Friday, November 29, 2019

चर्चा प्लस ... डाॅ. गौर की विरासत को सहेजना इतना भी आसान नहीं - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
               
डाॅ. गौर की विरासत को सहेजना इतना भी आसान नहीं
                                                   
 - डाॅ. शरद सिंह  

जीवन सभी जीते हैं। अधिकतर अपने और अपने परिवार के लिए। जो व्यक्ति समाज के लिए जीता है वहीं सच्ची विरासत सौंप कर जाता है। डाॅ. हरी सिंह गौर ने भी समाज की भलाई के लिए शिक्षा का केन्द्र स्थापित किया और  सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक ऐसी विरासत छोड़ गए जिसे सहेजे रखना इतना भी आसान नहीं है जितना कि आमतौर पर मान लिया जाता है। हमें याद रखना होगा कि सच्ची श्रद्धांजलि समारोहों से कहीं अधिक विरासत को पुष्पित-पल्लवित करने में है।      
Charcha Plus - Dr Gour Ki Virasat Ko Sahejna Itna Bhi Aasan Nahi  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
             महाकवि पद्माकर की नगरी सागर में 26 नवम्बर 1870 को एक निर्धन परिवार में जन्मे डाॅ. हरीसिंह गौर के जन्म के समय किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि गरीबी में जन्मा बालक एक दिन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा और अनेक निर्धन छात्रों के लिए उच्चशिक्षा के द्वार खोल देगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी डॉ. हरीसिंह गौर की प्रशंसा में ये पंक्तियां लिख उठेंगे कि -
           ‘‘सरस्वती-लक्ष्मी दोनों ने दिया तुम्हें सादर जय-पत्र,
            साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञानदान का अक्षय सत्र! “
हर व्यक्ति एक सफल व्यक्ति का जीवन जीना चाहता है। डाॅ. हरीसिंह गौर ने इस चाहत को समझा और उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वे बुंदेलखण्ड में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे जहां दुनिया भर से विद्वान आ कर शिक्षा देंगे और बुंदेलखण्ड के युवाओं को विश्व के शैक्षिकमंच तक ले जाएंगे। उनका यह सपना विस्तृत आकार लिए हुए था। उसमें बुंदेली युवाओं के साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले युवाओं और विदेशी युवाओं तक के लिए जगह थी। बल्कि वे विश्व के विभन्न क्षेत्रों के युवाओं में परस्पर संवाद और मेलजोल को ज्ञान के प्रवाह का एक अच्छा माध्यम मानते थे।
डाॅ. हरीसिंह गौर ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, महान दानी, देशभक्त थे। उन्होंने एक स्वप्न देखा था। वह स्वप्न था बुंदेलखण्ड को शिक्षा का केन्द्र बनाना। वे आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की भांति एक विश्वविद्यालय की स्थापना बुंदेलखण्ड में करना खहते थे। जिस समय वे बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा केन्द्र का सपना देखा करते थे, उन दिनों बुंदेलखण्ड विकट दौर से गुज़र रहा था। गौरवपूर्ण इतिहास के धनी बुंदेलखण्ड के पास आत्मसम्मान और गौरव से भरे ऐतिहासिक पन्ने तो थे किन्तु धन का अभाव था। अंग्रेज सरकार ने बुंदेलखण्ड को अपने लाभ के लिए छावनियों के उपयुक्त तो समझा लेकिन यह कभी नहीं चाहा कि यहां औद्योगिक विकास हो जबकि यहां आकूत प्रकृतिक संपदा मौजूद थी। ठग और पिण्डारियों के आतंक को कुचलने वाले अंग्रेज कभी इस बात को महसूस नहीं कर सके कि वह अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता ही थी जिसने ठग और पिण्डारियों को जन्म दिया। अंग्रेजों ने कभी यह नहीं सोचा कि बुंदेलखण्ड में उच्चशिक्षा का कोई केन्द्र भी स्थापित किया जा सकता है जिसमें पढ़-लिख कर बुंदेली युवा आमदनी के नए रास्ते पा सकता है।
डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना ‘सागर विश्वविद्यालय’ के नाम से डाॅ. हरीसिंह गौर ने की थी। परतंत्र देश में अपनी इच्छानुसार कोई शिक्षाकेन्द्र स्थापित करना आसान नहीं था। डाॅ. हरीसिंह गौर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी इच्छा प्रकट की। ब्रिटिश सरकार को विश्वविद्यालय स्थापित किए जाने की अनुमति देने के लिए मनाना टेढ़ीखीर था। अंग्रेज तो यही सोचते थे कि अधिक पढ़ा-लिखा भारतीय उनके लिए कभी भी सिरदर्द बन सकता है। किन्तु एक सकारात्मक स्थिति यह थी कि उस समय तक ब्रिटिश सरकार को इतना तो समझ में आने लगा था कि  अब भारत से उनका दाना-पानी उठने वाला है। एक तो द्वितीय विश्वयुद्ध के वे दुष्परिणाम जिन्हें झेलना ब्रिटेन की नियति बन चुका था और दूसरे भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बढ़ते हुए आंदोलन।  अंततः डाॅ. हरीसिंह गौर अपने स्वप्न को साकार करने की दिशा में एक क़दम आगे बढ़े और उन्हें हग्रटिश सरकार से अनुमति मिल गई। लेकिन शर्त यह थी कि सरकार उस उच्चशिक्षा केन्द्र की स्थापना का पूरा खर्च नहीं उठाएगी। डाॅ. हरीसिंह गौर चाहते तो देश के उन पूंजीपतियों से धन हासिल कर सकते थे जो उनकी विद्वता के कायल थे। लेकिन उन्होंने किसी से धन मांगने के बदले स्वयं एक उदाहरण प्रस्तुत करना उचित समझा और अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की।  आगे चल कर वसीयत द्वारा अपनी पैतृक संपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया।
डाॅ. हरीसिंह गौर ने ‘सागर विश्वविद्यालय’ के स्थापना करके ही अपने दायित्वों कीे समाप्त नहीं समझ लिया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इसके विकास के लिए संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसे सहेजने में अपना पूरा श्रम अर्पित किया। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वां विश्वविद्यालय था। सन 1983 में इसका नाम डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। 27 मार्च 2008 से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है। विंध्याचल पर्वत शृंखला के एक हिस्से पथरिया पहाड़ी पर स्थित सागर विश्वविद्यालय का परिसर देश के सबसे सुंदर परिसरों में से एक है। यह करीब 803.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। डॉ. सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।
डॉ. गौर वही छात्र थे जिन्होंने छात्रवृत्ति के सहारे अपनी पढ़ाई का क्रम जारी रखा था और सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए थे। सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आने के बाद सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में अतिरिक्त सहायक आयुक्त के रूप में उनकी नियुक्ति हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल मे वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। उन्हें ‘सर’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था, जिसे उन्होंने बाद में गुलामी की निशानी मानते हुए त्याग दिया था।
डाॅ. गौर की विरासत ‘‘सागर विश्वविद्यालय’’ आज डॉ. सर हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय बन चुका है किन्तु शिक्षा और अनुसंधान के आधार पर इसे वैश्विक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए हमें समारोही से अधिक श्रमशील बनना होगा तभी हम डाॅ. गौर की इस विरासत को सही मायने में सहेज सकेंगे।
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