Friday, November 29, 2019

चर्चा प्लस ... डाॅ. गौर की विरासत को सहेजना इतना भी आसान नहीं - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
               
डाॅ. गौर की विरासत को सहेजना इतना भी आसान नहीं
                                                   
 - डाॅ. शरद सिंह  

जीवन सभी जीते हैं। अधिकतर अपने और अपने परिवार के लिए। जो व्यक्ति समाज के लिए जीता है वहीं सच्ची विरासत सौंप कर जाता है। डाॅ. हरी सिंह गौर ने भी समाज की भलाई के लिए शिक्षा का केन्द्र स्थापित किया और  सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक ऐसी विरासत छोड़ गए जिसे सहेजे रखना इतना भी आसान नहीं है जितना कि आमतौर पर मान लिया जाता है। हमें याद रखना होगा कि सच्ची श्रद्धांजलि समारोहों से कहीं अधिक विरासत को पुष्पित-पल्लवित करने में है।      
Charcha Plus - Dr Gour Ki Virasat Ko Sahejna Itna Bhi Aasan Nahi  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
             महाकवि पद्माकर की नगरी सागर में 26 नवम्बर 1870 को एक निर्धन परिवार में जन्मे डाॅ. हरीसिंह गौर के जन्म के समय किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि गरीबी में जन्मा बालक एक दिन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा और अनेक निर्धन छात्रों के लिए उच्चशिक्षा के द्वार खोल देगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी डॉ. हरीसिंह गौर की प्रशंसा में ये पंक्तियां लिख उठेंगे कि -
           ‘‘सरस्वती-लक्ष्मी दोनों ने दिया तुम्हें सादर जय-पत्र,
            साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञानदान का अक्षय सत्र! “
हर व्यक्ति एक सफल व्यक्ति का जीवन जीना चाहता है। डाॅ. हरीसिंह गौर ने इस चाहत को समझा और उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वे बुंदेलखण्ड में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे जहां दुनिया भर से विद्वान आ कर शिक्षा देंगे और बुंदेलखण्ड के युवाओं को विश्व के शैक्षिकमंच तक ले जाएंगे। उनका यह सपना विस्तृत आकार लिए हुए था। उसमें बुंदेली युवाओं के साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले युवाओं और विदेशी युवाओं तक के लिए जगह थी। बल्कि वे विश्व के विभन्न क्षेत्रों के युवाओं में परस्पर संवाद और मेलजोल को ज्ञान के प्रवाह का एक अच्छा माध्यम मानते थे।
डाॅ. हरीसिंह गौर ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, महान दानी, देशभक्त थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। वह स्वप्न था बुंदेलखण्ड को शिक्षा का केन्द्र बनाना। वे आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की भांति एक विश्वविद्यालय की स्थापना बुंदेलखण्ड में करना खहते थे। जिस समय वे बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा केन्द्र का सपना देखा करते थे, उन दिनों बुंदेलखण्ड विकट दौर से गुज़र रहा था। गौरवपूर्ण इतिहास के धनी बुंदेलखण्ड के पास आत्मसम्मान और गौरव से भरे ऐतिहासिक पन्ने तो थे किन्तु धन का अभाव था। अंग्रेज सरकार ने बुंदेलखण्ड को अपने लाभ के लिए छावनियों के उपयुक्त तो समझा लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि यहां औद्योगिक विकास हो जबकि यहां आकूत प्रकृतिक संपदा मौजूद थी। ठग और पिण्डारियों के आतंक को कुचलने वाले अंग्रेज कभी इस बात को महसूस नहीं कर सके कि वह अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता ही थी जिसने ठग और पिण्डारियों को जन्म दिया। अंग्रेजों ने कभी यह नहीं सोचा कि बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा का कोई केन्द्र भी स्थापित किया जा सकता है जिसमें पढ़-लिख कर बुंदेली युवा आमदनी के नए रास्ते पा सकता है।
डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना ‘सागर विश्वविद्यालय’ के नाम से डाॅ. हरीसिंह गौर ने की थी। परतंत्र देश में अपनी इच्छानुसार कोई शिक्षाकेन्द्र स्थापित करना आसान नहीं था। डाॅ. हरीसिंह गौर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी इच्छा प्रकट की। ब्रिटिश सरकार को विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने की अनुमति देने के लिए मनाना टेढ़ीखीर था। अंग्रेज तो यही सोचते थे कि अधिक पढ़ा-लिखा भारतीय उनके लिए कभी भी सिरदर्द बन सकता है। किन्तु एक सकारात्मक स्थिति यह थी कि उस समय तक ब्रिटिश सरकार को इतना तो समझ में आने लगा था कि  अब भारत से उनका दाना-पानी उठने वाला है। एक तो द्वितीय विश्वयुद्ध के वे दुष्परिणाम जिन्हें झेलना ब्रिटेन की नियति बन चुका था और दूसरे भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बढ़ते हुए आंदोलन।  अंततः डाॅ. हरीसिंह गौर अपने स्वप्न को साकार करने की दिशा में एक क़दम आगे बढ़े और उन्हें हग्रटिश सरकार से अनुमति मिल गई। लेकिन शर्त यह थी कि सरकार उस उच्चशिक्षा केन्द्र की स्थापना का पूरा खर्च नहीं उठाएगी। डाॅ. हरीसिंह गौर चाहते तो देश के उन पूंजीपतियों से धन हासिल कर सकते थे जो उनकी विद्वता के कायल थे। लेकिन उन्होंने किसी से धन मांगने के बदले स्वयं एक उदाहरण प्रस्तुत करना उचित समझा और अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की।  आगे चल कर वसीयत द्वारा अपनी पैतृक संपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया।
डाॅ. हरीसिंह गौर ने ‘सागर विश्वविद्यालय’ के स्थापना करके ही अपने दायित्वों कीे समाप्त नहीं समझ लिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इसके विकास के लिए संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसे सहेजने में अपना पूरा श्रम अर्पित किया। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वां विश्वविद्यालय था। सन 1983 में इसका नाम डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। 27 मार्च 2008 से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है। विंध्याचल पर्वत शृंखला के एक हिस्से पथरिया पहाड़ी पर स्थित सागर विश्वविद्यालय का परिसर देश के सबसे सुंदर परिसरों में से एक है। यह करीब 803.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।
डॉ. गौर वही छात्र थे जिन्होंने छात्रवृत्ति के सहारे अपनी पढ़ाई का क्रम जारी रखा था और सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए थे। सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आने के बाद सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में अतिरिक्त सहायक आयुक्त के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल मे वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। उन्हें ‘सर’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था, जिसे उन्होंने बाद में गुलामी की निशानी मानते हुए त्याग दिया था।
डाॅ. गौर की विरासत ‘‘सागर विश्वविद्यालय’’ आज डॉ. सर हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय बन चुका है किन्तु शिक्षा और अनुसंधान के आधार पर इसे वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए हमें समारोही से अधिक श्रमशील बनना होगा तभी हम डाॅ. गौर की इस विरासत को सही मायने में सहेज सकेंगे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 29.11. 2019) #शरदसिंह #सागरदिनकर #दैनिक #मेराकॉलम #Charcha_Plus #Sagar_Dinkar #Daily #SharadSingh                                                   

Tuesday, November 26, 2019

‘‘समाधान में निहित है सफलता’’ - डाॅ. शरद सिंह - दैनिक जागरण के सप्तरंग परिशिष्ट में प्रकाशित

26.11.2019 को दैनिक जागरण के सप्तरंग परिशिष्ट में (संभी संस्करणों में) प्रकाशित मेरा लेख ...
Dainik Jagaran, Saptrang, 26.11.2019 - Dr Sharad Singh Article समाधान में निहित है सफलता - डाॅ. शरद सिंह
 

Thursday, November 21, 2019

‘हरे सोने’ की कला में माहिर है बुंदेलखंड - डॉ. शरद सिंह, नवभारत, 21.11.2019 में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
‘हरे सोने’ की कला में माहिर है बुंदेलखंड
- डॉ. शरद सिंह


( नवभारत, 21.11.2019 में प्रकाशित)

 
बचपन में जब मैं पवन-चकरी यानी पिन-व्हील ले कर दौड़ा करती थी तब मुझे लम्बी डंडी पर लगे रंग-बिरंगे काग़ज़ की सुंदरता लुभाती थी। उस समय इस पर ध्यान नहीं जाता था कि उस पवन-चकरी की वह डंडी हरे सोने की बनी होती थी। बचपन में ढेरों कुल्फियां खाईं। यदि कुल्फी के बीच लगी डंडी मोटी होती थी तो यह सोच कर गुस्सा आता था कि कुल्फीवाले ने इतनी मोटी डंडी का इस्तेमाल क्यों किया? मोटी डंडी होने से कुल्फी की मात्रा कम हो जाती थी, बेशक़ उतनी भी कम नहीं होती थी जितनी कि उन दिनों महसूस होती थी। उस कुल्फी की डंडी भी तो हरे सोने की होती थी। ‘हरा सोना’ अर्थात् बांस।

बुंदेलखंड में बांस एक महत्वपूर्ण वनोपज है। आसानी से उपलब्ध बांस की वजह से बुंदेलखंड में बांस कला फलती-फूलती रही है। आज जब प्लास्टिक से बनी घरेलू वस्तुओं का बोलबाला है, ऐसे समय में भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों में बांस से बनी वस्तुओं को ही शुभ माना जाता है। दैनिक जीवन में बांस से बनी टोकरी और सूपा तो बहुप्रचलित है ही। बुंदेलखंड के हाट-बाज़ार में टोकरियां, सूपा और हाथ-पंखों की दूकानें लगती हैं। बांस से कुर्सी, मेज, लैंप आदि आदि अनेक वस्तुएं बनाई और बेंची जाती हैं। बांस से बनी कलात्मक वस्तुओं को घर में सजावटी सामान के रूप में उपयोग में लाया जाता है। घर में बांस से बनी वस्तुओं का इस्तेमाल होते बचपन से देखा है। पहले कोई घर ऐसा नहीं होता था जिसमें बांस की टोकनी, सूपा, पंखा और महिलाओं का बटुआ न हो। बटुए का उपयोग घर से बाहर तो कम होता था लेकिन घर में मेले से खरीद कर लाई गई वस्तु के रूप में महिलाएं बड़े चाव से सहेज कर रखती थीं। पन्ना के ग्रामीण क्षेत्र में चूना, तंबाखू और पान रखने के लिए बनाए जाने वाला बांस से बना बटुआ भी उपयोग में लाते देखा है जो ग्रामीण मजदूर और किसान काम में लाते हैं। 
 Navbharat -  Hare Sone Ki Kala Me Mahir Hai Bundelkhand  - Dr Sharad Singh
      पन्ना और छतरपुर क्षेत्र में वन परिक्षेत्र की बहुलता ने बांस की उपलब्धता को सुनिश्चित कर रखा है। बांस की उपलब्धता के कारण ही बांस से जुड़ा हस्तशिल्प लोकप्रिय रहा है। बांस-कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती रहती है। अपने बड़े-बूढों को देख-देख कर सीखते रहते हैं। चित्रकूट जिले के राजापुर कस्बे के रामनगर ब्लाक बांस की कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं। राजापुर के बांस-कला के कलाकार मेवालाल का कहना है कि वे साल भर में बांस के सूप और पंखे ही नहीं बल्कि झोले और टोकरी भी बना लेते हैं। वे बांस का झोला बनाने में पारंगत हैं। वे अपना संस्मरण सुनाते हुए बताते हैं कि ‘‘मैं बस में सफर कर रहा था तो कुछ लोगों के हाथ में मंैने बांस का झोला देखा। तभी से मेरे मन में उस झोले को बनाने के लिए उमंग उठी और मैं भी बांस के झोले बनाने लगा।’’ बांस का एक झोला बनाने में उन्हें लगभग तीन दिन लगते हैं जिसके उन्हें डेढ़-दो सौ रुपए तक मिल जाते हैं।
बांस से अनेक प्रकार के उपयोगी सामान बनाए जाते हैं जिनमें बुंदेलखंड के कलाकार माहिर हैं। यह उनके लिए मात्र कला नहीं वरन् आजीविका भी है। उनके लिए यह ‘हरा सोना’ रोजी-रोटी का जरिया है। लेकिन वनक्षेत्र तेजी से सिकुड़ते जाने के कारण वनोपज के रूप में बांस का उत्पादन भी संकटग्रस्त हो चला है। इसीलिए बांस उत्पादन के लिए नवीनतम उपाय अपनाए जाने पर ध्यान दिया जाने लगा है। बुंदेलखंड में खेतों को खाली छोड़ने के बजाए ‘हरा सोना’ यानी बांस की खेती करके किसान अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, यह मानना है कृषि एवं वनोपज वैज्ञानिकों का। एक हेक्टेयर में सिर्फ पांच हजार रुपये निवेश करके बांस को लगाया जा सकता है। यह लगभग 5-6 साल में तैयार हो जाता है। इसके बाद 30 साल तक बांस बढ़ता रहता है। इसीलिए इसे ‘दीर्घकालिक निवेश’ भी माना जाता है। बुंदेलखंड की भूमि के लिए बांस की ‘कटीला’ किस्म उत्तम मानी जाती है। बांस काफी तेजी से बढ़ते है, इसलिए इसको ‘हरा सोना’ भी कहा जाता है। बरसात के सीजन में जुलाई से अगस्त तक इसको लगाया जाता है। पांच से छह साल में बांस तैयार हो जाता है। अक्तूबर से दिसंबर के बीच बांस की कटाई होती है।
बांस की सामग्रियों को दो प्रकार में बांटा सकता है। पहली वे वस्तुएं जिनका दैनिक जीवन में उपयोग होता है और दूसरी वे वस्तुएं जो सजावट के सामान के रूप में जिनकी बिक्री होती है। बुंदेलखंड में बनाए जाने वाले सूपे और टोकरी की मांग दूर-दूर तक रहती है। हाथ के पंखे भी देश के अन्य क्षेत्रों मे बिक्री के लिए भेजे जाते हैं। बांस की वस्तुएं बनाने की लम्बी प्रविधि होती है। पहले सूखे बांस को पानी में डुबो कर रखते हैं। फिर ‘कर्री’ नामक विशेष प्रकार की छुरी से उसे छीला जाता है। उसके बाद इन पट्टियों को पुनः छीलकर और पतला किया जाता है। बांस की पट्टियों से सूपा, झांपी और हाथ-पंखे बनाये जाते हैं। जो मोटी पट्टियां निकालती हैं, उनसे ‘टुकना’, ‘टुकनी’, ‘दौरी’, ‘चोंगरी’, ‘छितका’, ‘पर्रा’ आदि बनाया जाता है। इनका उपयोग अनाज रखने, वनोपज संग्रहण में, बाजार से विभिन्न वस्तुएं लाने-ले जाने के लिए किया जाता है। गोबर या मिटटी से लीपकर बर्तन जैसी बनाई गयी ‘दौरी’, जो प्रायः अनाज रखने के काम आती है। वस्तुएं ऊपर टांगकर रखने के लिए ‘छितका’ बनाया जाता है। झांपी का उपयोग मुर्गे रखने के लिए होता है। वस्तुओं को सुन्दर बनाने के लिए इनकी कुछ पट्टियों और काड़ियों को लाल, पीले और हरे रंग में रंगा जाता है। रंग चढाने के लिए रंग मिले उबले पानी में इन पट्टियों को 2-3 घंटे डुबोकर रखा जाता है। रंगीन और सादी पट्टियों को विशेष ढंग से बुन कर डिज़ाइन बनाई जाती है।
बांस के दरवाजे भी और पार्टीशन भी बनाए जाते हैं। आधुनिक ‘होम डेकोर’ और ‘होटेल डेकोर’ में इनकी बड़ी मांग रहती है। वन विभाग और हस्तशिल्प निगम बांस-शिल्प के अंतर्गत सजावटी वस्तुएं बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं, जिसमें लेटर बॉक्स, टेबल लेम्प, फूलदान, आईने की चैखट, सोफे, टेबल, कुर्सी, झूले आदि बनाना सिखाया जाता है। यहां तक कि बांस से बने हुए महिलाओं के जेवर भी चलन में हैं। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय बांस मिशन शुरू करने के लिए इस बार बजट में 1200 करोड़ रुपये देने का ऐलान किया है। जिससे बांस की खेती करने वालों को बेहतर तकनीकी मदद और बाजार मिल सकेगा और इस ‘हरे सोने’ से जुड़ी हस्तकला को भी बाज़ार मिलता रहेगा।
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चर्चा प्लस .. महामना के बेदाग़ बीएचयू में न लगें भेदभाव के धब्बे - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ..

महामना के बेदाग़ बीएचयू में न लगें भेदभाव के धब्बे

 
- डाॅ. शरद सिंह


महामना मदन मोहन मालवीय ने जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का स्वप्न देखा और उस स्वप्न को पूरा करने का निश्चय किया तो उन्होंने जाति, धर्म, वैचारिक मतभेद सब को भूल कर आर्थिक सहायता जुटाने निकल पड़े। यहां तक कि हैदराबाद के निजाम से भी उन्होंने धनराशि निकलवा ली। यह अपने पवित्र लक्ष्य की ओर उनकी दृढ़ता थी जिसके सामने उनके लिए सब कुछ गौण था। आज उसी विश्वविद्यालय परिसर में जो घटनाएं घटती हैं वे सोचने पर मजबूर कर देती हैं। ऐसे समय याद आती है महामना की महानता।

Charcha Plus - चर्चा प्लस ... महामना के बेदाग़ बीएचयू में न लगें भेदभाव के धब्बे - डाॅ. शरद सिंह  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
      14 नवम्बर, 2019 बीएचयू के राजीव गांधी दक्षिण परिसर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का झण्डा हटाए जाने के विवाद में देहात कोतवाली में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में डिप्टी चीफ प्रॉक्टर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभाग में नियुक्ति पहले मुस्लिम प्रोफेसर फिरोज खान को लेकर परिसर में धरना-प्रदर्शन हुआ। बीएचयू में संस्कृत विभाग में मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति पर प्रोफेसर फिरोज खान ने पूछा, मैं मुस्लिम हूं तो क्या संस्कृत सिखा नहीं सकता? फिरोज ने कहा, संस्कृत से मेरा खानदानी नाता है, दादा गाते थे हिंदुओं के भजन।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मार्ग सरल नहीं था। इसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी आर्थिक व्यवस्था। मदन मोहन मालवीय बाधाओं से घबराने वाले व्यक्ति नहीं थे। वे जो ठान लेते थे, उसे पूरा करके रहते थे। विश्वविद्यालय के लिए वित्तीय व्यवस्था के सम्बन्ध में उन्होंने अपने साथियों को आश्वस्त किया कि वे किसी न किसी तरह से चंदे का जुगाड़ कर लेंगे। उन्होंने घोषणा की कि वे विश्वविद्यालय के लिए जहां भी दान मांगने जाएंगे, किसी भी मूल्य पर खाली हाथ नहीं लौटेंगे। यह एक बहुत बड़ी आश्वस्ति थी और उतनी ही बड़ी चुनौती भी थी।
अपने प्रण को पूरा करते हुए, पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक महामना मदन मोहन मालवीय ने चंदा एकत्र किया था, जो उस समय लगभग एक करोड़ 64 लाख रुपये हुआ था। काशी नरेश ने जमीन दी थी तो दरभंगा नरेश ने 25 लाख रुपये से सहायता की। महामना ने हैदराबाद के निजाम से निवेदन किया कि वे भी विश्वविद्यालय के लिए कुछ आर्थिक सहायता करें, किन्तु निजाम ने कहा कि इस विश्वविद्यालय के नाम से पहले ‘हिन्दू’ शब्द हटाओ फिर दान दूंगा। महामना ने मना कर दिया। तो निजाम ने भी दान देने से मना कर दिया। महामना ने निजाम को बताया कि वे जहां जाते हैं, वहां से दान लिए बिना नहीं लौटते हैं अतः जब तक वे दान नहीं देंगे, तब तक वे हैदराबाद में ही रहेंगे।

‘‘कुछ न कुछ तो आपको देना ही पड़ेगा।’’ पं. मालवीय ने निजाम से कहा।
‘‘ठीक है। आप जिद कर रहे हैं तो लीजिए, ये मेरी पुरानी जूतियां हैं, हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए।’’ निजाम ने अपनी पुरानी जूतियों का एक जोड़ा महामना को देते हुए कहा।
यदि महामना के स्थान पर कोई और होता तो वह निजाम के इस दान पर बौखला उठता किन्तु महामना शांत रहे और उन्होंने जूतियों का जोड़ा सहर्ष स्वीकार कर लिया। महामना जूतियों का जोड़ा लेकर अपने विश्राम-स्थल पर पहुंचे। इसके बाद उसी दिन तीसरे पहर से उन्होंने हैदराबाद में मुनादी करा दी, ‘‘निजाम साहब ने हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए अपनी जूतियां दान में दी हैं। उन जूतियों की नीलामी दूसरे दिन चार मीनार के पास की जाएगी। जो भी व्यक्ति जूती खरीदना चाहे, वह अधिक से अधिक बोली लगाकर निजाम साहब की जूतियों का मालिक बन सकता है।’’
मुनादी की सूचना निजाम तक पहुंची। यह बात उनके लिए अपमानजनक थी कि कोई व्यक्ति उनकी जूतियां उन्हीं के राज्य में धन के लिए नीलाम करे। उन्होंने तत्काल महामना मालवीय को बुलवाया। महामना जूतियां अपने ठहरने के स्थान पर छोड़कर निजाम के पास पहुंचे। निजाम ने महामना को उलाहना दिया कि वे उन्हीं के राज्य में उनकी जूती की नीलामी करके उनका अपमान करने जा रहे हैं। अच्छा होगा कि वे उसी समय हैदराबाद छोड़ कर चले जाएं।
इस पर महामना मालवीय ने शांत स्वर में कहा, ‘‘आपने जो जूतियां दी हैं, उनसे किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं हो सकता है। जूतियों को नीलाम करके उससे मिलने वाली रकम ही निर्माण में सहायक हो सकती है। चूंकि आपकी जूतियों की सबसे अधिक बोली आपके राज्य में ही लग सकती है, अतः मैं जूतियों को यहीं नीलाम करने को विवश हूं।’’
‘‘मैं आपको ऐसा नहीं करने दूंगा। मैं आपको जेल में डाल दूंगा।’’ निजाम ने धमकी दी।
‘‘जैसी आपकी इच्छा। मैं तो वैसे भी दान की रकम लिए बिना वापस नहीं जा सकता हूं।’’ महामना ने उत्तर दिया।
इससे निजाम का क्रोध बढ़ गया और उसने महामना को बंदी बना कर जेल में डाल देने का आदेश दे दिया। महामना को बंदी बनाया जाता कि इसके पहले निजाम के प्रधानमंत्राी ने निजाम को समझाया, ‘‘आप अपना आदेश वापस ले लीजिए। यदि यहां हैदराबाद में महामना को बंदी बनाया गया तो इंडियन नेशनल कांग्रेस से लेकर अंग्रेज सरकार तथा समूचा उत्तर भारत नाराज़ हो जाएगा। यदि वायसराय नाराज़ हो गए तो हैदराबाद की सत्ता खतरे में पड़ जाएगी।’’
प्रधानमंत्री के समझाने पर निजाम को अपनी भूल का अनुभव हुआ। निजाम ने बंदी बनाने का आदेश तो रद्द कर दिया किन्तु महामना से क्षमा भी नहीं मांगना चाहता था। तब महामना मालवीय ने प्रधानमंत्राी से मिलकर निजाम को रास्ता सुझाया क्योंकि महामना का उद्देश्य विश्वविद्यालय के लिए दान की राशि पाना था, निजाम का अपमान करना नहीं। महामना ने सुझाव दिया कि विश्वविद्यालय में छात्रावास तो बन चुके हैं किन्तु अध्यापकों के रहने के लिए घर बनने अभी शेष हैं। यदि निजाम अध्यापकों के लिए घर बनाने के लिए दान की राशि प्रदान कर दे तो उस काॅलोनी का नाम निजाम के नाम पर ‘निजाम हैदराबाद काॅलोनी’ रखा जाएगा। इससे निजाम का यश बढ़ेगा और विश्वविद्यालय को भी सहायता मिल जाएगी, साथ ही जूतियों की नीलामी भी नहीं करनी पड़ेगी।
महामना की इस चतुराई के समक्ष निजाम ने घुटने टेक दिए। उसने अध्यापकों के निवास के लिए रकम दान में दे दी। इस प्रकार हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में ‘निजाम हैदराबाद काॅलोनी’ का निर्माण हुआ। शिक्षा केन्द्र की स्थापना का पवित्र लक्ष्य की ओर उनकी दृढ़ता थी जिसके सामने उनके लिए सब कुछ गौण था। आज उसी विश्वविद्यालय परिसर में जो घटनाएं घटती हैं वे सोचने पर मजबूर कर देती हैं। ऐसे समय याद आती है महामना की महानता।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 20.11. 2019)
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Friday, November 15, 2019

पहचान खो रही है बुंदेलखंड की शजर हस्तकला - डॉ. शरद सिंह , नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
पहचान खो रही है बुंदेलखंड की शजर हस्तकला
- डॉ. शरद सिंह
(नवभारत , 15.11.2019 में प्रकाशित)


10 अगस्त 2018 को अपने लखनऊ दौरे के दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को एक लाख रुपये की कीमत का ताजमहल खूब पसंद आया। इसे बुंदेलखंड के शजर हस्तकला उद्योग के कलाकारों ने बनाया था। शजर एक प्रकार का पत्थर होता है जो बांदा की केन नदी में पाया जाता है। इस पत्थर की विशेषता यह है कि पालिश करने से इसमें फूल-पत्तियां व पेड़ की आकृतियां अपने आप उभर आती हैं। इसी पत्थर से ताजमहल बनाया गया था। बुंदेलखंड शजर हस्तकला उद्योग से जुड़े द्वारिका प्रसाद सोनी के अनुसार राष्ट्रपति ने उनके शजर रत्नों में खूब दिलचस्पी दिखाई। इन पत्थरों से बने लैंप को भी बारीकी से देखा।

आज बहुत कम लोग जानते हैं कि बुंदेलखंड की बेमिसाल कला शजर उद्योग पाया जाता है। दशा यह है कि सरकारी उपेक्षा के चलते दस साल में डेढ़ दर्जन उद्योग बंद हो गए। इससे जुड़े सैकड़ों कारीगर पेट पालने के लिए दूसरे व्यवसाय की ओर मुड़ते जा रहे हैं। यही हाल रहा तो कुछ सालों में शहर का खास शजर उद्योग किवदंती बन जाएगा। कुदरत की अनमोल देन शजर पूरे देश में बांदा में केन नदी में पाया जाता है। जिस पत्थर के द्वारा शजर की कलाकृति तैयार की जाती है उसकी खोज सन् 1800 में तत्कालीन नवाब अली जुल्फिकार अली बहादुर के समय हुई थी। जब कुछ लोग नदी के पत्थर को जमीन में पटककर आग जलाने के काम में इस्तेमाल करते थे। शिकार के लिए निकले नवाब ने जब इन पत्थरों को देखा तो वे इनकी खूबी समझ गए और उन्होंने इन पत्थरों को तराशने का आदेश दिया। उसी समय से यह शजर पत्थर दुनिया की पहचान बना।
 
Navbharat -  Pahchan Kho Rahi Hai Bundelkh Ki Shazar Hastakala  - Dr Sharad Singh

शजर हस्तकला के हस्तशिल्पी द्वारिका सोनी बताते हैं कि है कि सन् 1911 में लंदन में शजर प्रदर्शनी लगी थी। जिसमें हस्त शिल्पी मोती भार्गव शामिल हुए थेे। प्रदर्शनी में खुद रानी विक्टोरिया ने इस नायाब पत्थर के नगीने को अपने गले का हार बनाया था। हस्तशिल्पी द्वारिका सोनी ने शजर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्हें हस्त शिल्प कला के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार मिले। वर्ष 2001 में राष्ट्रीय उद्यान बनाने में पुरस्कृत हुए। 2012 में ताज महल व 2014 में लैंप बनाने में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। 2015 में वह तंजानिया गए और वहां की सरकार ने सम्मानित किया।
धीरे-धीरे शजर कला ने उद्योग का रूप ले लिया। दो दशक पहले तक बांदा में शजर के तीन दर्जन से अधिक कारखाने लगे हुए थे और दो हजार से अधिक कारीगर अपने हाथों से इस कला को तराशने का काम करते थे। लेकिन मेहनत अधिक व मुनाफा कम होने से धीरे-धीरे हस्त शिल्पकारी का कारोबार मंदा पड़ गया। यद्यपि अभी भी विदेशों में शजर कला की मांग अभी भी जारी है। विदेशों में आज भी शजर के कद्रदान मौजूद हैं। दिल्ली, लखनऊ, जयपुर में लगने वाली शजर प्रदर्शनियों में अक्सर ईराक, सऊदी अरब, ब्रिटन आदि देशों के लोग शजर की खरीददारी करते हैं। लेकिन इस कला के मंद पड़ने के साथ ही अब इसके कद्रदानों को मायूसी ही हाथ लग रही है। दूसरा शजर बाजार न होने से भी यह कारोबार धीमा पड़ता जा रहा है। सरकार द्वारा शजर उद्योग को कोई खास प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। कारीगारों के प्रशिक्षण की कोई उम्दा व्यवस्था नहीं है। शिल्पियों ने कई बार शजर कला के विस्तार के लिए कौशल विकास मिशन के तहत अम्बेडकर प्रशिक्षण चलाए जाने की मांग की है। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। न ही शिल्पियों के लिए सब्सिडी में कर्ज आदि दिए जाने की व्यवस्था है।
उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय ने 15 से 18 जून 2019 तक नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में चार दिवसीय वार्षिक मेले का आयोजन किया था। इसमें शजर पत्थर से तैयार की गईं विभिन्न हस्तनिर्मित वस्तुओं के प्रदर्शन और स्टॉल के लिए द्वारिका सोनी को बुलाया गया था। हस्तशिल्पी द्वारिका ने अपने स्टॉल में शजर पत्थर से निर्मित पैंडलिस्ट, शोपीस, हार, अंगूठी, ज्वैलरी, पेपरवेट और ताजमहल को सजाया। यूं तो मेले में दुनिया भर की वस्तुओं के स्टाल लगे थे, लेकिन विदेशियों को शजर पत्थर के स्टॉल ने खास आकर्षित किया। शजरकला की वस्तुओं को खरीदने में उन्होंने दिलचस्पी दिखाई।
बुंदेलखंड हस्तशिल्प का सर्वोत्कृष्ट केन्द्र माना जाता है। चंदेरी की जरी वाली सिल्क साड़ियां तथा हस्तशिल्प का बेजोड़ उदाहरण है। इसी प्रकार बुंदेलखंड का शजर हस्तशिल्प भी पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजा जा रहा है। ये कला हजारों साल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित होती रही हैं और हजारों हस्तशिल्पकारों को रोजगार प्रदान करती हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है भारतीय शिल्पकार किस तरह अपने जादुई स्पर्श से एक बेजान धातु, लकड़ी या हाथी दाँत को कलाकृति में बदलकर भारतीय हस्तशिल्प को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अतुलनीय पहचान दिलाते हैं।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में ऐसी अनेक हस्तकलाएं देखी जा सकती हैं, जो अपने प्रारम्भिक दौर में अत्यन्त संकुचित दायरे के भीतर थीं, किन्तु समय के अनुरुप उनकी मांग बढ़ती चली गई और उन्होंने व्यावसायिक रुप ग्रहण कर लिया। लेकिन व्यावसायिक रुप ग्रहण करने के उपरान्त भी इन कलाओं की अपनी एक मौलिक और क्षेत्रीय पहचान है। किसी भी अन्य क्षेत्र की कला से इनकी तुलना नहीं की जा सकती। शजर हस्तशिल्पी सरकार से चाहते हैं कि बुंदेलखंड में शजर का बाजार स्थापित किया जाए। इसकी सरकारी खरीद हो, हस्त शिल्प शजर कारोबार का व्यापक प्रचार प्रसार कराया जाना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय मेलों में भाग लेने के लिए हस्त शिल्पियों का भी चयन हो। शजर को बढ़ावा देने के लिए ट्रेंनिग प्रोग्राम व कामन फैसीलिटी सेंटर खुलें। शजर उद्योग लगाने के लिए शिल्पियों को ऋण में खास रियायतें दी जाएं। ये बुनियादी मांगे शजर उद्योग को बचाने के लिए हैं। इसमें एक मांग और जोड़ा जाना जरूरी है, वह है केन नदी के संरक्षण का तथा उसे रेत के अवैध खनन से बचाने का। कुलमिला कर ऐसे उद्योगों को समाप्त होने से बचाना जरूरी है जो बुंदेलखंड को आर्थिक विस्तर के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में सक्षम हैं।
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चर्चा प्लस ... संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति - डाॅ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति
- डाॅ. शरद सिंह 


      समय में परिवर्तन के साथ सांस्कृतिक मूल्यों में भले ही संशोधन एवं परिवर्द्धन होता रहे किन्तु वह संस्कृति जो लोक से उत्पन्न होती है, सदा अक्षुण्ण रहती है। लोक संस्कृति को जन्म देता है, गढ़ता है, संवारता और सहेजता है। यही कारण है कि लोक जीवन में जल और पर्यावरण जैसे मूल तत्वों के प्रति सकारात्मक चेतना आज भी पाई जाती है। लिहाजा किसी भी संस्कृति को समझने के लिए उसके लोक को समझना जरूरी है।

 
Charcha Plus - Sanskriti Se Lok Nahin Apitu Lok Se Banti Hai Sanskriti -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चैरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मंा है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। बुंदेलखण्ड में नर्मदा को मां का स्थान दिया गया है। नर्मदा स्नान करने नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उठती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
अरे, ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है। बाम्बुलिया गीत का ही एक और अंश उदाहरणार्थ-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं-
कुआ पूजन - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। ठीक किसी हठी रिश्तेदार की तरह। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हैं तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
सप्तपदी में जल विधान - विवाह में सप्तपदी के समय पर जो पूजन-विधान किया जाता है, उसमें भी जल से भरे मिट्टी के सात कलशों का पूजन किया जाता है। ये सातो कलश सात समुद्रों के प्रतीक होते हैं। इन कलशों के जल को एक-दूसरे में मिला कर दो परिवारों के मिलन को प्रकट किया जाता है।
पूजा-पाठ में जल का प्रयोग - पूजा-पाठ के समय दूर्वा से जल छिड़क कर अग्नि तथा अन्य देवताओं को प्रतीक रूप में जल अर्पित किया जाता है जिससे जल की उपलब्धता सदा बनी रहे।
मातृत्व साझा कराना - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
जिस संस्कृति में पृथ्वी की रक्षा से ले कर पारिवारिक संबंधों की गरिमा तक समुचित ध्यान दिया जाता हो उस संस्कृति में मानवमूल्यों का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहना स्वाभाविक है। वस्तुतः संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। ऐसी भारतीय संस्कृति की नाभि में मानवमूल्य ठीक उसी तरह अवस्थित है जैसे भगवान विष्णु की नाभि में कमल पुष्प और उस कमल पुष्प पर जिस तरह ब्रह्मा विद्यमान हैं, उसी तरह मानवमूल्य पर ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ की लोक कल्याणकारी भावना विराजमान है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 13.07.2019)
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बुंदेलखंड की औषधीय-वनस्पतियों को चुना था च्यवन ऋषि ने - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की औषधीय-वनस्पतियों को चुना था च्यवन ऋषि ने 
 - डॉ. शरद सिंह
( नवभारत , 09.11.2019 में प्रकाशित )
 
बुंदेलखंड आदि काल से ही वनस्पतियों का धनी रहा है। बुंदेलखंड में बहुतायत में जड़ी- बूटियां पाई जाती हैं। बुन्देलखण्ड का भौगोलिक क्षेत्र लगभग 70000 वर्ग किलोमीटर है जोकि वर्तमान हरियाणा, पंजाब तथा हिमाचल से अधिक है। इसमें उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के 13 जनपद तथा समीपवर्ती भू-भाग है जो यमुना और नर्मदा नदी से सिंचित हैं। यदि वनसंपदा की दृष्टि से देखा जाए तो बुन्देलखण्ड में इतने संसाधन है कि वह आर्थिक व्यवस्था स्वयं कर सकता है। किंतु संसाधनों के उचित दोहन के अभाव में तथा कुछ सतरों पर अवैधानिक दोहन के कारण यह क्षेत्र आज भी पिछड़ा हुआ है। अपनी संस्कृति के लिए विख्यात बुंदेलखंड अपने वनसंपदा के लिए भी जाना जाता रहा है। बुंदेलखंड के वन परिक्षेत्रों में उच्च कोटि के सागौन होता है जिसकी गृह निर्माण और फर्नीचर के क्षेत्र में बहुत मांग रहती है। वहीं तेन्दू की पत्तों का बीड़ी उद्योग में उपयोग होने के कारण बुंदेलखंड के हजारों परिवारों का भरण-पोषण होता है। यद्यपि यह उद्योग बीड़ी के चलन में कमी के साथ धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है। बुंदेलखंड के वनों में पाए जाने वाले खैर के वृक्षों पर कत्था उद्योग आधारित है। औषधि निर्माण के लिए कच्चे माल की कमी नहीं है। बबूल, महुआ, शीशम, सहजन, ढाक, तेंदू, खैर, हल्दु, बांस, साल, बेल, पलाश, अर्जुन और औषधीय वनस्पतियों का प्रचुर भंडार हुआ करता था बुंदेलखंड में । महुआ खाने तथा तेल निकालने के काम आता है। बेल, आंवला, बहेरा, अमलतास, अरुसा, सर्पगंधा, गिलोय, गोखरु आदि प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। बुंदेलखंड का ललितपुर जिला वर्षों से औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात रहा है। यही कारण है कि च्यवन ऋषि ने यहां पर अपना आश्रम बनाकर औषधियों को विश्वभर में प्रचलित किया। च्यवन ऋषि की धरती तहसील पाली से सात किलोमीटर दूर है। ग्राम बंट के जंगली क्षेत्र में च्यवन ऋषि का आश्रम था। आज भी यह क्षेत्र घने जंगल में तब्दील है। यहां पर अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। जिले की भौगोलिक स्थित ऐसी है कि पूरा क्षेत्र जड़ी-बूटियों से भरा पड़ा है। खासकर गौना वन रेंज और मड़ावरा के जंगल में बहुतायत में जड़ी बूटियां पाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि च्यवन ऋषि ने बुंदेलखंड में ही च्यवनप्राश बनाया था। च्यवनप्राश का उपयोग करोड़ों लोग स्फूर्ति प्रदान करने वाले टॉनिक के रूप में करते हैं। किन्तु आज इन औषधीय पौधों एवं जड़ी-बूअियों का उत्पादन कम होने से आयुर्वेदिक औषधियों का लाभदायक उद्योग संकट से जूझ रहा है। 
 Navbharat -  Bundelkh Ki Aushadhiya Vanasptiyon Ne chuna tha Chyavan Rishi Ne - Dr Sharad Singh
       औषधीय महत्व के वनोपज में बबूल का भी महत्वपूर्ण स्थान है। बुंदेलखंड के कई स्थानों पर बबूल की गोंद बड़ी मात्रा में एकत्रित की जाती है। शहद एवं लाख आदि का भी उत्पादन होता है। शंखपुष्पी, अश्वगंधा, ब्राह्मी, सफेद मूसली, पलाश, भूमि आंवला, खैर के बीज, गाद, कसीटा, धावड़ा, कमरकस जड़ी- बूटी प्रमुख हैं। विगत वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने औषधीय पौधों जिनमें सफेद मूसली, लेमन, मेंथा, पाल्मारोजा, अश्वगंधा आदि को संरक्षित करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया था। इसके बाद समिति ने 32 औषधियों के विकास के लिए चिन्हित किया था। इसमें आंवला, अशोक, अश्वगंधा, अतीस, बेल, भूमि अम्लाकी, ब्राह्मी, चंदन, गुग्गल, पत्थरचुर, पिप्पली, दारुहल्दी, इसबगोल, जटामांसी, चिरायता, कालमेघ, कोकुम, कथ, कुटकी, मुलेठी, सफेद मूसली, केसर, सर्पगंधा, शतावरी, तुलसी, वत्सनाम, मकोय प्रजाति को संरक्षित करने की योजना तैयार की थी। इनके उत्पादन को बढ़ावा दिए जाने की बात भी सामने आई थी किन्तु आशातीत कार्य नहीं हुआ।
आज से लगभग पन्द्रह-बीस साल पहले औषधि में काम आने वाली सफेद मूसली वनों में भरपूर मात्रा में उत्पन्न होती थी। उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में बसने वाले जनजाति के सहरिया परिवारों की गुजर-बसर इस औषधि के सहारे चलती। लेकिन, अब जंगलों की अवैध कटाई ने इस औषधि की उपलब्धा को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। एक ओर इसकी उपलब्धता घटी है और दूसरी ओर इसके दाम भी बहुत कम मिल पाते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार सफेद मूसली लगभग 100 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकती है जिससे मुसली एकत्र करने वालों को पर्याप्त मुनाफा नहीं मिल पाता है।
वैसे विगत वर्षों में बुंदेलखंड में वानस्पतिक दृष्टि से नई संभावनाओं पर भी गौर किया जा रहा है। जिनमें फूलों की खेती और मशरूम का उत्पादन भी शामिल है। विशेषज्ञों के अनुसार बुंदेलखंड में फूलों की खेती की काफी संभावनाएं हैं। वहीं आयस्टर मशरूम के उत्पादन को भी बढ़ावा दिया जाने लगा है। यह माना जाता है कि आयस्टर मशरूम में औषधीय एवं पौष्टिक गुण पाए जाते हैं। यह वनस्पति जगत के तहत आने वाले खोने योग्य फफंूद है। जिसको गेहूं के भूसे पर उगाया जा सकता है। आयस्टर मशरूम में प्रोटीन खनिज पदार्थ, आयरन फोलिक अम्ल आदि पाए जाते हैं। यह मधु मेह रोगियों, उच्च रक्तचाप को कम करने में मददगार होता है।
विडम्बना यह है कि पहले वनवासी वन संपदा पर अपना अधिकार समझकर खैर, गोंद, शहद, आंवला, आचार, तेंदूफल व सीताफल का संग्रह कर उसे शहर व कस्बों में बेच कर अपने परिवार की भूख मिटाते थे, लेकिन अब इधर वन विभाग वन संपदा पर अपना अधिकार जता कर इन उत्पादों की नीलामी करने लगा है। अब तो वनवासी जंगल में वनोपज पाने के लिए बिना अनुमति के घुस भी नहीं सकते हैं। यदि कहीं बिना अनुमति के जाने पर पकड़े गए तो सज़ा और जुर्माना भुगतना पड़ता है।
विचारणीय है कि जिस भू-भाग को च्यवन ऋषि ने औषधीय बनोपज की उपलब्धता के कारण अपना कर्मक्षेत्र बनाया, उसी भू-भाग को आज अपनी वनसंपदा को तेजी से नष्ट होते देखना पड़ रहा है। शहर गांवों को निगल रहे हैं और गांव जंगलों में प्रवेश करते जा रहे हैं। अवैध कटाई के चलते औषधि और गैर औषधि वाली वनस्पतियां असमय काल का ग्रास बनती जा रही हैं। एक सघन जागरुकता ही च्यवन ऋषि के औषधीय बुंदेलखंड को बचा सकती है।
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बुंदेलखंड से पुराना नाता था सरदार वल्लभ भाई पटेल का - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड से पुराना नाता था सरदार वल्लभ भाई पटेल का
- डॉ. शरद सिंह

(नवभारत में प्रकाशित) 
बुंदेलखंड से लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाता उनके पिता झावेर भाई के समय से रहा। सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। सन् 1857 के पूर्व ही अंग्रेजों के विरुद्ध विभिन्न राज्यों में सुगबुगाहट आरम्भ हो चुकी थी। मराठा नाना साहब एवं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की असम्मानजनक शर्तें मानने से स्पष्ट मना कर दिया था। धीरे-धीरे युद्ध की स्थितियां निर्मित होती जा रही थीं। उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र से नाडियाड आने वाले व्यापारियों के माध्यम से इस सम्बन्ध में छिटपुट समाचार झावेर भाई को मिलते रहते थे। वे भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय कृषकों के साथ किए जाने वाले भेद-भाव से अप्रसन्न थे। एक दिन उन्हें पता चला कि उनके कुछ मित्र नाना साहब की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। झावेर भाई ने भी तय किया कि वे भी सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ेंगे। वे जानते थे कि उनके परिवारजन इसके लिए उन्हें अनुमति नहीं देंगे। अतः एक दिन वे बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े। 
Navbharat -  Bundelkhand Se Purana Nata Tha Sardar Vallabh Bhai Patel Ka  - Dr Sharad Singh
        नाना साहब की सेना में भर्ती होने के उपरांत उन्होंने सैन्य कौशल प्राप्त किया। उस समय तक झांसी की रानी ने ‘अपनी झांसी नहीं दूंगी’ का उद्घोष कर दिया था। सन् 1857 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता करने के लिए नाना साहब अपनी सेना लेकर झांसी की ओर चल दिए। उनकी सेना में झावेर भाई भी थे।
नाना साहब ने अपनी सेना की एक टुकड़ी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल कर दी। इस टुकड़ी में झावेर भाई थे जो रानी लक्ष्मी बाई की सेना के साथ अंग्रेजों से लोहा लेते हुए झांसी से ग्वालियर की ओर बढ़ रहे थे। उस दौरान झावेर भाई ने बुंदेलखंड में एक योद्धा के रूप में अनेक दिन बिताए। दुर्भाग्यवश, रानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजों से घिर गयीं और वीरगति को प्राप्त हुईं तथा झावेर भाई को इन्दौर के महाराजा की सेना ने बंदी बना लिया। अपनी चतुराई और शतरंज के कौशल के सहारे झावेर भाई महाराजा इन्दौर की क़ैद से आजाद हुए।
सागर संभागीय मुख्यालय की रजाखेड़ी नगरपालिका के बजरिया तिराहे पर सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा सरदार पटेल के व्यक्तित्व और विचारों का बुंदेलखंड पर प्रभाव का प्रतीक है। क्यों कि इस प्रतिमा का निर्माण सन् 2015 में लगभग 6 लाख रुपए के निजी खर्च पर कराया गया। इससे पूर्व लगभग साल भर पहले से प्रतिमा के लिए प्लेटफार्म का निर्माण शुरू कर दिया गया था। प्रतिमा जयपुर से बनवाई गई। इस प्रतिमा का निर्माण एवं स्थापना कुर्मी समाज युवा संगठन के जिलाध्यक्ष विजय पटेल ने अपने पिता स्व. शिब्बू दाऊ पटेल की स्मृति में कराया। विजय पटेल इसका कारण बताते हैं कि वे सदा सरदार पटेल के विचारों से प्रभावित रहे जिसकी प्रेरणा उन्हें अपने पिता से मिली। इसीलिए अपने पिता की स्मृति में उन्होंने सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित कराने का निर्णय लिया।
स्वतंत्रता आन्दोलन में वल्लभ भाई का सबसे पहला और बड़ा योगदान खेड़ा आन्दोलन में था। गुजरात का खेड़ा जिला उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से लगान में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो वल्लभ भाई ने महात्मा गांधी के साथ पहुंच कर किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्रेरित किया। अंततः सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी और लगान में छूट दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। इसके बाद उन्होंने बोरसद और बारडोली में सत्याग्रह का आह्वान किया। बारडोली कस्बे में सत्याग्रह करने के लिए ही उन्हंे पहले ‘बारडोली का सरदार’ और बाद में केवल ‘सरदार’ कहा जाने लगा। यह एक कुशलतापूर्वक संगठित आन्दोलन था जिसमें समाचारपत्रों, इश्तिहारों एवं पर्चों से जनसमर्थन प्राप्त किया गया था तथा सरकार का विरोध किया गया था। इस संगठित आन्दोलन की संरचना एवं संचालन वल्लभ भाई ने किया था। उनके इस आन्दोलन के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा था।
महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के दौरान सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार करने आह्वान करते हुए स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वल्लभ भाई ने सदा के लिए वकालत का त्याग कर दिया। इस प्रकार का कर्मठताभरा त्याग वल्लभ भाई ही कर सकते थे।
सरदार पटेल ने अपना महत्वपूर्ण योगदान 1917 में खेड़ा किसान सत्याग्रह, 1923 में नागपुर झंडा सत्याग्रह, 1924 में बोरसद सत्याग्रह के उपरांत 1928 में बारदोली सत्याग्रह में देकर अपनी राष्ट्रीय पहचान कायम की। इसी बारदोली सत्याग्रह में उनके सफल नेतृत्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी और वहां के किसानों ने वल्लभ भाई पटेल को ‘‘सरदार’’ की उपाधि दी। वहीं 1922, 1924 तथा 1927 में सरदार पटेल अहमदाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गये। 1930 के गांधी के नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी के प्रमुख शिल्पकार सरदार पटेल ही थे। 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में सरदार पटेल को अध्यक्ष चुना गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सरदार पटेल को जब 1932 में गिरफ्तार किया गया तो उन्हें गांधी के साथ 16 माह जेल में रहने का सौभाग्य हासिल हुआ। 1939 में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब देशी रियासतों को भारत का अभिन्न अंग मानने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया तभी से सरदार पटेल ने भारत के एकीकरण की दिशा में कार्य करना प्रारंभ कर दिया तथा अनेक देशी रियासतों में प्रजा मण्डल और अखिल भारतीय प्रजा मण्डल की स्थापना करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रजा मण्डल की संकल्पना को अपनाते हुए बुंदेलखंड में भी इसकी इकाइयां गठित की गई थीं। वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे, उनके विचार आज भी बुंदेलखंड की विकासयात्रा का पथप्रदर्शन कर रहे हैं।
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विश्वरंग समारोह, भोपाल (04-10 Nov 19) की Writer's Wall पर डाॅ. शरद सिंह तस्वीर

Dr (Miss) Sharad Singh pic on Vishwarang Bhopal Writers Wall 2019
विश्वरंग समारोह, भोपाल (04-10 Nov 19) की Writer's Wall पर मेरी भी तस्वीर...
फोटो साभार : वरिष्ठ कथाकार आदरणीया उर्मिला शिरीष जी की फेसबुक वॉल से।
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चर्चा प्लस ... पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ - डाॅ. शरद सिंह

चर्चा प्लस ... 

पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ
- डाॅ. शरद सिंह


1 से 3 नवंबर जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पराली के धुंए और प्रदूषण के घने ग़िरफ़्त में थी और दृश्यता घट जाने के कारण 32 उड़ानों का मार्ग बदला गया, बच्चों के स्कूल बंद कर दिए गए, ठीक उसी दौरान दिल्ली में देश-विदेश से साहित्यकार, कलाकार एवं विशेषज्ञ साहित्य आजतक में जुड़े। चिंता थी साहित्य के प्रत्येक पक्ष की। महत्वपूर्ण मुद्दे, महत्वपूर्ण चर्चाएं और उस पर बही बुंदेलखंड की बयार। आंखों में जलन अैर आंसू के बीच साहित्य के भविष्य की किरण जगमगाती रही।

Charcha plus a column of Dr (Miss)Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily, चर्चा प्लस ... पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ - डाॅ. शरद सिंह

*साहित्य की बेड़ियां कौन-सी हैं, उन्हें किस तरह काटा जा सकता है, उनसे किस तरह आजाद हुआ जा सकता है? यह विषय था चर्चा का जिसमें मुझे चर्चाकार के रूप में राष्ट्रीय टी.वी. चैनल ‘आजतक’ द्वारा आमंत्रित किया गया था। पेड़ की सघन शाखाएं जिनमें साहित्य के प्रतिनिधि अक्षर बड़ी खूबसूरती से हवा में डोल रहे थे, ठीक उसी के नीचे था मंच और मंच के सामने अर्द्धगोलाकार एरीना जिस पर युवाओं की उपस्थिति इस बात की गवाही दे रही थी कि साहित्य के प्रति युवाओं का रुझान आज भी आशाजनक है। बहरहाल, ‘‘हल्ला बोल’’ स्टेज नं-3, एम्फी थिएटर के मंच पर आयोजित इस चर्चा में आजतक की ओर से चर्चा के प्रखर सूत्रधार थे नवीन कुमार। पहला प्रश्न उन्होंने मुझसे ही किया कि मेरे उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के संदर्भ में कि वे कौन-सी बेड़ियां है जिनसे महिलाएं बंधी हुई हैं? मैंने उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए बेड़िया समाज की स्त्रियों के स्वाभिमान और संघर्ष के बारे में बताया। एक प्रश्न और किया उन्होंने मुझे से समाज, राजनीति और साहित्य के परस्पर संबंध के विषय में। मैंने अपने विचार खोल कर रख दिए कि साहित्य और राजनीति के बीच संतुलित संबंध होना चाहिए। यदि साहित्यकार सरकार के सामने एक भिखारी की तरह खड़ा रहेगा लाभ की आशा में तो वह कभी निष्पक्ष साहित्य नहीं रच सकेगा। मैंने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में कहा कि बेड़िया हमीं ने बनाई हैं किसी एलियन (परग्रही) ने नहीं और हमें ही उन्हें तोड़ना होगा। फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो का वह वाक्य भी मैंने याद दिलाया कि ‘हम स्वतंत्र जन्म लेते है फिर सर्वत्र बेड़ियों में जकड़े रहते हैं।’ इस अवसर पर विभिन्न बिन्दुओं पर खुल कर चर्चाएं हुईं साथ ही चर्चा में सहभागी लेखक भगवानदास मोरवाल की नवीन पुस्तक के लोकार्पण करने का सुखद अवसर भी मिला। समाज से जुड़ी चिंताओं पर जब कोई नई पुस्तक आती है तो लगता है कि साहित्यिक जागरूकता की दिशा में हम एक क़दम और आगे बढ़े हैं।*
इसी मंच पर अनेक चर्चाएं हुईं जिनमें से एक महत्वपूर्ण चर्चा थी ‘‘विचारधारा का साहित्य’’। इसमें चर्चाकार थे सुधीश पचैरी, सच्चिदानंद जोशी और अनंत विजय। विचारधारा के अनुसार साहित्य रचा जाए अथवा साहित्य विचारधारा को दिशा दे, इस पर खुल कर चर्चा हुई। चर्चा के दौरान सम्मान और पुरस्कारों के समीकरणों के रहस्य में उजागर किए गए। समूची चर्चा चैंका देने वाली रही। कम से कम उनके लिए जो दिल्ली के साहित्याकाश की छाया से दूर बैठ कर ‘‘बड़े नामों’’ माला जपा करते हैं। इसी मंच पर पहले दिन पहले दिन ‘‘साहित्य का राष्ट्रधर्म’’ मुद्दे पर चर्चा हुई। जिसमें नंदकिशोर पांडेय, ममता कालिया और अखिलेश जैसे वरिष्ठ लेखक शामिल हुए। इस सेशन का संचालन रोहित सरदाना ने किया। सेशन में देश के माहौल, आंदोलन और उसके प्रति लेखकों के विचार पर मंथन हुआ।
कैलाश खेर के ‘‘कैलाशा’ से उद्घाटित यह साहित्य कुंभ अनेक मायने में महत्वपूर्ण रहा। सबसे बड़ी बात कि यहां दबदबा हिन्दी का था। अन्य भारतीय भाषाओं को भी आगे रखा गया था, अंग्रेजी की अपेक्षा। सुरेन्द्र मोहन पाठक, सुधीश पचौरी, राहुल देव, अशोक वाजपेयी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, पुष्पेशपंत, सदानंद शाही जैसे हिन्दी साहित्य जगत् के दिग्गज एक परिसर में जब एकत्र हों तो वातावरण स्वतः साहित्यमय हो जाता है। हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के साथ ही अनूप जलोटा, पंकज उद्धास, इम्तियाज अली, स्वानंद किरकिरे, मनोज मुंतशिर, वसीम बरेलवी, राहत इन्दौरी, अनुपम खेर, आशुतोष राणा, मनोज तिवारी, शैलेष लोढ़ा जैसे सेलीब्रटीज़ ने सतरंगी छटा बिखेरते हुए चिंता और चिंतन को एक अलग ही ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।
1 नवंबर 2019 जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पराली के धुंए और प्रदूषण की वजह से दृश्यता घट जाने के कारण 32 उड़ानों का मार्ग बदल दिया गया। स्कूलों को पांच दिन के लिए बंद कर दिया गया। उस दिन *साहित्य आजतक के स्टेज नंबर-1 पर लोकप्रिय अभिनेता आशुतोष राणा ने अपनी किताब ‘ मौन मुस्कान की मार’ के अंश पढ़े। इन बुंदेली वाक्यों को सुन कर मन गदगद हो गया। भले ही वे वाक्य कटाक्ष के तीर थे जैसे-‘‘हप्तों गोली चलहें, महीनों घर के आदमी बीनहें।’’ ‘‘छोटे हम मार हें ऐंठ के, औ तुम रोहो बैठ के’’, ‘‘को का कै रौ, कै रौ सो रै नई रओ।’’ ‘‘हम निंबुआ सों मीड़ देहें, सो बीजा घाईं सबरे दांत बाहर आ जेहें।’’ राष्ट्रीय राजधानी की अंग्रेजीयत भरी जमीन पर बुंदेली के ऐसे चुटीले वाक्यों ने आत्मीयता के बोध से भर दिया और समूचा बुंदेलखंड वहीं उपस्थित प्रतीत होने लगा।*
इस साहित्य कुंभ में कला जगत से जुड़े ज्वलंत प्रश्न में उठाए गए। साहित्य आज तक के मंच पर मॉडरेटर अंजना ओम कश्यप ने इम्तियाज से सवाल किया- ‘‘देखा गया है कि बॉलीवुड में तीनों खान का दबदबा है. हाल ही में पीएम मोदी के साथ तीनों की बातचीत को बताया गया कि ये भी मौजूदा सरकार के सामने नतमस्तक हो गए? क्या फिल्म इंडस्ट्री में राष्ट्रवाद मोदीवाद में परिवर्तित हो गया है?’’ जवाब में इम्तियाज अली ने कहा- ‘‘एक पीएम अगर आपको न्योता देते हैं कि आइए अपने विचार व्यक्त करिए, मैं गांधी के ऊपर फिल्मों को बनाना चाहता हूं. तो कोई किस कारण से नहीं जाएगा? ऐसी कोई बात नहीं थी कि कोई ना जाए. इसलिए सारे लोग गए. मैं मानता हूं कि सारी दुनिया में लोग उत्तेजित हैं. मुझे लगता है कि लहर की तरह ये भी गुजर जाएगा. हमें अपनी जगह नहीं छोड़नी है.’’.
वैसे देखा जाए तो इस समय साहित्य को यदि सबसे बड़ा खतरा किसी बात से है तो वैचारिक कट्टरता से। साहित्य को समाज और मानवता के पक्ष में खड़े रहना चाहिए, वाद या विवाद के पक्ष में नहीं। जब साहित्य समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े इंसान की बात करता रहेगा तब तक साहित्य निष्पक्ष और प्रभावी रहेगा। जिस दिन साहित्य कट्टरता के आगे घुटने टेक देगा उस दिन साहित्य निरर्थक और निष्प्रभावी हो जाएगा।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 06.11.2019)
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Tuesday, November 5, 2019

साहित्य की भी बेड़ियां हैं तो फिर कैसे एक रचनाकार दुनिया को आजादी सौंपता...



साहित्य की बेड़ियां

साहित्य आजतक के मंच पर बाएं से आजतक के एंकर नवीन कुमार , भगवानदास
मोरवाल , डॉ. शरद सिंह साहित्य की बेड़ियां पर चर्चा करते
हुए।