए गए हैं। इस गीत की विशेषता यह है कि वह चंदा और सूरज जैसे बालकों का सपना देख रही है तो दूसरे पहर में गंगा और जमुना जैसी बालिकाओं का सपना देख रही है, यानी इस लोकगीत में बालक और बालिकाओं में से किसी एक की आकांक्षा न करते हुए दोनों की आकांक्षा की गई है। इस तरह एक बहुत ही सुंदर संदेश इस लोकगीत में निहित है। साथ ही इस बात का द्योतक है कि बुंदेलखंड में परंपरागत रूप से बालिकाओं के प्रति उपेक्षा का भाव नहीं रखा जाता था। इस गीत का चयन प्रथम अध्याय की सार्थकता को बढ़ाता है।      
दूसरा अध्याय है ‘‘विवाह के समय के रीत रिवाज, गीत और उनका महत्व’’। मानव जीवन में गीत का अपना विशेष स्थान है। गीत वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जो सुख, दुख और श्रम सभी स्थितियों से जुड़ी रहती है। जब व्यक्ति प्रसन्न होता है तथा उत्सव और उमंग का अनुभव करता है, तब वह झूम-झूम कर गीत गाने लगता है। जब वह दुखी होता है तो दुख से भरे हुए गीत उसके मन में उमड़ने  लगते हैं। फिर विवाह तो एक ऐसा संस्कार है जिसमें रीति-रिवाजों के अनेक चरण जुड़े रहते हैं जैसे सगाई होने से लेकर और विदाई होने तक। इन सभी संस्कारों में गीत गायन का महत्वपूर्ण स्थान है। जैसे सगाई की रस्म जिससे बुंदेलखंड में ‘‘ओली भराई’’ कहां जाता है, लड़की को वर पक्ष को दिखाने के लिए सजाया जाता है और यह सात सज्जा करते समय जो गीत गाया जाता है उसकी चंद पंक्तियां देखिए-
पहले गणेश मनाओ, मनाओ मोरी बन्नी। 
माथे बन्नी के बैंदी सोहे, 
वेणी में इतर लगाओ, लगाओ मोरी बन्नी। 
कानों में बन्नी के झुमकी सोहे
हां झुमकी सोहे 
आंखों में कजरा लगाओ, लगाओ मोरी बन्नी।

तीसरे अध्याय में बारात प्रस्थान से जुड़ी रस्मों और गीतों की जानकारी है तथा चौथे अध्याय में चढ़ावा चढ़ाने से संबंधित गीतों को सहेजा गया है। इन गीतों में उन गारियों को भी एकत्र किया गया है जिनमें बारातियों से क्यों हल किया जाता है तथा हंसी ठिठोली करते हुए उन पर ताने कसे जाते हैं। इसका उदाहरण देखिए-
कौन गांव से समधी आए 
केबे के हैं रईस मोरी भोंर कली 
बेंदी नईयां हसली नईयां 
टकार लोलक नैया, मोरी भोंर कली।

पांचवें अध्याय में तीज त्योहार और लोकगीत, छठे अध्याय में श्रावण माह का महत्व और गीत, सातवें अध्याय में कार्तिक माह का महत्व और गीत को रखा गया है। आठवें अध्याय में बुंदेली नृत्य और बुंदेली कलाओं को स्थान दिया गया है तथा नवें अध्याय में बुंदेली जेवनार और व्यंजन का विवरण प्रस्तुत है। पुस्तक के अंत में चित्रावली है, जिसमें बुंदेलखंड में आंगन और भित्तियों पर बनाए जाने वाले पारंपरिक चित्रों तथा विभिन्न प्रदर्शनकारी कलाओं से संबंधित छायाचित्र प्रस्तुत किए गए हैं। साथ ही सागर जिले का मानचित्र भी दिया गया है जो इस बात का द्योतक है कि सागर जिले को केंद्र में रखकर बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशेषताओं को इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
वैश्वीकरण और आज के मशीनी युग में जब मनुष्य भी यांत्रिकता ढलता जा रहा है और अपनी रीति-रिवाजों से दूर होता जा रहा है। ऐसे दुरूह समय में कलाओं का संरक्षण दस्तावेज के रूप में ही किया जा सकता है। इस दिशा में जयंती सिंह लोधी कि यह पुस्तक ‘‘हमाओ सागर’’ एक महत्वपूर्ण कृति कही जा सकती है क्योंकि इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति बुंदेली संस्कृति, बुंदेली जनजीवन, उसके रीति रिवाज तथा उसकी कलाओं के बारे में विस्तार से जान सकता है। 
पुस्तक का कव्हर आकर्षक है किंतु शब्दों की अशुद्धियां खटकती हैं, जैसे ‘‘श्रीमती’’ के स्थान पर ‘‘श्रीमति’’, ‘‘मूड’’ की जगह ‘‘मूड़’’, एक ही पैरा में एक बार ‘‘कोरोना’’ शब्द तो दूसरी बार में ‘‘कुरोना’’ शब्द है। लेखिका के परिचय में भी दो भाषाओं के अंकों का प्रयोग किया गया है। कुल मिला कर पुस्तक में प्रूफ रीडिंग और अच्छे संयोजन की भी कमी है। लेखिका द्वारा प्रस्तुत किए गए श्रम साध्य कलेवर के साथ यह दोष खीर में कंकड़ के समान खटकता है किन्तु विषय सामग्री की दृष्टि से यह पुस्तक निःसंदेह महत्वपूर्ण है। लेखिका में संस्कृति एवं स्वस्थ पारंपरिक मूल्यों के प्रति असीम उत्साह है जो उनके द्वारा संकलित किए गए लोकगीतों से स्पष्ट है। इस पुस्तक के रूप में  लेखिका ने बुंदेली परंपराओं को दस्तावेजी रूप में सहेजने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है। यह पुस्तक पठनीय होने के साथ ही संग्रहणीय भी है। वस्तुतः यह एक शोधात्मक पुस्तक है। संग्रहीत की गई सामग्री से ही इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है की लेखिका ने इसे लिखने में बहुत श्रम किया है तथा विश्वसनीय पारंपरिक सामग्री जुटाने का सराहनीय कार्य किया है और इस हेतु वे प्रशंसा के पात्र हैं।   
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